Wednesday 31 August 2011

सूरह अल्मायदा ५

मेरी तहरीर में - - -

क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।

नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.



सूरह अल्मायदा ५
(छटवीं और आखरी किस्त )

मेरे गाँव की एक फूफी के बीच बहु-बेटियों की बात चल रही थी कि मेरा फूफी ज़ाद भाई बोला अम्मा लिखा है औरतों को पहले समझाओ बुझाओ, न मानेंतो घुस्याओ लत्याओ, फिरौ न मानैं तो अकेले कमरे मां बंद कर देव, यहाँ तक कि वह मर न जाएँ .
फूफी आखें तरेरती हुई बोलीं उफरपरे! कहाँ लिखा है?

बेटा बोला तुम्हरे क़ुरआन मां.--

आयं? कह कर फूफी बेटे के आगे सवालिया निशान बन कर रह गईं. बहुत मायूस हुईं और कहा

''हम का बताए तो बताए मगर अउर कोऊ से न बताए''

मेरे ब्लॉग के मुस्लिम पाठक कुछ मेरी गंवार फूफी की तरह ही हैं. वह मुझे राय देते हैं कि मैं तौबा करके उस नाजायज़ अल्लाह के शरण में चला जाऊं. मज़े कि बात ये है कि मैं उनका शुभ चिन्तक हूँ और वह मेरे?

ऐसे तमाम मुस्लिम भाइयों से दरख्वास्त है कि मुझे पढ़ते रहें, मैं उनका ही असली खैर ख्वाह हूँ .

हिदी ब्लॉग जगत में एक सांड के नाम से जाना जाने वाला कैरानवी है जो खुद तो परले दर्जे का जाहिल है मगर ज़मीर फरोश ओलिमा की लिखी हुई कपटी रचनाओं को बेच कर गलाज़त भरी रोज़ी से पेट पालता है.

अल्लाह का चैलेंज, अंतिम अवतार, बौद्ध मैत्रे जैसे सड़े गले राग खोंचे लगाए गाहकों को पत्ता रहता है. उसको लोगों के धिक्कार की परवाह नहीं. मेरे हर आर्टिकल पर अपना ब्लाक लगा देता है, कि मेरे पास आ मैं जेहालत बेचता हूँ.
अब आये अल्लाह की रागनी पर - - -

"तुम्हारे लिए दरया का शिकार पकड़ना और खाना हलाल किया गया"
सूरह अलमायदा 5 सातवाँ पारा-आयत (96)

ये एक हिमाकत कि बात है. जो जीविका का साधन हजारों साल से मानव जाति को जीवित किए हुए हैं, उसको कुरानी फरमान बनाना क़ुरआन का मजाक और बेवज्नी में इजाफा ही है. दरया में बहुत से जीव विषैले और गंदे होते हैं जिसको हराम करना मुहम्मद भूल गए हैं.


"अल्लाह ने काबे को जो कि अदब का मकान है, लोगों के लिए कायम रहने का सबब करार दे दिया है और इज्ज़त वाले महीने को भी और हरम में कुर्बानी होने वाले जानवरों को भी और उनको भी जिनके गले में पट्टे हों, ये इस लिए कि इस बात का यकीन करलो कि बे शक अल्लाह तमाम आसमानों और ज़मीन के अन्दर की चीजों का इल्म रखता है."

सूरह अलमायदा 5 सातवाँ पारा-आयत (97)

लगता है मुहम्मदी अल्लाह ने इन बकवासों से यह बात साबित कर दिया हो की उसको आसमानों और ज़मीन का राज़ मालूम है, जब कि वह यह भी नहीं जाता की आसमान सिर्फ एक है और ज़मीनें लाखों.

आप इस आयात को बार बार पढिए और मतलब निकालिए, नतीजे तक पहुँचिए।क्या साबित नहीं होता कि यह किसी पागल कि बड़ बड़ है, या क़ुरआनका पेट भरने के लिए मुहम्मद कुछ न कुछ बोल रहे हैं। इन बकवासों को ईश वाणी का दर्जा देकर और सर पर रख कर हम कहाँ के होंगे? एक बार फिर मौत से पहले विरासत नामे पर लम्बी तकरीर और बहसें दूर तक चलती हैं जिसको नज़र अंदाज़ करना ही बेहतर होगा.

सूरह अलमायदा 5 सातवाँ पारा-आयत (९८-109)

ईसा को एक बार फिर नए सिरे से पकडा जाता है जिसे पढ़ कर मुँह पीटने को जी चाहता है मगर अल्लाह हाथ नहीं लगता. इसे मुहम्मद की दीवानगी कहें या उनकी मौजूदा उम्मत की जो इस पर ईमान रखे हुए हैं.

देखिए बकते हैं - - -

"आप बे शक पोशीदा बातों को जानने वाले है, जब अल्लाह तअला इरशाद फरमाएंगे : ऐ ईसा इब्ने मरयम! याद करो जो तुम पर और तुम्हारी वाल्दा पर, जब कि मैं ने युम्हें रूहुल-कुद्स से ताईद दी, तुम आदमियों से कलाम करते थे, गोद में भी और बड़ी उम्र में भी और जब की मैं ने तुम को किताबें और समझ की बातें और तौरेत और इंजील की तालीम किन और जब कि तुम गारे से एक शक्ल बनाते थे, जैसे परिंदे की होती है, मेरे हुक्म से फिर तुम उसके अन्दर फूँक मार देते थे, जिस से वह परिंदा बन जाता था,मेरी हुक्म से. और जब तुम अच्छा कर देते थे मदर ज़द अंधे को और कोढ़ से बीमार को, मेरे हुक्म से और जब तुम मुर्दों को निकाल कर खडा कर देते थे, मेरे हुक्म से और जब मैं ने बनी इस्राईल को तुम से बांध रखा, जब तुम उनके पास दलीलें लेकर आए थे, फिर उन में जो काफिर थे उन्हों ने कहा था यह सिवाय खुले जादू के और कुछ भी नहीं."

सूरह अलमायदा 5 सातवाँ पारा-आयत (110)

इसी दीवानगी की बड़बड़ाहट को करोरो मुस्लमान चौदह सौ सालों से दोहरा रहा है, नतीजतन दुन्या की सब से पिछली कतार में जा लगा है. इसके धार्मिक गुरु इसको गुमराह किए रहते है जब तक इनका सफाया नहीं होता, इनका उद्धार मुमकिन नहीं. अफ़सोस कि पढा लिखा वर्ग बहुत स्वार्थी गया है, वह सच को जनता है मगर आगे आना पसंद नहीं करता, वह सोचता है खुद को बचा लिया बाक़ी जाएँ जहन्नम में.

बस एक ही रास्ता है कि मुस्लिम अवाम बेदार हों और ओलिमा को नजिस जानवर का दर्जा दें.


मुसलमानों!

मैं मुस्लिम समाज का ही बेदार फर्द हूँ जो मुस्लिम से मोमिन हो गया, यह काम बहुत ही मुश्किल है और बेहद आसन भी. मोमिन का मतलब है ईमान दार और मुस्लिम का मतलब है हठ धर्मं, जेहालत पसंद, जेहादी, क़दामत परस्त, झूठा, शर्री, तअस्सुबी, ना इन्साफ और बहुत सी इन्सान दुश्मन बातें जो इसलाम की तालीम है. मोमिन के ईमान की कसौटी पर ही सच्चाई की परख आती है, मोमिम बनो, धरम कांटे का ईमान अपने अंदर पैदा करो, देखो कि अपने आप में आप का क़द कितना बढ़ गया है. इसलाम जिसे तस्लीम किया,मुस्लिम हो गए.ईमान जो फितरी (प्रकृतिक) सच होगा २+२=४ की तरह .ईमान पर ईमान लाओ इसलाम को तर्क करो.

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Monday 29 August 2011

सूरह अलमायदा 5

मेरी तहरीर में - - -

क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।


नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.




सूरह अलमायदा 5

किस्त पाँचवीं

किस्त धर्म और ईमान के मुख्तलिफ नज़रिए और माने अपने अपने हिसाब से गढ़ लिए गए हैं. आज के नवीतम मानव मूल्यों का तकाज़ा इशारा करता है कि धर्म और ईमान हर वस्तु के उसके गुण और द्वेष की अलामतें हैं. इस लम्बी बहेस में न जाकर मैं सिर्फ मानव धर्म और ईमान की बात पर आना चाहूँगा. मानव हित, जीव हित और धरती हित में जितना भले से भला सोचा और भर सक किया जा सके वही सब से बड़ा धर्म है और उसी कर्म में ईमान दारी है. वैज्ञानिक हमेशा ईमानदार होता है क्यूँकि वह नास्तिक होता है, इसी लिए वह अपनी खोज को अर्ध सत्य कहता है. वह कहता है यह अभी तक का सत्य है कल का सत्य भविष्य के गर्भ में है. मुल्लाओं और पंडितों की तरह नहीं कि आखरी सत्य और आखरी निजाम की ढपली बजाते फिरें. धर्म और ईमान हर आदमी का व्यक्तिगत मुआमला होता है मगर होना चाहिए हर इंसान को धर्मी और ईमान दार, कम से कम दूसरे के लिए. इसे ईमान की दुन्या में ''हुक़ूक़ुल इबाद'' कहा गया है, अर्थात ''बन्दों का हक'' आज के मानव मूल्य दो क़दम आगे बढ़ कर कहते हैं ''हुक़ूक़ुल मख्लूकात'' अर्थात हर जीव का हक.धर्म और ईमान में खोट उस वक़्त शुरू हो जाती है जब वह व्यक्तिगत न होकर सामूहिक हो जाता है. धर्म और ईमान , धर्म और ईमान न राह कर मज़हब और रिलीज़न यानी राहें बन जाते हैं. इन राहों में आरंभ हो जाता है कर्म कांड, वेश भूषा, नियमावली, उपासना पद्धित, जो पैदा करते हैं इंसानों में आपसी भेद भाव. राहें कभी धर्म और ईमान नहीं हो सकतीं. धर्म तो धर्म कांटे की कोख से निकला हुआ सत्य है, पुष्प से पुष्पित सुगंध है, उपवन से मिलने वाली बहार है. हम इस धरती को उपवन बनाने के लिए समर्पित राहें यही मानव धर्म है. धर्म और मज़हब के नाम पर रची गई पताकाएँ, दर अस्ल अधार्मिकता के चिन्ह हैं.लोग अक्सर तमाम धर्मों की अच्छाइयों(?) की बातें करते हैं यह धर्म जिन मरहलों से गुज़र कर आज के परिवेश में कायम हैं, क्या यह अधर्म और बे ईमानी नहीं बन चुके है? क्या यह सब मानव रक्त रंजित नहीं हैं? इनमें अच्छाईयां है कहाँ? जिनको एह जगह इकठ्ठा किया जाय, यह तो परस्पर विरोधी हैं.. अब लीजिए कुरआनी बक्वासें पेश हैं - - -


" और जब वोह (सूफी, संत, दुरवैश और राहिब) इस को सुनते हैं जो कि मुहम्मद (इस्लाम) की तरफ से भेजा गया है, तो उनकी आँखें आंसुओं से बहती हुई दिखती हैं, इस सबब से कि उन्हों ने हक को पहचान लिया है. कहते हैं कि ए हमारे रब! हम मुस्लमान हो गए, तो हम को भी इन लोगों में लिख लीजिए जो तस्दीक करते हैं, और हमारे पास कौन सा उज्र है कि हम अल्लाह ताला पर और जो हक हम पर पहुंचा है, इस पर ईमान न लाएँ और इस बात की उम्मीद रक्खें कि हमारा रब हम को नेक लोगों की जमाअत में हमें दाखिल करेगा."

सूरह अलमायदा 5 सातवाँ पारा(वइज़ासमेओ)-आयत (75)

सूफी और दरवेश हमेशा से इसलाम से भयभीत और बेजार रहे हैं. इस के डर से वोह गरीब बस्तियों को छोड़ कर वीरानों में रहा करते थे.प्रसिद्ध संत उवैस करनी मोहम्मद का चहीता होते हुए भी उनसे कोसों दूर जंगलों में रहता था. इस्लामी हाकिमो के खौफ से वोह हमेशा अपना पता ठिकाना बदलता रहता कि कहीं इस को मोहम्मद के कुर्बत में जा कर 'मोहम्मादुर रसूल अल्लाह' न कहना पड़े.मोहम्मद के वसीयत के मुताबिक मरने के बाद उनका पैराहन उवैस करनी को भेंट किया जाना था, समय आने पर, जब पैराहन को लेकर अबू बकर और अली बमुश्किल तमाम उवैस तक पहंचे तो पाया की वोह ऊँट चरवाहे की नौकरी कर रहा था. उन हस्तियों से मिल कर या पैराहन पाकर उसके चेहरे पर कोई खास रद्दे अमल न देख कर दोनों मायूस हुए. बहुत देर तक खमोशी छाई रही, जिसको तोड़ते हुए अबू बकर बोले उम्मत ए मोहम्मदी के लिए कुछ दुआ कीजिए.फकीर दुआ के बहाने उठा और अपने हुजरे के अन्दर चला गया. बहुत देर तक बाहर न निकला तो इन दोनों को उस से बेजारी हुई, हुजरे के दर से सूफ़ी को आवाज़ दी कि बाहर आएं, उवैस बर आमद हुवा और कहा जल्दी कर दी वर्ना पूरी उम्मते मुहम्मदी को बख्शुवा लेता.दोनों दरवेश के रवैयए से खिन्न होकर वापस हुए.बद मआश ओलिमा ने ओवैस करनी की उलटी कहानिया गढ़ रखी हैं.यही हाल मशहूर सूफ़ी हसन बसरी का था.हसन बसरी और राबिया बसरी मुहम्मद के बाद तबा ताबेईन हुए, जो बागी ए पैगंबरी थे और मुहम्मदुर रसूल अल्लाह कभी नहीं कहा.हसन बसरी का वाक़ेआ मशहूर है कि एक हाथ में आग और दूसरे हाथ में पानी ले कर भागे जा रहे थे, लोगों ने पूंछा कहाँ? बोले जा रहा हूँ उस दोज़ख को पानी से ठंडी करने जिसके डर से लोग नमाज़ पढ़ते हैं और उस जन्नत को आग लगाने जिस की लालच में लोग नमाज़ पढ़ते हैं. मोहम्मद की गढ़ी जन्नत और दोज़ख का उस वक़्त ही हस्तियों ने नकार दिया था जिसको आज मान्यता मिली हुई है, ये मुसलमानों के साथ कौमी हादसा ही कहा जा सकता है.*हम मुहम्मदी अल्लाह की एक बुरी आदत पर आते हैं - - -

कुरानी आयातों से ज़ाहिर होता है की अरबों में कसमें खाने का बड़ा रिवाज था.यह रोग शायद भारत में वहीँ से आया है,वरना यहाँ तो प्राण जाए पर वचन न जाय की अटल बात थी. अल्लाह भी अरबों की खसलत से प्रभावित है. कसमें भी जानें किन किन चीजों की और कैसी कैसी. वह बन्दों के लिए दो किस्में, कसमों की मुक़ररर करता है--

पहली इरादा कसमें, और दूसरी पुख्ता कसमें.


" अल्लाह तुम से जवाब तलबी नहीं करता, तुम्हारी कसमों पर, ब्यर्थ किस्म की हों, लेकिन जवाब तलबी इस पर करता है कि क़सम को पुख्ता करो और तोड़ दो.सो इस का कफ्फारा (प्रयश्चित) दस मोहताजों को खाना देना है या औसत दर्जे का कपडा देना या एक गर्दन को आजाद करना या कुछ न हो सके तो तीन दिन का रोजा रखना."

सूरह अलमायदा 5 सातवाँ पारा(वइज़ासमेओ)-आयत (77)

देखिए कि कितना आसन है इसलाम में मुसलमानों के लिए झूट बोलना, वह भी कसमें खा कर. इरादा (निशचय)कसमें अल्लाह की, रसूल, क़ुरआन की, माँ बाप की, दिन भर कसमें खाते रहिए, अल्लाह इसकी जवाब तलबी नहीं करता, हाँ अगर पुख्ता (ठोंस) क़सम खा ली तो भी गज़ब हो जाने वाला नहीं, बस सिर्फ तीन रोज़ का दिन का फाका, जो कि गरीब को यूँ भी उस वक़्त अन्ना उपलब्ध नहीं हुवा करता था. इसको रोजा कहते हैं, इसमें सवाब भी है. किस क़दर झूट की आमेज़िश है कुरानी निजाम में जिसे अनजाने में हम "पूर्ण जीवन व्योस्था या मुकम्मल निजाम ए हयात " कहते हैं.अदालतों में क़ुरआन पर हाथ रख कर क़सम खाते है जो खुद झूट बोलने की इजाज़त देता है.आर्श्चय होता है न्याय के अंधे विश्वास पर.देखिए कि हर मुस्लिम ही नहीं मुझ जैसा मोमिन भी इस ईमानी कमजोरी से कितना कुप्रभावित है, खुद मेरी बीवी इरादा कसमे खाने की आदी है जिसको हजम करने के हम आदी हो चुके हैं. पुख्ता यानी ठोंस झूट भी उसके बहुत से पकडे गए हैं जिसके लिए वह अक्सर पुख्ता कसमें खा चुकी है. मज़े की बात ये है कि वह कफ्फारा भी मेरी कमाई से अदा करती है,पक्की मुसलमान है, क़ुरआन की तिलावत रोज़ाना करती है और इन कुरानी फार्मूलों से खूब वाकिफ है. सच है कि गैर मुस्लिम शरीके हयात बेहतर होती बनिस्बत एक मुसलमान के.


"ऐ ईमान वालो! अल्लाह क़द्रे शिकार से तुम्हारा इम्तेहान करेगा. जिन तक तुम्हारे हाथ और तुम्हारे नेज़े पहुँच सकेंगे ताकि अल्लाह समझ सके कि कौन शख्स इस से बिन देखे डरता है. सो इसके बाद जो शख्स हद से निकलेगा इसके लिए दर्द नाक सजा है"

सूरह अलमायदा 5 सातवाँ पारा-आयत (94)

दिलों कि बात जानने वाला मुहम्मदी अल्लाह मुसलमानों का प्रेटिकल इम्तेहान ले रहा है और बेचारी क़ौम उसी इम्तेहान में मुब्तिला है, न शिकार रह गए हैं न नेज़े. आलिमान दीन ने इन आयात को गोबर सुंघा सुंघा कर कर मरी मुसरी को ज़िदा रखा है. मुस्लिम अवाम जब तक खुद बेदार होकर कुरानी बोझ को सर से दफा नहीं करते तब तक कौम का कुछ होने वाला नहीं.


"अल्लाह तअला ने गुज़श्ता को मुआफ कर दिया और जो शख्स फिर ऐसी ही हरकत करेगा तो अल्लाह तअला उस से इंतकाम ले सकते हैं."

सूरह अलमायदा 5 सातवाँ पारा-आयत (95)

अल्लाह न हुवा बल्कि बन्दा ए बद तरीन हुआ जो इन्तेकाम(प्रतिशोध) भी लेता है।
इसी आयत पर शायद जोश मलीहा बादी कहते हैं - - -


गर मुन्तकिम है तो खोटा है खुदा,

जिसमें सोना न हो, वह गोटा है

खुदा,शब्बीर हसन खाँ नहीं लेते बदला,

शब्बीर हसन खाँ से भी छोटा है खुदा.

पिछले सारे गुनाह मुआफ आगे कोई खता नहो, बस कि बद नसीब मुसलमान बने रहो. इस मुहम्मदी अल्लाह से इंसानियत को खुदा बचाए.


जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Friday 26 August 2011

अलमायदा 5 सातवाँ पारा

मेरी तहरीर में - - -



क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।


नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.



सूरह मायदा -5  
चौथी किस्त

अन्ना का गन्ना

अन्ना हज़ारे की नियत शुद्ध नहीं है, न ही वह मकूलियत की परिभाषा ही समझते हैं. उनको ग़लत फ़हमी हो गई है कि वह गाँधी नंबर २ बन सकते है और इस हठ धर्मी की मौत को ख़रीद कर महात्मा बन सकते हैं. उन्हों ने जनता को जगाया और एक दिशा दी, पहली किस्त में यही काफ़ी है.
अब वह खा पीकर दूसरी किस्त की तय्यारी करें और उसी जनता के दरवाजे खटखटाएँ जो आज इन पर जान छिड़क रही है, उससे कहें कि वह चरित्र वान बने, अपने जीवन में सच्चा ईमान घोले और प्रण करे कि वह अपना काम बनाने के लिए रिश्वत न देगी. जो हकदार हो पहले उसका काम हो.
अफ़सोस के साथ लिखना पड़ रहा है कि हम भारतीय सबसे पहले चरित्र हीन है, पैसा देकर और पैसा लेकर हम किसी हद तक गिर सकते हैं.




''यहूदियों और ईसाइयों को दोस्त मत बनाना , वह एक दूसरे के दोस्त हैं और तुम में से जो शख्स उन से दोस्ती करेगा, बेशक वोह इन्हीं में से होगा."

सूर ह अलमायदा 5 छटवाँ पारा-आयत (51)

कोई सच्चा रहनुमा कहीं इंसानों को इंसानों से इस तरह बुग्ज़ और नफरत की बातें सिखलाता है? मुहम्मद को अपना पैगम्बर मान कर वैसे भी हम तीन चौथाई दुन्या को दुश्मन बनाए हुए हैं. दोस्ती भी कोई अक़ीदत है ? दोस्ती तो हुस्ने एख्लाक पर मुनहसर करती है न कि हिदू मुस्लमान और ईसाई पर.


" ऐ ईमान वालो! जो शख्स तुम में से अपने दीन से फिर जाए तो अल्लाह बहुत जल्द ऐसी क़ौम पैदा कर देगा कि जिस को इस से मोहब्बत होगी और उसको इस से मुहब्बत होगी. मेहरबान होंगे वोह मुसलमानों पर और तेज़ होंगे काफिरों पर. जेहाद करने वाले होंगे अल्लाह की रह पर."

सूरह अलमायदा 5 छटवाँ पारा-आयत (54)

कितना कमज़ोर है मुहम्मद का गढा अल्लाह जो अपनी ही कमजोरी से परेशान है. अफ़सोस मुस्लमान ऐसे कमज़ोर अल्लाह के जाल में फंसे हुए हैं जो खुद जाल बुनते वक़्त घबरा रहा था.


तारीखी पस मंज़र में अल्लाह कहता है - - -

" जिन्हों ने तुम्हारे दीन को हंसी खेल बना रक्खा है, उनको और दूसरे कुफ्फार को दोस्त मत बनाओ और अल्लाह से डरो अगर तुम ईमान वाले हो और जब तुम नमाज़ के लिए एलान करते हो तो यह तुम्हारे साथ हँसी खेल करते हैं, इस सबब से कि वह लोग ऐसे हैं कि बिलकुल अक्ल नहीं रखते."

सूरह अलमायदा 5 छटवाँ पारा-आयत (59)

जब किसी क़ौम का गलबा होता है तो उसका छू मंतर भी काबिले एहतराम इबादत बन जाती है. नमाज़ कल भी एक संजीदा शख्स के लिए काबिले एतराज़ हरकत थी और आज भी हो सकती है. अवामी सतह पर उट्ठक-बैठक बनाम इबादत कल भी हंसी खेल रहा होगा आज भी यकीनन है. ऐसी बेतुकी हरकत को कम से कम इबादत तो नहीं कहा जा सकता. कम अकली के ताने देने वाला अल्लाह खुद अपने ऊपर शर्म करे कि दुन्या के कोने कोने से मुस्लमान अक्ल के अंधे काबा जाते है, शैतान को कंकड़ीयाँ मारने .



" आप कहिए कि क्या मैं तुम को ऐसा तरीका बतलाऊँ जो इस से भी अल्लाह के यहाँ बदला लेने में ज़्यादा बुरा हो. वोह इन लोगों का तरीका है जिन को अल्लाह ने दूर कर दिया हो और इन पर गज़ब फ़रमाया हो और इन को बन्दर और सुवर बना दिया हो और इन्हों ने शैतान की परिस्तिश की हो."

सूरह अलमायदा 5 छटवाँ पारा-आयत (60)

मुहम्मदी अल्लाह का दिमाग कैसी कैसी गलाज़तों से भरा हुवा था? यही इबारत मुस्लमान सुबहो-शाम अपनी नमाजों में पढ़ते हैं. अगर अपनी जबान मैं पढें तो एक हफ्ते मैं शर्म से डूब मरें.



मुहम्मद से अल्लाह कहता है - - -

" और जो आप के पास आप के परवर दिगार की तरफ से भेजा जाता है वोह इनमें से बहुतों की सरकशी और कुफ्र का सबब बन जाता है और हम ने इन में बाहम क़यामत तक अदावत और बुघ्ज़ डाल दिया है. जब कभी लडाई की आग भड़काना चाहते हैं, अल्लाह ताला ,उसको फर्द कर देते हैं और मुल्क में फसाद करते फिरते हैं और अल्लाह ताला फसाद करने वालों को पसंद नहीं करते."

सूरह अलमायदा 5 छटवाँ पारा-आयत (64)

यह सोंच मुहम्मद की फितरत का आइना है जिसको उनके एजेंट सदियों से पुजवाते चले आ रहे हैं। मुहम्मद खुद परस्ती के सिवाए तमाम इन्सान और इंसानियत का दुश्मन था. इसकी उलटी मुश्तःरी करके आलिमों ने सारे दुन्या की बीस फी सद आबादी के साथ दगाबाज़ी की है और करते जा रहे हैं. मुसलामानों गौर करो की यह घटिया तरीन बातें जिनको किसी से कहने में खुद तुमको शर्म आए , तुहारे कुर आनी अल्लाह की हैं. वह कभी अपने बन्दों को बन्दर बना देता है तो कभी सुवर, कभी उनको आपस में लडवा कर ज़मीन पर फसाद कराता है, क्यूँ? क्यूं करता रहता है वह ऐसा? क्या कभी हुवा भी है ऐसा ? क्या मुहम्मद का झूट, उसकी साज़िश इन बातें में तुम को नज़र नहीं आती?

अरे मेरे भाइयो! खुदा के लिए आँखें खोलो वर्ना मुहम्मद का अल्लाह तुम को बे मौत मारेगा. .


" और अगर यह लोग तौरेत की और इंजील की और जो किताब इन के परवर दिगर की तरफ से इनके पास पहुँच गई है उसकी पूरी पाबन्दी करते तो ये लोग अपने ऊपर से और अपने नीचे से पूरी फरागत से खाते."

सूरह अलमायदा 5 छटवाँ पारा-आयत (66)

लाहौल वलाकूवत! क्या मतलब हुवा मुहम्मदी अल्लाह का? आप खुद अख्ज़ करें कि उसका ऐसा फूहड़ मजाक अहले किताब के फरमा बरदारों के साथ? अच्छा हुवा कि न फरमान हुए वरना नीचे से खाना पड़ता, शायद इसी लिए नाफ़र्मान हो गए हों. मुहम्मद की गन्दी जेहेनियत ही कही जा सकती है. अनुवाद करने वाले मक्कार आलिम इसमें मानी ओ मतलब भरते रहें.


"बे शक वोह लोग काफ़िर हो चुके हैं जिन्हों ने कहा अल्लाह ताला में मसीह इब्ने मरियम है."

सूरह अलमायदा 5 छटवाँ पारा-आयत (72)

इस्लामी इस्तेलाह में किसी को काफिर कहना, उसे गाली देने की तरह होता है। अहले किताब यानी यहूदी और ईसाई काफिर नहीं होते हैं मगर मुहम्मद का मूड कब कैसा हो? ईसाइयों को उनके आस्था पर काफ़िर कहते है, जब की ईसाई खुद कुफ़्र (खास कर मूर्ती पूजा) को सख्त न पसंद करते हैं. इस तरह ईसाइयों का मुसलमानों से बैर बंधता गया.


" जो शख्स अल्लाह और रसूल की पूरी इताअत (आज्ञा करी)करेगा, अल्लाह ताला उसको ऐसी बहिश्तों में दाखिल कर देंगे जिस के नीचे नहरें जारी होंगी, हमेशा हमेशा इन में रहेंगे.ये बड़ी कामयाबी है"

सूरह अलमायदा 5 सातवाँ पारा(वइज़ासमेओ)-आयत (75)

कुरआन में यह आयत मोहम्मद की कामर्सियल ब्रेक्क है और बार बार आती है.


" ऐ अहले किताब! तुम अपने दीन में न हक गुलू (मिथ्य) मत करो और उन लोगों के ख्याल पर मत चलो जो पहले ही गलती में आ चुके हैं और बहुतों को गलती में डाल चुके हैं."

सूरह अलमायदा 5 सातवाँ पारा(वइज़ासमेओ)-आयत (77) ऐ मोहम्मद! दूसरों को राह मत दिखलाओ, पहले खुद राह-ऐ-रास्त पर आओ। अपनी उम्मत की ज़िन्दगी पलीद किए बैठे हो और अहल ए किताब यहूदियों और ईसाइयों को चले हो राह बतलाने।

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Tuesday 23 August 2011

सूरह अलमायदा 5

मेरी तहरीर में - - -

क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।

नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.



सूरह मायदा -5 तीसरी किस्त
 

तालिबान अफगानिस्तान से खदेडे जाने के बाद अब पाकिस्तान पर जोर आजमाई कर रहा है,बिलकुल इसलाम का प्रारंभिक काल दोहराया जा रहा है, जब मुहम्मद बज़ोर गिजवा (जंग) हर हाल में इसलाम को मदीना के आस पास फैला देना चाहते थे। वह अपने हुक्म को अल्लाह का फ़रमान क़ुरआनी आयतों द्वारा प्रसारित और प्रचारित करते. लोगों को ज़बर दस्ती जेहाद पर जाने के लिए आमादा करते, लोग अल्लाह के बजाय उनको ही परवर दिगर! कह कर गिडगिडाते कि "आप हम को क्यूं मुसीबत में डाल रहे हैं ? तो वह ताने देते की औरतों की तरह घरों में बैठो.

मज़े की बात ये कि जंगी संसाधन भी खुद जुटाओ. एक ऊँट पर ११-११ जन बैठते. ये सब क़ुरआन में साफ साफ़ है जिसे इस्लामी विद्वान छिपाते हैं और जालिम तालिबान सब जानते हैं. आज भी तालिबान अपने अल्लाह द्वतीय मुहम्मद के ही पद चिन्हों पर चल रहे है. इन्हें इंसानी ज़िन्दगी से कोई लेना देना नहीं, बस मिशन है इस्लाम का प्रसार। इसी में उनकी हराम रोज़ी का राज़ छुपा है.

इधर पाकिस्तान का धर्म संकट है कि इस्लाम के नाम पर बन्ने वाला पाकिस्तान जब तालिबानियों द्वारा इस्लामी मुल्क पूरी तरह बन्ने की दर पर है तो उसकी हवा क्यूं ढीली हो रही है? उसका रूहानी मिशन तो साठ साल बाद मुकम्मल होने जा रहा है. निजामे मुस्तफा ही तो ला रहे हैं ये तालिबानी.

मुस्तफा यानी मुहम्मद जो बच्ची के पैदा होने को औरत का पैदा होना कहते थे (क़ुरआन में देखें ) औरत पर पर्दा लाजिम है. मुहम्मद ने सात साला औरत आयशा के साथ शादी रचाई, आठ साल में उस से सुहाग रात मनाई और परदे में बैठाया,

तालिबान अपने रसूल की पैरवी करके क्या गलत कर रहे हैं? उनको ख़त्म करके पाकिस्तान इस्लाम को क़त्ल कर रहा है, कोई मुल्ला उसे फतवा क्यूं नहीं दे रहा?

"मुहम्मद मैले कपडे लादे रहते" इस ज़रा सी बात पर पाकिस्तान न्यायलय ने एक ईसाई बन्दे को तौहीन ए रिसालत के जुर्म में सजाए मौत दे दिया था, आज पाक अद्लिया किं कर्तव्य विमूढ़ क्यूँ ? पाक इसलाम के तलिबों से लड़ने के साथ साथ कुफ्र से भी (भारत) लडाई पर आमादा है. कहते हैं कि उसकी एटमी हत्यारों का रुख भारत की ओर है.

यह पाकिस्तान की गुमराही ही कही जाएगी.मज़हब के नाम पर जो हमारे बड़ों ने अप्रकृतिक बटवारा किया था उसका बुरा अंजाम सामने है, बहुत बुरा हो जाने से पहले हम को सर जोड़ कर बैठना चहिए कि हम १९४७ की भूल सुधारें और फिर एह हो जाएँ. इसतरह कल का हिदोस्तान शायद दुन्या कि नुमायाँ हस्ती बन कर लोगों कि आँखें खैरा कर दे। मगर भारत के हिदुत्व के पाखंड को भी साथ साथ ख़त्म करना होगा जो कि इस्लामी नासूर से कम नहीं।

लीजिए शुरू होती है क़ुरआनी गाथा - -

"यकीनन जो लोग काफ़िर हैं अगर उनके पास दुनिया भर की तमाम चीजें हों और उन चीज़ों के साथ उतनी चीजें और भी हों ताकि वोह उनको देकर रोजे क़यामत के अज़ाब से छुट जाएं, तब भी वोह चीजें उन से कुबूल न की जाएँगी और उनको दर्द नाक अजाब होगा."

"सूरह अलमायदा 5 छटवाँ पारा-आयत (36)

इंसानी समाज में गरीब अवाम हमेशा ही ज्यादा रहे है. गरीब और अमीर की अज़्ली जंग भी हमेशा जारी रही है. गरीब अमीरों से नफ़रत तभी तक क़ायम रखता है जब तक अमारत को वोह खुद छू नहीं लेता और फिर वह अपने ही समाज की नफरत, हसद और लूट का शिकार बन जाता है. ईसा का कहना था ऊँट सूई के नाके से निकल सकता है मगर दौलत मंद जन्नत में दाखिल नहीं हो सकता. कार्ल मार्क्स ने इस इंसानी समाज का गनीमत हल निकाला, माओ ज़े तुंग ने इस को अमली जामा पहनाया जो अभी तक अपने आप में इज्तेहाद (सुधार) के साथ कामयाब है और बेदाग है. वहां इन इस्लामी आलिमों जैसी कोई नापाक मखलूक(जीव) या उसका बीज नहीं बचा है. कई कम्युनिस्ट मुमालिक के रहनुमाओं ने इसकी ना जायज़ औलाद जन्मी और नापैद हुए. मुहम्मद ने भी गुरबत की दुखती रग पर ही हाथ रख कर इतनी कामयाबी हासिल की, मगर उनकी तहरीक में सच्चाई की जगह खुराफ़ात थी और उनके बाद ही उनकी नस्ल में हसन ऐश और अय्याशी के शिकार होकर ज़िल्लत की मौत मरे. हुसैन अपने मासूम भानजों भतीजे, बच्चो और खानदान के दीगर लोगों को कुर्बान कर के खुद को इस्लामी फौज के हवाले किया,

सिर्फ खिलाफत की लालच में. मुहम्मद की आमाल की बुरी सज़ा उनकी नस्लों को मिली. काफ़िर इसलाम के वजूद में आने के बाद से लेकर आज तक धरती पर सुर्ख रू हैं. मुस्लमान ऊपर की आसमानी दौलत के चक्कर में दुनया की एक पिछड़ी क़ौम बन कर रह गई है. भारत में काफ़िरों की संगत में रह कर कुछ मुस्लमान अपनी हैसियत बनाने में कामयाब है, ख्वाह वोह सनअत में हों या फ़नकार हों,

जिन पर आम मुस्लमान फख्र करते हैं और ये फटीचर मौलाना उनके सामने चंदे की रसीद लिए खड़े रहते हैं.


"और जो औरत या मर्द चोरी करे, सो उन दोनों के दाहिने हाथ गट्टे से काट डालो. इन के किरदार के एवाज़, बतोर सजा के, अल्लाह की तरफ से और अल्लाह ताला बड़ी कूवत वाले हैं और बड़ी हिकमत वाले हैं."

सूरह अलमायदा 5 छटवाँ पारा-आयत (38)

आज भी यह क़ानून सऊदी अरब में लागू है। काश कि यह वहशियाना क़ानून दुनया के तमाम मुल्कों में सिर्फ मुसलमानों पर लागू कर दिया जाए जिस तरह शादी और तलाक़ को मुस्लमान पर्सनल ला बना कर अलग अपनी डेढ़ ईंट की मस्जिद बनाए हुए है. कोई मुस्लिम तन्जीम या ओलिमा इस आयत को लेकर मैदान में नहीं उतरते कि

मुस्लिम चोरों और उठाई गीरों के दाहिने हाथ गट्टे से काट दी जाएं. उन के लिए जो जेहाद के बहाने बस्तियों पर डाका डालते थे, मुहम्मद ने कोई सजा नहीं रखी , उनकी लूट को तो गनीमत करके निगलने जाने का फरमान है.

चवन्नी की चोरी पर हाथ को घुटनों से काट देने का हुक्म? इंसान किन हालात में चोरी करने पर मजबूर होता है, ये बात कोई उम्मी सोंच भी नहीं सकता.कुरानी अल्लाह का यहूदियों से खुदाई बैर चलता रहता है. इनका वजूद भी इसे अज़ीज़ है और इन की दुश्मनी भी. ज़बरदस्ती उनको अपना गवाह बनाए रहता है. इनकी कज अदाई पर कहता है - - -

" - - - और जिस को ख़राब होना ही अल्लाह को मंज़ूर हो तो इसके लिए अल्लाह से तेरा कोई जोर नहीं, यह लोग ऐसे हैं कि अल्लाह को इनके दिलों को पाक करना मंज़ूर नहीं. यह लोग गलत बात सुनने के आदी हैं, हराम खाने वाले हैं."

सूरह अलमायदा 5 छटवाँ पारा-आयत (41)

मुस्लमानो!

अपने अल्लाह से पूंछो कि अगर बड़ी ताक़त वाला और बड़ी हिकमत वाला है तो इस ज़रा से काम में क्या क़बाहत है कि लोगों के दिलों को पाक कर दे. चुटकी बजाते ही ये काम उसके बस का है, और अगर नहीं कर सकता तो वोह भी बन्दों की तरह बेबस है. अगर वोह उनके दिलों को नापाक ही रहने देना चाहता है तो यह कुरानी नौटंकी क्यूँ?

क्या उसको अपना जाँ नशीन चुनने के लिए मुहम्मद जैसा मक्के का महा-मूरख ही मिला था जो तमाम दुन्या में जेहालत की खेती करा रहा है.?


कुरानी अल्लाह की यह बात भी दावते फ़िक्र देती है - - -

" और हम ने उन पर इस में ये बात फ़र्ज़ की थी कि जान के बदले जान, आँख के बदले आँख, नाक के बदले नाक, कान के बदले कान, दाँत के बदले दाँत और खास ज़ख्मों का बदला भी, फिर भी इस के लिए जो मुआफ करदे, वोह उसके लिए कुफ्फारा हो जाएगा - - - "

सूरह अलमायदा 5 छटवाँ पारा-आयत (45)

मुन्तक़िम अल्लाह और मुन्तक़िम रसूल के कानून इस से कम क्या हो सकते हैं.जेहालत को नए सिरे से लाने वाले अल्लाह के बने रसूल कहते हैं - - -

" यह लोग क्या फिर ज़माना ए जेहालत का फैसला चाहते हैं?"

सूरह अलमायदा 5 छटवाँ पारा-आयत (50)

बाबा इब्राहीम का दौर इरतेकाई (रचना कालिक) दौर के हालात जेहालत की मजबूरी में कहे जा सकते हैं. फिर मूसा का दौर आते आते जेहालत की गाठें खुलती हैं मगर बरक़रार रहीं. ईसा ने इसे खोल कर इंसानी समाज को बड़ी राहत बख्शी. अरब दुन्या भी इस से फैज़याब हुई. .कुरआन गवाह है कि उम्मी मुहम्मद ने ईसा के किए धरे पर पानी फेर दिया और आधी दुन्या पर एक बार फिर जेहालत का गलबा हो गया. ताजुब है वह ही कह रहा है " यह लोग क्या फिर ज़माना ए जेहालत का फैसला चाहते हैं?"

मुसलमान ही जाग कर अपनी किस्मत बदल सकते हैं, वगरना दुश्मने मुस्लमान यह सियासत दान और हरामी ओलिमा मुसलमानों को कभी भी जागने नहीं देंगे.


''यहूदियों और ईसाइयों को दोस्त मत बनाना , वह एक दूसरे के दोस्त हैं और तुम में से जो शख्स उन से दोस्ती करेगा, बेशक वोह इन्हीं में से होगा।" नतीजे में आज सिर्फ ईसाई और यहूदी ही नहीं कोई कौम भी खुद मुसलमानों को दोस्त बनाना पसंद नहीं करती, यहाँ तक की मुसलमान भी एक बार मुसलमान को दोस्त बनाने के लिए सौ बार सोचता है.



जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Wednesday 17 August 2011

सूरह अलमायदा 5 छटवाँ पारा

मेरी तहरीर में - - -





क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।

नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.


सूरह अलमायदा 5 छटवाँ पारा

दूसरी किस्त


अन्ना का गन्ना :--

यहूदी काल में भी अन्ना समर्थकों का ताँता बंधा रहता. लोग किसी भी मौक़े पर तमाश बीन बन्ने के लिए तैयार रहते.
एक व्यभिचारणी को जुर्म की सजा में संग सार (पथराव) करने की तय्यारी चल रही थी, लोग अपने अपने हाथों में पत्थर लिए हुए खड़े थे. वहीँ ईसा ख़ाली हाथ आकर खड़े हो गए. व्यभिचारणी लाई गई, पथराव शुरू ही होने वाला था कि ईसा ने लोगों को संबोधित करते हुए कहा - - - " तुम लोगों में पहला पत्थर वही मारेगा जिसने कभी व्यभिचार न किया हो" सब के हाथ से पत्थर नीचे ज़मीन पर गिर गए. शायद उस वक़्त लोग अंतर आत्मा वाले रहे होंगे ?अन्ना अगर ईसा तुल्य हो तो उन्हें चाहिए कि वह लोगो से कहें - - - " कि मेरे साथ वही लोग आएं जिन्हों ने कभी भ्रस्ट आचरण न किया हो. न रिश्वत लिया हो और न रिश्वत दिया हो." बड़ी मुश्किल आ जाएगी कि वह अकेले ही राम लीला मैदान में पुतले की तरह खड़े होंगे. चलिए इस शपथ को और आसान करके लेते हैं कि वह अपने अनुयाइयों से यह शपथ लें कि आगे भविष्य में वह रिश्वत लेंगे और न रिश्वतदेंगे. रिश्वत के मुआमले में लेने वालों से देने वाले दस गुना होते हैं. पहले देने वाले ईमानदार और निर्भीक बने. रिश्वत के आविष्कारक देने वाले ही थे. अन्ना सिर्फ सातवीं क्लास पास हैं, उनके अन्दर इंसानी नफ्सियत की कोई समझ है, न अध्यन, परिपक्वता तो बिलकुल नहीं है, वह अनजाने में भ्रष्टा चार का एक रावन और बनाना चाहते हैं जिसका रूप होगा लोकायुक्त. अन्ना को चाहिए कि वह अपनी बची हुई थोड़ी सी ज़िन्दगी को हिन्दुस्तानियों के चरित्र निर्माण में लगाएं.


गुल की मानिंद पाई है हम ने जहाँ में ज़िन्दगी,
रंग बन के आए हैं , बू बन के उड़ जाएँगे हम।


ये है एक शायर का चिंतन और मुहम्मदी अल्लाह भी तुकबंदी करता है मगर अपनी शायरी में वह ज़िन्दगी को चूं चूं का मुरब्बा से लेकर हव्वुआ बना देता है.

कहता है - - - "बिला शुबहा वोह काफिर हैं जो कहते हैं अल्लाह में मसीह बिन मरियम हैं.आप पूछिए अगर कि अल्लाह मह्सीह इब्ने मरियम को और उनकी वाल्दा को और ज़मीन में जो हैं उन सब को हलाक करना चाहे तो कोई शख्स ऐसा है जो अल्लाह ताला से इन को बचा सके."

सूरह अलमायदा 5 छटवाँ पारा-आयत (17)

*मुहम्मद ने कहना चाहा होगा कि मसीह इब्ने मरियम में अल्लाह है मगर आलम वज्द में कह गए अल्लाह में मसीह इब्ने मरियम है और क़ुरआन को मुरत्तब करने वालों ने भी "मच्छिका स्थाने मच्छिका" ही कर दिया और कोई बड़ी बात भी नहीं कि मुहम्मद कि इल्मी लियाक़त इस को दर गुजर भी कर सकती है. मुसलमान तो मानता है कुरआन में जो भूल चूक है उसका ज़िम्मेदार अल्लाह है.

पूरी सूरह ही जिहालत से लबालब है, मुसलमान इसे कब तक वास्ते सवाब पढता रहेगा ?"


"और यहूदी व नसारह(ईसाई) दावा करते हैं कि हम अल्लाह के बेटे हैं और महबूब हैं, फिर तुम को ईमानों के एवाज़ अजाब क्यूँ देंगे बल्कि तुम भी मिन जुमला और मखलूक एक आदमी हो."

सूरह अलमायदा 5 छटवाँ पारा-आयत (18)

मिन जुमला उम्मी मुहम्मद का तकिया कलाम है वोह अक्सर इस लफ्ज़ को गैर ज़रूरी तौर पर इस्तेमाल करते हैं.यहाँ पर भी जो बात कहना चाहा है वोह कह नहीं पाए, अब मुल्ला जी उनके मददगार इस तरह होगे कि बन्दों को समझेंगे "अल्लाह का मतलब यह है कि - - -"

गोया अल्लाह इनका हकला भाई हुवा.

यहूद, नसारह अपने अपने राग गा रहे थे, मुहम्मद ने सोचा अच्छा मौक़ा है, क्यूँ न हम इस्लामी डफली लेकर मैदान में उतरें मगर उनके साथ बड़ा हादसा था कि वह उम्मी नंबर वन थे जिस को कठमुल्ला कहा जाए तो मुनासिब होगा.


"मुहम्मद एक बार फ़िर मूसा को लेकर नई कहानी गढ़ते है जो हर कहानी कि तरह बेसिर पैर की होती है. पता नहीं उनको कोई पुर मज़ाक यहूदी मिल जाता है जो मूसा की फ़र्जी दस्ताने गढ़ गढ़ कर मुहम्मद को बतलाता है. उस पर उनके गैर अदबी ज़ौक़ की किस्सा गोई के लिए भी सलीका ए गोयाई चाहिए. बस शुरू हो जाते हैं अल्लाह ताला बन कर - - -

"वोह वक़्त भी काबिले ज़िक्र है कि जब - - -

या इस तरह कि क्या तुम को इस किस्से के बारे में, मालूम है कि जब - - -

"सूरह अलमायदा 5 छटवाँ पारा-आयत (19-32)"

जो लोग अल्लाह और उसके रसूल से लड़ते हैं और मुल्क में फसाद फैलाते फिरते हैं, उनकी यही सज़ा है कि क़त्ल किए जावें या सूली दी जावें या उनके हाथ और पाँव मुखलिफ सम्त से काट दिए जवे या ज़मीन पर से निकाल दिए जावें - - -

उनको आखरत में अज़ाब अज़ीम है. हाँ जो लोग क़ब्ल इस के कि तुम उनको गिरफ्तार करो, तौबा कर लें तो जान लो बे शक अल्लाह ताला बख्स देगे, मेहरबानी फरमा देंगे."

सूरह अलमायदा 5 छटवाँ पारा-आयत (33-34)

भला अल्लाह से कौन लडेगा?

वोह मयस्सर भी कहाँ है?

हजारों सालों से दुन्या उसकी एक झलक के लिए बेताब है,बाग़ बाग़ हो जाने के लिए, तर जाने के लिए, निहाल हो जाने के लिए

सब कुछ लुटाने को तैयार है।

उसकी तो अभी तक जुस्तुजू है, किसी ने उसे देखा न पाया, सिवाय मुहम्मद जैसे खुद साख्ता पैगम्बरों के. उस से लड्ने का सवाल ही कहाँ पैदा होता है. लडाई तो उसका एजेंट पुर अमन ज़मीन पर थोप रहा है.

गौर तलब है की कैसे कैसे घृणित तरीके अपने विरोधियों के लिए ईजाद कर रहा है जिस को 'मोहसिन इंसानियत 'मानव मित्र' यह ओलिमा हराम जादे कहते हुए नहीं शर्माते. मुहम्मद ने अपनी जिंदगी में लोगों का जीना दूभर कर दिया था जिसका गवाह कोई और नहीं खुद यह क़ुरआन है. इसकी सजा मुसलसल कि शक्ल में भोले भाले इंसानों को इन आलिमो की वज़ह से मिलती रही है मगर यह आज तक ज़मीं से नापैद नहीं किए गए जाने कब मुसलमान बेदार होगा.

इक क़ुरआन उसके लिए ज़हर का प्याला है जो अनजाने में वह सुब्ह ओ शाम पीता है. "मुहम्मद ही इस ज़मीन का शैतानुर्र रजीम था जिस पर लानत भेज कर इसे रुसवा करना चाहिए."


"ए ईमान वालो!

अल्लाह से डरो और अल्लाह का कुर्ब ढूंढो, उसकी राह में जेहाद करो, उम्मीद है कामयाब होगे."

सूरह अलमायदा 5 छटवाँ पारा-आयत (35)

याद रखें मुहम्मद दर पर्दा बजात खुद अल्लाह हैं और आप को अपने करीब चाहते हैं ताकि आप पर ग़ालिब रहें और आप से दीन के नाम पर जेहाद करा सकें.

मुहम्मद दफ़ा हो गए हजारों मिनी मुहम्मद पैदा हो गए जो आप की नस्लों को जाहिल रखना चाहते हैं. अफ्गंस्तान, पाकिस्तान ही नहीं हिंदुस्तान में भी ये सब आप की नज़रों के सामने हो रहा है और अप की आँखें खुल नहीं रहीं. कोई राह नहीं है कि मैदान में खुल कर आएं. कमसे कम इस से शुरुआत करें की मुल्ला, मस्जिद और मज़हब का बाई काट करें.

मत डरें समाज से,समाज आपसे है. मत डरें अल्लाह से, डरें तो बुराइयों से. अल्लाह अगर है भी तो भले लोगों का कभी बुरा नहीं करेगा. अल्लाह से डरने की ज़रुरत नहीं है. अल्लाह कभी डरावना नहीं होगा, होगा तो बाप जैसा अपनी औलाद को सिर्फ प्यार करने बाला,दोज़ख में जलाने वाला? उस पर लाहौल भेजिए।


जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

सूरह अलमायदा 5 छटवाँ पारा

मेरी तहरीर में - - -



क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।



नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.






सूरह अलमायदा 5 छटवाँ पारा (किस्त --1)


मैं वयस्कता से पहले ईमान का मतलब लेन देन के तकाजों को ही समझता था (और आज भी सिर्फ़ इसी को समझता हूँ) मगर इस्लामी समझ आने के बाद मालूम हुवा कि इस्लामी ईमान का अस्ल तो कुछ और ही है, वह है 'कलमा ए शहादत', अल्लाह और उसके रसूल पर ईमान रखना, कसमे-आम और कसमे-पुख्ता. इन बारीकियों को मौलाना जब समझ जाते है कि अल्लाह कितना दर गुज़र (झूट को ) करता है तो वह लेन देन की बेईमानी भरपूर करते हैं. मेरे एक दोस्त ने बतलाया कि उनके कस्बे के एक मौलाना, मस्जिद के पेश इमाम, मदरसे के मुतवल्ली क़ुरआन के आलिम, बड़े मोलवी, साथ साथ ग्राम प्रधान, रहे हज़रात ने कस्बे की रंडी हशमत जान का खेत पटवारी को पटा कर जीम का नुकता बदलवा कर नीचे से ऊपर करा दिया जो जान की जगह खान हो गया. हज़रात के वालिद मरहूम का नाम हशमत खान था. विरासत हशमत खान के बेटे, बड़े मोलवी साहब उमर खान की हो गई.

हशमत रंडी की सिर्फ एक बेटी छम्मी थी(अभी जिंदा है), उसने उसको मोलवी के क़दमों पर लाकर डाल और कहा" मोलवी साहब इस से रंडी पेशा न कराऊँगी, रहेम कीजिए, अल्लाह का खौफ़ खाइए - - - "

मगर मोलवी का दिल न पसीजा उसका ईमान कमज़ोर नहीं था, बहुत मज़बूत था। दो बेटे हैं, मेरे दोस्त बतलाते हैं दोनों डाक्टर है, और पोता कस्बे का चेयर मैन है। रंडी की और मदरसे की जायदादें सब काम आरही हैं. यह है ईमान की बरकत.

मुसलामानों के इस ईमानी झांसे में हो सकता है गैर मुस्लिम इन से ज्यादा धोका खाते हों कि ईमान लफ्ज़ को इन से जाना जाता है.

अहद की बात आई तो तसुव्वुर कायम हुवा "प्राण जाए पर वचन न जाए" मगर अल्लाह तो अहद के नाम पर चौपायों के शिकार की बातें कर रहा है।

खैर, चलो शुक्र है दो पायों (यानी इंसानों) के शिकार से उसकी तवज्जो हटी हुई है.


"ऐ ईमान वालो! अहदों को पूरा करो. तुम्हारे लिए तमाम चौपाए जो पुरस्कार स्वरूप के हों, हलाल किए गए, मगर जिन का ज़िक्र आगे आता है, लेकिन शिकार हलाल मत समझना, जिस हालत में तुम अहराम (एक अरबी परिधान) में हो. बेशक अल्लाह जो चाहे हुक्म दे," सूरह अलमायदा 5 छटवाँ पारा-आयत (1)

इस सूरह में शिकारयात पर अल्लाह का कीमती तबसरा ज्यादह ही है गो कि आज ये फुजूल की बातें हो गईं हैं मगर मुहम्मदी अल्लाह इतना दूर अंदेश होता तो हम भी यहूदियों की तरह दुनिया के बेताज बादशाह न होते. खैर ख्वाबों में सही आकबत में ऊपर जन्नतों के मालिक तो होंगे ही. मोहम्मद शिकार के तौर तरीके बतलाते हैं क्यंकि उनके मूरिसे आला इस्माईल इब्ने लौंडी हाजरा(हैगर) के बेटे एक शिकारी ही थे जिनकी अलमाती मूर्तियाँ काबे की दीवारों में नक्श थीं, जिसे इस्लामी तूफ़ान ने तारीखी सच्चाइयों की हर धरोहर की तरह खुरच खुरच कर मिटा दिया.मगर क्या खून में दौड़ती मौजों को भी इसलाम कहीं पर मिटा सका है. खुद मुहम्मद के खून में इस्माईल के खून की मौज कुरआन में आयत बन कर बन कर बोल रही है. हिदुस्तानी मुल्ला की बेटी की तन पर लिपटी सुर्ख लिबास, क्या सफेद इस्लामी लिबास का मुकाबला कर सका है? मुहम्मद कुरआन में कहते है बेशक अल्लाह जो चाहे हुक्म दे, यह उनकी खुद सरी की इन्तहा है और उम्मत गुलाम की इंसानी सरों की पामाली की हद. एक सरकश अल्लाह बन कर बोले और लाखों बन्दे सर झुकाए लब बयक कहें, इस से बड़ा हादसा किसी क़ौम के साथ और क्या हो सकता है?


"तुम पर हराम किए गए हैं मुरदार, खून और खिंजीर (सुवर) का गोश्त और जो कि गैर अल्लाह के नाम पर मारा गया हो और जो गला घुटने से मर जाए, जो किसी ज़र्ब से मर जाए या गिर कर मर जाए, जिसको कोई दरिंदा खाने लगे, लेलिन जिस को ज़बह कर डालो."

सूरह अलमायदा 5 छटवाँ पारा-आयत (3) ज़रा जिंदगी की हकीक़तों में जाकर देखिए तो ये बातें बेवकूफ़ी की लगती हैं। आप की भूक कितनी है, हालात क्या हैं? हराम हलाल सब इन बातों पर मुनहसर करता है.

किसी बादशाह ने मेहतरों को हलाल खोर का ठीक ही लक़ब दिया था, आज का सब से बड़ा हराम खोर रिशवत खाने वाला है. धर्म ओ मज़हब की कमाई खाने वाले भी खुद को हराम खोर ही समझें.


"और अगर तुम बीमार हो, हालते सफ़र मे हो या तुम मे से कोई शख्स इस्तेंजे(शौच) से आया हो या तुम ने बीवियों से कुर्बत की हो, फिर तुम को पानी न मिले तो पाक ज़मीन से तैममुम (भभूति करण) करो यानी अपने चेहरों पर, हाथों पर हाथ फेर लिया करो."

सूरह अलमायदा 5 छटवाँ पारा-आयत (6)

तैममुम भी क्या मज़ाक है मुसलमानों के मुँह पर, इसकी लोजिक कहीं से भी समझ में नहीं आती, सिवाए इसके की मुँह और हाथों पर धूल मल लेना, हो सकता है जहाँ मोलवी तैममुम कर रहा हो वहां कल किसी जानवर ने पेशाब किया हो? इस से बेहतर तो हवाई तैममुम था जैसे हवाई अल्लाह मियां हैं. मगर इसलाम में पाकी की बड़ी अहमियत है. इस तरह पाकी हफ्तों और महीनों बर क़रार रह सकती है भले ही कपडे साफ़ी हो जाएँ और इन से बदबू आने लगे.

इसके बर अक्स एक कतरा पेशाब ताजे धुले कपडे में लग जाए तो मुस्लमान नापाक हो जाता है, यहाँ तक कि अगर वोह कपडा वाशिंग मशीन में डाल दिया गया है तो उस के साथ के सभी कपडे नापाक हुए. नापाक कपडे की नजासत को बहते हुए पानी से इसलाम धोता है और जिस्म पर बैठी हुई गंदगी को तैममुम से जमी रहने देता है. देखने में आता है बनिए मगरीबी यू पी में मुसलामानों को पास बिठाना पसंद नहीं करते.


"और किसी खास क़ौम की अदावत तुम्हारे लिए बाइस न बन जाए कि तुम अदल (न्याय)न करो. अदल किया करो कि वो तक़वा (तपस्या)से करीब है."

सूरह अलमायदा 5 छटवाँ पारा-आयत (8)

मुहम्मद कभी कभी मसलहतन जायज़ बात भी कर जाते है.


" अल्लाह लोगों से मुसलमान होने के बाद ही अच्छे कामों के बदले बेहतर आखरत के वादे करता है। बनी इस्राईल को उन के बारह सरदारों की पद प्रतिष्ठा की याद दिलाता है, जो कि युसुफ़ के भाई और हज़रत इब्राहीम के पड़ पोते थे. इन से इस्लामी नमाजें और ज़कात अदा कराता है. मुहम्मद अपने मज़हबी कर्म कांड के साथ चौदह सौ साल पहले पैदा होते है और साढे तीन हज़ार साल पहले पैदा होने वाले यहूदियों से इस्लामी फ़राइज़ अदा कराते हैं, अपने ऊपर ईमान लाने की बातें करते हैं, गोया दीर्घ अतीत में दाखिल होकर इस्लामी प्रचार करते हैं और यहूदियों के नबियों को मुसलमान बनाते हुए वर्तमान में आँखें खोलते हैं. अल्लाह इन से क़र्ज़ लेकर इनके गुनाह दूर करने की बात करता है. मुहम्मद को हर रोज़ कोई न कोई बुरी खबर मिलती रहती है कि कोई टुकडी इनकी समूह से कट गई है. अल्लाह इनको तसल्ली देता है. नव मुस्लिम अंसार ताने देने लग जाते हैं, हम तो अंसार ठहरे, उन को भी मुहम्मद क़यामत तक के लिए बैर और अदावत की वजेह से पुन्य के एक हिस्से से वंचित कर देते हैं. मुहम्मद अपनी किताब को एक नूर बतलाते है, और इसकी रौशनी में ही राह तलाश करने की हिदायत करते हैं जी हाँ! किताब यही हरे हुरूफों वाली जिसमें होई राह नज़र नहीं आती."

सूरह अलमायदा 5 छटवाँ पारा-आयत (9-16)





जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Sunday 14 August 2011

सूरह निसाँअ ४ चौथा पारा

मेरी तहरीर में - - -





क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।





नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.
सूरह निसाँअ चौथा पारा
सातवीं किस्त






" मरियम पर उनके बड़ा भारी इलज़ाम धरने की वजह और उनके इस कहने की वजेह से हम ने मसीह ईसा पुत्र मरियम जो कि अल्लाह के रसूल हैं को क़त्ल कर दिया गया. हालाँकि उन्हों ने न उनको क़त्ल किया, न उनको सूली पर चढाया, लेकिन उनको इश्तेबाह (शंका) हो गया और लोग उनके बारे में इख्तेलाफ़ करते हैं, वोह गलत ख़याल में हैं, उनके पास इसकी कोई दलील नहीं है बजुज़ इसके कि अनुमानित बातों पर अमल करने के और उन्हों ने उनको यकीनी बात है कि क़त्ल नहीं किया बल्कि अल्लाह ताला ने उनको अपनी तरफ उठा लिया और अल्लाह ताला ज़बर दस्त हिकमत वाले हैं और कोई शख्स अहल किताब से नहीं रहता मगर वोह ईसा अलैहिस्सलाम की अपने मरने से पहले ज़रूर तस्दीक कर लेता है और क़यामत के रोज़ वोह इन पर गवाही देंगे।"



orah निसाँअ ४ छटवां पारा- आयात( 156-159)
मूसा और ईसा अरब दुन्या की धार्मिक केंद्र के दो ऐसे विन्दु हैं जिनपर पूरी पश्चिम ईसाई और यहूदी आबादी केन्द्रित है ओल्ड टेस्टामेंट यानी तौरेत इन को मान्य है. इनकी आबादी दुन्या में सर्वाधिक है और दुन्या की कुल आबादी का आधे से ज्यादा है. कहा जा सकता है कि तौरेत दुन्या की सब से पुरानी रचना है जो मूसा कालीन नबियों और स्वयं मूसा द्वारा शुरू की गई और दाऊद के ज़ुबूरी गीतों को अपने दामन में समेटे हुए ईसा काल तक पहुची, आदम और हव्वा की कहानी और दुन्या का वजूद छह सात हज़ार साल पहले इसमें ज़रूर कोरी कल्पना है जिसे खुद इस की तहरीर कंडम करत्ती है मगर बाद के वाकिए हैरत नाक सच बयान करते हैं.ऐसी कीमती दस्तावेज़ को ऊपर लिखी मुहम्मद की जेहालत, बल्कि दीवानगी के आलम में बकी गई बकवास को लाना तौरेत की तौहीन है. जिसको अल्लाह खुद शक ओ शुबहा भरी आयत कहता हो उसको समझने की क्या ज़रुरत? जाहिल क़ौम इसे पढ़ती रहे और अपने मुर्दों को बख़श कर उनका भी आकबत ख़राब करती रहे.हम कहते हैं मुसलमान क्यूँ नहीं सोचता कि उसके अल्लाह अगर हिकमत वाला है तो अपनी आयत साफ साफ क्यूँ अपने बन्दों को बतला सका, क्यूँ कारामद बातें नहीं बतलाएं? क्यूँ बार बार ईसा मूसा की और उनकी उम्मत की बक्वासें हम हिदुस्तानियों के कानों में भरे हुए है? वह फिर दोहरा रहा है कि यहूदियों पर बहुत सी चीज़ें हराम करदीं अरे तेल लेने गए यहूदी, करदी होंगी उन पर हराम, हलाल, हमसे क्या लेना देना, क्यों हम इन बातों को दोहराए जा रहे है?
यहूदी ज्यूज़ बन गए आसमान में छेद कर रहे हैं और हम अहमक़ मुसलमान उनकी क़ब्रो की मरम्मत करके मुल्लाओं को पाल पोस रहे हैं हमारे लिए दो जून की रोटी मोहल है, ये अपनी माँ के खसम ओलिमा हम से कुरानी गलाज़त ढुलवा रहे हैं.पैदाइशी जाहिल अल्लाह एक बार फिर नूह को उठता है, पूरे क़ुरआन में बार बार वह इन्हीं गिने चुने नामों को लेता है जो इस ने सुन रखे हैं, कहता है।

"और मूसा से अल्लाह ने खास तौर पर कलाम फ़रमाया, उन सब को खुश खबरी देने वाले और खौफ सुनाने वाले पैगम्बर इस लिए बना कर भेजा था ताकि अल्लाह के सामने इन पैगम्बरों के बाद कोई उज्र बाकी न रहे और अल्लाह ताला पूरे ज़ोर वाले और बड़ी हिकमत वाले हैं।"सूरह निसाँअ ४ छटवां पारा- आयात (166)
पूरे कुरआन में अल्लाह खुद को कम ज़र्फों की तरह ज़ोर वाला और हिकमत वाला बार बार दोहराता है। दर अस्ल यह मुहम्मद का दम्भ बोल रहा है धमकी से काम ले रहे हैं, जहाँ अमलन ज़ोर और ज़बर की ज़रुरत पड़ी है वहाँ साबित कर दिया है.
मुहम्मद एक बद तरीन ज़ालिम इन्सान था जो जंगे बदर के अपने बचपन के बीस साथियों को तीन दिन तक मैदाने जंग में सड़ने दिया , फिर उनका नाम ले ले कर एक कुँए में ताने देते हुए फिक्वाया था. वहीँ जंगे ओहद में जंगी कैदी बना सफ़े आखिर में नाम पुकारे जाने पर खामोश मुंह छिपाए खडा रहा और मुर्दा बन कर बच गया. जो अल्लाह बना ज़ोर दिखला रहा है वह मक्र में भी ताक था। देखिए कि बे गैरत बना अल्लाह क्या कहता है - - -

" लेकिन अल्लाह ताला बज़रिए इस कुरआन के जिस को आप के पास भेजा है और भेजा भी अपने अमली कमाल के साथ, शहादत दे रहे हैं फ़रिश्ते, तस्दीक कर रहे हैं और अल्लाह ताला की ही शहादत काफ़ी है. जो लोग मुनकिर हैं और खुदाई दीन के माने हैं, बड़ी दूर कि गुमराही में जा पड़े हैं।"सूरह निसाँअ ४ छटवां पारा- आयात (167)
वाह! मुद्दआ ओनका है अपने आलम तक़रीर का, अल्लाह का अमली कमाल भी कुछ ऐसा ही है कि जैसे मुहम्मद पर कुरआन नाज़िल हुई. मुहम्मद अपने दोनों हाथ रेहल बना कर हवा में फैलाए हुए थे कि कुरआन आसमान से अपने दोनों बाज़ुओं से उड़ती हुई आई और मुहम्मद के बाँहों में पनाह लेती हुई सीने में समा गई. तभी तो इसे मुस्लमान आसमानी किताब कहते हैं और सीने बसीने क़ायम रहने वाली भी. मदारी मुहम्मद डुगडुगी बजा कर मुसलमानों को हैरत ज़दा कर रहे हैं (गो कि यहूदियों के इसी मुताल्बे पर हज़ार उनके ताने के बाद भी मुहम्मद न दिखा सके). मुस्लमान मुहम्मद के पास आ गए इस लिए इन को पास की गुमराही में वह डाले हुए हैं. इन दिनों दूर की गुमराही मुहम्मद का तकिया कलाम बना हुवा है।
"ऐ तमाम लोगो! यह तुहारे पास तुहारे रसूल अल्लाह कि तरफ से तशरीफ़ लाए हैं, सो तुम यकीन रखो तुम्हारे लिए बेहतर है।"सूरह निसाँअ ४ छटवां पारा- आयात (173)
मुहम्मद लोगों को फुसला रहे हैं, लोग हर दौर में काइयाँ हुवा करत्ते हैं, वह अपना फ़ायदा देख कर रिसालत का फायदा उठते है. कुर्ब जवार में वह हर एक पर पैनी नज़र रखते है, जहाँ किसी में खुद सरी देखते हैं, ज़िन्दा उठवा लेते हैं. मंज़रे आम पर बांध कर इबरत नाक सज़ाएं देते हैं. जिस से अमन ओ अमान का ख़तरा होता है उसको एक मुक़रार मुद्दत तक झेलते है. ओलिमा हर बात खूब जानते हैं मगर हर मुहम्मदी ऐबों की पर्दा पोशी करते हैं, इसी में उनकी खैर है. मुसलमानों में एक अवामी इन्कलाब आना बेहद ज़रूरी है। " मसीह इब्ने मरियम तो और कुछ भी नहीं, अलबत्ता अल्लाह के रसूल हैं. मसीह हरगिज़ अल्लाह के बन्दे बन्ने से आर नहीं करेंगे और न मुक़र्रिब फ़रिश्ते।"सूरह निसाँअ ४ छटवां पारा- आयात (174)
मुहम्मद फितरत से एक लड़ाका, शर्री और शिद्दत पसंद इन्सान थे. दख्ल अंदाजी उनकी खू में थी. तमाम आलम पर छाई ईसाइयत को छेड़ कर एक बड़ी ताकत से बैर बाधना उनकी सिर्फ हिमाकत कही जा सकती है जिसका नतीजा दुन्या की करोरों जानें अपने वजूद को गँवा कर अदा कर चुकी हैं और करती रहेंगी.



" अगर कोई शख्स मर जाए जिस की कोई औलाद न हो, जिस की बहन हो तो उसको उसके तुर्के का आधा मिलेगा और वोह शख्स उसका वारिस होगा और अगर उसकी औलाद न हों और अगर दो हों तो उनको उसके तुर्के का दो तिहाई मलेगा और अगर भाई बहन हों मर्द, औरत तो एक मर्द को दो औरतों के हिस्से के बराबर. अल्लाह ताला इस लिए बयान करते हैं कि तुम गुमराही में मत पडो और अल्लाह ताला हर चीज़ को जानने वाले हैं।"सूरह निसाँअ ४ छटवां पारा- आयात (177)यह है मुहम्मदी अल्लाह के विरासती बटवारे का क़ानून जिस पर बड़े बड़े कानून दान अपने सरों को आपस में लड़ा लड़ा कर लहू लुहान कर सकते हैं और अलिमान दीन दूर खड़े तमाशा देखा करें।

"मर्द हाकिम हैं औरतो पर , इस सबब से कि अल्लाह ने बअजों को बअजों पर फ़ज़ीलत दी है. और जो औरतें ऐसी हों कि उनकी बद दिमाग़ी का एहतेमाल हो तो उनको ज़बानी नसीहत करो और इनको लेटने की जगह पर तनहा छोड़ दो और उनको मारो, फिर वह तुम्हारी इताअत शुरू कर दें तो उनको बहाना मत ढूंढो"



क्या कोई मुसलमान अपनी लखत ए जिगर बेटी को ऐसे कुरानी माहौ में देना पसंद करेगा? 



जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Friday 12 August 2011

सूरह निसाँअ ४ चौथा पारा

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.
सूरह निसाँअ ४ चौथा पारा
छटवीं किस्त

"मुनाफिक जब नमाज़ को खड़े होते हैं तो बहुत काहिली के साथ खड़े होते हैं, सिर्फ आदमियों को दिखाने के लिए और अल्लाह का ज़िक्र भी नहीं करते, मुअल्लक़(टंगे हुए)हैं दोनों के दरमियाँ। न इधर के, न उधर के. जिन को अल्लाह गुमराही में डाल दे, ऐसे शख्स के लिए कोई सबील(उपाय) न पाओ गे।" सूरह निसाँअ पाँचवाँ पारा- आयात (144) मुजरिम तो मुहम्मदी अल्लाह हुवा जो नमाजियों को गुमराह किए हुए है और ना हक़ ही बन्दों के सर इल्जाम रखा जा रहा है कि मुनाफ़िक़ और काहिल हैं।
"जो लोग कुफ्र करते हैं अल्लाह के साथ और उसके रसूल के साथ वोह चाहते हैं फर्क रखें अल्लाह और उसके रसूल के दरम्यान, और कहते हैं हम बअजों पर तो ईमान लाते हैं और बअजों के मुनकिर हैं और चाहते हैं बैन बैन(अलग-अलग) राह तजवीज़ करें, ऐसे लोग यकीनन काफिर हैं।" सूरह निसाँअ छटवां पारा- (युहिब्बुल्लाह) आयात (151) जनाब! नमाज़ एक ऐसी बला है जिसमें नियत बांधते ही जेहन मुअल्लक़ हो जाता है, अल्लाह का नाम लेकर दुन्या दारी में. इसकी गवाही एक ईमानदार मुसलमान दे सकता है. खुद मुहम्मद को तमाम कुरानी और हदीसी खुराफात नमाजों में ही सूझती थीं मदीने में अक्सरीयत जनता मुहम्मद को अन्दर से उस वक्त तक पसंद नहीं करती थी मगर चूँकि चारो तरफ इस्लामी हुकूमतें कायम हो चुकी थी और मदीने पर भी, इस लिए मर्कज़ियत (केंद्र)तो उनको हासिल ही थी. फिर भी थे नापसंदीदा ही. कैसे बे शर्मी के साथ अल्लाह की तरह खुद को मनवा रहे हैं. आज उनका तरीका ही उनके चमचे आलिमान दीन अपनाए हुए हैं. मुसलमानों! बेदारी लाओ। नूह, मूसा, ईसा जैसे मशहूर नबियों के सफ में शामिल करने के लिए मुहम्मद एहतेजाज (विरोध) करते हैं कि लोग उनको भी उनकी ही तरह क्यूँ तस्लीम नहीं करते. वोह उनको काफिर कहते हैं और उनका अल्लाह भी. मुहम्मद अपनी ज़िन्दगी में ही सोलह आना अपनी मनमानी देखना चाहते हैं जो कि उमूमन ढोंगियों के मरने के बाद होता है. इन्हें कतई गवारा नहीं की कोई इनकी राय में दख्ल अंदाज़ करे जो उनकी रसालत पर असर अंदाज़ हो. लोगों को अपनी इन्फ्रादियत (व्यक्तिगतत्व) भी अज़ीज़ होती है, इसलाम में निफ़ाक़ (विरोध) की खास वजह यही है। यह सिलसिला मुहम्मद के ज़माने से शुरू हुवा तो आज तक जरी है। इसी तरह उस वक़्त अल्लाह की हस्ती को तस्लीम करते हुए, मुहम्मद की ज़ात को एक मुक़ररर हद में रहने की बात पर हजरत बिफर जाते हैं और बमुश्किल तमाम बने हुए मुसलमानों को काफिर कहने लगते हैं
" आप से अहले किताब यह दरख्वास्त करते हैं कि आप उनके पास एक खास नविश्ता (लिखी हुई) किताब आसमान से मंगा दें, सो उन्हों ने मूसा से इस से भी बड़ी दरख्वास्त की थी और कहा था कि हम को अल्लाह ताला को खुल्लम खुल्ला दिखला दो। उनकी गुस्ताखी के सबब उन पर कड़क बिजली आ पड़ी। फिर उन्हों ने गोशाला तजवीज़ किया था, इस के बाद बहुत से दलायल उनके पास पहुँच चुके थे.फिर हम ने उसे दर गुज़र कर दिया था, और मूसा को हम ने बहुत बड़ा रोब दिया था." सूरह निसाँअ छटवां पारा- आयात (153) देखिए कि लोगो की जायज़ मांग पर अल्लाह के झूठे रसूल कैसे कैसे रंग बदलते हैं, जवाज़ में कहीं पर कोई मर्दानगी नज़र आती है? कोई ईमान दिखाई पड़ता है, आप को कहीं कोईसदाक़त की झलक नज़र आती है? उनकी इन्हीं अदाओं पर यह इस्लामी हिजड़े गाया करते हैं "मुस्तफा जाने आलम पे लाखों सलाम"
" और हम ने उन लोगों से क़ौल क़रार लेने के वास्ते कोहे तूर को उठा कर उन के ऊपर टांग इया था और हम ने उनको हुक्म दिया था कि दरवाज़े में सरलता से दाखिल होना और हम ने उनको हुक्म दिया था कि शनिवार के बारे में उल्लंघन न करना और हम ने उन से क़ौल ओ क़रार निहायत शदीद लिए. सो उनकी अहद शिकनी की वजह से और उनकी कुफ़्र की वजह से अहकाम इलाही के साथ और उनके क़त्ल करने की वजह से ईश्वीय दूत अनुचित और उन के इस कथन की वजह से कि हमारे ह्रदय सुरक्सित बल्कि इन के कुफ़्र के सबब - - - " सूरह निसाँअ ४ छटवां पारा- आयात (154-55) ये हैं तौरेत के वाकेआती कुछ टुकड़े जो कि अनपढ़ मुहम्मद के कान में पडे हुए हैं उसे वे शायर के तौर पर वोह भी अल्लाह बन कर कुरआन की पागलों की सी रचना कर रहे हैं और इस महा मूरख कालिदास के इशारे को उसके होशियार पंडित ओलिमा सदियों से मानी पहना रहे हैं. कहानी कहते कहते खुद मुहम्मदी अल्लाह भटक जाता है, उसको यह अलिमाने दीन अपनी पच्चड़ लगा कर रस्ते पर लाते हैं. जब तक आम मुसलमान इन मौलानाओं से भपूर नफरत नहीं करेंगे, इनका उद्धार होने वाला नहीं।

बात मूसा की चले तो ईसा को कैसे भूलें? कुरआन के रचैता ये तो उम्मी की फितरत बन चुकी है, इस बात की गवाह खुद कुरआन है. मुहम्मदी अल्लाह कहता है - - -
" मरियम पर उनके बड़ा भारी इलज़ाम धरने की वजह और उनके इस कहने की वजेह से हम ने मसीह ईसा पुत्र मरियम जो कि अल्लाह के रसूल हैं को क़त्ल कर दिया गया. हालाँकि उन्हों ने न उनको क़त्ल किया, न उनको सूली पर चढाया, लेकिन उनको इश्तेबाह (शंका) हो गया और लोग उनके बारे में इख्तेलाफ़ करते हैं, वोह गलत ख़याल में हैं, उनके पास इसकी कोई दलील नहीं है बजुज़ इसके कि अनुमानित बातों पर अमल करने के और उन्हों ने उनको यकीनी बात है कि क़त्ल नहीं किया बल्कि अल्लाह ताला ने उनको अपनी तरफ उठा लिया और अल्लाह ताला ज़बर दस्त हिकमत वाले हैं और कोई शख्स अहल किताब से नहीं रहता मगर वोह ईसा अलैहिस्सलाम की अपने मरने से पहले ज़रूर तस्दीक कर लेता है और क़यामत के रोज़ वोह इन पर गवाही देंगे।" सूरह निसाँअ ४ छटवां पारा- आयात( 156-159) मूसा और ईसा अरब दुन्या की धार्मिक केंद्र के दो ऐसे विन्दु हैं जिनपर पूरी पश्चिम ईसाई और यहूदी आबादी केन्द्रित है ओल्ड टेस्टामेंट यानी तौरेत इन को मान्य है. इनकी आबादी दुन्या में सर्वाधिक है और दुन्या की कुल आबादी का आधे से ज्यादा है. कहा जा सकता है कि तौरेत दुन्या की सब से पुरानी रचना है जो मूसा कालीन नबियों और स्वयं मूसा द्वारा शुरू की गई और दाऊद के ज़ुबूरी गीतों को अपने दामन में समेटे हुए ईसा काल तक पहुची, आदम और हव्वा की कहानी और दुन्या का वजूद छह सात हज़ार साल पहले इसमें ज़रूर कोरी कल्पना है जिसे खुद इस की तहरीर कंडम करत्ती है मगर बाद के वाकिए हैरत नाक सच बयान करते हैं.ऐसी कीमती दस्तावेज़ को ऊपर लिखी मुहम्मद की जेहालत, बल्कि दीवानगी के आलम में बकी गई बकवास को लाना तौरेत की तौहीन है. जिसको अल्लाह खुद शक ओ शुबहा भरी आयत कहता हो उसको समझने की क्या ज़रुरत? जाहिल क़ौम इसे पढ़ती रहे और अपने मुर्दों को बख़श कर उनका भी आकबत ख़राब करती रहे.हम कहते हैं मुसलमान क्यूँ नहीं सोचता कि उसके अल्लाह अगर हिकमत वाला है तो अपनी आयत साफ साफ क्यूँ अपने बन्दों को बतला सका, क्यूँ कारामद बातें नहीं बतलाएं? क्यूँ बार बार ईसा मूसा की और उनकी उम्मत की बक्वासें हम हिदुस्तानियों के कानों में भरे हुए है? वह फिर दोहरा रहा है कि यहूदियों पर बहुत सी चीज़ें हराम करदीं अरे तेल लेने गए यहूदी, करदी होंगी उन पर हराम, हलाल, हमसे क्या लेना देना, क्यों हम इन बातों को दोहराए जा रहे है? यहूदी ज्यूज़ बन गए आसमान में छेद कर रहे हैं और हम अहमक़ मुसलमान उनकी क़ब्रो की मरम्मत करके मुल्लाओं को पाल पोस रहे हैं हमारे लिए दो जून की रोटी मोहल है, ये अपनी माँ के खसम ओलिमा हम से कुरानी गलाज़त ढुलवा रहे हैं.पैदाइशी जाहिल अल्लाह एक बार फिर नूह को उठता है, पूरे क़ुरआन में बार बार वह इन्हीं गिने चुने नामों को लेता है जो इस ने सुन रखे हैं, कहता है। "और मूसा से अल्लाह ने खास तौर पर कलाम फ़रमाया, उन सब को खुश खबरी देने वाले और खौफ सुनाने वाले पैगम्बर इस लिए बना कर भेजा था ताकि अल्लाह के सामने इन पैगम्बरों के बाद कोई उज्र बाकी न रहे और अल्लाह ताला पूरे ज़ोर वाले और बड़ी हिकमत वाले हैं।" ऐसी बक्वासें कुआनी आयतें हुईं.

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Tuesday 9 August 2011

निसाँअ 4 पाँचवाँ पारा

मेरी तहरीर में - - -

क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।

नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं।
निसाँअ 4 पाँचवाँ पारा पाँचवीं किस्त


हलाकू के समय में अरब दुन्या का दमिश्क शहर इस्लामिक माले गनीमत से खूब फल फूल रहा था. ओलिमाए दीन (धर्म गुरू)झूट का अंबार किताबों की शक्ल में खड़ा कर रहे थे. हलाकू बिजली की तरह दमिश्क पर टूटा, लूट पाट के बाद इन ओलिमाओं की खबर ली, सब को इकठ्ठा किया और पूछा यह किताबें किस काम आती हैं?

जवाब था पढने के। फिर पूछा -

सब कितनी लिखी गईं?

जवाब- साठ हज़ार ।

सवाल - - साठ हज़ार पढने वाले ? ? फिर साठ हज़ार और लिखी जाएंगी ???। इस तरह यह बढती ही जाएंगी.

फिर उसने पूछा तुम लोग और क्या करते हो?

ओलिमा बोले हम लोग आलिम हैं हमारा यही काम है।

हलाकू को हलाक़त का जलाल आ गया । हुक्म हुवा कि इन किताबों को तुम लोग खाओ.

ओलिमा बोले हुज़ूर यह खाने की चीज़ थोढ़े ही है।

हलाकू बोला यह किसी काम की चीज़ नहीं है, और न ही तुम किसी कम की चीज़ हो। हलाकू के सिपाहिओं ने उसके इशारे पर दमिश्क की लाइब्रेरी में आग लगा दी और सभी ओलिमा को मौत के घाट उतर दिया. आज भी इस्लामिक और तमाम धार्मिक लाइब्रेरी को आग के हवाले कर देने की ज़रुरत है.क़ज़ज़ाक़ लुटेरे और वहशी अपनी वहशत में कुछ अच्छा भी कर गए.

हलाकू का ही पोता चंगेज़ खान जिसने इस्लाम को क़ज़ज़ाक़ की परम्परा में अपनाया।

मुसलमान होने के बाद उसने दो मुल्लाओं को नौकरी पर रख लिया कि वह समय समय पर उसकी रहनुमाई किया करें कि हमारी शर्तों पर इस्लाम क्या कहता है - - -

उनमें एक थे बड़े मुल्ला और दुसरे छोटे मुल्ला, दोनों एक दुसरे के छुपे दुश्मन।

एक दिन अचनाक चंगेज़ कि बूढी माँ मर गई। बड़े मुल्ला इस्लामिक तौर तरीके बतलाने के लिए तलब किए गए, बाक़ी मंगोली कबीलाई एतबार से जो होता है वह होगा, उस से इस्लाम का कोई लेना देना नहीं.

माँ के साथ साथ उसके तमाम नौकर चाकर, साजो सामान, कुछ दिनों का खाना पीना दफन करना तय हवा। मौक़ा मुनासिब था कि बड़े मुल्ला छोटे को इसी बहाने निपटा दें.

चंगेज़ को राय दिया कि हुज़ूर कब्र में मुनकिर नकीर मुर्दे को ज़िदा करके सवाल जवाब के लिए आते है, एक मुल्ला की वहां ज़रुरत पड़ेगी, अम्माँ बेचारी कहाँ जवाब दे पाएगी ? बेहतर है कि छोटे मुल्ला को इन के हमराह कर दें। वह बहुत काबिल भी है.

चंगेज़ को बात मुनासिब लगी और हुक्म हुवा कि छोटे मुल्ला को अम्माँ के साथ दफ़न कर दिया जाए। हुक्म सुन कर छोटे मुल्ला की जान निकल गई कि यह कारस्तानी बड़े की है. भाग कर चंगेज़ के पास गया और बोला यह क्या नादानी कर रहे हैं आप?.

आप ने सुना नहीं कि बड़ा होकर भी उसने मेरी तारीफ की। मैं यकीनन उस से ज्यादा काबिल हूँ.आप मुझको अपने लिए बचा के क्यूं नहीं रखते, आप के सर लाखों के खूनों का गुनाह है मैं बखूबी मुनकिर नकीर से निम्टूगा, अम्माँ के लिए इस बूढ़े मुल्ला को भेज दें,ये मुनासिब होगा.

चंगेज़ को बात समझ में आ गई और बड़े मुल्ला जी बुढिया के साथ दफ़न कर दिए गए।

क़ज़ज़ाक़ों का क़ज़ज़ाकिस्तान इस्लाम के असर में आकर एक इस्लामी मुल्क बन गया था।७९ साल तक रूस की लामजहबयत ने उसे मुसलमान से इंसान बनाया फिर वह आज़ाद हुए.

आज़ाद क़ज़ज़ाकिस्तान के सामने मुस्लिम मुमालिक ने फिर इस्लामी लानत के टुकड़े फेंके जिसे उस जगी हुई कौम ने ठुकरा दिया।चंगेज़ का पोता तैमूर लंग हुवा जिसकी ज़ुल्म की कहानी दिल्ली कभी नहीं भूलेगी। तैमूर का पोता बाबर, बाबर के पोते दर पोते बहादुर शाह ज़फर और उनकी पोती आज कोलकोता की गली में चाय कि फुटपथी दूकान पर झूटी प्यालियाँ धोती है.


अब अल्लाह की २+२+५ की बातों पर आओ और मुसलमान बने रहो या फिर आँखें खोलो और बहादुर और ईमान दार मोमिन बन कर जीने का अहेद करो । मोमिन जिसका कि इस्लाम ने इस्लामी करण करके मुस्लिम कर दिया है और अपने झूट को सच का जामा पहना दिया


" यह तो कभी न हो सकेगा कि सब बीवियों में बराबरी रखो, तुम्हारा कितना भी दिल चाहे।"

सूरह निसाँअ 4 पाँचवाँ पारा- आयात (129)

यह कुरानी आयत है अपनी ही पहली आयात के मुकाबले में जिसमें अल्लाह कहता है दो दो तीन तीन चार चार बीवियां कर सकते हो मगर मसावी सुलूक और हुकूक की शर्त है, और अब अपनी बात काट रहा है,

कुरानी कठमुल्ले मुहम्मदी अल्लाह की इस कमजोरी का फायदा यूँ उठाते है की अल्लाह ये भी तो कहता है।

" ऐ ईमान वालो! इंसाफ पर खूब कायम रहने वाले और अल्लाह के लिए गवाही देने वाले रहो।"

सूरह निसाँअ 4 पाँचवाँ पारा- आयात (135)

मुसलमानों सोचो तुम्हारा अल्लाह इतना कमज़ोर की बन्दों कि गवाही चाहता है? अगर तुम पीछे हटे तो वोह मुक़दमा हार जाएगा। उस झूठे और कमज़ोर अल्लाह को हार जाने दो। ताक़त वर जीती जागती क़ुदरत तुम्हारा इन्तेज़ार अपनी सदाक़त की बाहें फैलाए हुए कर रही है।


" जब एहकामे इलाही के साथ इस्तेह्ज़ा (मज़ाक) होता हुवा सुनो तो उन लोगों के पास मत बैठो - - - इस हालत में तुम भी उन जैसे हो जाओगे।''

सूरह निसाँअ 4 पाँचवाँ पारा- आयात (140)

मुहम्मद की उम्मियत में बला की पुख्तगी थी, अपनी जेहालत पर ही उनका ईमान था जिसमें वह आज तक कामयाब हैं। जब तक जेहालत कायम रहेगी मुहम्मदी इसलाम कायम रहेगा। इस आयात में यही हिदायत है कि तालीमी रौशनी में इस्लामी जेहालत का मज़ाक बनेगा।

मुसलमानों को हिदायत दी जाती है कि उस में बैठो ही नहीं. वैसे भी मुल्लाजी के लिए दुम दबा कर भागने के सिवा कोई रास्ता नहीं रह जाता जब "ज़मीन नारंगी की तरह गोल और घूमती हुई दिखती है, रोटी की तरह चिपटी और कायम नहीं है."


एहकामे इलाही में ज़्यादा तर इस्तेहज़ा के सिवा है क्या? इस में एक से एक हिमाक़तें दरपेश आती हैं। इन के लिए जेहनी मैदान की बारीकियों में जेहद की जमा जेहाद के काबिल तो कहीं पर क़दम ज़माने की जगह मिलती नहीं आप की उम्मत को.अक्सर अहले रीश नमाज़ के बहाने खिसक लेते हैं जब देखते हैं कि इल्मी, अकली, या फितरी बहस होने लगी.

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Monday 8 August 2011

सूरह निसाँअ ४ चौथा पारा

मेरी तहरीर में - - -

करान का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।


नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.


सूरह निसाँअ ४ चौथा पारा4th

चौथी किस्त

मैं पहले उम्मी मुहम्मद की एक भविष्य वाणी यानी हदीस से आप को आगाह कराना चाहूंगा उसके बाद उनकी शाइरी कुरआन पर आता हूँ - - -

'' दूसरे खलीफा उमर के बेटे अब्दुल्ला के हवाले से ... रसूल मकबूल सललललाहो अलैहे वसललम (मुहम्मद की उपाधियाँ) ने फ़रमाया एक ऐसा वक़्त आएगा कि इस वक़्त तुम लोगों की यहूदियों से जंग होगी, अगर कोई यहूदी पत्थर के पीछे छुपा होगा तो पत्थर भी पुकार कर कहेगा की ऐ मोमिन मेरी आड़ में यहूदी छुपा बैठा है, आ इसको क़त्ल कर दे

(बुखारी १२१२)

आज मुसलमान पहाड़ी पत्थरों में छुपे यहूदियों के ही बोसीदा ईजाद हथियारों से लड़ कर अपनी जान गँवा रहे हैं. इंसानी हुकूक उनको बचाए हुए है मगर कब तक? मुहम्मद की जेहालत रंग दिखला रही है.
 
क़ुरआन कहता है - - -
" बाजे ऐसे भी तुम को ज़रूर मिलेगे जो चाहते हैं तुम से भी बे ख़तर होकर रहें और अपने क़ौम से भी बे ख़तर होकर रहें. जब इन को कभी शरारत की तरफ मुतवज्जो किया जाता है तो इस में गिर जात्ते हैं यह लोग अगर तुम से कनारा कश न हों और न तुम से सलामत रवी रखें और न अपने हाथ को रोकें तो ऐसे लोगों को पकडो और क़त्ल कर दो जहाँ पाओ " सूरह निसाँअ4 पाँचवाँ पारा- आयात (91) मुहम्मद ये उन लोगों को क़त्ल कर देने का हुक्म दे रहे हैं जो आज सैकुलर जाने जाते हैं और मुसलमानों के लिए पनाहे अमां बने हुए हैं। आज़ादी के पहले यह भी मुसलमानों के लिए काफ़िर ओ मुशरिक जैसे ही थे, मगर इब्नुल वक़्त ओलिमा आज इनकी तारीफ़ में लगे हुए हैं। वैसे भी नज़रियात बदल जाते हैं, मज़हब बदल जाते हैं मगर खून के रिश्ते कभी नहीं बदलते. मुहम्मदी इसलाम इन्सान से गैर फितरी काम कराता है, इसी लिए बिल आखिर रुसवे ज़माना है।

मैं एक बार फिर आप की तवज्जो को होश में लाना चाहता हूँ कि इस कायनात का निगरान, वोह अज़ीम हस्ती अगर कोई है भी तो क्या उसकी बातें ऐसी टुच्ची किस्म की हो सकती हैं जो क़ुरआन कहता है. किसी बस्ती के ना इंसाफ मुख्या की तरह, या कभी किसी कस्बे के बे ईमान बनिए जैसा. कभी गाँव के लाल बुझक्कड़ की तरह. अल्लाह भी कहीं ज़नानो की तरह बैठ कर पुत्राओ-भत्राओ करता है? कुन फ़यकून की ताक़त रखता है तो पंचायती बातें क्यूँ? आखिर मुसलमानों को समझ क्यों नहीं आती, उस से पहले उसे हिम्मत क्यों नहीं आती?


" और किसी मोमिन को शान नहीं की किसी मोमिन को क़त्ल करे और किसी मोमिन को गलती से क़त्ल कर दे तो उसके ऊपर एक मुस्लमान गुलाम या लौंडी को आज़ाद करना है और खून बहा है, जो उसके खानदान के हवाले से दीजिए, मगर ये की वोह लोग मुआफ कर दें।" सूरह निसाँअ4 पाँचवाँ पारा- आयात (92) "और जो किसी मुस्लमान का क़सदन क़त्ल कर डाले तो इस की सजा जहन्नम है जो हमेशा हमेशा को इस में रहना।" सूरह निसाँअ ४ चौथा पारा आयात (93)
बड़ी ताकीद है कि मोमिन मोमिन को क़त्ल न करे, इस्लामी तारीख जंगों से भारी पड़ी हैं और ज़्यादा तर जंगें आपस में मुसलमनो की इस्लामी मुल्को और हुक्मरानों के दरमियाँ होती हैं। आज ईरान, ईराक, अफगानिस्तान, और पाकिस्तान में खाना जंगी मुसमानों की मुसलमानों के साथ होती है। बेनजीर और मुजीबुर रहमान जैसा सिलसिला रुकने का नहीं, मज़े की बात कि इनको मारने वाले शहीद और जन्नत रसीदा होते हैं, मरने वाले चाहे भले न होते हों। मुस्लमान आपस में एक दूसरे से हमदर्दी रखते हों या नहीं मगर इस जज्बे का नाजायज़ फायदा उठा कर एक दूसरे को चूना ज़रूर लगते हैं ।

" अल्लाह ताला ने इन लोगों का दर्जा बहुत ज़्यादा बनाया है जो अपने मालों और जानों से जेहाद करते हैं, बनिसबत घर में बैठने वालों के, बड़ा उजरे अज़ीम दिया है, यानी बहुत से दर्जे जो अल्लाह ताला की तरफ़ से मिलेंगे।" सूरह निसाँअ4 पाँचवाँ पारा- आयात (95) मुहम्मद ने जेहाद का आगाज़ भर सोचा था, अंजाम नहीं, अंजाम तक पहुँचने के लिए उनके पास ईसा और गौतम जैसा जेहन ही नहीं था न ही होने वाले रिश्ते दार नौ शेरवाने आदिल का दिल था. उन्होंने अपनी विरासत में क़ुरआन की ज़हरीली आयतें छोडीं, तेज़ तर तलवार और माले गनीमत के धनी खुलफा, उमरा, सुलतान, और खुदा वंद बादशाह, साथ साथ जेहनी गुलाम जाहिल उम्मत की भीड़।

" मुहम्मदी अल्लाह कहता है जब ऐसे लोगों की जान फ़रिश्ते कब्ज़ करते हैं जिन्हों ने खुद को गुनाह गारी में डाल रक्खा था तो वोह कहते हैं कि तुम किस काम में थे? वोह जवाब देते हैं कि हम ज़मीन पर महज़ मग्लूब थे। वोह कहते हैं कि क्या अल्लाह की ज़मीन वसी न थी? कि तुम को तर्क वतन करके वहाँ चले जाना चाहिए था? सो इन का ठिकाना जहन्नम है।"

अल्लाह अपनी नमाजें किसी हालात में मुआफ नहीं करता, चाहे आजारी ओ लाचारी हो या फिर मैदाने जंग. मैदान जंग में आधे लोग साफ बंद हो जाएँ और बाकी नमाज़ की सफ में खड़े हो जाएँ. नमाज़ और रोजा अल्लाह की बे रहम ज़मींदार की तरह माल गुजारी है.बहुत देर तक और बहुत दूर तक अल्लाह अपने घिसे पिटे कबाडी जुमलो की खोंचा फरोशी करता है, फिर आ जाता है अपनी मुर्ग की एक टांग पर.
"जो शख्स अल्लाह और उसके रसूल की पूरी इताअत करेगा, अल्लाह ताला उसको ऐसी बहिश्तों में दाखिल करेगा जिसके नीचे नहरें जारी होंगी, हमेशा हमेशा इन में रहेगे. यह बड़ी कामयाबी है." सूरह निसाँअ पाँचवाँ पारा- आयात (96-122) फिर एक बार कूढ़ मगजों के लिए मुहम्मदी अल्लाह कहता है - - -
" और जो शख्स कोई नेक काम करेगा ख्वाह वोह मर्द हो कि औरत बशरते कि वोह मोमिन हो, सो ऐसे लोग जन्नत में दाखिल होंगे और इन पर ज़रा भी ज़ुल्म न होगा।" सूरह निसाँअ4 पाँचवाँ पारा- आयात (124) अल्लाह न जालिम है न रहीम .करोरों साल से दुन्या क़ायम है ईमान दारी के साथ उसकी कोई खबर नहीं है, अफवाह, कल्पना, और जज़्बात की बात बे बुन्याद होती हैं. खुद मुहम्मद ज़ालिम तबाअ थे और अपने हिसाब से उसका तसव्वुर करते हैं. आम मुसलमानों में जेहनी शऊर बेदार करने के लिए खास अहले होश और बुद्धि जीवियों को आगे आने की ज़रुरत है।


जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Saturday 6 August 2011

सूरह निसाँअ ४ चौथा पारा

मेरी तहरीर में - - -

क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।

नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.



सूरह निसाँअ ४ चौथा पारातीसरी किस्त


लोहे को जितना गरमा गरमा कर पीटा जाय वह उतना ही ठोस हो जाता है। इसी तरह चीन की दीवार की बुन्यादों की ठोस होने के लिए उसकी खूब पिटाई की गई है, लाखों इंसानी शरीर और रूहें उसके शाशक के धुर्मुट तले दफ़न हैं. ठीक इसी तरह मुसलमानों के पूर्वजों की पिटाई इस्लाम ने इस अंदाज़ से की है कि उनके नस्लें अंधी, बहरी और गूंगी पैदा हो रही हैं.(सुम्मुम बुक्मुम उम्युन, फहुम ला युर्जून) इन्हें लाख समझाओ यह समझेगे नहीं.मैं कुरआन में अल्लाह की कही हुई बात ही लिख रह हूँ जो कि न उनके हक में है न इंसानियत के हक में मगर वह कुछ भी सुनने को तैयार नहीं, वजेह वह सदियों से पीट पीट कर मुसलमान बनाए जा रहे है, आज भी खौफ ज़दा हैं कि दिल दिमाग और ज़बान खोलेंगे तो पिट जाएँगे, कोई यार मददगार न होगा.

यारो! तुम मेरा ब्लॉग तो पढो, कोई नहीं जान पाएगा कि तुमने ब्लॉग पढ़ा,फिर अगर मैं हक बजानिब हूँ तो पसंद का बटन दबा दो, इसे भी कोई न जान पाएगा और अगर अच्छा न लगे तो तौबा कर लो,तुम्हारा अल्लाह तुमको मुआफ करने वाला है।

अली के नाम से एक कौल शिया आलिमो ने ईजाद किया है

''यह मत देखो कि किसने कहा है, यह देखो की क्या कहा है.''

मैं तुम्हारा असली शुभ चितक हूँ, मुझे समझने की कोशिश करो.

" फिर जब उन पर जेहाद करना फ़र्ज़ कर दिया गया तो क़िस्सा क्या हुआ कि उन में से बअज़् आदमी लोगों से ऐसा डरने लगे जैसे कोई अल्लाह से डरता हो, बल्कि इस भी ज़्यादह डरना और कहने लगे ए हमारे परवर दीगर ! आप ने मुझ पर जेहाद क्यूँ फ़र्ज़ फरमा दिया? हम को और थोड़ी मुद्दत देदी होती ----"

सूरह निसाँअ4 पाँचवाँ पारा- आयात (77)

आयात गवाह है कि मुहम्मद को लोग डर के मारे "ऐ मेरे परवर दिगर" कहते और वह उनको इस बात से मना भी न करते बल्कि खुश होते जैसा की कुरानी तहरीर से ज़ाहिर है। हकीक़त भी है क़ुरआन में कई ऐसे इशारे मिलते हैं कि अल्लाह के रसूल से वोह अल्लाह नज़र आते हैं. खैर - - -

खुदा का बेटा हो चुका है, ईश्वर के अवतार हो चुके है तो अल्लाह का डाकिया होना कोई बड़ा झूट नहीं है। मुहम्मद जंगें, बशक्ले हमला लोगों पर मुसल्लत करते थे जिस से लोगों का अमन ओ चैन गारत था। उनको अपनी जान ही नहीं माल भी लगाना पड़ता था. हमलों की कामयाबी पर लूटा गया माले गनीमत का पांचवां हिस्सा उनका होता. जंग के लिए साज़ ओ सामान ज़कात के तौर पर उगाही मुसलमानों से होती. उस दौर में इसलाम मज़हब के बजाए गंदी सियासत बन चुका था. अज़ीज़ ओ अकारिब में नज़रया के बिना पर आपस में मिलने जुलने पर पाबंदी लगा दी गई थी। तफ़रक़ा नफ़रत में बदलता गया.

बड़ा हादसती दौर था. भाई भाई का दुश्मन बन गया था. रिश्ते दारों में नफ़रत के बीज ऐसे पनप गए थे कि एक दूसरे को बिना मुतव्वत क़त्ल करने पर आमादा रहते, इंसानी समाज पर अल्लाह के हुक्म ने अज़ाब नाजिल कर रखा था. नतीजतन मुहम्मद के मरते ही दो जंगें मुसलमानों ने आपस में ऐसी लड़ीं कि दो लाख मुसलमानो ने एक दूसरे को काट डाला, गलिबन ये कहते हुए कि इस इस्लामी अल्लाह को तूने पहले तसलीम किया - - -

नहीं पहले तेरे बाप ने - -

" ऐ इंसान! तुझ को कोई खुश हाली पेश आती है, वोह महेज़ अल्लाह तअला की जानिब से है और कोई बद हाली पेश आवे, वोह तेरी तरफ़ से है और हम ने आप को पैगम्बर तमाम लोगों की तरफ़ से बना कर भेजा है और अल्लाह गवाह काफ़ी है."

सूरह निसाँअ4 पाँचवाँ पारा- आयात (79)

यह मोहम्मदी अल्लाह की ब्लेक मेलिंग है। अवाम को बेवकूफ बना रहा है. आज की जन्नत नुमा दुनिया, जदीद तरीन शहरों में बसने वाली आबादियाँ, इंसानी काविशों का नतीजा हैं, अल्लाह मियां की रचना नहीं.

अफ्रीका में बसने वाले भूके नंगे लोग कबीलाई खुदाओं और इस्लामी अल्लाह की रहमतों के शिकार हैं.

आप जनाब पैगम्बर हैं, इसका गवाह अल्लाह है, और अल्लाह का गवाह कौन है?

और आप ?

बे वकूफ मुसलमानों आखें खोलो।

" पस की आप अल्लाह की राह में कत्ताल कीजिए. आप को बजुज़ आप के ज़ाती फेल के कोई हुक्म नहीं और मुसलमानों को प्रेरणा दीजिए . अल्लाह से उम्मीद है कि काफ़िरों के ज़ोर जंग को रोक देंगे और अल्लाह ताला ज़ोर जंग में ज़्यादा शदीद हैं और सख्त सज़ा देते हैं।"

सूरह निसाँअ4 पाँचवाँ पारा- आयात (84)

कैसी खतरनाक आयात हुवा करती थी कभी ये गैर मुस्स्लिमो के लिए और आज खुद मुसलामानों के लिए ये खतरनाक ही नहीं, शर्मनाक भी बन चुकी है जिसको वह ढकता फिर रहा है।

मुहम्मद ने इंसानी फितरत की बद तरीन शक्ल नफ़रत को बढ़ावा देकर एक राहे हयात बनाई थी जिसका नाम रखा इसलाम. उसका अंजाम कभी सोचा भी नहीं, क्यूंकि वोह सच्चाई से कोसों दूर थे. यह सच है कि उनके कबीले कुरैश की सरदारी की आरजू थी जैसे मूसा को बनी इस्राईल की बरतरी की, और ब्रह्मा को, ब्रह्मणों की श्रेष्टता की.

इसके बाद उम्मत यानी जनता जनार्दन कोई भी हो, जहन्नम में जाए. आँख खोल कर देखा जा सकता है, सऊदी अरब मुहम्मद की अरब क़ौम कि आराम से ऐशो आराइश में गुज़र कर रही है और प्राचीन बुद्धिष्ट अफगानी दुन्या तालिबानी बनी हुई है, सिंध और पंजाब के हिन्दू अल्कएदी बन चुके हैं, हिदुस्तान के बीस करोड़ इन्सान मुफ़्त में साहिबे ईमान (खोखले आस्था वान) बने फिर रहे है, दे दो पचास पचास हज़ार रुपया तो ईमान घोल कर पी जाएँ.

सब के सब गुमराह। होशियार मुहम्मद की कामयाबी है यह, अगर कामयाबी इसी को कहते हैं।
 
''क्या तुम लोग इस का इरादा रखते हो कि ऐसे लोगों को हिदायत करो जिस को अल्लाह ने गुमराही में डाल रक्खा है और जिस को अल्लाह ताला गुमराही में डाल दे उसके लिए कोई सबील नहीं।"सूरह निसाँअ4 पाँचवाँ पारा- आयात (84)गोया मुहम्मदी अल्लाह शैतानी काम भी करता है, अपने बन्दों को गुमराह करता है. मुहम्माद परले दर्जे के उम्मी ही नहीं अपने अल्लाह के नादाँ दोस्त भी हैं, जो तारीफ में उसको शैतान तक दर्जा देते हैं. उनसे ज्यादा उनकी उम्मत, जो उनकी बातों को मुहाविरा बना कर दोहराती हो कि " अल्लाह जिसको गुमराह करे, उसको कौन राह पर ला सकता है"?



" वह इस तमन्ना में हैं कि जैसे वोह काफ़िर हैं, वैसे तुम भी काफ़िर बन जाओ, जिस से तुम और वोह सब एक तरह के हो जाओ। सो इन में से किसी को दोस्त मत बनाना, जब तक कि अल्लाह की राह में हिजरत न करें, और अगर वोह रू गरदनी करें तो उन को पकडो और क़त्ल कर दो और न किसी को अपना दोस्त बनाओ न मददगार"
सूरह निसाँअ4 पाँचवाँ पारा- आयात (89)कितना जालिम तबा था अल्लाह का वह खुद साख्ता रसूल? बड़े शर्म की बात है कि आज हम उसकी उम्मत बने बैठे हैं. सोचें कि एक शख्स रोज़ी की तलाश में घर से निकला है, उसके छोटे छोटे बाल बच्चे और बूढे माँ बाप उसके हाथ में लटकती रिज्क़ की पोटली का इन्तेज़ार कर रहे हैं और इसको मुहम्मद के दीवाने जहाँ पाते हैं क़त्ल कर देते हैं?

एक आम और गैर जानिबदार की ज़िन्दगी किस क़दर मुहाल कर दिया था मुहम्मद की दीवानगी ने. बेशर्म और ज़मीर फरोश ओलिमा उल्टी कलमें घिस घिस कर उस मुज्रिमे इंसानियत को मुह्सिने इंसानियत बनाए हुए हैं.

यह क़ुरआन उसके बेरहमाना कारगुजारियों का गवाह है और शैतान ओलिमा इसे मुसलमानों को उल्टा पढा रहे हैं. हो सकता है कुछ धर्म इंसानों को आपस में प्यार मुहब्बत से रहना सिखलाते हों मगर उसमें इसलाम हरगिज़ नहीं हो सकता.

मुहम्मद
तो उन लोगों को भी क़त्ल कर देने का हुक्म देते हैं जो अपने मुस्लमान और काफिर दोनों रिश्तेदारों को निभाना चाहे.
आज तमाम दुन्या के हर मुल्क और हर क़ौम, यहाँ तक कि कुरानी मुस्लमान भी इस्लामी दहशत गर्दी से परेशान हैं. इंसानियत की तालीम से नाबलाद, कुरानी तालीम से लबरेज़ अल्कएदा और तालिबानी तंजीमों के नव जवान अल्लाह की राह में तमाम इंसानी क़द्रों पैरों तले रौंद सकते हैं, इर्तेकई जीनों को तह ओ बाला कर सकते हैं। सदियों से फली फूली तहजीब को कुचल सकते हैं. हजारों सालों की काविशों से इन्सान ने जो तरक्की की मीनार चुनी है, उसे वोह पल झपकते मिस्मार कर सकते हैं। इनके लिए इस ज़मीन पर खोने के लिए कुछ भी नहीं है एक नाकिस सर के सिवा, जिसके बदले में ऊपर उजरे अजीम है। इनके लिए यहाँ पाने के लिए भी कुछ नहीं है सिवाए इस के की हर सर इनके नाकिस इसलाम को कुबूल करके और इनके अल्लाह और उसके रसूल मुहम्मद के आगे सजदे में नमाज़ के वास्ते झुक जाए। इसके एवाज़ में भी इनको ऊपर जन्नतुल फिरदौस धरी हुई है, पुर अमन चमन में तिनके तिनके से सिरजे हुए आशियाने को इन का तूफ़ान पल भर में पामाल कर देता है।




जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान