Sunday 28 July 2013

सूरह ज़ुखरुफ़ -४३ (1)

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।


नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.

सूरह ज़ुखरुफ़ -४३ (1)


मौजूदा  साइंस की बरकतों से फैज़याब दौर के लोगो! खास कर मुसलमानों!!
एक बार अपने ख़ुदा के वजूद का तसव्वुर अपनी ज़ेहनी सतह पर बड़ी गैर जानिब दारी से क़ायम करो. बस कि सच का मुक़ाम ज़ेहन में हो. सच से किसी शरीफ़ और ज़हीन आदमी को इंकार नहीं हो सकता, इसी सच को सामने रख कर ख़ुदा का वजूद तलाशो, हमारे कुछ सवालों का जवाब खुद को दो.
१-क्या ख़ुदा हिदुओं, मुसलामानों, ईसाइयों और दीगर मज़ाहिब के हिसाब से जुदा जुदा हो सकता है?
२- क्या ख़ुदा भारत, चीन, योरोप, अरब, अमरीका और जापान वगैरा के जुग़राफ़ियाई एतबार से अलग अलग हो सकता है?
३- क्या खुदा नस्लों, तबकों, फिरकों, संतों, गुरुओं, पैगम्बरों और क़बीलों के एतबार से जुदा जुदा हो सकते हैं?
४- समाज के इज्तेमाई (सामूहिक) फैसले के नतीजे से बरआमद खुदा क्या हो सकता है?
५- खौफ़, लालच, जंग ओ जेहाद से बरामद किय हुआ खुदा क्या सच हो सकता है?
६- क्या ज़ालिम, जाबिर, ज़बर दस्त, मुन्तकिम, चालबाज़, गुमराह करने वाली हस्ती खुदा हो सकती है?
७- पहले हमल में ही इंसान की क़िस्मत लिख्खे, फिर पैदा होते ही कांधों पर आमाल नवीस फ़रिश्ते मुक़र्रर करे. इसके बाद यौमे हिसाब मुनअकिद करे, क्या ऐसा कोई खुदा हो सकता है?
८-क्या खुदा ऐसा हो सकता है जो नमाज़, रोज़ा, पूजा पाठ, चढ़वाया और प्रसाद वगैरा का लालची हो सकता है?
९- क्या ऐसा खुदा कोई हो सकता है कि जिसके हुक्म के बगैर पत्ता भी न हिले?
तो क्या तमाम समाजी बुराइयाँ इसी का हुक्म हैं. तब तो दुन्या के तमाम दस्तूर इसके ख़िलाफ़ हैं.
१०- कहते हैं ख़ुदा के लिए हर कम मुमकिन है, क्या ख़ुदा इतना बड़ा पत्थर का गोला बना सकता है, जिसे वह खुद न उठा पाए?

मुसलमानों! इन सब सवालों का सही सही जवाब पाने के बाद तुम चाहो तो बेदार हो सकते हो.
जगे हुए इंसान को किसी पैगम्बर या मुरत्तब किए हुए अल्लाह की ज़रुरत नहीं होती है.
जगे हुए इंसान के का रहनुमा खुद इसके अन्दर विराजमान होता है.
याद रखो तुम्हारे जागने से सिर्फ़ तुम नहीं जागते, बल्कि इर्द गिर्द का माहौल जागेगा, चिराग़ जलने के बाद सिर्फ़ चिराग़ रौशनी में नहीं आता बल्कि तमाम सम्तें रौशन हो जाती हैं.
महक उट्ठो अपने अन्दर की खुशबू से. लाशऊरी तौर पर तुम अपनी इस खुशबू को खारजी रुकावटों के बायस पहचान नहीं पाते. ये खुशबू है इंसानियत की. मज़हब तो खारजी लिबास पर इतर का छिडकाव भर है.
छोडो इन पंज रुकनी लग्व्यात को. और इस पंज वकता खुराफ़ात को,
मैं देता हूँ तुम्हें बहुत ही आसान पाँच अरकान ए हयात.
१-सच को जानो. सच के बाद भी सच, सच को ओढो और बिछाओ, 
२- मशक्कत, का एक नावाला भी अपने या अपने बच्चों के मुँह में हलाल है, मुफ़्त या हराम से मिली नेमत मुँह में मत जाने दो.
३- जिसारत, सदाक़त को जिसारत की बहुत सख्त ज़रुरत होती है, वैसे सदाक़त अपने आप में जिसारत है.
४. प्यार, इस धरती से, धरती की हर शै से और खुद से भी.
५- अमल, तुम्हारे किसी अमल से किसी को ज़ेहनी या जिस्मानी या फिर माली नुकसान न हो.
 बस.
"हाम"
सूरह ज़ुखरुफ़ -४३ - पारा -२५ - आयत (१)

मुह्मिल यानी अर्थ हीन शब्द है. वैसे तो पूरा कुरान ही अर्थ में अनर्थ है, नाइंसाफी और जब्र है.
"क़सम है इस किताब वाज़ेह की कि हमने इसे अरबी ज़बान का क़ुरआन बनाया है ताकि तुम लोग इसे समझ लो और हमारे पास लौहे महफूज़ में बड़ी हिकमत भरी किताब है. क्या तुम से  इस नसीहत को, इस बात से उठा लेंगे कि तुम हद से गुज़रने वाले हो."
सूरह ज़ुखरुफ़ -४३ - पारा -२५ - आयत (२-५)

अल्लाह अपने इस किताब की क़सम खाता है क्यूँकि ये अरबी ज़बान में है. न क़सम खाता तो भी इसे अरबी ज़बान में ही ज़माना देख रहा है. अब तो हर ज़बान में इस रुस्वाए ज़माना किताब वाज़ेह उरियाँ हो रही है.
मुहम्मद के ज़ेहन पर अरबी ज़बान का भूत काबिज़ है कि जिसे ये बार बार दोहरा रहे हैं.
लौह यानी पत्थर कि स्लेट जिस पर इबारत खुदी हुई हो. मूसा को ख़ुदा ने दस इबारत खुदी हुई पत्थर की पट्टिका दी थीं "The Ten comondments " जो अरब दुन्या में मशहूर ए ज़माना था. उसी को मुहम्मद अपने कलाम में बार बार गाते हैं कि ये क़ुरआन पत्थर की लकीर है, इस की फोटो कापी कर के जिब्रील लाते हैं.
वह कहते है कि क्या अल्लाह इससे बाज़ आएगा कि उसकी बात नहीं मानते, कभी नहीं. गोया अपने अल्लाह की बे गैरती बतला रहे हैं.
एक गंवाई कहावत है, हालांकि फूहड़ है जिसे ज़द्दे क़लम में न लाते हुए भी लाना पड़ रहा है, अल्लाह की संगत का असर जो है कि वह बार बार अपने फूहड़ कलाम में फूहड़ पन को दोहराता है. कहावत यूं है कि 
"रात भर गाइन  बजाइन, भोर माँ देखिन तो बेटा के छुन्याँ ही नहीं" 
यही कहावत लागू होती है कुरआन पर कि इसकी तारीफों के पुल बंधे है मगर पुल के नीचे देखा तो नाली बह रही थी. कुरआन में कुछ भी नहीं है सिवाए खुद की तारीफ़ के. 

"और उन लोगों ने अल्लाह के बन्दे में अल्लाह का जुज़ ठहराया दिया और उनहोंने फ़रिश्तों को जो कि अल्लाह के बन्दे है, औरत क़रार दे रख्खा है. क्या इनकी पैदाइश के वक़्त मौजूद थे? इनका ये दावा लिख लिया जाता है और क़यामत के दिन इनसे बाज़ पुर्स होगी."
सूरह ज़ुखरुफ़ -४३ - पारा -२५ - आयत (१९)

इशारा ईसाइयत की तरफ़ है जो फरिश्तों को इंसान से हट कर वह मासूम  मख्लूक़ मानते हैं जो कोई जिन्स नहीं रखते. ऊपर मैंने कहा था कि अल्लाह कुरआन फूहड़ पन से भरा हुवा है,.इसी आयत में यह बात आ गई कि फूहड़ मुहम्मद ईसाइयों से पूछते है कि फ़रिश्ते जब जन्म ले रहे थे तो क्या यह लोग खड़े इनका जिन्स देख रहे थे. इनसे पूछा जा सकता है कि जब अल्लाह इन्हें पैगम्बर बना रहा था तो कोई गवाह था. इनकी झूटी गवाहियाँ अज़ान और नमाज़ों में तो हर रोज़ दी जाती है.

"और वह लोग यूँ कहते हैं कि अगर अल्लाह चाहता तो हम लोग उन (बुतों) की इबादत न करते. उनको इसकी कुछ तहक़ीक़ नहीं, सब बे तहक़ीक़ बातें करते है. क्या हमने उनको इससे पहले कोई किताब दे रख्खी है कि वह इससे इस्तेद्लाल करते. और कहते हैं कि अगर कुरआन अल्लाह का कलाम है तो दोनों बस्ती मक्का और तायफ़ के किसी बड़े आदमी पर क्यूँ  न नाज़िल किया गया. क्या ये लोग अपने रब की रहमते नबूवत को तक़सीम करना चाहते है?"
सूरह ज़ुखरुफ़ -४३ - पारा -२५ - आयत (२०-२१+३१-३२)

लोगों का सीधा और वाजिब सवाल और मुहम्मद का टेढ़ा और गैर वाजिब जवाब. मक्का के लोगों का कहना था कि वह पैगम्बरी को तक़सीम ओ ज़रब नहीं करना चाहते थे, वह सिर्फ़ इतना चाहते थे कि कुरआन अगर वाकई अरब में और अरबी ज़बान में आई होती तो किसी संजीदः, सलीक़े मंद, पढ़ा लिखा, नेक तबा, शरीफुन-नफ्स, अम्न  पसंद, ईमानदार, साहिबे किरदार, साहिबे इंसाफ, साहिबे फ़िक्र के हिस्से में आती, न कि किसी झूठे और शर्री के हिस्से में.




जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Sunday 21 July 2013

Soorah Shoorah 42 (2)

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.

सूरह शूरा - ४२ - पारा २५ (2)


खालिस काफ़िर ले दे के नेपाल या भारत में ही बाक़ी बचे हुए हैं कुफ़्र और शिर्क इंसानी तहज़ीब की दो क़ीमती विरासतें है. इनके पास दुन्या की क़दीम तरीन किताबें हैं  जिन से इस्लाम ज़दा मुमालिक महरूम हो गए हैं. इनके पास बेश कीमती चारों वेद मौजूद हैं, जो कि मुख्तलिफ़ चार इंसानी मसाइल का हल हुवा करते थे, इन्हीं वेदों की रौशनी में १८ पुराण हैं. माना कि ये मुबालगों से लबरेज़ है, मगर तमाज़त और ज़हानत के साथ, जिहालत से बहुत दूर हैं.  इसके बाद इनकी शाख़ें १०८ उप निषद मौजूद हैं, रामायण और महा भारत जैसी क़ीमती गाथाएँ, गीता जैसी सबक आमोज़ किताबें, अपनी असली हालत में मौजूद हैं.
 ये सारी किताबें तखलीक़ हैं, तसव्वर की बुलंद परवाज़ें हैं, जिनको देख कर दिमाग हैरान हो जाता है. और अपनी धरोहर पर रश्क होता है. जब बड़ी बड़ी कौमों के पास कोई रस्मुल ख़त भी नहीं था, तब हमारे पुरखे ऐसे ग्रन्थ रचा करते थे. अरबों का कल्चर भी इसी तरह मालामाल था और कई बातों में वह आगे था, जिसे इस्लाम की आमद ने धो दिया. बढ़ते हुए कारवाँ की गाड़ियाँ बैक गेर में चली गई.
माज़ी में इंसानी दिमाग को रूहानी मर्कज़ियत देने के लिए मफ्रूज़ा माबूदों, देवी देवताओं और राक्षसों के किरदार उस वक़्त के इंसानों के लिए अलहाम ही थे. तहजीबें बेदार होती गईं और ज़ेहनों में बलूगत आती गई, काफ़िर अपने ग्रंथो को एहतराम के साथ ताक़ पर रखते गए. ख़ुशी भरी हैरत होती है कि आज भी उनके वच्चे अपने पुरखों की रचनाओं को पौराणिक कथा के रूप में पहचानते हैं.
कुरआन इन ग्रंथों के मुकाबले में अशरे अशीर भी नहीं. ये कोई तखलीक़ ही नहीं है बल्कि तखलीक़ के लिए एक बद नुमा दाग़ है. मुसलमान इसकी पौराणिक कथा की जगह, मुल्लाओं की बखानी हुई पौराणिक हकीकत की तरह जानते हैं और इन देव परी की कहानियों पर यक़ीन और अक़ीदा रखते है. यह मुसलमान कभी बालिग़ हो ही नहीं सकते. एक वक़्त इस्लामी इतिहास में ऐसा आ गया था कि इंगलिस्तान अरबों के क़ब्ज़े में होने को था कि बच गया. इतिहास कर "वर्नियर" लिखता है "अगर कहीं ऐसा हो जाता तो आज आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में पैगम्बर मुहम्मद के फ़रमूदात पढाए जा रहे होते.
अरब भी मुहम्मद को देखने और सुनने के बाद कहते थे कि
 "इसका कुरआन शायर के परेशान ख़यालों का पुलिंदा है"
इस हक़ीक़त को जिस कद्र जल्दी मुसलमान समझ लें, इनके हक में होगा .
एक ही हल है कि मुसलमान को तर्क-इस्लाम करके, अपने बुनयादी कल्चर को संभालते हुए मोमिन बन जाने की सलाह है. जिसकी तफ़सील हम बार बार अपने मज़ामीन में दोहराते है. कोई भी गैर मुस्लिम नहीं चाहता कि  मुसलमान इस्लाम का दामन छोड़े. अरब तरके इस्लाम करके बेदार हुए तो योरप और अमरीका के हाथों से तेल का खज़ाना निकल जाएगा, भारत के मालदार लोगों के हाथों से नौकर चाकर, मजदूर, मित्री और एक बड़ा कन्ज़ियूमर तबक़ा सरक जाएगा. तिजारत और नौकरियों में दूसरे लोग कमज़ोर हो जाएँगे, गोया सभी चाहते है कि दुन्या कि २०% आबादी सोलवीं सदी में अटकी रहे.  
ये हैं गुमराही परोसने वाली क़ुरआनी आयतें - - -

"सो आप इस तरह बुलाते रहिए जिस तरह हुक्म हुवा है. मुस्तक़ीम रहिए और उनकी ख्वाहिश पर मत चलिए और आप कह दीजिए कि अल्लाह ने जितनी किताबें नाज़िल फ़रमाई हैं, सब पर ईमान लाता हूँ और मुझको ये इल्म भी हुवा है कि तुम्हारे दरमियान मैं अदल रख्खूँ . अल्लाह हमारा भी मालिक है और तुम्हारा भी मालिक है और हमारे आमाल हमारे लिए और तुम्हारे आमाल तुम्हारे लिए. हमारी तुम्हारी कुछ बहस नहीं . अल्लाह सबको जमा करेगा और उसी के पास जाना है.
"सूरह शूरा - ४२ - पारा २५ आयत (१५)

अल्लाह सुलह पसँद  हो रहा है, इसकी गोट मक्का में फँस चुकी है इसी लिए मुहम्मद की शिद्दत पसँद भाषा बदली बदली लगती है. ये विपत्ति इस्लाम पर थोड़े अरसे के लिए ही आई थी इसी आयत को नेता और मुल्ला आज दोहराया करते हैं कि इस्लाम कहता है 
तुम्हारा दीन तुम्हारे लिए और हमारा दीन हमारे लिए.
 इस सँकट के हटते ही मुहम्मद की आयतें फिर हठ धर्मी पर आ गई थीं. पिछले बाब में आपको याद होगा कि सूरह को अल्लाह के नाम से शुरू नहीं किया गया था. क्यूँकि मुहम्मद ने मुआहदा तोडा था.

"याद रख्खो जो लोग क़यामत के बारे में झगड़ते है बड़ी दूर की गुमराही में में हैं"
सूरह शूरा - ४२ - पारा २५ आयत (१८)
मुहम्मद की तमाम आयतें जाहिलों के लिए है जिन पर फ़िक्र बार होती है. आग में पड़े हुए लोग हाथा पाई करेंगे?
काश की उनके दिमागों में सवालिया निशान उभरे. इसके पहले मुहम्मद ने कहा है कि नफ्सी नफ्सी का आलम होगा. 
"आप यूं कहिए कि मैं तुम से कोई मतलब नहीं रखना चाहता बजुज़ रिश्ते दारी की मुहब्बत के."
सूरह शूरा - ४२ - पारा २५ आयत (२३)

मुहम्मद रिश्तेदारों को क़त्ल करने के लिए उनसे मतलब रखना चाहते है. जैसा कि जंग बदर नें उन्हों ने किया, तीस करीबी रिश्तेदारों का गला रेत कर
"क्या वह लोग कहते हैं कि इन्हों ने अल्लाह पर झूठा बोहतान बाँध रख्खा है?
"और अगर अल्लाह दुन्या में सब बन्दों को रोज़ी फ़राख कर देता तो दुन्या में शरारत करने लगते लेकिन जितना रिज़क़ चाहता है अंदाज़ से हार एक के लिए उतार देता है, वह अपने बन्दों को जानने वाला और देखने वाला है."
सूरह शूरा - ४२ - पारा २५ आयत (24-२७)

लोग सौ फीसदी सच कहते थे. तुम्हारे वारिसों के ज़ुल्म ओ सितम ने झूट को सच बना दिया.
अल्लाह कहाँ खूराक मुहय्या कराता है? लाखों लोग अकाल के गाल में चले जाते है. मासूम बच्चों से लेकर अच्छे बन्दे, चरिंदे और परिंदे तक.
"और मिन जुमला इसकी निशानियों के जहाज़ हैं, समंदर में, जैसे पहाड़. अगर वह चाहे तो हवा को ठहरा दे तो वह समन्दर में खड़े के खड़े रह जाएँ. बेशक इस में निशानियाँ हैं. हर साबिर शाकिर के लिए. या इन जहाज़ों को इनके आमाल के सबब तबाह कर दे और बहुत से आदमियों के लिए दर गुज़र कर जाए. और उन लोगों को जो हमारी आयातों में झगडे निकालते हैं मालूम हो जाए कि इनके लिए कहीं बचाओ नहीं."
 सूरह शूरा - ४२ - पारा २५ आयत (३५)

मुहम्मदी अल्लाह से ज़्यादः जहाज़ की हवाओं को मल्लाहों ने समझा था और उनके लिए उन्हों ने मस्तूल बनाए थे. अल्लाह आलिमुल गैब को इतना भी पता नहीं कि आने वाला वक़्त बगैर हवा के जहाज़ दौड़ेंगे.
मुहम्मद कैसी बेसिर पर की बातें करते है - - -
"या इन जहाजों को इनके आमाल के सबब तबाह कर दे" 
अब आश्याओं के आमाल भी होने लगे. फरिश्तों,जिन्नातों शैतानों और इंसान के बाद अपनी नई मखलूक जहाजों का वजूद भी शामिल ए मखलूक  हुवा ?
"वाकई अल्लाह जालिमों को पसँद नहीं करता और जो अपने ऊपर ज़ुल्म हो चुकने के बाद बराबर का बदला लेले, सो ऐसे लोगों पर कोई इलज़ाम नहीं और जो सब्र करे और मुआफ़ करदे तो ये अलबत्ता बड़े हिम्मत के कामों में से है."
सूरह शूरा - ४२ - पारा २५ आयत (४०-४२)
मुहम्मद की कुछ बाते वाजिब लगती हैं, अगर उनके पहले से चला आ रहा हो तो ये उनकी बात नहीं हुई.

"और अल्लाह जिसे गुमराह करे उसे नजात के लिए कोई रास्ता नहीं."
सूरह शूरा - ४२ - पारा २५ आयत (४६)

बेशक अल्लाह से बड़ा शैतान तो कोई हो भी कैसे सकता है.



जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Sunday 14 July 2013

सूरह शूरा - ४२

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.

सूरह शूरा - ४२

(पहली किस्त)

हर शै की तरह इंसानी ज़ेहन भी इर्तेकई मरहलों के हवाले रहता है जिसके तहत अभी इंसानी मुआशरे को खुदा की ज़रुरत है. कुछ लोग बहुत ही सादा लौह होते हैं, उन्हें अपने वजूद के सुपुर्दगी में मज़ा आता है. जैसे कि एक हिन्दू धर्म पत्नि अपने पति को ही देवता मान कर उसके चरणों में पड़ी रहने में राहत महसूस करती है.
 हमारे एक डाक्टर दोस्त हैं, जो बहुत ही सीधे सादे नेक दिल इंसान हैं, वह अपने हर काम का अंजाम ईश्वर की मर्ज़ी पर डाल के बहुत सुकून महसूस करते हैं, उनको देख कर बड़ा रश्क आता है कि वह मुझ से बेहतर ज़िन्दगी गुज़ारते हैं, कभी कभी अन्दर का कमज़ोर इंसान भटक कर कहता है कि किसी न किसी खुदा को मान कर ही जीना चाहिए.
 किसी का क्या नुक्सान है कि कोई अपना खुदा रख्खे. ये फ़ितरते इंसानी ही नहीं, बल्कि फ़ितरते हैवानी भी है. एक कुत्ता अपने मालिक के क़दमों पर लोट कर कितना खुश होता है. बहुत से हैवान इंसान की पनाह में रहकर ही अमाँ पाते हैं. अपने पूज्य, अपने माबूद, अपने देव और अपने मालिक के तरफ़ ये क़दम इंसान या हैवान के दिल के अन्दर से फूटा हुवा जज़बा है, न कि इनके ऊपर लादा गया तसल्लुत. ये किसी खारजी तहरीक या तबलीग का नतीजा नहीं, इसके पीछे कोई डर, खौफ नहीं, कोई लालच या सियासत नहीं है. इसको मनवाने के लिए कोई क़ुरआनी अल्लाह की आयतें नहीं जिसके एक हाथ में दोज़ख की आग और दूसरे हाथ में जन्नत का गुलदस्ता रहता है. अन्दर से फूटी हुई ये चाहत क़ुरआनी अल्लाह की तरह हमारे वजूद की घेरा बंदी नहीं करतीं. आपका ख़ुदा  किसी को मुतास्सिर न करे, शौक से पूजिए जब तक कि आप अपने सिने बलूगत में न आ जाएं, आप की समझ में ज़िन्दगी के राज़ ओ नयाज़ न झलकें. 

बेटे ने कहा अब्बा अब्बा फफीम खाएँगे. बाप बोला बेटा पहले अफ़ीम कहना तो सीखो. ये रही अल्लाह की फफीम - - -
"हा मीम"
सूरह शूरा - ४२ - पारा २५ आयत (१)

ये मुसलमानों की फफीम है जिसके कोई मानी नहीं है, न मुसलमानों का कोई बाप ऐसा है जो इन्हें अफ़ीम कहना सिखलाए और अफ़ीम के नाक़िस इस्तेमाल से आगाह करे, गोया पूरी कौम अफ़ीम के नशे में धुत्त पड़ी हुई है. यही 'हामीम या फफीम' का शिकार साठ साल पहले पूरी चीन कौम थी, वहाँ उनका बाप पैदा हुवा और अफ़ीम के मुज़िर असरात को बतलाया और इसकी फ़सलों को तबाह किया. आज मज़हबों से चीन नजात पा चुका है और दुन्या का सुर्खुरू तरीन मुल्क बनने की दर पर है. योरोप में कार्ल मार्क्स ने कहा मज़हब अफ़ीम का नशा है' जिस का इलाज कौमो के लिए ज़रूरी है'' नतीजतन दुन्या ने इस नशे को समझा और इससे उनको छुटकारा मिला. बद नसीब हिदुस्तान और मुस्लिम दुन्या इस के पंजे में फंसी हुई है. मुसलमानों का कोई रहनुमा पैदा होना मुश्किल है कि इनको खुद जागना होगा. 

"ऐन सीन क़ाफ़"
सूरह शूरा - ४२ - पारा २५ आयत (२)

ये हुरूफ़ मुक़त्तेआत है. बस अफ़ीम का ही हम सर भाँग की तरह.  

"इसी तरह ज़बरदस्त हिकमत वाला अल्लाह आप की तरफ़ और आप के पहले नबियों की तरफ़ वह्यी भेजता रहा. कुछ बईद नहीं कि आसमान अपने ऊपर से फट पड़ें और फ़रिश्ते अपने रब की तस्बीह और तम्हीद करते हैं और ज़मीन वालों के लिए माफ़ी माँगते हैं और हम ने आप पर ये कुरआन अरबी वह्यी के जारीए नाज़िल किया है ताकि आप मक्का में रहने वालों को और जो लोग इसके आस पास हैं, उनको डराएँ और जमा होने वाले दिन से डराएँ."
सूरह शूरा - ४२ - पारा २५ आयत (३-७)

ये अल्लाह मुसलमानी ज़हनों पर नाजायज़ बाप की तरह मुसल्लत रहता है. एक ख्वाह मख्वाह का डर मुसलामानों को कचोके लगाता रहता है. इनका ज़ालिम अल्लाह इन पर कोई भी ज़ुल्म कर सकता है, कुछ नहीं तो आसमान ही इनके सर पर गिरा दे. कौन इन्हें समझाए कि आसमान कोई छत जैसी चीज़ नहीं, ये हद्दे नज़र है. क़ुरआनी आयतें समझाती हैं कि इंसान का वजूद ही धरती पर एक गुनाह है, जिसके लिए मुसलमान बे मार की तौबा किया करता है, यह इतना बड़ा मुजरिम है कि इसके लिए फ़रिश्ते भी दुआ किया करते हैं, इस तरह से इनका खेवन हार ले दे के रसूल ही बचते है.
अल्लाह ने अरबी में कुरआन इस लिए भेजा था कि इससे अरबियों को डराया जाए, बद किस्मती ये है कि इसे हिंदी भी झेल रहे है.

"आप जानदार चीज़ों को बेजान से निकल देते हैं, (जैसे मुर्गी से अंडा) और बेजान चीज़ों को जानदार से निकलते हैं (अंडे से चूजा)"
"सूरह शूरा - ४२ - पारा २५ आयत (९)

क़ुरआनी अल्लाह यानी मुहम्मद की मशहूर जिहालत जो बार बार इस कलाम पाक को नापाक करती है. मुसलमानों ! क्या इक्कीसवीं सदी में भी तुम ऐसी आयातों पर भरोसा करते हो जो साबित करती हैं कि अंडे बेजान होते है.
कलामे दीगराँ  - - -
"पाएमाली से पहले क़िब्र और ठोकर से पहले घमंड होता है. बे इज्ज़ाती उन्हीं की होती है जिन्हें इज्ज़त का नशा होता है, मगर नरम लोगों में समझ होती है,"
"यहूदी  मसलक "
इसे कहते हैं कलाम पाक 

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Sunday 7 July 2013

सूरह हा मीम सजदा - ४१ (२)

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.

भारत के मुस्तकबिल करीब में मुसलामानों की हैसियत बहुत ही तशवीश नाक होने का अंदेशा है. अभी फ़िलहाल जो रवादारी बराए जम्हूरियत बक़रार है, बहुत दिन चलने वाली नहीं. इनकी हैसियत बरक़रार रखने में वह हस्तियाँ है जिनको इस्लाम मुसलमान मानता ही नहीं और उन पर मुल्ला फतवे की तीर चलाते रहते हैं. उनमे मिसाल के तौर पर डा. ए पी. जे अब्दुल  कलाम, तिजारत में अज़ीम प्रेम जी, सिप्ला के हमीद साहब वगैरा ,फ़िल्मी  दुन्या के ए. आर. रहमान, आमिर खान, शबाना आज़मी. और दिलीप कुमार, फ़नकारों में फ़िदा हुसैन, बिमिल्ला खान जैसे कुछ लोग हैं. आम आदमियों में सैनिक अब्दुल हमीद जैसी कुछ फौजी हस्तियाँ भी हैं जो इस्लाम को फूटी आँख भी नहीं भाते. मैंने अपने कालेज को एक क्लास रूम बनवा कर दिया तो कुछ इस्लाम ज़दा कहने लगे की यही पैसा किसी मस्जिद की तामीर में लगते तो क्या बात थी, वहीँ उस कालेज के एक टीचर ने कहा तुमने मुसलामानों को सुर्खुरू कर दिया, अब हम भी सर उठा कर बातें कर सकते है.
कौन है जो सेंध  लगा रहा है आम मुसलामानों के हुकूक़ पर?
कि सरकार को सोचना पड़ता  है कि इनको मुलाज़मत दें या न दें?
आर्मी को सोचना पड़ता है कि इनको कैसे परखा जाय?
कंपनियों को तलाश करना पड़ता कि इनमें कोई जदीद तालीम का बंदा है भी?
बनिए और बरहमन की मुलाजमत को इनके नाम से एलर्जी है.
इसकी वजेह इस्लाम है और इसके गद्दार एजेंट जो तालिबानी ज़ेहन्यत रखते हैं.
यह भी हमारी गलतियों से खता के शिकार हैं. 
हमारी गलती ये है कि हम भारत में मदरसों को फलने फूलने का अवसर दिए हुए है जहाँ वही पढाया जाता है जो कुरआन में है.


अब शुरू करिए शैतानुर्रज़ीम  के नाम से - - -    

सूरह हा मीम सजदा - ४१
(दूसरी क़िस्त)


"तुम अपने काले करतूत करते वक़्त ये तो न करते थे कि अपने कान आँख और खाल से अपनी हरकत छुपा सकते. लेकिन तुम ज़्यादः तर इस गुमान में रहे कि वह बहुत कुछ जो तुम करते रहे अल्लाह को मालूम नहीं."
सूरह हा मीम सजदा - ४१-पारा २४ आयत  (२२)

ए मुहम्मद तेरे अल्लाह ने शर्म से मुँह छुपा लिया था जब तू अपनी बहू जैनब के साथ काले करतूत कर रहा था  .

"और हम ने इसके लिए कुछ साथ रहने वाले शयातीन मुक़र्रर कर रखे थे सो इन्हों ने इनके अगले पिछले आमाल इनकी नज़र में मुस्तःसिन कर रखे थे और इनके लिए भी अल्लाह का कौल पूरा होके रहा.जो इनके पहले जिन और इंसान हो गुज़रे है बेशक वह भी ख़सारे में रहे."
सूरह हा मीम सजदा - ४१-पारा २४ आयत  (२५)

यह आयत मेरे कौल की सदाक़त बयान करती है कि अल्लाह और शैतान आपस में भाई भाई हैं और एक हैं. जब अल्लाह ही शैतान से काम कराता है तो इंसान दो तो तरफ़ा मार झेल रहा है.
मुहम्मद एक बेवकूफ साजिशी का नाम है, जिसे नादान मुसलमान समझ नहीं पाते.

"और   कहते हैं इस क़ुरआन को सुनो मत और इसके बीच ही शोर कर दिया करो. ऐसे काफ़िरों को हम बड़ा सख्त मज़ा चखाएंगे और उनके बुरे कामों का भर पूर सज़ा उनको देंगे,"
सूरह हा मीम सजदा - ४१-पारा २४ आयत  (२६-२७)

मुहम्मद की असली हालत ये सूरह बतला रही है कि किस क़दर लाखैरे और बेहया ज़ात थी उनकी. जाहिलों की पुश्त पनाही उसके बाद माले ग़नीमत की लालच से ये जिहालत की आयतें इबादत की बन गईं .

"और मिन जुमला इसकी निशानियों में एक ये है कि तू ज़मीन को देखता है कि दबी दबी पड़ी है, फिर जब हम पानी बरसाते हैं तो ये उभरती और फूलती है, हमने इस ज़मीन को ज़िंदा कर दिया वही मुर्दों को जिंदा करेगा. बे शक वह हर चीज़ पर क़ादिर है."
सूरह हा मीम सजदा - ४१-पारा २४ आयत  (२९)

ज़मीन का मुशाहिदा न किसानों के लिए किया न मज़दूरों के लिए, जिनका तअल्लुक़ ज़मीन से है. अपने लाल बुझककड़ी दिमाग से इंसानों की फ़सल ज़मीन से उगा रहे हैं.

"और ये बड़ी बा वक़अत किताब है जिसमें गैर वाकई बात न आगे से आ सकती है न इसके पीछे की तरफ़ से. ये अल्लाह हकीम महमूद की तरफ़ से नाज़िल किया गया है और अगर हम इसे अजमी कुरआन बनाते तो यूँ कहते कि इसकी आयतें साफ़ साफ़ क्यूँ बयान नहीं की गईं. ये क्या बात है कि अजमी कुरआन और अरबी रसूल ? आप कह दीजिए कि ये कुरआन ईमान वालों के लिए राह नुमा और शिफ़ा है. और जो ईमान नहीं लाते उनके लिए डाट लगा दी गई है."
सूरह हा मीम सजदा - ४१-पारा २४ आयत  (४१-४४) 

बार उम्मी अपना तकिया कलाम कुरआन में दोहराते हैं 
"न आगे से आ सकती है न इसके पीछे की तरफ़ से." 
अल्लाह का नया नाम किसी तालीम याफ़्ता ने सुझाया
 "अल्लाह हकीम महमूद" 
अस्ल में कुरआन तौरेत और यहूदियत की चोरी है मगर इसमें झूट और जिहालत की आमेज़िश कर दी गई.मालूम हो कि  जब उस्मान गनी कुरआन को तरतीब देने पर आए  तो इसके आगे से, पीछे ऊपर से और नीचे से ५०% आयतें निकल कर कूड़ेदान में डाल दी गईं थी. कि आप की आयतें इन्तेहाई दर्जे हिमाक़त की थी और कराहियत की भी थीं. अरबी और अजमी की बातें कितनी झोलदार हैं.
कितना मामूली फ़िक्र का रसूल है जो कहता है 
"जो ईमान नहीं लाते उनके लिए डाट लगा दी गई है."
"बहुत जल्द हम अपनी निशानियाँ उनके चारो तरफ़ दिखलाएँगे और खुद इनके अन्दर भी, यहाँ तक कि इनके लिए ये इक़रार किए बगैर कोई चारा न होगा कि ये कुरआन हक़ है. क्या तुम्हारे लिए ये काफ़ी नहीं कि तुम्हारा  परवर दिगार हर हर चीज़ पर खुद गवाह है . आगाह हो जाओ कि इसने हर चीज़ को अपने घेरे में ले रखा है."
सूरह हा मीम सजदा - ४१-पारा २४ आयत  (५३-५४)  


पहली बार मुहम्मद डरा धमका नहीं रहे बल्कि आगाह कर रहे हैं मगर एक झूट के साथ. कुदरत की निशानियाँ तो चारो तरफ़ रौशन हैं जो इन्हें नज़र नहीं आतीं, नज़र कुछ आता है तो किज़्ब और मिथ्य.    


जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान