Sunday 28 October 2012

सूरह क़सस २८- २० वाँ पारा

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.


सूरह क़सस २८- २० वाँ पारा
(दूसरी क़िस्त) 

कितनी बड़ी विडंबना है कि एक तरफ तो हम नफ़रत का पाठ पढाने वालों को सम्मान देकर सर आँखों पर बिठाते हैं, उनकी मदद सरकारी कोष से करते हैं, उनके हक में हमारा क़ानून  भी है, मगर जब उनके पढे पाठों का रद्दे अमल होता है तो उनको अपराधी ठहराते हैं. ये हमारे मुल्क और क़ौम का दोहरा मेयार है. धर्म अड्डों धर्म गुरुओं को खुली छूट कि वोह किसी भी अधर्मी और विधर्मी को एलान्या गालियाँ देता रहे, भले ही सामने वाला विशुद्ध मानव मात्र हो या योग्य कर्मठ पुरुष हो अथवा चिन्तक नास्तिक हो. इनको कोई अधिकार नहीं की यह अपनी मान हानि का दावा कर सकें. मगर उन मठाधिकारियों को अपने छल बल के साथ न्याय का संरक्षन मिला हुवा है. ऐसे संगठन, और संसथान धर्म के नाम पर लाखों के वारे न्यारे करते हैं, अय्याशियों के अड्डे होते हैं और अपने स्वार्थ के लिए देश को खोखला करते हैं.
इन्हीं के साथ साथ हमारे मुल्क में एक कौम है मुसलमानों की जिसको दुनयावी दौलत से ज़्यादः आसमानी दौलत की चाह है. यह बात उन के दिलो दिमाग में सदियों से इस्लामी ओलिमा (धर्म गुरु) भर रहे हैं, जिनका ज़रीआ मुआश (भरण-पोषण) इस्लाम प्रचार है. हिंदुत्व की तरह ये भी हैं. मगर इनका पुख्ता माफिया बना है. इनकी भेड़ें न सर उठा सकती हैं न कोई इन्हें चुरा सकता है. बागियों को फ़तवा  की तौक़ पहना कर बेयारो-मददगार कर दिया जाता है. कहने को हिदू बहु-संख्यक भारत में हैं मगर क्षमा करें धन लोभ और धर्म पाखण्ड ने उनको कायर बना रखा है, १०% मुस्लमान उन पर भारी है, तभी तो गाँव गाँव, शहर शहर मदरसे खुले हुए हैं जहाँ तालिबानी की तलब और अलकायदा के कायदे बच्चों को पढाए जाते हैं. 
भारत में जहाँ एक ओर पाखंडियों, और लोभियों की खेती फल फूल रही है वहीँ दूसरी और तालिबानियों और अल्काय्दयों की फसल तैयार हो रही है..सियासत दान देश के इतिहास में अपना नाम दर्ज कराने में बद मस्त हैं. 
क्या दुन्या के मान चित्र पर कभी कोई भारत था? क्या आज कहीं को भारत है? धर्म और मज़हब की अफीम खाए हुए, लोभ और अमानवीय मूल्यों को मूल्य बनाए हुए क्या हम कहीं से देश भक्त भारतीय भी हैं? नकली नारे लगाते हुए, ढोंग का परिधान धारण किए हुए हम केवल स्वार्थी ''मैं'' हूँ. हम तो मलेशिया, इंडोनेशिया तक भारत थे, थाई लैंड, बर्मा, श्री लंका और काबुल कंधार तक भारत थे. कहाँ चला गया भारत? अगर यही हाल रहा तो पता नहीं कहाँ जाने वाला है भारत. 
भारत को भारत बनाना है तो अतीत को दफ़्न करके वर्तमान को संवारना होगा, धर्म और मज़हब की गलाज़त को कोडों से साफ़ करना होगा. मेहनत कश अवाम को भारत का हिस्सा देना होगा न कि गरीबी रेखा के पार रखना और कहते रहना की रूपिए का पंद्रह पैसा ही गरीबों तक पहुँच पाता है.

सूरह क़सस मुहम्मद ने किसी पढ़े लिखे संजीदा शख्स  से लिखवाई है . इसे पढने के बाद आसानी से अंदाज़ा लगाया जा सकता है. हराम  ज़ादे  आलिमों को खूब पता है मगर उन्हों ने सच न बोल्लने की क़सम जो खा राखी है. न सच बोलेंगे, न सच सुनेंगे और न सच महसूस करेंगे.    

लीजिए महसूस कीजिए गैर अल्लाह के कुरआन को, मगर हाँ! क़ि इस मुजरिम ने मुहम्मद की उम्मियत की इस्लाह की है, कलम में मुहम्मद का हम सर ही है - - -   

मूसा सफ़र में था और रात का वक़्त कि इसने कोहे तूर पर एक रौशनी देखी, वह इसकी तरफ खिंच गया, अपने घर वालों से ये कहता हुवा कि तुम यहीं रुको मैं आग लेकर आता हूँ. वहीँ पर अल्लाह इसको अपना पैगम्बर चुन लेता है.
सूरह क़सस २८- २० वाँ पारा (आयत-२५-३०)

इस मौक़े पर मुहाविरा है कि "मूसा गए आग लेने और मिल गई पैगम्बरी"
अल्लाह फिरौन की सरकूबी के लिए मूसा को दो मुअज्ज़े देता है, पहला उसकी लाठी का सांप बन जाना और दूसरा यदे-बैज़ा(हाथ की गदेली पर अंडे की शक्ल का निशान) और मूसा के इसरार पर उसके भाई हारुन को उसके साथ का देना क्यूंकि मूसा की ज़ुबान में लुक्नत (हकलाहट)  थी.
ये दोनों फिरौन के दरबार में पहुँच कर उसको हक की दावत देते हैं (यानी इस्लाम की) और अपने मुअज्ज़े दिखलाते हैं जिस से वह मुतासिर नहीं होता और कहता है यह तो निरा जादू के खेल है. फिर भी नए अल्लाह में कुछ दम पाता है. फिरौन अपने वजीर हामान को हुक्म देता है कि एक निहायत पुख्ता और बुलंद इमारत की तामीर की जाए कि इस पर चढ़ कर मूसा के इस नए (इस्लामी) अल्लाह की झलक देखी जाए.
सूरह क़सस २८- २० वाँ पारा (आयत-३१-३८)

अल्लाह इसके आगे अपनी अजमत, ताक़त और हिकमत की बखान में किसी अहमक की तरह लग जाता है और अपने रसूल मुहम्मद की शहादत ओ गवाही में पड़ जाता है और मूसा के किससे को भूल जता है. आगे की आयतें कुरानी खिचड़ी वास्ते इबादत हैं.
सूरह क़सस २८- २० वाँ पारा (आयत-३९-८८)
याद रहे कुरान किसी अल्लाह का कलाम नहीं है, मुहम्मद की वज्दानी कैफियत है, जेहालत है और खुराफाती बकवास है.
मैंने महसूस किया है कि कुरान की दो सूरतें किसी दूसरे ने लिखी है जो तालीम याफ्ता और संजीदा रहा होगा, मुहम्मद ने इसको कुरान में शामिल कर लिया. इस सिलसिले में सूरह क़सस पहली है, दूसरी आगे आएगी. इसे कारी आसानी से महसूस कर सकते हैं. किस्साए मूसा और किस्साए सुलेमान में आसानी से ये फर्क महसूस किया जा सकता है. इस सूरह में न क़वायद की लग्ज़िशें हैं न ख्याल की बेराह रावी.
देखें इस सूरह क़सस की कुछ आयतें जो खुद साबित करती है कि यस उम्मी मुहम्मद की नहीं, बल्कि किसी ख्वान्दा की हैं. - - -

"और हम रसूल न भी भेजते अगर ये बात न होती कि उन पर उनके किरदार के सबब कोई मुसीबत नाजिल हुई होती, तो ये कहने लगते ऐ हमारे परवर दिगार कि आपने हमारे पास कोई पैगम्बर क्यूं नहीं भेजा ताकि हम आप के एहकाम की पैरवी करते और ईमान लाने वालों में होते."
सूरह क़सस २८- २० वाँ पारा (आयत-४७)

''सो जब हमारी तरफ से उन लोगों के पास अमर ऐ हक पहुँचा तो कहने लगे कि उनको ऐसी किताब क्यूँ न मिली जैसे मूसा को मिली थी. क्या जो किताब मूसा को मिली थी तो क्या उस वक़्त ये उनके मुनकिर नहीं हुए? ये लोग तो यूं ही कहते हैं दोनों जादू हैं. जो एक दूसरे के मुवाफिक हैं और यूँ भी कहते हैं कि हम दोनों में से किसी को नहीं मानते तो आप कह दीजिए कि तुम कोई और किताब अल्लाह के पास से ले आओ.जो हिदायत करने वालों में इन से बेहतर हो, मैं उसी की पैरवी करने लगूँगा, अगर तुम सच्चे हुए"
सूरह क़सस २८- २० वाँ पारा (आयत-४८-४९)
''ऐ अल्लाह जो नेमत भी तू मुझे भेज दे मैं इसका तलबगार हूँ."
 

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Sunday 21 October 2012

सूरह क़सस २८- २० वाँ पारा

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.

सूरह क़सस २८- २० वाँ पारा
(पहली क़िस्त)
*इस्लाम इसके सिवा और कुछ भी नहीं क़ि यह एक अनपढ़ मुहम्मद की जिहालत है भरी, ज़ालिमाना तहरीक है.
*कुरआन सरापा बेहूदा और झूट का पुलिंदा है.इतिहास की बद तरीन रचना.
*मुहम्मद ने निहायत अय्यारी से कुरआन की रचना की है जिसकी ज़िम्मेदारी अल्लाह पर रख कर खुद अलग बैठे तमाश बीन बने रहते हैं.
*मुहम्मद एक कठमुल्ले थे जिसका सुबूत उनकी हदीसें हैं.
*कुरआन की हर आयत मुसलामानों की शह रग पर चिपकी हुई जोंकों की तरह उनका खून चूस रही हैं.
*वह जब तक कुरआन से मुंह नहीं फेरता,और उसके फ़रमान से बग़ावत  नहीं करता, इस दुनिया में पसमान्दा कौम के शक्ल में रहेगा और दीगर कौमो का सेवक बना रहेगा.
*कुरआन के फ़ायदे  मक्कार ओलिमा के गढ़े हुए हैं जो महेज़ इसके सहारे गुज़ारा करते हैं और आली जनाब भी बने रहते हैं..
*मुसलामानों!
इन ओलिमा से उतनी ही दूरी क़ायम करो जितनी दूरी सुवरों से रखते हो. यही तुम्हारे सबसे बड़े दुश्मन हैं.
सूरह क़सस मुहम्मद ने किसी पढ़े लिखे संजीदा शख्स से लिखवाई है. इसे पढने के बाद आसानी से अंदाज़ा लगाया जा सकता है. हराम ज़ादे  आलिमों को खूब पता है मगर उन्हों ने सच न बोलने की क़सम जो खा रक्खी   है. न सच बोलेंगे, न सच सुनेंगे और न सच महसूस करेंगे.

लीजिए क़ुरआनी खुराफ़ात हाज़िर है. - - -
"तासिम"
सूरह क़सस २८- २० वाँ पारा (आयत-)
ये लफ्ज़ मोह्मिल है अर्थात अर्थ हीन. इसका मतलब अल्लाह ही जनता है और हम जन साधारण क़ुरआनी अल्लाह को अब तक खूब जान चुके हैं. ये मुहम्मद का फरेब है.
"ये किताब की आयतें हैं"
सूरह क़सस २८- २० वाँ पारा (आयत-)
अल्लाह अपने ही फ़रमान में कहता है 
"ये किताब की आयतें हैं
जैसे किताब के बारे में कोई दूसरा बतला रहा हो. ये मुहम्मद ही है जो कुरआन में झूट बोल रहे हैं.
"हम आपको मूसा और फिरौन का कुछ क़िस्सा पढ़ कर सुनाते हैं. उन लोगों के लिए जो ईमान रखते हैं."
सूरह क़सस २८- २० वाँ पारा (आयत-)
अल्लाह को भी क़िस्सा पढ़ कर सुनाने की ज़रुरत है क्या?
उसने जो देखा है या जो भी उसे याद है, क्या उसको ज़बानी नहीं बतला सकता? पढ़ कर तो कोई दूसरा ही सुनाएगा. अल्लाह कहाँ पढ़ कर सुना रहा है है?
मुहम्मद अनपढ़ हैं, वह पढ़ कर सुना नहीं सकते, इस आयत की हुलिया कहाँ बनी? ऐसी गैर फ़ितरी बात उम्मी मुहम्मद ही कह सकते है. कुरआन के हर जुमले फ़ितरी सच्चाई से परे हैं. मुहम्मद के झूट को आलिमों ने परदे में रखकर मुसलामानों को गुमराह किया है.
"फिरौन सर ज़मीन पर बहुत बढ़ चढ़ गया था और उसने वहां के बाशिंदों को मुख्तलिफ किस्में कर रखा था कि उसने एक जमाअत का ज़ोर घटा रक्खा था. उनके बेटों को ज़िबह कराता था और उनकी औरतों को ज़िन्दा  रहने देता था''
सूरह क़सस २८- २० वाँ पारा (आयत-)
सर ज़मीन, इस धरती के किसी मखसूस हिस्से को कहा जाता है, अपनी खासियत के साथ. मुहम्मद पढ़े लिखों की नक्ल करने की नाकाम कोशिश कर रहे हैं.
ये तौरेत की जग-जाहिर कहानी है जिसे उम्मियत में डूबे मुहम्मद अपने अल्लाह का कलाम बतला रहे हैं.
फिरौन के मज़ालिम बनी इस्राईल पर बढ़ते ही चले जा रहे थे. वह फिरौन के बंधक जैसे हो गए थे. किसी नजूमी की पेशीन गोई के तहत कि फिरौन को पामाल करने वाला कोई इस्राईली  बच्चा पैदा होने वाला है, वह तमाम इस्राईली बच्चों को जन्म लेते ही मरवा दिया करता था और लड़कियों को ज़िन्दा रहने दिया करता था. इन्ही हालत में मूसा पैदा हुआ. इसकी बेक़रार माँ को अल्लाह ने हुक्म दिया कि इसे दूध पिलाओ और जासूसों का ख़तरा महसूस करो, फिर बग़ैर   खौफ़   ओ ख़तर इसे दर्याए नील में डाल दो. जब ख़तरा महसूस हुवा तो उसकी माँ ने दिल पर पत्थर रख कर मूसा को संदूक में डाल कर, उसे दर्याए नील के हवाले कर दिया. दूसरे दिन माँ बेचैन हुई और बेटे की खैर ओ खबर और सुराग लेने के लिए उसकी बहेन को आस पास भेजा
''संदूक में बच्चे की ख़बर फ़िरौन के जासूसों को लग चुकी है. बच्चा उठा कर महेल के हवाले कर दिया गया है. बादशाह की मलका आसिया को बच्चा बहुत अच्छा लगा और इसने इसकी जान बख्शुआ कर उसे अपना लिया. ''
"मूसा की बहेन ने अपनी माँ को आकर ये खुश ख़बर  दीफ़िरौन  ने दूध पिलाइयों की बंदिश कर रखी थी, सो हुवा यूँ के मूसा की परवरिश के लिए ख़ादिम के तौर पर इसकी माँ ही मिली . इस तरह अल्लाह ने अपना वादा पूरा किया जो मूसा की माँ से किया था. इसकी आँखें मूसा को देखकर ठंडी हुईंग़रज़  ये कि मूसा की जान बची. शाही महेल की सहूलतों के साथ साथ उसे माँ की देख भाल मिली. अल्लाह ने मूसा को इल्म ओ हुनर से नवाज़ा था."
सूरह क़सस २८- २० वाँ पारा (आयत--१४)
''मूसा जब जवानी की दहलीज़ पर पहुँचा तो एक रोज़ शहर से निकल कर पास की बस्ती में घूमता हुवा चला गया, रात का वक़्त था सब सो रहे थे, इसने देखा कि दो आदमी झगड़ रहे हैं जिसमें से एक इस्राईली था उसके ही कौम का, जिसने इससे मदद मांगी और दूसरा मिसरी था. मूसा ने अपने हमकौम की ऐसी मदद की कि एक ही घूँसे में मिसरी का काम तमाम हो गया. वह वहाँ से चुप चाप खिसक लिया मगर बाद में इसको इस बात का बड़ा रंज रहा. दूसरे दिन मूसा ने देखा वही इस्राईली बन्दा एक दूसरे मिसरी से हाथा-पाई कर रहा था और मूसा को देख कर फिर मदद की गुहार लगाई. मूसा इसके पास पहुँचा तो, मगर घूँसा ताना इस्राईली पर. ये देखकर इस्राईली चीख पुकार करने लगा - - -"
''तू मुझे भी मार डालना चाहता है जैसे कल एक मिसरी को क़त्ल कर दिया था, तू अपनी ताक़त जमाना चाहता है, मेल मिलाप से नहीं रह सकता? "
इस तरह कल हुए क़त्ल के कातिल का पता लोगों को चल गया और इसकी खबर दरबार तक पहंच गई, बस कि मूसा की शामत आ गई.
एक शख्स मूसा के पास आया और खबर दी की भागो, मौत तुम्हारा पीछा कर रही है, दरबारी तुम्हें गिरफ्तार करने आ रहे हैं. मूसा सर पर पैर रख कर भागता है. भागते भागते वह मुदीन नाम की बस्ती तक पहुँच जाता है, गाँव के बाहर पेड़ के साए में बैठ कर वह अपनी सासें थामने लगता है. कुछ देर बाद देखता है कुछ लोग एक कुँए पर लोगों को पानी पिला रहे हैं और वहीँ दो लड़कियां अपनी बकरियों को पानी पिला ने के लिए इंतज़ार में खड़ी हुई हैं, वह उठता है और कुँए से पानी खींच कर बकरियों की प्यास बुझा देता है.
थका मांदा मूसा एक दरख़्त के से में बैठ जाता हैऔर अल्लाह से दुआ मांगता है - -
''ऐ अल्लाह जो नेमत भी तू मुझे भेज दे मैं इसका तलबगार हूँ."
सूरह क़सस २८- २० वाँ पारा (आयत-१५-२४)
''मूसा की दुआ पलक झपकते ही कुबूल होती है. उसने जब आँखें खोलीं तो देखा कि एक नाज़ुक अंदाम दोशीजा सामने से खिरामाँ खिरामाँ चली आ रही है. ये उनमें से ही एक थी जिनकी बकरियों को मूसा ने पानी पिलाया था. करीब आकर उसने कहा - - -
अजनबी तुम से मेरे वालिद बुजुर्गवार मिलना चाहते हैं, अगर तुम मेरे साथ चलो?
मूसा लड़की के हमराह उसके बाप की खिदमत में पेश होता है. और उसको अपना हमदर्द पाकर पूरी रूदाद सुनाता है और (बुड्ढा बाप) कहता है. अच्छा हुआ तुम जालिमो से बच कर आ गए.
लड़की बाप को मशविरा देती है कि अब आप बूढ़े हो गए हैं, आपको एक ताक़त वर और अमानत दार इंसान की ज़रुरत है, बेहतर होगा कि आप मूसा को अपनी मुलाजमत में ले लें
लड़की का बूढा बाप उसकी बात मान जाता है और मूसा के सामने पेशकश रखता है कि वह इन दोनों बेटियों में से किसी एक के साथ शादी करले, इस शर्त के साथ कि वह दस साल तक घर जंवाई बन कर रहेगा, जिसे मूसा मान जाता है. वह तवील मुद्दत देखते ही देखते ख़त्म हो जाती है और वह वक़्त भी आ जाता है कि मूसा अपने बाल बच्चों को लेकर मिस्र के लिए कूच करता है .


जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Sunday 14 October 2012

Soorah namal 27 (3)


मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.

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सूरह नमल २७
(3)

मोमिन बनाम मुस्लिम 

मुसलामानों खुद को बदलो. बिना खुद को बदले तुम्हारी दुन्या नहीं बदल सकती. तुमको मुस्लिम से मोमिन बनना है. तुम अच्छे मुस्लिम तो ज़रूर हो सकते हो मगर मोमिन क़तई नहीं, इस बारीकी को समझने के बाद तुम्हारी कायनात बदल सकती है. मुस्लिम इस्लाम कुबूल करने के बाद ''लाइलाहाइल्लिल्लाह मुहम्मदुर रसूल लिल्लाह'' यानि अल्लाह वाहिद के सिवा कोई अल्लाह नहीं और मुहम्मद उसके पयम्बर हैं. मोमिन फ़ितरी यानी कुदरती रद्दे अमल पर ईमान रखता है. ग़ैर फ़ितरी बातों पर वह यक़ीन नहीं रखता, मसलन इसका क्या सुबूत है कि मुहम्मद को अल्लाह ने अपना पयम्बर बना कर भेजा. इस वाकेए को न किसी ने देखा न अल्लाह को पयम्बर बनाते हुए सुना. जो ऐसी बातों पर यक़ीन या अक़ीदत रखते हैं वह मुस्लिम हो सकते हैं मगर मोमिन कभी भी नहीं. मुस्लमान खुद को साहिबे ईमान कह कर आम लोगों को धोका देता है कि लोग उसे लेन देन के बारे में ईमान दार समझें, उसका ईमान तो कुछ और ही होता है, वह होता है
''लाइलाहाइल्लिल्लाह मुहम्मदुर रसूल लिल्लाह''
इसी लिए वह हर बात पर इंशा अल्लाह कहता है. यह इंशा अल्लाह उसकी वादा खिलाफ़ी, बे ईमानी, धोखा धडी और हक़ तल्फ़ी में बहुत मदद गार साबित होता है. इस्लाम जो ज़ुल्म, ज़्यादती, जंग, जूनून, जेहाद, बे ईमानी, बद फेअली, बद अक़ली और बेजा जिसारती के साथ सर सब्ज़ हुवा था, उसी का फल चखते हुए अपनी रुसवाई को देख रहा है. ऐसा भी वक्त आ सकता है कि इस्लाम इस ज़मीन पर शजर-ए-मम्नूअ बन जाय और आप के बच्चों को साबित करना पड़े कि वह मुसलमान नहीं हैं. इससे पहले तरके इस्लाम करके साहिबे ईमान बन जाओ.
वह ईमान जो २+२=४ की तरह हो, जो फूल में खुशबू की तरह हो, जो इंसानी दर्द को छू सके, जो इस धरती को आने वाली नस्लों के लिए जन्नत बना सके.
 उस इस्लाम को खैरबाद करो जो ''लाइलाहाइल्लिल्लाह मुहम्मदुर रसूल लिल्लाह'' जैसे वह्म में तुमको जकड़े हुए है. 
 अब देखिए मुहम्मद के कुरानी अफ़साने कि कहानी के नाम पर वह क्या हाँक रहे है. - - -  



बादशाह की शान में आधीन देवों की गुस्ताखी मुलाहिजा हो - - -
"जिसके पास किताब का इल्म था उसने कहा मैं इसको तेरे सामने तेरी आँख झपकने से पहले लाकर खड़ा कर सकता हूँ." 
इसी तरह  कुरआन  के दीगर मुकालमों पर गौर करें और मानें कि यह एक अनपढ़ की तसनीफ़ है, किसी अल्लाह की नहीं.
कुरआन में अक्सर कुफ़फ़ार की अल्लाह से तकरार है, उनको सवालों पर अल्लाह का जवाब है, ज़ाहिर है इसके बाद वह जवाब पर सवाल करते होंगे, जिस बे ईमान अल्लाह कभी पेश नहीं करता. मुस्लमान अल्लाह के अर्ध-सत्य को ही पूरा सच मान  लेता है. यह कुरआन की धांधली है और मुसलमानों का भोला पन. कुफ़फ़ार मक्का की एक मफ्रूज़ा तकरार पेश है.

रसूल  :--" अच्छा बतलाओ ये बुत बेहतर हैं या वह जात जो तुमको खुश्की और दरया की तारीकी में रास्ता सुझाता है? जो हवाओं को बारिश से पहले भेजता है जो खुश कर देती  हैं.?"
सूरह नमल २७- १९ वाँ पारा- आयत (63) 

कुफ्फार:-- हमारे ये पत्थर के बने बुत, यह तो हैं जो हमें राह दिखलाते हैं और बारिश लाते हैं, जब इनके सामने हम दुआएँ मांगते  हैं.
रसूल :-- इसका  सुबूत ?
कुफ्फार:-- सुबूत ? चलो ठीक है हम अपने बुतों  को साथ लेकर आते हैं, तुम अपने अल्लाह को लेकर आओ , मिल जायगा सुबूत .
रसूल :-- आएं ! (बगलें झाकते हुए) "मेरा परवर दिगार तो आसमानों और ज़मीन का मालिक है, और (और और) बड़ा हिकमत वाला है और (और और) बड़ा ज़बरदस्त है और (और और) आप कह दीजिए कि जितनी मख्लूकात आसमानों और ज़मीन पर मौजूद हैं, कोई भी गैब की बात नहीं जनता बजुज़ अल्लाह के. इनको ये खबर नहीं कि वह दोबारा कब ज़िन्दा किए जाएँगे, बल्कि आखरत के बारे में इनका इल्म नेस्त हो गया है, बल्कि ये लोग इस शक में हैं , बल्कि  ये लोग इससे अंधे बने हुए हैं,"  
सूरह नमल २७- १९ वाँ पारा- आयत (65-66) 

कुफ्फार  :-ठीक है ठीक है हम लोग आधा घंटा तक अपने बुतों की इबादत करते हैं और तुम अपने अल्लाह की याद में गर्क हो जाओ, तब तक वह तुम्हारे पास ज़रूर आ जाएगा .
( कुफ्फर अपने बुतों के आगे ढोल, मजीरा और दीगर साज़ लेकर रक्से-मार्फ़त करने लगे, महवे-ज़ात-गैब हुए और फ़ना फिल्लाह हो गए, कुछ होश अपना रहा न दुन्या का, खून के क़तरे क़तरे में मारूफ़ियत  दौड़ने लगी, आधा घंटा पल भर में बीत गया, खुद साख्ता रसूल  ने उनको झकझोरते हुए कहा 

कमबख्तो! तुम पर अल्लाह की मार , वक़्त ख़त्म हवा .
कुफ्फार  :- अल्लाह के रसूल! पकड़ में आया तुम्हारा अल्लाह?
रसूल :- क्या खाक पकड़ में आता तुम्हारे हंगामा आराई के आगे. मैं तो अपनी रकात भी न याद रख सका कि कितनी अदा की तुम्हारे शोर गुल के आगे .
 " आप कह दीजिए कि तुम ज़मीन पर चल फिर कर देखो कि मुजरिमीन का अंजाम क्या हुवा और आप इन पर गम न कीजिए और जो कुछ ये शरारतें कर रहे हैं, इनपर तंग न होइए और ये लोग यूँ कहते हैं कि ये वादा ( क़यामत) कब आएगा? अगर तुम सच्चे हो ? आप कह दीजिए कि अजब नहीं कि जिस अज़ाब की तुम जल्दी मचा रहे हो, उसमें से कुछ तुम्हारे पास ही आ लगा हो."
सूरह नमल २७- १९ वाँ पारा- आयत (6-72) 

कुफ्फार  :- तो गारे हरा चलें? शायद वहां मिले अल्लाह?
"और आप का रब लोगों पर बड़ा फज़ल रखता है लेकिन अक्सर आदमी शुकर नहीं करते और आपके रब को सब खबर है जो कुछ इनके दिलों में मुख्फ़ी  है और जिसको वह एलानिया करते हैं और आसमान और ज़मीन पर कोई मुख्फी चीज़ नहीं जो लौहे-महफूज़ में न हो."
सूरह नमल २७- १९ वाँ पारा- आयत (७४-७५)

छोडिए अल्लाह को, ऐ अल्लाह के फर्जी रसूल! जिब्रील अलैहिस सलाम को ही बुलाइए.
 "ये कुफ्फार जब भी मुझको देखते हैं तो इनको तमस्खुर सूझता है.
अल्लाह ने छे दिन में दुन्या बनाई  फिर सातवें दिन आसमान पर कायम हुआ.
 वह नूर अला नूर है.
 तुहें औंधे मुँह जहन्नम  में डाल दिया  जायगा और वह बुरी जगह है.
आप मुर्दों को नहीं सुना सकते, और न बहरों को अपनी आवाज़ सुना सकते हैं. जब वह पीठ फेर के चल दें और न आप अंधों को गुमराही  से रास्ता दिखलाने वाले हैं. आप तो सिर्फ उन्हीं को सुना सकते हैं जो जो हमारी आयतों पर यकीन रखते हों. फिर वह मानते हैं और जब उन पर वादा पूरा होने का होगा तब उनके लिए हम ज़मीन से एक जानवर निकालेंगे वह इनसे बातें करेगा, कि लोग हमारी आयतों पर यकीन न लाते  थे और जिस दिन हम हर उम्मत में से एक एक गिरोह उन लोगों का उन लोगों का जमा करेंगे जो हमारी आयतों को झुटलाया करते थे और उनको कहा जायगा यहाँ तक कि जब वह हाज़िर हो जाएँगे तो अल्लाह इरशाद फरमाएगा  कि क्या तुमने हमारी आयतों को झुटलाया था, हालाँकि तुम उनको अपने अहाता ऐ इल्मी में भी नहीं लाए बल्कि और भी क्या क्या काम करते रहे "
सूरह नमल २७- १९ वाँ पारा- आयत (७४-८० )

कुफ्फार:-- (क़हक़हा) 
"और तू पहाड़ों को देख रहा है, उनको ख़याल कर रहा है कि वह जुंबिश न करेंगे? हालां कि वह बाल की तरह उड़ते फिरेंगे . ये अल्लाह का काम है जिसने हर चीज़ को मज़बूत बनाये रखा है. यह यकीनी बात है कि अल्लाह तुम्हारे हर फेल की पूरी खबर रखता है."
सूरह नमल २७- १९ वाँ पारा- आयत (८८)
 कुफ्फार :--  (क़हक़हा)  


जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Sunday 7 October 2012

सूरह नमल २७ (दूसरी क़िस्त)

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.


सूरह नमल २७
(दूसरी क़िस्त)

कोई पत्थर से न मारे मेरे दीवानों को

पिछली पोस्टों में मैं निवेदन कर चुका हूँ कि टीका कार गाली गलौच और अभद्र भाषा  मेरे ब्लाग में न लाएं. ये  बातें जो पसंद करते हैं उनके ब्लॉग में जाएँ. कडुई और कठोर बातों से कोई फायदा नहीं होता, सिवाए  नुकसान के. कृप्या मेरा साथ दें और मेरे ही लबो-लहजे में तर्क संगत बातों से मुसलमानों को कौमी धारे में लाने का प्रयास करें. भारत के मुस्लमान कहे जाने वाले मानव प्राणी, मज़हबी चक्रांध के शिकंजे में फंसे हुए हैं जिनको मैं जगाना चाहता हूँ , क्यूंकि मैं उससे निकल चुका  हूँ . मुसलमान सिर्फ एक 'पूज्य'अल्लाह को मानता है, हिदू समाज अनेक पूज्य रखता है. आप मेरे उदगारों से प्रभावित है तो बेहतर है कि आप उस  के लिए काम करें
एक सज्जन मुसलामानों के लिए निर्धारित शब्द कटुवा और कटुए की शब्दावली से मुसलामानों को संबोधित किया है, कट्टर हिन्दू पीठ पीछे मुसलामानों को इसी अंदाज़ से इंगित करते हैं, इनको खतने (लिंग की अग्र भाग की गैर ज़रूरी चमड़ी का काटना). का लाभ  नहीं मालूम कि ये क्रिया बहुत ही स्वाभाविक है, जैसे बच्चे कि नाड़ी काटना ज़रूरी होता है. खतने से कई लैंगिक बीमारियों का समाधान होता है जैसे  टीके से चेचक का और पोलिओ की दो बूँद से इन बीमारियों का निदान है. खतना बद्ध लिंग सदा साफ़ और दुर्गन्ध रहित होता है. इसका बड़ा लाभ ये है कि यौन-संबध में दोनों को संतुष्टि होती है.
इंसानी सभ्यता के प्रारंभ में ही मानव समाज ने इसके लाभ को स्वीकरा. चार हज़ार साल पहले बाबा इब्राहीम के खतने का ज़िक्र इतिहास में मिलता है जोकि निरा मानव थे. बाद में यहूदियों ने इसे अपने समाज के लिए अनिवार्य कर दिया और उन्हीं की पैरवी मुसलमान करते हैं जोकि विशुद्ध निदान संगत है. मैं भी कटुवा हूँ और अपने माँ-बाप का आभारी हूँ. बात मुखालिफत की है. "मुखालिफत बराय मुखालिफत" नहीं होना चाहिए कि मुसलमान अगर टोपी लगता है तो हमें टोपी नहीं लगनी चाहिए, भले ही पगड़ी और साफे की झंझट अपनाएँ. 

और अब आइए क़ुरआनी खुराफ़ात पर - - -

बिकीस के दूतों का अपमान करते हुए सुलेमान उन्हें वापस कर देता है - - - उसके बाद कहानी का सिलसिला मुलाहिजा हो  -  - -
बादशाह सुलेमान से मुहम्मद अपनी काबिलयत उगलवाते हैं - - -

"सो हम उन पर ऐसी फौजें भेजते हैं कि उन लोगों से उन का ज़रा मुकाबिला न हो सकेगा और हम वहाँ से उनको ज़लील करके निकाल देगे और वह मातहत हो जाएँगे. सुलेमान ने फ़रमाया ऐ अहले दरबार तुम में से कोई ऐसा है कि उस बिलकीस का तख़्त, क़ब्ल  इसके कि वह लोग मेरे पास आएँ, मती (आधीन) होकर आएँ, हाज़िर कर दे ?
 एक क़वी हैकल जिन्न ने जवाब में अर्ज़ किया, मैं इसको आप की खिदमत में हाज़िर कर दूंगा, क़ब्ल इसके कि आप इस इजलास से उठ्ठें. और मैं इसको लाने की ताक़त रखता हूँ. और अमानत दार भी हूँ. 
जिसके पास किताब का इल्म था उसने कहा मैं इसको तेरे सामने तेरी आँख झपकने से पहले लाकर खड़ा कर सकता हूँ.
पस जब सुलेमान अलैहिस्सलाम ने इसको अपने रूबरू देखा तो कहा ये भी मेरे परवर दिगार का एक फज़ल है. ताकि वह मेरी आज़माइश करे, मैं शुक्र करता हूँ. और जो शुक्र करता है अपने ही नफा के लिए करता है. और जो नाशुक्री करता है,(?) मेरा रब गनी है, करीम है. 
सुलेमान ने हुक्म दिया कि इसके लिए इस तख़्त की सूरत बदल दो हम देखें कि इसको इसका पता चलता है या इसका इन्हीं में शुमार है जिन को पता नहीं लगता.
 सो जब बिलकीस आई तो इस से कहा की क्या तुम्हारा तख़्त ऐसा ही है? 
बिलकीस ने कहा हाँ ऐसा ही है और हम को तो इस वाकेऐ की पहले ही तहकीक हो गई थी. और हम मती हो चुके हैं 
और इसको गैर अल्लाह की वबा ने रोक रख्खा था और वह काफ़िर कौम में की थी. 
बिलकीस से कहा गया कि तू इस महल में दाखिल हो, तो जब इसका सेहन देखा तो उसको पानी समझा और अपनी दोनों पिंडलियाँ खोल दीं. सुलेमान ने फ़रमाया यह तो एक महेल है जो शीशों से बनाया गया है. बिकीस कहने लगी ऐ मेरे परवर दिगार ! मैं ने अपने नफ़स पर ज़ुल्म किया था और अब मैं सुलेमान के साथ होकर रब्बुल आलमीन पर ईमान लाई."
सूरह नमल २७- १९ वाँ पारा- आयत (३७-४४).

इस सुलेमानी कहानी के बाद बिला दम लिए अल्लाह समूद और सालेह के बयान पर आ जाता है और इनकी दो एक बातें बतला कर लूत को पकड़ता है और लूत की इग्लाम बाज़ उम्मत को. फिर शुरू कर देता है कुफ्फर के साथ सवाल जवाब.
अजीब सूरत रखते हैं. कुफ्फर अल्लाह से बुनयादी सवाल करते हैं और अल्लाह उनको बे बुन्याद जवाब देता है.
सूरह नमल २७- १९ वाँ पारा- आयत (४५-६४
सुलेमान की दास्तान मुहम्मद की अफसाना निगारी का एक नमूना है. हैरत होती है कि मुस्लमान इस अल्लाह की बद तरीन तसनीफ (रचना) पर किताब पर ईमान रखते हैं जिसको बात करने का सलीका भी नहीं है और जिसकी मदद बन्दों ने तर्जुमानी और लग्व तफ़सीर से की. क्या अल्लाह जलीलुल कद्र अपनी छीछा लेदर ऐसी दास्तान गोई से कराएगा? जिसमें झूट और मक्र की भरमार है.
 जिन और परिंदों का लश्कर होना ?
सुलेमान का हज़ारों परिंदों की हाज़री लेना?
इनमें से किसी एक को गैर हाज़िर पाना?
सुलेमान के मुँह से ऐसे कलिमें अदा कराना
" वह इसकी गैर हजिरी पर बहुत बरहम हुए और कहा कि इसकी सज़ा इसको सख्त मिलेगी. या तो उसको मैं ज़िबह कर डालूँगा या तो वह आकर कोई हुज्जत पेश करे"
दर असल  मुहम्मद अपनी फितरत के मुताबिक कुरआन की शक्ल पेश करते है. वह मिज़ाजन ऐसे थे, शुक्र है बुलबुल ने हुज्जत न करके बद खबरी दी कि कमबख्त बिलकीस एक औरत हो कर मर्दों पर हुक्मरानी  करती है?
भला मुहम्मदी दीन में इसकी गुजाइश कहाँ? 
सुलेमान क़दीम बादशाहों में पहली हस्ती हैं जो आला दर्जे की शख्सियत था और अपने वक़्त कि जदीद तरीन तालीमों से लबरेज़ था.वह मुफक्किर था,  अच्छा शायर था, माहिरे नबातात (बनस्पति-ज्ञान)और माहिरे हयात्यात था. तमीरात में पहला पहला अज़ीम आर्चितेक्ट हुआ है. उसकी तामीर को वालियान मुमल्कत देखने आया करते थे. घामड़  मुहम्मद ने सुलेमान के बारे में बेहूदा कहानी गढ़ी है  देखिए कि  देवों के देव , महादेव ने किस तरह मलकाए शीबा का तख़्त पलक झपकते ही सुलेमान के क़दमों पर रख दिया? अगर इसी कुरानी हालात में एक हिन्दू कहता है कि परबत को लेकर हनुमान जी उड़े तो मुसलमान हसेंगे और लाहौल पढेंगे. नकली रसूल के अल्लाह की कहानी आप नियत बाँध कर नमाज़ों में पढ़ते हैं.

 


जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान