Friday 29 January 2016

islaami Hera -Feri

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.
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मोमिन का ईमान

मोमिन और ईमान, लफ़्ज़ों और इनके मअनों को उठा कर इस्लाम ने इनकी मिटटी पिलीद कर दी है. यूँ कहा जाए तो ग़लत न होगा कि इस्लाम ने मोमिन के साथ अक़दे (निकाह) बिल जब्र कर लिया है और अपनी जाने जिगर बतला रहा है, जब कि ईमान से इस्लाम कोसों दूर है, दोनों का कोई आपस में तअल्लुक़ ही नहीं है, बल्कि बैर है. मोमिन की सच्चाई नीचे दर्ज है - -
१- फितरी (प्रकृतिक) सच ही ईमान है. गैर फितरी बातें बे ईमानी हैं--
 जैसे हनुमान का या मुहम्मद की सवारी बुर्राक का हवा में उड़ना.
२- जो मुम्किनात में से है वह ईमान है. 
''शक्कुल क़मर ''
 मुहम्मद ने ऊँगली के इशारे से चाँद के दो टुकड़े कर दिए, 
उनका सफेद झूट है.
३-जो स्वयं सिद्ध हो वह ईमान है. जैसे त्रिभुज के तीन नोकदार कोनो का योग एक सीधी रेखा. या इंद्र धनुष के सात रंगों का रंग बेरंग यानी सफेद.
४- जैसे फूल की अनदेखी शक्ल खुशबू, बदबू का अनदेखा रूप दुर्गन्ध.
५- जैसे जान लेवा जिन्स ए मुख़ालिफ़ में इश्क़ की लज्ज़त.
६- जैसे जान छिड़कने पर आमादा खूने मादरी व खूने पिदरी.
७- जैसे सच और झूट का अंजाम.
ऐसे बेशुमार इंसानी अमल और जज्बे हैं जो उसके लिए ईमान का दर्जा रखते हैं. मसलन - - - 
क़र्ज़ चुकाना, सुलूक का बदला, अहसान न भूलना, अमानत में खयानत न करना, वगैरह वगैरह। 
 
मुस्लिम का इस्लाम 
१- कोई भी आदमी (चोर, डाकू, ख़ूनी, दग़ाबाज़ मुहम्मद का साथी मुगीरा* से लेकर गाँधी कपूत हरी गाँधी उर्फ़ अब्दुल्लाह तक) नहा धो कर कलमन (कालिमा पढ़ के) मुस्लिम हो सकता है.
२- कालिमा के बोल हैं ''लाइलाहा इललिल्लाह मुहम्मदुर रसूलिल्लाह'' जिसके मानी हैं अल्लाह के सिवा कोई अल्लाह नहीं है और मुहम्मद उसके दूत हैं.
सवाल उठता है हजारों सालों से इस सभ्य समाज में अल्लाह और ईशवरों की कल्पनाएँ उभरी हैं मगर आज तक कोई अल्लाह किसी के सामने आने की हिम्मत नहीं कर पा रहा. जब अल्लाह साबित नहीं हो पाया तो उसके दूत क्या हैसियत रखते हैं? सिवाय इसके कि सब के सब ढोंगी हैं.
३- कालिमा पढ़ लेने के बाद अपनी बुद्धि मुहम्मद के हवाले करो, जो कहते हैं कि मैं ने पल भर में सातों आसमानों की सैर की और अल्लाह से गुफतुगू करके ज़मीन पर वापस आया कि दरवाजे की कुण्डी तक हिल रही थी.
४- मुस्लिम का इस्लाम कहता है यह दुनिया कोई मानी नहीं रखती, असली लाफ़ानी ज़िन्दगी तो ऊपर है, यहाँ तो इन्सान ट्रायल पर इबादत करने के लिए आया है. मुसलमानों का यही अक़ीदा कौम के लिए पिछड़े पन का सबब है और हमेशा बना रहेगा.
५- मुसलमान कभी लेन देन में सच्चा और ईमान दार हो नहीं सकता क्यूंकि उसका ईमान तो कुछ और ही है और वह है
 ''लाइलाहा इललिल्लाह मुहम्मदुर रसूलिल्लाह'' 
इसी लिए वह हर वादे में हमेशा '' इंशाअल्लाह'' लगता है. 
मुआमला करते वक़्त उसके दिल में उसके ईमान की खोट होती है. बे ईमान कौमें दुन्या में कभी न तरक्क़ी कर सकती हैं और न सुर्ख रू हो सकती हैं।
 
*मुगीरा*= इन मुहम्मद का साथी सहाबी की हदीस है कि इन्होंने (मुगीरा इब्ने शोअबा) एक काफिले का भरोसा हासिल कर लिया था फिर गद्दारी और दगा बाज़ी की मिसाल क़ायम करते हुए उस काफिले के तमाम लोगो को सोते में क़त्ल करके मुहम्मद के पनाह में आए थे और वाकेआ को बयान कर दिया था, फिर अपनी शर्त पर मुस्लमान हो गए थे. (बुखारी-११४४)
मुसलमानों ने उमर द ग्रेट कहे जाने वाले ख़लीफा के हुक्म से जब ईरान पर लुक़मान इब्न मुक़रन की क़यादत में हमला किया तो ईरानी कमान्डर ने बे वज्ह हमले का सबब पूछा था तो इसी मुगीरा ने क्या कहा गौर फ़रमाइए - - -
''हम लोग अरब के रहने वाले हैं. हम लोग निहायत तंग दस्ती और मुसीबत में थे. भूक की वजेह से चमड़े और खजूर की गुठलियाँ चूस चूस कर बसर औक़ात करते थे. दरख्तों और पत्थरों की पूजा किया करते थे. ऐसे में अल्लाह ने अपनी जानिब से हम लोगों के लिए एक रसूल भेजा. इसी ने हम लोगों को तुमसे लड़ने का हुक्म दिया है, उस वक़्त तक कि तुम एक अल्लाह की इबादत न करने लगो या हमें जज़या देना न कुबूल करो. इसी ने हमें परवर दिगार के तरफ़ से हुक्म दिया है कि जो जेहाद में क़त्ल हो जाएगा वह जन्नत में जाएगा और जो हम में ज़िन्दा रह जाएगा वह तुम्हारी गर्दनों का मालिक होगा.
(बुखारी १२८९)
 
असर क़ुबूल
 
हम मुहम्मद की अन्दर की शक्ल व सूरत उनकी बुनयादी किताबों कुरआन और हदीस में अपनी खुली आँखों से देख रहे हैं. मेरी आँखों में धूल झोंक कर उन नुत्फे हराम ओलिमा की बकवास पढने की राय दी जा रही है जिसको पढ़ कर उबकाई आती है कि झूट और इस बला का. मुझे तरस आती है और तअज्जुब होता है कि यह अक्ल से पैदल पाठक उनकी बातों को सर पर लाद कैसे लेते हैं?
मुहम्मद उमर कैरान्वी के बार बार इसरार पर एक बार उसके ब्लॉग पर चला गया, देखा कि एक हिदू मुहम्मद भग्त 'राम कृष्ण राव दर्शन शास्त्री' लिखते है कि
''एक क़बीले के मेहमान का ऊँट दूसरे क़बीले की चरागाह में ग़लती से चले जाने की छोटी-सी घटना से उत्तेजित होकर जो अरब चालीस वर्ष तक ऐसे भयानक रूप से लड़ते रहे थे कि दोनों पक्षों के कोई सत्तर हज़ार आदमी मारे गए, और दोनों क़बीलों के पूर्ण विनाश का भय पैदा हो गया था, उस उग्र क्रोधातुर और लड़ाकू क़ौम को इस्लाम के पैग़म्बर ने आत्मसंयम एवं अनुशासन की ऐसी शिक्षा दी, ऐसा प्रशिक्षण दिया कि वे युद्ध के मैदान में भी नमाज़ अदा करते थे।''
'सत्तर हज़ार' अतिश्योक्ति के लिए ये मुहम्मद का तकिया कलाम हुवा करता था, उनके बाद नकलची मुल्लाओं ने भी उनका अनुसरण किया शास्त्री जी भी उसी चपेट में हैं. बात अगर अंधी आस्था वश कर रहे हैं तो बकते रहें और अगर किराए के टट्टू हैं तो इनको भी मैं उन्हीं ओलिमा में शुमार करता हूँ. गौर तलब है कि उस वक़्त पूरे मक्का की आबादी सत्तर हज़ार नहीं थी, ये दो क़बीलों की बात करते हैं. इनकी पूरी हांड़ी में एक चावल टो कर आपको बतला रहा हूँ कि पूरी हाँडी कैरान्वी की ही तरह बदबूदार हुलिए की है।
जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Sooerah Raed Qist 1

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.
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सूरह राद - १३
(पहली किस्त) 

''अल्लरा - ये आयतें हैं किताब की और जो कुछ आपके रब की तरफ से आप पर नाज़िल किया जाता है, बिलकुल सच है, और लेकिन बहुत से आदमी ईमान नहीं लाते. अल्लाह ऐसा है कि आसमानों को बगैर खम्बों के ऊँचा खड़ा कर दिया चुनाँच तुम उनको देख रहे हो, फिर अर्श पर क़ायम हुवा और सूरज और चाँद को काम में लगाया हर एक, एक वक़्त मुअय्यन पर चलता रहता है. वही अल्लाह हर काम की तदबीर करता है और दलायल को साफ़ साफ़ बयान करता है.ताकि तुम अपने रब के पास जाने का यक़ीन करलो.''
सूरह रअद १३ परा-१३ आयत (१-२)
सबसे पहले क़ुरआन में नाज़िल का अर्थ जानें नाज़िल होने का सही अर्थ है प्रकृति की और से प्रकोपित (न कि उपहारित) नाज़िला (बला) होना, यानी क़ुरआन अल्लाह की तरफ से एक बला है, एक नज़ला है. उम्मी (जाहिल) पयम्बर ने अपने दीवान की व्याख्या में ही ग़लती करदी. इसी नाज़िल, नुज़ूल और नाज़िला के बुन्याद पर इस्लाम को भी खड़ा किया कि वह कोई भेंट स्वरूप नहीं, बल्कि क़ह्हार का क़हर है, हर वक़्त उसकी याद में मुब्तिला रहो. इसका फायदा और नुकसान खुद मुस्लमान ही उठा रहा है. अवाम डरपोक हो गई है और ख़वास (आलिम व् मुल्ला और धूर्त-जन) उनके डर का फ़ायदा उठा कर उनको पीछे किए हुए हैं. इसकी बुन्याद डाली है बद नियती के साथ दुश्मने इंसानियत मुहम्मद ने. गवाही में मुगीरा का वाक़ेआ पेश करचुका हूँ.
अल्लाह को ज़रुरत पेश आई यकीन दिलाने की कहता है ''बिलकुल सच है'' यह तो इंसानी कमज़ोरी है, इस लिए कि ''लेकिन बहुत से आदमी ईमान नहीं लाते.''
उम्मी आसमान को छत तसव्वुर करते हैं जब कि इनसे हज़ार साल पहले ईसा पूर्व सुकरात और अरस्तू के ज़माने में सौर्य मंडल का परिचय इन्सान पा चुका था और यह अपने अल्लाह को ऐसा घामड़ साबित कर रहे हैं कि उसको अभी तक इसका इल्म नहीं . अल्लाह बगैर सीढ़ी के उस पर चढ़ कर कयाम पज़ीर हो जाता है और फिर मुंतज़िर खड़े सूरज और चाँद को हुक्म देता है कि काम पर लग जाओ. इन बातों को उम्मी दलायल का साफ़ साफ़ बयान बतलाते हैं और मुसलमान अपने रब के पास जाने का यक़ीन कर लेता है? इस सदी में भी मुसलमानों के चेहरों पर दीदा और खोपड़ी में भेजा नहीं आता तो ज़रूर जाएँगे असली जहन्नम में.

''वह ऐसा है कि उसने ज़मीन को फैलाया और उसमे पहाड़ और नहरें पैदा कीं और उसमे हर किस्म के फलों से दो दो किस्में पैदा किए. रात से दिन को छिपा देता है. इन उमूर पर सोचने वालों के लिए दलायल है. और ज़मीन में पास पास मुख्तलिफ़ टुकड़े हैं और अंगूरों के बाग़ है और खेतयाँ हैं और खजूरें हैं जिनमें तो बअजे ऐसे है कि एक तना से जाकर ऊपर दो तने हो जाते हैं और बअज़े में दो तने नहीं होते, सब को एक ही तरह का पानी दिया जाता है और हम एक को दूसरे फलों पर फौकियत देते हैं इन उमूर पर सोचने वालों के लिए दलायल है.''
सूरह रअद १३ परा-१३ आयत (३-४)
चार सौ साल पहले ईसाई साइंटिस्ट गैलेलियो ने बाइबिल को कंडम करके ज़मीन को फैलाई हुई रोटी जैसी चिपटी नहीं बल्कि गोल कहा था तो उसे ईसाई कठ मुल्ला निजाम ने फाँसी की सजा सुना दिया था, 
खैर वह उनकी बात अपनी जान बचाने के लिए मान गया मगर आज सारे ईसाई गैलेलियो की बात को मान गए हैं. 
तौरेत के नकल में गढ़े कुरआन के पैरोकार ज़िद में अड़े हुए हैं कि नहीं ज़मीन वैसे ही है जैसी कुरआन कहता है, हालांकि वह रोज़ उसकी तस्वीर कैमरों में देखते हैं. हे कुरआन के रचैता! 
पहाड़ तो कुदरती हैं मगर उस पर नहरें तो इंसानों ने बनाई! 
आप को इस बात की भी ख़बर न मिली होगी. 
अहमक अल्लाह! कौन सा फल है जिसकी सिर्फ दो किस्में होती हैं? 
(दरअस्ल मुहम्मद को भाषा ज्ञान तो था नहीं शायद दो दो से उनका अभिप्राय बहु वचन से हो)
''रात से दिन को छिपा देता है'' 
ये जुमला भी कुरआन में बार बार आता है. खुदाए आलिमुल ग़ैब को क्या इस बात का पता न था कि ज़मीन पर रात और दिन का निज़ाम क्यूँ है? 
दरख्तों में तनों की बात फिर करता है, 
एक या दो दो - - -
यहाँ पर भी दो दो से अभिप्राय बहु वचन से हैं. 
इसी तरह तर्जुमा निगारों ने पूरे कुरआन में 
'' अल्लाह के कहने का मतलब ये - - - है'' 
लिख कर मुहम्मद की मदद की है. लाल बुझक्कड़ के इन फ़लसफ़ों पर बार मुहम्मद इसरार करते हैं कि
''इन उमूर पर सोचने वालों के लिए दलायल है.''

'' और अगर आप को तअज्जुब हो तो उनका ये कौल तअज्जुब के लायक है कि जब हम खाक हो गए, क्या हम फिर अज़ सरे नव पैदा होंगे. ये वह लोग हैं कि जिन्हों ने अपने रब के साथ कुफ़्र किया और ऐसे लोगों की गर्दनों में तौक़ डाले जाएँगे और ऐसे लोग दोज़खी हैं.वह इस में हमेशा रहेंगे.''
सूरह रअद १३ परा-१३ आयत (५)
यहूदियत से उधार लिया गया ये अन्ध विश्वास मुहम्मद ने मुसलामानों के दिमाग़ में भर दिया है कि रोज़े महशर वह उठाया जाएगा, फिर उसका हिसाब होगा और आमालों की बुन्याद पर उसको जन्नत या दोज़ख की नई ज़िन्दगी मिलेगी. आमाले नेक क्या हैं ? नमाज़, रोज़ा, ज़कात, हज, और अल्लाह एक है का अक़ीदा जो कि दर अस्ल नेक अमल हैं ही नहीं, बल्कि ये ऐसी बे अमली है जिससे इस दुन्या को कोई फ़ायदा पहुँचता ही नहीं, आलावा नुकसान के.
हक तो ये है कि इस ज़मीन की हर शय की तरह इंसान भी एक दिन हमेशा के लिए खाक नशीन हो जाता है बाकी बचती है उस की नस्लें जिन के लिए वह बेदारी, खुश हाली का आने आने वाला कल । वह जन्नत नुमा इस धरती को अपनी नस्लों के वास्ते छोड़ कर रुखसत हो जाता है या तालिबानियों के वास्ते .
मुहम्मद का भाषाई व्याकरण देखिए - -
''और अगर आप को तअज्जुब हो तो उनका ये कौल तअज्जुब के लायक है'' दोज़ख तो तड़प तड़प कर जलने की आग की भट्टी है, आपफ़रमाते हैं -''वह इस में हमेशा रहेंगे.''
''ये लोग आफियत से पहले मुसीबत का तकाज़ा करते हैं. आप का रब ख़ताएँ बावजूद इसके कि वह ग़लती करते हैं, मुआफ़ कर देता है और ये बात भी यक़ीनी है कि आप का रब सख्त सज़ा देने वाला है. और कहते हैं इन पर मुअज्ज़ा क्यूँ नहीं नाज़िल हुवा. आप सिर्फ डराने वाले हैं. - - 
और अल्लाह को सब ख़बर रहती है जो कुछ औरत के हमल में रहता है और जो कुछ रहिम में कमी बेशी होती रहती है. और तमाम पोशीदा और ज़ाहिर को जानने वाला है, सब से बड़ा आलीशान है.
सूरह रअद १३ परा-१३ आयत (६-७)
''क़यामत कैसी होती है लाकर बतलाओ''
लोगों के इस मज़ाक़ पर मुहम्मद की ये आयत कैसी चाल भरी है, रिआयत और धमकी के साथ साथ. लोगों के मुअज्ज़े कि फ़रमाइश को टाल कर जवाब देते है कि वह तो बिलाऊवा हैं सिर्फ डराने वाले, 
बे सुर कि तानते हैं कि अल्लाह औरत के गर्भ में झाँक कर सब देख लेता है कि क्या घट रहा है. 
और खुद अपनी शान भी बघारता है कि बड़ा आली शान है. क्या नतीजा निकालते हो ऐ मुसलमानों! अल्लाह की इन खुराफाती बातों से ?

''हर शख्स के लिए कुछ फ़रिश्ते हैं जिनकी बदली होती रहती है, कुछ इसके आगे कुछ इसके पीछे बहुक्म ए खुदा फ़रिश्ते हिफाज़त करते रहते हैं. वाकई अल्लाह तअला किसी कौम की हालत में तगय्युर नहीं करता जब तक वह लोग खुद अपनी हालत को बदल नहीं देते और जब अल्लाह तअला किसी काम पर मुसीबत डालना तजवीज़ कर लेता है तो फिर उस को हटाने की कोई सूरत नहीं होती और कोई इसके सिवा मदद गार नहीं होता.''
सूरह रअद १३ परा-१३ आयत (११)
बाइबिल के कौल को अल्लाह का कलाम बतलाते हुए मुहम्मद कहते हैं, ''वाकई अल्लाह तअला किसी कौम की हालत में तगय्युर नहीं करता जब तक वह लोग खुद अपनी हालत को बदल नहीं देते'' 'दूसरे लम्हे ही इसके ख़िलाफ़ अपनी क़ुरआनी जेहालात पेश कर देते हैं ''जब अल्लाह तअला किसी काम पर मुसीबत डालना तजवीज़ कर लेता है तो फिर उस को हटाने की कोई सूरत नहीं होती और कोई इसके सिवा मदद गार नहीं होता।''
 



जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Monday 25 January 2016

Soorah 12 qist 2

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.
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सूरह यूसुफ़ -१२

(दूसरी किस्त)

यहूदी काल में भी अन्ना समर्थकों का ताँता बंधा रहता. लोग किसी भी मौक़े पर तमाश बीन बन्ने के लिए तैयार रहते. एक व्यभिचारणी को जुर्म की सजा में संग सार करने की तय्यारी चल रही थी, लोग अपने अपने हाथों में पत्थर लिए हुए खड़े थे. वहीँ ईसा ख़ाली हाथ आकर खड़े हो गए. व्यभिचारणी लाई गई, पथराव शुरू ही होने वाला था कि ईसा ने लोगों को संबोधित करते हुए कहा - - - 
"तुम लोगों में पहला पत्थर वही मारेगा जिसने कभी व्यभिचार न किया हो" 
सब के हाथ से पत्थर नीचे ज़मीन पर गिर गए. 
अन्ना को, अगर उनमें दम हो तो चाहिए कि वह ईसा बनें लोगो से कहें - - 
"कि मेरे साथ वही लोग आएं जिन्हों ने कभी भ्रस्ट आचरण न किया हो. न रिश्वत लिया हो और न रिश्वत दिया हो." 
बड़ी मुश्किल आ जाएगी कि वह अकेले ही राम लीला मैदान में पुतले की तरह खड़े होंगे. 
चलिए इस शपथ को और आसान करके लेते हैं कि वह अपने अनुयाइयों से यह शपथ लें कि आगे भविष्य में वह रिश्वत लेंगे और न रिश्वतदेंगे. रिश्वत के मुआमले में लेने वालों से देने वाले दस गुना होते हैं. पहले देने वाले ईमानदार बने. रिश्वत के आविष्कारक देने वाले ही थे. अन्ना सिर्फ सातवीं क्लास पास हैं, उनके अन्दर इंसानी नफ्सियात की कोई समझ है न अध्यन, परिपक्वता तो बिलकुल नहीं है, वह अनजाने में भ्रष्टा चार का एक रावन और बनाना चाहते हैं जिसका रूप होगा लोकायुक्त. 
अन्ना को चाहिए कि वह अपनी बची हुई थोड़ी सी ज़िन्दगी को हिन्दुस्तानियों के चरित्र निर्माण में लगाएं. 
पिछली किस्त में मैंने कहा थ कि यूसुफ़ की तौरेती कहानी आपको सुनाऊंगा जिसे मैं मुल्तवी करता हूँ कि यह बात मेरे मुहिम में नहीं आती। इतना ज़रूर बतलाता चलूँ कि मुहम्मद ने तौरेत की हर बात को ऐतिहासिक घटना के रूप में तो लिया है मगर उसमें अपनी बात कायम करने के लिए रद्दो बदल कर दिया है 
तौरेत में यूसुफ़ हसीन इन्सान नहीं बल्कि ज़हीन तरीन शख्स है. 
उसने सात सालों में इतना गल्ला इकठ्ठा कर लिया था कि अगले सात क़हत साली के सालों में पूरे मिस्र को दाने के एवाज़ में बादशाह के पास गिरवीं कर दिया था. ज़मीन बादशाह की और मज़दूरी पर रिआया काम करने लगी . कुल पैदावार का १/५ लगान सरकार को मिलने लगा. यूसुफ़ का यह तरीक़ा आलम गीर बन गया जो आज तक कहीं कहीं रायज है. 

''ये क़िस्सा गैब की ख़बरों में से है जो हम वाहिय के ज़रीए से आप को बतलाते हैं. - - - और अक्सर लोग ईमान नहीं लाते गो आप का कैसा भी जी चाह रहा हो, और आप इनसे इस पर कुछ मावज़ा तो चाहते नहीं, यह क़ुरआन तो सारे जहां वालों के लिए सिर्फ़ नसीहत है."
सूरह यूसुफ़ १३- १३-वाँ पारा आयत (१०२-४)
मैंने आप को बतलाया था कि यूसुफ़ कि कहानी अरब दुन्या कि मशहूर तरीन वाक़ेआ है जिसे बयान करने के बाद झूठे मुहम्मद फिर अपने झूट को दोहरा रहे है कि ये गैब कि खबर है जो इन्हें वाहिय के ज़रीए मिली है. 
मुसलमानों! 
मेरे भोले भाले भाइयो!! 
क्या तुम्हें ज़रा भी अपनी अक्ल नहीं कि ऐसे कुरआन को सर से उतार कर ज़मीन पर फेंको. 
सिड़ी सौदाई की खाहिशे पैगम्बरी की इन्तहा देखो कि ज़माने के दिखावे के लिए अपने आप में गम के मारे गले जा रहे हैं, अपने जी की चाहत में तड़प रहे हैं, जेहादी रसूल. कुरआन सारे ज़माने को एक भी कारामद नुस्खा नहीं देता बस इसका गुणगान बज़ुबान खुद है.

''और बहुत सी निशानियाँ आसमानों और ज़मीन पर जहाँ उनका गुज़र होता रहता है और वह उनकी तरफ तवज्जे नहीं देते हैं और अक्सर लोग जो खुदा को मानते भी हैं तो इस तरह के शिर्क करते जाते हैं तो क्या फिर इस बात से मुतमईन हुए हैं कि इन पर खुदा के अज़ाब का कोई आफ़त आ पड़े जो इनको मुहीत हो जावे या उन पर अचानक क़यामत आ जवे और उनको खबर भी न हो.''
सूरह यूसुफ़ १३- १३-वाँ पारा आयत (१०५-१०७)
गंवार चरवाहा बगैर कुछ सोचे समजे मुँह से बात निकालता है जिसको यह हराम ज़ादे ओलिमा कुछ नशा आवर अफीम मिला के कलामे इलाही बना कर आप को बेचते हैं. अब सोचिए कि आसमानों पर वह भी उस ज़माने में आप अवाम का गुज़र कैसे होता रहा होगा या इन मुल्लाओं का आज भी आसमानों पर जाने की तौफीक कहाँ , साइंस दानों के सिवा ? 
रह गई ज़मीन की बात तो इस पर अरब दुन्या के लड़ाके यूसुफ़ से लेकर मूसा तक हजारो बस्तियों को यूँ तबाह करते थे कि वह ज़मीन कि निशानयाँ बन जाती थीं. (पढ़ें तौरेत मूसा काल)मुहम्मद हजरते इन्सान को कभी हालाते इत्मीनान में देखना या रहने देना पसंद नहीं करते थे. उनकी बुरी खसलत थी कि फर्द के ज़ातयात में दख्ल अंदाजी जिसकी पैरवी इस ज़माने भी उल्लू के पट्ठे तबलीगी जमाअत वाले जोहला, तालीम याफ्ता हल्के में, लोगों को जेहालत की बातें समझाने जाते है.मुहम्मद की एक खू शिर्क है कि जो उनके सर में जूँ की तरह खुजली किया करती है. शिर्क यानी अल्लाह के साथ किसी को शरीक करना. इसमें भी मुहम्मद की चाल है कि सिर्फ़ उनको शरीक करो.जेहादों की मिली माले गनीमत,तलवारों के साए में रचे इस्लामी कानून और हरामी ओलिमा के खून में दौड़ते नुत्फे ए मशकूक ने एक बड़ी आबादी को रुसवा कर रखाहै। 

"आप फरमा दीजिए मेरा तरीक है मैं खुदा की तरफ इस तौर पर बुलाता हूँ कि मैं दलील पर क़ायम हूँ। मैं भी, मेरे साथ वाले भी और अल्लाह पाक है और मैं मुशरिकीन में से नहीं हूँ और हमने आप से पहले मुख्तलिफ बस्ती वालों में जितने रसूल भेजे हैं सब आदमी थे. और यह लोग मुल्क में क्या चले फिरे नहीं कि देख लेते कि इन लोगों का कैसा अंजाम हुवाजो इन से पहले हो गुज़रे हैं और अल्बस्ता आलमे आखरत इनके लिए निहायत बहबूदी की चीज़ है जो एहतियात रखते हैं. सो क्या तुम इतना भी नहीं समझते. इन के किस्से में समझदार लोगों के लिए बड़ी इबरत है। ये कुरान कोई तराशी हुई बात तो है नहीं बल्कि इससे पहले जो किताबें हो चुकी हैं ये उनकी तस्दीक करने वाला है और हर ज़रूरी बात की तफसील करने वाला है और ईमान वालों के लिए ज़रीया हिदायत है और रहमत है."
सूरह यूसुफ़ १३- १३-वाँ पारा आयत (१०९)
तुम किसी दलील पर क़ायम नहीं हो, तुम तो दलील की शरह भी नहीं कर सकते, अलबत्ता अपने गढ़े हुए अल्लाह के दल्लाली पर क़ायम हो. तुम और तुहारे साथी यह आलिमान दीन मुशरिकीन में से नहीं, बल्कि मुज्रिमीन में से हो. आ गया है वक़्त कि तुम जवाब तलब किए जा रहे हो. 
तुम्हारे अल्लाह ने तुमसे पहले मूसा जैसे ज़ालिम जाबिर और दाऊद जैसे डाकू लुटेरे रसूल ही भेजे हैं जिसे तुम अच्छी तरह समझते हो कि उनकी पैरवी ही तुम्हें कामयाब करेगी। मुहम्मद के पास एह यहूदी पेशावर शागिर्द रहा करता था जो तमाम तौरेती किस्से और वाक़िए इनको बतलाता था और यह उसे अपनी गंवारू ग्रामर की शाइरी में गढ़ कर बयान करते और उसे वह्यी कहते। 
कहते हैं अल्लाह की इस कहानी को दूसरी आसमानी किताबें भी तसदीक़ करती हैं. कैसा बेवकूफ़ बनाया है जाहिलों को और जो आज तक बने हुए हैं. 




जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Friday 22 January 2016

Soorah yusuf 12 Qist 1

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.

सूरह यूसुफ़ -१२ 

(पहली किस्त)
बनी इस्राईल का हीरो यूसेफ़, मशहूरे ज़माना जोज़फ़ और अरब दुन्या का जाना माना किरदार यूसुफ़ इस सूरह का उन्वान है जिसे अल्लाह उम्दः किस्सा कहता है. क़ुरआन में यूसुफ़ का किस्सा बयाने तूलानी है जिसका मुखफ़फफ़ (सारांश) पेश है - - - 
''अलरा ? यह किताब है एक दीन वाज़ेह की. हमने इसको उतारा है कुरआन अरबी ताकि तुम इसे समझो. हमने जो यह कुरआन आपके पास भेजा है इसके जारीए हम आप से एक बड़ा उम्दा किस्सा बयान करते है और इसके क़ब्ल आप महज़ बे खबर थे.''
क़ुरआन जिसे आप चूमा चाटा करते हैं और सर पे रख कर उसकी अज़मत बघारते हैं उसमें किस्से और कहानियाँ भी हैं जो की मुस्तनद तौर पर झूट हुवा करती हैं, वह भी नानियों की तरह अल्लाह जल्ले जलालहू अपने नाती मुहम्मद को जिब्रील के माध्यम से सुनाता है और फिर वह बन्दों को रिले करते हैं.मुसलमानों! कितनी बकवास है क़ुरआन की हक़ीक़त. अल्लाह खुद की पीठ ठोंकते हुए कहता है - - -
''हम आप से एक बड़ा उम्दा किस्सा बयान करते है''
इसके क़ब्ल आप देख चुके हैं कि उसको किस्सा गोई का कितना फूहड़ सलीक़ा है. मज़े की बात यह है कि अल्लाह यह एलान करता है कि 
''और इसके क़ब्ल आप महज़ बे खबर थे.'' 
मिस्र के बादशाह फ़िरआना को मूसा का चकमा देकर अपनी यहूदी कौम को मिस्रियों के चंगुल से निकल ले जाना, नड सागर जिससे क़ुरआन नील नदी कहता है, में मिसरी लश्कर का डूब कर तबाह हो जाना मूसा से लेकर मुहम्मद तक ६०० साल का सब से बड़ा वाक़ेआ था जोकि अरब दुनिया का बच्चा बच्चा जनता है, गाऊदी मोहम्मदी अल्लाह कहता है ''और इसके क़ब्ल आप महज़ बे खबर थे.'' यह ठीक इसी तरह है कि कोई कहे कि मैं तुम को एक अनोखी कथा सुनाता हूँ और वाचना शुरू कर दे रामायण। 
इसी लिए पिछले लेख में मैं ने कहा था 
''झूट का पाप=कुरान का आप'' 
लीजिए सदियों चर्चित रहे अंध विश्वास के इस दिल चस्प किस्से से आप भी लुत्फ़ अन्दोज़ होइए। गोकि मुहम्मद ने बीच बीच में इस किस्से में भी अपने प्रचार का बाजा बजाया है मगर मैं उससे आप को बचाता हुवा और उनके फूहड़ अंदाज़ ए बयान को सुधरता हुवा किस्सा बयान करता हूँ. 
''याकूब अपनी सभी बारह औलादों में अपने छोटे बेटे यूसुफ़ को सब से ज़्यादः चाहता है. यह बात यूसुफ़ के बाक़ी सभी भाइयों को खटकती है, इस लिए वह सब यूसुफ़ को ख़त्म कर देने के फ़िराक़ में रहते हैं. इस बात का खदशा याकूब को भी रहता है. एक दिन यूसुफ़ के सारे भाइयों ने साज़िश करके याकूब को राज़ी किया कि वह यूसुफ़ को सैर व तफ़रीह के लिए बाहर ले जाएँगे, वह राज़ी हो गया. वह सभी यूसुफ़ को जंगल में ले जाकर एक अंधे कुँए में डाल देते हैं और यूसुफ़ का खून आलूद कपडा लाकर याकूब के सामने रख कर कहते हैं कि उसे भेडिए खा गए. 
याकूब यूसुफ़ की मौत को सब्र करके ज़ब्त कर जाता है.
उधर कुँए से यूसुफ़ की चीख़ पुकार सुन कर ताजिर राहगीर उसे कुँए से निकलते हैं और माल ए तिजारत में शामिल कर लेते हैं. 
मिस्र लेजा कर वह उसे अज़ीज़ नामी जेलर के हाथों फ़रोख्त कर देते हैं अज़ीज़ इस ख़ूब सूरत बच्चे को अपना बेटा बनाने का फ़ैसला करता है मगर यूसुफ़ के जवान होते होते इसकी बीवी ज़ुलैखा इसको चाहने लगती है. 
एक रोज़ वह इसको अकेला पाकर इस की क़ुरबत हासिल करने की कोशिश करती है लेकिन यूसुफ़ बच बचा कर इसके दाम से भाग निकलने की कोशिश करता है कि जुलेखा इसका दामन पकड़ लेती है जो कि कुरते से अलग होकर ज़ुलैखा हाथ में आ जाता है. इसी वक़्त इसका शौहर अज़ीज़ घर में दाखिल होता है, ज़ुलैखा अपनी चाल को उलट कर यूसुफ़ पर इलज़ाम लगा देती है कि यूसुफ़ उसकी आबरू रेज़ी पर आमादः होगया था. उसने अज़ीज़ से यूसुफ़ को जेल में डाल देने की सिफ़ारिश भी करती है.
बात बढती है तो मोहल्ले के कुछ बड़े बूढ़े बैठ कर मुआमले का फ़ैसला करते हैं कि यूसुफ़ बच कर भागना चाहता था, इसी लिए कुरते का पिछला दामन ज़ुलैखा के हाथ लगा. मुखिया ज़ुलैखा को कुसूर वार ठहराते हैं और बाद में ज़ुलैखा भी अपनी ग़लती को तस्लीम कर लेती है. 
इससे मोहल्ले की औरतों में उसकी बदनामी होती है कि वह अपने ग़ुलाम पर रीझ गई. जब ये बात ज़ुलैखा के कानों तक पहुंची तो उसने ऐसा किया कि मोहल्ले की जवान औरतों की दावत की और सबों को एक एक चाक़ू थमा दिया फ़िर यूसुफ़ को आवाज़ लगाई. यूसुफ़ दालान में दाखिल हुवा तो हुस्ने यूसुफ़ देख कर औरतों ने चाकुओं से अपने अपने हाथों की उँगलियाँ काट लीं.
अपने तईं औरतों की दीवानगी देख कर यूसुफ़ को अंदेशा होता है कि वह कहीं किसी गुनाह का शिकार न हो जाए, अज़ खुद जेल खाने में रहना बेहतर समझता है. 
जेल में उसके साथ दो ग़ुलाम क़ैदी और भी होते हैं जिनको वह ख़्वाबों की ताबीर बतलाता रहता है जो कि सच साबित होती हैं. कुछ ही दिनों बाद वह कैदी रिहा हो जाते हैं.
एक रात बादशाह ए मिस्र एक अजीब ओ ग़रीब ख्व़ाब देखता है कि दर्याए नील से निकली हुई सात तंदुरुस्त गायों को सात लाग़ुर गाएँ खा गईं और सात हरी बालियों के साथ सात सूखी बालियाँ मौजूद हैं. सुब्ह को बादशाह ने ख्व़ाब की चर्चा अपने दरबारियों में की मगर ख्व़ाब की ताबीर बतलाने वाला कोई आगे न आ सका. ये बात उस गुलाम क़ैदी तक पहुँची जो कभी यूसुफ़ के साथ जेल में था. उसने दरबार में ख़बर दी कि जेल में पड़ा इब्रानी क़ैदी ख़्वाबों की सही सही ताबीर बतलाता है, उस से बादशाह के ख्व़ाब की ताबीर पूछी जाए, बेतर होगा.
यूसुफ़ को जेल से निकाल कर दरबार में तलब किया जाता है. ख्व़ाब को सुन कर ख्व़ाब की ताबीर वह इस तरह बतलाता है कि आने वाले सात साल फसलों के लिए ख़ुश गवार साल होंगे और उसके बाद सात साल खुश्क साली के होंगे. सात सालों तक बालियों में से अगर ज़रुरत से ज़्यादः दाना न निकला जाए तो अगले सात साल भुखमरी से अवाम को बचाया जा सकता है.
फ़िरआना (फिरौन) इसकी बतलाई हुई ताबीर से ख़ुश होता है और यूसुफ़ को जेल से दरबार में बुला कर इसका ज़ुलैखा से मुतालिक़ मुक़दमा नए सिरे से सुनता है, पिछला दामन ज़ुलैखा के हाथ में रह जाने की बुनियाद पर यूसुफ़ बा इज़्ज़त बरी हो जाता है. यूसुफ़ को इस मुक़दमे से और ख्व़ाब की ताबीर से इतनी इज़्ज़त मिलती है कि वह बादशाह के दरबार में वज़ीर हो जाता है.
बादशाह के ख्व़ाब के मुताबिक सात साल तक मिस्र में बेहतर फसल होती है जिसको यूसुफ़ महफूज़ करता रहता है, इसके बाद सात सालों की क़हत साली आती है तो यूसुफ़ अनाज के तक़सीम का काम अपने हाथों में लेलेता है. क़हत की मार यूसुफ़ के मुल्क कन्नान तक पहुँचती है और अनाज के लिए एक दिन यूसुफ़ का सौतेला भाई भी उसके दरबार में आता है जिसको यूसुफ़ तो पहचान लेता है मगर वज़ीर ए खज़ाना को पहचान पाना उसके भाई के लिए ख्वाब ओ ख़याल की बात थी. यूसुफ़ उसकी ख़ास खातिर करता है और उसके घर की जुगराफ़िया उसके मुँह से उगलुवा लेता है. वक़्त रूखसत यूसुफ़ अपने भाई को दोबारा आने और गल्ला ले जाने की दावत देता है और ताक़ीद करता है कि वह अपने छोटे भाई को ज़रूर ले आए.( दर अस्ल छोटा भाई यूसुफ़ का चहीता था, इसका नाम था बेन्यामीन). यूसुफ़ ने वह रक़म भी अनाज की बोरी में रख दी जो गल्ले की क़ीमत ली गई थी. यूसुफ़ का सौतेला भाई जब अनाज लेकर कन्नान बाप याक़ूब के पास पहुँचा तो वज़ीर खज़ाना मिस्र की मेहर बानियों का क़िस्सा सुनाया और कहा कि चलो खाने का इंतेज़ाम हो गया और साथ में यह भी बतलाया कि अगली बार छोटे बेन्यामीन को साथ ले जाएगा, जिसे सुन कर याक़ूब चौंका, कहा कहीं यूसुफ़ की तरह ही तुम इसका भी हश्र तो नहीं करना चाहते? मगर बाद में राज़ी हो गया. कुछ दिनों के बाद याक़ूब के कुछ बेटे बेन्यामीन को साथ लेकर मिस्र अनाज लेने के लिए पहुँचते हैं. यूसुफ़ अपने भाई बेन्यामीन को अन्दरूने महेल ले जाता है और इसे लिपटा कर खूब रोता है और अपनी पहचान को ज़ाहिर कर देता है. वह आप बीती भाई को सुनाता है और मंसूबा बनाता है कि तुम पर चोरी का इलज़ाम लगा कर वापस नहीं जाने देंगे, गरज़ ऐसा ही किया. बगैर बेन्यामीन के यूसुफ़ के सौतेले भाई याकूब के पास पहुँचे तो उस पर फ़िर एक बार क़यामत टूटी. उसने सोचा कि यूसुफ़ की तरह ही बेन्यामीन को भी इन लोगों ने मार डाला.कुछ दिनों बाद यूसुफ़ सब को मुआफ़ कर देता है और बादशाह के हुक्म से सब भाइयों, माओं और बाप को मिस्र बुला भेजता है। याकूब के बेटे याकूब को, यूसुफ़ की माँ को लेकर यूसुफ़ के पास पहुँचते हैं, यूसुफ़ अपने माँ बाप को तख़्त शाही पर बिठाता है, उसके सभी ग्यारह भाई उसके सामने सजदे में गिर जाते हैं, तब यूसुफ़ अपने बाप को बचपन में देखे हुए अपने ख्व़ाब को याद दिलाता है कि मैं ने चाँद और सूरज के साथ ग्यारह सितारे देखे थे जो कि उसे सजदा कर रहे थे, उसकी ताबीर आप के सामने है.'' 



जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

elaan

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.
**************

एलान 

डर से , मसलेहत से या नादानी से, 
अभी तक मैं इंटर नेट पर अपनी पर्दा पोशी कर रहा  था 
 मेरी उम्र ७१+ हो चुकी है और अब इतनी बलूग़त 
आ गई है की मैं  अपनी हकीकत अयाँ कर दूँ . 
मेरी तस्वीर जो ब्लॉग पर लगी हुई है 
वह मेरा नौ साल का बचपन है ,
आज से ब्लॉग पर मेरी आज की मौजूदा तस्वीर होगी. 
मेरा नाम मुहम्मद जुनैद खां , 
मेरे वालदैन का रख्खा हुवा  है.
सिने - बलूग़त में आने के बाद  मैंने अपने नाम में "मुहम्मद और खान "को 
ग़ैर ज़रूरी और बेमानी समझ कर निकाल दिया. 
बहुत दिनों तक मैं जुनैद मानव मात्र के नाम से लिखता रहा ,
जब मैंने क़ुरआन में लफ्ज़ "मुंकिर " के मतलब को समझा ,
 बस दूसरे लम्हे ही मुंकिर मुझे भा गया . 
मुन्किर का मतलब है इस्लाम में रह कर  , 
इससे बाहर जाना है ,
 जिसकी सजा क़त्ल है. 
अपनी ज़ाती  समझ और शऊर पाने के बाद मैं इस्लामयात को नहीं मानता , 
मुझे मुल्हिद भी कह सकते हैं. 
 इन सच्चाई के बाद मैं खुद को सदाक़त के हवाले कर दिया  और जुनैद मुंकिर हो गया .  
शुक्र है मैं किसी इस्लामी मुल्क में नहीं हूँ 
वरना अब तक मंसूर के अंजाम को जा लगता . 
दूसरी बात ,  मेरे मज़ामीन में मुस्लिम बनाम मोमिन की लंबी बहसें मिलती है , 
मोमिन को जान लेने के बाद 
मुझे मोमिन लफ्ज़ अज़ीज़ है.  
मेरी तहरीक कभी नज़्म (शायरी) में होती है 
तो कभी नस्र में .  
नज़्म में मैं मुंकिर को अपने तखल्लुस की जगह लाता हूँ 
और नस्र में जीम  मोमिन रहता हूँ .
 आइन्दा जीम= जुनैद होगा . 
अब मुझे सच होने , सच बोलने और सच लिखने से कोई डर नहीं लगता . 
८-१२-१९४४ से २२-१-२०१६  ++++
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जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Monday 18 January 2016

Soorah Hood 11 Qist 3

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.
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सूरह हूद-११
(तीसरी किस्त)
झूट का पाप,
क़ुरआन का आप 



बहुत ही अफ़सोस के साथ लिखना पड़ रहा है कि क़ुरआन वह किताब है जिसमें झूट की इन्तेहा है. हैरत इस पर है कि इसको सर पे रख कर मुसलमान सच बोलने की क़सम खाता है, अदालतों में क़ुरआन उठा कर झूट न बोलने की हलफ बरदारी करता है. 
क़ुरआन में मुहम्मद कभी मूसा बन कर उनकी झूटी कहनियाँ गढ़ते हैं तो कभी ईसा बन कर उनके नक़ली वाकेए बयान करते हैं. वह अपने हालात को कभी सालेह की झोली में डाल कर अवाम को बेवकूफ बनाते हैं तो कभी सुमूद की झोली में. जिन जिन यहूदी नबियों का नाम सुन रखा है सब के सहारे से फ़र्ज़ी कहानियाँ बड़े बेढंगे पन से गढ़ते हैं और क़ुरआन की आयतें तय्यार करते है. 
अल्लाह से झूटी वार्ता लाप, जन्नत की मन मोहक पेशकश और दोज़ख के भयावह नक्शे. झूट के पर नहीं होते, जगह जगह पर भद्द से गिरते हैं. खुद झूट के जाल में फँस जाते हैं. जहन्नमी ओलिमा को इन्हें निकलने में दातों पसीने आ जाते हैं. वह मज़हब के कुछ मुबहम, गोलमोल फार्मूले लाकर इनकी बातों का रफू करते हैं जो मुस्लमान भेड़ें सर हिला कर मान लेती हैं. मुहम्मद खुल्लम खुल्ला इतना झूट बोलते हैं कि कभी कभी तो अपने अल्लाह को भी ज़लील कर देते हैं और ओलिमा को कहना पड़ता है 
''लाहौल वला क़ूवत''अल्लाह के कहने का मतलब यह है ( ? )
यही वजेह है कि क़ुरआन पढने की किताब नहीं बल्कि तिलावत (पठन-पाठन) का राग माला रह गया है। गो कि इस्लाम में गाना बजाना हराम है मगर क़ुरआन के लिए किरअत की लहनें बन गई है यह लहनें भी एक राग है मगर इसे हलाल कर लिया गया है. क़ुरआन को लहेन में गाने का आलमी मुकाबिला होता है. इसके अलावा इसको पढ़ कर मुर्दों को बख्शा जाता है, इसको पढने से जिदों को मुर्दा होने के बाद उज्र मिलता है. और यह अदालतों में हलफ उठने के काम भी आता है. मैं हलफ लेकर कह सकता हूँ कि क़ुरआन की आयतें ही भोले भाले मुसलमानों को जेहादी बनाती हैं। और मुस्लिम ओलिमा क़ुरआन उठा कर अदालत में बयान दे सकते हैं कि क़ुरआन सिर्फ अम्न का पैगाम देता है.

मैं इस बात को फिर दोहराता हूँ कि तौरेत (OLD TESTAMENT) दुन्या का प्राचीनतम इतिहास है, अगर इसमें से विश्व की रचना और आदम की काल्पनिक कहानी को निकाल दिया जाय तो इसकी लेखनी गवाह है कि गुणगान के साथ साथ हस्ती के अवगुण भी विषय में साफ़ साफ़ हैं.
 बाबा अब्राहाम के बाद तो इस पर शक करना गुनाह जैसा लगता है. इसके बर अक्स मुहम्मदी अल्लाह के कुरआन के किसी बात पर यक़ीन करना गुनाह ही नहीं बल्कि बेवकूफ़ी और हराम जैसा लगता है. तौरेत के मुताबिक़ इब्राहीम के बाप तेराह (आज़र) ने अपने बेटे, बहू और भतीजे लूत को परदेस जाने का मशविरा दिया कि बद हाली से नजात मिले। वह मुसीबतें उठाते हुए मिस्र के बादशाह के पनाह में कुछ दिन रहे फिर भेड़ पालन का पेशा अख्तियार किया जो इतना फला फूला कि वह मालदार हो गए, मॉल आया तो दोनों में बटवारे की नौबत आ गई बटवारा मज़ेदार हुआ काले रंग और सफेद रंग की भेड़ें अलग अलग करके एक एक रंग की भेड़ें दोनों ने ले लीं। यह भी तै हुवा कि दोनों विपरीत दिशा में इतनी दूर तक चले जाएँ कि एक दूसरे का सामना न हो. बाकीक़ुरआनी ऊट पटाँग के बाद - - - 

''और उनको खुश ख़बरी मिली और हम से लूत के कौम के बारे में जद्दाल करना शुरू किया (यहाँ पर आलिम ने जुमले में इल्मे नाकिस की तफ़सीर गढ़ी है). ऐ इब्राहीम इस बात को जाने दो, तुम्हारे रब का हुक्म आ पहुंचा है और उन पर ज़रूर ऐसा अज़ाब आने वाला है जो किसी तरह हटने वाला नहीं. जब हमारे भेजे हुए लूत के पास आए तो वह उनकी वजेह से मगमूम हुए और इनके आने के सबब तन्ग दिल हुए और कहने लगे आजका दिन बहुत भारी है और उनकी कौम उनकी तरफ़ दौड़ी हुई आई. और वह पहले से ही नामाक़ूल हरकतें किया ही करते थे. वह फ़रमाने लगे ऐ मेरी कौम यह मेरी बेटियाँ जो मौजूद हैं वह तुम्हारे लिए खासी हैं सो अल्लाह से डरो और मेरे मेहमानों में मेरी फ़जीहत मत करो. क्या तुम में कोई भी भला मानुस नहीं?''
सूरह हूद -११, १२-वाँ परा आयत (७४-७८)
मुहम्मद ने कहानी अधूरी और फूहड़ ढंग से गढ़ी है जिसे अल्लाह के इस्लाहियों ने इसकी इस्लाह करके कहानी को मुकम्मल किया है।

कहानी यूँ है कि फ़रिश्ते लूत के घर मेहमान बन कर आए तो बस्ती वालों ने उनके साथ दुराचार करने की फ़रमाइश करदी. लूत ने कहा मेहमानों की लाज रखो भले ही मेरी बेटियों को भोग लो.कहाँ लूत एक गडरिया बन कर खासी भेड़ों का मालिक बन गया था और मुहम्मद उसको बड़ी उम्मत का पयम्बर बतला रहे हैं। हाँ! लूत इस बस्ती में पनाह गुजीन था, अपनी बीवी और दो बेटियों के साथ. 
''वह लोग कहने लगे कि आप को तो मालूम है कि हमें आप की बेटियों की ज़रुरत नहीं है और आप को मालूम है जो हमारा मतलब है. वह फ़रमाने लगे क्या खूब होता अगर मेरा तुम पर कुछ ज़ोर चलता या मैं किसी मज़बूत पाए की पनाह पकड़ता. वह कहने लगे ऐ लूत हम रब के भेजे हुए हैं, आप तक हरगिज़ इनकी रसाई न होगी.सो आप रात के किसी हिस्से में अपने घर वालों को लेकर चलिए और तुम में से कोई फिर के भी न देखे मगर आप की बीवी इस पर भी वही आने वाली है जो और लोगों पर आएगी। क्या सुब्ह क़रीब नहीं?''
सूरह हूद -११, १२-वाँ परा आयत (७९-८१)
तर्जुमानों ने मुहम्मदी अल्लाह की मदद करते हुए साफ़ किया कि बस्ती के इगलाम बाज़ लोग फरिश्तों के साथ दुराचार नहीं कर पाए और वह सुब्ह होते होते बच कर लूत और उसकी बेटियों को लेकर बस्ती से निकल चुके थे. उनके निकलते ही बस्ती उलट गई थी.तौरेती इतिहास कहता है सोदेम नाम की बस्ती में लूत बस गया था जहाँ के लोग बड़े पापी और दुराचार थे वक़ेआ कुरआन से मिलता जुलता है कि बस्ती पर तेजाबी बारिश हुई, 
लूत की बीवी ने पलट कर बस्ती को देखतो नमक का खम्बा बन गई.
लूत अपनी दोनों बेटियों को लेकर पहाड़ियों पर रहने लगा.तौरेत सच्चाई का दामन थामे हुए कहती है कि पहाड़ियों पर दूर दूर तक आदम न आदम ज़ाद, बस यही तीन बन्दे अकेले रहते थे.
लूत की दोनों बेटियां फ़िक्र मंद होने लगीं कि दस्तूर ए ज़माना के हिसाब से कौन यहाँ आयगा जो हम से शादी करेगा ? दोनों ने आपस में तय किया कि बूढ़े बाप लूत को शराब पिला कर इसे नशे के आलम में लें कि इस को कुछ होश न रहे, फिर बारी बारी हम दोनों रात को इस के पास सोएँ ताकि औलाद हासिल कर सकें और दोनों ने ऐसा ही किया. इस तरह दोनों को एक एक बेटे हुए. बड़ी बेटी के बेटे का नाम मुआब पड़ा, और छोटी बेटी के बेटे का नाम बैनअम्मी. यही दोनों आगे चलकर मुआबियों और अम्मोनियों के मूरिसे आला बने.
मुहम्मदी कुरआन होता तो इस मुआमले को कितना उलट फेर करता जब कि खुद मुहम्मद अपनी बहू ज़ैनब के साथ खुली बदकारी में रंगे हाथों पकडे गए और क़ुरआनी आयतें मौक़ूफ करके उसे अपनी बिन ब्याही बीवी बना कर रक्खा। तौरेत की सिफ़त यही है कि वह सच बोलती है। अक़ीदे की बातें अलग हैं.

''अल्लाह का दिया हुवा जो कुछ बच जावे वह तुम्हारे लिए बदरजहा बेहतर है, अगर तुम को यक़ीन आवे. और मैं तुम्हारा पहरा देने वाला तो हूँ नहीं.''८६
'' इन में इस शख्स के लिए के लिए बड़ी इबरत है जो आखरत के अज़ाब से डरता हो, वह ऐसा दिन होगाकि इस में तमाम आदमी जमा किए जाएँगे और वहहाज़री का दिन है'' १०३
'' और हम इसको थोड़ी मुद्दत के लिए मुल्तवी किए हुए हैं ''१०४
'' जिस वक़्त वह दिन आएगा कोई शख्स बगैर उसके इजाज़त के बात भी न कर सकेगा, फिर इन में बअज़े तो शक्की होंगे बअज़े सईद होंगे.''१०५'' 
जो लोग सक्की होंगे वोह दोज़ख में होंगे कि इस में इन की चीख पुकार पड़ी रहेगी.''१०६
''और रह गए वह लोग जो सईद हैं सो वह जन्नत में होगे और हमेशा हमेशा उस में रहेंगे, जब तक आसमान और ज़मीं कायम है - - - ''१०८
इसी किस्म की बातें कुरआन में दोहराई तिहराई नहीं बल्कि सौहाई गई हैं। तालीम की कमी के बाईस बेचारा आम मुसलमान दुन्या में आकर अपनी जिंदगी गँवा कर, लुटवा कर और मुल्लों से ठगवा कर चला जाता है. क्या रक्खा है अल्लाह की इन खोखली आयातों में जो चौदह सौ सालों से एक बड़ी आबादी को गुमराह किए हुए हैं? 

''और अगर आप के रब को मंज़ूर होता तो सब आदमियों को एक ही तरीका का बना देते और वह हमेशा इख्तेलाफ़ करते रहेंगे.मगर जिस पर आप के रब की रहमत हो.और इसने लोगों को इसी वास्ते पैदा किया है और आप के रब की बात पूरी होगी कि मैं जहन्नम को जिन्नात और इन्सान दोनों से भर दूंगा.
सूरह हूद -११, १२-वाँ परा आयत (११६-११९)

यहाँ पर मुहम्मद की अंजान जेहालत ने खुद अपने ख़िलाफ़ मज़मून साफ़ कर दिया है कि उनका अल्लाह कोई ''हिररहमान निररहीम'' नहीं बल्कि एक पिशाच, खूंखार आदम ख़ोर दोज़ख का महा जीव है जिस ने इंसान ही नहीं बल्कि जिन्नात को भी अपना निवाला बनाने की क़सम खा रखी है. उसने इंसान को पैदा ही इसी लिए किया है कि उनको अपनी खुराक बनाएगा, जैसे हम मछली पालन और पोल्ट्री फार्म वास्ते खूराक मुहय्या करते हैं. तर्जुमान और मुफस्सिरान ए कुरआन ने एडी चोटी का जोर लगा दिया है, नफी को मुसबत पहलू करने में.


जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Friday 15 January 2016

Soorah Hood 11 Qist 2

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.
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सूरह हूद-११ 
(दूसरी किस्त)

मोमिन बनाम मुस्लिम 

मुसलामानों खुद को बदलो. बिना खुद को बदले तुम्हारी दुन्या नहीं बदल सकती. तुमको मुस्लिम से मोमिन बनना है. तुम अच्छे मुस्लिम तो ज़रूर हो सकते हो मगर मोमिन क़तई नहीं, इस बारीकी को समझने के बाद तुम्हारी कायनात बदल सकती है.
 मुस्लिम इस्लाम कुबूल करने के बाद ''लाइलाहाइल्लिल्लाह मुहम्मदुर रसूल लिल्लाह'' यानि अल्लाह वाहिद के सिवा कोई अल्लाह नहीं और मुहम्मद उसके पयम्बर हैं. 
मोमिन फ़ितरी यानी कुदरती रद्दे अमल पर ईमान रखता है. ग़ैर फ़ितरी बातों पर वह यक़ीन नहीं रखता,
 मसलन इसका क्या सुबूत है कि मुहम्मद को अल्लाह ने अपना पयम्बर बना कर भेजा. इस वाकेए को न किसी ने देखा न अल्लाह को पयम्बर बनाते हुए सुना. 
जो ऐसी बातों पर यक़ीन या अक़ीदत रखते हैं वह मुस्लिम हो सकते हैं मगर मोमिन कभी भी नहीं. 
मुस्लमान खुद को साहिबे ईमान कह कर आम लोगों को धोका देता है कि लोग उसे लेन देन के बारे में ईमान दार समझें, 
उसका ईमान तो कुछ और ही होता है, वह होता है 
''लाइलाहाइल्लिल्लाह मुहम्मदुर रसूल लिल्लाह'' 
इसी लिए वह हर बात पर इंशा अल्लाह कहता है. यह इंशा अल्लाह उसकी वादा खिलाफ़ी, बे ईमानी, धोखा धडी और हक़ तल्फ़ी में बहुत मदद गार साबित होता है. 
इस्लाम जो ज़ुल्म, ज़्यादती, जंग, जूनून, जेहाद, बे ईमानी, बद फेअली, बद अक़ली और बेजा जिसारत के साथ सर सब्ज़ हुवा था, उसी का फल चखते हुए अपनी रुसवाई को देख रहा है. 
ऐसा भी वक्त आ सकता है कि इस्लाम इस ज़मीन पर शजर-ए-मम्नूअ बन जाय और आप के बच्चों को साबित करना पड़े कि वह मुसलमान नहीं हैं. इससे पहले तरके इस्लाम करके साहिबे ईमान बन जाओ. 
वह ईमान जो २+२=४ की तरह हो, जो फूल में खुशबू की तरह हो, जो इंसानी दर्द को छू सके, जो इस धरती को आने वाली नस्लों के लिए जन्नत बना सके. 
उस इस्लाम को खैरबाद करो जो ''लाइलाहाइल्लिल्लाह मुहम्मदुर रसूल लिल्लाह'' जैसे वह्म में तुमको जकड़े हुए है. 

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दुन्या को गुमराह किए हुए सब से बड़ी किताब की तरफ चलते हैं और देखते हैं कि यह किस तरह दुन्या की २०% आबादी को पामाल और ख्वार किए हुए है और इस के खुद ग़रज़ आलिमानेदीन इसकी पर्दा पोशी कब तक करते रहेंगे - - - 

''और हमारा कौल तो ये है कि हमारे माबूदों में से किसी ने आपको किसी ख़राबी में मुब्तिला कर दिया है, फ़रमाया मैं अलल एलान अल्लाह को गवाह करता हूँ और तुम को भी गवाह करता हूँ कि मैं इन चीजों से बेज़ार हूँ जिनको तुम अल्लाह का शरीक क़रार देते हो.''
सूरह हूद -११, १२-वाँ परा आयत (५४)
उनका कौल आज भी हक़ बजानिब है कि बुत अगर कुछ फ़ायदा नहीं पहुचाते तो कोई ज़रर भी नहीं, मगर अल्लाह तो बहुत ही खतरनाक साबित हुवा. गौर करें ईमान दारी से.
मुहम्मद हूद का किरदार बन कर बुत परस्तों के दरमियान इस्लाम का प्रचार कर रहे हैं. लोग पूछते हैं कि कोई ठोस दलील तो आपने पेश नहीं किया, यूँ ही आपके कहने पर अपने पूज्य को हम तर्क करने से रहे, अच्छा यही बतलाओ कि तुमको कोई इनसे नुकसान पहुँचा? किसी ने आप को ख़राबी में मुब्तिला कर दिया है? ज़रा गौर कीजिए इन माक़ूल सवालों का ग़ैर माक़ूल जवाब ''मैं अलल एलान अल्लाह को गवाह करता हूँ और तुम को भी गवाह करता हूँ कि मैं इन चीजों से बेज़ार हूँ जिनको तुम अल्लाह का शरीक क़रार देते हो.'' ज्वाला मुखी के मुँह से आग की दरिया और ग्लेशियर से बर्फ के तोदे बहाने वाली कुदरत इस किस्म की नामार्दों की बातें लेकर बैठी है। मुसलमानों आँखें खोलो. अपनी नस्लों को बचाओ मुहम्मदी फरेब से. 

''सो तुम सब मिल कर मेरे साथ दाँव घात कर लो, फिर मुझको ज़रा मोहलत न दो, मैंने अपने अल्लाह पर तवक्कुल कर लिया है जो मेरा भी मालिक है और तुम्हारा भी मालिक है. जितने चलने वाले हैं सब कीचोटी इसने पकड़ रखी है. यकीनन मेरा रब सिरात-ए-मुस्तकीम है.''
सूरह हूद -११, १२-वाँ परा आयत (५५-५६)
ये बे वज़न बातें, ये पागल पन की दलीलें, ये बकवास, ये खुराफ़ाती झक क्या किसी अल्लाह का कलाम हो सकता है? 

''और जब हमारा हुक्म पहुँचा (अज़ाब के लिए)तो हमने हूद को और जो इनके हमराह अहले ईमान थे उनको अपनी इनायत से बचा लिया और उनको एक सख्त अज़ाब से बचा लिया.''
सूरह हूद -११, १२-वाँ परा आयत (५८)
अहले इल्म कुरआन में जाहिल मुहम्मद के इन तमाम जुमलों पर गौर करें, बजाए इसके कि ब्रेकेट लगा लगा कर इसमें बेशर्मी के साथ मानी-ओ-मतलब पैदा करने के..
''खूब सुन लो आद ने अपने रब के साथ कुफ़्र किया, खूब सुन लो, रहमत से दूरी हुई, आद को जो कि हूद की कौम थी.''
सूरह हूद -११, १२-वाँ परा आयत (६०)
मुहम्मद ने पच्चीस साल की उम्र तक मक्का वालों की बकरियाँ चराई है, हलीमा दाई के सुपुर्द होने के बाद उनके तमाम क़िस्से मामूली हैं हक़ीक़त यही है। इस दौरान इनसे इतना न हुआ कि पढना लिखना ही सीख लेते . बन गए अल्लाह के रसूल और गढ़ने लगे अल्लाह का कलाम. पूरा कुरान ऐसे ही कूड़े का अम्बार है. मैं तो आपको झलक भर दिखला रहा हूँ. एक एक नामों से क़िस्से कहानियाँ बार बार दोहराई गई हैं। 

''और हमने समूद को पास उनके भाई सालेह को भेजा, उन्हों ने फ़रमाया, ए मेरी कौम तुम अल्लाह की इबादत करो। इसके सिवा कोई तुम्हारा माबूद नहीं. इसने तुमको ज़मीन से पैदा किया और इसने तुम को इस में आबाद किया तो तुम अपने गुनाह इस से मुआफ़ कराओ, फिर इसकी तरफ़ मुतवज्जह रहो. बेशक मेरा रब क़रीब है क़ुबूल करने वाला.''
सूरह हूद -११, १२-वाँ परा आयत (६१)
गोया अल्लाह के इर्तेकाब जुर्म का हवाला है, ''ज़मीन से पैदा किया और इसने तुम को इस में आबाद किया तो तुम अपने गुनाह इस से मुआफ़ कराओ'' और इसके लिए उसी से मुआफी भी. कभी अल्लाह उछलते हुए पानी से इन्सान को पैदा करता है, कभी खून के लोथड़े से और अब ज़मीन से.
मुहम्मद ४०साल तक मिटटी पत्थर और मुख्तलिफ धात के बने बुतों के पुजारी रहने के बाद अचानक एक वाहिद माबूद, हवा के बुत की पूजा करने लगे और उसका प्रचार भी करने लगे, लोग कहने लगे अच्छे खासे हमीं जैसे थे, यह तुमको हो क्या गया है? इन्हीं सवालों और बहसों को सैकड़ों बार जिन जिन नाबियों का नाम सुन रखा था उनके साथ गढ़ गढ़ कर कुरआन तैयार किया - - - 
''लोग कहने लगे कि ऐ सालेह तुम तो इस से क़ब्ल हम में होनहार थे, क्या तुम हम को इन चीज़ों से मना करते हो जिसकी इबादत तुम्हारे बुज़ुर्ग किया करते थे? और तुम जिस तरफ हमको बुला रहे हो हम वाक़ई बड़े शुब्हे में हैं. आपने फ़रमाया ऐ मेरी कौम! यह तो बताओ कि अगर मैं अपने रब की जानिब से दलील पर हूँ , उसने अपनी तरफ मुझ पर रहमत अता फरमाई है तो अगर मैं अल्लाह का कहना न मानूँ तो मुझे कौन बचाएगा. तुम तो सरासर मेरा नुकसान ही कर रहे हो.''
सूरह हूद -११, १२-वाँ परा आयत (६३)
ये है पुर दलील और हिकमत का कुरान। 

आवारा ऊटनी की गाथा फिर मुहम्मद दोहराते हैं और पल झपकते ही समूद आकर ग़ायब हो जाते हैं
एक बार इब्राहीम अलैहिस्सलाम मय अपनी बीवी सारा के फिर पकडे जाते हैं- - -
''और हमारे भेजे हुए इब्राहीम के पास बशारत लेकर आए, उन्हों ने सलाम किया, उन्हों ने भी सलाम किया, फिर देर न लगाई कि एक तला हुवा बछड़ा लाए. सो उन्हों ने देखा कि उनके हाथ इस तक नहीं बढ्हते तो उन से मुत्वहहिश हुए और उनसे दिल में खौफ ज़दा हुए. वह कहने लगे डरो मत हम कौम लूत की तरफ भेजे गए हैं और इनकी बीवी खड़ी थीं, पस हसीं, सो हमने बशारत देदी इनको इस्हाक़ की और इस्हाक़ से पीछे याकूब की. कहने लगीं कि हाय खाक पड़े अब मैं बच्चा जनूं बुढ़िया होकर और यह मेरे मियाँ हैं बिलकुल बूढ़े. वाकई अजीब बात है. कहा क्या तुम अल्लाह के कामों में तअज्जुब करती हो. इस खानदान के लोगो! तुम पर तो अल्लाह की रहमत और इसकी बरकतें हैं.बेशक वह तारीफ़ के लायक बड़ी शान वाला है.
सूरह हूद -११, १२-वाँ परा आयत (६८-७३)
मुसलामानों देखो कि यह एक चरवाहे का कलाम है जिसको बात करने की भी तमीज़ नहीं, कम अज़ कम आम आदमी की तरह क़िस्सा गोई ही कर पाता, बात को वाज़ेह कर पाता। मुतरज्जिम को इस उम्मी की काफी मदद करनी पड़ी फिर भी कहानी के बुनियाद को वह क्या करता. मुहम्मद के रक्खे गए बेसिर पैर की बुन्याद को कैसे खिस्काता? क्या अल्लाह के नाम पर ऐसी जग हँसाई करवाना इस सदी में आप को ज़ेबा देता है? 
क्या मुहम्मद उमर कैरान्वी की तरह बे गैरती के घूँट आपने भी पी रखी हैं? उसकी तो रोटी रोज़ी का मसअला है मगर आप ज़मीर फरोश तो नहीं हैं.

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Tuesday 12 January 2016

Soorah hood 11 qist 1

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं
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.सूरह हूद-११ 
(पहली किस्त)
मुनाफ़िक़-ए-इंसानियत

मुसलमानों में दो तबके तालीम याफ़्ता कहलाते हैं, पहले वह जो मदरसे से फरिगुल तालीम हुवा करते हैं और समाज को दीन की रौशनी (दर अस्ल अंधकार) में डुबोए रहते हैं, दूसरे वह जो इल्म जदीद पाकर अपनी दुन्या संवारने में मसरूफ़ हो जाते हैं. 
मैं यहाँ दूसरे तबके को ज़ेरे बहेस लाना चाहूँगा. इनमें जूनियर क्लास के टीचर से लेकर यूनिवर्सिटीज़ के प्रोफ़सर्स तक और इनसे भी आगे डाक्टर, इंजीनियर और साइंटिस्ट तक होते हैं. इब्तेदाई तालीम में इन्हें हर विषय से वाकिफ़ कराया जाता है जिस से इनको ज़मीनी हक़ीक़तों की जुग्रफियाई और साइंसी मालूमात होती है. ज़ाहिर है इन्हें तालिब इल्मी दौर में बतलाया जाता है कि 
यह ज़मीन फैलाई हुई चिपटी रोटी की तरह नहीं बल्कि गोल है. ये अपनी मदार पर घूमती रहती है, न कि सकित है. सूरज इसके गिर्द तवाफ़ नहीं करता बल्कि ये सूरज के गिर्द तवाफ़ करती है. दिन आकर सूरज को रौशन नहीं करता बल्कि इसके सूरज के सामने आने पर दिन हो जाता है. आसमान कोई बगैर खम्बे वाली छत नहीं बल्कि ला महदूद है और इन्सान की हद्दे नज़र है. इनको लैब में ले जाकर इन बातों को साबित कर के समझाया जाता है ताकि इनके दिमागों से धर्म और मज़हब के अंध विश्वास ख़त्म हो जाए.
इल्म की इन सच्चाइयों को जान लेने के बाद भी यह लोग जब अपने मज़हबी जाहिल समाज का सामना करते हैं तो इन के असर में आ जाते हैं. चिपटी ज़मीन और बगैर खम्बे की छतों वाले वाले आसमान की आयतों को कठ मुल्लों के पीछे नियत बाँध कर क़ुरआनी झूट को ओढने बिछाने लगते हैं. सनेहा ये है कि यह हज़रात अपने क्लास रूम में पहुँच कर फिर साइंटिस्ट सच्चाइयां पढ़ने लगते हैं. ऐसे लोगों को मुनाफ़िक़ कहा गया है, यह तबका मुसलमानों का उस तबके से जो ओलिमा कहे जाते हैं दस गुना कौम के मुजरिम है। सिर्फ ये लोग अपनी पाई हुई तालीम का हक अदा करें तो सीधी सादी अवाम बेदार हो सकती है. मुनाफिकों ने हमेशा इंसानियत को नुकसान पहुँचाया है 
चललिए क़ुरआनी मिथ्य का मज़ा चक्खें - - -
''अलारा''
मोहमिल, अर्थहीन शब्द जिसका मतलब तथा-कथित अल्लाह को ही मालूम है। मुसलमान इसका उच्चारण छू-छटाका की नकल में करते है.

''क़ुरआन एक ऐसी किताब है जिसकी आयतें मुह्किम की गई हैं फिर साफ़ साफ़ बयान की गई हैं.''
सूरह हूद-११ -ग्यारहवाँ पारा आयत (१)
क़ुरआन की हांड़ी में जो ज़हरीली खिचड़ी पकाई गई है उसकी तारीफों के पुल बाँधे गए हैं जिसका एक नावाला भी बगैर मूज़ी ओलिमा के दिए हुए मकर के मीठे घूँट के हलक़ से नीचे उतारना मुमकिन नहीं।

''एक हकीम बा ख़बर की तरफ़ से है, ये कि अल्लाह तअला के सिवा किसी की इबादत मत करो. मैं तुम को अल्लाह तअला की तरफ़ से डराने वाला और बशारत देने वाला हूँ.''
सूरह हूद-११ -ग्यारहवाँ पारा आयत (२)
अल्लाह को वज़ाहत करने की ज़रुरत पड़ रही है कि वह हकीम बा ख़बर है, यह ज़रुरत मुहम्मद ने अपनी बेवकूफ़ाना सोच के तहत कही है, कहना चाहिए था आगाह बाखबर या हकीम बा हिकमत। ख़बर भी कैसी बेहूदा कि खुद अल्लाह कहता है कि अल्लाह तअला के सिवा किसी की इबादत मत करो? फिर खुद कहते है 'मैं तुम को अल्लाह तअला की तरफ़ से डराने वाला और बशारत देने वाला हूँ.'' सितम ये कि इसे भी कलाम इलाही कहते हैं. 

'' मुहम्मद माहौल का जायजा लेकर एक एक फ़र्द के तौर तरीके देख कर अल्लाह से वहियाँ नाज़िल करते हैं. लोगों को गुमराह करते हैं कि दुन्या दारी को तर्क करके मुकम्मल तौर पर दीन की राह को अपना लो. अल्लाह से डरते रहने की राय देते हैं. अपनी नबूवत पर इनका यक़ीन कामिल है मगर लोगयक़ीन नहीं करते.''
सूरह हूद-११- ११वाँ १२वाँ पारा आयत (३-६)
हम खुद को कुछ भी समझने लगें, क्या हक है मुझे कि अपनी ज़ात को सब से मनवाएं? तबलीग करके, तहरीक चला के, लड़ झगड़ के, क़त्लो गारत गरी करके, जेहाद करके और तालिबानी बन के।

''अल्लाह छ दिनों में कायनात की तकमील को फिर दोहराता है, इसमें एक नई बात जोड़ता है कि इसके पहले अर्श पानी पर था ताकि तुम्हें आजमाए कि तुम में अच्छा अमल करने वाला कौन है?''
सूरह हूद-११- ११वाँ १२वाँ पारा आयत (७)
एक साहब एक बड़े इदारे में डाक्टर हैं, फ़रमाने लगे कि कुरआन को समझना हर एक के बस की बात नहीं. बड़े रुतबे वाले हैं, मशहूर फिजीशियन हैं, बीवी बच्चियों को सख्त पर्देदारी में रखते हैं. काश मज़्कूरह आयत को रख कर मैं उन से कुरआन को समझ सकता.
गौर तलब है कि मज़्कूरह आयत में मुहम्मदी अल्लाह को तमाज़ते गुफ्तुगू भी नहीं है कि वह क्या बक रहा है? अर्श पानी पर था तो फर्श कहाँ था? क्या मुहम्मद के सर पे जहाँ लोग आज़माइश का अमल करते थे। बड़ा पुख्ता सुबूत है मुहम्मद के मजनू होने का.

*मुहम्मद अपनी शायरी पर नाज़ करते हुए कहते हैं - - -
'' काफ़िर कुरआन को सुनकर कहते हैं यह तो निरा और साफ़ जादू है.''
सूरह हूद-११- ११वाँ १२वाँ पारा आयत (७)
मगर शरअ (धर्म विधान) और शरह (व्याख्या) दोनों के लिए अनपढ़ नबी ने मुश्किल खड़ी कर दी है. मुहम्मद ने अपने कलाम में जादूई असर बतला कर कलाम की तारीफ़ की है मगर शरअन जादू का असर झूट का असर होता है, इसलिए कुरआन झूठा साबित हो रहा है, इस लिए अय्यार आलिम यहाँ नौज बिल्लाह कहकर अल्लाह के कलाम की इस्लाह करने लगते हैं। मुहम्मद के कलाम में न जादूई असर है न सुब्हान अल्लाह, है तो बस नौज बिल्लाह है. 

*कयामत की रट सुनते सुनते थक कर काफ़िर कहते हैं - - -
''इसे कौन चीज़ रोके हुए है ? आए न - - -'' मुहम्मद कहते हैं '' याद रखो जिस दिन वह अज़ाब उन पर आन पड़ेगा, फिर टाले न टलेगा और जिसके साथ वहमज़ाक कर रहे हैं वह आ घेरेगा.''
सूरह हूद-११- ११वाँ १२वाँ पारा आयत (८)
चौदहवीं सदी हिजरी भी गुज़र गई, कि कयामत की मुहम्मदी पेशीनगोई थी, डेढ़ हज़ार साल गुज़र गए हैं, क़यामत नहीं आई. इस्लाम दुन्या में ज़वाल पिज़ीर और क़यामत ज़दः भी हो चुका है, दीगर कौमे मुसलसल उरूज पर हैं, क़यामत का अतापता नहीं। कई मुल्कों पर मुसलमानों पर ज़रूर क़यामत आ कर चली गई मगर अल्लाह का कयामती वादा अभी भी क़ायम है और हमेशाक़ायम रहने वाला है. 

''अगर हम इन्सान को अपनी मेहरबानी का मज़ा चखा कर छीन लेते हैं तो वह न उम्मीद और ना शुक्रा हो जाता है और जब किसी मेहरबानी का मज़ा चखा देते हैं तो इतराने और शेखी बघारने लग जाता है.''
सूरह हूद-११- ११वाँ १२वाँ पारा आयत (९-११)
ऐसी बातें कोई खुदाए अज़ीम तर नहीं बल्कि एक कम ज़र्फ़ इंसान ही कर सकता है. साथ साथ उसका बद अक़ल होना भी लाज़िम है.
मुसलामानों! क्या तुम्हारा अल्लाह ऐसी ही बकवास करता है ?

''आप का दिल इस बात से तंग होता है कि वह कहते हैं कि उन पर कोई खज़ाना नाज़िल क्यूं नहीं हुआ या उनके हमराह कोई फ़रिश्ता क्यूं नहीं आया? आप तोसिर्फ़ डराने वाले हैं.''
सूरह हूद-११- ११वाँ १२वाँ पारा आयत (१२)
मुहम्मद की मक्र मुसलमानों के दिमाग के दरीचे खोलने के लिए यह क़ुरआनी आयते ही काफी हैं। क्या जंगों में फरिश्तों को सिपाही बना कर भेजने वाला अल्लाह ऐसा नहीं कर सकता था कि दो चार फरिशेत मुहम्मद के साथ तबलीग में लगा देता, कि लोग खुद बखुद नमाज़ों के लिए सजदे में गिरे होते. लोगों का मुतालबा भी सही है कि मुहम्मद को कोई खज़ाना अल्लाह ने मुहय्या क्यूं न कर दिया कि जंगी लूट पाट के लिए लोगों को न फुसलाते?

''कहते हैं आपने क़ुरआन को खुद बना लिया है, आप कह दीजिए कि तुम भी इस जैसी दस सूरतें बना कर लाओ और जिन जिन गैर अल्लाह को बुला सको बुला लो, अगर तुम सच्चे हो.''
सूरह हूद-११- ११वाँ १२वाँ पारा आयत (१३)
वह लोग तो ऐसी बेहूदा सूरतों की अंबार लगा दिया करते थे मगर मुहम्मद बेशर्मी से अड़े रहते कि अल्लाह का मुकाबला हो ही नहीं सकता जैसे आज मुल्ला डटे रहते हैं कि बन्दा और अल्लाह का मुकाबला करे? लहौल्वलाकूवत. लग भग सारा कुरआन और इसकी तमाम सूरह ब मय जुमला आयतों के चन्द जुमले मिलना मुहाल है जिसमे बलूग़त होने के साथ साथमानी और मतलब के जायज़ पहलू हों.

''और ऐसे शख्स से बढ़ कर ज़ालिम कौन होगा जो अल्लाल तअला पर झूट बंधे - - - ''
सूरह हूद-११- ११वाँ १२वाँ पारा आयत (१८)
मुहम्मद का तकिया कलाम है कि उन लोगों को ज़ालिम कहना जो उनकी झूटी बात पर यक़ीन न करे। वह अत्याचारी है जो अल्लाह बने हुए मुहम्मद पर और उनके कलाम पर यक़ीन न करे, इस बात को इतना दोहराया गया है कि आज मुसलामानों का ईमान यही क़ुरआनी खुराफ़ात बन गई हैं. इन्तेहाई गंभीर और कौमी फ़िक्र का मुआमला है.
*आजकल मुहम्मद का नया तकिया कलाम, कलामे इलाही के लिए बना हुवा है ''अल्लाह को आजिज़ करना '' गोया अल्लाह कोई बेबस, बेचारी औरत, या बच्चा नहीं, या है भी कि जो आजिज़ और बेज़ार भी हो सकता है उम्मी का यह तकिया कलामी सिलसिला कुछ देर तक चलेगा फिर याद आएगा कि '' अल्लाह तो कुन फयाकून '' की ताक़त रखने वाला जादूगर है, कहा ''हो जा'' और हो गया. दुन्या को कहा ''हो जा!'' दुन्या हो गई. इतनी बड़ी हस्ती इन काफिरों की बातें कान लगाए आजिज़ न होने के लिए सुनती हैं? मुसलमानों यह अल्लाह के आड़ में मुहम्मद के कान हैं. क्या इतना भी तुम्हारी समझ में नहीं आता? सोचो कि दरोग़ की तुम उम्मत हो?
मुहम्मद ने वज्दानी कैफ़ियत में अपने मिशन को लेकर जो भी मुँह में आया है, बका है. तर्जुमा निगारों ने ब्रेकेट लगा लगा कर भर पूर मुहम्मदी अल्लाह की मदद की है. उसके बाद भी मंतिकियों ने तिकड़म लगा कर हाशिया पर तफ़सीर लिखी हैं. यह तमाम टीम जंगजू जेहादियों के लूट माले गनीमत के हिस्से दार हुआ करते थे. इस कुरआन, इस पुर मक्र तर्जुमा, और इस बकवास तफ़सीरों और दलीलों को सिरे से ख़ारिज कर देने की ज़रुरत है. इसी में मुसलमानों की नजात है. ज़रा देखिए क्या क्या बकवास है मुहम्मद की - - - ''और लोग कहने लगे ऐ नूह तुम हम से बहेस कर चुके, फिर बहेस भी बहुत कर चुके, सो जिस चीज़ से तुम हमको धमकाया करते हो(क़यामत), वह हमारे सामने ले आओ,अगर सच्चे हो. उन्हों ने फ़रमाया अल्लाह तअल बशर्त अगर उसे मंज़ूर है, तुम्हारे सामने लावेगा और तुम उसको आजिज़ न कर सकोगे और मेरी खैर ख्वाही तुम्हारे काम नहीं आ सकती, गो मैं तुम्हारी खैर ख्वाही करना चाहूं, जब की अल्लाह को ही तुम्हारी गुमराही मंज़ूर हो - - - ''
सूरह हूद-११- ११वाँ १२वाँ पारा आयत (19-34)
हजरते नूह का ज़िक्र एक बार फिर आता है. नूह के बारे में मुहम्मद की जानकारी जो भी हो, जहाँ जहाँ नूह का ज़िक्र करते हैं वहाँ वहाँ वह गायबाना नूह बन जाते हैं. अपने मौजूदा हालात को नूह के हालात बना देते हैं. नूह की उम्मत को अपनी नाम निहाद और नाफरमान उम्मत जैसी उम्मत पेश करते हैं. नूह की उम्मत में काफिरों का बुरा अंजाम दिखला कर अपनी उम्मत को धमकाने लगते हैं. मुहम्मद झूटी कहानियां गढ़ गढ़ कर इसको अल्लाह की गवाही में सच ठहराते हैं. इसे पढ़ कर एक अदना दिमाग रखने वाला भी हँस देगा मगर बेज़मीर इस्लामी आलिमों ने इसमें मानी और मतलब भर भर के इसको मुक़द्दस बना दिया है. बड़ी चाल के साथ कुरआन को तिलावत के लिए वक्फ़ करदिया है. मुसलमानों की बद किस्मती है कि जब तक वह कुरआन को नहीं समझेगा, खुद को नहीं समझ पाएगा. मुसलामानों के सामने खुद तक पहुँचने के लिए कुरआन का बड़ा झूट हायल है.
नूह की तरह ही मुहम्मद सुने सुनाए नबियों आद, हूद, समूद, सालेह, युनुस, लूत, और शोएब वगैरह की कहानियाँ गढ़ गढ़ कर अपने हालात के फ्रेम में चस्पाँ करते हैं, जिसे सुन कर लोग इनका मज़ाक़ उड़ाने के सिवा करते भी क्या? उस वक़्त भी लोग समझदार थे बल्कि खुद साख्ता पैगम्बर ही बेवकूफ थे. इतने जाहिल भी न थे जितने बने हुए रसूल. अफ़सोस कि इन लग्व कहानियों से अटा और इन बे बुन्याद दलीलों से पटा पुलिंदा मुसलामानों के अल्लाह का फ़रमान बन गया है. इसे दिन में पाँच बार अक़ीदत के साथ वह अपनी नमाज़ों में दोहराता है. नतीजतन मुसलमानों की ज़िन्दगीहक़ीक़त से कोसों दूर जा चुकी है और झूट के करीब तर.
सूरह हूद-११- ११वाँ १२वाँ पारा आयत (३५-५६)




जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Friday 8 January 2016

Soorah yunus 10 Qist 4

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.
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सूरह यूनुस १० 
चौथी किस्त 


''लोग कहते हैं कि यह वादा (क़यामत का) कब वाक़ेअ होगा, अगर तुम सच्चे हो? आप फरमा दीजिए कि अपनी ज़ात खास के लिए किसी नफा या किसी नुकसान का अख्तियार नहीं रखता मगर जितना अल्लाह को मंज़ूर हो. हर उम्मत के लिए एक मुअय्यन वक़्त है. जब उनका यह मुअय्यन वक़्त आ पहुचता है तो एक पल न पीछे हट सकते हैं न आगे सरक सकते है.''
सूरह यूनुस १० -११-वाँ परा आयत (५०)
''क्या वह (क़यामत) वाक़ई है? आप फरमा दीजिए कि हाँ ! वह वाकई है और तुम किसी तरह उसे आजिज़ नहीं कर सकते.''
सूरह यूनुस १० -११-वाँ परा आयत (५३)
मुहम्मद ने मुसलमानों के लिए अल्लाह को हाथ, पाँव, नाक, कान, मुँह, दिल और इंसानी दिमाग़ रखने वाला एक घटिया हयूला का पैकर पेश कर रखा है, तभी तो मजबूर बीवियों की तरह अपने शौहर नुमा बन्दों से आजिज़ भी हो रहा है, वर्ना इंसानों और जिनों से दोज़ख के पेट भरने का वादा किए हुए अल्लाह को इनकी क्या परवाह होनी चाहिए।
 बेचारा मुसलमान हर वक़्त अपने परवर दिगार को अपने सामने तैनात खड़ा पाता है. वह ससी हुई, सहमी सहमी ज़िन्दगी गुज़रता है. कुदरत की बख्शी हुई इस अनमोल जिसारत ए लुत्फ़ से लुत्फ़ अन्दोज़ ही नहीं हो पाता. क़यामत का खौफ लिए अधूरी ज़िन्दगी पर किनाअत करता हुवा इस दुन्या से उठ जाता है. 
कौम की माली, सनअती, तामीरी और इल्मी तरक्की में यह अल्लाह की फूहड़ आयतें बड़ी रुकावट बनी रहती हैं. अवाम जो इन बातों की गहराइयों में जाते हैं वह हकीक़त को समझने के बाद या तो इस से अपना दामन झाड़ लेते हैं या इसका फायदा उठाने में लग जाते हैं. 
हर मज़हब की लग-भग यही कहानी है.
''याद रखो अल्लाह के दोस्तों पर न कोई अंदेशा और न वह मगमूम होते हैं. वह वो हैं जो ईमान लाए और परहेज़ रखते हैं. इनके लिए दुन्यावी ज़िन्दगी में भी और आखरत में भी खुश खबरी है - - -''
सूरह यूनुस १० -११-वाँ परा आयत (५३)
आज अल्लाह के दोस्तों पर तमाम दुन्या को अंदेशा है. हर मुल्क में मुसलामानों को मशकूक नज़रों से देखा जाता है. एक मुसलमान किसी मुसलमान पर भरोसा नहीं करता. इनकी हर बात इंशा अल्लाह के शक ओ शुबहा में घिरी रहती है. कोई वादा क़ाबिले एतबार नहीं होता. आखरत के नाम पर एक दूसरे को धोका दिया करते हैं. भोलेभाले अवाम आखरत का शिकार हैं.
कुरआन एक हज़ार बार कहता है जो कुछ ज़मीन और आसमान के दरमियान है अल्लाह का है. कौन काफ़िर कहता है कि यह सब उनके बुतों का है. या कौन मुल्हिद कहता है कि नहीं यह सब उसका है? कौन पागल कहता है कि अल्लाह का नहीं, सब बागड़ बिल्लाह का है, कि मुहम्मद उस से पूछते रहते हैं कि कोई दलील हो तो पेश करो. वह खुद अल्लाह के दलाल बने फिरते हैं, इसका सुबूत जब कोई पूछता है तो बड़ी आसानी से कह देते हैं कि इसका गवाह मेरा अल्लाह काफी है.
सूरह यूनुस १० -११-वाँ परा आयत (६५-७४)
नूह के बाद मुहम्मद मूसा का तवील क़िस्सा फिर नए सिरे से ले बैठते है. इनके तखरीबी ज़ेहन में दूसरे मौज़ूअ का ज्यादह मसाला भी नहीं है. 
शुरू कर देते हैं फिरौन और मूसा की मुकलमों की फूहड़ जंग जिसको पढ़ कर एहसास होता है कि एक चरवाहा इस से बढ़ कर क्या बयान कर सकता है. इसमें तबलीग इस्लाम की होश्यारी खटकती रहती है. अकीदत मंदों की लेंडी ज़रूर तर हुवा करती है यह और बात है.बयान का वाक़ेअय्यत से कोई लेना देना नहीं. मसलन - - -
''ए मूसा आप मुसलामानों को बशारत देदें और मूसा ने अर्ज़ किया ए हमारे रब ! तूने फिरौन को और इसके सरदारों को सामान तजम्मुल और तरह तरह के सामान ए दुनयावी, ज़िन्दगी में इस वास्ते दी हैं कि वह आप के रस्ते से लोगों को गुमराह करें? ए मेरे रब तू उनके सामान को नेस्त नाबूद कर दे और इनके दिलों को सख्त करदे, सो ईमान नलाने पावें, यहाँ तक कि अज़ाबे अलीम देख लें और फ़रमाया कि तुम दोनों की दुआ कुबूल कर लीं.''
सूरह यूनुस १० -११-वाँ परा आयत (७५-८९)
मुहमदी कुरआन की नव टंकी देखिए ,
 रसूल खेत की कहते हैं, मूसा खलियान की सुनता है और अल्लाह गोदाम की कुबूल करता है.
इन आयतों को पढ़ कर मुहम्मद की गन्दी ज़ेहन्यत का अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि वह बनी नवअ इंसान के कितने हम दर्द थे फिर भी यह हराम जादे ओलिमा उनको मोह्सिने इंसानियत कहते नहीं थकते.
''और हमने बनी इस्राईल को दरिया के पार कर दिया, फिर उनके पीछे पीछे फिरौन मय अपने लश्कर के ज़ुल्म और ज़्यादती के इरादे से चला, यहाँ तक कि जब डूबने लगा तो कहने लगा मैं ईमान लाता हूँ बजुज़ इसके कि जिस पर बनी इस्राईलईमान ले हैं.कोई माबूद नहीं कि मैं मुसलमानों में दाखिल होता हूँ.''
सूरह यूनुस १० -११-वाँ परा आयत (९०)
क़ुरआन में कितना छल कपट और झूट है यह आयत इस बात की गवाही देती है - - -
१- क़ुरआन का अल्लाह यानी मुहम्मद बक़लम खुद कहते है कि फिरऑन मय अपने लस्कर के दरियाय नील पार कर रहा था और उसमें गर्क हुवा.
तौरेती तवारीख कहती है कि यह वाक़िया नील नदी नहीं बल्कि नाड सागर का है और लश्करे फिरौन गर्क हुई फिरौन नहीं.
२- क़ुरआन का अल्लाह यानी मुहम्मद बक़लम खुद कहते है कि फिरौन ''कहने लगा मैं ईमान लाता हूँ बजुज़ इसके कि जिस पर बनी इस्राईल ईमान लाए हैं'' यानि यहूदियत को छोड़ कर, जब कि वह यहूदियत के नबी मूसा के बद दुआ का शिकार हुवा था, दो हज़ार साल बाद पैदा होने वाले इस्लाम पर कैसे ईमान लाया? कि फिरौन कहता है ''कोई माबूद नहीं कि मैं मुसलमानों में दाखिल होता हूँ.'' यहूदियत की बेगैरती के साथ मुखालिफत करते हुए, बे शर्मी के साथ इस्लाम की तबलीग ? कोई मुर्दा कौम रही होगी जो इनबातों को तस्लीम किया होगा जो आज बेहिस मुसलमानों पर इस्लाम ग़ालिब है.
है कोई जवाब दुन्य के मुसलमानों के पास ? मुस्लिम सरबराहों के पास ? आलिमों और फज़िलों के पास ?
''फिर अगर बिल्फर्ज़ आप इस किताब कुरआन की तरफ़ से शक में हों जोकि हमने तुम्हारे पास भेजा है तो तुम उन लोगों से पूछ देखो जो तुम से पहले की किताबों को पढ़तेहैं यानी तौरेत और इंजील तो कुरआन को सच बतलाएंगे. बेशक आप के पास रब की सच्ची किताब है. आप हरगिज़ शक करने वालों में न हों और न उन लोगों में से हों जिन्हों ने अल्लाह की आयतों को झुटलाया. कहीं आप तबाह न हो जाएँ.''
सूरह यूनुस १० -११-वाँ परा आयत (९४-९५)
अपने रसूल को अल्लाह खालिक ए कायनात को समझाने बुझाने की ज़रुरत पड़ रही है कि खुदा नखास्ता यह भी आदम जाद है गुमराह न हो जाएं ।साथ साथ वह इनको ईसा मूसा का हम पल्ला भी करार दे रहा है. चतुर मुहम्मदने अवाम को रिझाने की कोई राह नहीं छोड़ी. 

*देखें कि अल्लाह की इन बातों से आप कोई नतीजा निकल सकते हैं - - -
''अगर आप का रब चाहता तो तमाम रूए ज़मीन के लोग सब के सब ईमान ले आते. सो क्या आप लोगों पर ज़बर दस्ती कर सकते हैं, जिस से वह ईमान ही ले आएं. हालाँकि किसी का ईमान बगैर अल्लाह के हुक्म मुमकिन नहीं और वह बे अक्ल लोगों पर गन्दगी वाक़े कर देता है और जो लोग ईमान लाते हैं उनको दलायल और धमकियाँ कुछफ़ायदा नहीं पहुचातीं.''
सूरह यूनुस १० -११-वाँ परा आयत (१००)

यहाँ मुहम्मदी अल्लाह खुद अपनी खसलत के खिलाफ किस मासूमयत से बातें कर रहा है। ज़बरदस्ती, ज़्यादती, जौर व ज़ुल्म तो उसका तरीका ए कार है, यहाँ मूड बदला हुवा है. वह अपने बन्दों की रचना पहले बे अकली के सांचे से करता है फिर उन पर गलाज़त उँडेल कर मज़ा लेता है. मुसलमान उसके इस हुनर पर तालियाँ बजाते हैं. 
कैसा तजाद(विरोधाभास) है अल्लाह की आयत में कि बगैर उसके हुक्म के कोई ईमान नहीं ला सकता और ईमान न लाने वालों के लिए अजाब भी नाजिल किए हुए है. यह उसके कैसे बन्दे हैं जो उस से जवाब तलबी नहीं करते, वह नहीं मिलता तो कम अज कम उसके एजेंटों को पकड़ कर उनके चेहरों पर गन्दगी वाके करें. 


जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान