Thursday 28 April 2011

सूरह नबा ७८ - पारा ३०

मेरी तहरीर में - - -




क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।





नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.



सूरह नबा ७८ - पारा ३०


(अम्मा यता साएलूना)


यह तीसवाँ और कुरआन का आखिरी पारा है. इसमें सूरतें ज़्यादः तर छोटी छोटी हैं जो नमाजियों को नमाज़ में ज्यादह तर काम आती हैं. बच्चों को जब कुरआन शुरू कराई जाती है तो यही पारा पहला हो जाता है. इसमें ७८से लेकर ११४ सूरतें हैं जिनको (ऊपर ब्रेकेट में लिखे) उनके नाम से पहचान जा सकता है कि नमाज़ों में आप कौन सी सूरत पढ़ रहे हैं और खासकर याद रखें कि क्या पढ़ रहे हैं.


अल्लाह कहता है - - -"ये लोग किस चीज़ का हल दरयाफ्त करते हैं,
उस बड़े वाकिए का जिसका ये इख्तेलाफ करते हैं ,
हरगिज़ ऐसा नहीं, इनको अभी मालूम हवा जाता है,
(दोबारा)हरगिज़ ऐसा नहीं, इनको अभी मालूम हुवा जाता है,
क्या हमने ज़मीन को फर्श और पहाड़ को मेखें नहीं बनाईं?
और हमने ही तुमको जोड़ा जोड़ा बनाया,
और हमने ही तुम्हारे सोने को राहत की चीज़ बनाया.
और हमने ही रात को पर्दा की चीज़ बनाया,
और हमने ही दिन को मुआश का वक़्त बनाया,
और हम ही ने तुम्हारे ऊपर सात मज़बूत आसमान बनाए,
और रौशन चराग बनाया,
और हम ही ने पानी भरे बादलों से कसरत से पानी बरसाया,
ताकि हम पानी के ज़रीया गल्ला और सब्जी और गुंजान बाग पैदा करें.
बेशक फैसले के दिन का मुअय्यन वक़्त है."
सूरह नबा ७८ - पारा ३० आयत (१-१७)" हमने हर चीज़ को लिख कर ज़ब्त कर रखा है, सो मज़ा चक्खो हम तुम्हारी सजा बढ़ाते जाएगे {काफिरों से अल्लाह का वादा}अल्लाह से डरने वालों के लिए बेशक कामयाबी है यानी बाग और अंगूर और नव ख्वास्ता नव उम्र औरतें और लबालब भरे हुए जाम ए शराब. वहाँ न कोई बेहूदः बातें सुनेंगे और न झूट. ये काम बदला मिलेगा जो काफी इनआम होगा रब की तरफ से."सूरह नबा ७८ - पारा ३० आयत (२७-३६)



नमाजियों !तुम्हारा अल्लाह तुमको गलत इत्तेला देता है कि ये ज़मीन फर्श की तरह समतल है और पहाड़ उस पर खूंटों की तरह ठुके हुए हैं ताकि ये तुमको लेकर हिले डुले ना.
हक़ीक़त ये है कि तुम्हारी धरती गोल है जिसे तुम टी वी पर हर रोज़ कायनात में गर्दिश करते हुए देख सकते हो. ज़मीन अपने गोद में पहाड़ और समंदर कैसे लिए हुए है, इसे तुम अपने बच्चे से पूछ सकते हो अगर वह तालीम जदीद ले रहा हो, वर्ना अगर वह मदरसे का पामाल तालिब इल्म है तो तुम्हारी अगली नस्ल भी ज़ाया गई.
तुम अगर थोड़े से तालीम याफ्ता हो या तुम में फ़िक्र की कुछ अलामत है तो इन आयतों वाली नमाज़ पढ़ ही नहीं सकते.
ईसाई भो मुसलमानों की तरह ही धरती को गोल न मान कर समतल मानते थे, मगर चार सौ साल पहले आलिम ए फल्कियात, गैलेलिओ के इन्किशाफ़ के बाद , हुज्जत करते हुए वह ज़मीन को गोल मानने लगे हैं.
क्या तुम चार सौ साल और लोगे सच को सच मानने के लिए? 'इसमें पहाड़ों के खूटे ठुके हुए हैं ताकि ये तुमको लेकर हिले दुले न' जैसी जिहालत भरी नमाज़ कब तक पढ़ते रहोगे?
रह गई ज़मीन पर कुदरत की बख्शी हुई नेमतें, तो इसको कौन बेवकूफ नहीं मानता. ये किसी छुपे हुए फ़नकार की तखलीक है, उसे खुदा, ईश्वर या गाड कोई भी नाम दो मागर इसे कुरानी अल्लाह का नाम नहीं दिया जा सकता क्यूंकि वह कठ मुल्ला है.
इसके अलावा तुम पूरा यकीन कर सकते हो कि तुमको मरने के बाद कोई सज़ा या जज़ा नहीं है.
ज़िन्दगी खुद एक आजार भरी सौगात है, मौत इसका अंजाम है.
मरने के बाद कोई सजा, कोई ताकत ऐसी नहीं जो तुम पर थोपे.
न ही हूर परियों के लिए तुम्हारी राल टपके, इन आयतों से नजात पाओ तो तुम्हारी जोरू ही तुम्हारी हूर परी है.
मुहम्मद इस लिए तुमको डराते हैं कि तुम इनको कम ओ बेश खुदा की तरह मानते हो.

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Wednesday 27 April 2011

सूरह मुर्सेलात 77 - पारा २९

मेरी तहरीर में - - -



क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।



नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.




सूरह मुर्सेलात 77 - पारा २९



कुदरत को अगर खुदा का नाम दिया जाए तो इसका भी कोई जिस्म होगा जैसे कि इंसान का एक जिस्म है. कुरआन और तौरेत की कई आयतों के मुताबिक खुद बखुद इलाही मुजस्सम साबित होता है. इंसान के जिस्म में एक दिमाग है. दिमाग रखने वाला ऐसा खुदा झूठा साबित हो चुका है.
कुदरत (बनाम खुदा) के पास कोई दिमाग नहीं है बल्कि एक बहाव है . इसके अटल उसूलों के साथ. इसके बहाव से मखलूक को कभी सुख होता है कभी दुःख. ज़रुरत है कुदरत के जिस्म की बनावट को समझने की जैसे कि मेडिकल साइंस ने इंसानी जिस्म को समझा है और लगातार समझने की कोशिश कर रहा है. इनके ही कारनामों से इंसान कुदरत के सैकड़ों कह्र से नजात पा चुका है. मलेरिया, ताऊन, चेचक जैसी कई बीमारियों से और बाढ़, अकाल जैसी आपदाओं से नजात पा रहा है. जंगलों और गुफाओं की रिहाइश गाह आज हमें पुख्ता मकानों तक लेकर आ गई हैं. हमें ज़रुरत है कुदरत बनाम खुदा के जिस्मानी बहाव को समझने की, न कि उसकी इबादत करने की. इस रस्ते पर हमारे जदीद पैगम्बर 'साइंस दान' गामज़न हैं. यही पैगम्बरान वक़्त एक दिन इस धरती को जन्नत बना देंगे.
इनकी राहों में दीन धरम के ठेकेदार रोड़े बिखेरे हुए हैं. जगे हुए इंसान ही इन मज़हब फरोशों को सुला सकते है.  
जागो, आँखें खोलो, अल्लाह के फ़रमान पर गौर करो और मोमिन के मशविरे पर, फैसला करो कि कौन तुमको गुमराह कर रहा है - - - 
"क़सम है उन हवाओं की जो नफ़ा पहुँचाने के लिए भेजी जाती हैं"
फिर उन हवाओं की जो तुन्दी से चलती हैं,
और उन हवाओं की जो बादलों को फैलाती हैं,
फिर उन हवाओं की जो बादलों को बिखेरती हैं,
फिर उन हवाओं की जो अल्लाह की याद उठाती हैं,
कि जिस चीज़ का वादा किया गया है वह होने वाली है."
अल्लाह मुसलामानों के साथ एक वादा किए हुए है, वादा हमेशा वरदान का होता है और कुछ देने के लिए मुसबत पहलू रखता है, मगर मुसलमान अपने अल्लाह का ऐसा वादा लिए हुए हैं जो नफ़ी पहलू रखता है. इसके साथ अल्लाह का क़यामत का वादा है. इसके लिए अल्लाह हवाओं की कसमें खाता है वह भी कैसी कैसी हवाओं की. मुसलमान इस हवाई अल्लाह के हवाई वादों से यकलख्त छुटकारा पा सकता है, बस कि वह तर्क इस्लाम कर दे. उसे सच्चा मोमिन बन्ने की सलाह है.



तुम्हारे सीने में आबाद इन किताबों को,
बस एक मुनकिर ओ इनकार की ज़रुरत है.

 
सो जब सितारे बेनूर हो जाएँगे,
"जब आसमान फट जाएगा,
और जब पहाड़ उड़ते फिरेंगे,
जब सब पैगम्बर वक़्त मुक़र्रर पर जमा किए जाएँगे,
किस दिन के वास्ते पैगम्बरों का मुआमला मुल्तवी रखा जाएगा?
फैसले के दिन के लिए,
और आपको मालूम है कि ये फैसले का दिन कैसा कुछ है?
उस रोज़ झुटलाने वाले की बड़ी खराबी होगी" .
मुसलामानों! तुम्हारे दिमागों पर मुहम्मद भूत सवार है. अगर वह आज होते तो यकीनन किसी पागल खाने में होते. उनकी जगह पर एक बड़ी इंसानी आबादी पागल खाने में है .
इस्लाम तुम्हारे वजूद का घेरा बंदी करता है जोकि बाहर की आज़ाद दुन्या से तुमको महरूम रखता है. ख्वाह मख्वाह तुम ससी और सहमी हुई ज़िदगी जी रहे हो. इस क़ैद खाने से बाहर निकलो
.
 
"क्या हम अगले लोगों को हलाक नहीं कर चुके,
फिर पिछले को भी इन्हीं के साथ साथ कर देंगे,
हम मुजरिमों के साथ ऐसा ही कुछ किया करते हैं,
इस रोज़ झुटलाने वालों की बड़ी खराबी होगी,
जो पैदा होता है वह मरता है, उसे न कोई अल्लाह पैदा करता है, न मारता है. कानून ए कुदरत को मुहम्मद अपना कानून बनाए हुए है, इन्तेहाई बेहूदा तरीके से. 
क्या हम ने तुम को एक बेक़द्र पानी से नहीं बनाया?
फिर हमने उसको एक वक़्त मुक़रार तक महफूज़ जगह में रख्खा,
ग़रज़ हमने एक अंदाज़ा ठहराया,
सो हम कैसे अंदाज़ा ठहराने वाले हैं,
उस रोज़ झुटलाने वालों की बड़ी खराबी होगी.
ये मुहम्मद का अंदाज़ा है जो उनकी जेहालत में शराबोर है. मुसलमानों इस गन्दगी से बहार निकलो.
 
"क्या हमने ज़मीन को जिंदा या मुर्दों को समेटने वाली नहीं बनाया,
और हम ने इसमें ऊंचे ऊंचे पहाड़ बनाए,
और हम ने तुमको मीठा पानी पिलाया,
और उस रोज़ झुलाने वाले की बड़ी खराबी होगी.
इन सवाबी आयातों को अपनी ज़बान में बार बार दोहराव और देखो कि तुम खुद को पागल क़रार देने लगोगे मगर ये ज़बाने गैर में है, इसलिए तुम इसकी गन्दगी को उम्र भर दोहराते हो.



"एक साएबान की तरफ चलो,
जिसकी तीन शाखें हैं,
जिसमें न साया है न गर्मी से बचाता है,
वह अंगारे बरसाएगा जैसे बड़े बड़े महल,
जैसे काले काले ऊँट,
और उस रोज़ झुटलाने वाले की बड़ी खराबी होगी."
सूरह मुर्सेलात ७७ - पारा २९ आयत (१-३४)(मुसलसल "और उस रोज़ झुटलाने वाले की बड़ी खराबी होगी." तवील सूरह)पागल की बड़ बड़ के सिवा और कुछ भी नहीं ये कुरआन. इसकी भरपूर मज़म्मत करने वालों की क़तार में खड़े हो जाने की ज़रुरत है.




जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

सूरह मुदस्सिर ७४ -पारा २९

मेरी तहरीर में - - -

क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।

नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.


सूरह मुदस्सिर ७४ -पारा २९


देखिए कि मुहम्मद नश्शे फतह में चूर क्या क्या बकते हैं - - -



"ऐ कपडे में लिपटने वाले! उट्ठो, फिर डराओ, अपने रब की बड़ाइयाँ बयान करो और कपड़ों को पाक रखो, और बुतों से अलग रहो, और किसी को इस गरज़ से मत दो कि ज़्यादः माविज़ा चाहो."
मुसलामानों! ये तुम्हारे अल्लाह की सात बातें हैं. अगर कुछ तुम्हारे पल्ले पड़ा हो तो इक्कीसवीं सदी को दो. अपनी भद्द मत पिटवाओ. तुम्हारा रसूल कपडे में लिपटा हुवा नंगा है, इसे देख सको तो देखो. "मुझ को और उस शख्स को रहने दो, जिसको हमने अकेला पैदा किया है, इसको कसरत से माल दिया और पास रहने वाले बेटे, और हर तरह का सामान मुहय्या कर दिया, फिर भी इस बात की हवस रखता है कि और ज़्यादः दूं ." मुहम्मद अल्लाह बने हुए किसी की मेहनत की कमाई को देख नहीं सकते, जले जा रहे हैं कि उसके मॉल के हिस्सेदार वह खुद क्यूँ नहीं बन सकते. नहीं चाहते कि वह और मालदार हो जाए, इंसानों का बद ख्वाह, इंसानों का पैगम्बर बना फिरता है.

"हरगिज़ नहीं, वह हमारी आयातों का मुख़ालिफ़ है. इसको अनक़रीब दोज़ख के पहाड़ों पर चढ़ाऊँगा. इस शख्स ने सोचा, फिर एक तजवीज़ की, सो इस पर अल्लाह की मार कैसी बात की तजवीज़ की, फिर देखा, मुँह बनाया, और ज्यादह मुँह बनाया फिर मुँह फेरा और तकब्बुर किया., फिर बोला ये तो जादू है, मन्कूल, ये तो आदमी का कलाम है. मैं इसको जल्द दोज़ख में दाखिल कर दूंगा."

वलीद बिन मुगीरा एक अरबी था जो समाज में अपनी मज़बूत पकड़ रखता था, अल्लाह के रसूल को खातिर में नहीं लाता, न उनके कलाम को..मुहम्मद उसका कुछ उखाड़ नहीं पाते तो अल्लाह के नाम पर उसे कोस रहे हैं. ऐसे मकर के पुतले को किस तरह लोगों ने झेला होगा? उसके मकरूह तरीक़े कार को आज मुसलमान अपने ऊपर मुसल्लत किए हुए है. हर समाज में मिनी मुहम्मद बैठा हराम रिजक पैदा कर रहा है. भेड़ चाल अवाम इनका शिकार हा रहे हैं.   "और हमने दोज़ख के कारकुन सिर्फ़ फ़रिश्ते बनाए हैं, और हमने जो उनकी तादाद ऐसी रखी है जो काफिरों की गुमराही का ज़रीआ हो. तो इस लिए ताकि अहले किताब और मोमनीन शक न करें, और ताकि जिन लोगों के दिलों में मरज़ है वह और काफ़िर कहने लगें, कि इस अजीब मज़मून से अल्लाह का क्या मक़सूद है? इस तरह अल्लाह जिसको चाहता है गुमराह कर देता है, और जिसको चाहता है हिदायत देता है, और तुम्हारे रब के लश्करों को बजुज़ रब कोई नहीं जनता. और दोज़ख सिर्फ आदमियों के नसीब के लिए है. बिल तहकीक क़सम है चाँद की, और रात की जब वह जाने लगे, और सुब्ह की जब वह रौशन हो. वह दोज़ख भारी चीज़ है जो इंसान के लिए बड़ा डरावना है, जो आगे बढे इसके लिए भी और जो पीछे हटे इसके लिए भी." सूरह मुदस्सिर ७४ -पारा २९ ( १-३७)

मुसलमानों! देखो तुम्हारा अल्लाह शैतान की तरह बन्दों को गुमराह भी करता है. लोग पूछते हैं कि इस कलाम से अल्लाह की मुराद क्या है? तो मुहम्मद उनको अपने कलाम का मकसद तो कुछ बतला नहीं पाते मगर जो मुँह में आता है, बकते रहते हैं . क़स्मो की किस्में देखें, शुक्र है उम्मत अल्लाह की नक्ल में ऐसी कसमें नहीं खाता वर्ना इसी दुन्या में उनको पागल करार दे दिया जाता. मगर ऐसी कसमें खाने वाले को अपना अल्लाह बनाए हुए है.



जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Tuesday 26 April 2011

सूरह दहर ७६ - पारा २९

मेरी तहरीर में - - -

क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।

नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.


सूरह दहर ७६ - पारा २९


स्वयंभू भगवानो के सिलसिले की एक कड़ी का और अन्त हुवा. सत्य श्री साईं अपनी भविष वाणी, जिसके अनुसार उनकी उम्र ९२ साल होगी असत्य हुई ६ साल पहले ही ऐसी मौत मरे कि उनका शरीर आधा अर्थात ३२ किलो रह गया. भगतों ने कहा संसार में बढ़ते हुए पापों को उन्हों ने अपने ऊपर ले लिया. उनका दावा था कि वह भूत कालिक शिर्डी के साईं का अवतार थे दावा ये भी है कि दोबारा अवतार लेगे. यानी उनके असत्य का सम्राज कायम रहेगा. देखिए कि इससे कौन होशियार पैदा होता है.
शिर्डी का मुस्लिम फकीर जिसके पास दो जोड़े कपडे भी ढंग के न थे एक टूटी फूटी वीरान मस्जिद को अपना घर बना लिया था, उसी हालत में वह इस दुन्या से गया. उसकी मूर्ति करोरो का धंधा दे गई है और शयाने लोग हराम की कमाई का ज़रीया बनाए हुए है. दूसरी तरफ सत्य श्री साईं एक नया बुत जनता को पूजने के लिए दे गए है. उनकी ये दूसरी दूकान है. ये अरबों की संपत्ति छोड़ कर मरे जिसके बदौलत हजारो अस्पताल कालेज और दूसरे धर्मार्थ संस्थाएं चल रही हैं. ये सब अंधविश्वास के कोख से निकले हुए चमतकार हैं, इस से अन्धविश्वासी बड़े बड़े डाक्टरसे ले कर जजों तक की घुस पैठ है, जिन्हों ने बाबा के रस्ते को फायदे मंद समझा.
अब हम एक महान हस्ती की बात करते हैं जो अंध विश्वासों से कोसों दूर कर्म फल के बिलकुल पास खड़ा है जो न मदारियों का चमत्कार जनता को दिखलाता है, न झूट के पुल बांधता है. उसने अपने कर्म से दुन्या को नई ईजाद दिया, करोरो लोगों को रोज़ी रोटी दिया. उसने वह काम किया जो "सवाब ए जारिया" कहलाता है अर्थात हमेशा हमेशा के लिए जारी रहने वाला पुन्य. वह अपनी सफेद कमाई के बलबूते पर दुन्या का सब से बड़ा अमीर बना . उसने अपनी चाहीती बीवी के नाम पर एक न्यास बना कर अपनी दौलत का आधे से ज़्यादा हिस्सा दान कर दिया इतनी दौलत जो स्वयंभु बाबा के साम्राज को अपने जेब में रख ले., जिसमे दुनया के ईमान दार तरीन लोग शामिल हैं. आप समझ गए होंगे की मैं बिल गेट की बात कर रहा हूँ.
स्वयंभु बाबा और बिल गेट की तुलना इस तरह से की जा सकती है - - -
बिल गेट ने इंजीनियरिंग की एक परत को उकेरा जो तराशने के बाद हीरा बनी और बाबा ने मदारियों की हाथ की सफाई पेश किया जिसे कई बार जादूगरों ने उनको चैलेज करके रुसवा किया.
बिल गेट ने नए आविष्कार को जन्म दिया, पाला पोसा और बाबा ने पुराने अंध विशवास को नई नस्ल को परोसा.
बिल गेट ने करोरों लोगों को रोज़गार दिया और बाबा ने लाखों लोगों को निकम्मा और काहिल बनाया. उनके करोड़ों अरबों वर्किग आवर्स बर्बाद किए कि बैठ तालियाँ बजा बजा कर बाबा का गुणगान करते हैं.
बिल गेट ने की सारी कमाई मुल्क को टेक्स भरके किया और बाबा का सारा पैसा टेक्स चोरों की काली कमाई का है. दान धर्म पर कोई अपनी हलाल की कमाई चंदा में नहीं देता.
ये बिल गेट ने और बाबा की तुलना नहीं है बल्कि पच्छिम और पूरब की मानसिकता की तुलना है.

हम भारतीय हमेशा झूट को पूजते हैं और पश्चिम यथार्थ पर विश्वास रखता है. हमारी दास मानसिकता हमेशा दास्ता की परिधि में रहती है. वह इसका फायदा उठाते हैं.



आइए देखें कि इस स्वयंभु बाबाओं का असर मुसलमान पर कितना गहरा है - - -


`"बेशक इंसान पर ज़माने में एक ऐसा वक़्त भी आ चुका है जिसमे वह कोई चीज़ काबिले तजकारा न था. हमने इसको मखलूत नुतफे से पैदा किया, इस लिए हम उसको मुकल्लिफ (तकलीफ ज़दा) बनाईं, सो हमने इसको सुनता देखता बनाया. हमने इसको रास्ता बतलाया, यातो वह शुक्र गुज़ार हो गया या नाशुक्रा हो गया . हमने काफिरों के लिए ज़ंजीर, और तौक और आतिशे सोज़ाँ तैयार कर राखी हैं."सूरह दह्र ७६ - पारा २९ आयत (आयत १-४)ज़बान की कवायद से नावाकिफ उम्मी मुहम्मद का मतलब है कि तारीख ए इंसानी में, इंसान उन मरहलों से भी गुज़रा कि इसका कोई करनामः काबिले-बयान नहीं.
इंसान माजी की दुश्वार गुज़ार जिंदगी में अपनी नस्लों को आज तक बचाए, रख्खा यही इसका कारनामा है जब कि कोई इंसानी तखय्युल का अल्लाह भी इंसानी दिमाग में न आया था. इंसान मख्लूत नुत्फे से पैदा हुवा, यह भी अल्लाह को बतलाने की ज़रुरत नहीं ये कि इल्म मुहम्मद से बहुत पहले इंसान को हो चुका है.
"उसको मुकल्लिफ (तकलीफ ज़दा) बनाईं" ये सच है इसी का फायदा उठाते हुए मुहम्मद ने इन पर लूट मार का कहर बरपा किया था कि इंसान में कूवाते बर्दाश्त बहुत है.किसी कमज़र्फ अल्लाह को हक नहीं पहुँचता कि वह मखलूक को बंधक बनाने के लिए पैदा करे. .
मुहम्मद ने इंसानों
के लिए ज़ंजीर, और तौक और आतिशे सोज़ान तैयार कर राखी हैं.बस देर है उनके जाल में जा फंसो. गौर करो कि अगर आप मुहम्मदी अल्लाह को नहीं मानते या जो भी नहीं मानता उसके लिए उसकी बातें मज्हका खेज़ हैं. 
"जो नेक हैं वह ऐसी जामे शराब पिएंगे जिसमे काफूर की आमेज़िश होगी. यानी ऐसे चश्में से जिससे अल्लाह के खास बन्दे पिएँगे. जिसको वह बहा कर ले जाएँगे, वह लोग वाजबात को पूरा करते हैं और ऐसे दिन से डरते हैं जिसकी सख्ती आम होगी."सूरह दह्र ७६ - पारा २९ आयत (आयत ५-७)जन्नत में मिलने वाली यही शराब, कबाब और शबाब की लालच में मुसलमान अपनी मौजूदा ज़िन्दगी को इन से महरूम किए हुए है. काफूर मुस्लिम जनाजों को सुगन्धित करता है, जन्नत में इसकी गंध को पीना भी पडेगा.
 
''मसह्रियों पर तक्यिया लगे हुए होंगे .
वहाँ तपिश पाएँगे न जाड़ा,
और जन्नत में दरख्तों के साए जन्नातियों पर झुके होंगे .
और उनके मेवे उनके अख्तियार में होंगे,
और उनके पास चाँदी के बर्तन लाए जाएँगे,
और आब खोरे जो शीशे के होगे जिनको भरने वालों ने मुनासिब अंदाज़ में भरा होगा
और वहां उनको ऐसा जामे शराब पिलाया जाएगा जिसमें सोंठ की आमेज़िश होगी.
यानी ऐसे चश्में से जो वहाँ होगा जिसका नाम सलबिल होगा,
और उनके पास ऐसे लड़के आमद ओ रफ्त करेंगे जो हमेशा लड़के ही रहेंगे,
और ए मुखातिब! तू अगर उनको देखे तो समझे मोती हैं, बिखर गए हैं,
और ए मुखातिब तू अगर उस जगह को देखे तो तुझको बड़ी नेमत और बड़ी सल्तनत दिखाई दे
उन जन्नातियों पर बारीक रेशम के सब्ज़ कपडे होंगे और दबीज़ रेशम के भी,
और उनको सोने के कंगन पहनाए जाएँगे.
और उनका रब उनको पाकीज़ा शराब देगा जिसमें न नजासत होगी न कुदूरत."
सूरह दह्र ७६ - पारा २९ आयत (आयत १४-२१)क़ुररान की आयतें कहती हैं कि जन्नतियों को तमाम आशाइशों के साथ साथ नवखेज़ लौंडे (पाठक मुआफ करें) होगे जो हमेशा नव उम्र ही होंगे, अल्लाह अपने मुखातिब को रुजूअ करता है वह "मोती हैं, बिखर गए हैं" क्या उसकी पेश कश जन्नातियो के लिए लौंडे बाजी की है (एक बार फिर पाठक मुझ को मुआफ करें) दुरुस्त यही है.ये अमल भी शराब नोशी की तरह जन्नत में रवा होगा.
इग्लाम बाज़ी समाज की बदतरीन बुराई है जिसका ज़िक्र दो गैरत मंद आपस में आँख मिला कर नहीं कर सकते. और अल्लाह अपनी जन्नत में इसकी खुली दावत देता. इस फेल से समाज बातिनी तौर पर और जेहनी तौर पर मजरूह होता है, जिस्मानी तौर पर बीमार हो जाता है मेयारी तौर पस्त. सर उठा कर चलने लायक नहीं रह जाता. दो इग्लाम बाज़ मर्द होते हुए भी नामर्द हो जाते हैं.
किसी तहरीक को चलाने के लिए उमूमन जायज़ और नाजायज़ हरबे इस्तेमाल होते हैं, ये सियासत तक ही महदूद नहीं, धर्म तक इसका इस्तेमाल करते हैं मगर सबकी अपनी कुछ न कुछ हदें होती हैं. हद्दे कमीनगी तक जाने के लिए इंसान सौ बार सोचता है और मुहम्मदी अल्लाह एक बार भी नहीं सोचता. इसका बुरा असर मुआशरे में बड़ी गहराई तक जाता है अल्लाह के बलिगान दीन इन आयातों का सहारा लेकर मस्जिद के हुजरे में अक्सर मासूमों को अपना शिकार बनाते हैं.



जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Monday 25 April 2011

सूरह क़ियामह ७५- पारा २९

मेरी तहरीर में - - -

क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।

नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.


सूरह क़ियामह ७५- पारा २९


आज इक्कीसवीं सदी में दुन्या के तमाम मुसलामानों पर मुहम्मदी अल्लाह का क़यामती साया ही मंडला रहा है.जो कबीलाई समाज का मफरूज़ा खदशा हुवा करता था. अफगानिस्तान दाने दाने को मोहताज है, ईराक अपने दस लाख बाशिदों को जन्नत नशीन कर चुका है, मिस्र, लीबिया और दीगर अरब रियासतों पर इस्लामी तानाशाहों की चूलें ढीली हो रही हैं तमाम अरब मुमालिक अमरीका और योरोप के गुलामी में जा चुके है, लोग तेज़ी से ईसाइयत की गोद में जा रहे हैं, कम्युनिष्ट रूस से आज़ाद होने वाली रियासतें जो इस्लामी थीं, दोबारा इस्लामी गोद में वापस होने से साफ़ इंकार कर चुकी हैं, ११-९ के बाद अमरीका और योरोप में बसे मुसलमान मुजरिमाना वजूद ढो रहे हैं, अरब से चली हुई बुत शिकनी की आंधी हिदुस्तान में आते आते कमज़ोर पड़ चुकी है, सानेहा ये है कि ये न आगे बढ़ पा रही है और न पीछे लौट पा रही है, अब यहाँ बुत इस्लाम पर ग़ालिब हो रहे हैं, १८ करोड़ बे कुसूर हिदुस्तानी बुत शिकनों के आमाल की सज़ा भुगत रहे हैं, हर माह के छोटे मोटे दंगे और सालाना बड़े फसाद इनकी मुआशी हालत को बदतर कर देते हैं, और हर रोज़ ये समाजी तअस्सुब के शिकार हो जाते हैं, इन्हें सरकारी नौकरियाँ बमुश्किल मिलती है, बहुत सी प्राइवेट कारखाने और फर्में इनको नौकरियाँ देना गवारा नहीं करती हैं, दीनी तालीम से लैस मुसलमान वैसे भी हाथी का लेंड होते है, जो न जलाने के काम आते हैं न लीपने पोतने के, कोई इन्हें नौकरी देना भी चाहे तो ये उसके लायक ही नहीं होते. लेदे के आन्वां का आवां ही खंजर है.
दुन्या के तमाम मुसलमान जहाँ एक तरफ अपने आप में पस मानदा है, वहीँ दूसरी कौमों की नज़र में जेहादी नासूर की वजेह से ज़लील और ख्वार है. क्या इससे बढ़ कर कौम पर कोई क़यामत आना बाकी रह जाती है? ये सब उसके झूठे मुहम्मदी अल्लाह और उसके नाकिस कुरआन की बरक़त है. आज हस्सास ताबा मुसलमान को सर जोड़कर बैठना होगा कि बुजुर्गों की नाकबत अनदेशी ने अपने जुग्रफियाई वजूद को कुर्बान करके अपनी नस्लों को कहीं का नहीं रक्खा.
ईरान में बज़ोरशमशीर इस्लामी वबा आई कमजोरों ने इसे निगल लिया मगर गयूर ज़रथुर्सठी ने इसे ओढना गवारा नहीं किया, घर बार और वतन की क़ुरबानी देकर हिदुस्तान में आ बसे जिहें पारसी कहा जाता है, दुन्या में सुर्खुरू है.सिर्फ एक पारसी टाटा के सामने तमाम ईरान पानी भरे.मुसलामानों के सिवा हर कौम मूजिदे जदीदयात है जिनकी बरकतों से आज इंसान मिर्रीख के लिए पर तौल रहा है. इस्लाम जब से वजूद में आया है मामूली सायकिल जैसी चीज़ भी कोई मुसलमान ईजाद नहीं कर सका, हाँ इसकी मरम्मत और इसका पंचर जोड़ने के काम में ज़रूर लगा हुवा पाया जाता है.
अब भी अगर मुसलमान इस्लाम पर डटा रहा तो इसकी बद नसीबी ही होगी कि एक दिन वह दुन्या के लिए माजी की कौम बन जाएगा.



अल्लाह का गलीज़ कलाम मुलाहिजा हो - - -


"मैं क़सम खाता हूँ क़यामत के दिन की,
और क़सम खता हूँ नफ्स की, जो अपने ऊपर मलामत करे."
सूरह क़ियामह ७५- पारा २९ आयत (१-२)कल्बे स्याह मुहम्मद अपने नफ्स की भूक की क़सम खाते हैं जो मुसलसल इनको झूट बोलने पर आमादः करती है. इन पर मलामत तो कभी करती ही नहीं. नफ्स तो चाहत ही चाहत चाहती है और इसे काबू करना पड़ता है, ये इंसान को काबू में रखती है, इंसान इसका मुरीद होता है.
इंसान का ज़मीर इसको मलामत करता है, हज़रात गालिबन ज़मीर की जगह नफ्स का इस्तेमाल कर रहे हैं. उनके अल्लाह को अल्फाज़ चुनना भी नहीं आता. उसे बेहूदा कसमों की आदत पड़ गई है.


"क़यामत का वक़्त कब आएगा? जिस वक़्त आँखें खैर हो जाएंगी और चाँद बेनूर हो जाएगा, सूरज और चाँद एक हालत हो जाएँगे."सूरह क़ियामह ७५- पारा २९ आयत (१०)लोग मक्का में इनको कभी चिढाते, कभी छेड़ते कि "मियाँ !कयामत कब आएगी?" इनका क़यामत नामः खुल जाता, हर बार लाल बुझक्कड़ क़यामती किताब से कुछ नया पढ़ कर सुना देते.मजाक मजाक में इनकी ये पोथी बनी और जेहादी लूट मार से इस्लाम वजूद में आया.


"फिर जब हम उसको पढने लगा करें तो आप उसके ताबेअ हो जाया करें, फिर इसका बयान कर देना हमारा ज़िम्मा है."सूरह क़ियामह ७५- पारा २९ आयत (२०)गोया खालिक भी अपनी तखलीक को नवाज़ता है? मगर कब आया? कब पढ़ा, जब मुहम्मद उसके तबेअ में होकर रह गए?

इसे हराम जादे ओलिमा ने यूँ मेकअप किया है - - -"हक तअला ने जिब्रील के पढने को अपना पढना क़ारार दिया है क्यूंकि जिब्रील हक तअला के पयम्बर और कुरआन लाने में महज़ वास्ता थे. मतलब ये कि जब जिब्रील आकर कुरआन पढ़ा करें तो आप ख़ामोशी से सुना करें और इनके सुना चुकने के बाद दोबारा पढ़ लिया करेंजिब्रील के पढने के दौरान में आपको ज़बान हिलाने की ज़रुरत नहीं. कुरआन आप के सीने में जमा करा देना यानी याद करा देना और आपके लिए इसकी किरत आसान कर देना, इसका साफ़ साफ़ मतलब ओ मफ़हूम, सब कुछ हमारे ज़िम्मे है. "



जब कि मुहम्मद इस बात की तलकीन कर रहे हैं कि लोग बगैर मतलब समझे कुरआन में तल्लीन हो जाया करें,मानी ओ मतलब बाद में हम गढ़ा करेंगे.


"सो उसने न तसदीक़ की थी, न नमाज़ पढ़ी थी और एहकाम से मुँह मोड़ा था, फिर नाज़ करता हुवा अपने घर चल देता है. तेरी कमबख्ती पर कमबख्ती आने वाली है, फिर तेरी कमबख्ती पर कमबख्ती आने वाली है . क्या इंसान ख़याल करता है यूं ही मुह्मिल छोड़ दिया जाएगा?
क्या ये शख्स एक क़तरा मनी न था? जो टपकाया गया था."
सूरह क़ियामह ७५- पारा २९ आयत (३१-३७)मुहम्मदी जेहालत के जत्थे में कभी कभी कोई बेदार जेहन आ जाया करता था जिसका रवय्या जनाब बयान करते हैं. उसको जाने के बाद अल्लाह के मकरूह रसूल कोसते काटते हैं, यहाँ तक कि गालियाँ भी देते हैं. यही गालियाँ मुसलमान अपनी नमाज़ों में अदा करते हैं.
क्या उस शख्स को जवाब नहीं दिया जा सकता कि
तुम भी तो अपनी माँ के अन्दाम निहानी में टपके हुए मनी के कतरे के अंजाम हो, पैगम्बर कैसे बन गए? किसी पैगम्बर ने तो मनी टपकने की हरकत की नहीं होगी. इंसान का बच्चा पैगम्बर ? चे मअनी?

तबलीग ए मोमिन

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Saturday 23 April 2011

सूरह मुज़म्मिल ७३ - पारा २९ -

मेरी तहरीर में - - -


क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।


नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.

अपने वजूद पर सवार ईश्वर को जब तक आप उतार नहीं फेकेंगे तब तक सत्य को नहीं पा सकेगे. कोई प्राणी ईश्वर की आराधना नहीं करता सिवाय इंसान के . ईश्वर है तो हुवा करे, हमें उसके होने न होने पर समय बर्बाद नहीं करना चाहिए, न ही अपनी ऊर्जा. हमने हमेशा ईश्वर को अपने सामने पाया है. सृष्टी में जो कुछ आप देख रहे है, सब ईश्वर है. ईश्वर प्रशंशनीय और कभी कभी निंदनीय तो हो सकता है, मगर पूजनीय कभी नहीं हो सकता है.

मुझ तक अल्लाह यार है मेरा, मेरे संग संग रहता है,

तुम तक अल्लाह एक पहेली, बूझे और बुझाए हो.


जहां से ईश्वर की आराधना शुरू होती है वहीँ से ईश्वर का क्रय-विक्रय शुरू होता है, यानी ओलिमा और पंडित का कारोबार. कोई ईश्वर ऐसा नहीं जो इंसान का कल्याण या अहित करता हो. अपने जीवन को शुद्ध करके मानव और दीगर प्राणी के लिए समर्पित रहिए, यही मानव धर्म है. इस धरती को सजाइए, संवारिए जो आने वाले आपके वारिसों को सुखी रखे. इसके लिए होई एक जीवन लक्ष बनाइए. सत्य को जितना पा सकेंगे, उतना अस्तित्व भार हीन होगा.


सूरह मुज़म्मिल ७३ - पारा २९ -

आइन्दा ऐसी ही छोटी छोटी सूरह हैं जिसमे मुहम्मद अपनी बातों को ओट रहे हैं, गोया क़ुरआनी पेट भरने की बेगार कर रहे हों.
महिरीन कुरआन और ताजिराने दीन इनको मुख्तलिफ शक्लें देकर सवाबों के खानों में बांटे हुए हैं.
इन्होंने हर सूरह की कुछ न कुछ "खवास'' बना रख्खा है. मसलन इस सूरह के बारे में मौलाना लिखते हैं

"जो शख्स सूरह मुज़म्मिल को अपना विरद (वाचन).बना दे, वह मुहम्मद का दर्शन ख्वाबों में पाए. और इससे खैर ओ बरकत होगी. सूरह को पढ़ कर हाकिम के पास जाए तो हाकिम को मेहरबान पाए. वास्ते ज़बान बंदी और तेग बंदी के लिए मुजर्रब है (परीक्सित, आज्मूदः) और अगर लिखकर मरीज़ के गले में लटका दे तो तो इसको सेहत हो और हर रोज़ सात मर्तबा पढ़े तो भोज्य अधिकाए ."देखिए कि लफ्ज़ी मानी ओ मतलब क्या है और बरकत क्या है - - -

"ए कपडे में लिपटने वाले! रत को खड़े रहा करो, मगर थोड़ी सी रात यानी निस्फ़ रात, या इससे भी निस्फ से किसी क़द्र कम कर दिया करो या निस्फ से कुछ बढ़ा दो और कुरआन को खूब साफ़ साफ़ पढो "कुछ और सोचने का मौक़ा ही न मिल सके. आयातों में अल्फाज़ की कारीगरी मुलाहिजा हो जैसे कि लफ़्ज़ों की मीनार चुन रहे हों, और जानते हैं कि हो सकता है, इसी तरह अल्लाह की ज़बाब होगी.


"और मुझको और इन झुटलाने वालों, नाज़ ओ नेमत में रहने वालों को छोड़ दो और इनको थोड़े दिनों की और मोहलत देदो. हमारे यहाँ बेड़ियाँ हैं और दोज़ख है और गले में फँस जाने वाला खाना."
" और तुम उस दिन से कैसे बचोगे जो बच्चों को भी बूढा कर देता है."
मुहम्मद की लगजिश देखिए कि अपने को अल्लाह के झुटलाने वालों में शामिल किए हुए हैं.
इन्हें कौन पकडे हुए हैं कि जिससे खुद को छुड़ा रहे है.
कैसा ज़ालिम अल्लाह है कि जिसको वह मनवा रहे हैं? बन्दों की मौत के बाद "बेड़ियाँ हैं और दोज़ख है और गले में फँस जाने वाला खाना देगा."मुसलामानों की अक्ल मारी गई है. अपने गलों में इस्लामी कांटा फंसे हुए हैं.



"और अल्लाह को अच्छी तरह क़र्ज़ दो, और नेक अमल अपने लिए आगे भेज दो, इसको अल्लाह के पास पहुँच कर इससे अच्छा और सवाब में बड़ा पाओगे और अल्लाह से गुनाह मुआफ़ कराते रहा करो, बेशक अल्लाह गफूरुर रहीम है."मुहम्मद अल्लाह अपनी इबादत का भूका प्यासा बैठा है?
सूरह मुज़म्मिल ७३ - पारा २९ - पारा(१-२०)

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Wednesday 20 April 2011

सूरह जिन्न ७२ -पारा २९

मेरी तहरीर में - - -

क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और ताबासरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।

नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.


सूरह जिन्न ७२ -पारा २९



मुझे हैरत होती है कि मुहम्मद के ज़माने में वह लोग थे जोकि कुरानी बकवासों को मुहम्मद का परेशान ख़याल कह कर दीवाने को फ़रामोश कर दिया करते थे. वह इस लग्वियात को मुहम्मद का जेहनी खलल मानते थे, ये बातें खुद कुरआन में मौजूद है, इस लिए कि मुहम्मद लोगों की तनक़ीद को भी क़ुरआनी फरमान का हिस्सा बनाए हुए हैं. वह लोग क़ुरआनी फ़रमूदात पर ऐसे ऐसे जुमले कसते कि अल्लाह की बोलती बंद हो जाया करती थी.
आज का इंसान उस ज़माने से कई गुना तालीम याफ्ता है,
जेहनी बलूगत भी लोगों की काफी बढ़ गई है,
तहकीकात और इन्केशाफत के कई बाब खुल चुके हैं,
फिर भी इन कुरानी लग्वियात को लोग अल्लाह का कलाम माने हुए हैं. और इस बात पर यकीन रक्खे हुए हैं.
जाहिल अवाम को मुआफ़ किया जा सकता है, मगर
कालेज के प्रोफ़ेसर, वोकला, जज और बुद्धि जीवी भी यक़ीन रखते हैं कि अल्लाह ने ही कुरआन को अपनी दानिश मंदी की शक्ल बख्शी .
अभी तक मुहम्मद उन लोगों को पकड़ कर अपनी पब्लिसिटी कराते थे जो बकौल उनके अल्लाह के रसूल हुवा करते थे. अब उतर आए हैं जिन्नों और भूतों के स्तर पर.



वह इस तरह मक्र को वह आयतें बनाते है - - -


आप कहिए कि मेरे पास इस बात की वह्यी आई है कि जिन्नात में से एक जमाअत ने कुरआन को सुना फिर उनहोंने कहा हमने एक अजीब कुरआन को सुना जो राहे रास्त बतलाता है सो हम तो ईमान ले आए और हम अपने रब के साथ किसी को शरीक नहीं करेंगे."मुहम्मद कुरआन की डफली अब उस मखलूक से भी बजवा रहे हैं जो वहमों का वजूद है. जिन्न का वहम भी यहूदियों के मार्फ़त इस्लाम में आया है.


"और हमारे परवर दिगार की बड़ी शान है. इसने न किसी को बीवी बनाया न औलाद."उस शख्स को अल्लाह के वजूद का वहम अगर है और इंसानी दिल ओ दिमाग रखने वाला अल्लाह है तो इंसानी जिसामत उसमें क्यूं नहीं? उसकी बीवी और बच्चे भी होना चहिए.
इस के बार अक्स जिन्नों मलायक की इफ़रात से मौजूदगी बगैर जिन्स के कैसे मुमकिन है?

"और हम में जो अहमक हुए हैं वह अल्लाह की शान में बढ़ी हुई बात करते थे. और हमारा ख़याल था कि इंसान और जिन्नात कभी अल्लाह की शान में झूट बात न कहेंगे. और बहुत से लोग आदमियों में ऐसे थे कि वह जिन्नात में से बअजे लोगों की पनाह लिया करते थे, सो उन आदमियों ने इन जिन्नात लोगों की बाद दिमागी और बढ़ा दी."क्या कहना चाहा है उम्मी ने? इसे कठ बैठे मुल्ला ही समझें.


"और हमने आसमान की तलाशी लेना चाहा, सो हमने इसको सख्त पहरों और शोलों में भरा हुवा पाया. और हम आसमान के मौकों में सुनने के लिए जा बैठा करते थे, सो अब जो कोई सुनता है एक तैयार शोला पाता है.."अल्लाह को पोलिस बन कर अपने ही कायनात की तलाशी लेनी पड़ सकती है क्या?

कि किसी मुजरिम ने आसमान में शोले छुपा रक्खा था. साथ साथ पहरे भी सख्ती के साथ थे, फिर भी अल्लाह हो असगर (यानी शैतान) आसमान में कान लगाए बैठा रहता है कि वहां की कोई खबर मिल सके.. गरज उसके लिए तारे का बुर्ज बना दिया जो कि शोले के साथ उस का पीछा करता है. ये तमाम कहानियाँ गढ़ राखी हैं रसूल ने इसको मुहम्मदी उम्मत वजू करके और टोपी लगा कर पढ़ती है.



"और हम नहीं जानते कि ज़मीन वालों को कोई तकलीफ़ पहुँचाना मक़सूद है या उनके रब ने उनको हिदायत लेने का एक किस्सा फरमाया."ऐसे किस्सों से कुरआन भरा हुवा है, जिसे मुसलमान दिनों रात तिलावत करते हैं.




जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Monday 18 April 2011

सूरह नूह ७१ पारा २९

मेरी तहरीर में - - -


क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी ''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है, हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं, और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।


नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.


सूरह नूह ७१ पारा २९


आजकाल चार छः औसत पढ़े लिखे मुसलमान जब किसी जगह इकठ्ठा होते हैं तो उनका मौजू ए गुफ्तुगू होता है ' मुसलामानों पर आई हुई आलिमी आफतें' बड़ी ही संजीदगी और रंजीदगी के साथ इस पर बहेस मुबाहिसे होते हैं. सभी अपनी अपनी जानकारियाँ और उस पर रद्दे अमल पेश करते हैं. अमरीका और योरोप को और उनके पिछ लग्गुओं को जी भर के कोसा जाता है. भगुवा होता जा रहा हुन्दुस्तान को भी सौतेले भाई की तरह मुखातिब करते हैं और इसके अंजाम की भरपूर आगाही भी देते हैं. सच्चे कौमी रहनुमा जो मुस्लिमों में है, उनको 'साला गद्दार है', कहकर मुखातिब करते हैं. वह मुख्तलिफ होते हुए भी अपने मिल्ली रहनुमाओं का गुन गान ही करते है.अमरीकी पिट्ठू अरब देशों को भी नहीं बख्शा जाता. बस कुछ नर्म गोशा होता है तो पाकिस्तान के लिए. इसके बाद वह मुसलामानों की पामाली की वजह एक दूसरे से उगलवाने की कोशिश करते हैं, वह इस सवाल पर एक दूसरे का मुँह देखते हैं कि कोई सच बोलने की जिसारत करे. सच बोलने की मजाल किसकी है? इसकी तो सलाहियत ही इस कौम में नहीं. बस कि वह सारा इलज़ाम खुद पर आपस में बाँट लेते हैं, कि हम मुसलमान ही गुमराह हो गए हैं. माहौल में कभी कभी बासी कढ़ी की उबाल जैसी आती है . कुरआन और हदीसों की बे बुन्याद अजमतों के अंबार लग जाते हैं, गोया दुन्या भर की तमाम खूबियाँ इनमें छिपी हुई हैं. माज़ी को जिन्दा करके अपनी बरतरी के बखान होते हैं. इस महफ़िल में जो ज़रा सा इस्लामी लिटरेचर का कीड़ा होता है, वह माहौल पर छा जाता है. वह माजी के घोड़ो से उतारते हैं, हाल के हालात पर आने के बाद सर जोड़ कर बैठते हैं कि आखिर इस मसअले का हल क्या है? हल के तौर पर इनको, इनकी गुमराही याद आती है और सामने इनके खड़ी होती है


'नमाज़',


ज़ोर होता है कि हम लोग अल्लाह को भूल गए हैं, अपनी नमाज़ों से गाफ़िल हो गए है. उन पर कुछ दिनों के लिए नमाज़ी इंक़लाब आता है और उनमें से कुछ लोग आरज़ी तौर पर नमाज़ी बन जाते है. असलियत ये है कि आज मुसलमान जितना दीन के मैदान में डटा हुवा है उतना कभी नहीं था. इनकी पस्मान्दगी की वजह इनकी नमाज और इनका दीन ही है. मुसलमान अपने चूँ चूँ के मुरब्बे की आचार दानी को उठा कर अगर तक पर रख दें, तो वह किसी से पीछे नहीं रहेगे.


लीजिए पेश है कुरान की आत्म घाती आयतें - - -


"हम ने नूह को इनके कौम के पास भेजा था कि तुम अपनी कौम को डराओ, क़ब्ल इसके कि इन पर दर्द नाक अज़ाब आए."
क़ुरआनी आयतें साबित करती हैं कि इंसान का पैदा होना ही उसके लिए अज़ाब है. ये पैगाम मुसलामानों को अन्दर से कमज़ोर किए हुए है.

बेमार की तौबह इनको राहत पहुँचाती है,

ये वजूद पर गैर ज़रूरी तसल्लुत है.

कोई किसी को दर्द नाक अज़ाब क्यूँ दे? वह भी अल्लाह? बकवास है ये रसूली आवाज़? ?


"उनहोंने कहा ऐ मेरी कौम! मैं तुम्हारे लिए साफ़ साफ़ डराने वाला हूँ कि तुम अल्लाह की इबादत करो और उससे डरो और हमारा कहना मानो तो वह तुम्हारे गुनाह मुआफ करेगा और तुमको वक़्त मुक़र्रर तक मोहलत देगा."
मुहम्मद झूट का लाबादः ओढ़ कर खुद नूह बन जाते हैं, कभी इब्राहीम तो कभी मूसा.


अफ़सोस कि इस्लामी दुन्या एक झूठे की उम्मत कहलाना पसंद करती है.


"नूह ने दुआ की कि ऐ मेरे अल्लाह! मैंने अपनी कौम को रात को भी और दिन को भी बुलाया, सो वह मेरे बुलाने पर और ही ज़्यादः भागते रहे और हमने जब भी बुलाया कि आप उनको बख्श दें, तो उन्हों ने अपनी उंगलियाँ अपने कानों में दे लीं और अपने कपडे लपेट लिए और इसरार किया और गायत दर्जे का तकब्बुर किया." अपने कलाम में मुहम्मद अपने मेयार के मुताबिक फ़साहत और बलूगत भरने की कोशिश कर रहे हैं जब कि जुमले को भी सहीह अदा नहीं कर पा रहे. सुबहो-शाम की जगह "अपनी कौम को रात को भी और दिन को भी बुलाया" जैसे जुमलों में पेश करते हैं. मालिके कायनात को क्या ऐसी हकीर बाते बकने के लिए है.
मुहम्मद ने उस हस्ती को पामाल कर रखा है.


"फिर मैंने उन्हें बा आवाज़ बुलंद बुलाया, फिर मैंने उनको एलानिया भी समझाया और कहा कि तुम अपने परवर दिगार से गुनाह बख्शुआओ, बे शक वह बख्शने वाला है."
क्या किसी पागल की गुफ्तुगू इससे हटके हो सकती है?




"कसरत से तुम पर बारिश भेजेगा"

अगर तुम उम्मी को पैगम्बर मान लो तो.


"और तुम्हारे लिए बाग़ लगा देगा और नहरें बहा देगा."
शर्त है कि उसको अल्लाह का रसूल मानो.


"तुमको क्या हुवा कि तुम उसकी अजमतों के मुअत्किद नहीं हो."
उसकी अजमतों का सेहरा मक्कार मुहम्मद पर मत बाँधो, मुसलामानों .


"और नूह ने कहा ऐ मेरे परवर दिगार! काफिरों में से ज़मीन पर एक भी बन्दा न छोड़, अगर तू इनको रूए ज़मीन पर रहने देगा तो ये आपके बन्दों को गुमराह कर देंदे और इनसे महेज़ फजिर और काफ़िर औलादें ही पैदा होंगी ."
अल्लाह को एक बन्दा समझा रहा है कि तू अपने बन्दों का गुनहगार बन जा, उसको नशेब ओ फ़राज़ समझा रह है. क्या ये सब तुमको मकरूह नहीं लगता?


"ऐ मेरे रब ! मुझको, मेरे माँ बाप को और जो मोमिन होने की हालत में मेरे घर दाखिल हैं, और तमाम मुसलमान मर्द और मुसलमान औरतों को बख्श दे और ज़ालिमों की हलाक़त और बढ़ा दे."
सूरह नूह ७१ पारा २९ आयत (१-२७)

अल्लाह खुद किसी अल्लाह से दुआ मांग रहा है? कितनी अहमक कौम है ये जिसको मुसलमान कहते हैं.



जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Friday 15 April 2011

सूरह मुआरिज ७०- पारा २९

मेरी तहरीर में - - -

क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी ''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,

हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,

और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।

नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.

सूरह मुआरिज ७०- २९

मुहम्मद का क़यामत का शगूफ़ा इतना कामयाब होगा कि इसे सोचा भी नहीं जा सकता. आज इक्कीसवीं सदी में भी क़यामत की अफ़वाह अक्सर फैला करती है, तब तो खैर दुन्या जेहालत के दौर में थी.

अवाम उमूमन डरपोक हुवा करती है. हाद्साती अफ़वाहों को वह खुद हवा दिया करती है. अहले कुरैश से एक शख्स क़यामत आने की खबर समाज को देता है, इसे वह मुश्तहिर करता है. लोग हज़ार झुट्लाएं, वह बाज़ नहीं आता. उसकी वजेह से मक्का में लोगों को क़यामत का सपना आने लगा था. क़यामत की वबा फ़ैल चुकी थी, वह चाहे यकीन के तौर पर या इसका मजाक ही बन गया हो.


क़यामत का नया बाब खोलते हुए मुहम्मदी अल्लाह कहता है - -


"एक दरख्वास्त करने वाला इस अज़ाब की दरख्वास्त करता है कि जो काफिरों पर होने वाला है, जिसका कोई दिफ़अ करने वाला नहीं है और जो कि अल्लाह की तरफ से वाकेअ होगा, जो कि सीढ़ियों का मालिक है. फ़रिश्ते और रूहें इसके पास चढ़ कर जाती हैं. ऐसे दिन में होगा जिस की मिकदार पचास हज़ार साल होगी, सो आप सब्र कीजिए और ऐसा सब्र की जिसमें शिकायत का नाम न हो.'

सूरह मुआरिज ७०- पारा २९ - (आयत -१-५ )

मुहम्मद की तफ़रीह लेते हुए अहले मक्का उनको देख कर पूछते कि अमाँ कब आएगी क़यामत? अक्ल का पैदल रसूल उन पूछने वालों को दरख्वास्त गुज़ार बतलाता है, कहता है "एक दरख्वास्त करने वाला इस अज़ाब की दरख्वास्त करता है''

मुहम्मदी अल्लाह क़यामत का वक्फ़ा यहाँ पर ५०,००० साल बतलाता है, इसके पहले हज़ार साल बतलाया था, और जल्द ही आने वाली है, तो हर सूरह में बार बार दोहराता है. फ़ारसी मुहाविरा है कि 'झूट बोलने वाले की याद दाश्त कमज़ोर होती है' बहुत दिनों से मुसलामानों को चौदहवीं सदी का इन्तेज़ार था, मुहम्मद ने इस सदी के लिए क़यामत की पेशीन गोई कि थी जो आधी होने को है.

क्या मुसलमान मुसलसल खाद्शे की ज़िन्दगी जी रहा है?


"ये लोग इस दिन को बईद देख रहे हैं और हम इसको करीब देख रहे हैं, जिस दिन तेल तलछट की तरह हो जाएगा और पहाड़ रंगीन उन की तरह"

सूरह मुआरिज ७०- पारा २९ - (आयत -६-९ )

मुहम्मद का साजिशी दिमाग़ हर वक़्त कुछ न कुछ उधेड़ बुन किया करता है, जिसके तहत क़यामत के खाके बना करते हैं. इस तरह से कुरआन का पेट भरता रहता है. तेल तलछट की तरह हो जाएगा तो ये भी अल्लाह की कोई बात हुई, तेल के नीचे तो तलछट ही होता है.


"और उस रोज़ कोई दोस्त, किसी दोस्त को न पूछेगा, बावजूद एक दूसरे को दिखा दिए जाएँगे और मुजरिम इस बात की तमन्ना करेगा कि अजाब से छूटने के लिए, अपने बेटों को , बीवी को, भाई को, और कुनबे को जिस में वह रहता था और तमाम अहले ज़मीन को फिदया में देदे, फिर ये इसको बचाए, ये हरगिज़ न होगा, बल्कि आग ऐसी हिगी जो ख़ाल उधेड़ देगी.'

सूरह मुआरिज ७०- पारा २९ - (आयत१०-१६)

एक पाठक ने पिछले ब्लॉग पर मुझ से पूछा है कि दुन्या में मुसलमानों की पस्मान्दगी की वजेह क्या है? उनको मैने इन्हीं आयतों पर पुख्ता यकीन बतलाया था.

मुसलमानों! क्या तुम आयत (आयत१०-१६) में मुहम्मद की साज़शी बू नहीं पा रहे हो?

तुम्हारा रहनुमा तुमको और तुम्हारी नस्लों को ठग रहा है,

आँखें खोलो.

जो इस्लाम से जुडा हुआ सर गर्म है, उसे गौर से समझो कि वह मज़हब को ज़रीआ मुआश बनाए हुए है, न कि वह अच्छा इंसान है, अच्छे और नेक तो आप लोग हो जो अपनी नस्लों को उनके यहाँ गिरवीं रक्खे हुए हो.

मैं तुम्हारी गिरवीं पड़ी अमानत को बेख़ौफ़ होकर उनसे छीन कर,आप के हवाले कर रह हूँ.


"जो अपनी शर्म गाहों को महफूज़ रखने वाले हैं, लेकिन अपनी बीवी से और अपनी लौंडियों से नहीं, क्यूंकि इन पर कोई इलज़ाम नहीं. हाँ जो इसके अलावा तलब गार हो, ऐसे लोग हद से निकलने वाले हैं."

सूरह मुआरिज ७०- पारा २९ -(आयत २९-३०)

मुहम्मदी अल्लाह कहाँ से कहाँ पहुँच गया? इसी को 'बे वक़्त, बे महल बात' कहते है. उम्मी के पास कोई मुफक्किर का ज़खीरा तो था ही नहीं, लेदे के एक ही बात को बार बार औटा करता है.

मुसलमानों! क्या आज तुम लौडियाँ रखते हो? नहीं! तो फिर उस अहमक की बातों में क्यूँ मुब्तिला हो? जैसे लौंडियाँ हराम हो गई हैं, वैसे ही इस्लाम को अपने ऊपर हराम कर लो.


"तो काफिरों को क्या हुवा कि आप की तरफ़ को दाएँ और बाएँ जमाअतें बन बन कर दौड़ रहे हैं. क्या इस में से हर शख्स इसकी हवस रखता है कि वह आशाइश की जन्नत में दाखिल होगा. ये हरगिज़ न होगा. हमने इनको ऐसी चीज़ से पैदा किया है कि जिसकी इनको भी खबर नहीं."

सूरह मुआरिज ७०- पारा २९ -(आयत ३६-३९)

क्या पैगाम दे रही हैं ये अल्लाह की बातें ?

खुद मुसलमान इस की हवस रखता है कि वह आशाइश की जन्नत में दाखिल हो और काफिरों पर इलज़ाम है.

ऐसी बातों को लोग इस्लामी गलाज़त कहते हैं.

इंसान कैसे पैदा हुवा है, इसको हमारे साइंसटिस्ट साबित कर चुके हैं जो रोज़े रौशन की तरह उजागर है, खुद फरेब अल्लाह इसे राज़ ही रखना चाहता है.


"फिर मैं क़सम खता हूँ मगरिब और मशरिक के मालिक की, कि हम इस पर कादिर हैं कि इनकी जगह इन से बेहतर लोग ले आएँगे और हम आजिज़ नहीं हैं, सो इनको आप इसी शुगल में और इसी तफरीह में रहने दीजिए."

सूरह मुआरिज ७०- पारा २९ -(आयत ४२ )

मुहम्मदी अल्लाह दो दिशाओं की क़सम खाता है? गोलार्ध की मुख्य लीक को जो सूरज की चाल की है, उत्तरी और दक्सिणी धुरुव को जानता भी नहीं.

जिस अल्लाह की जानकारी इस कद्र सीमित हो, उसको खुदा कहने में शर्म नहीं आती?

मुसलामानों! तुम पर दूसरी कौमें ग़ालिब हो चुकी हैं, ये इस्लाम की बरकत ही है. ईराक और लीबिया मौजूदः मिसालें हैं.



जीम 'मोमिन'


Tuesday 12 April 2011

सूरह हाक़क़ा ६९ - पारा २९-

मेरी तहरीर में - - -

क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी ''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है, हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं, और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।

नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.

सूरह हाक़क़ा ६९ - पारा २९-


"वह होने वाली चीज़ कैसी कुछ है, वह होने वाली चीज़, आपको कुछ खबर है, कैसी कुछ है, वह आने वाली चीज़. (१-३)
मुहम्मद के सर पे क़यामत का भूत सवार था, या साजिशी दिमाग की पैदावार कहना ज़्यादः बेहतर होगा. वह कुरआन को उसी तरह बकते हैं जैसे एक आठ साल के बच्चे को कुछ बोलते रहने के लिए कहा जाए, उसके पास अलफ़ाज़ ख़त्म हो जाते है, वह अपनी बात दोहराने लगता है. उसका दिमाग थक जाता है तो वह भाषा की कवायद भी भूल जाता है. जो मुँह में आता है, आएँ बाएँ शाएँ, बकने लगता है अगर सच्चाई पर कोई आ जाए तो कुरआन का निचोड़ यही है.


''सुमूद और आद ने इस खड़खड़ाने वाली चीज़ की तकजीब की, सुमूद तो एक ज़ोर की आवाज़ से हलाक कर दिए गए और आद जो थे, एक तेज़ तुन्द हवा से हलाक कर दिए गए. (४-६)

आपने कभी आल्हा सुना हो तो समझ सकते हैं कि उसके वाकेआत सारे के सारे लग्व और कोरे झूट हैं, इसके वाद भी अल्फाज़ की बन्दिश और सुखनवरी, आल्हा को अमर किए हुए है कि सुन सुन कर श्रोता मुग्ध हो जाता है..

उसके आगे मुहम्मद का क़ुरआनी आल्हा ज़ेहन को छलनी कर जाता है, क्यूंकि इसे चूमने चाटने का मुकाम हासिल है.


''जिसको अल्लाह तअला ने सात रात और आठ दिन मुतावातिर मुसल्लत कर दिया.वह तो उस कौम को इस तरह गिरा हुवा देखता कि वह गोया गिरी हुई खजूरों के तने हों. (७)

किस को सात रात और आठ दिन मुतावातिर मुसल्लत कर दिया ? किस पर मुसल्लत कर दिया? अल्लाह के इशारे पर पहाड़ और समंदर उछलने लगते हैं, फिर किस बात ने उसको मुतावातिर मुसल्लत करते रहने के अज़ाब में मुब्तिला रक्खा. मुहम्मद की जेहनी परवाज़ भी किस क़दर फूहड़ है.

अल्लाह को अरब में खजूर इन्जीर और जैतून के सिवा कुछ दिखता ही नहीं.

''फिरौन ने और इस से पहले लोगों ने और लूत की उलटी हुई बस्तियों ने बड़े बड़े कुसूर किए, सो उन्हों ने अपने रसूल का कहना न माना तो अल्लाह ने इन्हें बहुत सख्त पकड़ा. हमने जब कि पानी को तुगयानी हुई , तुमको कश्ती में सवार किया ताकि तुम्हारे लिए हम इस मुआमले को यादगार बनाएँ और याद रखने वाले कान इसे याद रक्खें." (१०-१४)

पाषाण युग के लूत कालीन बाशिदों का ज़िक्र है कि उस गड़रिए लूत की बातें मुहम्मद कर रहे है जो बूढा बेय़ार ओ मदद गार अपनी दो बेटियों को लेकर एक पहाड़ पर रहने लगा था. मुहम्मद अपने लिए पेश बंदी कर रहे हैं कि मुझ रसूल की बातें न मानोगे तो अल्लाह तुम्हारी बस्तियों को ज़लज़ले और सूनामी के हवाले कर देगा.


"फिर सूर में यकबारगी फूँक मार दी जाएगी और ज़मीन और पहाड़ उठा लिए जाएँगे फिर दोनों एक ही बार में रेज़ा रेज़ा कर दिए जाएँगे, तो इस रोंज़ होने वाली चीज़ हो पड़ेगी." (१५)

जब ज़मीन और पहाड़ उठा लिए जाएँगे तो हज़रत के गुनाहगार दोजखी कहाँ होंगे?


"आसमान फट जाएगा और वह उस दिन एकदम बोदा होगा और फ़रिश्ते उसके किनारे पर आ जाएगे और आपके परवर दिगार के अर्श को उस रोंज़ फ़रिश्ते उठाए होगे."

मुसलमानों! अपने अल्लाह का ज़ेहनी मेयार देखो, उसकी अक्ल पर मातम करो, आसमान फट जाएगा, इस मुतनाही कायनात को काग़ज़ का टुकड़ा समझने वाला तुम्हारा नबी कहता है कि फिर ये बोदा (भद्दा) हो जायगा ? फटे हुए आसमान को फ़रिश्ते अपने कन्धों पर ढोते रहेंगे.. क्या इसी आसमान फाड़ने वाले अल्लाह से तुम्हारी फटती है ? ?

"उस शख्स को पकड़ लो और इसके तौक़ पहना दो, फिर दोज़ख में इसको दाखिल कर दो फिर एक ज़ंजीर में जिसकी पैमाइश सत्तर गज़ हो इसको जकड दो. ये शख्स अल्लाह बुज़ुर्ग पर ईमान नहीं रखता था." (३०-३३)

कोई खुद्दार और खुद सर था मुहम्मद के मुसाहिबों में, जोकि उनकी इन बातों से मुँह फेरता था, उसका बाल बीका तो कर नहीं सकते थे मगर उसको अपने क़यामती डायलाग से इस तरह से ज़लील करते हैं.


" मैं क़सम खाता हूँ उन चीजों की जिन को तुम देखते हो और उन चीजों की जिन को तुम नहीं देखते कि ये कुरआन कलाम है एक मुआज्ज़िज़ फ़रिश्ते का लाया हुवा और ये किसी शायर का कलाम नहीं." (३८-४१)

कौन सी चीज़ें है जो अल्लाह को भी नहीं दिखाई देतीं? क्या वह भी अपने मुसलमान बन्दों की तरह ही अँधा है. फिर कसमें खा खाकर अपनी ज़ात को क्यूं गुड गोबर किए हुए है.

मुसलमानों! तुम्हें इन अफीमी आयतों से मैं नजात दिला रहा हूँ., मेरी राय है कि तुम एक ईमान दार ज़िन्दगी जीने के लिए इस 'मोमिन' की बात मानों औए अपनी ज़ात को सुबुक दोश करो इन क़ुरआनी बोझ से और इन गलाज़त भरी आयातों से.

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

सूरह क़लम - ६८ पारा २९

मेरी तहरीर में - - -

क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी ''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है, हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं, और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।

नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.

सूरह क़लम - ६८ पारा २९


"नून"
ये हुरूफ़ ए मुक़ततेआत है जिसके मअनी अल्लाह ही बेहतर जनता है. हुरूफ़ ए मुक़ततेआत ५० बार कुरआन में आए है. इस्लामी वज़े में सजे हुए (नूरानी गोल्डेन दाढ़ी, सफ़ा चट्ट मुच्छें, सर पे पगड़ी और आँखों में सुरमा) मुल्ला को व्यँग से 'चुकतता मुक़तता' कहा जाता है. इसी रिआयत से ऐसे बेमानी लफ़्ज़ों को 'हुरूफ़ ए मुक़ततेआत" कहा गया होगा.


"क़सम है क़लम की और इसके लिखने की कि आप अपने रब के फज़ल से मजनू नहीं हैं"
सूरह क़लम - ६८ पारा २९ आयत (१-२)

"और आपके लिए ऐसा उज्र है जो ख़त्म होने वाला नहीं. और आप बेशक एखलाक के आला पैमाने हैं"

सूरह क़लम - ६८ पारा २९ आयत (३-४)

"तो अनक़रीब आप भी देख लेंगे और ये लोग भी कि तुम में किसको जूनून था." सूरह क़लम - ६८ पारा २९ आयत (७)

''और आप ऐसे शख्स का कहना न मानें जो बहुत कसमें खाने वाला हो, बे वक़अत हो तअने देने वाला हो , चुगलियाँ लगाता फिरता हो, नेक काम से रोकने वाला हो." सूरह क़लम - ६८ पारा २९ आयत (8)

"हद से गुजरने वाला हो, गुनाहों का करने वाला हो, सख्त मिज़ाज हो, इन सब के अलावा हराम ज़ादा हो, इस सबब से कि माल और औलाद वाला हो. जब हमारी आयतें उसके सामने पढ़ी जाती हैं तो वह कहता है, ये बे सनद बातें हैं. अगलों से मान्कूल होती चली आई हैं.हम अनक़रीब उसकी नाक पर दाग लगा देंगे." सूरह क़लम - ६८ पारा २९ आयत (११-१६) "और ये काफ़िर जब कुरान सुनते है तो ऐसे मालूम होते हैं कि गोया आपको अपनी निगाहों से फिसला कर गिरा देंगे और कहते हैं कि ये मजनू है, हालाँकि ये कुरान जिसके साथ आप तकल्लुम फरमा रहे है, तमाम जहाँ के लिए नसीहत है."

सूरह क़लम - ६८ पारा २९ आयत (५२)

मुहम्मदी अल्लाह अपने रसूल के लिए क़लम की क़सम खाता है जिससे उसका कोई वास्ता नहीं है.वह इस बात की भी मुहम्मद को ये यकीन दिलाने के लिए कहता है कि आप जनाब दीवाने नहीं बल्कि आला ज़र्फ़ इंसान हैं, जैसे कि खुद मुहम्मद अपनी इस खूबियों से नावाकिफ हों. मुहम्मद की अय्यारी खुद इन आयतों का आईना दार हैं. मुहम्मद अपने दुश्मनों के लिए सल्वातें ही नहीं, गलियाँ भी अपने अल्लाह के ज़बानी सुनवाते हैं. मुसलामानों! क्या तुम सैकड़ों साल के पुराने क़बीलों से भी गए गुज़रे हो? जो इन बकवासों से इस शख्स को अपनी निगाहों से गिराए हुए थे. एक अदना सा बन्दा तुम्हारा खुदा और तुम्हारा रसूल बना हुवा है, वह भी इन गलीज़ आयतों की पूरी दलील और पूरे सुबूत के साथ.

जागो, वर्ना तुम्हारी मौत अनक़रीब लिखी हुई है. ज़माना तुम्हारी जेहालत का शर अब और बर्दाश्त नहीं कर सकता. सादिक दुन्या में बातिल खुद अपने आप में घुट रहा है. क्या तुम कोई घुटन महसूस नहीं कर रहे हो? इस सूरह में एक वाहियात सी मिसाल भी है कि लोगों ने बगैर इंसा अल्लाह कहे रात को खेत काटने की बात ठानी, सुब्ह देखते हैं कि खेत में फसल गायब है. ताकीद और नसीहत है कि बिना इंशा अल्लाह कहे कोई वादा मत करो. ये इंशा अल्लाह बे ईमानो को काफी मौक़ा दिए हुए है कि वह मामले को टालते रहें.

इस इंशा अल्लाह में मुसलमानों की बाद नियती शामिल रहती है.


जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Saturday 9 April 2011

सूरह मुलक -६७ -पारा -२९

मेरी तहरीर में - - -

क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी ''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है, हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं, और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।

नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.

सूरह मुलक -६७ -पारा -२९


मुसलमानों ! दस्तूर ए कुदरत के मुताबिक हर सुब्ह कुछ बदलाव हुवा करता है. कहते हैं कि परिवर्तन ही प्रकृति नियम है.
फ़िराक़ कहते हैं -

निज़ाम ए दह्र बदले, आसमान बदले ज़मीं बदले,
कोई बैठा रहे कब तक हयात ए बे असर लेकर.


तुम क्या "हयात ए बे असरी" को जी रहे हो?
हर रोज़ सुब्ह ओ शाम तुम कुछ नया देखते हो. इसके बावजूद तुम पर असर नहीं होता? इंसानी ज़ेहन भी इसी ज़ुमरे में आता है, जो कि तब्दीली चाहता है. बैल गाड़ियाँ इस तबदीली की बरकत से आज तेज़ रफ़्तार रेलें बन गई हैं. तुम जब सोते हो तो इस नियत को बाँध कर सोया करो कि कल कुछ नया होगा, जिसको अपनाने में हमें कोई संकोच नहीं होगा.


तरीक्यों से पहले सरे शाम चाहिए,
हर रोज़ आगाही से भरा जाम चाहिए.


मगर तुम तो सदियों पुरानी रातों में सोए हुए हो, जिसका सवेरा ही नहीं होने देते. दुनिया कितनी आगे बढ़ गई है, तुमको खबर भी नहीं.

रात मोहलत है इक, जागने के लिए,
जाग कर सोए तो नींद आज़ार है.


उट्ठो आँखें खोलो. इस्लाम तुम पर नींद की अलामत है. इसे अपनाए हुए तुम कभी भी इंसानी बिरादरी की अगली सफों में नहीं आ सकते. इस से अपना मोह भंग करो वर्ना तुम्हारी नस्लें तुमको कभी मुआफ नहीं करेगी.

खुद साख्ता अल्लाह बना पैगम्बर कहता है - - -
"वह बड़ा आलीशान है, जिसके कब्जे में तमाम सल्तनत है और हर चीज़ पर कादिर है, जिस ने मौत और हयात पैदा किया, ताकि तुम्हारी आजमाइस करे कि तुम में अमल में कौन ज़्यादः अच्छा है और वह ज़बरदस्त बख्शने वाला है."

सूरह मुलक -६७ -पारा -२९- आयत (१-२)

मुसलामानों ! अगर किसी अल्लाह ने तुमको आज़माने के लिए पैदा किया है तो उस पर लअनत भेजो. एक बाप अपनी औलाद को पाल पोस कर इस लिए परवान चढ़ाता है कि औलाद बड़ी होकर उसके बुढ़ापे का सहारा बनेगी, तो इंसानी कमजोरी के तहत ये बात जायज़ हो सकती है, मगर अल्लाह का अगर ये ख़याल है तो तुम उस अल्लाह मुँह पर उसके फरमान को मार दो.


"जिसने सात आसमान ऊपर तले पैदा किए. सो तू फिर निगाह डाल के देख ले . . . फिर बार बार निगाहे ज़ेल और दरमान्दा होकर तेरी तरफ़ लौट आएँगे और करीब के आसमान को चराग़ों से आरास्ता कर रखा है और हमने उनको शैतान के मरने का ज़रीआ भी बना दिया है और हम ने उनके लिए दोज़ख का अज़ाब भी तैयार कर रखा है."

सूरह मुलक -६७ -पारा -२९- आयत (३-५)

कहाँ हैं ऊपर तले सात आसमान? ये मुहम्मदी अटकलें हैं. वह अरबों खरबों सितारों और सय्यारों को शामयाने की किंदील समझते हैं, और सितारों के टूटने को राम बाण.

अहमकों के सरदार सरवरे कायनात.


"जब काफ़िर लोग दोज़ख में डाले जाएँगे तो उसकी बड़ी शोर की आवाज़ सुनेंगे और वह इस तरह ज़ोर मारती होगी जैसे मालूम होगा कि गुस्से के मारे फट पड़ेगी . . . " सूरह मुलक -६७ -पारा -२९- आयत (८)

क्या मुहम्मदी अल्लाह में तुमको कहीं भी जेहालत नज़र नहीं आती?.


"बेशक जो लोग अपने परवर दिगार से बे देखे डरते हैं, उनके लिए मगफिरत और उजरे अज़ीम है."

सूरह मुलक -६७ -पारा -२९- आयत (११)

पैगम्बर दगाबाज़ है जो बगैर देखे और बिना सोचे समझे किसी अल्लाह या रसूल्लिल्लाह का यक़ीन दिलाता है. मुअज़ज़िन झूटी गवाही अपनी अजान में देता है, उसको सजा मिलनी चाहिए.


"आप कहिए कि उसी ने तुमको पैदा किया और कान, नाक और दिल दिया मगर तुम लोग कम शुक्र करते हो"

सूरह मुलक -६७ -पारा -२९- आयत (२३)

अफ़सोस कि मुसलमान अपने कान, नाक और दिल का इस्तेमाल नहीं करता.

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

सूरह तह्रीम ६६ पारा २८

मेरी तहरीर में - - -

क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी ''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है, हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं, और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।

नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.

सूरह तह्रीम ६६ पारा २८

अन्ना हज़ारे का इन्क़लाब आया और चार दिन में पूरे मुल्क को हिला कर चला गया. इस इन्क़लाब में गांधी के साथ कोई ' अबुल आज़ाद न हसरत मोहनी न मुहम्मद अली, न शौक़त अली नहीं था. मुसलामानों का कहीं दूर दूर तक अता पता नहीं था. शबाना आज़मी ज़रूर थी जिसको आलिमान इस्लाम " नचनियाँ,गवैया और नापाक औरत से नवाज़ते हैं. शबाना एक अज़ीम फ़न्कारह ही नहीं, एक अज़ीम इंसान भी है, जिसकी पहचान आक्सफोर्ड का एवार्ड है जो इसे मिला. ऐसी ही कुछ फ़िल्मी हस्तियाँ हैं जिनका मेल भारतीयता से खाता है. अन्ना की हवा में जो जमाअत इस्लामी ने हिस्सा लिया वह 'मेहमान नाज़ेबा' थे उनकी तंजीम तो इस्लामी इन्कलाब की मुन्तजिर है. वह इंसानी मसायल से बेबहरे है.चाहते हैं कि देश में तमाम रहनुमाओं की तस्वीरें उतार कर अल्लाह की तस्वीर लगा दी जाए, जैसे अभी मिस्र में देखा गया कि होस्नी मुबारक की तस्वीर हटा कर हवा का बुत, यानी अल्लाह का तोगरा लगा दिया गया.

बरेली के तथा कथित 'आला हज़रात' ने उन मुसलामानों को कुफ्र का फतुवा दिया था जो गाँधी जी की अर्थी में शरीक हुए थे. फिर भी उनके नाम की आला हजरत एक्सप्रेस चलाई जा रही है और मुसलमान सुब्ह ओ शाम उसका गुणगान करते हैं.

इस्लाम की घुट्टी मुसलमानों को दुन्या में कहीं सुर्ख रू नहीं होने देगी, ये जहाँ भी दूसरी कौमों के साथ रहते हैं अपने आप में ज़लील ओ ख्वार रहते हैं. जहाँ ये काबिज़ हैं, हर रोज़ अपनी जेहादी मौत के नवाला आपस में होते रहते हैं. इस्लाम ने इंसानों को ऐसा ज़हरीला नशा पिलाया है जिसकी काट अभी तक तो पैदा नहीं हुवा है.

फिर मैं कहूँगा कि मुसलमान इस्लाम से तौबा करके मुस्लिम से ईमान दार 'मोमिन' हो जाएँ, एक एलान के साथ. उनका कुछ न छिनेगा, न बदलेगा, न नाम, न तहजीब ओ तमद्दुन, न रख रखाव और न किसी दूसरे धर्म की पैरवी . धर्मांतरण का मतलब होगा चूहे दानों की अदला बदली. धर्म के नए मानी हैं धाँधली जिस दिन इस बात को समझ कर कोई गाँधी, कोई अन्ना पैदा होंगे उस दिन हिदुस्तान में मुकम्मल इन्कलाब आएगा.

देखो कि तुम अपनी नमाज़ों में क्या पढ़ते हो - - -


"ऐ नबी जिस चीज़ को अल्लाह ने आप के लिए हलाल किया है, आप उसे क्यूँ हराम फ़रमाते हैं. अपनी बीवियों की खुशनूदी हासिल करने के लिए? और अल्लाह बख्शने वाला है."

मुहम्मद ज़रा सी बात पर बीवियों को तलाक़ देने पर आ गए जिसे उनका अल्लाह हलाल फ़रमाता है बल्कि समझाता है कि आप जनाब तलाक़ को क्यूँ हराम समझते हैं? हमारे ओलिमा डफ्ली बजाया करते है कि तलाक़ अल्लाह को सख्त ना पसन्द है. कुरान में ऐसा कहीं है

तो यहाँ पर तलाक़ इतना आसान क्यूँ?

दोहरा और मुतज़ाद हुक्म मुहम्मदी अल्लाह क्यूँ फ़रमाता रहता है?


"जब पैगम्बर ने एक बात चुपके से फरमाई, फिर जब बीवी ने वह बात दूसरी बीवी बतला दी और पैगम्बर को अल्लाह ने इसकी खबर देदी व् पैगम्बर ने थोड़ी सी बात जतला दी और थोड़ी सी टाल गए.जतलाने पर वह कहने लगी, आपको किसने खबर दी? आपने फ़रमाया मुझको बड़े जानने वाले, खबर रखने वाले ने खबर दी." (यानी अल्लाह ने)

वाक़ेआ यूं है- मुहम्मद की एक बीवी ने उनको शहद पिला दिया था , उन्हों ने इस शर्त पर पिया कि दूसरी किसी बीवी को इसकी खबर न हो, मगर उसने अपनी सवतन को बतला दिया कि उनको बात ज़ाहिर न करना. दूसरी ने तीसरी को कहा आज राजा इन्दर आएँ तो कहना, क्या शहेद पिया है कि बू आ रही है? यही मैं भी कहूँगी. मज़ा आएगा.

मुहम्मद दूसरी के यहाँ गए तो उसने उनसे पुछा,"क्या शहेद पिया है कि बू आ रही है? वह इंकार करते हुए टाल गए. फिर तीसरी ने भी उनसे यही सवाल दोराय .क्या शहेद पिया है कि बू आ रही है?" मुहम्मद सनके कि जिसके यहाँ शहद पिया थ ये उसकी हरकत है सब बीवियों से उसने गा दिया . बस इतनी सी बात पर पैगम्बर अपनी बीवियों पर बरसे कि अल्लाह ने उनको सारी खबर देदी. गोया अल्लाह ने उनकी बीवियों में चुगल खोरी करता फिरा.

{मैं मुहम्मदी अल्लाह को ज़ालिम, जाबिर, चाल चलने वाला, और मुन्ताकिम के साथ साथ चुगल खोर भी कहता हूँ. जो अपने बन्दों को आपस में लड़ाता है.)

और सभी ९ बीवियों को तलाक़ देने की धमकी देने लगे.


"ऐ दोनों बीवियों ! अगर तुम अल्लाह के सामने तौबा कर लो तो तुम्हारे दिल मायल हो रहे हैं और अगर पैगम्बर के मुकाबले में तुम दोनों कार रवाईयाँ करती रहीं तो याद रखो पैगम्बर का रफ़ीक़ अल्लाह है और जिब्रील है और नेक मुसलमान हैं और इनके अलावा फ़रिश्ते मददगार हैं.''

मुआम्मद दो बे सहारा और मजबूर औरतो के लिए अल्लाह की, फरिश्तों की और इंसानों की फ़ौज खडी कर रहे हैं, इससे ही इनकी कमजोरी का अंदाजः किया जा सकता है.


"अगर पैगम्बर तुम औरतों को तलाक़ देदें तो उसका परवर दिगार बहुत जल्द तुम्हारे बदले इनको तुम से अच्छी बीवियाँ दे देगा जो इस्लाम वालियाँ, ईमान वालियाँ, फरमा बरदारी करने वालियाँ, तौबा करने वालियाँ, इबादत करने वालियाँ और रोजः रखने वालियाँ होंगी. कुछ बेवा और कुछ कुंवारियाँ होंगी."

ऐसे रसूल पर ग़ैरत वालियों की लअनत . कितनी घटिया सोच थी इस रंगीले रसूल की.


"ऐ ईमान वालो तुम अपने आप को और अपने घरों को आग से बचाओ जिसका ईंधन आदमी और पत्थर है, जिस पर तुन्दखू फ़रिश्ते हैं, जो अल्लाह की नाफ़रमानी नहीं करते, किसी बात में, जो उनको हुक्म दिया जाता है और जो कुछ उनको हुक्म दिया जाता है उसको बजा लाते है."

मुसलमानों! क्या ऐसी बातें तुम्हारी इबादत और तिलावत के लायक हैं जो वज्द में आकर तुम बकते हो. बड़े शर्म की बात है. सोचो, अल्लाह की बात में कोई बात तो हो. वह पागल अल्लाह ख़ता कार इंसानों को ही नहीं बे ख़ता पत्थरों को भी दोज़ख रसीदा करता है.


"ऐ नबी कुफ्फर से और मुनाफिकीन से जेहाद कीजिए और उनका ठिकाना दोज़ख है और बुरी जगह है"

किसी इंसान का खून किसी हालत में भी जायज़ नहीं हो सकता, चाहे वह कितना बड़ा मुज्क्रिम ही क्यूँ न हो, क़ातिल ही क्यूँ न हो. क़त्ल के मुजरिम को अल्म नाक ज़िन्दगी गुज़ारने की सज़ा हो ताकि वह आखिरी साँसों तक सज़ा काटता ही मरे.

मगर हाँ !जेहादियों को देखते ही गोली मार देनी चाहिए जो इंसानी खून के बदले सवाब पाते हों.


"अल्लाह काफिरों के लिए नूह की बीवी और लूत कि बीवी का हाल बयान फ़रमाता है. वह दोनों हमारे खास में से खास दो बन्दों के निकाह में थीं. सो उन औरतों दोनों बन्दों का हक ज़ाया किया . दोनों नेक बन्दे अल्लाह के मुकाबिले में उनके ज़रा भी काम न आ सकेऔर उन दोनों औरतों को हुक्म हो गया और जाने वालों के साथ तुम भी दोज़ख में जाओ."

अल्लाह का मुकाबिला किस्से हुवा था? ऐ पागल क्या बक रहा है. ? कमज़ोर नामर्द अपनी बीवियों को किस नामर्दी के साथ धमका रहा है.

सूरह तह्रीम ६६ पारा २८ आयत (१-१०)



जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Friday 8 April 2011

सूरह तलाक़ ६५ - पारा २८

मेरी तहरीर में - - -

क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी ''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है, हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं, और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।

नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.

सूरह तलाक़ ६५


मैं फिर इस बात को दोहराता हूँ कि मुस्लमान समझता है कि इस्लाम में कोई ऐसी नियमा वाली है जो उसके लिए मुकम्मल है, ये धरना बिलकुल बे बुन्याद है, बल्कि कुरआन की नियम तो मुसलामानों को पाताल में ले जाते हैं. मुसलामानों ने कुरानी निजाम ए हयात को कभी अपनी आँखों से नहीं देखा, बस कानों से सुना भर है. इनका कभी कुरआन का सामना हुवा है, तो तिलावत के लिए. मस्जिदों में कुवें के मेंढक मुल्ला जी अपने खुतबे में जो उल्टा सीधा समझाते हैं, ये उसी को सच मानते हैं. जदीद तालीम और साइंस का स्कालर भी समाजी लिहाज़ में आकर जुमा जुमा नमाज़ पढने चला ही जाता है. इसके मान बाप ठेल धकेल कर इसे मस्जिद भेज ही देते हैं, वह भी अपनी आकबत की खातिर. मज़हब इनको घेरता है कि हश्र के दिन अल्लाह इनको जवाब तलब करेगा कि अपनी औलाद को टनाटन मुसलमान क्यूँ नहीं बनाया ? और कर देगा जहन्नम में दाखिल.
कुरआन में ज़मीनी ज़िन्दगी के लिए कोई गुंजाईश नहीं है, जो है वह क़बीलाई है, निहायत फ़रसूदा. क़ब्ल ए इस्लाम, अरबों में रिवाज था कि शौहर अपनी बीवी को कह देता था कि तेरी पीठ मेरी माँ या बहन की तरह हुई, बस उनका तलाक हो जाया करता था. इसी तअल्लुक़ से एक वक़ेआ हुवा कि कोई ओस बिन सामत नाम के शख्स ने गुस्से में आकर अपनी बीवी हूला को तलाक़ का मज़कूरा जुमला कह दिया. बाद में दोनों जब होश में आए तो एहसास हुआ कि ये तो बुरा हो गया. इन्हें अपने छोटे छोटे बच्चों का ख़याल आया कि इनका क्या होगा? दोनों मुहम्मद के पास पहुँचे और उनसे दर्याफ़्त किया कि उनके नए अल्लाह इसके लिए कोई गुंजाईश रखते हैं ? कि वह इस आफत ए नागहानी से नजात पाएँ. मुहम्मद ने दोनों की दास्तान सुनने के बाद कहा तलाक़ तो हो ही गया है, इसे फ़रामोश नहीं किया जा सकता. बीवी हूला खूब रोई पीटी और मुहम्मद के सामने गींजी कि नए अल्लाह से कोई हल निकलवाएँ. फिर हाथ उठा कर सीधे अल्लाह से वह मुख़ातिब हुई और जी भर के अपने दिल की भड़ास निकाली, तब जाकर अल्लाह पसीजा और मुहम्मद पर वह्यी आई. इसी रिआयत से इस सूरह का नाम सूरह तलाक़ पड़ा, वैसे होना तो चाहिए सूरह हूला.


अब देखिए और सुनिए अल्लाह के रसूल पर आने वाली वहियाँ यानी ईश वाणी - - -

''ए पैगम्बर ! जब तुम लोग औरतों को तलाक़ देने लागो तो उनको इद्दत से पहले तलाक़ दो और तुम इद्दत को याद रखो और अल्लाह से डरते रहो जो तुम्हारा है. इन औरतों को इनके घरों से मत निकालो और न वह औरतें खुद निकलें, मगर हाँ अगर कोई खुली बे हयाई करे तो और बात है. ये सब अल्लाह के मुक़र्रर किए हुए एहकाम हैं."

"फिर जब औरतें इद्दत गुजरने के करीब पहुँच जाएँ, इनको कायदे के मुवाफिक निकाह में रहने दो या कायदे के मुवाफिक इन्हें रिहाई देदो और आपस में दो मुअत्बर शख्सों को गवाह कर लो."

"तुम्हारी बीवियों में जो औरतें हैज़ आने से मायूस हो चुकी हैं, अगर तुमको शुब्हः है तो इनकी इद्दत तीन महीने है और इसी तरह जिनको हैज़ नहीं आया और हामला औरतों का इनके हमल का पैदा हो जाना है. . ."

" जो शख्स अल्लाह औए उसके रसूल की पूरी इताअत करेगा, अल्लाह तअला उसको ऐसी बहिश्तों में दाखिल कर देंगे जिसके नीचे नहरें जारी होंगी, हमेशा हमेशा इनमें रहेंगे. ये बड़ी कामयाबी है."

सूरह तलाक़ ६५ - पारा २८ आयत १-११)

अल्लाह की आकाश वाणी कुछ समझ में आई? पता नहीं इन आयतों से ओस बिन सामत और हूला बी की बारबादियों का कोई हल निकला या नहीं, इनको रोजों से नजात तो नहीं मिली अलबत्ता नमाज़ें इनके गले और पड़ गईं. कहीं कोई हल तो नाजिल नहीं हुवा . हाँ बे सिर पैर की बातें ज़रूर नाज़िल हो गईं. इस अल्लाही एहकाम में चौदह सौ सालों से माहरीन दीनयात ज़रूर मुब्तिला है कि वह आपस में मुख्तलिफ रहा करते हैं. तलाक के बाद शौहर का घर बीवी के लिए अपना कहाँ रह जाता है कि वह वहाँ जमी रहे और इद्दत के दौरान शौहर उसके साथ मनमानी करता रहे. गौर तलब है कि मुहम्मद ने हमेशा मर्दों को ही इंसान का दर्जा दिया है.

ये सारी मुहम्मदी नाज़ेबगी आज रायज नहीं है, पहले रही होगी. इसको सुधार कर ही शरअ को एक पैकर दिया गया है जो कि दर अस्ल एहकाम ए इलाही में इन्सान की मुदाखलत का नतीजा है, वर्ना अल्लाह की गुत्थी और भी उलझी हुई होती. अल्लाह की बातें पहले भी मुज़ब्ज़ब थीं और आज भी मुज़ब्ज़ब हैं. जैसे इस्लामी शरअ कुरआन को तराश खराश कर इस्लाम के बहुत दिन बाद बनाई गई, वैसे ही आज भी इसमें तबदीली की ज़रुरत है और इतनी ज़रुरत है कि आज इस्लाम की खुल कर मुखालिफत की जाए. खास कर औरतों के हक में इस्लाम निहायत ज़ालिम ओ जाबिर है,

अफ़सोस कि यही औरतें इस्लाम की ज्यादह पाबंद है. वह सुब्ह उठ कर कुरआन की तिलावत को मख्खियों की तरह भिनभिनाने लगती हैं. वह अपने ही खिलाफ उतरी अल्लाह की आयातों पर मर्दों से ज्यादह ईमान रखती है. इनको इनका अल्लाह अकले सलीम दे.५०% की ये इंसानी आबादी अगर जग जाए तो मुसलामानों की दुन्या बदल सकती है.कोई हूला नहीं पैदा हो रही कि अल्लाह को इन नाकिस आयातों पर अल्लाह को तलब करे.

तमिल नाडू की कुछ मुस्लिम औरतें अपनी अलग एक मस्जिद बना कर उसमें पेश इमामी खुद करती है, इससे मर्दों का गलबा उन पर से उठा है. इसे इनकी बेदारी कहें या नींद? आजतक वह कठ मुल्लों की गिरफ्त में थीं, अब वह कठ मुल्लियों की गिरफ्त में होंगी. खवातीन की मस्जिद में भी मुहम्मदी अल्लाह के कानून कायदे होंगे. क्या इस मस्जिद में उन क़ुरआनी आयतों का बाई काट किया जाएगा जो औरतों को रुसवा करती हैं.


जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान