Sunday 30 June 2013

सूरह हा मीम सजदा - ४१

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान


सूरह हा मीम सजदा - ४१-पारा २४  
(1)

भारत के मुस्तकबिल करीब में मुसलामानों की हैसियत बहुत ही तशवीश नाक होने का अंदेशा है. अभी फ़िलहाल जो रवादारी बराए जम्हूरियत बक़रार है, बहुत दिन चलने वाली नहीं. इनकी हैसियत बरक़रार रखने में वह हस्तियाँ है जिनको इस्लाम मुसलमान मानता ही नहीं और उन पर मुल्ला फतवे की तीर चलाते रहते हैं. उनमे मिसाल के तौर पर डा. ए पी. जे अब्दुल  कलाम, तिजारत में अज़ीम प्रेम जी, सिप्ला के हमीद साहब वगैरा ,  फ़िल्मी  दुन्या के ए. आर. रहमान, आमिर खान, शबाना आज़मी. और दिलीप कुमार, फ़नकारों में फ़िदा हुसैन, बिमिल्ला खान जैसे कुछ लोग हैं. आम आदमियों में सैनिक अब्दुल हमीद जैसी कुछ फौजी हस्तियाँ भी हैं जो इस्लाम को फूटी आँख भी नहीं भाते. मैंने अपने कालेज को एक क्लास रूम बनवा कर दिया तो कुछ इस्लाम ज़दा कहने लगे की यही पैसा किसी मस्जिद की तामीर में लगते तो क्या बात थी, वहीँ उस कालेज के एक टीचर ने कहा तुमने मुसलामानों को सुर्खुरू कर दिया, अब हम भी सर उठा कर बातें कर सकते है.
कौन है जो सेंध  लगा रहा है आम मुसलामानों के हुकूक़ पर?
कि सरकार को सोचना पड़ता  है कि इनको मुलाज़मत दें या न दें?
आर्मी को सोचना पड़ता है कि इनको कैसे परखा जाय?
कंपनियों को तलाश करना पड़ता कि इनमें कोई जदीद तालीम का बंदा है भी?
बनिए और बरहमन की मुलाजमत को इनके नाम से एलर्जी है.
इसकी वजेह इस्लाम है और इसके गद्दार एजेंट जो तालिबानी ज़ेहन्यत रखते हैं.
यह भी हमारी गलतियों से खता के शिकार हैं. 
हमारी गलती ये है कि हम भारत में मदरसों को फलने फूलने का अवसर दिए हुए है जहाँ वही पढाया जाता है जो कुरआन में है.

अब शुरू करिए शैतानुर्रज़ीम  के नाम से - - -    

"हा मीम"
सूरह हा मीम सजदा - ४१-पारा २४ आयत  (१)
जी हाँ! यह भी एक बात कही है अल्लाह ने, जिसे आप समझ नहीं पाएंगे. जो बात अल्लाह की आपके समझ में आती हैं वो ही कौन सी बेहतर बात है. ज़िन्दगी को कौन सा मज़ा देती हैं.

"ये कलाम रहमान और रहीम की तरफ़ से नाज़िल किया जाता है."
सूरह हा मीम सजदा - ४१-पारा २४ आयत  (२)

मुहम्मद के जेहन में पहली बार रहमान और रहीम नाज़िल हुए हैं यही बात हिदुस्तानी रवा दारी में जब कही जाती है तो राम रहीम हो जाती है .
"बशारत देने वाला और डर सुनाने वाला और वह लोग सुनते ही नहीं, और मुँह फेर कर चले जाते हैं .''
सूरह हा मीम सजदा - ४१-पारा २४ आयत  (४)

जो आयतें ज़िन्दगी को मुर्दनी बनाएँ उनको कौन सुनना गवारा करेगा? जब तक कि इस्लामी तलवार सर पर न हो. हम धीरे धीरे कोफ़्त को सुनने के आदी हो गए हैं, वह भी ज़बाने गैर में. ये आयतें बशारत नहीं खबासत और कराहियत देती हैं अगर अपनी ज़बान में इसका इल्म हो, इसका ख़ालिस तर्जुमा हो .

"और कहते हैं कि जिस बात की तरफ़ आप हमें दावत देते हो हमारे दिल में उस के लिए कोई जगह नहीं और हम ने अपने कान भी बंद कर लिए, आप के और हमारे बीच पर्दा पद गया है, हमारी समझ में कुछ नहीं आता, बस तुम अपना काम करो और हम अपना काम जारी रखेंगे."
सूरह हा मीम सजदा - ४१-पारा २४ आयत  (५)

ये बातें लोग उल्टा मुहम्मद के मुँह पर तअने के तौर पर वापस मारते हैं. अल्लाह की आयतें बार बार दोहराई जाती हैं कि ये काफ़िर समझने वाले नहीं हमने इनके कानों में डाट लगा दी कई और आँखों पर पर्दा डाल दिया है. सुम्मुम, बुक्मुम फ़हुम लायारजऊन. है जिसे बार बार वह कुरआन में गाया करते है.

"सुनो! मैं भी तुम्हारी तरह ही एक बशर हूँ, मुझ पर ये वह्यी नाज़िल होती है कि तुम्हारा माबूद एक ही माबूद है सो इसकी तरफ़ सीध बाँध लो और इससे माफ़ी माँगो, वर्ना शरीक करने वालों की बड़ी बर्बादी होगी."
सूरह हा मीम सजदा - ४१-पारा २४ आयत  २४ (६)

खुदा न करे कि कोई बशर तुम जैसा मक्कार दूसरा हो. ये मक्र भरी तुम्हारी वहियाँ इस धरती के करोड़ों  इंसानों का खून पी चुकी हैं फिर भी तुम्हारे अल्लाह की प्यास अभी बुझी नहीं.

"और उसने ज़मीन में उसके ऊपर पहाड़ बना दिए हैं,
और उसमें फायदे की चीज़ रख दीं,
और इसमें इसकी गिज़ाएँ तजवीज़ कर दीं.
चार दिन में पूरे हैं, पूछने वालों के लिए.
फिर आसमान की तरफ़ तवज्जो फ़रमाई और वह धुवाँ सा था,
सो इससे और ज़मीन से फ़रमाया कि तुम दोनों ख़ुशी से आओ या ज़बरदस्ती से.
दोनों ने अर्ज़ किया हम दोनों हाज़िर हैं,
सो दो रोज़ में इसके सात आसमान बनाए और हर आसमान में इसके मुताबिक अपना हुक्म भेज दिया और हमने इस करीब वाले आसमान को सितारों से ज़ीनत दी और हिफाज़त दी.
ये तजवीज़ है ज़बरदस्त वाक़िफ़ ए कुल की."
सूरह हा मीम सजदा - ४१-पारा २४ आयत  (१०-१२) 

हर जुमला मुहम्मद की मूर्खता का बखान करते हैं - -

तौरेती इलाही छ दिन में दुनिया की तकमील करता जिसकी फूहड़ नक़ल उम्मी ने की "चार दिन में पूरे हैं, पूछने वालों के लिए.'' 
आसमान धुवाँ था तो ज़मीन क्या थी? और कहाँ थी? कि अल्लाह उनको धमका रहा है किसी उजड पहेलवान की तरह"सो इससे और ज़मीन से फ़रमाया कि तुम दोनों ख़ुशी से आओ या ज़बरदस्ती से."
दोनों भाई बहनों से से अर्ज़ करवा रहा है उम्मी "दोनों ने अर्ज़ किया हम दोनों हाज़िर हैं, "
अपने अल्लाह का नया नाम तराशते हुए कहता है,"वाक़िफ़ ए कुल '' किसी ने सुझा दिया होगा कि उसका ये नाम दो. नाम भर रखने से क्या फ़ायदा, जब पूरा मज़मून ही गुड गोबर हो.
"उनसे कह दीजिए कि मैं तुमको ऐसे आफ़त से डरता हूँ जैसे आद ओ सुमूद पर आफ़त आई थी जब कि इनके पास इनके आगे से भी इनके पीछे से भी पैगम्बर आए थे."
सूरह हा मीम सजदा - ४१-पारा २४ आयत  (१३)

दुन्या में लाखों हुक्मरान आए हैं आदिलो मरदूद, मगर मुहम्मदी अल्लाह को दस पाँच नाम ही याद हैं जिन्हें बार बार दोहराता है.

"जिस दिन अल्लाह के दुश्मन दोज़ख की तरफ़ जमा कर के ले जाए जाएंगे, यहाँ तक कि जब इसके करीब आ जाएंगे तो इन के कान, इनकी आँखें और इनकी खालें इन पर इनके आमाल की गवाही देंगे. और उस वक़्त वह लोग अपने अअज़ा से कहेगे तुमने हमारे ख़िलाफ़ गवाही क्यों दिया ? वह कहेंगे कि अल्लाह ने हमें गोयाई दी, जिसने हर चीज़ को गोयाई दी."
सूरह हा मीम सजदा - ४१-पारा २४ आयत  (१९-२१) 

ए रसूल तेरा अल्लाह  चालबाज़ है, ज़ालिम है, क़ह्हार है, अय्यार है, मक्कार है और मुन्तकिम है जैसा कि तूने कई बार बतलाया तो उसे इन बनाए गए गवाहों की क्या ज़रुरत है?

Saturday 22 June 2013

Soorah momin 40 (3)

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.


सूरह मोमिन ४० 
(तीसरी किस्त)

धर्म और ईमान के मुख़तलिफ़ नज़रिए और माने, अपने अपने हिसाब से गढ़ लिए गए हैं. आज के नवीतम मानव मूल्यों का तकाज़ा इशारा करता है कि धर्म और ईमान हर वस्तु के उसके गुण और द्वेष की अलामतें हैं. इस लम्बी बहेस में न जाकर मैं सिर्फ़ मानव धर्म और ईमान की बात पर आना चाहूँगा. मानव हित, जीव हित और धरती हित में जितना भले से भला सोचा और भरसक किया जा सके वही सब से बड़ा धर्म है और उसी कर्म में ईमान दारी है. 
वैज्ञानिक हमेशा ईमानदार होता है क्यूँकि वह नास्तिक होता है, इसी लिए वह अपनी खोज को अर्ध सत्य कहता है. वह कहता है यह अभी तक का सत्य है कल का सत्य भविष्य के गर्भ में है.मुल्लाओं और पंडितों की तरह नहीं कि आखरी सत्य और आखरी निज़ाम की ढपली बजाते फिरें. धर्म और ईमान हर आदमी का व्यक्तिगत मुआमला होता है मगर होना चाहिए हर इंसान को धर्मी और ईमान दार, कम से कम दूसरे के लिए. इसे ईमान की दुन्या में ''हुक़ूक़ुल इबाद'' कहा गया है, अर्थात ''बन्दों का हक़'' आज के मानव मूल्य दो क़दम आगे बढ़ कर कहते हैं ''हुक़ूक़ुल मख़लूक़ात '' अर्थात हर जीव का हक़. 
धर्म और ईमान में खोट उस वक़्त शुरू हो जाती है जब वह व्यक्तिगत न होकर सामूहिक हो जाता है. धर्म और ईमान , धर्म और ईमान न राह कर मज़हब और रिलीज़न यानी राहें बन जाते हैं. इन राहों में आरंभ हो जाता है कर्म कांड, वेश भूषा,नियमावली , उपासना पद्धित, जो पैदा करते हैं इंसानों में आपसी भेद भाव. राहें कभी धर्म और ईमान नहीं हो सकतीं. धर्म तो धर्म कांटे की कोख से निकला हुआ सत्य है, पुष्प से पुष्पित सुगंध है, उपवन से मिलने वाली बहार है. हम इस धरती को उपवन बनाने के लिए समर्पित राहें यही मानव धर्म है. धर्म और मज़हब के नाम पर रची गई पताकाएँ, दर अस्ल अधार्मिकता के चिन्ह हैं. 
आप अक्सर तमाम धर्मों की अच्छाइयों(?) की बातें करते हैं यह धर्म जिन मरहलों से गुज़र कर आज के परिवेश में कायम हैं, क्या यह अधर्म और बे ईमानी नहीं बन चुके है? क्या यह सब मानव रक्त रंजित नहीं हैं? इनमें अच्छाईयां है कहाँ? जिनको एक जगह इकठ्ठा किया जाय, यह तो परस्पर विरोधी हैं..मैं आप का कद्र दान हूँ, बेहतार होता कि आप अंत समय में मानव धर्म के प्रचारक बन जाएँ और अपना पाखंडी गेरुआ वेश भूषा और दाढ़ी टोपी तर्क करके साधारण इंसान जैसी पहचान बनाएं. 

अब देखिए कि बादशाह फ़िरओन के दरबार में मुहम्मदी अल्लाह क्या क्या नाटक खेल रहा है - - -

"दरबारी वज़ीर मोमिन ने अपनी तक़रीर जारी रखते हुए कहा कि ऐ बिरादराने कौम मुझे डर है कि बड़ी बड़ी कौमों जैसी बरबादी का दिन तुम पर भी आ जाएगा, जैसा कि कौम नूह, कौम आद, और कौम सुमूद वालों का हाल बना और उसके बाद भी बहुत से लोग बर्बाद हो चुके, हालांकि अल्लाह अपने बन्दों पर ज़ुल्म करने का इरादा नहीं रखता. ऐ बिरादराने कौम मुझको तुम पर एक ऐसे दिन के आ पड़ने का खौफ है जब बहुत चीख पुकार करोगे. वह दिन ऐसा होगा कि पीठ फेर कर भागोगे मगर अल्लाह से बचाने वाला तुम को कहीं भी न मिल सकेगा. याद रखो कि जिसे अल्लाह गुमराही में पड़ा रहने दे तो उसको राह पर कोई नहीं ला सकता."
सूरह मोमिन ४० पारा २४ आयत (३०-३३)

आसानी से समझा जा सकता है कि आयतें मुहम्मद मक्र बयान करती हैं. वह दरबारी मोमिन की आड़ में अपनी बात कर रहे है.

"फ़िरऔन बोला : ऐ हामान! मेरे लिए एक ऊँची इमारत बनाओ ताकि मैं ऊपर के रास्तों पर पहुँच कर देख सकूँ. आसमानों के रस्ते पर जाना चाहता हूँ, ताकि मूसा के माबूद को झाँक कर देख लूं. मैं तो इसे झूटा समझता हूँ. फ़िरऔन की ऐसी बुरी हरकत अपनी निगाह में बहुत अच्छी मालूम पड़ती थी, जिसके सबब सही रस्ते से उसको रोका गया और फ़िरऔन की हर तदबीर बेअसर और बेकार साबित हुई."
सूरह मोमिन ४० पारा २४ आयत (४०-४२)

मुहम्मदी अल्लाह अपनी ज़बान और कलाम का हक़ तक नहीं अदा कर पा रहा, जिसे मुसलमान अल्लाह का कलाम कहते हैं. इसे तमाम उम्र दोहराते रहते हैं.

कहता है - - -
"ताकि मैं ऊपर के रास्तों पर पहुँच कर देख सकूँ. आसमानों के रस्ते पर जाना चाहता हूँ, ताकि मूसा के माबूद को झाँक कर देख लूं."
 ऐसे गाऊदी अल्लाह को मुसलमान ही गले उतार सकते हैं.

मोमिन वज़ीर कहता  है - - -
"मेरी बात बहुत जल्द तुम को याद आकर रहेगी.तब बहुत पछताओगे अब मैं अपने मुआमले अल्लाह के सुपुर्द करता हूँ जो बन्दों को देख रहा है. अल्लाह ने उस मोमिन को उनके करीब के चक्कर से बचा लिया और अज़ाब ने आले फ़िरऔन पर बुरी तरह घेरा डाल दिया."
ऐसे अल्लाह के चक्कर में मुसलमान कौम पंसी हुई है.
सूरह मोमिन ४० पारा २४ आयत (३८-४५)

मुसलमानों! क्या बिकुल नहीं समझ पाते सच्चाई को या फिर सच से तुम्हें परहेज़ है?

"मरने के बाद इन्हें सुब्ह ओ शाम आग पर पेश किया जाता है और जिस दिन क़यामत कायम होगी, हुक्म होगा कि फ़िरऔन और उसके साथ वालों को सख्त अज़ाब में दाखिल करो. भयानक होगा वह मंज़र जब आग में गिरने के बाद ये लोग आपस में झगड़ रहे होंगे. तब दबा कर रक्खे गए लोग अपने बड़ों से कहेंगे, 
तुम्हारे कहने पर चलते थे , फिर क्या तुम मुझ पर से इस आग के अज़ाब को कुछ कम करा सकोगे?
 बड़े कहेंगे हमको तुमको सभी को इस जहन्नम में पड़े रहना है कि अल्लाह अपने बन्दों के दरमियान फैसला कर चुका है.
 दोज़खी लोग दोज़ख के दरोगा से कहेंगे, अपने रब से दुआ करो कि किसी एक दिन के वास्ते तो हम को इस अज़ाब से हल्का करदे .
 जवाब में दोज़ख के अफ़सरान बोलेंगे कि क्या तुम्हारे पास तुम्हारे रसूल इस अज़ाब की चेतावनी देने नहीं आए ?
 बोलेंगे कि हाँ ! वह तो बराबर हमको डराते रहे .
 जहन्नम के अफ़सर कहेंगे कि बस अब बात ख़त्म हुई, तुम खुद दुआ कर लो और काफिरों की दुआ कतई कुबूल नहीं होगी." 
सूरह मोमिन ४० पारा २४ आयत (४७-५०)

"मरने के बाद इन्हें सुब्ह ओ शाम आग पर पेश किया जाता है"
ताकि उन्हें ताज़ा रखा जा सके.
"जब आग में गिरने के बाद ये लोग आपस में झगड़ रहे होंगे."

गोया गंदे पानी में गिरा दिए गए हों.
इस्लाम अपने बड़े बुजुर्गों की बातों को न मानने का पैगाम दे रहा है.
ये आयतें मुसलामानों की घुट्टी में पिलाई हुई है, इन हराम जादे ओलिमा ने जिसे कि एक बच्चा भी तस्लीम करने में बेजारी महसूस करे.

"कयामत आकर रहेगी लेकिन बहुत से लोग ऐसी बेशक खबर पर भी यकीन नहीं करते."
"ऐसी बेशक खबर पर भी यकीन नहीं करते."
उम्मी की बेशक ख़बरें मुसलामानों का ही यकीन हो सकती हैं.

"अल्लाह ने तुम्हारे लिए रात बनाया ताकि तुम इसमें सुकून और राहत हासिल कर सको और दिन इस लिए कि तुमको अच्छी तरह दिखाई दे, बे शक अल्लाह तो लोगों पर फ़ज़ल फ़रमाने वाला है लेकिन बहुत से लोग शुक्र ही नहीं करते."

मुसलामानों! रात और दिन ज़मीन पर सूरज की रौशनी है जो हिस्सा सूरज के सामने रहता है वहाँ दिन होता है, बाकी में रात, इतनी तालीम तो आ ही गई होगी. अब देखने के लिए दिन की ज़रुरत नहीं पड़ती इसे भी तुम रौशन हो चुके हो. अपने दिमागों को भी रौशन करो. मुहम्मदी अल्लाह के दुश्मन कौमों ने रातों को भी दिन से ज़्यादः रौशन कर लिया है. मुहम्मदी अल्लाह की हर बात गलत साबित हो चुकी है. मुसलमान झूट के अंधेरों में मुब्तिला है,

" वही तो है जो तुम्हारी पैदाइश मिटटी से करता है, फिर उसे फुटकी बूँद बना देता है, फिर उसको लहू के लोथड़े यानि लहू की फुटकी में तब्दील फ़रमाता है, फिर तुमको बच्चा बना कर बाहर निकालता है, फिर तुम हो कि अपनी जवानी तक पहुँचाए जाते हो, फिर बहुत बूढ़े भी हो जाते हो. कुछ तो अपना वक़्त हो जाने पर जवानी या बुढापे के पहले ही मर जाते हैं, और बाकी बहुत से अपने अपने वक़्त तक बराबर पहुँचते रहते हैं. इन हालात को ध्यान में रख कर अक्ल से काम लो." 
सूरह मोमिन ४० पारा २४ आयत (५९-६७)

अक्ल से काम लो और उम्मी की जनरल नालेज पर तवज्जो दो. 
इंसान की पैदाइश के सिलसिले में ये उम्मी का गाया हुवा ये नया राग है.

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Sunday 16 June 2013

सूरह मोमिन ४०

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.

सूरह मोमिन ४० पारा ४ 
दूसरी क़िस्त   


मुसलमानों! तुम अगर अपना झूटा मज़हब इस्लाम को तर्क कर के मोमिन हो जाओ तो तमाम कौमें तुम्हारी पैरवी के लिए आमादा नज़र आएँगी. कौन कमबख्त ईमान दारी की कद्र नहीं करेगा? माज़ी की तमाम दुन्या लाशऊरी तौर पर मौजूदा दुन्या की हुकूमतों को ईमानदार बनने के लिए कुलबुला रही है, मगर मज़हबी कशमकश इनके आड़े आती है. चीन पहला मुल्क है जिसने मज़हबी वबा से छुटकारा पा लिया है नतीजतन वह ज़माने में सुर्खुरू होता जा रहा है, शायद हम चीन की सच्ची सियासत की पैरवी पर मजबूर हो जाएं.
मोमिन लफ्ज़ अरबी है, इसके लिए तमाम इंसानियत अरबों की शुक्र गुज़ार है कि इतना पाक साफ़ शुद्ध और लाजवाब लफ्ज़ दुन्या को उन्हों ने दिया जिसे एक अरब ने ही इस्लाम का नाम देकर इस पर डाका डाला और लूट कर खोखला कर दिया.मगर इसका असर अभी भी क़ायम है.
ऐसे ही "सेकुलर" लफ्ज़ को हमारे नेताओं ने लूटा है. सेकुलर के मानी हैं "ला मज़हब" जिसका नया मानी इन्हों ने गढ़ा है 
"सभी मज़हब को लिहाज़ में लाना"
 सियासत दान और मज़हबी लोग ही गैर मोमिन होते हैं, अवाम तो मोम की तरह मोमिन, होती है, हर सांचे में ढल जाती है.
देखिए कि लुटेरा दीन क्या कहता है - - -

"वह लोग कहेंगे कि ए मेरे परवर दिगार! आप ने हमें दो बार मुर्दा रखा और दो बार ज़िन्दगी दी, सो हम अपनी ख़ताओं का इक़रार करते हैं, तो क्या निकलने की कोई सूरत है? फ़रमाएगा हरगिज़ नहीं, इस लिए कि जब एक अकेले अल्लाह से दुआ करने को कहा जाता था, तो तुम ने मुख्तलिफ़ की, की थी और अल्लाह के साथ जब किसी दूसरे को शरीक करने को कहा जाता था तो तुम ने कुबूल कर लिया, बस आज अल्लाह आली शान जो सब से बड़ा है, उसका हुक्म हो चुका है."
 सूरह मोमिन ४० पारा २४ आयत (११-१२)

मुहम्मद गलती से कह रहे हैं कि "दो बार मुर्दा रखा" मौत तो एक बार ही आती है - - - खैर ये इंसानी भूल चूक है, कोई कुदरत की नहीं, मुहम्मदी अल्लाह न कुदरत है न अल्लाह की कुदरत.  
कई बार मैं बतला चुका हूँ कि मुहम्मद की खसलत और फ़ितरत ही उनके रचे हुए अल्लाह की हुवा करती है कि वह कितना बे रहेम और ज़ालिम है. अपनी तबीअत के मुताबिक ही रचा है अल्लाह को.
"वह रफीउद दर्जात, वह अर्श का मालिक है, वह अपने बन्दों में से ही जिस पर चाहता है, वह्यी यानी अपना हुक्म भेजता है ताकि इज्तेमा के दिन से डराए. जिस दिन सब लोग सामने आ मौजूद होंगे. इनकी बात अल्लाह से छुपी नहीं होगी. आज के रोज़ किसकी हुकूमत होगी, बस अल्लाह की होगी. जो यकता ग़ालिब है. आज हर एक को इसके किए का बदला दिया जायगा, आज ज़ुल्म न होगा, अल्लाह बहुत जल्द हिसाब लेने वाला है. और आप लोगों को एक करीब आने वाली मुसीबत से डराएँ, जिस रोज़ कलेजे मुँह को आ जाएँगे, घुट घुट जाएँगे. जालिमों का कोई दोस्त होगा न सिफारसी."
सूरह मोमिन ४० पारा २४ आयत (१५-१८)

उम्मी मुहम्मद कहते है "आज के रोज़ किसकी हुकूमत होगी, बस अल्लाह की होगी" जैसे बाकी दिनों में शैतान की हुकूमत रहती हो. क़यामत का हर मंज़र नामा जुदा जुदा होता है, यह उनके झूट की क़िस्में हैं.
"और फ़िरओन ने कहा मुझको छोड़ दो मैं मूसा को क़त्ल कर डालूँगा, उसको चाहिए कि अपने रब को पुकारे. हमको अंदेशा है कि वह तुम्हारा दीन बदल डालेगा या मुल्क में कोई खराबी फैला दे.और मूसा ने कहा मैं अपने और तुम्हारे रब की पनाह लेता हूँ और हर ख़र दिमाग़ शख्स से जो रोज़े हिसाब पर यक़ीन नहीं रखता "
सूरह मोमिन ४० पारा २४ आयत (२६-२७)

जाह ओ जलाल वाला बादशाह कहता है मुझ को छोड़ दो? जैसे उसको किसी ने पकड़ रक्खा हो. बादशाह के एक इशारे से मूसा की गर्दन उड़ाई जा सकती थी. बेवकूफ खुद साख्ता रसूल को इन बातों की तमाज़त कहाँ थी. वह उस ज़माने में मूसा से इस्लाम की तबलीग कराता है. और इस वक़्त की उसकी उम्मत को क्या कहा जाए, उसने तो अकीदत के नाम पर जिहालत खरीद रख्खी है.
सानेहा ये है कि मुसलमान इन बातों को समझने की कोशिश नहीं करता. फ़िरओन की ज़िन्दगी के इन्हीं बातों को अल्लाह ने कान लगा कर सुना और मुहम्मद के कान में जिब्रील से फुसकी करवाया.

"और एक मोमिन शख्स जो फ़िरऔन के ख़ानदान से थे, अपना ईमान पोशीदा रक्खे हुए थे, कहा कि तुम एक शख्स को इस बात पर क़त्ल करते हो कि वह कहता है मेरा परवर दिगार अल्लाह है, हाँलाकि वह तुम्हारे रब की तरफ़ से दलील लाया है कि अगर वह झूठा है तो उसके झूट का वबाल उसी पर पडेगा और अगर वह सच्चा है तो इसकी पेश ख़बरी के मुताबिक तुम पर कोई अज़ाब भी आ सकता है. जान रक्खो कि अल्लाह ऐसे शख्स को राह नहीं देता जो हद से बढ़ जाने वाला और झूठा हो."
सूरह मोमिन ४० पारा २४ आयत (२८)

इस्लाम से दो हज़ार साल पहले ही कोई मोमिन पैदा हो गया था जो ईमान को पोशीदा रक्खे हुए था?
मुहम्मद जो ज़बान पर आता बक जाते उनकी हर गलत बात का जवाब ओलिमा ने गढ़ रक्खे हैं. इस बात का जवाब उन्हों ने इस तरह बना रक्खा है कि इस्लाम दीने इब्रामी मज़हब है.
उनसे कोई पूछे कि खुद नबी का बाप जहन्नम में क्यूँ जल रहा है जैस कि मुहम्मद खुद कहते हैं कि उनका बाप  जहन्नम रसीदा हुवा.


जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Sunday 9 June 2013

Soorah Momin 40 (1)

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।

नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.

 सूरह मोमिन ४० पारा  २४  (1)

ये सूरह मक्का की है जोकि मुहम्मद की तरकीब, तबलीग और तक़रीर से पुर है. वह कुछ  डरे हुए है, उनको अपने ऊपर मंडराते ख़तरे का पता चल चुका है, पेशगी में इब्राहीम और मूसा की गिरफ़्तारी की आयतें गढ़ने लगे हैं. उन पर जो आप बीती होती है वह अगलों की आप बीती बन जाती है. नाक लगी फटने,  खैरात लगी बटने, उस वक़्त लोग उन्हें सुनते और दीवाने की बडबड जानकर नज़र अंदाज़ कर जाते. तअज्जुब आज के लोगों पर है कि लोग उसी बडबड को अल्लाह का कलाम मानने लगे हैं.
मुहम्मद जानते थे क़ि अल्लाह नाम की कोई मख्लूक़ नहीं है. उसका वजूद कयासों में मंडला रहा है,  इस लिए वह खुद अल्लाह बन कर कयासों में समां गए. इस हक़ीक़त को हर साहिब ए होश (बुद्धि जीवी) जनता है और हर बद ज़ाद आलिम भी. मगर माटी के माधव अवाम को हमेशा झूट और मक्र में ही सच्चाई नज़र आती है. वक़्त मौजूँ हो तो कोई भी होशियार मुहम्मद अल्लाह का मुखौटा पहन कर भेड़ों की भीड़ में खड़ा हो सकता है और वह कम अक़लों का खुदा बन सकता है. दो चार नस्लों के बाद वह मुस्तनद भी हो जाता है. ये हमारी पूरब की दुन्या की ख़ासियत  है.
मुहम्मद ने अल्लाह का रसूल बन कर कुछ ऐसा ही खेल खेला जिस से सारी दुन्या मुतास्सिर है. मुहम्मद इन्तेहाई दर्जा खुद परस्त और खुद ग़रज़ इंसान थे. वह हिकमते अमली में चाक चौबंद, पहले मूर्ति पूजकों को निशाना बनाया, अहले किताब (ईसाई और यहूदी) को भाई बंद बना रखा, कुछ ताक़त मिलने के बाद मुल्हिदों और दहरियों ( कुछ न मानने वाले, नास्तिक ) को निशाना बनाया, और मज़बूत हुए, तो अहले किताब को भी छेड़ दिया कि  इनकी किताबें असली नहीं हैं, इन्हों ने फर्जी गढ़ ली हैं, असली तो अल्लाह ने वापस ले लीं हैं. हालाँक़ि अहले किताब को छेड़ने का मज़ा इस्लाम ने भरपूर चखा, और चखते जा रहे हैं मगर खुद परस्त और खुद गरज मुहम्मद को इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता. वह को अपने सजदे में झुका हुवा देखना चाहते थे, इसके अलावा कुछ भी नहीं.
ईमान लाने वालों में एक तबका मुन्किरों का पैदा हुआ जिसने इस्लाम को अपना कर फिर तर्क कर दिया, जो मुहम्मदी खुदा को करीब से देखा तो इसे झूट क़रार दिया, उनको ग़ालिब मुहम्मद ने क़त्ल कर देने का हुक्म दिया इससे बा होश लोगों का सफाया हो गया, जो डर कर इस्लाम में वापस हुए वह मुरतिद कहलाए.
मुहम्मद खुद सरी, खुद सताई, खुद नुमाई और खुद आराई के पैकर थे. अपनी ज़िन्दगी में जो कुछ चाहा, पा लिया, मरने के बाद भी कुछ छोड़ना नहीं चाहते थे कि खुद को पैग़म्बरे आखरुज़ ज़मा बना कर कायम हो गए, यही नहीं मुहम्मद अपनी जिहालत भरी कुरआन को अल्लाह का आखरी निज़ाम बना गए. मुहम्मद ने मानव जाति के साथ बहुत बड़ा जुर्म किया है जिसका खाम्याज़ा सदियों से मुसलमान कहे जाने वाले बन्दे झेल रहे है.
अध् कचरी, अधूरी, पुर जेह्ल और नाक़िस कुछ बातों को आखरी निज़ाम क़रार दे दिया है. क्या उस शख्स के सर में ज़रा भी भेजा नहीं था क़ि वह इर्तेकाई तब्दीलियों को समझा ही नहीं. क्या उसके दिल में कोई इंसानी दर्द था ही नहीं कि इसके झूट एक दिन नंगे हो जाएँगे.तब इसकी उम्मत का क्या हश्र होगा?
आज इतनी बड़ी आबादी हज़ारों झूट में क़ैद, मुहम्मद की बख्शी हुई सज़ा काट रही है. वह सज़ा जो इसे विरासत में मिली हुई है, वह सज़ा जो ज़हनों में पिलाई हुई घुट्टी की तरह है, वह क़ैद जिस से रिहाई खुद कैदी नहीं गवारा करता, रिहाई दिलाने वाले से जान पर खेल जाता है. इन पर अल्लाह तो रहेम करने वाला नहीं, आने वाले वक्तों में देखिए, क्या हो? कहीं ये अपने बनाए हुए क़ैद खाने में ही दम न तोड़ दें. या फिर इनका कोई सच्चा पैगम्बर पैदा हो. 

"हा मीम"
सूरह मोमिन ४० परा २४ आयत (१)
अल्लाह का ये छू मंतर कभी एक आयत (बात) होती है और कभी कभी कोई बात नहीं होती. यहाँ पर ये "हा मीम" एक बात है जो की अल्लाह के हमल में है.

" ये किताब उतारी गई है अल्लाह की तरफ़ से जो ज़बर दस्त है. हर चीज़ का जानने वाला है, गुनाहों को बख्शने वाला है, और तौबा को क़ुबूल करने वाला है. सख्त सज़ा देने वाला और क़ुदरत वाला है. इसके सिवा कोई लायक़े इबादत नहीं है, इसके पास लौट कर जाना है. अल्लाह की इस आयत पर वही लोग झगड़ने लगते हैं जो मुनकिर हैं, सो उनका चलना फिरना आप को शुबहे में न डाले."
सूरह मोमिन ४० परा २४ आयत (२-४)

अल्लाह कोई ऐसी हस्ती नहीं है जो इंसानी दिल ओ दिमाग़ रखता हो, जो नमाज़ रोज़ा और पूजा पाठ से खुश होता हो या नाराज़. यहाँ तक कि वह रहेम करे या सितम ढाए जाने से भी नावाकिफ़ है. अभी तक जो पता चला है, हम सब सूरज की उत्पत्ति हैं और उसी में एक दिन लीन हो जाएँगे. हमारे साइंसदान कोशिश में हैं कि नसले इंसानी बच बचा कर तब तक किसी और सय्यारे को आबाद कर ले, मगर हमारे वजूद को फ़िलहाल लाखों साल तक कोई खतरा नहीं.

"जो फ़रिश्ते अर्श को उठाए हुए हैं और जो फ़रिश्ते इसके गिर्दा गिर्द हैं और अपने रब की तस्बीह और तम्हीद करते रहतेहैं और ईमान वालों के लिए इसतेगफ़ार करते रहते है कि ऐ मेरे परवर दिगार इन लोगों को बख्श दीजिए जिन्हों ने तौबा कर लिया है और उनके माँ बाप बीवी और औलादों में से जो लायक़ हों उनको भी बहिश्तों में दाखिल कीजिए."
सूरह मोमिन ४० परा २४ आयत (७-८)

जो फ़रिश्ते अर्श को उठाए हुए है तो उनका पैर किस ज़मीन पर टिकता है? फ़रिश्ते अर्श को उठाए हुए नहीं बल्कि अर्श में लटके अपनी जान की दुआ करने में लगे होंगे. मुहम्मद कितने सख्त हैं कि "उनके माँ बाप बीवी और औलादों में से जो लायक़ हों उनको भी बहिश्तों में दाखिल कीजिए." अगर इन लोगों ने इस्लाम को क़ुबूल कर लिया हो तभी वह लायक हो सकते हैं.
अल्लाह बने मुहम्मद अपनी तबीअत की ग़ममाज़ी  कुछ इस तरह करते हैं - - -
"बेशक जो लोग कुफ़्र की हालत में मर कर आए होंगे, उनको सुना दिया जाएगा जिस तरह आज तुम को अपने रब से नफ़रत  है, इससे कहीं ज़्यादः अल्लाह को तुम से नफ़रत थी जब तुमको दुन्या  में ईमान की तरफ़ दावत दी जाती थी और तुम इसे मानने से इंकार करते थे,"
सूरह मोमिन ४० परा २४ आयत (१०)

ऐसी आयतें बार बार इशारा करती है कि मुहम्मद अंदरसे खुद को खुदा माने हुए थे. इन से बड़ा जहन्नमी और कौन हो सकता है?


जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Monday 3 June 2013

सूरह ज़ुमर ३ ९ (२)

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.

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"अल्लाह ने बड़ा उम्दा कलाम नाज़िल फ़रमाया है जो ऐसी किताब है कि बाहम मिलती जुलती है, बारहा दोहराई गयी है. जिस से उन लोगों को जो अपने रब से डरते हैं, बदन काँप  उठते हैं. फिर उनके बदन और दिल अल्लाह की तरफ़ मुतवज्जह हो जाते हैं, ये अल्लाह की हिदायत है, जिसको चाहे इसके ज़रीए हिदायत करता है.  और जिसको गुमराह करता है उसका कोई हादी नहीं."
सूरह अल-ज़ुमर ३९ पारा २३- आयत (२३)

उम्मी ने अपने अल्लम गल्लम किताब को तौरेत, ज़ुबूर और इंजील के बराबर साबित करने की कोशिश की है जिनके मुकाबिले में कुरआन कहीं ठहरती ही नहीं. जब तक मुसलमान इसके फरेब में क़ैद रहेंगे दुनिया के गुलाम बने रहेंगे. दुनिया बेवकूफों का फायदा उठती है उसको बेवकूफी से छुटकारा नहीं दिलाती.
अल्लाह शैतान की तरह इंसानों को गुमराह भी करता है .
मुसलमानो ! अपने अल्लाह की हकीकत जानो . 

''हाँ! बेशक तेरे पास मेरी आयतें आई थीं, तूने इन्हें  झुटलाया और तकब्बुर किया और काफिरों में शामिल हुवा.
आप कह दीजिए कि ए जाहिलो ! क्या फिर भी तुम मुझ से गैर अल्लाह की इबादत करने को कहते हो?
और इन लोगों ने अल्लाह की कुछ अज़मत न की, जैसी अज़मत करनी चाहिए थी. हालांकि सारी ज़मीन इसकी मुट्ठी में होगी, क़यामत के दिन और तमाम आसमान लिपटे होंगे इसके दाहिने हाथ में. वह पाक और बरतर है उन के शिर्क से "
सूरह अल-ज़ुमर ३९ पारा २४ - आयत (५९-६८)

दुन्या का बद तरीन झूठा नाम निहाद पैगम्बर अपने जाल में फँसे मुसलामानों कैसे कैसे मक्र से डरा रहा है. इसे किसी ताक़त का डर न था, अल्लाह तो इसकी मुट्ठी में था. तखरीब का फ़नकार था, मुत्फंनी की ज़ेहनी परवाज़ देखे कि कहता है 
"ज़मीन इसकी मुट्ठी में होगी, क़यामत के दिन और तमाम आसमान लिपटे होंगे इसके दाहिने हाथ में." 
क्यूंकि बाएँ हाथ से अपना पिछवाडा धो रहा होगा इसका अल्लाह.

"और सूर में फूँक मार दी जायगी और होश उड़ जाएँगे तमाम ज़मीन और आसमान वालों के, मगर जिसको अल्लाह चाहे. फिर इसमें दोबारा फूँक मार दी जायगी, अचानक सब के सब खड़े हो जाएँगे और देखने लगेंगे और ज़मीन अपने रब के नूर से रौशन हो जाएगी और नामा ए आमाल रख दिया जायगा और उन पर ज़ुल्म न होगा और हर शख्स को इसके आमाल का पूरा पूरा बदला दिया जायगा. और सबके कामों को खूब जानता है और जो काफ़िर हैं वह जहन्नम की तरफ़ हाँके जाएँगे गिरोह दर गिरोह बना कर, यहाँ तक कि जब दोज़ख के पास पहुँचेंगे तो इसके दरवाजे खोल दिए जाएंगे और इनमें से दोज़ख के मुहाफ़िज़ फ़रिश्ते कहेंगे कि क्या तुम्हारे पास तुम ही में से कोई तुम्हारे पैगम्बर नहीं आए थे? जो लोगों को तुम्हारे रब की आयतें पढ़ पढ़ कर सुनाया करते थे. और तुम को तुम्हारे इन दिनों के आने से डराया करते थे. काफ़िर कहेंगे हाँ आए तो थे मगर अज़ाब का वादा काफिरों से पूरा होके रहा. फिर कहा जायगा कि जहन्नम के दरवाजे में दाखिल हो जाओ और हमेशा इसी में रहो."
सूरह अल-ज़ुमर ३९ पारा २४ - आयत (६८-७२)

क़यामत की ये नई मंज़र कशी है. न कब्रें शक हुईं, न मुर्दे उट्ठे, न कोई हौल न हंगामा आराई. लगता है जिन्दों में ही यौम हिसाब है.
सूर की अचानक आवाज़ सुन कर लोग चौंकेंगे उनके कान खड़े हुए तो दोबारा आवाज़ आई, वह खुद खड़े हो गए, ज़मीन अपने रब की रौशनी से रौशन हो गई, बड़ा ही दिलकश नज़ारा होगा.  गवाहों के सामने लोगों के आमाल नामे बांटे जाएँगे, किसी पर कोई ज़ुल्म नहीं हुवा. बस काफ़िर दोज़ख की जानिब हाँके गए. दोज़ख के दरवाजे पर खड़ा दरोगा उनसे पूछता है अमा यार क्या तुम्हारे पास तुम ही में से कोई तुम्हारे पैगम्बर नहीं आए थे? जो लोगों को तुम्हारे रब की आयतें पढ़ पढ़ कर सुनाया करते थे. और तुम को तुम्हारे इन दिनों के आने से डराया करते थे.
काफ़िर कहेंगे आए तो थे एक चूतिया टाईप के उनकी मानता तो मेरी दुन्या भी खराब हो जाती.

अगर आप के पास वक़्त है तो पूरी ईमान दारी के साथ फ़ितरत को गवाह बना कर इन क़ुरआनी आयतों का मुतालिआ करें. मुतराज्जिम की बैसाखियों का सहारा क़तई न लें ज़ाहिर है वह उसकी बातें हैं, अल्लाह की नहीं. मगर अगर आप गैर फ़ितरी बातो पर यक़ीन रखते हैं कि २+२=५ हो सकता है तो आप कोई ज़हमत न करें और अपनी दुन्या में महदूद रहें.
मुसलामानों के लिए इस से बढ़ कर कोई बात नहीं हो सकती कि कुरआन को अपनी समझ से पढ़ें और अपने ज़ेहन से समझें. जिस क़दर आप समझेंगे, कुरआन बस वही है. जो दूसरा समझाएगा वह झूट होगा. अपने शऊर, अपनी तमाज़त और अपने एहसासात को हाज़िर करके मुहम्मद की तहरीक को परखें. आपको इस बात का ख्याल रहे कि आजकी इंसानी क़द्रें क्या हैं, साइंसटिफिक टुरुथ क्या है. मत लिहाज़ करें मस्लेहतों का, सदाक़त के आगे. बहुत जल्द सच्चाइयों की ठोस सतह पर अपने आप को खडा पाएँगे.

आप अगर मुआमले को समझते हैं तो आप हज़ारों में एक हैं, अगर आप सच की राह पर गामज़न हुए तो हज़ारों आपके पीछे होंगे. इंसान को इन मज़हबी खुराफ़ात से नजात दिलाइए.  


जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान