Sunday 28 September 2014

Jhalkiyan No 1 kaynat sazi

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.
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क़ुरआन में कई अच्छी और कई बुरी हस्तियों का नाम बार आता है , जिसमे उनका ज़िक्र बहुत मुख़्तसर होता है। पाठक की जिज्ञासा उनके बारे में बनी रहती है कि वह उनकी तफ्सील जानें। मुहम्मद ने इन हुक्मरानों का नाम भर सुना था और उनको पैग़म्बर या शैतान का दरजा देकर आगे बढ़ जाते हैं , उनका नाम लेकर उसके साथ मन गढ़ंत लगा कर क़ुरआन पढ़ने वालों को गुमराह करते हैं।  दर अस्ल यह तमाम हस्तियां यहूद हैं जिनका विवरण तौरेत में आया है, मैं उनकी हक़ीक़त बतलाता हूँ , इससे मुहम्मदी अल्लाह की जिहालत का इन्किशाफ़ होता है। 
क़ुरआन के झूट - - - 
और तौरेती सदाक़त  - - -

झलकियाँ - - -
इंजील दो हिस्सों में तक़सीम है , पहला आदम से लेकर ईसा तक। 
इसे ओल्ड टेस्टामेंट (Old Testament )कहते हैं। 
दूसरा ईसा और ईसा के बाद का है जिसे (New Testament ) कहते हैं। 
ईसाई इन दोनों हिस्से को अपनी मुक़द्दस इंजील मानते हैं मगर ,
यहूदियों का सिर्फ पहले हिस्से Old Testament पर ही ईमान है जिसे तौरेत कहते हैं। 
ईसा बज़ात ख़ुद यहूदी थे मगर बुन्याद परस्ती के बाग़ी थे , जैसे भारत में कबीर हुए।  इस लिए यहूद उनको अपने धर्म का दुश्मन मानने लगे। 
मुहम्मद का माहौल यहूदियों से ज़्यादा मुतास्सिर था , इस लिए उन्हों ने बुत परस्तों के बीच में नया मूसा बनने का तरीक़ा अपनाया , इसी लिए इस्लाम में तौरेती अंकुर हैं। इंजील से मुहम्मद कम ही वाक़िफ़ थे इस लिए क़ुरआन में ईसाइयत की झलक कम ही नज़र आती हैं, सूरह मरियम में मुहम्मद ने कुछ मनगढ़ंत की है। 

तौरेत 
तौरेत के मानी हैं निज़ाम अर्थात ब्यौवस्थान जो की पाँच हिस्सों में बटी  हुई है - - - 
१ - पहले में सृस्टि का और इसपर बसने वाले जीवों का जन्म। 
२- दुसरे में मिस्र से यहूदियों का निष्काशन 
३- तीसरे हिस्से में मिस्र यदूदियों के निष्काशित होने के बाद के हालात। 
४- यहूदियों की जनसंखिया। 
५- धार्मिक रस्म व् रिवाज। 

   कहते हैं कि तौरेत मूसा का ग्रंथ है मगर यह बात पूरी तरह से सच नहीं है , क्यूंकि मूसा के बाद के हालात बज़रिए मूसा कैसे मुमकिन है ? दरअस्ल तौरेत एक ऐतिहासिक ग्रन्थ है जब भी और जिसने भी लिखी हो। 
क़ुरआन अलग अपना ही राग अलापता है कि तौरेत आसमानी किताब है जो मूसा पर उतरी है। 

तौरेती झलकियाँ 

झलकी नंबर १- 
ख़ुदा की कायनात साज़ी 
ख़ुदा ने पहले जन्नत बनाई फिर ज़मीन बनाई। 
तब पानी बेतल था और इसके ऊपर अँधेरा था , 
तब ख़ुदा ने रौशनी को हुक्म दिया और रौशनी हो गई। 
ख़ुदा को रौशनी अच्छी लगी और उसने उसको अँधेरे से अलग कर दिया। 
उजाले को दिन कहा और अँधेरे को रात।  
शाम हुई फिर सुब्ह हुई , 
यह था पहला दिन। 

शाम हुई और फिर सुब्ह हुई , 
यह था दूसरा दिन।  
इस दिन ख़ुदा ने ज़मीन बनाया , फिर आसमान बनाया। 

तीसरे दिन ख़ुदा ने पानी और खुश्की बनाई।  
खुश्की को तरह तरह के बीजों से हरा भरा किया यानी ज़मीन पर पेड़ पौदे हुए जिससे खाने पीने का इंतेज़ाम किया। 

चौथे दिन ख़ुदा ने सूरज बनाया ताकि दिन को रौशन किया जा सके , 
तारे बनाए ताकि रात को सजाया जा सके।  

पांचवें दिन ख़ुदा ने पानी की मख़लूक़ और परिंदों की रचना की और इन्हें आशीर्वाद दिया कि फलो फूलो और जल-थल में फैल जाओ। 

छटे दिन ख़ुदा ने ज़मीन पर बसने वाले चौपाए और रेंगने वाले जीव पैदा किए .

इसके बाद इसने अपनी शक्ल व् सूरत वाला आदमी बनाया जिसे कि जल-थल के तमाम मख़लूक़ पर ग़ालिब किया।  
उसने मर्द और औरत बनाया और उनका खैर ख्वाह हुवा कि फूलो फलो और ज़मीन पर फैल जाओ। 

सातवें दिन ख़ुदा अपने बनाए हुए शाहकार पर खुश था , इस दिन इसने आराम किया और इस दिन को आराम का दिन घोषित किया। 

(क़ुरआन में ख़ुदा की इस क़ायनात साज़ी को मुहम्मद ने अदल-बदल कर पेश किया है ताकि उनके अल्लाह की बात सच मानी जाय , ताकि तौरेत को कंडम किया जा सके )
    

   


जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Tuesday 16 September 2014

Soorah Falaq+naas 113 + 114

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.
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सूरह फ़लक़ - ११३ - पारा - ३० 
(कुल आऊजो बेरब्बिल फलके) 
सूरह नास - ११४- पारा - ३० 
(कुल आऊजो बेरब्बिंनासे) 
 
आज मैं खुश हूँ कि क़ुरआन की आख़िरी सूरह पर पहुँच चुका हूँ. सूरह अव्वल यानी सूरह फातेहा में मैंने आपको बतलाया था कि मुहम्मद खुद अपने कलाम को अल्लाह बन कर फ़रमाने की नाकाम कोशिश की, जिसे ओलिमा ने क़लम का ज़ोर दिखला कर कहा कि अल्लाह कभी अपने मुँह से बोलता है, कभी मुहम्मद के मुँह से, तो कभी बन्दे के मुँह से बोलता है. बोलते बोलते देखिए कि आखिर में अल्लाह की बोलती बंद हो गई, उसने सच बोलकर अपनी खुदाई के खात्मे का एलान कर दिया है. 
क़ुरआन की ११४ सूरतों का सिलसिला बेतुका सा है, कोई सूरह इस्लाम के वक़्त ए इब्तेदा की है तो अगली सूरह आखिर दौर की आ जाती है. बेहतर यह होता कि इसे मुरत्तब करते वक़्त मुहम्मद की तहरीक के मुताबिक इस का सिसिला होता. खैर, इस्लाम की तो सभी चूलें ढीली हैं, उनमें से एक यह भी है. इस खामी से एक फ़ायदा यह हुवा है कि इन आखिरी दो सूरतों में इस्लाम की वहदानियत की हवा खुद मुहम्मदी अल्लाह ने निकाल दिया है. 
अल्लाह जिब्रील के मार्फ़त जो पैगाम मुहम्मद के लिए भेजता है उसमे मुहम्मद उन तमाम कुफ्र के माबूदों से पनाह माँगते है, अल्लाह की, जिसे हमेशा नकारते रहे, जिससे साबित है कि उनमें खुदाई करने का दम है. इस सूरह में अल्लाह तमाम माबूदों को पूजने का मश्विरः देता है क्यूंकि वह बीमारी से निढाल है.
मुहम्मद शदीद बीमार हो गए थे, कहते हैं कि उनका पेट फूल गया था, जिसकी वजेह थी कि कुछ यहूदिनों ने उन पर जादू टोना कर दिया था कि उनकी बजने वाली मिटटी जाम हो गई थी और उनका बजना बंद हो गया था.( पिछली सूरतों में उन्होंने फ़रमाया है कि इंसान बजने वाली मिटटी का बना हुवा है) उनका पेट इतना फूल गया था कि बोलती बंद हो गई थी. जिब्रील अलैहिस सलाम वहयी लेकर आए और मंदार्जा जेल आयतें पढनी शरू कीं, तब जाकर धीरे धीरे उनका जाम खुलने लगा, उनसे जिब्रील ने कहलवाया कि - - - 
"तुम गाठों पर पढ़ पढ़ कर फूंकने वाली वालियों को तस्लीम करो कि उनकी भी एक हस्ती है तुम्हारे अल्लाह जैसी ही." 
"हसद करने वाले भी दमदार हैं जो अपना असर अल्लाह की तरह रखते हैं, जब वह हसद करने पर आ जाएं." 
"आदमियों के मालिक, बादशाहों का भी अल्लाह की तरह ही कोई मुक़ाम है." 
"आदमियों के मुखतलिफ़ माबूदों ; लात, मनात और उज्जा वगैरा को भी तस्लीम करो कि वह भी अल्लाह की तरह ही कोई ताक़त हैं." 
"वुस्वुसा डालने के वहेम को भी अपना माबूद तस्लीम करो जब तुम वुस्वुसे में आओ." 
"जिन्न को तो तुम पहले से ही अल्लाह दो नम्बरी माने बैठे हो. तो ठीक है . . . ." 
एन हफ्ते की मामूली बीमारी ने मुहम्मद को ऐसा सबक़ सिखलाया कि इस्लाम का मुँह काला हो गया. मुहम्मद के फूले हुए पेट से मुहम्मदी अल्लाह की सारी हवा ख़ारिज हो गई, 
मुसलमान सिर्फ इन ग्यारह आयतों की दो सूरतों को ही पढ़ कर संजीदगी से मुहम्मद को समझ लें तो मुहम्मदी अल्लाह को समझ पाना आसान होगा. 
सूरह फ़लक़ - ११३ - पारा - ३० 
(कुल आऊजो बेरब्बिल फलके) 

"आप कहिए कि मैं सुब्ह के मालिक की पनाह लेता हूँ,
तमाम मख्लूकात के शर से,
और अँधेरी रत की शर से,जब वह रात आ जाए,
और गाठों पर पढ़ पढ़ कर फूँकने वालियों की शर से,
और हसद करने वालों के शर से, जब वह हसद करने लगें."
(सूरह फ़लक़ - ११३ - पारा - ३० आयत (१-५)

सूरह नास ११४ - पारा - ३० 
(कुल आऊजो बेरब्बिंनासे) 

"आप कहिए,
कि मैं आदमियों के मालिक और आदमियों के बादशाह,
और आदमियों के माबूद से पनाह लेता हूँ,
वुस्वुसा डालने, पीछे हट जाने वाले के शर से,
जो आदमियों के दिलों में वुस्वसा डालता है,
ख्वाह वह जिन हो या आदमी." 
(सूरह फ़लक़ - ११३ - पारा - ३० आयत (१-६)

नमाज़ियो !
सूरह फ़लक और सूरह नास के बारे में वाक़िया है कि यहूदिनों ने मुहम्मद पर जादू टोना करके उनको बीमार कर दिया था, तब अल्लाह ने यह दोनों सूरतें बयक वक़्त नाजिल कीं, घर की तलाशी ली गई, एक ताँत (सूखे चमड़े की रस्सी) की डोरी मिली, जिसमे ग्यारह गाठें थीं. इसके मुकाबिले में जिब्रील ने मंदार्जा ग्यारह आयतें पढ़ीं, हर आयत पर डोरी की एक एक गाठें खुलीं, और सभी गांठें खुल जाने पर मुहम्मद चंगे हो गए.
जादू टोना को इस्लामी आलिम झूट क़रार देते हैं, जब कि इसके ताक़त के आगे रसूल अल्लाह की अमाँ चाहते हैं. 
यह क़ुरआन क्या है?
राह भटके हुए मुहम्मदी अल्लाह की भूल भुलय्या ? या 
मुहम्मद की, अल्लाह का पैगम्बर बन्ने की चाहत ? 

मुसलमानों! 
मैं तुम्हारा और तुम्हारी नस्लों का सच्चा ख़ैर ख्वाह हूँ , इस लिए कि दुन्या की कोई कौम तुम जैसी सोई हुई नहीं है. माजी परस्ती तुम्हारा ईमान बन गया है, जब कि मुस्तकबिल पर तुम्हारे ईमान को क़ायम होना चाहिए. 
हमारी तहकीकात और हमारे तजुरबे, हमारे अभी तक के सच है, इन पर ईमान लाओ. कल यह झूट भी हो सकते हैं, तब तुम्हारी नस्लें नए फिर एक बार सच पर ईमान लाएँगी, उनको इस बात पर लाकर कायम करो, और इस्लाम से नजात दिलाओ. 



जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Saturday 13 September 2014

Soorah akhlas 112

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.
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सूरह इखलास - ११२ - पारा - ३० 
( कुल हवाल लाहो अहद) 



जंगे-बदर के बाद जंगे-ओहद में अल्लाह के खुद साख्ता रसूल हार के बाद अपने मुँह ढक कर हारी हुई फ़ौज के सफ़े-आखीर में पनाह लिए हुए खड़े थे और अबू सुफ्यान की आवाज़ ए बुलंद को सुनकर भी टस से मस न हुए. वह आवाज़ जंग का बाहमी समझौता हुवा करता था कि नाम पुकारने के बाद दस्ते के मुखिया को सामने आ जाना चाहिए ताकि उसके मातहतों का खून खराबा मजीद न हो. 
वैसे भी मुहम्मद ने कभी तलवार और तीर कमान को हाथ नहीं लगाया, बस लोगों को चने की झाड़ पर चढाए रहते थे. उनका कलाम होता ,'' मार ज़ोर लगा के, तुझ पर मेरे माँ बाप कुर्बान"

"आप कह दीजिए वह यानि अल्लाह एक है,
अल्लाह बेनयाज़ है,
इसके औलाद नहीं,
और न वह किसी की औलाद है, और न कोई उसके बराबर है."
नमाज़ियो !
सूरह अखलास दूसरी ग़नीमत सूरह है, पहली ग़नीमत थी सूरह फातेहा. बाक़ी कुरआन सूरतें करीह हैं , तमाम सूरतें मकरूह हैं. इन दोनों सूरतों को छोड़ कर बाक़ी कुरआन नज़रे-आतिश कर दिया जाय, तो भी इस्लाम की लाज बच सकती है, वरना तो ज़रुरत है मुकम्मल इन्कलाब की.
इसमें कोई शक नहीं की कुदरत की न कोई औलाद है, न ही वह किसी की औलाद. इसी तरह कुदरत की मज़म्मत करना या उसे पूजना दोनों ही नादानियाँ हैं. कुदरत का सामना करना ही उसका पैगाम है. कुदरत पर फ़तह पाना ही इंसानी तजस्सुस और इंसानी ज़िन्दगी का राज़ है. कुदरत को मगलूब करना ही उसकी चाहत है.

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

पक्का मुसलमान कभी ज़मीर में घुस कर एक सच्चा इन्सान नहीं हो सकता. उसकी कमजोरी है इस्लाम. इस्लाम इसकी इजाज़त ही नहीं देता की अपने दिल की अपने ज़मीर का कहना मनो. बड़े बड़े साहिबे कलम देखे कि सच्चाई का तकाज़ा जहाँ होता है वह इस्लाम और मुसलामानों के तरफ़दार हो जाते हैं. आजकल आसाम और म्यामनार की चर्चा हिंदुस्तान की सियासत में कुछ ज़्यादः ही है. दुन्या भर के मुस्लिम सहाफ़ी मसलमानों का रोना रो रहे हैं, जब कि ग़लती न ही ग़ैर मुस्लिमों की है, न मुस्लिमों की, ग़लती इस्लाम मज़हब की है जो कि मुस्लिमों को अपनी डेढ़ ईंट की मस्जिद कायम रखने के लिए मजबूर है, जोकि इस्लाम की तश्हीर और तबलीग के लिए मजबूर कर रही है. अगर मुकामी बन्दे इस ज़हर से नावाकिफ़ है तो बैरूनी तबलीगी इस ज़हर से उनको सींचते रहते हैं. इस्लाम का तकाज़ा है कि दारुल हरम के वफ़ादार रहो और दारुल हरब की ग़द्दारी लाज़िम है. इन हालात में दारुल हरब उनको कैसे और क्यों बर्दाश्त करे
हमें अपनी ज़िन्दगी अपने तौर पर जीना है या आपके गैर फितरी मशविरे के मुताबिक? कि नमाज़ पढो, रोज़े रक्खो, खैरात करो अल्लाह को अनेक शक्लों में मत बांटो, सिर्फ़ एक मेरी बतलाई हुई शक्ल में तस्लीम करो, वर्ना मरने को बाद दोज़ख तुम्हारे लिए धरी हुई है. यह बातें दुन्या की दरोग़ तरीन बातों में शामिल हैं जो मुस्लिम क़लम के गले में अटकी हुई हैं.
मुसलामानों को इस्लाम से ख़ारिज होकर ईमान की बात करने की ज़रुरत है जिसे कि ये ईमान फरोश ओलिमा होने नहीं देंगे. इनका ज़रीआ मुआश है इस्लाम और उसकी दलाली.

Monday 8 September 2014

Soora lahb 111

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.
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सूरह लहेब १११ - पारा - ३० 
(तब्बत यदा अबी लहबिंव वतब्बा) 


ऊपर उन (७८ -११४) सूरतों के नाम उनके शुरूआती अल्फाज़ के साथ दिया जा रहा हैं जिन्हें नमाज़ों में सूरह फातेहा या अल्हम्द - - के साथ जोड़ कर तुम पढ़ते हो.. ये छोटी छोटी सूरह तीसवें पारे की हैं. देखो   और समझो कि इनमें झूट, मकर, सियासत, नफरत, जेहालत, कुदूरत, गलाज़त यहाँ तक कि मुग़ललज़ात भी तुम्हारी इबादत में शामिल हो जाती हैं. तुम अपनी ज़बान में इनको पढने का तसव्वुर भी  नहीं कर सकते. ये ज़बान ए गैर में है, वह भी अरबी में, जिसको तुम मुक़द्दस समझते हो, चाहे उसमे फह्हाशी ही क्यूँ न हो..
इबादत के लिए रुक़ूअ या सुजूद, अल्फाज़, तौर तरीके और तरकीब की कोई जगह नहीं होती, गर्क ए कायनात होकर कर उट्ठो तो देखो तुम्हारा अल्लाह तुम्हारे सामने सदाक़त बन कर खड़ा होगा. तुमको इशारा करेगा कि तुमको इस धरती पर इस लिए भेजा है कि तुम इसे सजाओ और सँवारो, आने वाले बन्दों के लिए, यहाँ तक कि धरती के हर बाशिदों के लिए. इनसे नफरत करना गुनाह है, इन बन्दों और बाशिदों की खैर ही तुम्हारी इबादत होगी. इनकी बक़ा ही तुम्हारी नस्लों के हक में होगा.
अबू लहब मुहम्मद के सगे चाचा थे, ऐसे चाचा कि जिन्हों ने चालीस बरस तक अपने यतीम भतीजे मुहम्मद को अपनी अमाँ और शिफक़त में रक्खा. अपने मरहूम भाई अब्दुल्ला की बेवा आमना के बातिन से जन्मे मुहम्मद की खबर सुन कर अबू लहब ख़ुशी से झूम उट्ठे और अपनी लौड़ी को आज़ाद कर दिया,जिसने बेटे की खबर दी थी और उसकी तनख्वाह मुक़र्रर कर के मुहम्मद को दूध पिलाई की नौकरी दे दिया. बचपन से लेकर जवानी तक मुहम्मद के सर परस्त रहे. दादा के मरने के बाद इनकी देख भाल किया, यहाँ तक कि मुहम्मद की दो बेटियों को अपने बेटों से मंसूब करके उनको सुबुक दोष किया. अपने मोहसिन चचा का तमाम अह्सानत पल भर में फरामोश कर दिया. वजेह ?
हुवा यूँ था की एक रोज़ मुहम्मद ने तमाम ख़ानदान कुरैश को कोह ए मिन्फा पर इकठ्ठा होने की दावत दी. लोग अए तो सब से पहले तम्हीद बांधा और फिर एलान किया कि अल्लाह ने मुझे अपना पैगम्बर मुक़र्रर किया. लोगों को इस बात पर काफी गम ओ गुस्सा और मायूसी हुई कि ऐसे जाहिल को अल्लाह ने अपना पैगम्बर कैसे चुना ? सबसे पहले अबू लहेब ने ज़बान खोली और कहा, "तू माटी मिले, क्या इसी लिए तूने हम लोगों को यहाँ बुलाया है?
इसी बात पर मुहम्मद ने यह सूरह गढ़ी जो कुरआन में इस बात की गवाह बन कर १११ के मर्तबे पर है. सूरह लहेब कुरआन की वाहिद सूरह है जिस  में किसी फ़र्द का नाम दर्ज है. किसी ख़लीफ़ा या क़बीले के किसी फ़र्द का नाम कुरआन में नहीं है.
"ज़िक्र मेरा मुझ से बढ़ कर है कि उस महफ़िल में है"
देखिए कि अल्लाह किसी बेबस औरत की तरह कैसे अबू लहेब को कोस रहा है - - -

"अबू लहब तेरे हाथ टूट जाएँ, न मॉल उसके काम आया,
न उसकी कमाई .
 वह  अनक़रीब एक शोला ज़न आग में दाखिल होगा,
वह भी और उसकी बीवी भी, जो लकड़ियाँ लाद कर लाती है,
उसके गले में एक रस्सी होगी खूब बाटी हुई."
सूरह लहेब १११ - पारा - ३० आयत (१-५)

 नमाज़ियो
गौर करो कि अपनी नमाज़ों में तुम क्या पढ़ते हो? क्या यह इबारतें क़ाबिल ए इबादत हैं?
अल्लाह अबू लहेब और उसकी जोरू को बद दुआएँ दे रहा है और साथ में उसकी बीवी को उनके हालत पर तआने भी दे रहा है कि वह उस ज़माने में लकड़ी ढोकर गुज़ारा करती थी. यह मुहम्मदी अल्लाह जो हिकमत वाला है, अपनी हिकमत से इन दोनों प्राणी को पत्थर की मूर्ति ही बना देता. कुन फिया कून" कहने की ज़रुरत थी. सच पूछिए तो मुहम्मदी अल्लाह भी मुहम्मद की हुलया का ही है.

   


जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Friday 5 September 2014

Soorah nasr 110

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.
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सूरह नस्र ११० पारा - ३० 
(इज़ाजाअ नसरुल लाहे वलफतहो)  


ऊपर उन (७८ -११४) सूरतों के नाम उनके शुरूआती अल्फाज़ के साथ दिया जा रहा हैं जिन्हें नमाज़ों में सूरह फातेहा या अल्हम्द - - के साथ जोड़ कर तुम पढ़ते हो.. ये छोटी छोटी सूरह तीसवें पारे की हैं. देखो   और समझो कि इनमें झूट, मकर, सियासत, नफरत, जेहालत, कुदूरत, गलाज़त यहाँ तक कि मुग़ललज़ात भी तुम्हारी इबादत में शामिल हो जाती हैं. तुम अपनी ज़बान में इनको पढने का तसव्वुर भी  नहीं कर सकते. ये ज़बान ए गैर में है, वह भी अरबी में, जिसको तुम मुक़द्दस समझते हो, चाहे उसमे फह्हाशी ही क्यूँ न हो..
इबादत के लिए रुक़ूअ या सुजूद, अल्फाज़, तौर तरीके और तरकीब की कोई जगह नहीं होती, गर्क ए कायनात होकर कर उट्ठो तो देखो तुम्हारा अल्लाह तुम्हारे सामने सदाक़त बन कर खड़ा होगा. तुमको इशारा करेगा कि तुमको इस धरती पर इस लिए भेजा है कि तुम इसे सजाओ और सँवारो, आने वाले बन्दों के लिए, यहाँ तक कि धरती के हर बाशिदों के लिए. इनसे नफरत करना गुनाह है, इन बन्दों और बाशिदों की खैर ही तुम्हारी इबादत होगी. इनकी बक़ा ही तुम्हारी नस्लों के हक में होगा.

नट खट बातूनी बच्चे से देर रात को माँ कहती है, बेटे सो जाओ नहीं तो बागड़ बिल्ला आ जाएगा. माँ की बात झूट होते हुए भी झूट के नफ़ी पहलू से अलग है. यह सिर्फ मुसबत पहलू के लिए है कि बच्चा सो जाए ताकि उसकी नींद पूरी हो सके, मगर यह बच्चे को डराने के लिए है.
क़ुरआन का मुहम्मदी अल्लाह बार बार कहता है,
 "मैं डराने वाला हूँ " 
ऐसे ही माँ बच्चे को डराती  है.
लोग उस अल्लाह से डरें जब तक कि सिने बलूगत न आ जाए, यह बात किसी फ़र्द या कौम के ज़ेहनी बलूगत पर मुनहसर करती है कि वह बागड़ बिल्ला से कब तक डरे. 
यह डराना एक बुराई, जुर्म और गुनाह बन जाता है कि बच्चा बागड़ बिल्ला से डर कर किसी बीमारी का शिकार हो जाए, डरपोक तो वह हो ही जाएगा माँ की इस नादानी से. डर इसकी तमाम उम्र का मरज़ बन जाता है.
मुसलमान अपने बागड़ बिल्ला से इतना डरता है कि वह कभी बालिग ही नहीं होगा. 
मूर्तियाँ जो बुत परस्त पूजते हैं, वह भी बागड़ बिल्ला ही हैं लेकिन उनको अधिकार है कि सिने- बलूगत आने पर वह उन्हें पत्थर मात्र कह सकें, उन पर कोई फ़तवा नहीं, मगर मुसलमान अपने हवाई बुत को कभी बागड़ बिल्ला नहीं कह सकता.
देखिए कि बागड़ बिल्ला क्या कहता है - - -

"जब अल्लाह की मदद और फतह आ पहुंचे, 
और आप लोगों को अल्लाह के दीन में जौक़ जौक़ दाख़िल होता हुवा देखें, 
तो अपने रब की तस्बीह और तहमीद कीजिए और उससे इस्तेग्फार की दरख्वास्त कीजिए. वह बड़ा तौबा कुबूल करने वाला है." 
सूरह नस्र ११० पारा - ३० आयत (१-३)
मुहम्मद का ख्वाब ए वहदानियत शक्ल पाने वाली है, मक्का की फ़तह हासिल करने वाले हैं, उनका ला शऊर बेदार हो रहा है, वह भी अपने रचे हुए अल्लाह से डरने लगे हैं, उनकी बद आमलियाँ उनको झिंझोड़ रही है, नतीजतन वह अपनी मग्फ़िरत की दुआ कर रहे हैं. खुशियों और मायूसियो से पुर यह सूरह है. 
फ़तह मक्का का दिन दुन्या की तमाम इंसानी आबादी के लिए एक बद तरीन दिन था, खास कर मुसलामानों के लिए नामुराद दिन कहा जाएगा, इस के बाद दीन जैसे मुक़द्दस उन्वान को लेकर जब तलवार उट्ठी तो इंसानों के लिए यह ज़मीन तंग हो गई. सदियाँ गुज़र गईं मगर यह जिहादी सिलसिला अभी तक ख़त्म नहीं हुवा. इतने बड़े इंसानी खून का हिसाब जब एक बन्दे हक़ीर अल्लाह से तलब करता है, तब अल्लाह नज़रें चुराता है. इस नतीजा ए फ़िक्र  के बाद बंदा ए अहक़र, बन्दा ए बरतर हो गया और उसने ऐसे कमतर अल्लाह की नमाज़ें अपने पर हराम कर लीं. 




जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान


नक़्श फ़रियादी 

नक़्श फ़रियादी है किसकी शोखिए तहरीर का ,
काग़ज़ी है पैरहन हर पैकर ए तहरीर का .
ग़ालिब के दीवान का यह पहला शेर है, जिसमे उन्होंने अपने मिज़ाज के एतबार से हम्द (ईश गान) का इशारा किया है। अजीब ओ गरीब और अनबूझे ख़ुदा की तरफ़ सिर्फ नज़रें उठाई हैं, न उसकी तारीफ़ ही है न हम्द, बल्कि एक हैरत का इज़हार है .यही अब तक के खुदाओं की हक़ीक़त है .  उसको लोग अपने हिसाब से शक्ल देकर इंसान को सिर्फ गुमराह कर रहे हैं .
ग़ालिब कहता है कि वह कौन सी ताक़त है कि मखलूक का हर नक़्श (आकृति) फ़रियादी है और अपनी तशकील ओ तामीर की तहरीरी तकमीली तजस्सुस लिए हुए है कि वह क्या है ? क्यों है ? ?  कौन है उसका खालिक और मालिक़ ?
गोया ग़ालिब अब तक के खुदाओं को इंकार करते हुए उनके लिए एक सवालिया निशान ही छोड़ता है . वह क़ुदरत को पूजने का ढोंग नहीं करता बल्कि उसको अपने महबूब की तरह शोख और शरीर बतलाता है , जो बराबरी का दर्जा रखता है . अगर कुदरत को इसी हद तक तस्लीम करके जिया जाए तो इंसान का हाल (वर्तमान) सार्थक बन सकता है और 
इंसान का मुस्तक़्बिल ग़ालिब शेर के दूसरे मिसरे में पिरोता है कि हर वजूद का लिबास कागज़ी यानी आरजी है .यही वजूद का सच है बाकी तमाम बातें खारजी हैं .
ब्रिज मोहन चकबस्त ग़ालिब के फलसफे को और खुलासा करते हुए कहते हैं - - -
ज़िन्दगी क्या है अनासिर में ज़हूर ए तरतीब ,
मौत क्या है इन्हीं अज्ज़ा का परीशाँ होना . 


Monday 1 September 2014

Soorah kafroon 109

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.
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सूरह काफिरून १०९ - पारा ३०
(कुल्या अय्योहल कफिरूना)

ये छोटी छोटी सूरह तीसवें पारे की हैं. देखो   और समझो कि इनमें झूट, मकर, सियासत, नफरत, जेहालत, कुदूरत, गलाज़त यहाँ तक कि मुग़ललज़ात भी तुम्हारी इबादत में शामिल हो जाती हैं. तुम अपनी ज़बान में इनको पढने का तसव्वुर भी  नहीं कर सकते. ये ज़बान ए गैर में है, वह भी अरबी में, जिसको तुम मुक़द्दस समझते हो, चाहे उसमे फह्हाशी ही क्यूँ न हो..
इबादत के लिए रुक़ूअ या सुजूद, अल्फाज़, तौर तरीके और तरकीब की कोई जगह नहीं होती, गर्क ए कायनात होकर कर उट्ठो तो देखो तुम्हारा अल्लाह तुम्हारे सामने सदाक़त बन कर खड़ा होगा. तुमको इशारा करेगा कि तुमको इस धरती पर इस लिए भेजा है कि तुम इसे सजाओ और सँवारो, आने वाले बन्दों के लिए, यहाँ तक कि धरती के हर बाशिदों के लिए. इनसे नफरत करना गुनाह है, इन बन्दों और बाशिदों की खैर ही तुम्हारी इबादत होगी. इनकी बक़ा ही तुम्हारी नस्लों के हक में होगा.

एक बार मक्का के मुअज़ज़िज़  कबीलों ने मिलकर मुहम्मद के सामने एक तजवीज़ रखी, कि आइए हम लोग मिल कर अपने अपने माबूदों की पूजा एक ही जगह अपने अपने तरीकों से किया करें, ताकि मुआशरे में जो ये नया फ़ितना खडा हुआ है, उसका सद्दे-बाब हो. इससे हम सब की भाई चारगी क़ायम रहेगी, सब के लिए अम्न ओ अमान रहेगा. 
बुत परस्तों (मुशरिकीन) की यह तजवीज़ माक़ूल थी जो आजकी जदीद क़द्रों की तरह ही माकूल है , मगर मुहम्मद को यह बात गवारा न हुई. यह पेश कश मुहम्मद को रास नहीं आई क्यूँकि यह इनके तबअ से मेल नहीं खा रही थी. मुहम्मद को अम्न ओ अमान पसंद न था, इसनें जंग, लूट मार और शबखून कहाँ? वह तो अपने तरीकों को दुन्या पर लादना चाहते थे. अपनी रिसालत पर खतरा मसूस करते हुए उन्होंने अपने हरबे के मुताबिक अल्लाह की वह्यी उतरवाई, 

मंदार्जा ज़ेल सियासी आयतें मुलाहिजा हों- - - 

"आप कह दीजिए कि ऐ काफ़िरो! 
न मैं तुम्हारे माबूदों की परिस्तिश करता हूँ, 
और न तुम मेरे माबूदों की परिस्तिश करते हो, 
और न मैं तुम्हारे माबूदों की परिस्तिश करूँगा, 
और न तुम मेरे माबूद की परिस्तिश करोगे. 
तुमको तुम्हारा बदला मिलेगा और मुझको मेरा बदला मिलेगा." 
सूरह काफिरून १०९ - पारा ३०- आयत (१-६) 

नमाज़ियो !
अल्लाह के पसे पर्दा उसका खुद साख्ता रसूल अपने अल्लाह से अपनी मर्ज़ी उगलवा रहा है.. . . . आप कह दीजिए, जैसे कि नव टंकियों में होता है. अल्लाह को क्या क़बाहत है कि खुद मंज़रे आम पर आकर खुद अपनी बात कहे ? या ग़ैबी आवाज़ नाज़िल करे. इस क़दर हिकमत वाला अल्लाह क्या गूंगा hai  कि आवाज़ के लिए उसे किसी बन्दे की ज़रुरत पड़ती है ? यह कुरान साज़ी मुहम्मद का एक ड्रामा है जिस पर तुम आँख बंद करके भरोसा करते हो. सोचो, लाखों सालों से क़ायम इस दुन्या में, हज़ारों साल से क़ायम इंसानी तहज़ीब में, क्या अल्लाह को सिर्फ़ २२ साल ४ महीने ही बोलने का मौक़ा मिला कि वह शर्री मुहम्मद को चुन कर, तुम्हारी नमाज़ों के लिए कुरआन बका?
अगर आज कोई ऐसा अल्लाह का रसूल आए तो? 
उसके साथ तुम्हारा क्या सुलूक होगा?




जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान