Wednesday 30 September 2020

ख़ुशबू ए इंसानियत


ख़ुशबू ए इंसानियत

धर्म और ईमान के मुख़तलिफ़ नज़रिए और माने अपने अपने हिसाब से गढ़ लिए गए हैं. आज के नवीतम मानव मूल्यों का तक़ाज़ा इशारा करता है कि धर्म और ईमान हर वस्तु के उसके ग़ुण और द्वेष की अलामतें हैं. 
इस लम्बी बहेस में न जाकर मैं सिर्फ़ मानव धर्म और ईमान की बात पर आना चाहूँगा. मानव हित, जीव हित और धरती हित में जितना भले से भला सोचा और भरसक किया जा सके वही सब से बड़ा धर्म है और उसी कर्म में ईमान दारी है. 
वैज्ञानिक हमेशा ईमानदार होता है क्यूँकि वह नास्तिक होता है, इसी लिए वह अपनी खोज को अर्ध सत्य कहता है. वह कहता है यह अभी तक का सत्य है कल का सत्य भविष्य के गर्भ में है.
मुल्लाओं और पंडितों की तरह नहीं कि आख़री सत्य और आख़री निज़ाम की ढपली बजाते फिरें. धर्म और ईमान हर आदमी का व्यक्तिगत मुआमला होता है मगर होना चाहिए हर इंसान को धर्मी और ईमान दार, 
कम से कम दूसरे के लिए. 
इसे ईमान की दुन्या में ''हुक़ूक़ुल इबाद'' कहा गया है, अर्थात ''बन्दों का हक़'' आज के मानव मूल्य दो क़दम आगे बढ़ कर कहते हैं 
''हुक़ूक़ुल मख़लूक़ात '' अर्थात हर जीव का हक़. 
धर्म और ईमान में खोट उस वक़्त शुरू हो जाती है जब वह व्यक्तिगत न होकर सामूहिक हो जाता है. धर्म और ईमान, धर्म और ईमान न रह कर मज़हब और रिलीज़न यानी राहें बन जाते हैं. इन राहों में आरंभ हो जाता है कर्म कांड, वेश भूषा,नियमावली, उपासना पद्धित, जो पैदा करते हैं इंसानों में आपसी भेद भाव. राहें कभी धर्म और ईमान नहीं हो सकतीं. 
धर्म तो धर्म कांटे की कोख से निकला हुआ सत्य है, 
पुष्प से पुष्पित सुगंध है, 
उपवन से मिलने वाली बहार है. 
हम इस धरती को उपवन बनाने के लिए समर्पित रहें यही मानव धर्म है. 
धर्म और मज़हब के नाम पर रची गई पताकाएँ, दर अस्ल अधार्मिकता के चिन्ह हैं. 
आप अकसर तमाम धर्मों की अच्छाइयों(?) की बातें करते हैं, यह धर्म जिन मरहलों से ग़ुज़र कर आज के परिवेश में क़ायम हैं, क्या यह अधर्म और बे ईमानी नहीं बन चुके है? क्या यह सब मानव रक्त रंजित नहीं हैं? 
इनमें अच्छाईयां है कहाँ? जिनको एक जगह इकठ्ठा किया जाय, 
यह तो परस्पर विरोधी हैं..
मैं आप का कद्र दान हूँ, बेहतर होता कि आप अंत समय में मानव धर्म के प्रचारक बन जाएँ और अपना पाखंडी गेरुआ वेश भूषा और दाढ़ी टोपी तर्क करके साधारण इंसान जैसी पहचान बनाएं. 
***
जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Tuesday 29 September 2020

मुस्लिमो के लिए बेवा और तलाक़ शुदा


मुस्लिमो के लिए बेवा और तलाक़ शुदा 

 भारत में हिदू और मुस्लिम  की आबादी  नौ और एक के अनुपात में है.  
जब नौ ज़बाने एक पर थूकें तो एक पर थूकें तो एक अकेला मायूस होकर ख़ुद पर थुकवाने लगता है और नौ की बोली ज़बान ज़बान ए ख़ल्क़ बन जाती है. कोई ज़रूरी नहीं कि एक अकेला ग़लत हो और बाक़ी दस सही.
मुसलमान बहु विवाह के लिए बदनाम है और तलाक़  के लिए भी रुस्वा ए ज़माना है.
मुस्लिम समाज में औरतें बेवा या अबला होने के बावजूद अपने समाज से जुडी रहती थीं. पुराने ज़माने में ख़ास कर अरब मर्द जंगजू हुवा करते थे , 
मरते कटते अपनी औरतों को बेवा और बहनों को अनाथ छोड़ कर अल्ला को प्यारे हो जाते थे. समाज में कभी कभी नौबत यहाँ तक पहुँच जाती कि मर्दों के मुक़ाबले औरते दो तीन ग़ुना हो जाती थी. इस सूरत में बचे हुए शादी शुदा मर्दों के आगे उन औरतों को अपने निकाह में ले लेना समाजी तकाज़ा बन जाता. बेवा से शादी करना सवाब होता, इस पर पहले की बीवियाँ भी शौहर का साथ देती.
उस समय रोज़ी दुश्वार हुवा करती थी घर में एक और औरत का आना शुभ माना जाता था कि काम करने वाले हाथ बढ़ जाते. चूलह चक्की से लेकर चमड़ा पकाने का काम भी घरों में हुवा करता था. बेवाएं अपनी बरकत लेकर आतीं थीं. बेशक अधेड़ के साथ नव खेज़ बेवा ब्याह दी जाती थी. 
खानदान समाज में कोई बेवा हुई तो रिशते तय्यार खड़े रहते.
इस तरह बेवा को सामाजिक संरक्षण ही नहीं, शारीरिक संरक्षण भी मिल जाता था. वही जज़्बा आज भी क़ायम है.
इसके बर अक्स हिन्दू समाज को देखा जा सकता है, 
जहाँ बेवा को सति माँ कहते हुए आग के हवाले कर दिया जाता था. 
कोई बाप भाई और बेटा अपने घर में विधवा को देखना पसंद नहीं करता, 
आज भी विधवा को बहुधा आश्रम के हवाले कर देते है, 
जहाँ उम्र के हिसाब से उनका शोषण होता है.
मुस्लिम में कहीं कोई आश्रम नहीं मिलता जहाँ वेवाओं को ले जा कर छोड़ आओ. वह अपनी औरतों को अपनी मर्यादा समझते हैं न कि भेड़ बकरी.
याद रख्खें नौ की आवाज़  मिलकर सच्चाई को दबा तो सकती है 
मगर मिटा नहीं सकती. 
यही मुस्लिम समाज का हिन्दू समाज के लिए कडुवा सच है 
कि हर रोज़ उसे विसतार मिलता रहता है.
***

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Sunday 27 September 2020

अनचाहा सच


अनचाहा सच 

मेरे कुछ मित्र भ्रमित हैं कि मैं क़ुरआन  या हदीस का पोल खोलता हूँ,  
गोया हिंदुत्व का पक्ष धर हूँ. 
मैं जब हिन्दू धर्म की पोल खोलता हूँ तो उनको अनचाहा सच मिलता है 
और वह मुझे तरह तरह की उपाधियों से उपाधित करने लगते हैं. 
उनकी लेखनी उनके मन की बात करने लगती है. 
उनकी शंका को मैं दूर करना चाहता हूँ कि 
हाँ मैं मुसलमान  हूँ. 
जैसे कि मैं कभी हिदू हो जाता हूँ या दलित. 
हर धर्म की अच्छी बातें हमें स्वीकार हैं. 
मैं फिर दावा करता हूँ कि इस्लाम की कुछ फ़िलासफ़ी दूर दूर तक 
किसी धर्म में नहीं मिलतीं जिन्हें टिकिया चोर मुल्लाओं ने मेट रख्खा है.
इस्लामी फ़िक़ह के मतलब भी हिन्दू धर्म को नसीब नहीं. 
"फ़िक़ह" के अंतर गत हक़ हलाल और मेहनत की रोटी ही मोमिन को मंज़ूर होती है. 
हर अमल में ज़मीर उसके सामने खड़ा रहता है. 
मुफ़्त खो़री, ठग विद्या, दुआ तावीज़, और कथित यज्ञ जैसे 
पाखण्ड से मिलने वाली रोटी हराम होती है. 
समाजी बुरे हालात के हिसाब से आपकी लज़ीज़ हांड़ी भी फ़िक़ह को अमान्य है. 
इसी तरह "हुक़ूक़ुल इबाद" का चैप्टर भी है कि जिसमे आप किसी के साथ ज़्यादती करते हैं तो ख़ुदा भी लाचार है, 
उस मजलूम बन्दे के आगे वह अपनी ख़ुदाई, 
मजबूर और मजलूम के हवाले करता है 
कि चाहे तो मुजरिम को मुआफ़ कर सकता है.
ख़ुद हिदुस्तान में ऐसे ऐसे बादशाह ग़ुज़रे हैं को फ़िक़ह के हवाले हुवा करते थे. उनको झूट की सियासत दफ़्नाती रहती है.
"फ़िक़ह और हुक़ूक़ुल इबाद" की हदें जीवन को बहुत नीरस कर देती हैं, 
भले ही समाज अन्याय रहित हो जाए. 
इसी लिए हिंदुत्व के वह पहलू मुझे अज़ीज़ है 
जो ज़िन्दगी में खुशियां भरती हैं, 
जैसे ऋतुओं के मेले ठेले, मुक़ामी कलचर, 
जो रक़्स (नृत) और मौसीक़ी (संगीत)से लबरेज़ होते हैं. 
अफ़सोस तब होता है जब इस पर धर्म के पाखण्ड ग़ालिब हो जाते हैं.
***   
जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Saturday 26 September 2020

मानव की मुक्ति


मानव की मुक्ति 

इस्लाम और क़ुरान पर मेरा बेलाग तबसरा और निर्भीक आलोचना को पढ़ते पढ़ते, मेरे कुछ मित्र मुझे समझने लगे कि मैं हिन्दू धर्म का समर्थक हूँ ?  
मेरी हकीक़त बयानी पर वह  मायूस हुए और आश्चर्य में पड गए . 
लिखते हैं - - - 
"आपसे मुझको ऐसी उम्मीद नहीं थी ."
 मेरे "कश्मीरी पंडितो "और दूसरे उन लेखों  पर जो उनके मर्ज़ी के मुताबिक न हुए.
अपने ऐसे मित्रों से मेरा निवेदन है कि मैं इस्लाम विरोधी हूँ, 
वहां जहाँ होना चाहिए,
और क़ुरान की उन बातों से सहमत नहीं जो इंसानियत विरोधी हैं, 
मैं उन नादान मुसलमानो का ख़ैर ख़्वाह हूँ जो क़ुरान पीड़ित हैं.
इसी तरह मैं हिदू जन साधारण का दोस्त हूँ जो धर्म के शिकार हैं.
मैं हर धर्म को बुरा मानता हूँ. 
कोई ज़्यादः बुरा है कोई कम बुरा.
 मेरे मित्र गण अगर सत्य पर पूरा पूरा विशवास रखते हो तभी मेरे दोस्त रह सकते है.
झूट और पाखंड के पुजारियों को मैं दोस्त रखना पसंद नहीं करूंगा.
जो लौकिक सत्य पर ईमान रखता है वही मोमिन है वही महा मानव है, 
हिन्दू और मुसलमान ख़ुद को बदलें और पुर अम्न इंसानियत की राह पर आ जाएं, देश को ऐसे वासियों की ही ज़रुरत है,
इसी में मानव की मुक्ति हैं.
***
जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Friday 25 September 2020

मनु वाद का ज़हर ---(2)


मनु वाद का ज़हर ---(2)   

 वैदिक कालीन 5000 वर्षों में आख़ीर एक हज़ार वर्षों में, 
इस्लाम की आमद से और फिर ईसाई मिशनरीज़ की कोशिशों के बदौलत, 
दलित, दमित मज़लूमों को मनुवाद से मुक्त होने का थोड़ा मौक़ा मिला, 
इनकी बरकतों से अखंड भारत की आधी आबादी मनुवाद के चंग़ुल से मुक्त हुई. 
भारत आज़ाद हुवा डा. भीमराव आंबेडकर के विचार धारा के साथ, 
मनुवाद के हाथों से तोते उड़ गए. 
नेहरु की निगरानी में नए भारत का उदय हुवा, 
साठ सालों में भारत का भाग्य बदला, 
मेरा बाल काल था, मैं इस बात गवाह हूँ कि भारत के इस सपूत नेहरु ने मानव जीवन को नया आयाम दिया, मेरी बस्ती जहाँ दो चार घर पक्के हुवा करते थे, वहां आज दो चार घर ही कच्चे बाकी बचे हुए है.
पूरा भारत बदहाली का शिकार था, आज ख़ुश हाली से मालामाल हो रहा है. 
मनुवाद जिस पर पाबंदी जैसी अवस्था लगा दी गई थी, 
70 साल बाद फिर जीवित हो चुका है. 
फिर खुलेआम शूद्रों पर मज़ालिम की शुरुआत हो गई है, 
ख़ास कर उस आबादी पर जो शूद्र से मुसलमान या ईसाई हो गए थे, 
उन्हें मनुवाद घर वापसी के लिए मजबूर कर रहा है.
मनुवाद ने राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की स्थापना करके 
नागपुर से पूरे देश को कंट्रोल करता है, 
हमेशा की तरह यह किंग मेकर बना हुवा है, 
और किंग से अपने पैर पुजवाता है. 
अतीत में इसके पास हनुमान की निगरानी में वानर सेना (शूद्रों की)  हुवा करती थी, आज भी RRS के स्वयं सेवक यानी सिपाही वही दैत्य हैं. 
जंगल में मुक्त हाथियों को पालतू दास बनाने में इन्हीं पालतू हाथियों को RRS इस्तेमाल कर रहा है.
इतिहास का अपना चेहरा होता है, 
देखते जाइए कि इतिहास क्या क्या रूप दिखलाए. 
***
जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Thursday 24 September 2020

मनु वाद का ज़हर ---(1)


मनु वाद का ज़हर ---(1)

जंगल में आज़ाद हाथियों को राम करके पालतू बनाने में सब से ज़्यादः ख़ुद हाथियों का किरदार होता है. जानवर ही नहीं इंसान भी पालतू हाथी ही हुवा करते हैं. 
35 करोर भारतीयों को एक लाख अँगरेज़, इन्हीं शरीर और ज़मीर के ग़ुलाम  हिन्दुस्तानियों के बदौलत हमें ग़ुलाम  बना कर वर्षों आका बने रहे. 
यह शरीर और ज़मीर के ग़ुलाम  इतिहास के पन्नो में बहुतेरे देखने को मिल जाएँगे. औरंगजेब के सिपाह सालार हिन्दू हुवा करते थे तो शिवाजी के मुस्लिम.
ज़माना लद गया और यह ग़ुलामी इतिहास के पन्नो में दफ़्न हुई, मगर नहीं, 
दुन्या की सब से बड़ी दास प्रथा मनुवाद आज तक भारत भूमि पर अमर बेलिया की तरह फल फूल रही है. 
मनुवाद की बुन्याद झूट के ठोस बुन्यादों पर रखी हुई है. 
जिस में पुनर जन्म का चक्र ऐसा चक्रव्यूह है कि इसको एक बार चला दिया जाए तो यह चलता ही रहता है, बेचारा दास अपनी ज़िन्दगी को पूर्व जन्म के पाप का परिणाम समझने लगता है, मनु वंश इन पापियों पर भरपूर नफ़रत बरसता है और तमाम सुख-सुविधओं के साथ तमाशा देखता रहता है. 
मनुवाद की तस्वीर भारत में आज भी खुली आँखों से देखी जा सकती है. 
आर्यन भारत में पश्चिम की ओर से आते और भारत के मूल निवासियों को अपना ग़ुलाम  बनाते, जो मूल निवासी भागने में कामयाब हो जाते वह भारत के दक्षिन में पनाह पाते. आर्यन हमला तो लगातार बना रहता, 
मगर उनके यलग़ार मुख्यता चार बार हुए हैं जिसके रद-ए-अमल में हर बार मूल निवासी पच्छिम से दक्षिन की तरफ़ पनाह पाकर बसते गए. 
आज द्रविड़ मुंनैत्र कड़ग़म जैसी मूल निवासी मानव श्रृंखला इसके सुबूत हैं. 
कुछ आर्यन दक्षिन में भी  पहुचे मगर वहां मूल निवासियों के जमावड़े के आगे वह भीगी बिल्ली बने हुए है,
उत्तर भारत में आर्यन का पूरा पूरा साम्राज क़ायम हुवा जहाँ वर्ण व्योवस्था की बुन्याद जो पड़ी तो आज सत्तर साल देश आज़ाद होने के बाद भी क़ायम है. 

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Wednesday 23 September 2020

देश प्रेम


देश प्रेम 

मादर ए वतन एक जज़बा ए बे असर है.  
यह जज़्बा तभी शबाब पर आता है जब हम अपने मुल्क से दूर हों, 
मुल्क में रहते हुए ऐसी तस्वीर सियासी फ्रेम में लगी बेज़ारी ही होती है.  
सच पूछिए तो हुब्बुल वतनी सियासी हरबा ज़्यादा है और हक़ीक़त कम. 
वतन को इतना अतिश्योक्ति पर लाया गया है कि 
इसे मादर और माता का दर्जा दे दिया जाता है. 
सच्चाई यह है कि यह मादर ए हक़ीक़ी की तौहीन है.  
क्या माँ को बदला और बाटा जा सकता है ? 
मगर यह धरती हमेशा बदली गई है, बाटी गई है. 
माँ तो किसी हद तक सम्पूर्ण धरती को कहा जा सकता है, 
मगर इस में भी क़बाहत है कि यह पूरा सच नहीं है.  
इस से मादर ए हक़ीक़ी की तौहीन होती है कि उसका दर्जा, 
उसके सिवा कोई और पाए.  
माँ तो एक ही होती है, दो नहीं. 
धरती को अर्ज़ पाक या पावन धरती कहा जा सकता है, 
वह जननी नहीं तो पेट भरनी ज़रूर है, 
मगर वतन को तो यह भी नहीं कहा जा सकता क्यों कि आज यह मेरा है , 
कल पराया हो सकता है, यहाँ तक कि दुश्मन भी. 
कडुवा सच यह है कि ज़मीन के किसी टुकड़े की सियासी हद बंदी की जाती है, जो सीमा रेखा से सीमित हो जाती है, 
फिर उसका नाम वतन, मादर ए वतन, देश और भारत माता प्रचारित किया जाता है. 
इससे बड़ी सच्चाई यह है कि सीमाओं की हद बंदी मानव जाति की फ़ितरत है, क्योंकि यह उसकी ज़रुरत भी है. 
सीमा बंद हिस्से को हम इस लिए तस्लीम करते हैं कि वह हमारी हिफ़ाज़त करता है, हमारी तहज़ीब का मुहाफ़िज़ है, हमारी आज़ाद नस्लों का रक्षक है. इसको फ़तह करके कोई बैरूनी ताक़त हमें अपना ग़ुलाम  बना सकती है , 
हमारी बहन बेटियां हमारी सीमा में ही महफूज़ हैं. 
 अपनी सीमा की हिफाज़त के लिए हम अपनी जानऔर  
अपना माल क़ुर्बान कर सकते हैं. 
इसके लिए हमें सही सही टैक्स अदा करना चाहिए जिससे सीमा की सुरक्षा होती है. टैक्स अदायगी के फ़र्ज़ अव्वलीन को खोखले देश प्रेम के ग़ुणगान,
 माता के सम्मान में बदल दिया जाता है. 
भारत माता की जय बोल कर और जय बुलवा कर सियासत दान सियासत करते हैं, सीमाओं की सुरक्षा नहीं. सीमाओं को कमज़ोर करते हैं. 
अन्ना हज़ारे और अरविंद केजरी वाल जैसे अच्छे और समझदार लोग भी,
 भारत माता जी जय बुलवा कर हमें जज़्बाती बना देते हैं. 
 हम पहली नज़र में देखें कि अपनी सीमा बंदी में हम कहाँ हैं ? 
इसके लिए टैक्स भरपाई की शर्त पर पूरे उतारते है या कमज़ोरी के शिकार हैं, दूसरी नज़र में देखें कि हमारे रहनुमा कितने ईमानदार हैं ? 
उन पर नज़र रखना टैक्स अदा करने के बराबर ही है. 
जिस हद बंदी में नार्थ कोरिया के डिक्टेटर जैसा ताना शाह या 
सद्दाम और गद्दाफी जैसे हुक्मराँ हो, 
वहाँ देश द्रोह ही देश प्रेम है.
***
जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Tuesday 22 September 2020

पृथ्वीराज चौहान


पृथ्वीराज चौहान 

दिल्ली के शाशक अनंग पाल की दो बेटियां थीं, कोई बेटा न था. 
बड़ी बेटी का शौहर पृथ्वीराज चौहान था और छोटी का जय चंद गहरवार. 
ऐसी सूरत में मान्यताओं के आधार पर राजा अनंग पाल के मरने के बाद बड़ी बेटी का बेटा दिल्ली राज्य का वारिस हुवा. 
राजा अनंग पाल  के मरने के बाद उसका बड़ा दामाद पृथ्वीराज चौहान अपने और अपनी बीवी के राज का मालिक बन गया. जिससे राजा जय चंद को कसक ज़रूर हुई मगर नीत और नियति को स्वीकार किया और सामान्य हो गए. 
पृथ्वीराज चौहान ओछे व्यक्तित्व का मालिक था, हर मौक़े पर अपने साढू 
राजा जय चंद को अपमानित करता. 
पृथ्वीराज चौहान अपने साढू के किसी भी अच्छे या बुरे अवसर पर न शरीक होता और उनके कन्नौज राज्य का तिरस्कार करता. 
इतिहास पृथ्वीराज चौहान को एक ऐश परस्त और अय्याश के रूप नेंजानता है. उसकी अय्याशी का यह आलम था कि अपनी साली की भतीजी 
संयोगिता का अपहरण कर लिया. 
(संयोगिता राजा जयचंद की बेटी नहीं थी, वह निःसंतान मरे, संयोगिता उनके भाई राजा मानिक चंद की बेटी थी) 
शरीफ़ और सज्जन पुरुष राजा जय चंद ने इन हालात में अपनी शाख और अपनी प्रतिष्ठा बचाने के लिए पड़ोसी को आवाज़ लगाईं . 
मुहम्मद ग़ौरी ने उनकी मदद किया और पृथ्वीराज चौहान पर आक्रमण किया, उसे परास्त कर के अपने ग़ुलाम  क़ुतुब उद्दीन ऐबक को पृथ्वीराज चौहान के सिंघासन पर बिठा कर वापस चला गया. 
हिन्दू इतिहास ने राजा  जय चंद को ग़द्दार का लक़ब दिया, 
अगर राजा जय चंद अपनी मर्यादा और अपनी अस्मिता को दुश्मन को समर्पित करता तो कायर राजा लिखा जाता. 
उसने सहायता को कायरता से बेहतर समझा. 
बहन बेटी की आबरू खंडित होने पर हर मजबूर आदमी पड़ोस से मदद की ग़ुहार लगाता है. यह बात प्राकृतिक है और मौलिक भी.
अपने साढू की बेटी, बेटी तुल्य संयोगिता को पटरानी बनाने के जुर्म में 
मुहम्मद ग़ौरी पृथ्वीराज चौहान को बंधक बना कर अपने साथ लेकर चला था, कंधार में पृथ्वीराज चौहान की मौत हो गई, 
वहीं कंधार में पृथ्वीराज चौहान को दफ़्न कर दिया गया. 
उस पर उसके बद चलनी के जुर्म पर मुक़दमा न चल सका.
मुहम्मद ग़ौरी ने हुक्म दिया कि इस बदकार की क़ब्र पर पांच पांच जूते 
सज़ा के तौर पर मारे जाएँ. 
यह सज़ा दायमी क़ायम हो गई. 
आज भी उधर से ग़ुज़रने वाले रुक कर ज़ेरे लब एक भोंडी सी गाली 
"बेटी - - - " पढ़ कर  उस कब्र पर पांच जूते लग़ाते हैं.  
कंधार इयर पोर्ट से आने और जाने वाले अफ़गान पृथ्वीराज चौहान की कब्र पर पांच जूते मार कर ही आगे बढ़ते हैं.
राजा जय चंद के वंसज में पूर्व प्रधान मंत्री राजा विश्व नाथ आते हैं 
जिन्होंने अपने पूर्वजों से मिले हुए रजवाड़े को दान कर दिया था 
और पूर्वजों की मान्यता मनुवाद को धिक्कारते और ठुकराते हुए 
मंडल आयोग की सिफ़ारशों को लागू कर दिया था 
जिससे उन्हें गद्दी गवानी पड़ी और अपने पूर्वज राजा जयचंद का ख़िताब 
"ग़द्दार" को झेलना पड़ा क्यूंकि उन्होंने मनुवाद से ग़द्दारी की. 
 चापलूस और झूठे इतिहास कार हमेशा अपने शाशकों के ग़ुलाम  रहे हैं. 
यह आर्यन को भारत का मूल निवासी लिख रहे हैं. 
भंगियों को अकबर का देन लिखते है, 
जबकि अकबर ने भंगियों को असली हलाल खोर का दर्जा दिया था . 
हमारे क़िस्से और कहानियां तो एलान के साथ झूटी होती हैं 
जिसे आम जनता सच मानने लगती है.
रुस्वाए ज़माना पृथ्वीराज चौहान को कुछ इतिहास कार मर्यादित करते हैं 
कि सच को शायद छिपा सकें, 
मगर नहीं समझते कि धरती का इतिहास कई कोनों में छिपा है.
आज भी राजस्थान का मनुवाद प्रभावित वर्ग झूठे इतिहास लिखवा रहा है 
कि महाराणा प्रताप विजई और अकबर पराजित हुवा. 
मगर सच्चाई कभी नहीं मरती,
एक दिन प्रगट होती है. 
***
जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Monday 21 September 2020

राम नाम सत्य है


राम नाम सत्य है 

ऐसे बेश क़ीमती मन्त्र हमारे पूर्वजों ने वर्षों पहले हमें वरदान स्वरूप दिए हैं 
मगर इसे आज तक हम समझने में असफल हैं.
एक बच्चा स्कूल सफ़र में जाते समय जब भी मंदिर के सामने से ग़ुज़रता, 
कभी कभी 'राम नाम सत्य है' के नारे लगाता,
तो कभी 'सत्य बोलो मुक्ति है' के नारे लगाता.
मंदिर का पुजारी उसे पत्थर उठा कर दौड़ाता और हड़काता.
पुजारी नादान था और बच्चा बुद्धिमान था.
राम नाम सत्य है में पैग़ाम छुपा हुवा है कि 
"सत्य का नाम ही राम है", 
राम रुपी कोई हस्ती नहीं है, 
सत्य का रूप ही राम (ईश्वर) है .
यह राम दशरथ पुत्र नहीं, 
सत्य का कोई रूप रंग ही नहीं ,
सत्य कोई हस्ती भी नहीं जिसे देखा जा सके,
सत्य तो निरंकार कर्म है.
कर्म के आधार पर ही हम जीते हैं .
हमारे कर्मों में अगर सत्य आधारित है. 
तो ही हमारी मुक्ति है.
मुक्ति मरणोपरान्त होती है? 
यह भी हास्य स्पद अवधारणा हैं.
मरने के बाद तो किस्सा तमाम हो जाता है.
कोई कर्म फल पाने का जीवन ही नहीं रहा.

राम नाम सत्य है, सत्य बोलो मुक्ति है 
का नारा बच्चे के पैदा होते ही उसके कान में लगवाना चाहिए, 
मगर लगता है उसके मरने के बाद, 
यह पाखंड की शुरुआत और अंत का, अर्थ हीन नतीजा है,
जिसके बुरे परिणाम में हम भार युक्त जीवन जीते हैं.
इंसान की हर सांस भार रहित हो, यह उसकी मुसलसल मुक्ति है.
इन क़ीमती मन्त्रों का उल्टा रूप दे दिया गया है, 
हम बजाए सत्य मंदिर के राम मंदिर बनाते हैं 
और जीवन भर असत्य को जीते हैं 
और उसकी पूजा करते हैं. 
जीवन मुक्ति होने के बाद सत्य बोलने सन्देश मुर्दे को सुनाते हैं.
***

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Sunday 20 September 2020

हिन्दू का अस्ल ?


हिन्दू  का अस्ल ?

भारत वासियों को यह नाम अरबियों और फ़ारस अर्थात ईरानियो का दिया हुवा है, इस तथ्य को ज़माना जानता है, 
वह सिन्धु को उच्चारित नहीं कर पाते थे, उनके लिए सिन्धु को हिन्द आसान लगा और सिंधु हिन्दू उच्चारित करने लगे. 
सिंधु नदी के पार रहने वालों को हिन्दू कहने लगे. 
अरब दुन्या के ग़लबे के बाद इसका दिया हुवा नाम सारी दुन्या में जाना जाने लगा, हत्ता कि ख़ुद भारतीय अपने आपको हिन्दू कहने लगे. 
मुसलमानों की जग जाहिर गुंडा गर्दी है, isis है. 
अरबी लुग़ात में इन्हें काला कुरूप लिखा और आर्यन ने इनको डाकू चोर लुटेरे लिखा.  
अरबी स्वयंभू ख़ुद को सभ्य क़ौम समझते थे और ग़ैर अरब को अजमी अर्थात अन्धे का नाम दिया करते. इस्लाम के बाद तो उनका रुतबा और बढ़ गया, ग़ैर मुस्लिम मुल्को को उन्होंने हर्बी (चाल-घात वाली क़ौम) की संज्ञा दी. 
  हिन्दुओं की विडम्बना ये है कि उन्होंने अरबों, ईरानियों और अंग्रेज़ों की बख़्शी हुई उपाधियों को अपने ऊपर थोप लिया जैसे कि क़ज़्ज़ाक़ ने अरबियों का बख़्शा हुवा नाम क़ज़्ज़ाक़ (लुटेरे) को न सिर्फ़ अपनाया बल्कि अपने मुल्क का नाम भी रख लिया "क़ज़्ज़ाक़िस्तान" 
सुनने में आया है कि अब उनके समझ में बात आई है कि वह क़ज़्ज़ाक़िस्तान का नाम बदल रहे हैं. 
शब्द कोष (लुग़ातें) ऐतिहासिक सच्चाइयाँ हैं, 
इस पर हिन्दुओं को इसे पढ़ कर आग बगूला नहीं होना चाहिए 
बल्कि संतुलन क़ायम रखते हुए कुछ नया क़दम उठाना चाहिए. 
ख़ुद आर्यन ने भारत पर प्रभुत्व के बाद असली भारतीयों को राक्षस, पिचाश, 
असुर और वानर तक लिखा.    
वैसे हर क़ौम सुदूर अतीत में असभ्य ही रही है, 
सब अमानुष से ही मानुष्य बने.  
सब को आदमी से इंसान बनने में समय लगा.  
कोई पहले तो कोई बाद में.   
***

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Saturday 19 September 2020

धर्म बाद में, धार्मिकता पहले


धर्म बाद में,  धार्मिकता पहले 

अपनी जीविका साधन में मसरूफ़ रहने के साथ साथ हम कई दूसरे नेक काम कर सकते हैं, राह में पड़ी रूकावट को हटाए हुए चल सकते हैं, 
कार, टेक्सी या बस पर जाते हुए किसी दुर्घटना ग्रस्त के सहायक बन सकते हैं. बहुत से ऐसे क्षण आपके सामने खड़े रहते हैं कि आप किसी के मददगार हो सकते हैं.
अपने नेक दिली के ख़ुद को साक्षी बन्ने का मौक़ा मत गँवाएँ. 
नेकियों से आपको जीवन की ऊर्जा मिलती है, 
करके तो देखिए. 
कुछ नहीं तो थोड़ा सा मुस्कुरा कर किसी अजनबी हो क्षणिक ख़ुशी तो दे ही सकते हैं.
नेकियों में कभी कभी ख़ुद का आर्थिक नुक़सान भी हो जाता है, 
मगर सोच बदलिए, नुक़सान फ़ायदे में बदल जाएगा. 
आपका धन परोपकार में लगा, परलोक संवारा.
कभी आपकी इस प्रविर्ति के कारण आप के जान पर भी बन सकती है, 
परवाह नहीं, इस से अच्छी कोई मौत नहीं हो सकती, 
मौत का एक दिन मुक़र्रर है, थोड़ा पहले सही.
मगर हाँ ! 
मरने से पहले देह-दान ज़रूर कर जाइए. 
अपने शरीर के एक एक अंग को जिंदा ज़रुरत मंदों को सौंप जाइए, 
अमरत्व भवः .
परोकार से जब आप थक कर बिस्तर पर जाएँगे तो 
ईश्वर आप के सामने खड़ा मुस्कुरा रहा होगा, 
अल्लाह आपको थपकियाँ देकर सुला रहा होगा.
नोट - दोसतो ! मैं बहुत संकोच के साथ बतला रहा हूँ, 
धर्म मुक्त होने के बाद, मैं 50 साल से इसी पद्धति को जी रहा हूँ. 
क्षमा 
***
जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Friday 18 September 2020

दीवालिए लोग


दीवालिए लोग 

धार्मिकता हर आईने में अपना रूप तलाशती है. 
जब आइना नकार देता है तो वह बे शर्म हो जाती है 
जिससे धर्म कांटा भी शर्मिंदा हो जाता है. 
दीपावली के पटाख़े मानव और मानवता के लिए दिल्ली 
और दूसरे बड़े शहरों में ज़हर परोस रहे हैं, 
इससे उनका (धार्मिकता) से कोई वास्ता नहीं, 
उनको पहले जवाब दिया जाए कि क़ुरबानी में जानवर बद्ध क्यों ? 
यह बात तो क़ुरबानी के समय उठती रहती है, 
इसको शहरों की हवा में ज़हर घोलने के जवाब में पेश करना ही अनुचित है.
अब आइए बक़रीद की क़ुरबानी पर . 
क़ुरबानी किस अंध विशवास का नतीजा है ? 
मैं इस पर हर बक़रीद के मौक़े पर अपने ख़याल का इज़हार करता हूँ. 
क़ुरबानी का मूल ध्येय था कि अरब में कब्ल इस्लाम अरबी मुमालिक के समूह का वार्षिक सम्मलेन हुवा करता था, जिसका दस्तूर था कि हैसियत वाले यहाँ आकर जानवरों की क़ुर्बानियां किया करें ताकि सम्मलेन के लिए खाने का इंतज़ाम हो सके. बेहतरीन समझौता था. 
अरब में नए धर्म का इस्लाम का उदय हुवा . 
इस्लाम आया सब  कुछ उलट पुलट गया.  
सम्मलेन ने इस्लामियत का रूप धारण किया और संमेलन बन गया हज. 
और क़ुरबानी फ़र्ज़ का चोला पहन लेली है.

क़ुरबानी में इस्लामी तरीक़ा यह है कि गोश्त का तीन हिस्सा किया जाए,
एक हिस्सा ग़रीबों में तक़सीम कर दिया जाए,
दूसरा हिस्सा ग़रीब रिश्ते दारों में बाँट दिया जाए जो ख़ैरात खाना गवारा नहीं करते.
तीसरा हिस्सा घर वालों का है जो अहबाब और परिवार के काम आए.
फ़ी ज़माना बेतरीन तरीका था जब इंसान गोश्त की एक बोटी को तरसता था.
क़ुरबानी के दिन हर रोज़ के मुक़ाबले में दो-तीन ग़ुणा जानवर कट जाते है, 
बस यही बात उचित या अनुचित कही जा सकती है. 
उचित इस लिए है कि क़ुरबानी के माध्यम से पूरा समाज जी भर के गोश्त खा लेता है, जैसे दीवाली या होली में हिन्दू जी भर के मिठाई खा लेता है. 
शाकाहारी महानुभावों से क्षमा ! 
जिन को गोश्त की कल्पना से उलटी होने लगती है, 
हाँलाकि मुंह में वह भी ज़बान रखते हैं जो कि मांस का जीता जागता लोथड़ा है, साथ में 32 हड्डियों की मोतियाँ भी होती है जिनको दांत कहा जाता है.
किसी के आहार पर प्रहार करना, दानवताचार है. 
 ***

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Thursday 17 September 2020

सच्चाई सर्व श्रेष्ट आधार, सत्य मेव जयते !


सच्चाई सर्व श्रेष्ट आधार, सत्य मेव जयते !

अल्लाह, गाड और भगवान् 
अगर इंसान किसी अल्लाह, गाड या  भगवान को नहीं मानता तो 
सवाल उठता है कि वह इबादत और आराधना किसकी करता होगा ? 
मख़लूक़ (जीव) फ़ितरी तौर पर किसी न किसी की आधीन होना चाहता है. 
एक चींटी अपने रानी के आधीन होती है, 
तो एक हाथी अपने झुण्ड के सरदार हाथी या पीलवान का अधीन होता है. 
कुत्ते अपने मालिक की सर परस्ती चाहते है, 
तो परिंदे अपने जोड़े पर मर मिटते हैं. 
इन्सान की क्या बात है, उसकी हांड़ी तो भेजे से भरी हुई है, 
हर वक्त मंडलाया करती है, 
नेकियों और बदियों का शिकार किया करती है.
शिकार, शिकार और हर वक़्त शिकार, 
इंसान अपने वजूद को ग़ालिब करने की उड़ान में हर वक़्त 
दौड़ का खिलाडी बना रहता है,
मगर बुलंदियों को छूने के बाद भी वह किसी की अधीनता चाहता है.
सूफ़ी तबरेज़ अल्लाह की तलाश में इतने गहराई में गए कि 
उसको अपनी ज़ात के आलावा कुछ न दिखा, 
उसने अनल हक (मैं खुदा हूँ) कि सदा लगाई, 
इस्लामी शाशन ने उसे टुकड़े टुकड़े कर के दरिया में बहा देने की सज़ा दी. 
मुबालग़ा ये है कि उसके अंग अंग से अनल हक़ की सदा निकलती रही.
कुछ ऐसा ही गौतम के साथ हुवा कि 
उसने भी भगवन की अंतिम तलाश में ख़ुद को पाया और
" आप्पो दीपो भवः " का नारा दिया.
मैं भी किसी के आधीन होने के लिए बेताब था, 
ख़ुदा की शक्ल में मुझे सच्चाई मिली और मैंने उसमे जाकर पनाह ली.
कानपूर के 92 के दंगे में, मछरिया की हरी बिल्डिंग मुस्लिम परिवार की थी, 
दंगाइयों ने उसके निवासियों को चुन चुन कर मारा, मगर दो बन्दे उनको न मिल सके, जिनको कि उन्हें ख़ास कर तलाश थी. 
पड़ोस में एक हिन्दू बूढ़ी औरत रहती थी, 
भीड़ ने कहा इसी घर में ये दोनों शरण लिए हुए होंगे, 
भीड़ ने आवाज़ लगाई, घर की तलाशी लो. 
घर की मालिकन बूढी औरत अपने घर की मर्यादा को ढाल बना कर 
दरवाजे पर आकर खड़ी हो गई. 
उसने कहा कि मजाल है मेरे जीते जी मेरे घर में कोई घुस जाए, 
रह गई बात कि अन्दर मुसलमान हैं ? 
तो मैं ये गंगा जलि सर पर रख कर कहती हूँ कि 
मेरे घर में कोई मुसलमान नहीं है. 
बूढी औरत ने झूटी क़सम खाई थी, 
दोनों व्यक्ति घर के अन्दर ही थे, 
जिनको उसने मिलेट्री आने पर उसके हवाले किया. 
ऐसे झूट का भी मैं अधीन हूँ.
*** 
जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Wednesday 16 September 2020

कुन फ़या कून होजा, हो गया


कुन फ़या कून 
होजा, हो गया 

विद्योत्मा से शिकस्त खाकर मुल्क के चार चोटी के क़ाबिल ज्ञानी पंडित वापस आ रहे थे, रास्ते में देखा एक मूरख (कालिदास) पेड़ पर चढा उसी डाल को काट रहा था जिस पर वह सवार था, उन लोगों ने उसे उतार कर उससे पूछा राज कुमारी से शादी करेगा? 
प्रस्ताव पाकर मूरख बहुत खुश हुवा. पंडितों ने उसको समझया कि  तुझको राज कुमारी के सामने जाकर बैठना है, उसकी बात का जवाब इशारे में देना है, जो भी चाहे इशारा कर दे. 
मूरख विद्योत्मा के सामने सजा धजा के पेश किया गया, 
विद्योत्मा से कहा गया महाराज का मौन है, जो बात चाहे संकेत में करें. 
राज कुमारी ने एक उंगली उठाई, जवाब में मूरख ने दो उँगलियाँ उठाईं. 
बहस पंडितों ने किया और विद्योत्मा हार गई. 
दर अस्ल एक उंगली से विद्योत्मा का मतलब एक परमात्मा था जिसे मूरख ने समझा वह उसकी एक आँख फोड़ देने को कह रही है. जवाबन उसने दो उंगली उठाई कि जवाब में मूरख ने राज कुमारी की दोनों आखें फोड़ देने कि बात कही थी. जिसको पंडितों ने आत्मा और परमात्मा की बहेस से साबित किया. 
कुन फ़या  कून के इस मूर्ख काली दास की पकड़ पैग़म्बरी फ़ार्मूला है जिस पर मुस्लमान क़ौम ईमान रक्खे हुए है. 
ये दीनी ओलिमा कलीदास मूरख के पंडित हैं जो उसके आँख फोड़ने के इशारे को ही मिल्लत को पढा रहे है, दुन्या और उसकी हर शै कैसे वजूद में आई ? 
अल्लाह ने कुन फ़या कून कहा और सब हो गया. तालीम, तहक़ीक़ और इर्तेक़ाई मनाज़िल की कोई अहमियत और ज़रूरत नहीं. 
डर्बिन ने सब बकवास बकी है. सारे तजरबे गाह इनके आगे फ़ैल. उम्मी की उम्मत उम्मी ही रहेगी, इसके पंडे मुफ़्त खो़री करते रहेंगे उम्मत को दो+दो+पॉँच पढाते रहेंगे . 
यही मुसलामानों की क़िस्मत है. 
अल्लाह कुन फ़या कून के जादू से हर काम तो कर सकता है मगर पिद्दी भर शहर मक्का के काफिरों को इस्लाम की घुट्टी नहीं पिला सकता. 
ये काएनात जिसे आप देख रहे हैं करोरो अरबो सालों के इर्तेक़ाई रद्दे अमल का नतीजा है, किसी के कुन फ़या कून कहने से नहीं बनी.
जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Tuesday 15 September 2020

कल्पनाओं की कथा और जन मानस की आस्था


कल्पनाओं की कथा और जन मानस की आस्था 

मैंने पढ़ा पंडित जी उपनिशध में लिखते हैं - - - 
समुद्र यहीं तक सीमित नहीं जो आप देखते और जानते हैं. 
खारे पानी के बाद, मीठे पानी का समुद्र इतना ही विशाल है जितना खारा. 
इसके बाद तीसरा समुद्र है दूध का, फिर घी का, उसके बाद (आदि आदि) 
और अंत में अमृत का समुद्र है. इनकी कुल संख्या सात है.
मैं कानपुर की तहसील वन्धना और बिठूर के दरमियान स्तिथ चिन्मय बृद्ध आश्रम में दो महीने रहा. यह आश्रम ठीक उसी जगह क़ायम किया गया जहाँ  किसी ज़माने में बाल्मीकि की शरण स्थली हुवा करती थी, जब वह लूट मार किया करते थे. 
कहते है पहले यह जगह गंगा का ड़ेल्टा हुवा करती थी और यह स्थल घने जंगलो से ढका हुवा करता था, डाकुओं के लिए सुविधा जनक स्थान हुवा करता था .
एक दिन मुझे बिठूर जाने का अवसर मिला जहाँ कई ऐतिहासिक स्मारक हैं , 
उनमे एक स्मारक सीता रसोई भी है . 
एक जगह एक खूटी गड़ी हुई मिली जिसे संसार का केंद्र विन्दु कहा जाता है .
स्थानी लोगों के बीच प्रचलित किंवदंतियाँ जोकि उनके पूर्वजों से उनको मिलीं , मुस्तनद सी लगती हैं. ऐसा लगा कि हम अतीत में सांस ले रहे हैं.
मेरे सात एक रिटायर्ड ग्रेजुएट अवस्थी जी भी थे. 
मैंने उनसे दरयाफ़्त किया कि राम युग को कितने वर्ष हुए होंगे ? 
उन्हों ने बड़ी सरलता से कहा आठ लाख वर्ष हुए जब सत युग था .
मैं ने मन ही मन सोचा अवस्थी जी की अवस्था कितनी सरल है कि 
वह सुनी सुनाई बातों को सच मानते हैं और अपने विवेक को कोई कष्ट नहीं देते. सीता रसोई को देख कर भी इस पर पुनर विचार नहीं करते कि 
यह आठ लाख सालों से कैसे स्थिर है ? 
यही होती है जन साधारण की मन स्तिथि, मनोदशा.
आधुनिक इतिहास कारों का मानना है कि बाल्मीकि तेरहवीं सदी के आस पास हुए , इस बात को बिठूर के लोग भी साबित करते हैं कि उनकी यद् दाश्त में अपने बुजुर्गों की गाथा सीना बसीना महफूज़ है .
बारहवीं तेरहवीं सदी में दिल्ली का सुल्तान इल्तु तमाश हुवा करता था जिसकी बेटी रज़िया सुल्तान भारत कि प्रथम नारी शाशक हुई थी .
उस काल में बाल्मीकि ने रामायण लिखी जोकि लव कुश के संरक्षक और  
ग़ुरु हुवा करते थे. 
तलाक़ शुदा सीता अपने दोनों बेटों को सन्यास लिए बिठूर में रहती थीं .
सवाल उठता है रज़िया सुल्तान काल में कोई राम, दशरथ या जनक का 
कहीं कोई नाम निशान नहीं मिलता, 
न अयोध्या में न काशी में . 
मगर बाल्मीकि थे, सीता थीं और लव कुश भी थे .
क्या सीता जी की विपदा पर मुग्ध होकर बाल्मीकि ने रामायण कथा का प्लाट नियोजित किया था ? 
जो लेखक की अफ़सानवी कल्पना से जन मानस की आस्था बन गई हो ?? 
बाल्मीकि की यह कथा जब पंडित के हाथ लगी तो एक समुद्र से सात समुद्र हो गई. तुलसी दास ने बाल्मीकि की रचना को हिंदी स्वरूप देकर 
इसे जन साधारण का धर्म स्थापित कर दिया ?
रामायण की भ्रमित लेखनी बतलाती है कि तुलसी दास सशरीर कुछ दिनों लिए 
राम युग में रह कर वापस आए और रामायण तुलसी दास का आँखों देखा हाल है .
***

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Monday 14 September 2020

भोगना और सम्भोगना


भोगना और सम्भोगना 

बड़ा महत्त्व पूर्ण विषय है जिस पर क़लम उठाने की हिम्मत कम लोग ही कर पाते है, जब कि इंसान की दूसरी सब से बड़ी ज़रुरत का विषय है. 
इंसान की ही नहीं बल्कि हर जीव के लिए यह बात कही जा सकती है. 
पहली समस्या पेट है, जिसको भरना ज़रूरी है. 
यह नहीं भरेगा तो संसार निर्जीव हो जाएगा.
इसे मैं 'भोगना' नाम देता हैं. 
कुछ लोग तो भगवानों को भी भोग लगवाते है.

इंसान की दूसरी सब से बड़ी ज़रुरत है SEX.
इंसान के वजूद के लिए वैसे 'संभोगना' पहली ज़रुरत है. 
वजूद ही नहीं होगा तो कैसा भोगन ? 
आजकल हमारे भारतीय समाज में 'संभोगना' के विचित्र प्रकार की 
मर्यादाएं और मीनारें बनी हुई हैं. 
मीडिया पर 25% ख़बरें और बहसें 'संभोगना' पर ही आधारित होती हैं.
इस करण लगता है यौन अपराध की बाढ़ सी आ गई है.
जब कि यह पहले अतीत में आज से ज़्यादा ही था.
मीडिया भी एक कारण है जिस से इसका प्रचार हो रहा है. 
'संभोगना' का अमल जिसे आज जायज़ और नाजायज़ कहा जा रहा है, 
हज़ारों साल  पहले से इतनी ही थीं 
मगर  इसकी ख़बर नहीं बनती थी.
आज ईजादों की मशीनों ने नया कान और आँख बख़्शा है. 
फिर क्या हुवा इस  चटख़ारे की धूम मच गई. 

'संभोगना' का क्रूर तम रूप है Honour Killing . 
'संभोगना' की नाजायज़ औलादें आज के पिता और भाई 
एवं परिवार और खाब पंचायतों के रूप में देखी जा सकती हैं.  
'संभोगना' स्त्री और पुरुष की पहली शान है, 
जिस अंग्रेजी भाषा सेक्सी का रुतबा देती है. 
हिंदी भाषा में आते ही यह छिनाल हो जाती है.
हमें 'संभोगना' को नए सिरे से बहस में लाने की ज़रुरत है.
यह जीवन दायी कर्म भारतीय समाज में पाप बन जाता है, 
इसी आधार को लेकर क़ानून की निगाह में जुर्म बना हुवा है. 
क़ानून प्रकृति के आईने आकर अपनी शक़्ल बदले, 
न कि क़बीले और धर्म को आधार बनाए. 
दो फ़र्द अगर 'संभोगना' पर आमादा हैं 
और किसी तीसरे का इसमें कोई नुक़सान न हो तो 
बाप भाई अथवा शौहर बे मअनी हैं. 
क़ुदरती तक़ाज़ा यही है, क़ुदरत का क़ानून हो.
लड़की और लड़के में SEXI उमँग कब औतरित होते हैं ? 
इसे अंग्रेजी भाषा में आसानी से टीन एज कहा जाता है 
और हिन्दी में इस टीन एज की प्रति क्रिया लोगों के लिए 
मौत और ज़िन्दगी का सवाल बन जाता है. 
तअज्जुब होता है कि क़ुदरती रद्द-अमल में इंसान का दख़्ल ? 
वह भी इतना क्रूर ?? 
'संभोगना' 'संभोगना' न रह कर उस वक़्त जुर्म बन जाता है. 

जब दो पक्षो में किसी एक की असहमति हो. 
जब बालिग़ फ़र्द नाबालिग़ को वरग़ला कर सहमति बना ले. 
ऐसे मुजरिमों को तीन दिन में गवाही, सुबूत और फ़ैसला कर के 
बधिया कर के समाज में रहने दिया जाए, 
न कि जेल में रख कर उम्र भर पाला पोसा जाए. 
बलात्कार के बाद हत्या के मुजरिम को तीन दिन के अन्दर ही चौराहों पर फांसी हो.
दोनों टीन एजरों पर कोई जुर्म न बने, 
बच्चों को उंच-नीच उनके वालदैन समझा दें. 
इसमें समाज को कोई इजारा न हो, 
ऐसा समाज बने कि इसे बच्चे की खीर चोरी समझी जाए. 
ख़ुद ही सोचें कि बच्चों के इस खेल से मानव समाज पर कौन सा पहाड़ टूट पड़ा ?

'संभोगना' जुर्म और पुन्य की शक़्ल बन कर, 
धरातल से लेकर आकाश तक पहुँचती है. 
धरातल पे हमारी खाब पंचायतें हैं 
और आकाश पर योरोप के नार्वे स्वीडन आदि जैसे देश हैं 
जो दुन्या के Top Ten सभ्य देशों में शुमार किए जाते हैं. 
यहाँ गोत्र और गोमूत्र से पवित्रता आती है, 
वहां 'संभोगना' खेल मात्र है. कहीं कहीं Family Game की तरह है. 
दुन्या बहुत छोटी हो चुकी है, इन्टर नेट उठाओ, सब साफ़ नज़र आएगा. 
बहुत से पाठक बेज़ार होकर मुझे 1-1 और 2-2 किलो की गलियां देंगे. 
इन अक़्ल के पैदल बंधुओं को अक़्ल की पैडल चाहिए. 
***

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Sunday 13 September 2020

वास्तविकता है ईमान



वास्तविकता है ईमान 

आस्तिक और नास्तिक की क़तार में एक लफ्ज़ है स्वास्तिक है. 
मुझे भाषा ज्ञान बहुत कम है मगर जो चेतन शक्ति है वह आ टिकती है 
"तिक" 
इस तिक का तुकांत अगर स्वा से जोड़ दिया जाए तो स्वास्तिक बनता है, 
यह दुन्या का बड़ा चर्चित शब्द बनता है. 
हिन्दू, बौध, जैन, आर्यन और नाज़ियों में इसका चिन्ह बहुत शुभ माना जाता है. 
इसकी जड़ें बहुत गहरी हैं, 
इसका बीज ज़रूर कहीं पर मानव सभ्यता में बोया गया है.  
स्वास्तिक में वस्तु, वास्तव और वास्तविकता का पूरा पूरा असर है.  
शब्द वास्तव बहुत महत्त्व पूर्ण अर्थ रखता है 
जोकि धर्म के हर हर पहलू पर सवालिया निशान बन कर खड़ा हो जाता है. 
इस वास्तव को धर्मों ने धर्मी करण करके इस का लाभ अनुचित उठाया और 
अर्थ का अनर्थ कर दिया है, 
अपने ग्रन्थों में इसे चस्पा कर कर दिया, 
इसकी बातों  पर चलने वालों को आस्तिक 
और इसे न मानने वाले को नास्तिक ठहरा दिया है .
फिर भी यह शब्द वास्तव अपना प्रताप लिए धर्मों की दुन्या में डटा हुवा है.

इसी तरह अरबी ज़बान में एक शब्द है 
"ईमान" 
इस पर इस्लाम ने बिलजब्र ऐसा क़ब्ज़ा किया कि ईमान, 
इस्लाम का पर्याय बन कर रह गया है.
लोग अकसर मुझे हिक़ारत के साथ नास्तिक कह देते है, 
उनके परिवेश को मद्दे नज़र रखते हुए मैं 'हाँ' भी कह देता हूँ. 
यही नहीं मैं उनको समझाने के लिए ख़ुद को नास्तिक कह देता हूँ.
ख़ुद को मुल्हिद या दहरया कह देता हूँ जोकि सामान्यता घृणा सूचक माना जाता है.  
इन अपमान सूचक शब्दों वास्तविक अर्थ - - -
नास्तिक (वेदों पर आस्था न रखने वाला) 
 मुल्हिद, (अनेश्वर वादी) 
दहरया (दुन्या दार) 
उम्मी (हीब्रू भाषा का ज्ञान न रखने वाला) 
अजमी=गूंगा (अरबी जबान न जानने वाला, अरबी इन्हें गूंगा कहते हैं. 
धर्मों ने इन शब्दों को घृणा का प्रतीक बना कर अपनी दूकाने चलाई है. 
इन शब्दों पर ग़ौर करे सभी अपना बुनयादी स्वरूप रखते हैं. 
मगर धूर्त धार्मिकता इन्हें नकारात्मक बना देती है.
ईमान बड़ा मुक़द्दस लफ़्ज़ है - - - 
लौकिक, स्वाभाविक और क़ुदरती सच्चाई रखने वाली बात ईमान है. 
न कि इन्सान हवा में उडता हो और पशु इंसानी ज़बान में वार्तालाप करता हो. 
ईमान का ही हम पल्ला लफ्ज़ स्वास्तिक है. 
स्वाभाविक बातें ही सच होती हैं. 
अस्वाभाविक और ग़ैर फ़ितरी बातें धर्मों के बतोले होते हैं.
इसी तरह से मानव कर्म भी सार्थक और निरर्थक होते हैं . 
धरती पर हल चलाकर अन्न उपजाना सार्थक काम है, 
भूमि पूजन निरर्थक काम होता है.  
अधिकांश दुन्या इन्ही वास्तविकता और ईमान को कनारे करके  
निरर्थकता और बे ईमानी पर सवार है . 
***

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Saturday 12 September 2020

राम नाम


राम नाम 

ISIS और दूसरी इस्लामी तंज़ीमों के मानव समाज पर ज़ुल्म व् सितम देख कर बजरंग दल को हिंदुत्व का जोश आया कि वह भी इन की नक़्ल में प्रतीक आत्मक मुज़ाहिरा करें, कि वह भी उनकी तरह मानवता के, ख़ास कर मुसलमानों के दुश्मन हो सकते है. 

हालांकि इनका प्रदर्शन राम लीला के लीला जैसा हास्य स्पद है. 

मदारियों की शोब्दा बाज़ी की तरह. 

बजरंग दल का कमांडर अकसर स्वर्ण होता है, बाक़ी फ़ौजी दलित और ग़रीब होते हैं. 

वह स्वर्ण इन दलितों को पूर्व तथा कथित वानर सेना आज तक बनाने में सफल है. 

वह इन्हीं में से एक को दास्ता के प्रतीक हनुमान बना देते हैं 

जो अपना सीना चीर कर दलितों को दिखलाता है कि उसके भीतर छत्रीय राम का वास है.

विनय कटिहार, कल्याण सिंह, राम विलास पासवान और उदिति नारायण जैसे सुविधा भोगी हर समाज में देखे जा सकते हैं. यह मौजूदा मनुवाद के दास हनुमान हैं .

12% मनुवादियों ने बाक़ी मानव जाति को राक्षस, पिशाच, वानर, शुद्र, अछूत जैसे नाम देकर इनके साथ अमानवीय बर्ताव किया है. 

इन्हीं में से जिन लोगों ने दासता स्वीकार करके इनके अत्याचार में शाना बशाना हुए और इनके लिए अपनी जान आगे कर दिया, 

उनको हनुमान बना कर उनकी बिरादरी के लिए पूजनीय बना दिया .

राम के आगे हाथ जोड़ कर घुटने टेके हनुमान देखे जा सकते हैं. 

शूर वीरों के लिए, इनकी दूसरी तस्वीर होती है 

सीना फाड़ कर राम सीता की, 

जो आस्था और प्रेम को दर्शाती है, 

उनके दास साथियों के लिए . 

यही नहीं मौक़ा पड़ने पर यह ब्रह्मण भी हनुमान पूजा में शामिल हो जाते हैं मगर उनको अपने घाट पर पानी के लिए फटकने नहीं देते. 

किस क़दर धूर्तता होती है इनके दिमाग़ में. 

जहाँ मजबूर होकर यह दमित सर उठाते हैं, 

तो मनुवाद इनको माओ वादी या नक्सली कह कर दमन करते है.

दमितों के सब से बड़े दुश्मन यही मुसलसल बनाए जाने वाले हनुमान होते हैं. 

यह अपने ताक़त का प्रदर्शन कभी मुसलमानों पर करते हैं तो कभी ईसाइयों पर जोकि अस्ल में दलित और दमित ही होते हैं 

मगर मनुवाद से छुटकारा लेकर धर्म बदल लेते है .

कितनी मज़बूत घेरा बंदी है, मनुवाद की .   

*** 

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Friday 11 September 2020

मैसुलेनिअस mussolinians


मैसुलेनिअस mussolinians

जो लोग तौरेत (Old Testament) की रौशनी में यहूदियों की फ़ितरत को जानते है, 
वह हिटलर को हक़ बजानिब कहते हैं मगर तारीख़ के आईने में वह मुजरिम ही है.
हिटलर को इस कशमकश में भूला जा सकता है 
मगर मसुलीनी (mussolini) को कभी नहीं, 
जिसकी लाश पर जर्मन अवाम ने 24 घंटे थूका था.
भारत में मनुवाद नाज़ियों की ही समानांतर व्यवस्था है.
ट्रेन में अयोध्या के तीर्थयात्री stove पर खाना बनाने की ग़लती के कारण 
हादसे का शिकार हो गए, उनको किसी मुसलमान ने आग के हवाले नहीं किया था.  मनुवादियों ने इस दुरघटना को रूपांतरित करके मुसलामानों को शिकार बनाया, जान व माल का ऐसा तांडव किया कि हादसा इतिसास का एक बाब बन गया.
मुंबई में पाकिस्तानी आतंकियों के हमले को मनुवादियों ने, 
इस तरह मौक़े का फ़ायदा उठाया कि पोलिस अफ़सर करकरे को मरवा दिया जो एक ईमान दार अफ़सर था और हिन्दू आतंकियों की घेरा बंदी किए हुए था, उसको भितर घात करके अपनी एडी का गूं पाक आतंक वादियों की एडी में लगा दिया. इन मनुवादी आतंकियों के विरोध में किसी को बोलने की हिम्मत न थी.
सूरते-हाल ही कुछ ऐसी थी.
मुज़फ्फर नगर में हिन्दू आतंक फैला कर जनता में धुरुवीय करण करने में, 
यह मनुवादी कामयाब रहे.
उनहोंने एलानिया अल्प संख्यकों के सामने अपने ताण्डव का एक नमूना पेश किया.
मुज़फ़्फ़र नगर के शरणार्थी मुस्लिम आबादी कैराना में शरण गत हुए तो, 
मनुवादियों को नया शोशा मिल गया कि कैराना में मुस्लिम जिहादी सर गर्म हैं,
उनके आतंक से हिन्दू पलायन कर रहे है, 
कश्मीर की तरह. 62% की हिन्दू आबादी 8% रह गई है.
यह mussolinian जनता के Vote को कैसे मोड़ते हैं, खुली हुई किताब है. 
उनकी मजबूरी यह है कि देश में जमहूरियत आ गई है, 
वरना इनका पाँच हज़ार साला वैदिक काल की तस्वीर देखी जा सकती है.
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जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Thursday 10 September 2020

पाप और महा पाप है.


पाप और महा पाप है.

शरीर में लिंग बहुत उपयोगी और सदुपयोगी पार्ट है, 
चाहे स्त्री लिंग हो अथवा पुल्लिंग.
बस कि नपुंसक लिंग एक हादसा हो सकता है.
एक हदीस में पैगंबर कहते है कि 
"अगर कोई शख़्स मेरी ज़बान और मेरे लिंग पर मुझे क़ाबू दिलादे तो उसके आक़बत की ज़मानत मैं लेता हूँ." 
यह इस्लामी हदें या बेहदें हुईं.
बहरहाल एतदाल (संतुलन) तो होना ही चाहिए. 
मुसलमान असंतुलित हैं मगर सीमा में रह कर. 
शादियाँ चार हो सकती हैं, इन में से किसी एक को तलाक़ देकर पांचवीं से निकाह करके पुरानी को Renew कर सकते हैं 
और यह रिआयत ता ज़िन्दगी बनी रहती है. 
पैग़म्बर के दामाद अली ने 18 निकाह किए और अली के बेटे हसन ने 72. 
 मुसलमानों का कोई गोत्र नहीं होता, 
उल्टा यह गोत्र में शादियाँ तरजीह को देते हैं. 
बस कि सगी बहेन और न बीवी की बहन न हो.
हिन्दुओं के शास्त्र कुछ अलग ही सीमा बतलाते हैं कि 
इंद्र देव और कृष्ण भगवानों ने हज़ारों पत्नियों का सुख भोगा. 
इनके पूज्य कुछ देव बहन और बेटियों का भी उपयोग किया है. 
इनमे बहु पत्नियाँ ही नहीं एक पत्नी के बहु पति भी हुवा करते थे. 

चीन में अभी की ख़बर है कि मुसलमानों की दाढ़ी और ख़तने पर भी 
पाबन्दी लगा दी  गई है. यह ख़ुश ख़बरी है, 
वहां इस्लाम के सिवा किसी धर्म का अवशेष नहीं बचा. 
हिदुस्तान में देव रूपी खूंखार धर्म हिदू धर्म है 
जिसकी आत्मा इस्लाम में क़ैद है. 
इस्लाम पर कोई भी ज़र्ब हिन्दू देव को घायल करती है. 
इनको छूट देने पर ही हिंदुत्व का भला और बक़ा है 
वरना महा पाप का देव गया पानी में. 
जी हाँ ! इस्लाम अगर धरती पर पाप है तो मनुवाद धरती पर महा पाप है.
इस्लाम जो हो जैसा भी हो खुली किताब है, हिन्दू धर्म का तो कोई आकार ही नहीं.
वेद में कुछ लिखा है तो पुराण में कुछ. उपनिषद तो कुछ और ही कहते हैं.
हिंदी मानुस सब पर भरोसा करते हैं कि पता नहीं कौन सच हो 
और उसे न मान कर पाप लगे. 
एक वाक़ेए की हक़ीक़त दस पंडितो की लिखी हुई गाथा में दस अलग अलग सूरतें हैं. 
विष्णु भगवान की उत्पत्ति मेंढकी की योनि से लेकर गौतम बुद्ध तक पहुँचती है. 
ब्रह्मा के शरीर से निर्माण किया गया यह ब्रह्माण्ड, 
बम बम महा देव एक युग को ही बम से भस्म कर देते हैं. 
इस क़दर अत्याचार ? 
इसके आगे इस्लामी जेहादियों का क़त्ल व ख़ून पिद्दी भर भी नहीं.
मनुवाद 5000 सालों से मानवता को भूखा नंगा और अधमरा किए हुए 
अपने क़ैद खानें रख्खे हुए है, 
जिहादी 5000 सालों में 500 बार अपने अनजाम को पंहुचे .  
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जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Wednesday 9 September 2020

अंतर राष्ट्रीय मानक

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अंतर राष्ट्रीय मानक 

कल TV पर साधुओं और महंतों की भीड़ थी. 

एक महाराज ऐनकर के सवालों के जवाब में कह रहे थे 

राम का जन्म एक लाख इक्यासी हज़ार छे सौ इकसठ वर्ष पूर्व, 

इसी स्थान पर हुवा था जहाँ राम लला आज विराज मान है. 

झूट और इतना ला  कल्कुलेड़ेट ? 

यह झूटे लोग चश्मदीद गवाह की तरह बातें करते हैं, 

इनको इतना भी नहीं पता कि सिर्फ़ पांच हज़ार साल पहले 

लोहे का वजूद साकार हुवा था.

इस क़िस्म की बातें इन महा पुरुषों का पूरा समूह कर रहा था , 

साथ में स्त्रीयाँ माहौल को नारे लगा कर राम मय कर रही थीं. 

तबला सारंगी लिए गायक भी लोगों को सम्मोहित कर रहे थे. 

झूट का इतना विशाल बोल बाला ? 

क्या हिन्दू मानस इस युग में पाताल की तरफ़ जा रहा है ?

अंतर राष्ट्रीय सर्वे के मुताबिक नार्वे,स्वीडन को पछाड़ते हुए 

दुन्या का न. 1 देश बन गया है 

जो मानवता के शिखर विन्दु पर है. 

मानवता का शिखर विन्दु सिर्फ़ सत्य और तथ्य आधारित होता है. 

स्वीडन दूसरे न. पर है, 

पाकिस्तान का न. 92 है, 

और भारत का 118 वाँ पायदान है. 

शर्म आती है भारतीय होने पर. 

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जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान
जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Tuesday 8 September 2020

सर मग़ज़ी


सर मग़ज़ी

हिन्दू के लिए मैं इक, मुस्लिम ही हूँ आख़िर ,
मुस्लिम ये समझते हैं, ग़ुमराह है काफ़िर ,
इंसान भी होते हैं, कुछ लोग जहाँ में ,
ग़फ़लत में हैं यह दोनों, समझाएगा 'मुंकिर' .

मैं सभी धर्मों को इंसानियत का दुश्मन समझता हूँ.
परंपरा गत जीवन बिताते रहने के पक्ष में तो बिलकुल नहीं.
दुन्या बहुत तेज़ी से आगे जा रही है, 
कहीं ऐसा न हो कि हम परम्परा की घाटियों में घुट कर मर जाएं.
धर्मों में जो अच्छाइया है, वह वैश्विक सच्चाइयों की देन है, उनकी अपनी नहीं.
मुसलमान हिन्दुओं से बेहतर इंसान होते है, 
इस बारे में मैं विस्तार के साथ पहले भी  लिख चुका हूँ.
आज भी हर रोज़ सैकड़ों हिन्दू अपने धर्म की ख़राबियों के कारण , 
उसे त्याग के इस्लाम क़ुबूल कर रहा है और कि मुसलमान अपनी जगह पर क़ायम है. वह हिन्दू धर्म को स्वीकार ही नहीं कर सकता.
कुछ पाठक मुझे हज़्म नहीं कर पा रहें और उल्टियाँ कर रहे हैं.
कुछ आलोचक कहते हैं कि में हिन्दू धर्म की गहराइयों तक पहुँच नहीं पाया, 
मनुवाद पर खड़ा हिन्दू धर्म कहाँ कोई गहराई रखता है ? 
पांच हज़ार सालों से देख रहा हूँ, इस धर्म के कर्म को. 
स्वर्ण आर्यन ने भारत के मूल्य निवासी को किस तरह से शुद्रित किया है , 
शूद्रों को अपने नहाने के तालाब में  पानी भी नहीं पीने देते थे, 
औरतो को अपनी छातियाँ खुली रखने का आदेश हुवा करते थे, 
शूद्रों को अपने कमर में झाड़ू बांध रखने के फ़रमान थे कि 
वह अपने मनहूस पद चिन्हों को मिटते हुए चलें.
ख़ुद हिन्दू लेखक अपने धर्म की धज्जियाँ उड़ाते हुए देखे जाते हैं, 
अपने आराध्य का मज़ाक़ बनाते हैं, 
मुझे राय देना फुजूल है कि मैं इसमें सुगंध तलाशूँ..
मैं अब तक इस बात का पाबंद रहा कि सिर्फ़ मुसलमानों को जागृत करूँ, 
अंतर आत्मा की आवाज़ आई कि नहीं यह भेद भाव होगा.
मुझे इस बात का खौ़फ़ नहीं रह गया है कि कोई हिन्दू मुझे मार दे या मुसलमान. 
मौत तो एक ही होगी, कातिल चाहे जितने हों.
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जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Monday 7 September 2020

ज्ञान

ज्ञान 

मेरे दोस्त गण कभी कभी मुझे अज्ञानी होने की उलाहना देते हैं 
और मुझे अधकचरे ज्ञान होने का ताना देते है. 
मैं ज्ञान की भूल भुलय्या से निकल चुका हूँ. 
जहाँ तक समझ चुका हूँ कि सत्य को किसी ज्ञान की ज़रुरत नहीं. 
सत्य का ज्ञान से कोई संबंध नहीं.
मैंने पाया है बड़े से बड़ी असत्य को सत्य साबित करने वाले महा ज्ञानी होते हैं. बाइबिल तौरेत क़ुरान गीता वेद और दूसरे ग्रंथ इसके साक्षी हैं, 
महा मूरख श्रद्धालु इनके शिकार हैं.   
सत्य की राह ही हमको हमारे माहौल को, हमारे समाज को और हमारे देश को सम्पूर्णता पथ प्रदर्शित कर सकती है. 
"सत्य बोलो मुक्ति है" के बोल मुर्दों के लिए अनुचित है, 
"सत्य बोलो मुक्ति है" जिन्दों को हर सांस में सम्लित करने की ज़रुरत है.    
कडुवा सत्य मीठा हो जाएगा. 

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जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Sunday 6 September 2020

आधीनता

आधीनता        
  •      
    अगर इंसान किसी अल्लाह, गाड और भगवान् को नहीं मानता तो सवाल उठता है कि वह इबादत और आराधना किसकी करे ? 
    मख़लूक़ फ़ितरी तौर पर किसी न किसी की आधीन रहना चाहती है. 
    एक चींटी अपने रानी के आधीन होती है, 
    तो एक हाथी अपने झुण्ड के सरदार हाथी या पीलवान का अधीन होता है. 
    कुत्ते अपने मालिक की सर परस्ती चाहते है, 
    तो परिंदे अपने जोड़े पर मर मिटते हैं. 
    इंसान की क्या बात है, उसकी हांड़ी तो भेजे से भरी हुई है, हर वक्त मंडलाया करती है, नेकियों और बदियों का शिकार किया करती है. 
    शिकार, शिकार और हर वक़्त शिकार, 
    इंसान अपने वजूद को ग़ालिब करने की उडान में हर वक़्त दौड़ का खिलाडी बना रहता है, मगर बुलंदियों को छूने के बाद भी वह किसी की अधीनता चाहता है.
    सूफ़ी तबरेज़ अल्लाह की तलाश में इतने ग़र्क़ हो गए 
    कि उसको अपनी ज़ात के आलावा कुछ न दिखा, 
    उसने अनल हक़ (मैं ख़ुदा हूँ) की सदा लगाईं, 
    इस्लामी शाशन ने उसे टुकड़े टुकड़े कर के दरिया में बहा देने की सज़ा दी. 
    कुछ ऐसा ही गौतम के साथ हुवा कि उसने भी भगवन की अंतिम तलाश में ख़ुद को पाया और

                                    " आप्पो दीपो भवः " का नारा दिया.

  • मैं भी किसी के आधीन होने के लिए बेताब था, 
    ख़ुदा की शक्ल में मुझे सच्चाई मिली और मैंने सदाक़त मे जाकर पनाह ली.
    कानपूर के 92 के दंगे में, मछरिया की हरी बिल्डिंग मुस्लिम परिवार की थी, 
    दंगाइयों ने उसके निवासियों को चुन चुन कर मारा, 
    मगर दो बन्दे उनको न मिल सके, जिनको कि उन्हें ख़ास कर तलाश थी. 
    पड़ोस में एक हिन्दू बूढ़ी औरत रहती थी, 
    भीड़ ने कहा इस के घर में ये दोनों शरण लिए हुए होंगे, 
    घर की तलाशी लो. 
    बूढी औरत अपने घर की मर्यादा को ढाल बना कर दरवाज़े खड़ी हो गई. 
    उसने कहा कि मजाल है मेरे जीते जी मेरे घर में कोई घुस जाए, रह गई अन्दर कोई मुसलमान हैं ? 
    तो मैं ये गंगा जलि सर पर रख कर कहती हूँ कि 
    मेरे घर में कोई मुसलमान नहीं है. 
    औरत ने झूटी क़सम खाई थी, दोनों व्यक्ति घर के अन्दर ही थे, जिनको उसने मिलेट्री आने पर उसके हवाले किया.
    ऐसे झूट का भी मैं अधीन हूँ. 
                                                       ***

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Saturday 5 September 2020

हिदू आतंक वाद

हिंदू आतंक वाद 

राहुल गाँधी ने अगर ये कहा है कि हिदू आतंक वाद ज़्यादः ख़तरनाक है, 
बनिस्बत मुस्लिम आतंक वाद के, 
तो उनको संकुचित राज नीतिज्ञों से डरने की कोई ज़रुरत नहीं. 
उन्हों ने एक दम नपा तुला हुवा सच बोला है. 
उनके बाप को बम से चीथड़े करके शहीद करने वाले मुस्लिम आतंक वाद नहीं थे, बल्कि लिट्टे वाले थे, जो बहरहाल हिदू हैं. 
उनकी दादी को गोलियों से भून कर शहीद करने वाले सिख थे, 
जो बहरहाल हिन्दू होते हैं जैसा कि भग़ुवा ग़ुरूप मानता है. 
महात्मा गाँधी, बाबा ए क़ौम को इन आतंक वादी शैतानो ने तीन 
गोलियां से उनकी छाती छलनी करके आतंक का मज़ा लिया था. 
मुस्लिम आतंक वाद  को आगे करके ये अपना वजूद क़ायम किए हुए हैं 
जो कि अपने आप में विशाल भारत के लिए चूहों के झुड से ज़्यादः कुछ भी नहीं हैं. 
मुस्लिम आतंक वाद दुन्या के कोने कोने में कुत्तों की मौत मारे जा रहे हैं. 
मुस्लिम आतंक वाद ख़ुद सब से बड़ा दुश्मन मुसलमानों का है 
जो कि हिन्दू समझ नहीं पा रहे हैं, 
जिनको मैं क़ुरआन  की आयतों की धज्जियां उड़ा उड़ा कर समझा रहा हूँ.
राहुल गाँधी को थोड़ी और जिसारत करके मैदान में आना चाहिए 
कि हिन्दू आतंक वाद 5000 साल, वैदिक काल से भारत के मूल्य 
निवासियों पर ज़ुल्म ढा रहा है, 
मुस्लिम आतंक वाद तो सिर्फ़ 14 सौ सालों से पूरी दुन्या को बद अम्न किए हुए है, और हिदू आतंक वाद आदि वासियों और मूल निवासियों को अपना 
शिकार वैदिक काल से बनाए हुए है. 
मुस्लिम आतंक वाद जितना ग़ैरों को तबाह करता है 
उससे कहीं  ज़्यादः ख़ुद तबाह होता चला आया है. 
हिन्दू आतंक वाद जोंक का स्वाभाव रख़ता है, 
अपने शिकार को कभी मरने नहीं देता, 
उसे वह हमेशा ग़ुलाम   बना कर रख़ता है.
हिन्दू आतंक वाद मुस्लिम आतंक वाद से कई ग़ुना घृणित है 
जो कि भारत में फला फूला हुवा है. 
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जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान