Monday 30 May 2016

Soorah furqan 25 Q3

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.
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सूरह फुरकान-२५


(तीसरी किस्त)
झूट का पाप=क़ुरआन का आप 

बहुत ही अफ़सोस के साथ लिखना पड़ रहा है कि क़ुरआन वह किताब है जिसमें झूट की इन्तेहा है. हैरत इस पर है कि इसको सर पे रख कर मुसलमान सच बोलने की क़सम खाता है, अदालतों में क़ुरआन उठा कर झूट न बोलने की हलफ बरदारी करता है. 
क़ुरआन में मुहम्मद कभी मूसा बन कर उनकी झूटी कहनियाँ गढ़ते हैं तो कभी ईसा बन कर उनके नक़ली वाकेए बयान करते हैं. वह अपने हालात को कभी सालेह की झोली में डाल कर अवाम को बेवकूफ बनाते हैं तो कभी सुमूद की झोली में. 
जिन जिन यहूदी नबियों का नाम सुन रखा है सब के सहारे से फ़र्ज़ी कहानियाँ बड़े बेढंगे पन से गढ़ते हैं और क़ुरआन की आयतें तय्यार करते है. अल्लाह से झूटी वार्ता लाप, जन्नत की मन मोहक पेशकश और दोज़ख के भयावह नक्शे. 
झूट के पर नहीं होते, जगह जगह पर भद्द से गिरते हैं. 
खुद झूट के जाल में फँस जाते हैं. 
जहन्नमी ओलिमा को इन्हें निकलने में दातों पसीने आ जाते हैं.वह मज़हब के कुछ मुबहम, गोलमोल फार्मूले लाकर इनकी बातों का रफू करते हैं जो मुस्लमान भेड़ें सर हिला कर मान लेती हैं. 
मुहम्मद खुल्लम खुल्ला इतना झूट बोलते हैं कि कभी कभी तो अपने अल्लाह को भी ज़लील कर देते हैं और ओलिमा को कहना पड़ता है ''लाहौल वला क़ूवत''अल्लाह के कहने का मतलब यह है ( ? )
यही वजेह है कि क़ुरआन पढने की किताब नहीं बल्कि तिलावत (पठन-पाठन) का राग माला रह गया है। 
गो कि इस्लाम में गाना बजाना हराम है मगर क़ुरआन के लिए किरअत की लहनें बन गई है यह लहनें भी एक राग है मगर इसे हलाल कर लिया गया है. क़ुरआन को लहेन में गाने का आलमी मुकाबिला होता है. इसके अलावा इसको पढ़ कर मुर्दों को बख्शा जाता है, इसको पढने से जिदों को मुर्दा होने के बाद उज्र मिलता है. और यह अदालतों में हलफ उठने के काम भी आता है.
मैं हलफ लेकर कह सकता हूँ कि क़ुरआन की आयतें ही भोले भाले मुसलमानों को जेहादी बनाती हैं। और मुस्लिम ओलिमा क़ुरआन उठा कर अदालत में बयान दे सकते हैं कि क़ुरआन सिर्फ अम्न का पैगाम देता है. 
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सूरह फुरकान

"और जब इन काफ़िरों से कहा जाता है कि रहमान को सजदा करो तो वह कहते हैं रहमान क्या चीज़ हैं, क्या हम उसको सजदा करने लगेंगे कि तुम जिसको कहोगे? और इससे इनको और ज़्यादः नफ़रत होती है."
सूरह फुरकान-२५-१९वाँ पारा आयत (६०)

मुहम्मद की तमाम बिदअतों में एक बिदअत ये थी कि खुदा के नए नए नाम तराशे थे, उनमे से एक था रहमान. बाशिदों को ये नाम अजीब सा लगा, लफ्ज़ तो पहले से ही अपने मानवी एतबार से रायज था कि रहम दिल को रहमान कहा जाता था, इसे जब अल्लाह का दर्जा मिला तो मुखालिफ़त की बहसें होने लगीं. इससे मुतालिक एक हदीस - - -
- - - सुल्ह हदीबिया कुछ लफ्ज़ी तकरार के बाद पास हुआ. बिस्मिल्लाह-हिर रहमान-निर-रहीम पर फरीक़ मुखालिफ़ के फर्द सुहेल ने कहा  
"ये रहमान कौन हैं इनको मैं नहीं जानता, इनको बीच से अलग किया जाए और 'ब इस्मक अलम' से शुरूआत की जाय. और मुहम्मदुर रसूल अल्लाह की जगह मुहम्मद इब्ने अब्दुल्लाह करो." (बुखारी ११४४) इसे मुहम्मद को मानना पड़ा था.
ज़ाहिर है इस तरह अपने पूज्य का नाम बदलना किसको रास आएगा . अल्लाह की जगह मुसलमानों से भगवान  कहलाया जाए तो कैसा लगेगा?

और वह ज़ात बड़ी आली शान है जिसने आसमान में बड़े बड़े सितारे बनाए और इसमें एक चराग आफ़ताब और एक नूरानी चाँद बनाया और वह ऐसा है जिसने रात और दिन को एक दूसरे के आगे पीछे आने जाने वाले बनाए. उस शख्स के लिए काफी है जो समझना चाहे.या शुक्र करना चाहे."
सूरह फुरकान-२५-१९वाँ पारा आयत (६१-६२)

मुसलमानों! क्या उम्मी के जेहालत भरे फलसफे ही तुम्हारा यकीन है? अगर हाँ तो अपनी नस्लों को ताल्बानियों के सुपुर्द करते रहो और आने वाले दिनों में वह कुत्ते की मौत मरें, इस का यकीन करके इस दुन्या से रुखसत हो. तुम्हारे लिए इस्लाम की हर बात ही नामाकूल है क्यूँकि इस्लाम जेहालत के पेट से पैदा हुवा है.

''और रहमान के बन्दे वह हैं जो ज़मीं पर अजिज़ी के साथ चलते हैं, शर की बात करते हैं तो वह रफा-शर की बातें करते हैं. और जो रातों को अपने रब के सामने सजदा और कयाम में लगे रहते हैं और जो दुआ मांगते हैं ऐ मेरे रब ! हम से जहन्नम के अज़ाब को दूर राख्यो.क्यूंकि  इसका अज़ाब तबाही है.''
सूरह फुरकान-२५-१९वाँ पारा आयत (६३-६५)

मुहम्मद अपनी उम्मत को अपनी दोहरी शख्सियत से गुमराह करते हैं, यही अल्लाह के बने हुए रसूल के बारे में दूसरे खलीफा उमर फ़रमाते हैं कि - - -
"फ़तह मक्का के बाद मुहम्मद हज करने जाते तो संगे-अस्वाद को बोसा देकर अकड़ कर चलते और यही हुक्म सब के लिए था, मगर बाद में देखा कि जईफों को इसमें क़बाहत हो रही है तो हुक्म को वापस ले लिया."(बुखारी ७७६-७७)
  जिसका इरशाद था कि 
"काफिरों को घात लगा कर मारो वह कह रहा है कि जो"शर की बात करते हैं तो वह (मुस्लिम) रफ़ा -शर की बातें करते हैं." 
मुहम्मद पैग़म्बर होते तो पैगाम देते कि "दोज़ख कहीं नहीं है, इन्सान के दिल में है जो उसे दिनों-रात भूना करती है, इस लिए बुरे कम मत करो." दोज़ख का तसव्वुर मुसलामानों का सबसे बड़ा नुकसान है, इन कच्चे ईमान वालों को ये तसव्वुर जीते जी खाता रहता है कि वह इसकी वजेह से अपनी तामीर नहीं कर पा रहे है.

"और जो वह खर्च करने लगते हैं तो फुजूल खर्ची करते हैं, और न तंगी करते हैं और उनका खर्च करना इसके दरमियान एत्दल पर हो,  और जो अल्लाह तअला के साथ किसी और माबूद को शरीक नहीं करते और जिस शख्स को क़त्ल करने में अल्लाह तअला ने हराम फ़रमाया है उसको क़त्ल नहीं करते और जो शख्स ऐसा करेगा सज़ा से उसको साबेका पड़ेगा कि क़यामत के रोज़ उसका अज़ाब बढ़ता चला जाएगा. और वह हमेशा ज़लील होकर इस अज़ाब में रहेगा.
सूरह फुरकान-२५-१९वाँ पारा आयत (६७-६९)

मुहम्मद का मिशन है कि 
"अल्लाह कि इबादत करो और रसूल की इताअत."
 मुस्लमान अपने बुजुर्गों पर हुवे मज़ालिम को भूल कर, जिनके गर्दनों पर तलवार रख कर कालिमा पढाया गया था,  दो एक पुश्तों के बाद पूरी तरह से इस अरबी डाकू के मुट्ठी में फँस चुका है. इसको समझाना जूए शीर लाना है.
मुहम्मद किसी अपने शागिर्द को खर्राच होना पसंद नहीं करते थे. अल्लाह की राह में खर्च करने की हिदायत देते जो कि जेहाद की राह होती. देखिए कि कुरआन ईरान से तूरान कैसे चला जाता है , कैसे मौज़ू बदल जाते है, अभी अल्लाह खर्च खराबे की बातें कर रहा था, कि उसे अपने लिए इबादत की याद आ गई, फिर हराम और हलाल क़त्ल करने की बातें करने लगा. ये इस्लाम ही है जहाँ क़त्ले-इंसानी हलाल भी होता है,

"और वह ऐसे हैं कि जब उनको अल्लाह के एहकाम के ज़रीया नसीहत की जाती है तो उन पर बहरे अंधे होकर नहीं गिरते.''
सूरह फुरकान-२५-१९वाँ पारा आयत (७३)

उफ़ ! अय्यारे-आज़म कहते हैं कि उनकी इन बकवासों पर लोग मुतास्सिर कर क्यूँ बहरे अंधे होकर नहीं गिरते? ये इन्तहा दर्जे की गिरावट है कि एक इंसान दूसरे को इस क़दर ज़लील करे कि वह उसकी बातों को इतना माने कि बहरा और अँधा हो जाय.  
दुनिया भर के मुसलामानों की इस से बढ़ कर और क्या बाद नसीबी होगी कि उनका रहनिमा इतना गिरा हुवा जेहन रखता हो. कितना महत्त्वा-कांक्षी और खुद पसंद था वह इंसान.

"और वह ऐसे हैं कि दुआ करते हैं कि ऐ हमारे परवर दिगार हमारी बीवियों और हमारे औलाद की तरफ से आँखों की ठंडक अता फरमा और हमको मुत्ताकियों का अफ़सर बना दे.ऐसे लोगों को बहिश्त में रहने को बाला खाने मिलेंगे. बवजह उनके साबित क़दम रहने के और उनको इन में बका की दुआ और सलाम मिलेगा."
सूरह फुरकान-२५-१९वाँ पारा आयत (७५-७६)

इस्लाम की बहुत बड़ी कमजोरी है दुआ माँगना. इस बेबुन्याद ज़रीया की बहुत अहमियत है. हर मौक़ा वह ख़ुशी का हो या सदमें का दुआ के लिए हाथ फैले रहते हैं. बादशाह से लेकर रिआया तक सब अपने अल्लाह से जायज़, नाजायज़ हुसूल के लिए उसके सामने हाथ फैलाए रहते हैं. जो मांगते मांगते अल्लाह से मायूस हो जाता है, वह इंसानों के सामने हाथ फैलाने लगता है. मुसलामानों में भिखारियों की कसरत इसी दुआ के तुफैल में है कि भिखारी भी भीख देने वाले को दुआ देता है, देने वाला भी उसको इस ख़याल से भीख दे देता है कि मेरी दुआ कुबूल नहीं हो रही, शायद इसकी ही दुआ कुबूल हो जाए. दुआओं की बरकत का यक़ीन भी मुसलामानों को निकम्मा और मुफ़्त खोर बनाए हुए है. कितना बड़ा सानेहा है कि मेहनत काश मजदूर को भी यह दुआओं का मंतर ठग लेता है. कोई इनको समझाने वाला नहीं कि गैरत के तकाज़े को दुआओं की बरकत भी मंज़ूर नहीं होना चाहिए.  खून पसीने से कमाई हुई रोज़ी ही पायदार होती है. यही कुदरत को भी गवारा है न कि वह मंगतों को पसंद करती है.
मुहम्मद की दुआ? इससे तो खुदा हर मुसलमान को बचाए. मुहम्मद चाल घात की दुआएं भी मुसलमानों से मंगवाते हैं, कि दुआओं की बरकत से उनका अल्लाह मुत्ताकियों का अफ़सर बना दे. गोया ऊपर भी हुक्मरानी की चाहत. दुआ मांगने वालों को बाला खाने मिलेंगे, भूखंड और तहखाने ऐरे गैरों को. मुहम्मदी जन्नत में जन्नातियों को बराबरी का दर्जा न होगा कोई सोने की जन्नत में होग तो कोई जमुर्रद की, तो  किसी को जन्नतुल फिरदौस जोकि सब से कीमती जन्नत होगी . जिब्रील अलैहिस्सलाम ने पता नहीं क्यूँ मुहम्मद की पहली बीवी  खदीजा को खोखले मोतियों की जन्नत अलोट की है.  हैरत है कि मुसल मान किसी आयत पर नज़रे सानी नहीं करता. हर मस्जिद में गिद्ध बैठे हुए है जो कौम का बोटियाँ नोच नोच कर खा रहे हैं.


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जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Friday 27 May 2016

Soorah Furqan 25 Q-2

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.
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सूरह फुरकान-२५
(दूसरी किस्त)

"और जिस रोज़ आसमान बदली पर से फट जाएगा, और फ़रिश्ते बकसरत उतारे जाएँगे उस रोज़ हक़ीक़ी हुकूमत रहमान की होगी. और वह काफ़िर पर सख्त दिन होगा, उस रोज़ ज़ालिम अपने हाथ काट काट  खाएँगे. और कहेंगे क्या खूब होता रसूल के साथ हो लेते."
सूरह फुरकान-२५-१९वाँ पारा आयत (२६-२७)

अल्लाह का इल्म मुलाहिजा हो, उसकी समझ से बादलों के ठीक बाद आसमान की छत छाई हुई है जो फट कर फरिश्तों को उतारने लगेगी.  
इस अल्लाह को हवाई सफ़र कराने की ज़रुरत है, 
कह रहे हैं कि "उस रोज़ हक़ीक़ी हुकूमत रहमान की होगी" जैसे कि आज कल दुन्या में उसका बस नहीं चल पा रहा है. 
अल्लाह ने काफिरों को ज़मीन पर छोड़ रक्खा है कि हैसियत वाले बने रहो कि जल्द ही आसमान में दरवाज़ा खुलेगा और फरिश्तों की फ़ौज आकर फटीचर मुसलामानों का साथ देगी. 
काफ़िर लोग हैरत ज़दः  होकर अपने ही हाथ काट लेंगे और पछताएँगे कि कि काश मुहम्मद को अपनी खुश हाली को लुटा देते. 
चौदः  सौ सालों से मुसलमान फटीचर का फटीचर है और काफिरों की गुलामी कर रहा है, यह सिलसिला तब तक क़ायम रहेगा जब तक मुसलमान इन क़ुरआनी आयतों से बगावत नहीं कर देते.

"नहीं नाजिल किया गया इस तरह  इस लिए है, ताकि हम इसके ज़रीए से आपके दिल को मज़बूत रखें और हमने इसको बहुत ठहरा ठहरा कर उतारा है. और ये लोग कैसा ही अजब सवाल आप के सामने पेश  करें, मगर हम उसका ठीक जवाब और वजाहत भी बढ़ा हुवा आपको इनायत कर देते हैं."
सूरह फुरकान-२५-१९वाँ पारा आयत (३२-3)

अल्लाह की कोई मजबूरी रही होगी कि उसने कुरआन को आयाती टुकड़ों में नाजिल किया, वर्ना उस वक़्त लोग यही मुतालबा करते थे कि यह आसमानी किताब आसमान से उड़ कर सीधे हमारे पास आए या मुहम्मद आसमान पर सीढ़ी लगाकर चढ़ जाएँ और पूरी कुरआन लेकर उतरें. मुहम्मद का मुँह जिलाने वाली बातें इसके जवाब में ये होतीं कि तुम सीढ़ी लगा कर जाओ और अल्लाह को रोक दो कि मुहम्मद पर ये आयतें न उतारे. इस जवाब को वह ठीक ठीक कहते है बल्कि वजाहत भी बढ़ा हुवा.

"और ये लोग जब आपको देखते हैं तो तमास्खुर करने लगते हैं और कहते है, क्या यही हैं जिनको अल्लाह ने रसूल बना कर भेजा है? इस शख्स ने हमारे मअबूदों से हमें हटा दिया होता अगर हम इस पर क़ायम न रहते. और जल्दी इन्हें मालूम हो जाएगा जब अज़ाब का सामना करेंगे कि कौन शख्स गुमराह है."
सूरह फुरकान-२५-१९वाँ पारा आयत (४१-४२)

तायफ़  के हाकिम के पास मुहम्मद जाते हैं और उसको बतलाते हैं कि मैं अल्लाह का रसूल हूँ, शुरू हो जाते हैं अपने लबो-लहजे के साथ - - - हाकिम क़ुरआनी आयतों को सुनकर इनको ऊपर से नीचे तक देखता है और इनसे ही पूछता है अल्लाह को मक्का में कोई ढंग का आदमी नहीं मिला जो तुम को चुना? 
तायफ़ के हाकिम की बात पूरी कुरआन पर, हर सूरह पर और हर आयत पर आज भी लागू होती हैं. 
मुहम्मद के जेहादी तरीका- ए-कार ने इनको लुटेरों का पैगम्बर बना दिया है. हराम जादे ओलिमा ने इन्हें मुक़द्दस बना दिया.

"और वह ऐसा है कि उसने तुम्हारे लिए रात को पर्दा की चीज़ और नींद को राहत की चीज़ बनाया और दिन को जिंदा हो जाने का वक़्त बनाया."
सूरह फुरकान-२५-१९वाँ पारा आयत (४७)
यह माजी के बेजान मुशाहिदे का एक नमूना है. आज रौशन रातें जागने की और गर्म दिन सोने के लिए खुद अरब में बदल गए हैं. ये किसी अल्लाह का मुशाहिदा नहीं हो सकता.   

"और वह ऐसा है कि जिसने दो दरियाओं को सूरतन मिलाया, जिसमें एक तो शीरीं तस्कीन बख्श है और एक शोर तल्ख़. और इनके दरमियाँ में एक हिजाब और एक मअनी क़वी रख दिया और वह ऐसा है जिसने पानी से इंसान को पैदा  किया फिर उसे खानदान वाला और ससुराल वाला बनाया और तेरा परवर दिगार बड़ी कुदरत वाला है."
सूरह फुरकान-२५-१९वाँ पारा आयत (५४)

कुरआन की ये सूरतें दो मुख्तलिफ जिंसों की तरफ़ इशारा करती हैं. 
पहली दरिया है निस्वनी अन्दामे-निहानी (योनि) 
और दूसरी दरिया है नारीना आज़ाए-तानासुल (लिंग). 
इन दोनों से धार के साथ पेशाब ख़ारिज होता है, इसलिए इसकी मिसाल दरिया से दी गई है." 
दो दरियाओं को सूरतन मिलाया" यानी औरत और मर्द की मुबाश्रत(सम्भोग) की सूरते हाल की तरफ इशारा है.
 इस हाल में निकलने वाले माद्दे में से एक को शीरीं और तस्कीन बख्श और  दूसरे को शोर तल्ख़ कहा है ? 
अब मुहम्मदी अल्लाह को इसके जायके का तजरबा होगा कि मर्द का माद्दा और औरत के माद्दे  के  में से शीरीं और तस्कीन बख्श है ?कौन सा है, और कौन सा शोर तल्ख़ ?" 
एक हिजाब और एक मअनी क़वी रख दिया और वह ऐसा है जिसने पानी से इंसान को पैदा  किया" 
यानी मुहम्मद ने इन्सान की पैदाइश को कोक शाश्त्री  तरीका अल्लाह की ज़बान में बतलाया जो कि हमेशा की तरह मुहम्मद का फूहड़ अंदाज़ रहा.
कहते है इन्ही दोनों जिंसी दरयाओं के पानी से आदमी का वजूद होता है, इसी से खानदान बनता है और खानदानों के मिलन से आपस में ससुराल बनता है.
मुहम्मद ने जैसे तैसे अपने उम्मी अंदाज़ में एक बात कही, मगर तर्जुमान अपनी खिचड़ी कैसे पकता है मुलाहिज़ा हो - - -
"मुराद दरियाओं के वह मवाके हैं जहाँ शीरीं दरियाएँ और नहरें समन्दरों से आ मिलते हैं. वहाँ बज़ाहिर ऊपर से दोनों की सतह एक सी मालूम होती है,  मगर कुदरत अलैह से इसमें एक हद फ़ासिल है कि अगर इनके कनारे से पानी लिया जाए तो तल्ख़. चुनाँच बंगाल में ऐसे मवाक़े मौजूद है.
गौर तलब है अल्लाह कहता है खेत की और ये हाकिम वक़्त के गुलाम ओलिमा सुनते हैं खलियान की. सच पूछिए तो किसी मज़हबी  को सच बोलने, सच सोचने, और सच लिखने की जिसारत ही नहीं.

सब कुछ तो साफ़ साफ़ था, इर्शादे-किब्रिया,
तफसीर लिखने वालो! बताओ ये क्या किया,
 कैसे अवाम पढ़ के उठेंगे फायदे?
 तुमने लिखे हुए पे ही कुछ और लिख दिया.

"और हमने आपको इस लिए भेजा है कि खुश खबरी सुनाएँ और डराएँ. आप कह दीजिए कि मैं तुम से इस पर कोई माव्ज़ा नहीं मांगता, हाँ जो शख्स यूँ चाहे कि अपने रब तक रास्ता अख्तियार करे."
सूरह फुरकान-२५-१९वाँ पारा आयत (५७)
डरना, धमकाना, जहन्नम की बुरी बुरी सूरतें दिखलाना और इन्तेकाम की का दर्स देना, मुहम्मदी अल्लाह की खुश खबरी हुई. जो अल्लाह जजिया लेता हो, खैरात और ज़कात मांगता हो, वह भी तलवार की ज़ोर पर, वह खुश खबरी क्या दे सकता है?


जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Monday 23 May 2016

Soorah Furqan 25 Q 1

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.

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सूरह फुरकान-२५
(पहली किस्त)
ईमान

सिने बलूगत से पहले मैं ईमान का मतलब माली लेन देन की पुख्तगी को समझता रहा मगर जब मुस्लिम समाज में प्रचलित शब्द "ईमान" को जाना तो मालूम हुवा कि "कलमाए शहादत", पर यक़ीन रखना ही इस्लामी इस्तेलाह (परिभाषा) में ईमान है, जिसका माली लेन देन से कोई वास्ता नहीं. कलमाए शहादत का निचोड़ है अल्लाह, रसूल, कुरआन और इनके फ़रमूदात पर आस्था के साथ यकीन रखना, ईमान कहलाता है. सिने बलूगत आने पर एहसास ने इस पर अटल रहने से बगावत करना शुरू कर दिया कि इन की बातें माफौकुल फितरत (अप्राकृतिक और अलौकिक) हैं. मुझे इस बात से मायूसी हुई कि लेन देन का पुख्ता होना ईमान नहीं है जिसे आज तक मैं समझता था. बड़े बड़े बस्ती के मौलानाओं की बेईमानी पर मैं हैरान हो जाता कि ये कैसे मुसलमान हैं? मुश्किल रोज़ बरोज़ बढती गई कि इन बे-ईमानियों पर ईमान रखना होगा. धीरे धीरे अल्लाह, रसूल और कुरानी फरमानों का मैं मुनकिर होता गया और ईमाने-अस्ल मेरा ईमान बनता गया कि कुदरती सच ही सच है. ज़मीर की आवाज़ ही हक है.
हम ज़मीन को अपनी आँखों से गोल देखते है जो सूरज के गिर्द चक्कर लगाती है, इस तरह दिन और रत हुवा करते हैं. अल्लाह, रसूल, कुरान और इनके फ़रमूदात पर यकीन करके इसे रोटी की तरह चिपटी माने, और सूरज को रत के वक़्त अल्लाह को सजदा करने चले जाना, अल्लाह का उसको मशरिक की तरफ से वापस करना - - -  ये मुझको क़ुबूल न हो सका. मेरी हैरत की इन्तहा बढती गई कि मुसलमानों का ईमान कितना कमज़ोर है. कुछ लोग दोनों बातो को मानते हैं, इस्लाम के रू से वह लोग मुनाफ़िक़ हुए यानी दोगले. दोगला बनना भी मुझे मंज़ूर हुवा.
मुसलमानों! मेरी इस उम्रे-नादानी से सिने-बलूगत के सफ़र में आप भी शामिल हो जाइए और मुझे अकली पैमाने पर टोकिए, जहाँ मैं ग़लत लगूँ. इस सफ़र में मैं मुस्लिम से मोमिन हो गया, जिसका ईमान सदाक़त पर अपने अकले-सलीम के साथ सवार है. आपको दावते-ईमान है कि आप भी मोमिन बनिए और आने वाले बुरे वक्त से नजात पाइए. आजके परिवेश में देखिए कि मुस्लमान खुद मुसलमानों का दुश्मन बना हुआ है वह भी पाकिस्तान, अफगानिस्तान, ईराक और दीगर मुस्लिम मुमालिक में. बाक़ी जगह गैर मुस्लिमो को वह अपना दुश्मन बनाए हुए है. कुरान के नाक़िस पैगाम अब दुन्या के सामने अपने असली रूप में नाजिल और हाजिर हैं. इंसानियत की राह में हक़ परस्त लोग इसको क़ायम नहीं रहने देंगे, वह सब मिलकर इस गुमराह कुन इबारत को गारत कर देंगे, उसके फ़ौरन बाद आप का नंबर होगा. जागिए मोमिन हो जाने का पहले क़स्द करिए, क्यूंकि मोमिन बनना आसान भी नहीं, सच बोलने और सच जीने में लोहे के चने चबाने पड़ते हैं. इसके बाद तरके-इस्लाम का एलान कीजिए.
आइए देखते है उन दुश्मन-इंसानियत मुहम्मदी अल्लाह के नाक़िस और साजिशी क़ुरआनी पैगाम की हक़ीक़त क्या है - - -
सूरह फुरकान

"बड़ी आली शान ज़ात है जिसने ये फैसले की किताब अपने बंद-ए-खास पर नाज़िल फरमाई ताकि तमाम दुन्या जहाँ को डराने वाला हो"
सूरह फुरकान-२५-१८वाँ पारा आयत (१)

गौर तलब है अल्लाह खुद अपने मुँह से अपने आप को आली शान कह रहा है. जिसकी शान को बन्दे शबो-रोज़ अपनी आँखों से खुद देखते हों, उसको ज़रुरत पड़ गई बतलाने और जतलाने की? कि मैं आलिशान हूँ. मुहम्मद को बतलाना है कि वह बन्दा-ए-खास हैं. जिनको उनके अल्लाह ने काम पर लगा रक्खा है कि बन्दों को झूटी दोज़ख से डराया करो कि यही चाल है कि तुझको लोग पैगम्बर मानें. 

से कुरैशी तमाम अरब के हुक्मरान बन गए थे, खुद मुहम्मद सम्राट बन सकते थे, मगर  मुहम्मद दोनों हाथों में लड्डू चाहते थे कि जेहादी सियासत के साथ साथ अल्लाह के दूत भी बने रहें ताकि मूसा और ईसा की तरह अमर हो जाएँ. क़ुरआनी आयतें और हदीसें इस बात की गवाह हैं कि मुहम्मद में बादशाह बन्ने की सलाहियत न थी. कुरआन की आयतों को सुन कर मक्का में लोगों ने इन्हें 'मसलूबुल अक्ल' यानी अक्ल से पैदल, कहकर नज़र अंदाज़ किया मगर वह लोग जिहादी फार्मूले को समझ नहीं पाए.
"और काफ़िर लोग कहते हैं ये तो कुछ भी नहीं, निरा झूट है जिसको एक शख्स ने गढ़ लिया है और दूसरे लोगों ने इसमें इसकी इमदाद की है. सो ये लोग बड़े ज़ुल्म और झूट के मुर्तकब हुए, और यह लोग कहते हैं ये कुरआन बेसनद बातें हैं जो अगलों से मनकूल चली आ आई हैं, जिसको इसने लिखवा लिया है, फिर इसको सुब्ह व् शाम तुमको पढ़ कर सुनाता है. और ये लोग कहते है इस रसूल को क्या हुवा, वह हमारी तरह खाना खाता है, और बाज़ार में चलता फिरता है. इसके पास कोई फ़रिश्ता क्यूं नहीं भेजा गया कि वह इसके साथ रहकर डराता या इसके पास कोई खज़ाना आ पड़ता या इसके पास कोई बाग़ होता जिससे ये खाया करता. ये ज़ालिम यूँ कहते हैं कि मसलूबुल अक्ल की रह चल पड़े हो." 
सूरह फुरकान-२५-१८वाँ पारा आयत (४-८)

उस वक़्त के मफ्रूज़ा काफ़िर आज के आलिमों से ज्यादह समझ दार और ईमान वाले रहे होंगे, ज़रा सी जिसारत करते तो इस्लामी बीज को अंकुरित ही न होने देते जो मुस्तकबिल में पूरी दुन्या पर अजाब बन कर नाज़िल हुवा. उम्मी के कुरान की हकीकत यही है, "निरा झूट है जिसको एक शख्स ने गढ़ लिया है और दूसरे लोगों ने इसमें इसकी इमदाद की है" वाकई कुरआन गैर मुस्तनद एक दीवाने की गाथा है, इस्लाम मुहम्मद के जीते जी एक साम्राज बन चुका था, मुहम्मद मंसूबे के मुताबिक लूट मार और जोरो-ज़ुल्म 
"देखिए तो ये लोग आपके लिए कैसी अजीब अजीब बातें बयान कर रहे हैं. वह गुमराह हो गए हैं. फिर वह राह नहीं पा सकते. वह ज़ात बड़ी आली शान है  कि चाहे तो आप को इससे अच्छी चीज़ दे दे, यानी बहुत से बागात कि जिसके नीचे से नहरें बहती हों और आप को बहुत से महेल देदे, बल्कि ये लोग क़यामत को झूट समझ रहे हैं और हम ने ऐसे लोगों के लिए जो क़यामत को झूट समझे, दोज़ख तैयार कर राखी है."
सूरह फुरकान-२५-१८वाँ पारा आयत (९-११).

" अजी कुछ सुना आपने! ये लोग आपके लिए कैसी अजीब अजीब बातें बयान कर रहे हैं." जैसे कोई घर वाली अपने मियाँ से कहती हो 
फिर शौहर का जवाब होता है "बकने दो वह राह नहीं पा सकते. वह ज़ात मेरे लिए बड़ी आली शान है कि चाहे तो माबदौलत को इससे अच्छी चीज़ दे दे यानी बहुत से बागात कि जिसके नीचे से नहरें बहती हों जैसे जन्नत, अल्लाह जन्नतियों को देने का वादा हर सूरह में दोहराता है. और माबदौलत को बहुत से महेल देदे "
कितनी परले दर्जे की अय्यारी है कि नबी शामो-हया को घोट कर पी गए हों. 
      
"और वह इसको दूर से देखेंगे तो इसका जोश खरोश नहीं सुनेंगे और जब वह इसकी किसी तंग जगह में हाथ पाँव जकड कर डाल दिए जाएँगे तो वहाँ मौत ही मौत पुकारेंगे, कहा जाएगा कि अब मौत को मत पुकारो बल्कि बहुत सी मौतों को पुकारो आप कहिए क्या ये अच्छी है या वह हमेशा रहने वाली जन्नत जिसका कि अल्लाह से डरने वालों से वादा किया गया है,"
सूरह फुरकान-२५-१८वाँ पारा आयत (१२-१६)

अगर कोई अल्लाह की इन बातों का यकीन करता है तो वह अक्ल से पैदल है कि अल्लाह अपने अरबों खरबों बन्दों को बांधे छान्देगा वह भी तंग जगह में? और फिर ताने देगा कि मुहम्मद को मेरा डाकिया क्यूं नहीं माना. सब मुर्दे मिलकर गिडगिडाएंगे, मौत मांगें गे तो वह भी नहीं मिलेगी. मुहम्मदी अल्लाह किस कद्र ज़ालिम और बेरहम है.    
मुहम्मद को इस बात का इल्म नहीं कि जन्नत और दोज़ख इन्सान के दिल में होता है, ये कहीं बाहर नहीं है. वह नादानों का दिल दहला कर इंसानियत का खून कर रहे हैं.   

"और जिस रोज़ अल्लाह तअला इन काफिरों को और उनको जिन्हें वह अल्लाह के सिवा पूजते हैं, जमा करेगा और फरमाएगा कि क्या तुमने हमारे बन्दों को गुमराह किया है? या ये खुद गुमराह हो गए थे ? माबूदैन (पूज्य) कहेंगे कि मअज़ अल्लाह मेरी क्या मजाल कि हम आप के सिवा किसी को कारसाज़ तजवीज़ करते. लेकिन आपने इनको और इनके बड़ों को आसूदगी दी यहाँ तक कि वह आपको भुला बैठे और खुद ही बर्बाद हो गए. अल्लाह तअला कहेगा कि लो तुम्हारे  मअबूदों ने तुम को तुम्हारी बातों में ही झूठा ठहरा दिया तो अबा अज़ाब को न तुम टाल सकते हो न मदद दिए जा सकते हो"
सूरह फुरकान-२५-१८वाँ पारा आयत (१७-१९)

मुहम्मद की चाल-घात इन आयतों में उनपर खुली लअनत भेज रही हैं  कि जिन मिटटी की मूर्तियों को वह बेहुनर और बेजान साबित करते है वही अल्लाह के सामने जानदार होकर मुसलमान हो जाएँगी और अल्लाह से गुफ्तुगू करने लगेंगी और अल्लाह की गवाही देने लायक बन जाएँगी."मअज़ अल्लाह मेरी  क्या मजाल कि हम आप के सिवा किसी को कारसाज़ तजवीज़ करते" माबूदैन की पहुँच अल्लाह तक है तो काफ़िर उनको अगर वसीला बनाते हैं तो हक बजानिब हुवे.
अक्सर मुसलमान कमन्यूज़म पर मुहम्मद का एहसान मंद होने की राय रखते हैं. कार्ल मार्क्स और लेनिन ने भी पूँजी वाद के खिलाफ रहनुमाई की है मगर पैगम्बरी ढोंग से हट कर. उन्होंने ने ज़िदगी में कितनी परेशनियाँ झेली हैं कि मुहम्मद उनके मुकाबिले में अशर ए अशीर भी नहीं. उन्हों ने कौम को अपनी उम्मत नहीं बनाया और न खैरात जैसी प्रथा कायम किया. न अपने कुरैशी बिरादरी को अपना जाँ नशीन बनाया. न मास्को और बर्लिन को मक्का का दर्जा दिया.

   "वह यूँ कहते हैं कि हमारे पास फ़रिश्ते क्यूँ नहीं आते या हम अपने रब को देख लें. ये लोग अपने आप को बहुत बड़ा समझ रहे है और ये लोग हद से बहुत दूर निकल गए हैं. जिस रोज़ ये फरिश्तों को देख लेंगे उस रोज़ मुजरिमों के लिए कोई ख़ुशी की बात न होगी. देख कर कहेंगे पनाह है पनाह."
सूरह फुरकान-२५-१९वाँ पारा आयत (२२)

ऐसी आयतें इन्सान को निकम्मा और उम्मत को नामर्द बनाए हुए हैं. दुनिया की तरक्की में मुसलामानों का कोई योगदान नहीं. ये बड़े शर्म की बात है
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जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Friday 20 May 2016

Soorah nNoor 24 Q3.

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.

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सूरह नूर २४-१८ वाँ पारा 

(तीसरी किस्त)

अब चलिए, देखें कि अल्लाह जीने के आदाब सिखलाता है - - -
"जहाँ तक हो सके बे निकाहों का निकाह पढ़ा दिया करो और इसी तरह तुम्हारे गुलाम और लौंडियो में. जो माली तौर पर निकाह की हैसियत नहीं रखते, वह अपनी नफ़स पर काबू रक्खें. गुलामों में जो मकातिब (मालिक की शर्त पर गुलाम मुक़रर्रह  वक्क्त पर कोई काम करके दिखा दे तो वह मकातिब हो जाता है) होने के ख्वाहाँ हों उनको तआवुन करो "
सूरह नूर २४-१८ वाँ पारा आयत (३२)

पैगम्बर का साफ़ साफ़ पैग़ाम है कि ग़रीब लौड़ी और ग़ुलाम अपने नफ्स पर जब्र करके अज्वाज़ी ज़िन्दगी से महरूम रहें , ये पैगम्बरी नहीं इंसानियत सोज़ी है. लौंडी और ग़ुलाम कोई मुजरिम नहीं होते थे यह जेहादी गुंडा गर्दी के शिकार कैदी हुवा करते थे.
यह पुराने ज़माने की अख्लाकी फ़रायज़ आज लागू नहीं होते तो इसे आज क्यूँ तिलावत में दोहराया जाय. वैसे अल्लाह का कलाम ऐसा होना चाहिए जो कभी पुराना ही न पड़े. पेड़ों का खड़खड़ाना, चिडयों का चहचहाना, बादलों का गरजना, हवा की सर सर ही अल्लाह के कलाम हैं. कोई इंसानी भाषा अल्लाह का कलाम नहीं हो सकती.
ऐ गुलामाने-रसूल! 
मकतिब करने का वह ज़माना लद गया, तुम भी मुहम्मद की गुलामी से नजात पाओ. हवा का बुत क़ायम किया था और नाम दिया था वहदानियत. मुहम्मद ने. मुस्लिम, काफ़िर और मुशरिक का साजिशी जाल बुना, फिर उस जाल का शिकार ऐसा कारगर साबित हुवा कि  इंसानी आबादी का बीसवाँ हिस्सा उसमें फँसा, तो निकलना ना मुमकिन हो गया, फडफडा रहा है, इस जाल से मकातिबत की कोई सूरत उसके लिए नहीं बन पा रही है, पूरा का पूरा माफ़िया आलमी पैमाने पर मुसलामानों पर नज़र रखता है, कि वह इस्लामी गुलाम बने रहें ताकि हराम खोरों का राज क़ायम रहे.
मुसलमानोंi! आपको मकातिब तो होना ही है. पैगामारी वह है जो गुलामी से इंसानों को मुकम्मल आज़ाद करे. पैगम्बर भी कहीं लौंडी और गुलाम रखता है.

"अपनी लौंडियो को ज़िना करने पर मजबूर मत करो, खास कर अगर वह पाक बाज़ है, महेज़ इस लिए कि कुछ मॉल तुम को मिल जाय. इसके बाद जो मजबूर करेगा तो अल्लाह तअला उसे मुआफ करने वाला है और मेहरबान है. हमने तुम्हारे लिए खुले खुले अहकाम भेजे हैं."
सूरह नूर २४-१८ वाँ पारा आयत (३३)

यह अल्लाह के रसूल हैं जो अपने अल्लाह की दी हुई रिआयत का एलन करते है कि 
मुसलमान अगर भडुवा गीरी भी करे तो वह मुहम्मदी अल्लाह उसे मुआफ करने वाला है. 
कौम के लिए कितना शर्मनाक ये पैगाम है.नतीजतन इस ज़लील पेशे में भडुआ बने हुए अक्सर मुसलमानों को पेट भरते देखने को मिलेगे. पाकबाज़ औरत को लौंडी बनाना ही नापाकी है. उसके बाद उस से पेशा कराना भी अल्लाह को गवारा है. 
लअनत है.
एक शरई पेंच देखिए कि एक तरफ इसी सूरह में ज़ानियों को सौ सौ कोड़े रसीद करने का कानून अल्लाह नाज़िल करता है और इसी सूरह में लौंडियों से ज़िना कारी कराने की छूट देता है. गौर तलब ये है कि ज़िना यक तरफ़ा तो होता नहीं, इस लिए मुसलमानों को ज़िना करने की रिआयत भी देता है और सजा भी. ये कुरान का तज़ाद (विरोधाभास् ) है.    

मुसलामानों ! क्या तुम्हारा ज़मीर बिलकुल ही मुर्दा हो चुका है और अकलों पर पला पद गया है ? इन आयतों को आग लगादो, इस से पहले कि दूसरे इस काम की शुरुआत करें. 

"अल्लाह तअला  नूर देने वाला है. आसमानों का और ज़मीन का. इसके नूर की हालाते-अजीबिया ऐसी है जो एक ताक है, इसमें एक चिराग है, ये चिराग एक कंदील में है और वह कंदील ऐसी है जैसे एक चमकता हुआ सितारा हो.चिराग एक निहायत मुफीद दरख़्त से रौशन किया गया है कि वह जैतून है जो न पूरब रुख है न पच्छिम रुख है. इसका तेल ऐसा है कि अगर आग भी न छुए, ताहम ऐसा मालूम होता है कि खुद बखुद जल उठेगा. नूर अला नूर है और अल्लाह तअला अपने तक जिसको चाहता है राह दे देता है. अल्लाह तअला लोगों की हिदायत के लिए ये मिसालें बयां फरमाता है"
सूरह नूर २४-१८ वाँ पारा आयत (३५)
खुद साख्ता पैगम्बर मुहम्मद की ये अफसाना निगारी का एक नमूना है, पहले भी उनकी तख़लीक़ आप देख चुके हैं, 
उनकी मिसालों को भी देखा है, सब बेसिर पैर की बातें होती हैं.   
मुसलमान कहाँ तक एक उम्मी की पैरवी करते रहेंगे. जिसे बात करने की तमीज़ न हो वह अल्लाह की तस्वीर खींच रहा है. लिखते हैं 
".चिराग एक निहायत मुफीद दरख़्त से रौशन किया गया है कि वह जैतून है" चराग जैतून के दरख़्त से रौशन कर रहे हैं? 
ओलिमा मुहम्मद की बैसाखी बन कर लिखते है (गोया जैतून का तेल) कहते हैं 
"जो न पूरब रुख है न पच्छिम रुख है" तो उत्तर या दक्खन रुख होगा. किसी रुख तो होगा ही, इसका गैर ज़रूरी तज़करह क्या मअनी रखता है? तेल की तारीफ में अल्लाह की तारीफ भूल जाते हैं, तेल नूर अला नूर है. अल्लाह का नूर तो उनसे बयान भी न हो पाया. 
"अल्लाह तअला लोगों की हिदायत के लिए ये मिसालें बयान फरमाता है "
यह है मुहम्मद की मिसाल का चैलेन्ज जिसको मुसलमान दावे के साथ कहते है कि कुरआन की एक लाइन भी बनाना बन्दों के बस का नहीं. अगर उनके अल्लाह की यही लाइनें हैं तो शायद वह ठीक ही कहते होंगे. कौन अहमक ऐसे अल्लाह के मुकाबिले में आएगा.

"और वह लोग बड़ा जोर लगा कर क़समें खाया करते हैं कि वल्लाह अगर आप उनको हुक्म दें तो वह अभी निकल खड़े हों, कह दो कि बस क़समें न खाओ, फ़रमाँ बरदारी मालूम है. अल्लाह तुम्हारे ईमान की पूरी खबर रखता है. आप कहिए कि अल्लाह की इताअत करो और रसूल की इताअत करो, फिर अगर रूगरदनी करोगे तो समझ रखो कि रसूल के जिम्मे वही है जिसका इन पर बार रखा गया है और तुमने अगर इनकी इताअत करली तो राह पर जा लगोगे और रसूल की ज़िम्मेदारी साफ़ तौर पर पहुंचा देना है.'
सूरह नूर २४-१८ वाँ पारा आयत (५३-५४)

मुहम्मद अपने जाल में फँसे हुए किसी मुसलमान पर इशारतन तनकीद कर रहे हैं जो कि उनका हर उल्टा सीधा कहना नहीं मानता, धमका रहे हैं कि
 " अल्लाह तुम्हारे ईमान की पूरी खबर रखता है" 
गोया अल्लाह निजाम कायनात को कुछ दिन के लिए मुल्तवी करके मुहम्मद की मुखबरी कर राह है. या यह कहा जाए कि अल्लाह की आड़ में खुद मुहम्मद अल्लाह बने हुए हर एक अपने बन्दों की खबर रखते हैं. 
ना फ़रमाँ बरदारी करने वाले को छुपी हुई धमकी भी साथ साथ दे रहे हैं कि उनकी तरफ़ से अल्लाह की मर्ज़ी काम करेगी. हर हाल में अपनी इताअत इनकी खू थी.
"बड़ी बूढी औरतें जिनको निकाह की कोई उम्मीद न रह गई हो, उनको कोई गुनाह नहीं कि वह अपने कपडे उतार रखें.बशर्ते ये कि ज़ीनत का इज़हार न करे और इससे भी एहतियात रखें तो उनके लिए और ज़ियादः बेहतर है.
सूरह नूर २४-१८ वाँ पारा आयत (६०)

मुहम्मद बद किसमत थे कि उनकी बड़ी बूढी कोई नहीं थी वर्ना ऐसी बेहूदा राय औरतों को न देते.
तुम लोग रसूल के बुलाने को ऐसा न समझो जैसे तुम में एक दूसरे को बुला लेता है. अल्लाह उन लोगों को जनता है जो आड़ में होकर तुम में से खिसक जाते हैं, सो जो लोग अल्लाह के हुक्म की मुखालफ़त करते हैं उनको इस से डरना चाहिए कि उन पर कोई आफ़त आ पड़े या उन पर कोई दर्दनाक अज़ाब नाज़िल हो जाय."
सूरह नूर २४-१८ वाँ पारा आयत (६३)

मुहम्मदी अल्लाह की हकीकत को उस वक़्त सभी जानते थे और उनकी बातों को सुन कर इधर उधर हो जाया करते थे. वह मुस्लमान तो मजबूरन बने हुए थे कि मुहम्मद के पास हराम खोर लुटेरों की फ़ौज थी जो, आज भी अपने सम्माज में जो बहुबल होते हैं. कानून उनका, और कहीं कोई अदालत नहीं. बरसों इस्लामी हथौड़ों से पिटने के बाद आज उन बा ज़मीरों की नस्लों ने मुहम्मद की हठ धर्मी को धर्म मान लिया गया है.
 जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान
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जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Monday 16 May 2016

Soorah Noor 24-Q2

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.
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सूरह नूर २४

(दूसरी किस्त)

  हुक्म है कि हर काम अल्लाह के नाम से शुरू किया जाय. 
यानी "बिस्मिल्लाह-हिर्रहमान-निर्रहीम" पढने के बाद। 
किसी जानदार को हलाल करो तब भी पहले मुँह से निकले बिस्मिल्लाह - - - खुद कुरान पाठ में भी इस बात का एहतेमाम है। 
मगर कारी पहले पढता है
 "आऊजो बिल्लाहे-मिनस-शैतानुर्रजीम"
 जिसका मतलब है "अल्लाह की पनाह चाहता हूँ उस मातूब (प्रकोपित) किए गए शैतान से" 
यहाँ पर शैतान ने अल्लाह मियाँ को भी गच्चा दे दिया कि क़ुरआन पाठ से पहले उसका नाम लेना पड़ता है, यानी उसकी हैबत से डर के, बाद में अल्लाह मियाँ का मम्बर आता है. 
ये है मुहम्मद की अकले-कोताह का नमूना. 
ऐसी बहुत सी गलतियाँ अल्लाह के कलाम में हैं जो बदली नहीं जा सकतीं. इसी तरह इस्लामी नअरा है 
"नअरे तकबीर-अल्लाह हुअकबर" 
यानी तकब्बुर (घमंड) का नारा, अल्लाह बड़ा है. 
सवाल उठता है अल्लाह बड़ा है तो छोटा कौन है? 
बड़ा कहने का इशारा होता है कि इससे छोटा भी कोई है? 
यहाँ पर भी अल्लाह के मुकाबिले में छोटा अल्लाह यानी शैतान खड़ा हुवा है. 
दोनों की खस्लतें भी एक जैसी हैं. दोनों हर जगह मौजूद हैं. 
दोनों इंसान के हर अमल में दख्ल रखते हैं. क़ुरआन बार बार कहता है "अल्लाह जिसको गुमराह करता है उसको राहे-रास्त पर कोई नहीं ला सकता." 
शैतान भी लोगों को गुमराह करता है. 
मुसलमानों! 
शैतान को कहो
"अल्लाह-हुअसगर" 
यानी छोटे अल्लाह मियाँ.
सूरह नूर

"जो लोग अपनी बीवियों पर तोहमत लगाएँ और उनके पास बजुज़ अपने और कोई गवाह ना हो, तो उनकी शहादत यही है कि वह चार बार अल्लाह की क़सम खा कर ये कह दें कि बे शक मैं सच्चा हूँ और पाँचवीं बार ये कहे कि मुझ पर अल्लाह की लअनत है, अगर मैं झूठा हूँ और इसके बाद उस औरत से सज़ा यूँ टल सकती है कि चार बार क़सम खा कर कहे कि ये मर्द झूठा है और पांचवीं बार ये कहे कि मुझ पर अल्लाह की गज़ब हो, अगर ये मर्द सच्चा हो."
सूरह नूर २४-१८ वाँ पारा आयत (६-९)
अक्ल का पैदल अल्लाह और उसके क़ानून कितने नामुकम्मल हैं, मियाँ और बीवी में ज़ाहिर है कि इनमे कोई एक झूट बोल रहा होगा, तो क्या कर लोगे उसका ? या अगर दोनों मियाँ बीवी झूट बोल रहे हों तो? किसको सजा होगी, 
इसके सिवा कि झूठे को अल्लाह दोज़ख में डालेगा। 
जब गुनाहगारों को ऊपर की सज़ा तय है तो तुम नीचे ज़मीन पर न मुकम्मल और जेहालत से भरी हुई सज़ा को क्यूं रवा रक्खे हो। 
जब तुम्हारे पास कानून बनाने की अक्ल नहीं है तो कानून साज़ी का मजाक क्यूँ बना रहे हो? 
मुसलमानों अगर तुमने लाल बुझककड़ का नाम सुना हो तो तुम्हारा पैगमबर लाल बुझककड़ था। उसको खैर बाद कहकर मोमिन की राह अपनाओ।  

"जिन लोगों ने ( आयशा के निस्बत) तूफ़ान बरपा किया है वह तुम्हारे में का गिरोह है, तुम इसको अपने हक में बुरा ना समझो बल्कि ये तुम्हारे हक में बेहतर ही बेहतर है. इस में से हर शख्स को जितना किसी ने कुछ किया था, गुनाह हुवा और इनमें, इस तूफ़ान में जिसने सब से बड़ा हिस्सा लिया, उसको सज़ा होगी. जब तुमने ये बात सुनी थी तो अपने आपस वालों के साथ गुमान नेक क्यूँ ना किया, और ये क्यूँ ना कहा ये सरीह झूट है. यह लोग इस पर चार गवाह क्यूँ ना लाए. सो इस सूरत में ये लोग गवाह ना लाए तो बस अल्लाह के नज़दीक ये लोग झूठे हैं. और तुम ने ये बात जब सुना था तो ये क्यूं ना कहा कि ये बात हम को ज़ेबा नहीं देता है कि ऐसी बात को मुँह से निकालें. ये तो बड़ा बोहतान है, अल्लाह तअला तुमको नसीहत देता है कि ऐसी हरकत दुबारा ना करना, अगर तुम ईमान वाले हो. जो लोग चाहते हैं कि बाद नुजूल इन आयात के मुसलामानों में इस बे हयाई की फिर चर्चा हो, इनके लिए दुन्या और आखरत में बड़ी सज़ा है".
सूरह नूर २४-१८ वाँ पारा आयत (११-१९)

मुहम्मद एक तरफ कहते हैं 
"तुम इसको अपने हक में बुरा ना समझो बल्कि ये तुम्हारे हक में बेहतर ही बेहतर है।" 
साथ साथ कहते हैं 
" इस में से हर शख्स को जितना किसी ने कुछ किया था, गुनाह हुवा " तर्जुमा निगार ने यहाँ पच्चड लगा कर उम्मी मुहम्मद की मदद की है. 
यह वक़ेआ मुसलामानों के हक में बेहतर कैसे रहा? 
ये तो अल्लाह ही बेहतर समझे, मगर इसके लिए वह मुहम्मद को जवाब तलब क्यूँ नहीं करता जो आयशा से एक महीने तक बद दिल रहे. 
अल्लाह अपने आप को क्यूँ मुजरिम नहीं गर्दानता कि वह्यी भेजने में एक महीने की देर कर दी. गरीब आयशा इतने दिनों ज़िल्लत उठाती रही और बदनामी की ताब न ला कर बीमार हो गई? 
आयशा के साथ हादसे के एक महीने बाद अल्लाह का क़ानून आया चार गवाही का और मुहम्मद फरमा रहे हैं कि
 "यह लोग इस पर चार गवाह क्यूँ ना लाए" 
बात को समझें अगर समझ में आए तो मुहम्मद की अक्ल पर मातम करें. मुहम्मद का मकसद था अपनी बीवी आयशा को बदनामी से बचाना, उनको मालूम है कि उस जगह तो आयशा और सफवान इब्ने मुअत्तल फ़क़त दो बशर थे, सेहरा में चार गवाह कहाँ से ला सकते थे इलज़ाम लगाने वाले? 
आयत-ए-मज़कूरा में चार गवाहों की बात भी खूब रही, 
ये सोच कर ही आप लुत्फ़ अन्दोज़ हो सकते है कि काश किन्हीं ज़ानियों के चश्म दीद गवाहों में एक आप भी होते. 
इस तसव्वुर पर आपको कोई गुनाह भी नहीं कि शरई हुक्म की पैरवी जो हुई. वैसे इंसानी फितरत के हिसाब से इए मौक़े पर शरीके-ज़ानयान हो जाना ज्यादा मुनासिब है, कौन ताब रखता है कि ऐसे मौक़े से चूके. ज़ानयान को भी मुहम्मद से दो क़दम आगे होना चाहिए कि चार आदमी उसको देख रहे हों और वह उनको अपनी तस्वीरें उनकी गवाही के लिए कैमरों को चालू रहने दें .
इस हालात-ए-ज़िना का अमल ऐसा हो कि जैसे सुरमे दानी में सलाई आ, जा रही हो. 
इंसानों के लिए ये अमल ज़रा मुश्किल है मगर जानवरों की ज़िना कारी पर अगर ये गवाही होती तो कुछ आसानी होती. मुबाश्रत के वक़्त बड़े बड़े मुत्तकी जानवर हो जाते हैं, ये बात अलग है.
मुहम्मद की अकले कोताह पर मातम किया जा सकता है कि इस वाकेए को कुरआन में चर्चा भी किए जा रहे हैं और कह रहे हैं - - -
" जो लोग चाहते हैं कि बाद नुजूल इन आयात के मुसलामानों में इस बे हयाई की फिर चर्चा हो, इनके लिए दुन्या और आखरत में बड़ी सज़ा है".

"गन्दी औरतें गंदे मर्दों के लिए होती हैं और गंदे मर्द गन्दी औरतों के लिए होते हैं। सुथरे मर्द सुथरी औरतों के लायक होते हैं और और सुथरी औरतें सुथरे मर्द के लायक होते हैं."
सूरह नूर २४-१८ वाँ पारा आयत (२०)
असल पैगम्बरी तो ये होती कि गन्दे मर्द और गन्दी औरतों के साथ शरीके-हयात बन कर उनकी गंदगी को दूर करो। 
अच्छे समाज की तामीर में इस तरह से अच्छे लोग अपना तआवुन दें।



जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Friday 13 May 2016

Soorah noor 24 Q-1

मेरी तहरीर में - - - बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.

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सूरह नूर २४-१८ वाँ पारा
(पहली किस्त)  

मुहम्मद की जाती ज़िन्दगी का एक बड़ा सनेहा (विडंबना) के रद्दे-अमल में नाजिल हुई है. 
दौराने-सफ़र बूढ़े रसूल की नवखेज़ बीवी पर बद चलनी का इलज़ाम लग गया था. जब वह सफ़र में अपने काफिले से बिछड़ गई थीं. 
थोड़ी देर बाद ऊँट पर सवार, पराए मर्द के साथ आती दिखाई पड़ीं. वह ना-महरम (अपरिचित) ऊँट की नकेल थामे उसके आगे आगे पैदल चला आ रहा था. 
इस पर काफिले के कुछ शर-पसंद लोगों ने आयशा पर इलज़ाम तराशी कर दी. माहौल में चे-में गोइयाँ होने लगीं. इलज़ाम तराशों का पलड़ा भारी होता देख कर खुद अल्लाह के रसूल भी उन लोगों के साथ हो गए. आयशा इस सदमें को बर्दाश्त ना कर सकीं और शदीद बीमार हो गईं. 
एक महीने बाद मुहम्मद में जेहनी बदलाव आया और वह पुरसा हाली के लिए आयशा के पास पहुंचे. आयशा ने नफरत से उनकी तरफ से मुँह फेर लिया. 
मुहम्मद ने जिब्रीली पुडिया आयशा को थमाने की कोशिश की कि अल्लाह की वह्यी (ईश-वाणी) आ गई है कि तुम निर्दोष हो. 
आयशा ने कहा "मैं क्या हूँ ,ये मैं जानती हूँ और मेरा अल्लाह, मुझे किसी की शहादत की ज़रुरत नहीं है".
बाप अबू बकर के समझाने बुझाने पर एक बार फिर आयशा मान गई, जैसे छै साल की उम्र में बूढ़े के साथ निकाह के लिए मान गई थी और मुहम्मद को उसने मुआफ कर दिया.  
देखिए कि इस पूरी सूरह में मुहम्मद ने कैसे गिरगिट की तरह रंग बदला है. - - - 

"ये एक सूरह है जिसको हमने नाज़िल किया है और हमने इसको मुक़र्रर किया है और हमने इस सूरह में साफ़ साफ़ आयतें नाज़िल की हैं."
सूरह नूर २४-१८ वाँ पारा आयत (१)

मुहम्मद के साथ इस हाद्साती  वक़ेआ को गुज़रे एक माह हो चुके थे. इस बीच पूरे माहौल में उथल-पुथल मची हुई थी जिससे मुहम्मद खुद बहुत परेशान थे, एक महीने के बाद जिब्रीली वहियों का रेला आया और मुहम्मदी अल्लाह ने आयते-नूर नाज़िल किया जिसे पढ़ कर मुहम्मद की अक्ल और उनकी सोच पर तरस आती है और तरस आती है मुसलामानों की ज़ेहनी पस्ती पर कि वह इन हेर-फेर की बातों को अल्लाह जल्ले शानाहू का फ़रमान मानते हैं. 
जिसे अल्लाह साफ़ साफ़ आयत कहता है, मुलहिज़ा हो कि वह कितनी गन्दी गन्दी हैं.
" ज़िना कराने वाली औरतों और ज़िना करने वाले मर्द, सो इनमें से हर एक को सौ सौ दुर्रे मारो. तुम लोगों को इन दोनों पर अल्लाह तअला के मुआमले में ज़रा भी रहेम नहीं होना चाहिए, अगर अल्लाह पर और क़यामत पर ईमान रखते हो, सो दोनों के सज़ा के वक़्त मुसलामानों की एक जमाअत वहां हाज़िर रहना चाहिए."
सूरह नूर २४-१८ वाँ पारा आयत (२)

नाज़ुक सी छूई मूई पे काज़ी के ये सितम,
पहले ही संग सार के गैरत से मर गई।
मुसलमानों! हमारी बहनें और बेटियाँ कुदरत  का हसीन तरीन शाहकार हैं, उनमें teen age में कुदरत की ही बख्शी एक उमंग आती है, उनसे भूल चूक फितरी अलामत है, यही बात लड़कों पर भी सादिक है.
 ज़ालिम मुहम्मदी अल्लाह उनके लिए ये हैवानी कानून नाज़िल करता है ? नज़रें उठाइए, ज़माना कहाँ से कहाँ पहुँच गया है. औरतों और मर्दों पर मूतअद्दित मुक़ाम आ जाया करते है,  मुख्तलिफ हालात पैदा हो जाते हैं, कि लग्ज़िशें हो जाया करती हैं. खुद इस आयत के नाज़िल करने वाले मुहम्मद इन हालात के शिकार हुए हैं, शिकार ही नहीं, शिकार किया भी है. 
उनका ज़मीर तो मुर्दा हो गया था, जब उनकी करनी का आइना उनके हम अस्र उनको दिखलाते थे तो बड़ी बेशर्मी से कह दिया करे थे कि मैं अल्लाह का रसूल हूँ , मेरे सारे गुनाह मुआफ हैं. मुहम्मद एक कुरूर नर पिशाच का नाम है जिसकी करनी की सजा आप लोग भुगत रहे हैं.
ज़ानी (दुराचारी) निकाह भी किसी के साथ नहीं करता, बजुज़ जानिया (दुराचारनी) या मुशरिका (मूर्ति-पूजक) के, और ज़ानिया के साथ भी और कोई निकाह नहीं करता बजुज़ ज़ानी या मुशरिक के. और ये मुसलमान पर हराम किया गया है. और जो लोग तोहमत लगाएँ पाक दामन औरतों पर और फि"र चार गवाह ना ला सकें, उनको अस्सी दुर्रे रसीद किए जाएँ.और आगे इनकी कोई गवाही भी कुबूल की जाए." 
सूरह नूर २४-१८ वाँ पारा आयत (३-४)

पीर पैगमबर और महान आत्माएँ बड़ी से बड़ी गलतियों को माफ़ कर दिया करते हैं, साजिशी रसूल इंसानों की छोटी छोटी खताओं पर कैसे कैसे ज़ुल्म ढाने के पैगाम पेश कर रहे हैं? अभी T .V . पर एक खातून को ज़मीन में दफ़्न करते हुए मुहम्मदी अल्लाह के जल्लाद उस पर आखरी दम में संगसारी करते हुए उसकी शक्ल बिगाड़ रहे थे, देख कर कलेजा मुँह में आ गया. उफ़! मुहम्मद के दीवाने और दीवानगी की हद.

मदीने में एक था
"अब्दुल्ला बिन अबी इब्ने सलूल" 
यह अंसारी नौजवान मदीने के निगहबानी के लिए उस वक़्त चुनाव लड़ने की तय्यारी ही कर रहा था जब मुहम्मद हिजरत करके मक्के से मदीना आए . मुआहम्मद की आमद से इस के रंग में भंग पड़ गया था. पहले भी इससे मुहम्मद की नोक-झोक हो चुकी थी. अब्दुल्ला बिन अबी इब्ने सलूल ने कबीलाई माहौल में इस्लाम तो क़ुबूल कर लिया था मगर मुहम्मद को ज़क देने के कोई भी मौक़ा ना चूकता.
मुहम्मद का तरीका था कि जंगी लूट-पाट और मार-काट (जेहाद) पर जब जाते तो अपनी बीवियों में से किसी एक का इंतेखाब करके साथ ले जाते. इस जेहाद में नंबर था आयशा का. लूट  मार-काट करके किसी जेहाद से मुहम्मद वापस मदीने आ रहे थे कि काफला पड़ाव के लिए रुका. आयशा ऊँट के कुजावा (वह हौद जो पर्दा नशीन औरतों के लिए होता है) से बहार निकलीं कि पेशाब पाखाने से फारिग हो लें. फारिग होकर जब वह वापस आईं तो देखा उनका हार उनके गले में ना था, तलाश के लिए वापस उस जगह तक गईं और तलाश करती रहीं. इसमें उनको इतना वक़्त लगा कि जंगी काफला आगे के लिए कूच कर चुका था. आयशा कहती हैं कि "यह देख कर कि लश्कर नदारद था, मुझे चक्कर आ गया और मैं बैठ गई कि अब क्या होगा मगर उम्मीद थी कि कोई वापस इनकी तलाश में आएगा  उनको नींद आ गई बैठे बैठ सो गईं कि लश्कर के पीछे का निगराँ "सफवान इब्ने मुअत्तल'' आया जो उनको देख कर पहचान गया. उसने आयशा को ऊँट पर बिठाया और खुद ऊँट की नकेल पकड़ कर पैदल आगे आगे चला."
काफिले ने आयशा को ऊँट पर सवार एक ना महरम के साथ आते हुए देखा तो हैरत में पड़ गया, उसमें चे-में गोइयाँ होने लगीं. तेज़ तर्रार "अब्दुल्ला बिन अबी इब्ने सलूल" ने आयशा पर साजिश के साथ बद फेली का इलज़ाम लगा दिया और इस दलील के साथ बोहतान तराशी की कि लश्कर के ज़्यादा लोग उसकी बात को मान गए, यहाँ तक कि अल्लाह के नबी बने मुहम्मद भी भीड़ की आवाज़ में आवाज़ मिलाने लगे.

इस वक़ेआ के बाद "सूरह नूर'' उतरी और अपने मुआमले को अपनी उम्मत के लिए कोड़े और संग सारी करके औरत को जिंदा दफन का कानून बना डाला.  

"अब्दुल्ला बिन अबी इब्ने सलूल" ने हमेशा मुहम्मद के साथ बुग्ज़ रखा, उसके जीते जी मुहम्मद उसका कुछ ना बिगाड़ सके, उसके मरने के बाद उससे बदला यूं लिया - - -जाबिर कहते हैं कि "अब्दुल्ला बिन अबी इब्ने सलूल" के मरने के बाद मुहम्मद उसकी कब्र पर गए, लाश को बाहर निकाला और उसके मुँह में थूका और उसको अपना उतरन पहनाया.(बुखारी ६१५)   






जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Monday 9 May 2016

soorah maumenoon 23 Q-3

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.
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सूरह मओमेनून २३

तीसरी  किस्त)

लौकिक और फितरी सत्य ही, बिना किसी संकोच के सत्य है। 
अलौकिक या गैर फितरी सत्य पूरा का पूरा असत्य है। 
धर्म और मज़हब की आस्था और अक़ीदा कल्पित मन गढ़ंथ का रूप मात्र हैं। इस रूप पर अगर कोई व्यक्तिगत रूप में विश्वास करे तो करे, इसमें उसका नफा और नुकसान निहित है, मगर इसे प्रसार और प्रचार बना कर आर्थिक साधन बनाए तो ये जुर्म के दायरे में आता है. 
व्यक्ति की व्यक्तिगत आस्था व्यक्ति तक सीमित रहे तो उसे इसकी आज़ादी है, मगर दूसरों में प्रवाहित किया जाय तो आस्थावान दुष्ट और साजिशी है. 
ऐसे धूर्तों को जेल की सलाखों के अन्दर होना चाहिए. 
देश का ऐसा संविधान बने कि सिने-बलूगत और प्रौढ़ता तक बच्चों को कोई धार्मिक या दृष्टि कौणिक यहाँ तक कि विषय विशेष की तालीम देने पर प्रतिबंध हो ताकि व्यस्क होने पर वह अपना हक सुरक्षित पाए. 
हमारा समाज ठीक इसके उल्टा है. बच्चों के बालिग होने तक हिन्दू और मुसलमान बना देता है. यह तरबियत और संस्कार उसके हक में ज़ह्र है. मुसलमानों को इसकी ताकीद है कि बच्चा अगर कलिमा गो ना हुवा तो माँ  बाप को जहन्नम में दाखिल कर दिया जायगा. 
इस कौम की पामाली इस नाकिस अकीदे के तहत भी है।

आइए देखें कि क़ुरआनी अल्लाह क्या कहता है - - -

'' और तुम सब उसी के पास ले जाओगे जो जलाता है और मारता है और उसी के अख्तियार में है दिन का घटना बढ़ना. सो क्या तुम नहीं समझते?''
सूरह मओमेनून २३- पारा-१८ -आयत (८०)

यकीनी तौर पर कहा जा सकता है कि इस आयत का खालिक नशेडी रहा होगा. अपने रब को ऐसे रुसवा करना मुहम्मद को ही शोभा देता है. क्यूं कि वह मुतलक जाहिल थे और तलवार की नोक से उनकी बातें कुरआन बन गई हैं. देखिए कि ये नशीली आयतें कब तक कौम को अपने बस में किए रहती. 
खालिक कभी अपने मखलूक को जलाता है न मरता है. 

'' आप कह दीजिए ये ज़मीन और जो इसपे रहते है, ये किसके हैं, अगर तुम को कुछ खबर है , वह ज़रूर कहेंगे कि अल्लाह के , उनसे कह दीजए कि फिर क्यूँ नहीं गौर करते. और आप ये भी कहिए कि वह सात आसमानों का मालिक और आला अर्श का मालिक कौन है, वह ज़रूर जवाब देंगे कि अल्लाह का सब है आप कहिए कि फिर डरते क्यूं नहीं."
सूरह मओमेनून २३- पारा-१८ -आयत (८५-८७)

मुहम्मद की बातों पर गौर करो जो कि अल्लाह की ज़ात से वाबिस्ता हैं और जो अल्लाह आज तक राज़ बना हुवा हैं. 
जहाँ तक इल्म इंसानी पहुंची है, ये खबर देती है कि आसमान तो एक ही है, सात आसमान अकली गद्दा है. ज़मीन जिसको बार बार कुरआन एक बतलाता है वह लाखों है, 
हमारी इस ज़मीन से हजारों गुना बबड़े . जितने तारे आसमान पर दिखाई देते हैं सब ज़मीन ही हैं. 
मुहम्मद कह रहे हैं कि अगर अल्लाह को मान रहे हो तो उसके रसूल को क्यूँ नहीं? 
खुद को ज़बरदस्ती अल्लाह का रसूल मनवाने वाले ये थोड़ी सी अक्ल की बात भी तो करते. उनको मानने का मतलब हुवा कि उनकी उम्मियत को माना जाय जोकि नस्ल ए इंसानी के साथ जब्र करने के बराबर होगा।
वह काफ़िर खुद इन आयतों में गवाह हैं कि वह सभी हाँ भर रहे हैं कि सब का मालिक अल्लाह है, हुज्जत है उनके मशविरे से उससे डरो, 
वह तो ऐसा नहीं कहता, आप कहते हैं कि अगर उससे डरते हो तो मुझ से डरो।

''सो जिस शख्स का पल्ला भारी, सो ऐसे लोग कामयाब होंगे और जिसका पल्ला हल्का होगा सो ये वह लोग होंगे जिन्हों ने अपना नुकसान कर लिया और हमेशा जहन्नम में रहेंगे. इनके चेहरों को आग झुलसाती होगी और इसमें इनके मुंह बिगड़े हुए होंगे. क्यूँ? क्या तुम को हमारी आयतें पढ़ कर सुनाई नहीं जाया करती थीं? और तुम इनको झुटलाया करते थे. वह कहेंगे ऐ हमारे रब ! हमारी बद बखती ने हमें घेर लिया. था और हम गुमराह लोग थे. ऐ हमारे रब हमको इसमें से निकाल लीजिए. फिर अगर दोबारा करें तो बे शक हम पूरे गुनाह गार होंगे . इरशाद होगा कि इस में रांदे हुए पड़े रहो और मुझ से बात न करो.''
सूरह मओमेनून २३- पारा-१८ -आयत (१०२-१०८)
साजिशी अल्लाह ही पल्लों को हल्का और भारी किए हुए है. 
अल्लाह की आयतों में कहीं कौड़ी भर भी दम है? कि जिसको झुटलाया न जाए. जिस मखलूक के मुंह इस दुन्या में ही तेरी जिहालत ने बिगड़ दिए हों, उनका क़यामत पर कौन देखने वाला होगा? वहां को तो तू खुद गरजी और नफ्सी नफ्सी के फ्रेम में जड़ता है. 
इस मुहम्मदी अल्लाह की जालसाजी से तो कोई हक़ ही मुसलामानों को बचा सकता है।

''इरशाद होगा कि तुम बरसों के शुमार से किस क़दर मुद्दत ज़मीन पर रहे होगे? दोजखी जवाब दें गे कि एक दिन या इससे भी कम रहे होंगे गिनने वालों से पूछ लीजिए इरशाद होगा तुम थोड़े ही मुद्दत रहे, क्या खूब होता कि तुम समझते होते. हाँ तो क्या तुमने ये ख़याल किया कि हमने तुम को यूं ही मोह्मिल पैदा कर दिया और ये कि तुम हमारे पास नहीं ले जाओगे? सो अल्लाह बहुत आली शान है और अर्श ए अज़ीम का मालिक है.
सूरह मओमेनून २३- पारा-१८ -आयत (१११-११६)

मुसलामानों आपका अल्लाह एक ज़ालिम बाप की तरह है जिसने औलादें पैदा कीं कि उन पर हुक्मरानी करेगा, मनमानी करेगा, सितम ढाएगा, मरेगा पीटेगा, जलाएगा और तरह तरह के मज़ालिम करेगा। 
हर वक़्त उसके खौफ में मुब्तिला रहो, 
इसके अलावा काम धाम, मेहनत मशकक़त के इरशादात हैं कहीं? 
दुन्या के ऐशो-आराम तो काफिरों को उधार दिए रहता है और तुमको ऊपर के वादों में फँसाए रहता है. 
ऐसा तो नहीं कि तुम्हारा अल्लाह और उसका रसूल दीगर कौमों के एजेंट हों? 
इसी तरह मनुवाद बर्रे सगीर के आदिवासियों, अछूतों और दलितों के लिए पूर्व जन्म  का लेखा जोखा बतला कर सदियों से सवर्णों को दास बनाए हुवे है. 
आप का अल्लाह आपका पुनर जन्म की हालत में रखता है 
और उनका ईश्वर उनको पूर्व जन्म कि डोरी में बंधे हुए है. दोनों के धर्म गुरू अपने वर्तमान को उज्जवल किए हुए हैं।

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Friday 6 May 2016

Soorah maumeneen 23-Q2

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.
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सूरह मओमेनून २३
दूसरी किस्त)
मुसलमानों!

देखें क़ि ज़माना हक बजानिब है या कुरआन? मैं कुछ आयतें आपको पढने का मशविरा दे रहे हैं - - -
सूरह- आयत
बकर - १९०-१९२-२१४-२४४-२४५-
इमरान- १६७- १६८-१७०
निसा ७५-७७
मायदा- ३५
इंफाल १५-१६-१७-३९- ४३- ६४ -६७
तौबः ५- १६- २९ -४१- ४५- ४६ - ४७ -५३ - ८४ - ८६ -
मुहम्मद - २० -२१ -२२
फतह १६-२०-२३
सफ़- १०-११-
यह चंद आयतें बतौर नमूना हैं, पूरा का पूरा कुरआन ज़हर में बुझा हुआ झूट है.
इन आयातों में जेहाद की तलकीन की गई है. देखिए क़ि किस हठ धर्मी के साथ दूसरों को क़त्ल कर देने के एह्कामत हैं. 
मुसलमान अल्लाह के हुक्म  पर जहाँ मौक़ा मिलता है, क़ुरआनी अल्लाह के मुताबिक ज़ुल्म ढाने लगता है.
 ऐसी कौम को जदीद इंसानी क़द्रें ही अब तक बचाए हुए हैं, वगरना माज़ी के आईने को देख कर जवाब देने में अगर हैवानियत पहुंचे तो मुसलामानों का सारी दुन्या से नाम ओ निशान ही ख़त्म हो जाय. 
स्पेन में आठ सौ साल हुक्मरानी के बाद जब मुसलमान अपने आमालों के भुगतान में आए तो दस लाख मुस्लमान दहकती हुई मसनवी दोज़ख में झोंक दिए गए. 
अभी कल की बात है क़ि ईराक में दस लाख मुसलमान चीटियों की तरह मसल दिए गए. ऐसा चौदह सौ सालों से चला आ रहा है, जिसकी खबर आलिमान दीन आप को मक्र के रूप में देते हैं कि वह सब शहादत के सीगे में दाखिल हो कर जन्नत नशीन हुए. 
इंसानों को यह सजाएँ क़ुरआनी आयतें दिलवाती हैं. इसकी जिम्मे दारी इस्लाम ख़ोर ओलिमा की हमेशा से रही है. आप लोग सिर्फ शिकारयों के शिकार हैं.
झूट को पामाल करने के लिए जब तक आप ज़माने के साथ न होंगे, खुद को पायमाल करते रहेंगे. अगर आप थोड़े से भी इंसाफ पसंद हैं तो खुद हाथ बढ़ा कर ऐसी मकरूह इबारत आग में झोंक देंगे.

आइए देखें कि हाद्साती आयतें क्या कहती हैं - - -

"और हमने पानी से बाग़ पैदा किए खजूरों और अंगूरों के. तुम्हारे लिए इसमें बकसरत मेवे भी हैं और इसमें से खाते भी हो और एक दरख्त जो तूरे-सीना में पैदा होता है, जो कि उगता है तेल लिए हुए और खाने वालों को सालन लिए हुए. और तुम्हारे मवेशी गौर करने का मौक़ा है कि हम तुमको इन के पेट में की चीज़ पीने को देते हैं और इनमें से बअज़ को खाते भी हो . इन पर और कश्ती पर लदे घूमते भी हो."
सूरह मओमेनून २३- पारा-१८ -आयत (१९-२२ 

रेगिस्तानी अल्लाह को खजूर, अंगूर और जैतून के सिवा, आम, अमरुद और सेब जैसे दरख्तों का पता भी नहीं है. 
इरशाद हुवा है की मवेशी के पेट से पीने की चीजें भी पैदा कीं . 
ज़ाहिर है कि इसमें से दो चीजें ही आती हैं. दूध और मूत. दूध तो पिया भी जाता है और कभी कभी मूत भी पिया जाता है. खुद मुहम्मद भी इसके कायल थे कि एक हदीस के मुताबिक मुहम्मद के पास किसी दूर बस्ती से पेट के कुछ मरीज़ आए, तो उन्होंने उनको अपने फॉर्म हॉउस में ये कहके भेज दिया कि वहां पर ऊंटों का दूध और मूत  पीकर यह लोग सेहत याब हो जाएँगे. और वह वहां रहकर ठीक भी हो गए, ऐसे ठीक हुए कि फार्म हॉउस के रखवाले को मार कर मुहम्मद के सभी ऊंटों को लेकर फरार हो गए. मुहम्मद के सिपाहियों ने उन्हें जा धरा. ज़ालिम मुहम्मद ने उन्हें ऐसी सजा दी कि सुन कर कलेजा मुंह को आए.
अल्लाह काफिरों को जब दोज़ख की सजाएं तजवीज़ करता है तो मुहम्मद की ज़ेहंयत इस हदीस को लेकर नज़रों के सामने घूम जाती है।

"कश्ती का ज़िक्र मुहम्मद के मुँह पर आए तो कुरआन का तहकीकी मौज़ू ग़ायब हो जाता है और वह बार बार नूह के साथ बह निकलते हैं. कश्ती का नूह से चोली दामन का साथ जो हुवा. कश्ती का नाम मुहम्मद के मुँह पर आए तो जेहन में नूह दौड़ने लगते हैं
सूरह मओमेनून २३- पारा-१८ -आयत (१९-२२ )

फिर शुरू हो जाती है नूह की कथा . नूह के नाम से मुहम्मद अपनी आप बीती मन गढ़ंत जड़ने लगते हैं. मुलाहिजा हो एक बार फिर नूह के सफीने पर कुरान की सवारी - - -

"और हमने नूह को इनकी कौम की तरफ़ पैगम्बर बना कर भेजा सो उन्हों ने कौम से फ़रमाया कि ऐ मेरी कौम! अल्लाह की ही इबादत किया करो, उसके आलावा कोई माबूद बनाने के लायक नहीं है, तो क्या डरते नहीं हो. बस कि उनकी कौम में जो काफ़िर मालदार थे , कहने लगे कि ये शख्स बजुज़ इसके कि तुम्हारी तरह एक आदमी है और कुछ भी नहीं, इसका मतलब ये है कि तुम से बरतर बन कर रहे और अल्लाह को मंज़ूर होता तो  किसी फ़रिश्ते को भेजता. हमने ये बात अपने बड़ों में नहीं सुनीं. बस कि ये एक आदमी है जिसको जूनून हो गया है . नूह ने कहा ऐ मेरे रब! मेरा बदला ले वजेह ये है कि उन्हों ने मुझको झुटलाया। पस कि हमने उनके पास हुक्म भेजा कि तुम कश्ती तैयार कर लो हमारी निगरानी में फिर जब हमारा हुक्म आ पहुँचे और ज़मीन से पानी उबलना शुरू हो तो हर किस्म में एक एक नर और एक एक मादा यानी दो अदद इस में दाखिल कर लो और  अपने घर वालों को भी इस लिहाज़ के साथ कि जिस पर इस में से हुक्म नाजिल हो चुका हो. और हम से काफिरों के बारे में कोई गुफ्तुगू न करना. वह सब ग़र्क किए जाएँगे. फिर जिस वक़्त तुम और तुम्हारे साथी कश्ती पर बैठ चुको तो कहना शक्र है अल्लाह का जिसने मुझे काफिरों से नजात दी. और यूं कहना कि रब मुझको बरकत से उतारियो. और आप सब उतारने वालों में से सब से अच्छे हैं इसमें बहुत सारी निशानियाँ हैं और हम आजमाते हैं."
सूरह मओमेनून २३- पारा-१८ -आयत (२३-३०)

इस तरह मुहम्मद अपना दिमागी फितूर ज़ाहिर करते हुए अहले मक्का को समझाते हैं बल्कि धमकाते हैं कि वह भी नूह की तरह ही पैगम्बर है और उनकी बद दुआ से सब के सब गरके-आब हो जाओगे. इस तरह अपने  मुखालिफ काफिरों से नजात भी चाहते है.

''हमने कौम नूह के बाद दूसरा गिरोह पैदा किया फिर हमने इनमें से ही एक पैगम्बर भेजा कि तुम लोग अल्लाह की इबादत किया करो. इसके सिवा तुम्हारा कोई माबूद नहीं है. तो इनमें से जिन्हों ने कुफ्र किया था और आखिरत को झुटलाया था और हमने इनको दुन्या के ऐश दिए, कहने लगे पस वह तुम्हारी तरह ही एक आदमी है. ये वही खाते हैं जो तुम खाते हो, वाही पीते हैं जो तुम पीते हो, इसके कहने पर चलोगे तो घाटे में रहोगे क्या वह तुम से कहता है कि मर जाओगे तो मिटटी और हड्डियाँ हो जाओगे, तो निकाले जाओगे, बहुत ही बईद है जो तुम से कही जाती है. पैगम्बर ने दुआ किया कि ऐ मेरे रब मेरा बदला ले - - - फिर हमने इन्हें खश ओ खाशाक कर दिया. सो अल्लाह की मर काफिरों पर फिर इनको हालाक होने पर हमने और उम्मत पैदा की।''





जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Monday 2 May 2016

Soorah maumenoon 23-Q1

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.
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सूरह मओमेनून २३
(पहली किस्त)

मैं एक मिटटी से वापस आ रहा था, साथ में मेरे एक खासे पढ़े लिखे रिश्तेदार भी थे. चलते चलते उन्हों ने एक झाड़ से कुछ पत्तियां नोच लीं, उसमें से कुछ खुद रख लीं और कुछ मुझे थमा दीं. मैं ने सवाल्या निशान से जब उनको देखा तो समझाने लगे कि मिटटी से लौटो तो हमेशा हरी पत्ती के साथ घर में दाखिल हुवा करो. मैंने सबब दरयाफ्त किया कि इस से क्या होता है? तो बोले इस से होता कुछ नहीं है, ये मैं भी जनता हूँ मगर ये एक समाजी दस्तूर है, इसको निभाने में हर्ज क्या है? घर में घुसो तो औरतें हाथ में हरी पत्ती देखकर मुतमईन हो जाती हैं, वर्ना बुरा मानती है. 
ये है कबीलाई जिंदगी की जेहनी गुलामी का एक नमूना. ये बीमारी नस्ल दर नस्ल हमारे समाज में चली आ रही है. ऐसे बहुतेरे रस्म ओ रिवाज को हमारा समाज सदियों से ढोता चला आ रहा है. तालीम के बाद भी इन मामूली अंध विशवास से लोग उबर नहीं प् रहे.
दूसरी मिसाल इसके बर अक्स मैं अपनी तहरीर कर में रहा हूँ कि मेरी शरीक-हयात दुल्हन के रूप में अपने घर से रुखसत होकर मेरे घर नकाब के अन्दर दाखिल हुईं, दूसरे दिन उनको समझा बुझा कर नकाब को अपने घर से रुखसत कर दिया, कि दोबारा उनपर उसकी साया तक नहीं पड़ी. मेरे इस फैसले से नई नवेली दुल्हन को भी फितरी राहत महसूस हुई, मगर वक्ती तौर पर उनको इसकी मुखालफत भी झेलनी पड़ी, 
बिल आखिर भावजों को इससे हौसला मिला, कि उन्हों ने भी नकाब तर्क कर दिया. इसका देर पा असर ये हुवा कि पैंतीस साल बाद हमारे बड़े खानदान ने नकाब को खैरबाद कर बिया.
इन दो मिसालों से मैं बतलाना चाहता हूँ कि अकेला चना भाड़ तो नहीं फोड़ सकता मगर आवाज़ बुलंद कर सकता है. बड़े से बड़े मिशन की कामयाबी के लिए पहला क़दम तो उठाना ही पड़ेगा. इंसान अपने अन्दर छिपी सलाहियतों से खुद पहचानने से बचता रहता है. 

आइए मुहम्मद की उम्मियत की तरफ चलें और उनको रंगे हाथों पकड़ने के बाद मुसलामानों के सामने पेश करें कि तुम्हारी नस्लों का दुश्मन ये रहा - - - 

"बिल यकीन उन मुसलामानों ने फलाह पाई जो अपनी नमाज़ों में गिडगिडाने वाले हैं.''
सूरह मओमेनून २३- परा-१८ -आयत (१-२)

रोना और हँसना, दोनों ही ज़ेहन को हल्का कर देते हैं, मगर इसकी कोई वजेह और हदें हुवा करती हैं. बिना वजेह ये तजाऊज़ कर जाएँ तो ये बीमारी की अलामत होती है. हँसना तो खैर इस्लाम में हराम की तरह है मगर एक नार्मल इंसान को यह रोने और गिडगिडाने की हरकत अपने आप में बेवकूफी लगेगी. अफ़सोस कि कुरआन का कोई भी मशविरा इंसानों के लिए कारामद नहीं है, कुछ निकलता है तो नुक़सान दह. 

"और जो लग्व बातों से दूर रहते हैं, जो अपने को पाक रखते हैं और जो अपनी शरमगाहों की हिफ़ाज़त करने वाले हैं, लेकिन अपनी बीवियों और लौंडियों पर कोई इलज़ाम नहीं. हाँ! जो इसके अलावा तलब गार हो, ऐसे लोग हद से निकलने वाले हैं"
सूरह मओमेनून २३- परा-१८ -आयत (३-७)

खुद साख्ता रसूल एक हदीस में फ़रमाते हैं कि जो शख्स मेरी ज़बान और तानासुल (लिंग) पर मुझे काबू दिला दे उसके लिए मैं जन्नत की ज़मानत लेता हूँ , और उनका अल्लाह कहता है कि शर्म गाहों की हिफाज़त करो. मुहम्मद खुद अल्लाह की पनाह में नहीं जाते. अल्लाह ने सिर्फ मर्दों को इंसानी दर्जा दिया है इस बात का एहसास बार बार कुरआन कराता है. कुरानी जुमले पर गौर करिए 
"लेकिन अपनी बीवियों और लौंडियों पर कोई इलज़ाम नहीं" 
एक मुसलमान चार बीवियाँ बयक वक्त रख सकता है उसके बाद लौड्यों की छूट. इस तरह एक मर्द= चार औरतें +लौडियाँ बे शुमार. 
इस्लामी ओलिमा, इन्हें इनका अल्लाह गारत करे, ढिंढोरा पीटते फिरते है कि इस्लाम ने औरतों को बराबर का मुकाम दिया है. इन फासिकों के चार टुकड़े कर देने चाहिए कि इस्लाम औरतों को इन्सान ही नहीं मानता. अफ़सोस का मक़ाम ये है कि खुद औरतें ज्यादह इस्लामी खुराफात में पेश पेश रहती हैं . 

"हमने इंसान को मिटटी के खुलासे से बनाया, फिर हमने इसको नुत्फे से बनाया, जो कि एक महफूज़ मुकाम में रहा, फिर हमने इस नुत्फे को खून का लोथड़ा बनाया, फिर हमने इस खून के लोथड़े को बोटी बनाई, फिर हमने इस बोटी को हड्डी बनाई, फिर हमने इन हड्डियों पर गोशत चढ़ाया, फिर हमने इसको एक दूसरी ही मखलूक बना दिया, सो कैसी शान है मेरी, जो तमाम हुनरमंदों से बढ़ कर है. फिर तुम बाद इसके ज़रूर मरने वाले हो और फिर क़यामत के रोज़ ज़िन्दा किए जाओगे."
सूरह मओमेनून २३- परा-१८ -आयत (१२-१६)

ये मिटटी का खुलासा क्या होता है? 
मुफस्सिर और तर्जुमान एक दूसरे की काट करते हुए अल्लाह की मदद अपने अपने मंतिक से करते हैं. 
अल्लाह की हिकमत देखिए कि आप की तकमील में उसने क्या क्या जतन किए है? 
खालिक ए कायनात किस छिछोरे पन से अपनी तारीफ़ कर रहा है। 
ये मुहम्मद के ज़र्फ़ की नककाशी है. सब कुछ अल्लाह कर सकता है कि उसका दावा ही है ये, बस कर नहीं पाता तो अपने इस शाहकार इन्सान को मुसलमान नहीं बना सकता. ऐसी जेहालत की आयत मुहम्मदी अल्लाह वास्ते इबादत पेश का रहा है।

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान