Monday 28 September 2015

Soorah anaam 6 Part 2 (

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.
****************


सूरह अनआम ६-
(दूसरी किस्त)
मुसलमानों!
क्या तुम को मालूम है कि इस वक्त दुन्या में और खास कर बर्रे सगीर हिंद (भारत उप महा द्वीप) में आप का सब से बड़ा दुश्मन कौन है?
कोई और नहीं आप को पीछे खडा आप का मज़हबी रहनुमा, आप का आलिमे दीन, मौलाना, मोलवी साहब और मुल्लाजी का गिरोह.
जी हाँ! चौंकिए मत यही हज़रात आप के अस्ल मुजरिम हैं, बजाहिर आप के खैर ख्वाह. ये मजबूरी में पेशेवर हैं क्यूं कि इनको इसमें ढाला गया है,और कोई जीविका इनके लिए नहीं है . इनका ज़रीया मुआश दीन है.
मगर इनके लिए दीन कोई हकीक़त नहीं, जैसा कि आप समझते हैं. यह दीन के करीब तर रह कर इसको उरियाँ हालत में देख चुके हैं. अब इन लिए कुछ बचा नहीं जो देखना बाकी रह गया हो. अब तो इन्हें दीन की पर्दापोस्शी करनी है.
इनको इनकी तालीमी वक्फे में यही सिखलाया गया है. यही ''पर्दापोस्शी".
यह निन्नानवे फी सद आलिमे दीन गरीब, मुफ़लिस, मोहताज घरों के फाका कश बच्चे होते हैं. तालीम के नाम पर जो कुछ पाया है, इसी में फसल जोतना, बोना, सींचना और काटना है.
यह पैदाइशी मुन्तक़िम (प्रति शोधक) होते हैं, इसकी वजह गुरबत के मारे, दूसरी वजह तालीमी विषय का इन पर गलत थोपन है.
ये अव्वल दर्जे के अय्यार, परले दर्जे के ईमान फरोश होते हैं. ये अपने साथ की गई समाजी ना इंसाफी का बदला उस समाज से गिन गिन कर लेते है जिसने इनके साथ न इंसाफी की है.
आप अपने बच्चों को इनके से दूर रखिए क्यूंकि कुरआनी जन्नत में मिलने वाली हूरें और गुलामों की यौन सेवाएँ इन्हें जिंसी बे राह रवी का शिकार बना देती हैं. मस्जिद के हुजरे हों चाहे मदरसे की छत, ये हर जगह बाल शोषण करते हुए पकडे जाते हैं.
यह दीन धरम के खुद साख्ता पैगम्बर और स्वयम्भू बने भगवान आज तक अपने विरोधी इन्सान को, इंसानियत को जी भर के कोसते काटते, गलियां, देते और तरह तरह की उपाधियाँ प्रदान करते चले आए हैं. हम कुछ नहीं कर सकते थे, कानून इनका संरक्षक था और है. हुकूमतें इनकी पुश्त पनाही में थीं और हैं. जनता इनके साथ में थी और है मगर शिक्षित,और जागृति जनता, बेदार अवाम अब सिर्फ हमारे साथ हैं.
हम सुरक्षा महसूस कर रहे हैं. सदियों से ये हमें धिक्कारते चले आ रहे हैं अब हमारी बारी है इनकी पोल पट्टी खोलने की, एक बुद्दी जीवी हजारो भेड़ बकरियों पर भरी पड़ेगा. हम शुक्र गुज़र हैं गूगल आदि वेब साइड्स के, हम शुक्र गुज़र है ब्लॉग के उस मुकाम के अविष्कार के जहाँ कबीर का सच बोला जा सकेगा.अब सदाक़त धडाधड छपेगी और कोई कुछ न बिगड़ पाएगा.
काश कि मुहम्मद एक अदना अरबी शायर ही होते कि उनके सर पर करोरो इंसानी खूनों का अजाब तो न होता.तीन आयतें ३, ४, ५ ऐसी ही मुहम्मद की जाहिलाना बकवास हैं.
''उन्हों ने देखा नहीं हम उनके पहले कितनी जमाअतों को हलाक कर चुके हैं, जिनको हमने ज़मीन पर ऐसी कूवत दी थी कि तुम को वह कूवत नहीं दिया और हम ने उन पर खूब बारिश बरसाईं हम ने उनके नीचे से नहरें जारी कीं फिर हमने उनको उनके गुनाहों के सबब हलाक कर डाला''
सूरह अनआम -६-७वाँ पारा आयत (6)
मुहम्मद का रचा अहमक अल्लाह अपने जाल में आने वाले कैदियों को धमकता है कि तुम अगर मेरे जाल में आ गए तो ठीक है वर्ना मेरे ज़ुल्म का नमूना पेश है, देख लो. उस वक्त के लोगों ने तो खैर खुल कर इन पागल पन की बातों का मजाक उडाया था मगर जिहाद के माले-गनीमत की हांडी में पकते पकते आज ये पक्का ईमान बन गया है. यही अलकायदा और तल्बानियों का ईमान है. ये अपनी मौत खुद मरेंगे मगर आम बे गुनाह मुसलमान अगर वक़्त से पहले न चेते तो गेहूं के साथ घुन की मिसाल बन जायगी.
''और ये लोग कहते हैं कि इनके पास कोई फ़रिश्ता क्यों नहीं भेजा गया और अगर हम कोई फ़रिश्ता भेज देते तो सारा किस्सा ही ख़त्म हो जाता, फिर इन को ज़रा भी मोहलत न दी जाती.''
सूरह अनआम -६-७वाँ पारा आयत (8)
यानी फ़रिश्ता न हुवा कोहे तूर पर झलकने वाली इलोही की झलक हुई कि उसके दिखते ही लोग खाक हो जाते. देखें कि एक हदीस में इसके बर अक्स मुहम्मद क्या कहते हैं---
'' मुहम्मद सहबियों की झुरमुट में बैठे थे कि एक शख्स आकर कुछ सवाल पूछता है - - -१- ईमान क्या है? २-इस्लाम क्या है? ३-एहसान क्या है? और क़यामत कब आएगी? मुहम्मद उसको अपनी जेहनी जेहालत से लबरेज़ बेतुके जवाब देते हैं. उसके जाने के बाद लोगों से पूछते हैं कि जानते हो यह कौन थे? लोगों ने कहा अल्लाह के रसूल ही बेहतर जानते हैं. फ़रमाया जिब्रील अलैहिस्सलाम थे दीन बतलाने आए थे.
( बुखारी-४७)
ये है मुहम्मद का कुरआनी और हदीसी दो विरोधाभासी अवसर वादिता. यह मोह्सिने इंसानियत नहीं थे बल्कि इंसानियत कि जड़ों में मट्ठा डालने वाले नस्ल-ए-इंसानी के बड़े मुजरिम थे.
कुरआन में अल्लाह बार बार कहता है कि उसे तमस्खुर (हंसी-मज़ाक) पसंद नहीं. लोग तमस्खुर उसी शख्स से करते है जो बेवकूफी कि बातें करता है.खुद साख्ता बने अल्लाह के रसूल कुरआन में ऐसी ऐसी बे वज़्न और बेवकूफी की बातें करते हैं कि हंसी आना लाजिम है, इस पर तुर्रा ये कि ये अल्लाह की भेजी हुई आयतं हैं.हर दिन एक एक टुकडा अल्लाह की आयत बन कर नाजिल होता है. इस पर काफिर कहते हैं कि
'' क्यूं नहीं तुम्हारा अल्लाह यक मुश्त मुकम्मल किताब आसमान से सीढी लगा कर किसी फ़रिश्ते के मार्फ़त एक बार में ही भेज देता.'' देखिए कि बन्दों के इस माकूल सवाल का नामाकूल अल्लाह का जवाब - - -''
सूरह अनआम -६-७वाँ पारा आयत (10)
और वाकई आप (खुद साख्ता पैगम्बर मुहम्मद को अल्लाह भी एह्तरामन आप कहता है. ये कमीनगी आलिमान दीन के क़लम का ज़ोर है) से पहले जो पैगम्बर हुए हैं उन के साथ भी इस्तेह्जा (मज़ाक) किया गया है फिर जिन लोगों न इन के साथ तमस्खुर (मज़ाक) किया उन को एक अजाब न आ घेरा जिसका वह मजाक उड़ा रहे थे''

ये है मुहम्मद का कुरआनी और हदीसी दो विरोधाभासी अवसर वादिता. यह मोह्सिने इंसानियत नहीं थे बल्कि इंसानियत कि जड़ों में मट्ठा डालने वाले नस्ल-ए-इंसानी के बड़े मुजरिम थे.कुरआन में अल्लाह बार बार कहता है कि उसे तमस्खुर (हंसी-मज़ाक) पसंद नहीं. लोग तमस्खुर उसी शख्स से करते है जो बेवकूफी कि बातें करता खुद.


जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Friday 25 September 2015

Soorah anaam 6 Part 1 ( 1-2)

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.
**************

सूरह अनआम ६-
(पहली किस्त)

ध्यान दें - - -
क़ुरआन किसी अल्लाह का कलाम हो ही नहीं सकता.कोई अल्लाह अगर है तो अपने बन्दों के क़त्ल-ओ-खून का हुक्म न देगा. 
क्या सर्व शक्ति मान, सर्व ज्ञाता, हिकमत वाला अल्लाह मूर्खता पूर्ण और अज्ञानता पूर्ण बकवास करेगा?
क्या इन बेहूदा बातों की तिलावत (पाठ) से कोई सवाब मिल सकता है?
जागो! 
मुसलमानों जागो!! 
मुहम्मद के सर पर करोड़ों मासूमों का खून है जो इस्लाम के फरेब में आकर अपनी नस्लों को इस्लाम के हवाले कर चुके हैं. मुहम्मद की ज़िदगी में ही हज़ारों मासूम मारे गए और मुहम्मद के मरते ही दामाद अली और बीवी आयशा के दरमियाँ जंग जमल में एक लाख इंसान बहैसियत मुसलमान मारे गए. 
स्पेन में सात सौ साल काबिज़ रहने के बाद दस लाख मुसलमान जिंदा नकली इस्लामी दोज़ख में डाल दिए गए, 
अभी तुम्हारे नज़र के सामने ईराक में दस लाख मुसलमान मारे गए. 
अफगानिस्तान, पाकिस्तान कश्मीर में लाखों इन्सान इस्लाम के नाम पर मारे जा रहे है.
चौदह सौ सालों में हज़ारों इस्लामी जंगें हुईं हैं जिसमें करोड़ों इंसानी जानें गईं. 
मुस्लमान होने का अंजाम है बेमौत मारो या बेमौत मरो.
क्या अपनी नस्लों का अंजाम यही चाहते हो? 
एक दिन इस्लाम का जेहादी सवाब मुसलामानों को मारते मारते और मरते मरते ख़त्म कर देगा. 
वक़्त आ गया है खुल कर मैदान में आओ. ज़मीर फरोश गीदड़ ओलिमा का बाई काट करो, इनके साए से दूर रहो और भोले भाले लोगों को दूर रखो. 
अब आइए कुरआनी बकवासों पर जिनको आम मुसलमान नहीं जनता - - -
क़ुरआन ने मुसलामानों में एक वहम ''नाज़िल और नुज़ूल''(अवतीर्ण एवं अवतरित) का डाल दिया है, मिन जानिब अल्लाह आसमान से किसी बात, किसी शय, किसी आफ़त का उतरना नाज़िल होना कहा जाता है. ये सारा का सारा क़ुरआन वहियों(ईश-वाणी) के नुजूल का पुथंना बतलाया जाता है. यानी क़ुरआन का ताअल्लुक़ ज़मीन से नहीं बल्कि यह आसमान से उतरी हुई आफ़त ज़दा किताब है. 
क़ुरआन अपनी ही तरह मूसा रचित तौरेत और दाऊद द्वारा रचे ज़ुबूर के गीतों को ही नहीं बल्कि ईसा के हवारियों (धोबियों) के बाइबिल के बयानों को भी आसमानी साबित करता है, जब कि इन के मानने वाले खुद इन्हें ज़मीनी कहते हैं. 
आगे की खोज कहती है आसमान ऐसी कोई चीज़ नहीं कि जिसके फर्श और छत हों, ये फ़क़त हद्दे नज़र है. क़ुरआन के सात मंजिला आसमान पर मुख्तलिफ मंजिलों पर मुख्तलिफ दुनिया है, सातवें पर खुद अल्लाह विराजमान है.? 
हमारी जदीद तरीन तह्क़ीक़ कहती है की ऐसा आसमान एक कल्पना है, तो ऐसा अल्लाह भी मुहम्मद का तसव्वुर ही है. दोज़ख जन्नत सब उनकी साजिश है.
''तमाम तारीफें अल्लाह के लिए ही लायक हैं जिसने आसमानों और ज़मीन को पैदा किया और तारीकियों (अंधकार) और नूर को बनाया, फिर भी काफिर लोग दूसरों को अपना रब क़रार देते हैं.''
सूरह अनआम -६-७वाँ पारा आयत (१)
उम्मी मुहम्मद ब्रम्हामांड में ज़मीन को हर जगह बार बार एक वचन में लाते हैं और आसमान को बहु वचन (अनुमानित सात) क़ुरआन में अल्लाह के मुंह से कहलाते हैं जब कि आसमान एक है और ज़मीन इसमें करोरों बल्कि बेशुमार हैं. कोई ताक़त इसका रचैता अगर है तो वह क्या मुहम्मद का अल्लाह हो सकता है जो कह रहा है? सब तारीफ मेरे लिए हैं और खुद उसको अपनी रचना का ज्ञान नहीं? अंधकार और रौशनी सूरज के गिर्द ज़मीनी गर्दिश के रद्दे अमल से होती है, मुहम्मद से सदयों पहले यूनान के साइंस दानों ने दुन्या को बतला दिया था मगर यह बात मुहम्मदी अल्लाह के कानों तक नहीं पहुंची. 
काफिर लोगों ने हमेशा हू, याहू, इलह, इलोही, इलाही, रब और ख़ुदा जैसी किसी ताक़त को ईश्वर माना है और अपने देवी देवताओं को उसका माध्यम जैसे आज तक चला आ रहा है. अरबी माध्यम लात, मनात, उज़ज़ा आदि थे, मुहम्मद ज़बरदस्ती उनको उनका अल्लाह साबित करने मेंलगे हुए है.
''और वह ऐसा है जिसने तुम को मिटटी से बनाया, फिर एक वक़्त मुअय्यन किया और दूसरा खास वक़्त मुअय्यन उसी के नजदीक है, फिर भी तुम शक रखते हो.
''सूरह अनआम -६-७वाँ पारा आयत (२)
मुहम्मद अल्लाह के बारे में बतलाते हैं कि वह ऐसा है और कहते हैं यह अल्लाह का कलाम है, जब कि मुहम्मद खुद साबित कर रहे हैं कि यह कलाम खुद उनका है। 



जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Monday 21 September 2015

Soorah mMayda 5 Part 6 ( 96-110)

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.

***

सूरह अल्मायदा ५ 
(छटवीं और आखरी किस्त )

मेरे गाँव की एक फूफी के बीच बहु-बेटियों की बात चल रही थी कि मेरा फूफी ज़ाद भाई बोला अम्मा लिखा है औरतों को पहले समझाओ बुझाओ, न मानेंतो घुस्याओ लत्याओ, फिरौ न मानैं तो अकेले कमरे मां बंद कर देव, यहाँ तक कि वह मर न जाएँ . 
फूफी आखें तरेरती हुई बोलीं उफरपरे! कहाँ लिखा है? 
बेटा बोला तुम्हरे क़ुरआन मां.-- 
आयं? कह कर फूफी बेटे के आगे सवालिया निशान बन कर रह गईं. बहुत मायूस हुईं और कहा 

''हम का बताए तो बताए मगर अउर कोऊ से न बताए''
मेरे ब्लॉग के मुस्लिम पाठक कुछ मेरी गंवार फूफी की तरह ही हैं. वह मुझे राय देते हैं कि मैं तौबा करके उस नाजायज़ अल्लाह के शरण में चला जाऊं. मज़े कि बात ये है कि मैं उनका शुभ चिन्तक हूँ और वह मेरे?
ऐसे तमाम मुस्लिम भाइयों से दरख्वास्त है कि मुझे पढ़ते रहें, मैं उनका ही असली खैर ख्वाह हूँ .
हिदी ब्लॉग जगत में एक सांड के नाम से जाना जाने वाला कैरानवी है जो खुद तो परले दर्जे का जाहिल है मगर ज़मीर फरोश ओलिमा की लिखी हुई कपटी रचनाओं को बेच कर गलाज़त भरी रोज़ी से पेट पालता है.
अल्लाह का चैलेंज, अंतिम अवतार, बौद्ध मैत्रे जैसे सड़े गले राग खोंचे लगाए गाहकों को पत्ता रहता है. उसको लोगों के धिक्कार की परवाह नहीं. मेरे हर आर्टिकल पर अपना ब्लाक लगा देता है, कि मेरे पास आ मैं जेहालत बेचता हूँ. 
अब आये अल्लाह की रागनी पर - - -

"तुम्हारे लिए दरया का शिकार पकड़ना और खाना हलाल किया गया"
सूरह अलमायदा 5 सातवाँ पारा-आयत (96)
ये एक हिमाकत कि बात है. जो जीविका का साधन हजारों साल से मानव जाति को जीवित किए हुए हैं, उसको कुरानी फरमान बनाना क़ुरआन का मजाक और बेवज्नी में इजाफा ही है. दरया में बहुत से जीव विषैले और गंदे होते हैं जिसको हराम करना मुहम्मद भूल गए हैं.
"अल्लाह ने काबे को जो कि अदब का मकान है, लोगों के लिए कायम रहने का सबब करार दे दिया है और इज्ज़त वाले महीने को भी और हरम में कुर्बानी होने वाले जानवरों को भी और उनको भी जिनके गले में पट्टे हों, ये इस लिए कि इस बात का यकीन करलो कि बे शक अल्लाह तमाम आसमानों और ज़मीन के अन्दर की चीजों का इल्म रखता है."
सूरह अलमायदा 5 सातवाँ पारा-आयत (97)
लगता है मुहम्मदी अल्लाह ने इन बकवासों से यह बात साबित कर दिया हो की उसको आसमानों और ज़मीन का राज़ मालूम है, जब कि वह यह भी नहीं जाता की आसमान सिर्फ एक है और ज़मीनें लाखों.
आप इस आयात को बार बार पढिए और मतलब निकालिए, नतीजे तक पहुँचिए।क्या साबित नहीं होता कि यह किसी पागल कि बड़ बड़ है, या क़ुरआनका पेट भरने के लिए मुहम्मद कुछ न कुछ बोल रहे हैं। इन बकवासों को ईश वाणी का दर्जा देकर और सर पर रख कर हम कहाँ के होंगे? एक बार फिर मौत से पहले विरासत नामे पर लम्बी तकरीर और बहसें दूर तक चलती हैं जिसको नज़र अंदाज़ करना ही बेहतर होगा.
सूरह अलमायदा 5 सातवाँ पारा-आयत (९८-109)
ईसा को एक बार फिर नए सिरे से पकडा जाता है जिसे पढ़ कर मुँह पीटने को जी चाहता है मगर अल्लाह हाथ नहीं लगता. इसे मुहम्मद की दीवानगी कहें या उनकी मौजूदा उम्मत की जो इस पर ईमान रखे हुए हैं.
देखिए बकते हैं - - -
"आप बे शक पोशीदा बातों को जानने वाले है, जब अल्लाह तअला इरशाद फरमाएंगे : ऐ ईसा इब्ने मरयम! याद करो जो तुम पर और तुम्हारी वाल्दा पर, जब कि मैं ने युम्हें रूहुल-कुद्स से ताईद दी, तुम आदमियों से कलाम करते थे, गोद में भी और बड़ी उम्र में भी और जब की मैं ने तुम को किताबें और समझ की बातें और तौरेत और इंजील की तालीम किन और जब कि तुम गारे से एक शक्ल बनाते थे, जैसे परिंदे की होती है, मेरे हुक्म से फिर तुम उसके अन्दर फूँक मार देते थे, जिस से वह परिंदा बन जाता था,मेरी हुक्म से. और जब तुम अच्छा कर देते थे मदर ज़द अंधे को और कोढ़ से बीमार को, मेरे हुक्म से और जब तुम मुर्दों को निकाल कर खडा कर देते थे, मेरे हुक्म से और जब मैं ने बनी इस्राईल को तुम से बांध रखा, जब तुम उनके पास दलीलें लेकर आए थे, फिर उन में जो काफिर थे उन्हों ने कहा था यह सिवाय खुले जादू के और कुछ भी नहीं."
सूरह अलमायदा 5 सातवाँ पारा-आयत (110)
इसी दीवानगी की बड़बड़ाहट को करोरो मुस्लमान चौदह सौ सालों से दोहरा रहा है, नतीजतन दुन्या की सब से पिछली कतार में जा लगा है. इसके धार्मिक गुरु इसको गुमराह किए रहते है जब तक इनका सफाया नहीं होता, इनका उद्धार मुमकिन नहीं. अफ़सोस कि पढा लिखा वर्ग बहुत स्वार्थी गया है, वह सच को जनता है मगर आगे आना पसंद नहीं करता, वह सोचता है खुद को बचा लिया बाक़ी जाएँ जहन्नम में. 
बस एक ही रास्ता है कि मुस्लिम अवाम बेदार हों और ओलिमा को नजिस जानवर का दर्जा दें. 
मुसलमानों! 
मैं मुस्लिम समाज का ही बेदार फर्द हूँ जो मुस्लिम से मोमिन हो गया, यह काम बहुत ही मुश्किल है और बेहद आसन भी. मोमिन का मतलब है ईमान दार और मुस्लिम का मतलब है हठ धर्मं, जेहालत पसंद, जेहादी, क़दामत परस्त, झूठा, शर्री, तअस्सुबी, ना इन्साफ और बहुत सी इन्सान दुश्मन बातें जो इसलाम की तालीम है. मोमिन के ईमान की कसौटी पर ही सच्चाई की परख आती है, मोमिम बनो, धरम कांटे का ईमान अपने अंदर पैदा करो, देखो कि अपने आप में आप का क़द कितना बढ़ गया है. इसलाम जिसे तस्लीम किया,मुस्लिम हो गए.ईमान जो फितरी (प्रकृतिक) सच होगा २+२=४ की तरह .ईमान पर ईमान लाओ इसलाम को तर्क करो.



जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Friday 18 September 2015

Soorah Mayda 5 Part 5 (75-95)

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.
*****

सूरह अलमायदा 5
किस्त पाँचवीं


किस्त धर्म और ईमान के मुख्तलिफ नज़रिए और माने अपने अपने हिसाब से गढ़ लिए गए हैं. आज के नवीतम मानव मूल्यों का तकाज़ा इशारा करता है कि धर्म और ईमान हर वस्तु के उसके गुण और द्वेष की अलामतें हैं. इस लम्बी बहेस में न जाकर मैं सिर्फ मानव धर्म और ईमान की बात पर आना चाहूँगा. मानव हित, जीव हित और धरती हित में जितना भले से भला सोचा और भर सक किया जा सके वही सब से बड़ा धर्म है और उसी कर्म में ईमान दारी है. 
वैज्ञानिक हमेशा ईमानदार होता है क्यूँकि वह नास्तिक होता है, इसी लिए वह अपनी खोज को अर्ध सत्य कहता है. वह कहता है यह अभी तक का सत्य है कल का सत्य भविष्य के गर्भ में है. मुल्लाओं और पंडितों की तरह नहीं कि आखरी सत्य और आखरी निजाम की ढपली बजाते फिरें. 
धर्म और ईमान हर आदमी का व्यक्तिगत मुआमला होता है मगर होना चाहिए हर इंसान को धर्मी और ईमान दार, कम से कम दूसरे के लिए. इसे ईमान की दुन्या में ''हुक़ूक़ुल इबाद'' कहा गया है, 
अर्थात ''बन्दों का हक'' 
आज के मानव मूल्य दो क़दम आगे बढ़ कर कहते हैं 
''हुक़ूक़ुल मख्लूकात'' अर्थात हर जीव का हक.
धर्म और ईमान में खोट उस वक़्त शुरू हो जाती है जब वह व्यक्तिगत न होकर सामूहिक हो जाता है. धर्म और ईमान , धर्म और ईमान न राह कर मज़हब और रिलीज़न यानी राहें बन जाते हैं. इन राहों में आरंभ हो जाता है कर्म कांड, वेश भूषा, नियमावली, उपासना पद्धित, जो पैदा करते हैं इंसानों में आपसी भेद भाव. 
राहें कभी धर्म और ईमान नहीं हो सकतीं. 
धर्म तो धर्म कांटे की कोख से निकला हुआ सत्य है, पुष्प से पुष्पित सुगंध है, उपवन से मिलने वाली बहार है. हम इस धरती को उपवन बनाने के लिए समर्पित रहें यही मानव धर्म है. 
धर्म और मज़हब के नाम पर रची गई पताकाएँ, दर अस्ल अधार्मिकता के चिन्ह हैं.लोग अक्सर तमाम धर्मों की अच्छाइयों(?) की बातें करते हैं यह धर्म जिन मरहलों से गुज़र कर आज के परिवेश में कायम हैं, 
क्या यह अधर्म और बे ईमानी नहीं बन चुके है? 
क्या यह सब मानव रक्त रंजित नहीं हैं? 
इनमें अच्छाईयां है कहाँ? जिनको एह जगह इकठ्ठा किया जाय, यह तो परस्पर विरोधी हैं.. 


आइए कुरान पर - - -

" और जब वोह (सूफी, संत, दुरवैश और राहिब) इस को सुनते हैं जो कि मुहम्मद (इस्लाम) की तरफ से भेजा गया है, तो उनकी आँखें आंसुओं से बहती हुई दिखती हैं, इस सबब से कि उन्हों ने हक को पहचान लिया है. कहते हैं कि ए हमारे रब! हम मुस्लमान हो गए, तो हम को भी इन लोगों में लिख लीजिए जो तस्दीक करते हैं, और हमारे पास कौन सा उज्र है कि हम अल्लाह ताला पर और जो हक हम पर पहुंचा है, इस पर ईमान न लाएँ और इस बात की उम्मीद रक्खें कि हमारा रब हम को नेक लोगों की जमाअत में हमें दाखिल करेगा."
सूरह अलमायदा 5 सातवाँ पारा(वइज़ासमेओ)-आयत (75)
सूफी और दरवेश हमेशा से इसलाम से भयभीत और बेजार रहे हैं. इस के डर से वोह गरीब बस्तियों को छोड़ कर वीरानों में रहा करते थे.
प्रसिद्ध संत उवैस करनी मोहम्मद का चहीता होते हुए भी उनसे कोसों दूर जंगलों में रहता था. इस्लामी हाकिमो के खौफ से वोह हमेशा अपना पता ठिकाना बदलता रहता कि कहीं इस को मोहम्मद के कुर्बत में जा कर 'मोहम्मादुर रसूल अल्लाह' न कहना पड़े.
मोहम्मद के वसीयत के मुताबिक मरने के बाद उनका पैराहन उवैस करनी को भेंट किया जाना था, समय आने पर, जब पैराहन को लेकर अबू बकर और अली बमुश्किल तमाम उवैस तक पहंचे तो पाया की वोह ऊँट चरवाहे की नौकरी कर रहा था. उन हस्तियों से मिल कर या पैराहन पाकर उसके चेहरे पर कोई खास रद्दे अमल न देख कर दोनों मायूस हुए. 
बहुत देर तक खमोशी छाई रही, जिसको तोड़ते हुए अबू बकर बोले उम्मत ए मोहम्मदी के लिए कुछ दुआ कीजिए.
फकीर दुआ के बहाने उठा और अपने हुजरे के अन्दर चला गया. बहुत देर तक बाहर न निकला तो इन दोनों को उस से बेजारी हुई, हुजरे के दर से सूफ़ी को आवाज़ दी कि बाहर आएं, उवैस बर आमद हुवा और कहा जल्दी कर दी वर्ना पूरी उम्मते मुहम्मदी को बख्शुवा लेता.
दोनों दरवेश के रवैयए से खिन्न होकर वापस हुए.
बदमआश ओलिमा ने ओवैस करनी की उलटी कहानिया गढ़ रखी हैं.
यही हाल मशहूर सूफ़ी हसन बसरी का था.हसन बसरी और राबिया बसरी मुहम्मद के बाद तबा ताबेईन हुए, जो बागी ए पैगंबरी थे और मुहम्मदुर रसूल अल्लाह कभी नहीं कहा.हसन बसरी का वाक़ेआ मशहूर है कि एक हाथ में आग और दूसरे हाथ में पानी ले कर भागे जा रहे थे, 
लोगों ने पूंछा कहाँ? 
बोले जा रहा हूँ उस दोज़ख को पानी से ठंडी करने जिसके डर से लोग नमाज़ पढ़ते हैं और उस जन्नत को आग लगाने जिस की लालच में लोग नमाज़ पढ़ते हैं. 
मोहम्मद की गढ़ी जन्नत और दोज़ख का उस वक़्त ही हस्तियों ने नकार दिया था जिसको आज मान्यता मिली हुई है, ये मुसलमानों के साथ कौमी हादसा ही कहा जा सकता है.
*हम मुहम्मदी अल्लाह की एक बुरी आदत पर आते हैं - - -
कुरानी आयातों से ज़ाहिर होता है की अरबों में कसमें खाने का बड़ा रिवाज था.यह रोग शायद भारत में वहीँ से आया है,वरना यहाँ तो प्राण जाए पर वचन न जाय की अटल बात थी. 
अल्लाह भी अरबों की खसलत से प्रभावित है. कसमें भी जानें किन किन चीजों की और कैसी कैसी. 
वह बन्दों के लिए दो किस्में, कसमों की मुक़ररर करता है--
पहली इरादा कसमें, और दूसरी पुख्ता कसमें.
" अल्लाह तुम से जवाब तलबी नहीं करता, तुम्हारी कसमों पर, ब्यर्थ किस्म की हों, लेकिन जवाब तलबी इस पर करता है कि क़सम को पुख्ता करो और तोड़ दो.सो इस का कफ्फारा (प्रयश्चित) दस मोहताजों को खाना देना है या औसत दर्जे का कपडा देना या एक गर्दन को आजाद करना या कुछ न हो सके तो तीन दिन का रोजा रखना."
सूरह अलमायदा 5 सातवाँ पारा(वइज़ासमेओ)-आयत (77)
देखिए कि कितना आसन है इसलाम में मुसलमानों के लिए झूट बोलना, वह भी कसमें खा कर. इरादा (निशचय)कसमें अल्लाह की, रसूल, क़ुरआन की, माँ बाप की, दिन भर कसमें खाते रहिए, अल्लाह इसकी जवाब तलबी नहीं करता, हाँ अगर पुख्ता (ठोंस) क़सम खा ली तो भी गज़ब हो जाने वाला नहीं, बस सिर्फ तीन रोज़ का दिन का फाका, जो कि गरीब को यूँ भी उस वक़्त अन्न  उपलब्ध नहीं हुवा करता था. इसको रोजा कहते हैं, इसमें सवाब भी है. 
किस क़दर झूट की आमेज़िश है कुरानी निजाम में जिसे अनजाने में हम "पूर्ण जीवन व्योस्था या मुकम्मल निजाम ए हयात " 
कहते हैं.अदालतों में क़ुरआन पर हाथ रख कर क़सम खाते है जो खुद झूट बोलने की इजाज़त देता है.
आर्श्चय होता है न्याय के अंधे विश्वास पर.देखिए कि हर मुस्लिम ही नहीं मुझ जैसा मोमिन भी इस ईमानी कमजोरी से कितना कुप्रभावित है, 
खुद मेरी बीवी इरादा कसमे खाने की आदी है जिसको हजम करने के हम आदी हो चुके हैं. 
पुख्ता यानी ठोंस झूट भी उसके बहुत से पकडे गए हैं जिसके लिए वह अक्सर पुख्ता कसमें खा चुकी है. मज़े की बात ये है कि वह कफ्फारा भी मेरी कमाई से अदा करती है,पक्की मुसलमान है, क़ुरआन की तिलावत रोज़ाना करती है और इन कुरानी फार्मूलों से खूब वाकिफ है. 
सच है कि गैर मुस्लिम शरीके हयात बेहतर होती बनिस्बत एक मुसलमान के.
"ऐ ईमान वालो! अल्लाह क़द्रे शिकार से तुम्हारा इम्तेहान करेगा. जिन तक तुम्हारे हाथ और तुम्हारे नेज़े पहुँच सकेंगे ताकि अल्लाह समझ सके कि कौन शख्स इस से बिन देखे डरता है. सो इसके बाद जो शख्स हद से निकलेगा इसके लिए दर्द नाक सजा है"
सूरह अलमायदा 5 सातवाँ पारा-आयत (94)
दिलों कि बात जानने वाला मुहम्मदी अल्लाह मुसलमानों का प्रेटिकल इम्तेहान ले रहा है और बेचारी क़ौम उसी इम्तेहान में मुब्तिला है, न शिकार रह गए हैं न नेज़े. आलिमान दीन ने इन आयात को गोबर सुंघा सुंघा कर कर मरी मुसरी को ज़िदा रखा है. मुस्लिम अवाम जब तक खुद बेदार होकर कुरानी बोझ को सर से दफा नहीं करते तब तक कौम का कुछ होने वाला नहीं.
"अल्लाह तअला ने गुज़श्ता को मुआफ कर दिया और जो शख्स फिर ऐसी ही हरकत करेगा तो अल्लाह तअला उस से इंतकाम ले सकते हैं."
सूरह अलमायदा 5 सातवाँ पारा-आयत (95)
अल्लाह न हुवा बल्कि बन्दा ए बद तरीन हुआ जो इन्तेकाम(प्रतिशोध) भी लेता है। 
इसी आयत पर जोश मलीहा बादी कहते हैं - - - 

गर मुन्तकिम है तो खोटा है खुदा, 
जिसमें सोना न हो, वह गोटा है खुदा

शब्बीर हसन खाँ नहीं लेते बदला,
शब्बीर हसन खाँ से भी छोटा है खुदा. 

पिछले सारे गुनाह मुआफ आगे कोई खता नहो, बस कि बद नसीब मुसलमान बने रहो. इस मुहम्मदी अल्लाह से इंसानियत को खुदा बचाए. 




जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Monday 14 September 2015

Soorah Mayda 5 Part 4 51-77)

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.
*************

सूरह मायदा -5   
चौथी किस्त 


''यहूदियों और ईसाइयों को दोस्त मत बनाना , वह एक दूसरे के दोस्त हैं और तुम में से जो शख्स उन से दोस्ती करेगा, बेशक वोह इन्हीं में से होगा."
सूर ह अलमायदा 5 छटवाँ पारा-आयत (51) 
कोई सच्चा रहनुमा कहीं इंसानों को इंसानों से इस तरह बुग्ज़ और नफरत की बातें सिखलाता है? मुहम्मद को अपना पैगम्बर मान कर वैसे भी हम तीन चौथाई दुन्या को दुश्मन बनाए हुए हैं. दोस्ती भी कोई अक़ीदत है ? दोस्ती तो हुस्ने एख्लाक पर मुनहसर करती है न कि हिदू मुस्लमान और ईसाई पर.
" ऐ ईमान वालो! जो शख्स तुम में से अपने दीन से फिर जाए तो अल्लाह बहुत जल्द ऐसी क़ौम पैदा कर देगा कि जिस को इस से मोहब्बत होगी और उसको इस से मुहब्बत होगी. मेहरबान होंगे वोह मुसलमानों पर और तेज़ होंगे काफिरों पर. जेहाद करने वाले होंगे अल्लाह की रह पर." 
सूरह अलमायदा 5 छटवाँ पारा-आयत (54) 
कितना कमज़ोर है मुहम्मद का गढा अल्लाह जो अपनी ही कमजोरी से परेशान है. अफ़सोस मुस्लमान ऐसे कमज़ोर अल्लाह के जाल में फंसे हुए हैं जो खुद जाल बुनते वक़्त घबरा रहा था. 
तारीखी पस मंज़र में अल्लाह कहता है - - - 
" जिन्हों ने तुम्हारे दीन को हंसी खेल बना रक्खा है, उनको और दूसरे कुफ्फार को दोस्त मत बनाओ और अल्लाह से डरो अगर तुम ईमान वाले हो और जब तुम नमाज़ के लिए एलान करते हो तो यह तुम्हारे साथ हँसी खेल करते हैं, इस सबब से कि वह लोग ऐसे हैं कि बिलकुल अक्ल नहीं रखते." 
सूरह अलमायदा 5 छटवाँ पारा-आयत (59) 
जब किसी क़ौम का गलबा होता है तो उसका छू मंतर भी काबिले एहतराम इबादत बन जाती है. नमाज़ कल भी एक संजीदा शख्स के लिए काबिले एतराज़ हरकत थी और आज भी हो सकती है. अवामी सतह पर उट्ठक-बैठक बनाम इबादत कल भी हंसी खेल रहा होगा आज भी यकीनन है. ऐसी बेतुकी हरकत को कम से कम इबादत तो नहीं कहा जा सकता. कम अकली के ताने देने वाला अल्लाह खुद अपने ऊपर शर्म करे कि दुन्या के कोने कोने से मुस्लमान अक्ल के अंधे काबा जाते है, शैतान को कंकड़ीयाँ मारने .
" आप कहिए कि क्या मैं तुम को ऐसा तरीका बतलाऊँ जो इस से भी अल्लाह के यहाँ बदला लेने में ज़्यादा बुरा हो. वोह इन लोगों का तरीका है जिन को अल्लाह ने दूर कर दिया हो और इन पर गज़ब फ़रमाया हो और इन को बन्दर और सुवर बना दिया हो और इन्हों ने शैतान की परिस्तिश की हो."
सूरह अलमायदा 5 छटवाँ पारा-आयत (60) 
मुहम्मदी अल्लाह का दिमाग कैसी कैसी गलाज़तों से भरा हुवा था? यही इबारत मुस्लमान सुबहो-शाम अपनी नमाजों में पढ़ते हैं. अगर अपनी जबान मैं पढें तो एक हफ्ते मैं शर्म से डूब मरें.

मुहम्मद से अल्लाह कहता है - - - 
"और जो आप के पास आप के परवर दिगार की तरफ से भेजा जाता है वोह इनमें से बहुतों की सरकशी और कुफ्र का सबब बन जाता है और हम ने इन में बाहम क़यामत तक अदावत और बुघ्ज़ डाल दिया है. जब कभी लडाई की आग भड़काना चाहते हैं, अल्लाह ताला ,उसको फर्द कर देते हैं और मुल्क में फसाद करते फिरते हैं और अल्लाह ताला फसाद करने वालों को पसंद नहीं करते." 
सूरह अलमायदा 5 छटवाँ पारा-आयत (64)
यह सोंच मुहम्मद की फितरत का आइना है जिसको उनके एजेंट सदियों से पुजवाते चले आ रहे हैं। मुहम्मद खुद परस्ती के सिवाए तमाम इन्सान और इंसानियत का दुश्मन था. इसकी उलटी मुश्तःरी करके आलिमों ने सारे दुन्या की बीस फी सद आबादी के साथ दगाबाज़ी की है और करते जा रहे हैं. मुसलामानों गौर करो की यह घटिया तरीन बातें जिनको किसी से कहने में खुद तुमको शर्म आए , तुमहारे कुरआनी अल्लाह की हैं. वह कभी अपने बन्दों को बन्दर बना देता है तो कभी सुवर, कभी उनको आपस में लडवा कर ज़मीन पर फसाद कराता है, क्यूँ? क्यूं करता रहता है वह ऐसा? क्या कभी हुवा भी है ऐसा ? क्या मुहम्मद का झूट, उसकी साज़िश इन बातें में तुम को नज़र नहीं आती?
 मेरे भाइयो! खुदा के लिए आँखें खोलो वर्ना मुहम्मद का अल्लाह तुम को बे मौत मारेगा. .
" और अगर यह लोग तौरेत की और इंजील की और जो किताब इन के परवर दिगर की तरफ से इनके पास पहुँच गई है उसकी पूरी पाबन्दी करते तो ये लोग अपने ऊपर से और अपने नीचे से पूरी फरागत से खाते."
सूरह अलमायदा 5 छटवाँ पारा-आयत (66)
लाहौल वलाकूवत! क्या मतलब हुवा मुहम्मदी अल्लाह का? आप खुद अख्ज़ करें कि उसका ऐसा फूहड़ मजाक अहले किताब के फरमा बरदारों के साथ? अच्छा हुवा कि न फरमान हुए वरना नीचे से खाना पड़ता, शायद इसी लिए नाफ़र्मान हो गए हों. मुहम्मद की गन्दी जेहेनियत ही कही जा सकती है. अनुवाद करने वाले मक्कार आलिम इसमें मानी ओ मतलब भरते रहें.
"बे शक वोह लोग काफ़िर हो चुके हैं जिन्हों ने कहा अल्लाह ताला में मसीह इब्ने मरियम है."
सूरह अलमायदा 5 छटवाँ पारा-आयत (72)
इस्लामी इस्तेलाह में किसी को काफिर कहना, उसे गाली देने की तरह होता है। अहले किताब यानी यहूदी और ईसाई काफिर नहीं होते हैं मगर मुहम्मद का मूड कब कैसा हो? ईसाइयों को उनके आस्था पर काफ़िर कहते है, जब की ईसाई खुद कुफ़्र (खास कर मूर्ती पूजा) को सख्त न पसंद करते हैं. इस तरह ईसाइयों का मुसलमानों से बैर बंधता गया.
" जो शख्स अल्लाह और रसूल की पूरी इताअत (आज्ञा करी)करेगा, अल्लाह ताला उसको ऐसी बहिश्तों में दाखिल कर देंगे जिस के नीचे नहरें जारी होंगी, हमेशा हमेशा इन में रहेंगे.ये बड़ी कामयाबी है"
सूरह अलमायदा 5 सातवाँ पारा(वइज़ासमेओ)-आयत (75)
कुरआन में यह आयत मोहम्मद की कामर्सियल ब्रेक्क है और बार बार आती है.
" ऐ अहले किताब! तुम अपने दीन में न हक गुलू (मिथ्य) मत करो और उन लोगों के ख्याल पर मत चलो जो पहले ही गलती में आ चुके हैं और बहुतों को गलती में डाल चुके हैं."
सूरह अलमायदा 5 सातवाँ पारा(वइज़ासमेओ)-आयत (77) 

ऐ मोहम्मद! दूसरों को राह मत दिखलाओ, पहले खुद राह-ऐ-रास्त पर आओ। अपनी उम्मत की ज़िन्दगी पलीद किए बैठे हो और अहल ए किताब यहूदियों और ईसाइयों को चले हो राह बतलाने। 


जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Friday 11 September 2015

Soorah Mayda 5 Part 3 ( 38-50)

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.
****
सूरह मायदा -5 
तीसरी किस्त 


तालिबान अफगानिस्तान से खदेडे जाने के बाद अब पाकिस्तान पर जोर आजमाई कर रहा है, बिलकुल इसलाम का प्रारंभिक काल दोहराया जा रहा है, जब मुहम्मद बज़ोर गिजवा (जंग) हर हाल में इसलाम को मदीना के आस पास फैला देना चाहते थे। वह अपने हुक्म को अल्लाह का फ़रमान क़ुरआनी आयतों द्वारा प्रसारित और प्रचारित करते. लोगों को ज़बर दस्ती जेहाद पर जाने के लिए आमादा करते, 
लोग अल्लाह के बजाय उनको ही परवर दिगर! कह कर गिडगिडाते कि "आप हम को क्यूं मुसीबत में डाल रहे हैं ?" 
तो वह ताने देते कि औरतों की तरह घरों में बैठो. 
मज़े की बात ये कि जंगी संसाधन भी खुद जुटाओ. एक ऊँट पर ११-११ जन बैठते. ये सब क़ुरआन में साफ साफ़ है जिसे इस्लामी विद्वान छिपाते हैं और जालिम तालिबान सब जानते हैं. आज भी तालिबान अपने अल्लाह द्वतीय मुहम्मद के ही पद चिन्हों पर चल रहे है. इन्हें इंसानी ज़िन्दगी से कोई लेना देना नहीं, बस मिशन है इस्लाम का प्रसार। इसी में उनकी हराम रोज़ी का राज़ छुपा है. 
इधर पाकिस्तान का धर्म संकट है कि इस्लाम के नाम पर बन्ने वाला पाकिस्तान जब तालिबानियों द्वारा इस्लामी मुल्क पूरी तरह बन्ने की दर पर है तो उसकी हवा क्यूं ढीली हो रही है? उसका रूहानी मिशन तो साठ साल बाद मुकम्मल होने जा रहा है. निजामे मुस्तफा ही तो ला रहे हैं ये तालिबानी. 
मुस्तफा यानी मुहम्मद जो बच्ची के पैदा होने को औरत का पैदा होना कहते थे (क़ुरआन में देखें ) औरत पर पर्दा लाजिम है. मुहम्मद ने सात साला औरत आयशा के साथ शादी रचाई, आठ साल में उस से सुहाग रात मनाई और परदे में बैठाया, 
तालिबान अपने रसूल की पैरवी करके क्या गलत कर रहे हैं? उनको ख़त्म करके पाकिस्तान इस्लाम को क़त्ल कर रहा है, कोई मुल्ला उसे फतवा क्यूं नहीं दे रहा? 
"मुहम्मद मैले कपडे लादे रहते" इस ज़रा सी बात पर पाकिस्तान न्यायलय ने एक ईसाई बन्दे को तौहीन ए रिसालत के जुर्म में सजाए मौत दे दिया था, आज पाक अद्लिया किं कर्तव्य विमूढ़ क्यूँ ? 
पाक इसलाम के तलिबों से लड़ने के साथ साथ कुफ्र से भी (भारत) लडाई पर आमादा है. कहते हैं कि उसकी एटमी हत्यारों का रुख भारत की ओर है. 
यह पाकिस्तान की गुमराही ही कही जाएगी. मज़हब के नाम पर जो हमारे बड़ों ने अप्रकृतिक बटवारा किया था उसका बुरा अंजाम सामने है, 
बहुत बुरा हो जाने से पहले हम को सर जोड़ कर बैठना चहिए कि हम १९४७ की भूल सुधारें और फिर एह हो जाएँ. इसतरह कल का हिदोस्तान शायद दुन्या कि नुमायाँ हस्ती बन कर लोगों कि आँखें खैरा कर दे। 
मगर भारत के हिदुत्व के पाखंड को भी साथ साथ ख़त्म करना होगा जो कि इस्लामी नासूर से कम नहीं। 


लीजिए शुरू होती है क़ुरआनी गाथा - - 
"यकीनन जो लोग काफ़िर हैं अगर उनके पास दुनिया भर की तमाम चीजें हों और उन चीज़ों के साथ उतनी चीजें और भी हों ताकि वोह उनको देकर रोजे क़यामत के अज़ाब से छुट जाएं, तब भी वोह चीजें उन से कुबूल न की जाएँगी और उनको दर्द नाक अजाब होगा." 
"सूरह अलमायदा 5 छटवाँ पारा-आयत (36) 
इंसानी समाज में गरीब अवाम हमेशा ही ज्यादा रहे है. गरीब और अमीर की अज़्ली जंग भी हमेशा जारी रही है. गरीब अमीरों से नफ़रत तभी तक क़ायम रखता है जब तक अमारत को वोह खुद छू नहीं लेता और फिर वह अपने ही समाज की नफरत, हसद और लूट का शिकार बन जाता है. 
ईसा का कहना था ऊँट सूई के नाके से निकल सकता है मगर दौलत मंद जन्नत में दाखिल नहीं हो सकता. 
कार्ल मार्क्स ने इस इंसानी समाज का गनीमत हल निकाला, 
माओ ज़े तुंग ने इस को अमली जामा पहनाया जो अभी तक अपने आप में इज्तेहाद (सुधार) के साथ कामयाब है और बेदाग है. वहां इन इस्लामी आलिमों जैसी कोई नापाक मखलूक (जीव) या उसका बीज नहीं बचा है. कई कम्युनिस्ट मुमालिक के रहनुमाओं ने इसकी ना जायज़ औलाद जन्मी और नापैद हुए. 
मुहम्मद ने भी गुरबत की दुखती रग पर ही हाथ रख कर इतनी कामयाबी हासिल की, मगर उनकी तहरीक में सच्चाई की जगह खुराफ़ात थी और उनके बाद ही उनकी नस्ल में हसन ऐश और अय्याशी के शिकार होकर ज़िल्लत की मौत मरे. हुसैन अपने मासूम भानजों भतीजे, बच्चो और खानदान के दीगर लोगों को कुर्बान कर के खुद को इस्लामी फौज के हवाले किया, 
सिर्फ खिलाफत की लालच में. मुहम्मद की आमाल की बुरी सज़ा उनकी नस्लों को मिली. काफ़िर इसलाम के वजूद में आने के बाद से लेकर आज तक धरती पर सुर्ख रू हैं. मुस्लमान ऊपर की आसमानी दौलत के चक्कर में दुनया की एक पिछड़ी क़ौम बन कर रह गई है. भारत में काफ़िरों की संगत में रह कर कुछ मुस्लमान अपनी हैसियत बनाने में कामयाब है, ख्वाह वोह सनअत में हों या फ़नकार हों, 
जिन पर आम मुस्लमान फख्र करते हैं और ये फटीचर मौलाना उनके सामने चंदे की रसीद लिए खड़े रहते हैं.

"और जो औरत या मर्द चोरी करे, सो उन दोनों के दाहिने हाथ गट्टे से काट डालो. इन के किरदार के एवाज़, बतोर सजा के, अल्लाह की तरफ से और अल्लाह ताला बड़ी कूवत वाले हैं और बड़ी हिकमत वाले हैं." 
सूरह अलमायदा 5 छटवाँ पारा-आयत (38) 
आज भी यह क़ानून सऊदी अरब में लागू है। काश कि यह वहशियाना क़ानून दुनया के तमाम मुल्कों में सिर्फ मुसलमानों पर लागू कर दिया जाए जिस तरह शादी और तलाक़ को मुस्लमान पर्सनल ला बना कर अलग अपनी डेढ़ ईंट की मस्जिद बनाए हुए है. कोई मुस्लिम तन्जीम या ओलिमा इस आयत को लेकर मैदान में नहीं उतरते कि 
मुस्लिम चोरों और उठाई गीरों के दाहिने हाथ गट्टे से काट दी जाएं. उन के लिए जो जेहाद के बहाने बस्तियों पर डाका डालते थे, मुहम्मद ने कोई सजा नहीं रखी , उनकी लूट को तो गनीमत करके निगलने जाने का फरमान है. 
चवन्नी की चोरी पर हाथ को घुटनों से काट देने का हुक्म? इंसान किन हालात में चोरी करने पर मजबूर होता है, ये बात कोई उम्मी सोंच भी नहीं सकता.कुरानी अल्लाह का यहूदियों से खुदाई बैर चलता रहता है. इनका वजूद भी इसे अज़ीज़ है और इन की दुश्मनी भी. ज़बरदस्ती उनको अपना गवाह बनाए रहता है. इनकी कज अदाई पर कहता है - - -

" - - - और जिस को ख़राब होना ही अल्लाह को मंज़ूर हो तो इसके लिए अल्लाह से तेरा कोई जोर नहीं, यह लोग ऐसे हैं कि अल्लाह को इनके दिलों को पाक करना मंज़ूर नहीं. यह लोग गलत बात सुनने के आदी हैं, हराम खाने वाले हैं." 
सूरह अलमायदा 5 छटवाँ पारा-आयत (41) 
मुस्लमानो! 
अपने अल्लाह से पूंछो कि अगर बड़ी ताक़त वाला और बड़ी हिकमत वाला है तो इस ज़रा से काम में क्या क़बाहत है कि लोगों के दिलों को पाक कर दे. चुटकी बजाते ही ये काम उसके बस का है, और अगर नहीं कर सकता तो वोह भी बन्दों की तरह बेबस है. अगर वोह उनके दिलों को नापाक ही रहने देना चाहता है तो यह कुरानी नौटंकी क्यूँ? 
क्या उसको अपना जाँ नशीन चुनने के लिए मुहम्मद जैसा मक्के का महा-मूरख ही मिला था जो तमाम दुन्या में जेहालत की खेती करा रहा है.?

कुरानी अल्लाह की यह बात भी दावते फ़िक्र देती है - - - 
" और हम ने उन पर इस में ये बात फ़र्ज़ की थी कि जान के बदले जान, आँख के बदले आँख, नाक के बदले नाक, कान के बदले कान, दाँत के बदले दाँत और खास ज़ख्मों का बदला भी, फिर भी इस के लिए जो मुआफ करदे, वोह उसके लिए कुफ्फारा हो जाएगा - - - " 
सूरह अलमायदा 5 छटवाँ पारा-आयत (45) 
मुन्तक़िम अल्लाह और मुन्तक़िम रसूल के कानून इस से कम क्या हो सकते हैं.जेहालत को नए सिरे से लाने वाले अल्लाह के बने रसूल कहते हैं - - - 
" यह लोग क्या फिर ज़माना ए जेहालत का फैसला चाहते हैं?" 
सूरह अलमायदा 5 छटवाँ पारा-आयत (50) 
बाबा इब्राहीम का दौर इरतेकाई (रचना कालिक) दौर के हालात जेहालत की मजबूरी में कहे जा सकते हैं. फिर मूसा का दौर आते आते जेहालत की गाठें खुलती हैं मगर बरक़रार रहीं. ईसा ने इसे खोल कर इंसानी समाज को बड़ी राहत बख्शी. अरब दुन्या भी इस से फैज़याब हुई. .कुरआन गवाह है कि उम्मी मुहम्मद ने ईसा के किए धरे पर पानी फेर दिया और आधी दुन्या पर एक बार फिर जेहालत का गलबा हो गया. 
ताजुब है वह ही कह रहा है - - -
" यह लोग क्या फिर ज़माना ए जेहालत का फैसला चाहते हैं?" 
मुसलमान ही जाग कर अपनी किस्मत बदल सकते हैं, वगरना दुश्मने मुस्लमान यह सियासत दान और हरामी ओलिमा मुसलमानों को कभी भी जागने नहीं देंगे. 
''यहूदियों और ईसाइयों को दोस्त मत बनाना , वह एक दूसरे के दोस्त हैं और तुम में से जो शख्स उन से दोस्ती करेगा, बेशक वोह इन्हीं में से होगा।" 

नतीजे में आज सिर्फ ईसाई और यहूदी ही नहीं कोई कौम भी खुद मुसलमानों को दोस्त बनाना पसंद नहीं करती, यहाँ तक की मुसलमान भी एक बार मुसलमान को दोस्त बनाने के लिए सौ बार सोचता है. 


जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Monday 7 September 2015

SOORAH MAYDA 5 pART 2 (17-35)

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.
**********
सूरह अलमायदा 5 छटवाँ पारा
(दूसरी किस्त)


अन्ना का गन्ना :-- 
यहूदी काल में भी अन्ना समर्थकों का ताँता बंधा रहता. लोग किसी भी मौक़े पर तमाश बीन बन्ने के लिए तैयार रहते. 
एक व्यभिचारणी को जुर्म की सजा में संग सार (पथराव) करने की तय्यारी चल रही थी, लोग अपने अपने हाथों में पत्थर लिए हुए खड़े थे. 
वहीँ ईसा ख़ाली हाथ आकर खड़े हो गए. 
व्यभिचारणी लाई गई, पथराव शुरू ही होने वाला था कि ईसा ने लोगों को संबोधित करते हुए कहा - - - 
" तुम लोगों में पहला पत्थर वही मारेगा जिसने कभी व्यभिचार न किया हो" 
सब के हाथ से पत्थर नीचे ज़मीन पर गिर गए. शायद उस वक़्त लोग अंतर आत्मा वाले रहे होंगे ?
अन्ना अगर ईसा तुल्य हो तो उन्हें चाहिए कि वह लोगो से कहें - - - 
" मेरे साथ वही लोग आएं जिन्हों ने कभी भ्रस्ट आचरण न किया हो.
 न रिश्वत लिया हो और न रिश्वत दिया हो." 
बड़ी मुश्किल आ जाएगी कि वह अकेले ही राम लीला मैदान में पुतले की तरह खड़े होंगे. 
चलिए इस शपथ को और आसान करके लेते हैं कि वह अपने अनुयाइयों से यह शपथ लें कि आगे भविष्य में वह रिश्वत लेंगे और न रिश्वतदेंगे. रिश्वत के मुआमले में लेने वालों से देने वाले दस गुना होते हैं. 
पहले देने वाले ईमानदार और निर्भीक बने. रिश्वत के आविष्कारक देने वाले ही थे. अन्ना सिर्फ सातवीं क्लास पास हैं, उनके अन्दर इंसानी नफ्सियत की कोई समझ है, न अध्यन, परिपक्वता तो बिलकुल नहीं है, वह अनजाने में भ्रष्टा चार का एक रावन और बनाना चाहते हैं जिसका रूप होगा लोकायुक्त. अन्ना को चाहिए कि वह अपनी बची हुई थोड़ी सी ज़िन्दगी को हिन्दुस्तानियों के चरित्र निर्माण में लगाएं. 

गुल की मानिंद पाई है हम ने जहाँ में ज़िन्दगी, 
रंग बन के आए हैं , बू बन के उड़ जाएँगे हम।


ये है एक शायर का चिंतन और मुहम्मदी अल्लाह भी तुकबंदी करता है मगर अपनी शायरी में वह ज़िन्दगी को चूं चूं का मुरब्बा से लेकर हव्वुआ बना देता है.
कहता है - - - 
"बिला शुबहा वोह काफिर हैं जो कहते हैं अल्लाह में मसीह बिन मरियम हैं.आप पूछिए अगर कि अल्लाह मह्सीह इब्ने मरियम को और उनकी वाल्दा को और ज़मीन में जो हैं उन सब को हलाक करना चाहे तो कोई शख्स ऐसा है जो अल्लाह ताला से इन को बचा सके."
सूरह अलमायदा 5 छटवाँ पारा-आयत (17)
*मुहम्मद ने कहना चाहा होगा कि मसीह इब्ने मरियम में अल्लाह है मगर आलम वज्द में कह गए अल्लाह में मसीह इब्ने मरियम है और क़ुरआन को मुरत्तब करने वालों ने भी "मच्छिका स्थाने मच्छिका" ही कर दिया और कोई बड़ी बात भी नहीं कि मुहम्मद कि इल्मी लियाक़त इस को दर गुजर भी कर सकती है. मुसलमान तो मानता है कुरआन में जो भूल चूक है उसका ज़िम्मेदार अल्लाह है. 
पूरी सूरह ही जिहालत से लबालब है, मुसलमान इसे कब तक वास्ते सवाब पढता रहेगा ?
"और यहूदी व नसारह(ईसाई) दावा करते हैं कि हम अल्लाह के बेटे हैं और महबूब हैं, फिर तुम को ईमानों के एवाज़ अजाब क्यूँ देंगे बल्कि तुम भी मिन जुमला और मखलूक एक आदमी हो."
सूरह अलमायदा 5 छटवाँ पारा-आयत (18)
मिन जुमला उम्मी मुहम्मद का तकिया कलाम है वोह अक्सर इस लफ्ज़ को गैर ज़रूरी तौर पर इस्तेमाल करते हैं.यहाँ पर भी जो बात कहना चाहा है वोह कह नहीं पाए, अब मुल्ला जी उनके मददगार इस तरह होगे कि बन्दों को समझेंगे "अल्लाह का मतलब यह है कि - - -"
गोया अल्लाह इनका हकला भाई हुवा. 
यहूद, नसारह अपने अपने राग गा रहे थे, मुहम्मद ने सोचा अच्छा मौक़ा है, क्यूँ न हम इस्लामी डफली लेकर मैदान में उतरें मगर उनके साथ बड़ा हादसा था कि वह उम्मी नंबर वन थे जिस को कठमुल्ला कहा जाए तो मुनासिब होगा.
"मुहम्मद एक बार फ़िर मूसा को लेकर नई कहानी गढ़ते है जो हर कहानी कि तरह बेसिर पैर की होती है. पता नहीं उनको कोई पुर मज़ाक यहूदी मिल जाता है जो मूसा की फ़र्जी दस्ताने गढ़ गढ़ कर मुहम्मद को बतलाता है. उस पर उनके गैर अदबी ज़ौक़ की किस्सा गोई के लिए भी सलीका ए गोयाई चाहिए. बस शुरू हो जाते हैं अल्लाह ताला बन कर - - - 
"वोह वक़्त भी काबिले ज़िक्र है कि जब - - - 
या इस तरह कि क्या तुम को इस किस्से के बारे में, मालूम है कि जब - - -
"सूरह अलमायदा 5 छटवाँ पारा-आयत (19-32)" 
जो लोग अल्लाह और उसके रसूल से लड़ते हैं और मुल्क में फसाद फैलाते फिरते हैं, उनकी यही सज़ा है कि क़त्ल किए जावें या सूली दी जावें या उनके हाथ और पाँव मुखलिफ सम्त से काट दिए जवे या ज़मीन पर से निकाल दिए जावें - - - 
उनको आखरत में अज़ाब अज़ीम है. हाँ जो लोग क़ब्ल इस के कि तुम उनको गिरफ्तार करो, तौबा कर लें तो जान लो बे शक अल्लाह ताला बख्स देगे, मेहरबानी फरमा देंगे."
सूरह अलमायदा 5 छटवाँ पारा-आयत (33-34)
भला अल्लाह से कौन लडेगा? 
वोह मयस्सर भी कहाँ है? 
हजारों सालों से दुन्या उसकी एक झलक के लिए बेताब है,बाग़ बाग़ हो जाने के लिए, तर जाने के लिए, निहाल हो जाने के लिए सब कुछ लुटाने को तैयार है। 
उसकी तो अभी तक जुस्तुजू है, किसी ने उसे देखा न पाया, सिवाय मुहम्मद जैसे खुद साख्ता पैगम्बरों के. उस से लड्ने का सवाल ही कहाँ पैदा होता है. लडाई तो उसका एजेंट पुर अमन ज़मीन पर थोप रहा है. 
गौर तलब है की कैसे कैसे घृणित तरीके अपने विरोधियों के लिए ईजाद कर रहा है जिस को 'मोहसिन इंसानियत 'मानव मित्र' यह ओलिमा हराम जादे कहते हुए नहीं शर्माते. मुहम्मद ने अपनी जिंदगी में लोगों का जीना दूभर कर दिया था जिसका गवाह कोई और नहीं खुद यह क़ुरआन है. इसकी सजा मुसलसल कि शक्ल में भोले भाले इंसानों को इन आलिमो की वज़ह से मिलती रही है मगर यह आज तक ज़मीं से नापैद नहीं किए गए जाने कब मुसलमान बेदार होगा. 
इक क़ुरआन उसके लिए ज़हर का प्याला है जो अनजाने में वह सुब्ह ओ शाम पीता है. 
"मुहम्मद ही इस ज़मीन का शैतानुर्र रजीम था जिस पर लानत भेज कर इसे रुसवा करना चाहिए." 
"ए ईमान वालो! 
अल्लाह से डरो और अल्लाह का कुर्ब ढूंढो, उसकी राह में जेहाद करो, उम्मीद है कामयाब होगे."
सूरह अलमायदा 5 छटवाँ पारा-आयत (35)
याद रखें मुहम्मद दर पर्दा बजात खुद अल्लाह हैं और आप को अपने करीब चाहते हैं ताकि आप पर ग़ालिब रहें और आप से दीन के नाम पर जेहाद करा सकें. 
मुहम्मद दफ़ा हो गए हजारों मिनी मुहम्मद पैदा हो गए जो आप की नस्लों को जाहिल रखना चाहते हैं. अफ्गंस्तान, पाकिस्तान ही नहीं हिंदुस्तान में भी ये सब आप की नज़रों के सामने हो रहा है और अप की आँखें खुल नहीं रहीं. कोई राह नहीं है कि मैदान में खुल कर आएं. कमसे कम इस से शुरुआत करें की मुल्ला, मस्जिद और मज़हब का बाई काट करें.
मत डरें समाज से,समाज आपसे है. मत डरें अल्लाह से, डरें तो बुराइयों से. अल्लाह अगर है भी तो भले लोगों का कभी बुरा नहीं करेगा. अल्लाह से डरने की ज़रुरत नहीं है. अल्लाह कभी डरावना नहीं होगा, होगा तो बाप जैसा अपनी औलाद को सिर्फ प्यार करने बाला,दोज़ख में जलाने वाला? उस पर लाहौल भेजिए। 


जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Friday 4 September 2015

Soorah maayda 5 Part 1 (1-16)

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.

*******

सूरह अलमायदा 5 छटवाँ पारा 
(किस्त --1)

मैं वयस्कता से पहले ईमान का मतलब लेन देन के तकाजों को ही समझता था (और आज भी सिर्फ़ इसी को समझता हूँ) मगर इस्लामी समझ आने के बाद मालूम हुवा कि इस्लामी ईमान का अस्ल तो कुछ और ही है, वह है 'कलमा ए शहादत', 
अल्लाह और उसके रसूल पर ईमान रखना, 
कसमे-आम और कसमे-पुख्ता. 
इन बारीकियों को मौलाना जब समझ जाते है कि अल्लाह कितना दर गुज़र (झूट को ) करता है तो वह लेन देन की बेईमानी भरपूर करते हैं. 
मेरे एक दोस्त ने बतलाया कि उनके कस्बे के एक मौलाना, मस्जिद के पेश इमाम, मदरसे के मुतवल्ली क़ुरआन के आलिम, बड़े मोलवी, साथ साथ ग्राम प्रधान, रहे हज़रात ने कस्बे की रंडी हशमत जान का खेत पटवारी को पटा कर जीम का नुकता बदलवा कर नीचे से ऊपर करा दिया जो जान की जगह खान हो गया. हज़रात के वालिद मरहूम का नाम हशमत खान था. विरासत हशमत खान के बेटे, बड़े मोलवी साहब उमर खान की हो गई.
हशमत रंडी की सिर्फ एक बेटी छम्मी थी(अभी जिंदा है), उसने उसको मोलवी के क़दमों पर लाकर डाल और कहा" मोलवी साहब इस से रंडी पेशा न कराऊँगी, रहेम कीजिए, अल्लाह का खौफ़ खाइए - - - " 
मगर मोलवी का दिल न पसीजा उसका ईमान कमज़ोर नहीं था, बहुत मज़बूत था। दो बेटे हैं, मेरे दोस्त बतलाते हैं दोनों डाक्टर है, और पोता कस्बे का चेयर मैन है। रंडी की और मदरसे की जायदादें सब काम आरही हैं. यह है ईमान की बरकत.
मुसलामानों के इस ईमानी झांसे में हो सकता है गैर मुस्लिम इन से ज्यादा धोका खाते हों कि ईमान लफ्ज़ को इन से जाना जाता है.
अहद की बात आई तो तसुव्वुर कायम हुवा "प्राण जाए पर वचन न जाए" मगर अल्लाह तो अहद के नाम पर चौपायों के शिकार की बातें कर रहा है। 

खैर, चलो शुक्र है दो पायों (यानी इंसानों) के शिकार से उसकी तवज्जो हटी हुई है.
"ऐ ईमान वालो! अहदों को पूरा करो. तुम्हारे लिए तमाम चौपाए जो पुरस्कार स्वरूप के हों, हलाल किए गए, मगर जिन का ज़िक्र आगे आता है, लेकिन शिकार हलाल मत समझना, जिस हालत में तुम अहराम (एक अरबी परिधान) में हो. बेशक अल्लाह जो चाहे हुक्म दे," 
सूरह अलमायदा 5 छटवाँ पारा-आयत (1)
इस सूरह में शिकारयात पर अल्लाह का कीमती तबसरा ज्यादह ही है गो कि आज ये फुजूल की बातें हो गईं हैं मगर मुहम्मदी अल्लाह इतना दूर अंदेश होता तो हम भी यहूदियों की तरह दुनिया के बेताज बादशाह न होते. खैर ख्वाबों में सही आकबत में ऊपर जन्नतों के मालिक तो होंगे ही. मोहम्मद शिकार के तौर तरीके बतलाते हैं क्यंकि उनके मूरिसे आला इस्माईल इब्ने लौंडी हाजरा(हैगर) के बेटे एक शिकारी ही थे जिनकी अलमाती मूर्तियाँ काबे की दीवारों में नक्श थीं, जिसे इस्लामी तूफ़ान ने तारीखी सच्चाइयों की हर धरोहर की तरह खुरच खुरच कर मिटा दिया.
मगर क्या खून में दौड़ती मौजों को भी इसलाम कहीं पर मिटा सका है. खुद मुहम्मद के खून में इस्माईल के खून की मौज कुरआन में आयत बन कर बन कर बोल रही है. हिदुस्तानी मुल्ला की बेटी की तन पर लिपटी सुर्ख लिबास, क्या सफेद इस्लामी लिबास का मुकाबला कर सका है? 
मुहम्मद कुरआन में कहते है बेशक अल्लाह जो चाहे हुक्म दे, 
यह उनकी खुद सरी की इन्तहा है और उम्मत गुलाम की इंसानी सरों की पामाली की हद. 
एक सरकश अल्लाह बन कर बोले और लाखों बन्दे सर झुकाए लब बयक कहें, इस से बड़ा हादसा किसी क़ौम के साथ और क्या हो सकता है?
"तुम पर हराम किए गए हैं मुरदार, खून और खिंजीर (सुवर) का गोश्त और जो कि गैर अल्लाह के नाम पर मारा गया हो और जो गला घुटने से मर जाए, जो किसी ज़र्ब से मर जाए या गिर कर मर जाए, जिसको कोई दरिंदा खाने लगे, लेलिन जिस को ज़बह कर डालो."
सूरह अलमायदा 5 छटवाँ पारा-आयत (3) 
ज़रा जिंदगी की हकीक़तों में जाकर देखिए तो ये बातें बेवकूफ़ी की लगती हैं। आप की भूक कितनी है, हालात क्या हैं? हराम हलाल सब इन बातों पर मुनहसर करता है. 
किसी बादशाह ने मेहतरों को हलाल खोर का ठीक ही लक़ब दिया था, आज का सब से बड़ा हराम खोर रिशवत खाने वाला है. धर्म ओ मज़हब की कमाई खाने वाले भी खुद को हराम खोर ही समझें.
"और अगर तुम बीमार हो, हालते सफ़र मे हो या तुम मे से कोई शख्स इस्तेंजे(शौच) से आया हो या तुम ने बीवियों से कुर्बत की हो, फिर तुम को पानी न मिले तो पाक ज़मीन से तैममुम (भभूति करण) करो यानी अपने चेहरों पर, हाथों पर हाथ फेर लिया करो."
सूरह अलमायदा 5 छटवाँ पारा-आयत (6)
तैममुम भी क्या मज़ाक है मुसलमानों के मुँह पर, इसकी लोजिक कहीं से भी समझ में नहीं आती, सिवाए इसके की मुँह और हाथों पर धूल मल लेना, हो सकता है जहाँ मोलवी तैममुम कर रहा हो वहां कल किसी जानवर ने पेशाब किया हो? इस से बेहतर तो हवाई तैममुम था जैसे हवाई अल्लाह मियां हैं. मगर इसलाम में पाकी की बड़ी अहमियत है. इस तरह पाकी हफ्तों और महीनों बर क़रार रह सकती है भले ही कपडे साफ़ी हो जाएँ और इन से बदबू आने लगे. 
इसके बर अक्स एक कतरा पेशाब ताजे धुले कपडे में लग जाए तो मुस्लमान नापाक हो जाता है, यहाँ तक कि अगर वोह कपडा वाशिंग मशीन में डाल दिया गया है तो उस के साथ के सभी कपडे नापाक हुए. नापाक कपडे की नजासत को बहते हुए पानी से इसलाम धोता है और जिस्म पर बैठी हुई गंदगी को तैममुम से जमी रहने देता है. 
देखने में आता है बनिए मगरीबी यू पी में मुसलामानों को पास बिठाना पसंद नहीं करते.
"और किसी खास क़ौम की अदावत तुम्हारे लिए बाइस न बन जाए कि तुम अदल (न्याय)न करो. अदल किया करो कि वो तक़वा (तपस्या)से करीब है."
सूरह अलमायदा 5 छटवाँ पारा-आयत (8)
मुहम्मद कभी कभी मसलहतन जायज़ बात भी कर जाते है.
" अल्लाह लोगों से मुसलमान होने के बाद ही अच्छे कामों के बदले बेहतर आखरत के वादे करता है। बनी इस्राईल को उन के बारह सरदारों की पद प्रतिष्ठा की याद दिलाता है, जो कि युसुफ़ के भाई और हज़रत इब्राहीम के पड़ पोते थे. इन से इस्लामी नमाजें और ज़कात अदा कराता है. मुहम्मद अपने मज़हबी कर्म कांड के साथ चौदह सौ साल पहले पैदा होते है और साढे तीन हज़ार साल पहले पैदा होने वाले यहूदियों से इस्लामी फ़राइज़ अदा कराते हैं, अपने ऊपर ईमान लाने की बातें करते हैं, गोया दीर्घ अतीत में दाखिल होकर इस्लामी प्रचार करते हैं और यहूदियों के नबियों को मुसलमान बनाते हुए वर्तमान में आँखें खोलते हैं. अल्लाह इन से क़र्ज़ लेकर इनके गुनाह दूर करने की बात करता है. मुहम्मद को हर रोज़ कोई न कोई बुरी खबर मिलती रहती है कि कोई टुकडी इनकी समूह से कट गई है. अल्लाह इनको तसल्ली देता है. नव मुस्लिम अंसार ताने देने लग जाते हैं, हम तो अंसार ठहरे, उन को भी मुहम्मद क़यामत तक के लिए बैर और अदावत की वजेह से पुन्य के एक हिस्से से वंचित कर देते हैं. मुहम्मद अपनी किताब को एक नूर बतलाते है, और इसकी रौशनी में ही राह तलाश करने की हिदायत करते हैं जी हाँ! किताब यही हरे हुरूफों वाली जिसमें होई राह नज़र नहीं आती." 
सूरह अलमायदा 5 छटवाँ पारा-आयत (9-16)





जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान