Friday 30 January 2015

Soorah Asr 103/30

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.
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सूरह  अस्र १०३  - पारा ३० 
(वलअसरे  इन्नल इनसाना)
ऊपर उन (७८ -११४) सूरतों के नाम उनके शुरूआती अल्फाज़ के साथ दिया जा रहा हैं जिन्हें नमाज़ों में सूरह फातेहा या अल्हम्द - - के साथ जोड़ कर तुम पढ़ते हो.. ये छोटी छोटी सूरह तीसवें पारे की हैं. देखो   और समझो कि इनमें झूट, मकर, सियासत, नफरत, जेहालत, कुदूरत, गलाज़त यहाँ तक कि मुग़ललज़ात भी तुम्हारी इबादत में शामिल हो जाती हैं. तुम अपनी ज़बान में इनको पढने का तसव्वुर भी  नहीं कर सकते. ये ज़बान ए गैर में है, वह भी अरबी में, जिसको तुम मुक़द्दस समझते हो, चाहे उसमे फह्हाशी ही क्यूँ न हो..
इबादत के लिए रुक़ूअ या सुजूद, अल्फाज़, तौर तरीके और तरकीब की कोई जगह नहीं होती, गर्क ए कायनात होकर कर उट्ठो तो देखो तुम्हारा अल्लाह तुम्हारे सामने सदाक़त बन कर खड़ा होगा. तुमको इशारा करेगा कि तुमको इस धरती पर इस लिए भेजा है कि तुम इसे सजाओ और सँवारो, आने वाले बन्दों के लिए, यहाँ तक कि धरती के हर बाशिदों के लिए. इनसे नफरत करना गुनाह है, इन बन्दों और बाशिदों की खैर ही तुम्हारी इबादत होगी. इनकी बक़ा ही तुम्हारी नस्लों के हक में होगा.
तथा कथित बाबा राम देव एक मदारी है जो योग के नाम पर उछल कूद करता है. वह अव्वल दर्जे का अय्यार है जो भोले भाले अवाम को ठगता है. पैसे से दूर दिखने बाला ये धूर्त अपने हर काम में पैसे की दुर्गन्ध सूंघता है. इसकी एक ही प्रेक्टिस है" पेट की धौकनी " इसका तमाशा ये कुईन विक्टोरिया तक को दिखा चुका है. अफ़सोस होता है अवाम पर जो इसकी लकवा ग्रस्त आँखे और चेहरे को देख कर भी इसे हर बीमारी का मसीहा मानते हैं.
रामदेव एक फटीचर गवइए से अरबों का मालिक बन गया है, उसकी आकान्छाएँ यहीं तक सीमित नहीं, बल्कि वह देश का राष्ट्र पति बन्ने का सपना देख रहा है. योग गुरु तो उसने खुद को स्थापित कर ही चुका है, अब अवशधि  सम्राट की दौड़ में शामिल है. परदे के पीछे राम देव क्या है, इसका पोल भी जल्द ही दुन्या के सामने आ जायगा. इसको बढ़ावा देने वाले या तो सीधी सादी जनता है या फिर कपटी कुटिल मुट्ठी भर लोग. खेद है कि भेद चाल चलने वाली जनता के लिए जम्हूरियत की सौगात है.
ऐसे हालात ही इन कुटिलों को एक दिन मुहम्मद बना देते हैं.
"क़सम है ज़माने की,
कि इंसान बड़े ख़सारे में है,
मगर जो लोग ईमान लाए और उन्हों ने अच्छे कम किए और एक दूसरे को हक की फ़ह्माइश करते रहे और एक दूसरे को पाबंदी की फ़ह्माइश करते रहे"
सूरह वल अस्र १०३ पारा-३० आयत (१०३)
नमाज़ियो !
आज जदीद क़द्रें आ चुकी हैं कि 'बिन माँगी राय' मत दो, क़ुरआन कहता है," एक दूसरे को हक की फ़ह्माइश करते रहो"
हक नाहक इंसानी सोच पर मुनहसर करता है, जो तुम्हारे लिए हक़ का मुक़ाम रखता है, वह किसी दूसरे के लिए नाहाक़ हो सकता है. उसको अपनी नज़र्याती राय देकर, फर्द को महेज़ आप छेड़ते हैं, जो कि बिल आखीर तनाजिए का सबब बन सकता है.
इन्हीं आयातों का असर है कि मुसलामानों में तबलीग का फैशन बन गया है और इसकी जमाअतें बन गई हैं. यही तबलीग (फ़ह्माइश)जब जब शिद्दत अख्तियार करती है तो जान लेने और जान देने का सबब बन जाती है और इसकी जमाअतें तालिबानी हो जाती हैं.
इस्लाम हर पहलू से दुश्मने-इंसानियत है. अपनी नस्लों को इसके साए से बचाओ.

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Monday 26 January 2015

Soorah Hamza 104/30

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें  हैं.
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सूरह  हो म ज़ह १०४  - पारा ३०
(वैलुल्ले  कुल्ले होमा ज़तिल लोमाज़ते) 

ऊपर उन (७८ -११४) सूरतों के नाम उनके शुरूआती अल्फाज़ के साथ दिया जा रहा हैं जिन्हें नमाज़ों में सूरह फातेहा या अल्हम्द - - के साथ जोड़ कर तुम पढ़ते हो.ये छोटी छोटी सूरह तीसवें पारे की हैं. देखो और समझो कि इनमें झूट, मकर, सियासत, नफरत, जेहालत, कुदूरत, गलाज़त यहाँ तक कि मुग़ललज़ात भी तुम्हारी इबादत में शामिल हो जाती हैं. तुम अपनी ज़बान में इनको पढने का तसव्वुर भी नहीं कर सकते. ये ज़बान ए गैर में है, वह भी अरबी में, जिसको तुम मुक़द्दस समझते हो, चाहे उसमे फह्हाशी ही क्यूँ न हो.
इबादत के लिए रुक़ूअ या सुजूद, अल्फाज़, तौर तरीके और तरकीब की कोई जगह नहीं होती, गर्क ए कायनात होकर कर उट्ठो तो देखो तुम्हारा अल्लाह तुम्हारे सामने सदाक़त बन कर खड़ा होगा. तुमको इशारा करेगा कि तुमको इस धरती पर इस लिए भेजा है कि तुम इसे सजाओ और सँवारो, आने वाले बन्दों के लिए, यहाँ तक कि धरती के हर बाशिदों के लिए. इनसे नफरत करना गुनाह है, इन बन्दों और बाशिदों की खैर ही तुम्हारी इबादत होगी. इनकी बक़ा ही तुम्हारी नस्लों के हक में होगा.
अल्लाह को मानने से पहले उसे जानने की ज़रुरत है. इसके लिए हमें अपने दिमाग को रौशन करना पड़ेगा. इस धरती पर जितने भी रहमान और भगवन है, सब हजरते इंसान के दिमागों के गढ़े हुए हैं. क़ुदरत और फ़ितरत इनके हथियार हैं और इनके खालिक़ ए मशकूक की बरकत इनका ज़रीआ मुआश. इन खुदा फरोशों से दूर रहकर ही हम सच के आशना हो सकते हैं. फ़ितरत ने हमें सिर्फ़ खाम मॉल दिया है और इसे शक्ल देने के लिए औज़ार दिए हैं . . .
हाथ पैर, कान नाक, मुँह और दिल ओ दिमाग और सब से आखीर मरहला, जब हम शक्ल मुकम्मल कर लेते हैं तो फिनिशिग के लिए दिए हैं,
ज़मीर नुमा पालिश.
इस तरह हम ज़िन्दगी के तमाम मुआमले तराश सकते हैं और फिनिशिंग तक ला सकते हैं. इस ज़मीन को ही जन्नत बना सकते हैं. हमें अपने दिलो- दिमाग की हालत ठीक करना है, जिस पर रूहानियत ग़ालिब है. 

अल्लाह की आग की सिफ़त मुलाहिजा हो, दुन्या की तमाम आग अल्लाह की नहीं है?

"बड़ी खराबी है ऐसे शख्स के लिए जो पसे पुश्त ऐब निकलने वाला हो.
रू दर रू तअने देने वाला हो, जो माल जमा करता हो और इसे बार बार गिनता हो.
वह ख्याल करता है, उसका माल उसके पास सदा रहेगा.
हरगिज़ नहीं! वह शख्स ऐसी आग में डाला जाएगा,
जिसमें जो कुछ पड़े वह इसको तोड़ फोड़ दे.
और आपको मअलूम है कि वह तोड़ फोड़ करने वाली आग कैसी है?
वह अल्लाह की आग है जो सुलगाई गई है, जो दिलों तक पहुँचेगी,
वह इन पर बंद कर दी जाएगी.
वह लोग आग के बड़े बड़े सुतूनों में होंगे."
सूरह हो म ज़ह १०४ - पारा ३०-आयत (१-९)

नमाज़ियो !
अपने अक़ीदों को मानो,
मगर ज़रूरी है कि इसे जानो भी.
अल्लाह जैसी हस्ती आजिज़ है, उन लोगों से जो उसे , उसकी अन देखी सूरत और ऊँट पटाँग बातों को मानने को तैयार नहीं,
आखिर इसके लिए क्या मुंकिन नहीं है कि वह मुजस्सिम अपने बन्दों के सामने आ जाए?
और अपने वजूद का सुबूत दे,
जिन बन्दों की किस्मत में उसने जन्नत लिख रखी हैं, उनके हाथों में छलकता जाम थमा दे,
उनके लिए बैज़ा जैसी बड़ी बड़ी आँखों वाली गोरी गोरी हूरों की परेड करा दे.
क़ुरआन कहता है अल्लाह और उसके रसूल को मानो तो मरने के बाद जन्नत की पूरी फिल्म दिखलाई जाएगी,
तो इस फिल्म का ट्रेलर दिखलाना उसके लिए क्या मुश्किल खड़ी करता है,
वह ऐसा करदे तो उसके बाद कौन कमबख्त काफ़िर बचेगा?
मगर अल्लाह के लिए ये सब कर पाना मुमकिन नहीं,
अफ़सोस तुम्हारे लिए कितना आसान है, इस खयाली अल्लाह को बगैर सोचे विचारे मान लेते हो.
इसे जानो,
जागो! मुसलमानों जागो!!


जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Friday 23 January 2015

Soorah Lail 105/30

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.
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जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Monday 19 January 2015

सूरह क़ुरैश १०६ - पारा ३०

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.
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सूरह क़ुरैश १०६  - पारा ३० 
( लेईलाफे कुरैशिन ईलाफेहिम)  
समाज की बुराइयाँ, हाकिमों की ज्यादतियां और रस्म ओ रिवाज की ख़ामियाँ देख कर कोई साहिबे दिल और साहिबे जिगर उठ खड़ा होता है, वह अपनी जान को हथेली पर रख कर मैदान में उतरता है. वह कभी अपनी ज़िदगी में ही कामयाब हो जाता है, कभी वंचित रह जाता है और मरने के बाद अपने बुलंद मुकाम को छूता है, 
ईसा की तरह. मौत के बाद वह महात्मा, गुरू और पैगम्बर बन जाता है. इसका वही मुख़ालिफ़ समाज इसके मौत के बाद इसको गुणांक में रुतबा देने लगता है, इसकी पूजा होने लगती है, अंततः इसके नाम का कोई धर्म, कोई मज़हब या कोई पन्थ बन जाता है. 
धर्म के शरह और नियम बन जाते हैं, फिर इसके नाम की दुकाने खुलने लगती हैं और शुरू हो जाती है ब्यापारिक लूट. अज़ीम इन्सान की अजमत का मुक़द्दस खज़ाना, बिल आखीर उसी घटिया समाज के लुटेरों के हाथ लग जाता है. इस तरह से समाज पर एक और नए धर्म का लदान हो जाता है. 
हमारी कमजोरी है कि हम अज़ीम इंसानों की पूजा करने लगते हैं, जब कि ज़रुरत है कि हम अपनी ज़िन्दगी उसके पद चिन्हों पर चल कर गुजारें. हम अपने बच्चों को दीन पढ़ाते हैं, जब कि ज़रुरत है कि उनको आला और जदीद तरीन अखलाक़ी क़द्रें पढ़ाएँ. 
मज़हबी तालीम की अंधी अकीदत, जिहालत का दायरा हैं. इसमें रहने वाले आपस में ग़ालिब ओ मगलूब और ज़ालिम ओ मज़लूम रहते हैं. 
दाओ धर्म कहता है 
"जन्नत का ईश्वरीय रास्ता ये है कि अमीरों से ज़्यादा लिया जाए और गरीबों को दिया जाए. इंसानों की राह ये है कि गरीबों से लेकर खुद को आमिर बनाया जाए. कौन अपनी दौलत से ज़मीन पर बसने वालों की खिदमत कर सकता है? वही जिसके पास ईश्वर है. वह इल्म वाला है, जो दौलत इकठ्ठा नहीं करता. जितना ज्यादः लोगों को देता है उससे ज्यादः वह पाता है." 
अल्लाह अपने कुरैश पुत्रों को हिदायत देता है कि - - - 
"चूँकि कुरैश खूगर हो गए, 
जाड़े के और गर्मी के, यानी जाड़े और गर्मी के आदी हो गए, 
तो इनको चाहिए कि काबः के मालिक की इबादत करें, 
जिसने इन्हें भूक में खाना दिया और खौफ़ से इन्हें अम्न दिया." 
सूरह क़ुरैश १०६ - पारा ३० आयत (१-४) 
कुरआन में आयातों का पैमाना क्या है? इसकी कोई बुन्याद नहीं है. आयत एक बात पूरी होने तक तो स्वाभाविक है मगर अधूरी बात किस आधार पर कोई बात हुई ? देखिए, "चूँकि कुरैश खूगर हो गए," 
ये अधूरी बात एक आयत हो गई और कभी कभी पूरा पूरा पैरा ग्राफ एक आयत होती है. इस मसलक की कोई बुनियाद ही नहीं, इससे ज्यादः अधूरा पन शायद ही और कहीं हो. 
नमाज़ियो ! 
तुम कुरैश नहीं हो और न ही (शायद) अरबी होगे, फिर कुरैसियों के लिए, यह कुरैश सरदार की कही हुई बात को तुम अपनी नमाज़ों में क्यूँ पढ़ते हो? क्या तुम में कुछ भी अपनी जुगराफियाई खून की गैरत बाकी नहीं बची? यह कुरैश जो उस वक़्त भी झगडालू वहशी थे और आज भी अच्छे लोग नहीं हैं. 
वह तुमको हिदी मिसकीन कहते हैं, 
तेल की दौलत के नशे में बह आज से सौ साल पहले की अपनी औकात भूल गए, जब हिंदी हाजियों के मैले कपडे धोया करते थे और हमारे पाखाने साफ़ किया करते थे. आज वह तुमको हिक़ारत की निगाह से देखते हैं और तुम उनके नाम के सजदे करते हो. क्या तुम्हारा ज़मीर इकदम मर गया है? 

अगर तुम कुरैश या अरबी हो भी तो सदियों से हिंदी धरती पर हो, इसी का खा पी रहे हो, तो इसके हो जाओ. कुरैश होने का दावा ऐसा भी न हो कि क़स्साब से कुरैशी हो गए हो याकि जुलाहे से अंसारी, कई भारतीय वर्गों ने खुद को अरबी मुखियों को अपना नाजायज़ मूरिसे-आला बना रक्खा है,
 ये बात नाजायज़ वल्दियत की तरह है. बेहतर तो यह है कि नामों आगे क़बीला, वर्ग और जाति सूचक इशारा ही ख़त्म कर दो. 



जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Friday 16 January 2015

सूरह माऊन१०७ - पारा ३०

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.
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सूरह माऊन१०७  - पारा ३० 
(अरायतललज़ी योकज्ज़ेबो बिद्दीन)
कट्टर हिन्दू संगठन अक्सर कुरआन के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाते रहते हैं मगर उनका मुतालबा सीमित रहता है कि क़ुरआन से केवल बह आयतें हटा दी जाएँ जो काफ़िरों के ख़िलाफ़ जिहाद का आह्वान करती हैं, 
बाक़ी कुरआन पर उनको कोई आपत्ति नहीं. इस मांग में उनका हित इस्लामी जिहादियों की तरह ही निहित है कि इससे मुस्लिम वर्ग का हमेशा अहित ही होगा. 
मुस्लिम अपनी आस्था के तहत ऊपर की दुन्या में मिलने वाली जन्नत के लिए इस दुन्या की ज़िन्दगी को संतोष के साथ गुज़ार देंगे. उनको मजदूर, मिस्त्री, राज, नाई, भिश्ती और मुलाजिम सस्ते दामों में मिलते रहेंगे. 
मुस्लिम कट्टरता बेवक़ूफ़ होती है जो इन्सान को एक बार में ही कत्ल करके खुद इंसानों की मोहताज हो जाती है, इसके बर अक्स हिन्दू कट्टरता बुद्धिमान होती है जो इन्सान को उसकी जिंदगी को मुसलसल क़त्ल किए रहती है, न मरने देती है न मुटाने देती है. यह मानव समाज को धीरे धीरे अछूत बना कर, उनका एक वर्ग बना देती और खुद स्वर्ण हो जाती है. पाँच हज़ार साल से भारत के मूल बाशिदे और आदि वासी इसकी मिसाल हैं.
इन दोनों कट्टरताओं को मज़हब और धर्म पाले रहते है, जिनको मानना ही मानव समाज की हत्या या फिर उसकी खुद कुशी है. 
इसके आलावा क़ुरआन के मुख़ालिफ़ कम्युनिस्ट और पश्चिमी देश भी है जो पूरे कुरआन को ही जला देने के हक में है, इन देशों में धर्म ओ मज़हब की अफीम नहीं
बाक़ी बची है, इस लिए वह पूरी मानवता हे हितैषी हैं. 
भारतीय मुसलामानों मुसलमानों के दाहिने खाईं है, तो बाएँ पहाड़. उसका मदद गार कोई नहीं है, बैसे भी मदद मोहताजों को चाहिए. व मोहताज नहीं अभी भी ताक़त हासिल कर सकते है बेदारी की ज़रुरत है, हिम्मत करके मुस्लिम से हट कर मोमिन हो जाएँ. 
ज़कात और नमाज़ का भूखा और प्यासा मुहम्मदी अल्लाह कहता है - - - 
"क्या आपने ऐसे शख्स को नहीं देखा जो रोज़े-जजा को झुट्लाता है, 
सो वह शख्स है जो यतीम को धक्के देता है, 
वह मोहताज को खाना खिलने की तरगीब नहीं देता, 
सो ऐसे नमाजियों के लिए बड़ी खराबी है, 
जो अपनी नमाज़ को भुला बैठे हैं, 
जो ऐसे है कि रिया करी करते हैं, 
और ज़कात बिलकुल नहीं देते."
देखो और समझो कि तुम्हारी नमाज़ों में झूट, मकर, सियासत, नफरत, जेहालत, कुदूरत, गलाज़त यहाँ तक कि मुग़ललज़ात भी तुम्हारी इबादत में शामिल हो जाती हैं. तुम अपनी ज़बान में इनको पढने का तसव्वुर भी  नहीं कर सकते. ये ज़बान ए गैर में है, वह भी अरबी में, जिसको तुम मुक़द्दस समझते हो, चाहे उसमे फह्हाशी ही क्यूँ न हो..
इबादत के लिए रुक़ूअ या सुजूद, अल्फाज़, तौर तरीके और तरकीब की कोई जगह नहीं होती, गर्क ए कायनात होकर कर उट्ठो तो देखो तुम्हारा अल्लाह तुम्हारे सामने सदाक़त बन कर खड़ा होगा. तुमको इशारा करेगा कि तुमको इस धरती पर इस लिए भेजा है कि तुम इसे सजाओ और सँवारो, आने वाले बन्दों के लिए, यहाँ तक कि धरती के हर बाशिदों के लिए. इनसे नफरत करना गुनाह है, इन बन्दों और बाशिदों की खैर ही तुम्हारी इबादत होगी. इनकी बक़ा ही तुम्हारी नस्लों के हक में होगा.

मुहम्मद की सोहबत में मुसलमान होकर रहने से बेहतर था की इंसान आलम-ए-कुफ्र में रहता. मुहम्मद हर मुसलमान के पीछे पड़े रहते थे, न खुद कभी इत्मीनान से बैठे और न अपनी उम्मत को चैन से बैठने दिया.इनके चमचे हर वावत इनके इशारे पर तलवार खींचे खड़े रहते थे
" या रसूल्लिल्लाह ! हुक्म हो तो गर्दन उड़ा दूं" 
आज भी मुसलमानों को अपनी आकबत पर खुद एतमादी नहीं है. वह हमेशा खुद को अल्लाह का मुजरिम और गुनाहगार ही माने रहता है. उसे अपने नेक आमाल पर कम और अल्लाह के करम पर ज्यादह भरोसा रहता है. मुहम्मद की दहकाई हुई क़यामत की आग ने मुसलामानों की शख्सियत कुशी कर राखी है. कुदरत की बख्शी हुई तरंग को मुसलमानों से इस्लाम ने छीन लिया है.
नमाज़ियो ! सजदे से सर उठाकर अपनी नमाज़ की नियत को तोड़ दो और ज़िदगी की रानाइयों पर भी एक नज़र डालो. ज़िन्दगी जीने की चीज़ है, इसे मुहम्मदी जंजीरों से आज़ाद करो.



जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Monday 12 January 2015

Soorah Kausar 108/30

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.
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सूरह कौसर १०८  - पारा ३० 
(इन्ना आतयना कल कौसर)
ऊपर उन (७८ -११४) सूरतों के नाम उनके शुरूआती अल्फाज़ के साथ दिया जा रहा हैं जिन्हें नमाज़ों में सूरह फातेहा या अल्हम्द - - के साथ जोड़ कर तुम पढ़ते हो.. ये छोटी छोटी सूरह तीसवें पारे की हैं. देखो   और समझो कि इनमें झूट, मकर, सियासत, नफरत, जेहालत, कुदूरत, गलाज़त यहाँ तक कि मुग़ललज़ात भी तुम्हारी इबादत में शामिल हो जाती हैं. तुम अपनी ज़बान में इनको पढने का तसव्वुर भी  नहीं कर सकते. ये ज़बान ए गैर में है, वह भी अरबी में, जिसको तुम मुक़द्दस समझते हो, चाहे उसमे फह्हाशी ही क्यूँ न हो..
इबादत के लिए रुक़ूअ या सुजूद, अल्फाज़, तौर तरीके और तरकीब की कोई जगह नहीं होती, गर्क ए कायनात होकर कर उट्ठो तो देखो तुम्हारा अल्लाह तुम्हारे सामने सदाक़त बन कर खड़ा होगा. तुमको इशारा करेगा कि तुमको इस धरती पर इस लिए भेजा है कि तुम इसे सजाओ और सँवारो, आने वाले बन्दों के लिए, यहाँ तक कि धरती के हर बाशिदों के लिए. इनसे नफरत करना गुनाह है, इन बन्दों और बाशिदों की खैर ही तुम्हारी इबादत होगी. इनकी बक़ा ही तुम्हारी नस्लों के हक में होगा.
आज कल जिहाद को लेकर बहसें चल रही हैं. पिछले दिनों ndtv पर इस सिलसिले में एक तमाशा देखने को मिला. इसमें मुस्लिम बाज़ीगर आलिमों और सियासत दानों ने बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया, लग रहा था कि इस्लाम का दिफ़ा कर रहे हों, बजाए इसके कि वह सच्चाई से काम लें जिससे मुस्लिम अवाम का कुछ फ़ायदा हो. जिहाद के नए नए नाम और मअनी तराशे गए, 
इसका हिंदी करण किया गया कि जिहाद परियास और प्रयत्न का नाम है, यज्ञं और परितज्ञं को जिहाद कहा जाता है. 
उन सभों की लफ्ज़ी मानों में यह दलीले सही थीं मगर जिहाद का और उसके अर्थ का इस्लामी करण किया गया है, काश कि ऐसा होता जैसा कि यह जोगी बतला रहे थे. क़ुरआन में जिहाद के फ़रमान हैं, 
"इस्लाम के लिए जंगी जिहाद करो, गैर मुस्लिम और ख़ास कर काफ़िरों से इतनी जिहाद करो कि उनका वजूद न बचे." 
सैकड़ों आयतें इस संदभ में पेश की जा सकती हैं. इस सन्दर्भ में. 
"काफ़िर वह होते हैं जो कुफ्र करते है और एकेश्वर को नहीं मानते तथा मूर्ति पूजा करते है. 
भारत  के हिन्दू 'मिन जुमला काफ़िर' हैं, इसको मुसलामानों के दिल ओ दिमाग से निकाला नहीं जा सकता. 
खैबर की जंग इसकी तारीखी गवाह है, जिसमें खुद मुहम्मद शामिल थे. ये जिहाद इतनी कुरूर थी कि इसके बयान के लिए इन ओलिमा के पास हिम्मत और जिसारत नहीं कि यह टीवी चैनलों के सामने बयान कर सकें. इसी जंग में मिली मज़लूम सफ़िया, मुहम्मद की बीवियों में से एक थी जिसे मजबूर होना पड़ा कि अपने बाप, भाई, शौहर और पूरे खानदान की लाशों के बीच मुहम्मद के साथ सुहाग रात मनाए. 
अलकायदा, तालिबान और अन्य जिहादी तंजीमें सही मअनो में क़ुरआनी मुसलमान हैं जो खैबर को अफगानिस्तान के कुछ हिस्से में मुहम्मदी काल को दोहरा रहे हैं. 

"बेशक हमने आपको कौसर अता फ़रमाई,
सो आप अपने परवर दिगार की नमाज़ें पढ़िए,
और क़ुरबानी कीजिए, बिल यक़ीन आपका दुश्मन ही बे नाम ओ निशान होगा"
सूरह कौसर १०८ - पारा ३० आयत (१-३) 
नमाज़ियो !
नमाज़ से जल्दी फुर्सत पाने के लिए अक्सर आप मंदार्जा बाला छोटी सूरह पढ़ते हो. इसके पसे-मंज़र में क्या है, जानते हो?
सुनो,खुद साख्ता रसूल की बयक वक़्त नौ बीवियाँ थीं. इनके आलावा मुताअददित लौंडियाँ और रखैल भी हुवा करती थीं. जिनके साथ वह अय्याशियाँ किया करते थे. उनमें से ही एक मार्या नाम की लौड़ी थी, जो हामला हो गई थी. मार्या के हामला होने पर समाज में चे-में गोइयाँ होने लगी कि जाने किसका पाप इसके पेट में पल रहा है? बात जब ज्यादः बढ़ गई तो मार्या ने अपने मुजरिम पर दबाव डाला, तब मुहम्मद ने एलान किया कि मार्या के पेट में जो बच्चा पल रहा है, वह मेरा है. ये एलान रुसवाई के साथ मुहम्मद के हक में भी था कि खदीजा के बाद वह अपनी दस बीवियों में से किसी को हामला न कर सके थे गोया अज सरे नव जवान हो गए(अल्लाह के करम से). बहरहाल लानत मलामत के साथ मुआमला ठंडा हुआ. इस सिलसिले में एक तअना ज़न को मुहम्मद ने उसके घर जाकर क़त्ल भी कर दिया. 
नौ महीने पूरे हुए, मार्या ने एक बच्चे को जन्म दिया, मुहम्मद की बांछें खिल गई कि चलो मैं भी साहिबे औलादे नारीना हुवा. उन्होंने लड़के की विलादत की खुशियाँ भी मनाईं. उसका अक़ीक़ा भी किया, दावतें भी हुईं. उन्हों ने बच्चे का नाम रखा अपने मूरिसे आला के नाम पर 'इब्राहीम'
इब्राहीम ढाई साल की उम्र पाकर मर गया, एक लोहार की बीवी को उसे पालने के किए दे दिया था, जिसके घर में भरे धुंए से उसका दम घुट गया था. 
खुली आँखों से जन्नत और दोज़ख देखने वाले और इनका हाल बतलाने और हदीस फ़रमाने वाले अल्लाह के रसूल के साथ उनके मुलाज़िम जिब्रील अलैहिस्सलाम ने उनके साथ कज अदाई की और अपने प्यारे रसूल के साथ अल्लाह ने दगाबाज़ी कि उनका ख्वाब चकनाचूर हो गया. मुहल्ले की औरतों ने फब्ती कसी " बनते हैं अल्लाह के रसूल और बाँटते फिरते है उसका पैगाम, बुढ़ापे में एक वारिस हुवा, वह भी लौड़ी जना, उसको भी इनका अल्लाह बचा न सका. मुहम्मद तअज़ियत की जगह तआने पाने लगे. बला के बेशर्म और ढीठ मुहम्मद ने अपने हरबे से काम लिया, और अपने ऊपर वह्यी उतारी जो मंदार्जा बाला आयतें हैं. अल्लाह उनको तसल्ली देता है कि तुम फ़िक्र न करो मैं तुमको, (नहीं! बल्कि आपको) इस हराम जने इब्राहीम के बदले जन्नत के हौज़ का निगरान बनाया, आकर इसमें मछली पालन करना. 

अच्छा ही हुवा लौंडी ज़ादा गुनहगार बाप का बेगुनाह मासूम बचपन में जाता रहा वर्ना मुहम्मदी पैगम्बरी का सिलसिला आज तक चलता रहता और पैगम्बरे आखिरुज्ज़मां का ऐलान भी मुसलमानों में न होता. 


जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Friday 9 January 2015

Soorah Kafroon 109/30

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.
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सूरह काफिरून १०९ - पारा ३०
(कुल्या अय्योहल कफिरूना)

ये छोटी छोटी सूरह तीसवें पारे की हैं. देखो   और समझो कि इनमें झूट, मकर, सियासत, नफरत, जेहालत, कुदूरत, गलाज़त यहाँ तक कि मुग़ललज़ात भी तुम्हारी इबादत में शामिल हो जाती हैं. तुम अपनी ज़बान में इनको पढने का तसव्वुर भी  नहीं कर सकते. ये ज़बान ए गैर में है, वह भी अरबी में, जिसको तुम मुक़द्दस समझते हो, चाहे उसमे फह्हाशी ही क्यूँ न हो..
इबादत के लिए रुक़ूअ या सुजूद, अल्फाज़, तौर तरीके और तरकीब की कोई जगह नहीं होती, गर्क ए कायनात होकर कर उट्ठो तो देखो तुम्हारा अल्लाह तुम्हारे सामने सदाक़त बन कर खड़ा होगा. तुमको इशारा करेगा कि तुमको इस धरती पर इस लिए भेजा है कि तुम इसे सजाओ और सँवारो, आने वाले बन्दों के लिए, यहाँ तक कि धरती के हर बाशिदों के लिए. इनसे नफरत करना गुनाह है, इन बन्दों और बाशिदों की खैर ही तुम्हारी इबादत होगी. इनकी बक़ा ही तुम्हारी नस्लों के हक में होगा.

एक बार मक्का के मुअज़ज़िज़  कबीलों ने मिलकर मुहम्मद के सामने एक तजवीज़ रखी, कि आइए हम लोग मिल कर अपने अपने माबूदों की पूजा एक hi जगह अपने अपने तरीकों से किया करें, ताकि मुआशरे में जो ये नया फ़ितना खडा हुआ है, उसका सद्दे-बाब हो. इससे हम सब की भाई चारगी क़ायम रहेगी, सब के लिए अम्न ओ अमान रहेगा. 
बुत परस्तों (मुशरिकीन) 
की यह तजवीज़ माक़ूल थी जो आजकी जदीद क़द्रों की तरह ही माकूल है , मगर मुहम्मद को यह बात गवारा न हुई. यह पेश कश मुहम्मद को रास नहीं आई क्यूँकि यह इनके तबअ से मेल नहीं खा रही थी. मुहम्मद को अम्न ओ अमान पसंद न था, इसनें जंग, लूट मार और शबखून कहाँ? वह तो अपने तरीकों को दुन्या पर लादना चाहते थे. अपनी रिसालत पर खतरा मसूस करते हुए उन्होंने अपने हरबे के मुताबिक अल्लाह की वह्यी उतरवाई, 
मंदार्जा ज़ेल सियासी आयतें मुलाहिजा हों- - - 
"आप कह दीजिए कि ऐ काफ़िरो! 
न मैं तुम्हारे माबूदों की परिस्तिश करता हूँ, 
और न तुम मेरे माबूदों की परिस्तिश करते हो, 
और न मैं तुम्हारे माबूदों की परिस्तिश करूँगा, 
और न तुम मेरे माबूद की परिस्तिश करोगे. 
तुमको तुम्हारा बदला मिलेगा और मुझको मेरा बदला मिलेगा." 
सूरह काफिरून १०९ - पारा ३०- आयत (१-६) 
नमाज़ियो !
अल्लाह के पसे पर्दा उसका खुद साख्ता रसूल अपने अल्लाह से अपनी मर्ज़ी उगलवा रहा है.. . . . 
आप कह दीजिए, 
जैसे कि नव टंकियों में होता है. अल्लाह को क्या क़बाहत है कि खुद मंज़रे आम पर आकर 
खुद अपनी बात कहे ? 
या ग़ैबी आवाज़ नाज़िल करे. इस क़दर हिकमत वाला अल्लाह क्या गूंगा  है  कि आवाज़ के लिए उसे किसी बन्दे की ज़रुरत पड़ती है ? 
यह कुरान साज़ी मुहम्मद का एक ड्रामा है जिस पर तुम आँख बंद करके भरोसा करते हो. 
सोचो, लाखों सालों से क़ायम इस दुन्या में, हज़ारों साल से क़ायम इंसानी तहज़ीब में, क्या अल्लाह को सिर्फ़ २२ साल ४ महीने ही बोलने का मौक़ा मिला कि वह शर्री मुहम्मद को चुन कर, तुम्हारी नमाज़ों के लिए कुरआन बका?
अगर आज कोई ऐसा अल्लाह का रसूल आए तो? 
उसके साथ तुम्हारा क्या सुलूक होगा?


जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Monday 5 January 2015

Soorah नस्र 110/30

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.
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सूरह नस्र ११० पारा - ३० 

(इज़ाजाअ नसरुल लाहे वलफतहो)  

ऊपर उन (७८ -११४) सूरतों के नाम उनके शुरूआती अल्फाज़ के साथ दिया जा रहा हैं जिन्हें नमाज़ों में सूरह फातेहा या अल्हम्द - - के साथ जोड़ कर तुम पढ़ते हो.. ये छोटी छोटी सूरह तीसवें पारे की हैं. देखो   और समझो कि इनमें झूट, मकर, सियासत, नफरत, जेहालत, कुदूरत, गलाज़त यहाँ तक कि मुग़ललज़ात भी तुम्हारी इबादत में शामिल हो जाती हैं. तुम अपनी ज़बान में इनको पढने का तसव्वुर भी  नहीं कर सकते. ये ज़बान ए गैर में है, वह भी अरबी में, जिसको तुम मुक़द्दस समझते हो, चाहे उसमे फह्हाशी ही क्यूँ न हो..
इबादत के लिए रुक़ूअ या सुजूद, अल्फाज़, तौर तरीके और तरकीब की कोई जगह नहीं होती, गर्क ए कायनात होकर कर उट्ठो तो देखो तुम्हारा अल्लाह तुम्हारे सामने सदाक़त बन कर खड़ा होगा. तुमको इशारा करेगा कि तुमको इस धरती पर इस लिए भेजा है कि तुम इसे सजाओ और सँवारो, आने वाले बन्दों के लिए, यहाँ तक कि धरती के हर बाशिदों के लिए. इनसे नफरत करना गुनाह है, इन बन्दों और बाशिदों की खैर ही तुम्हारी इबादत होगी. इनकी बक़ा ही तुम्हारी नस्लों के हक में होगा.

नट-खट  और बातूनी बच्चे से देर रात को माँ कहती है, बेटे सो जाओ नहीं तो बागड़ बिल्ला आ जाएगा. माँ की बात झूट होते हुए भी झूट के नफ़ी पहलू से अलग है. यह सिर्फ मुसबत पहलू के लिए है कि बच्चा सो जाए ताकि उसकी नींद पूरी हो सके, मगर यह बच्चे को डराने के लिए है.
क़ुरआन का मुहम्मदी अल्लाह बार बार कहता है, "मैं डराने वाला हूँ " 
ऐसे ही माँ बच्चे को डराती  है.
लोग उस अल्लाह से डरें जब तक कि सिने बलूगत न आ जाए, यह बात किसी फ़र्द या कौम के ज़ेहनी बलूगत पर मुनहसर करती है कि वह बागड़ बिल्ला से कब तक डरे. 
यह डराना एक बुराई, जुर्म और गुनाह बन जाता है कि बच्चा बागड़ बिल्ला से डर कर किसी बीमारी का शिकार हो जाए, डरपोक तो वह हो ही जाएगा माँ की इस नादानी से. डर इसकी तमाम उम्र का मरज़ बन जाता है.
मुसलमान अपने बागड़ बिल्ला से इतना डरता है कि वह कभी बालिग ही नहीं होगा. 
मूर्तियाँ जो बुत परस्त पूजते हैं, वह भी बागड़ बिल्ला ही हैं लेकिन उनको अधिकार है कि सिने- बलूगत आने पर वह उन्हें पत्थर मात्र कह सकें, उन पर कोई फ़तवा नहीं, मगर मुसलमान अपने हवाई बुत को कभी बागड़ बिल्ला नहीं कह सकता.
देखिए कि बागड़ बिल्ला क्या कहता है - - -
"जब अल्लाह की मदद और फतह आ पहुंचे, 
और आप लोगों को अल्लाह के दीन में जौक़ जौक़ दाख़िल होता हुवा देखें, 
तो अपने रब की तस्बीह और तहमीद कीजिए और उससे इस्तेग्फार की दरख्वास्त कीजिए. वह बड़ा तौबा कुबूल करने वाला है." 
सूरह नस्र ११० पारा - ३० आयत (१-३)
मुहम्मद का ख्वाब ए वहदानियत शक्ल पाने वाली है, मक्का की फ़तह हासिल करने वाले हैं, उनका ला शऊर बेदार हो रहा है, वह भी अपने रचे हुए अल्लाह से डरने लगे हैं, उनकी बद आमलियाँ उनको झिंझोड़ रही है, नतीजतन वह अपनी मग्फ़िरत की दुआ कर रहे हैं. खुशियों और मायूसियो से पुर यह सूरह है. 
फ़तह मक्का का दिन दुन्या की तमाम इंसानी आबादी के लिए एक बद तरीन दिन था, खास कर मुसलामानों के लिए नामुराद दिन कहा जाएगा, इस के बाद दीन जैसे मुक़द्दस उन्वान को लेकर जब तलवार उट्ठी तो इंसानों के लिए यह ज़मीन तंग हो गई. सदियाँ गुज़र गईं मगर यह जिहादी सिलसिला अभी तक ख़त्म नहीं हुवा. इतने बड़े इंसानी खून का हिसाब जब एक बन्दे हक़ीर अल्लाह से तलब करता है, तब अल्लाह नज़रें चुराता है. इस नतीजा ए फ़िक्र  के बाद बंदा ए अहक़र, बन्दा ए बरतर हो गया और उसने ऐसे कमतर अल्लाह की नमाज़ें अपने पर हराम कर लीं. 



जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Friday 2 January 2015

सूरह लहेब १११ - पारा - ३०

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.
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सूरह लहेब १११ - पारा - ३० 
(तब्बत यदा अबी लहबिंव वतब्बा) 
ऊपर उन (७८ -११४) सूरतों के नाम उनके शुरूआती अल्फाज़ के साथ दिया जा रहा हैं जिन्हें नमाज़ों में सूरह फातेहा या अल्हम्द - - के साथ जोड़ कर तुम पढ़ते हो.. ये छोटी छोटी सूरह तीसवें पारे की हैं. देखो   और समझो कि इनमें झूट, मकर, सियासत, नफरत, जेहालत, कुदूरत, गलाज़त यहाँ तक कि मुग़ललज़ात भी तुम्हारी इबादत में शामिल हो जाती हैं. तुम अपनी ज़बान में इनको पढने का तसव्वुर भी  नहीं कर सकते. ये ज़बान ए गैर में है, वह भी अरबी में, जिसको तुम मुक़द्दस समझते हो, चाहे उसमे फह्हाशी ही क्यूँ न हो..
इबादत के लिए रुक़ूअ या सुजूद, अल्फाज़, तौर तरीके और तरकीब की कोई जगह नहीं होती, गर्क ए कायनात होकर कर उट्ठो तो देखो तुम्हारा अल्लाह तुम्हारे सामने सदाक़त बन कर खड़ा होगा. तुमको इशारा करेगा कि तुमको इस धरती पर इस लिए भेजा है कि तुम इसे सजाओ और सँवारो, आने वाले बन्दों के लिए, यहाँ तक कि धरती के हर बाशिदों के लिए. इनसे नफरत करना गुनाह है, इन बन्दों और बाशिदों की खैर ही तुम्हारी इबादत होगी. इनकी बक़ा ही तुम्हारी नस्लों के हक में होगा.
अबू लहब मुहम्मद के सगे चाचा थे, ऐसे चाचा कि जिन्हों ने चालीस बरस तक अपने यतीम भतीजे मुहम्मद को अपनी अमाँ और शिफक़त में रक्खा. अपने मरहूम भाई अब्दुल्ला की बेवा आमना के बातिन से जन्मे मुहम्मद की खबर सुन कर अबू लहब ख़ुशी से झूम उट्ठे और अपनी लौड़ी को आज़ाद कर दिया,जिसने बेटे की खबर दी थी और उसकी तनख्वाह मुक़र्रर कर के मुहम्मद को दूध पिलाई की नौकरी दे दिया. बचपन से लेकर जवानी तक मुहम्मद के सर परस्त रहे. दादा के मरने के बाद इनकी देख भाल किया, यहाँ तक कि मुहम्मद की दो बेटियों को अपने बेटों से मंसूब करके उनको सुबुक दोष किया. अपने मोहसिन चचा का तमाम अह्सानत पल भर में फरामोश कर दिया. वजेह ?
हुवा यूँ था की एक रोज़ मुहम्मद ने तमाम ख़ानदान कुरैश को कोह ए मिन्फा पर इकठ्ठा होने की दावत दी. लोग अए तो सब से पहले तम्हीद बांधा और फिर एलान किया कि अल्लाह ने मुझे अपना पैगम्बर मुक़र्रर किया. लोगों को इस बात पर काफी गम ओ गुस्सा और मायूसी हुई कि ऐसे जाहिल को अल्लाह ने अपना पैगम्बर कैसे चुना ? सबसे पहले अबू लहेब ने ज़बान खोली और कहा"तू माटी मिले, क्या इसी लिए तूने हम लोगों को यहाँ बुलाया है?
इसी बात पर मुहम्मद ने यह सूरह गढ़ी जो कुरआन में इस बात की गवाह बन कर १११ के मर्तबे पर है. सूरह लहेब कुरआन की वाहिद सूरह है जिस  में किसी फ़र्द का नाम दर्ज है. किसी ख़लीफ़ा या क़बीले के किसी फ़र्द का नाम कुरआन में नहीं है.
"ज़िक्र मेरा मुझ से बढ़ कर है कि उस महफ़िल में है"
देखिए कि अल्लाह किसी बेबस औरत की तरह कैसे अबू लहेब को कोस रहा है - - -

"अबू लहब तेरे हाथ टूट जाएँ, न मॉल उसके काम आया,
न उसकी कमाई .
 वह  अनक़रीब एक शोला ज़न आग में दाखिल होगा,
वह भी और उसकी बीवी भी, जो लकड़ियाँ लाद कर लाती है,
उसके गले में एक रस्सी होगी खूब बाटी हुई."
सूरह लहेब १११ - पारा - ३० आयत (१-५)
 नमाज़ियो ! 
गौर करो कि अपनी नमाज़ों में तुम क्या पढ़ते हो? क्या यह इबारतें क़ाबिल ए इबादत हैं?
अल्लाह अबू लहेब और उसकी जोरू को बद दुआएँ दे रहा है और साथ में उसकी बीवी को उनके हालत पर तआने भी दे रहा है कि वह उस ज़माने में लकड़ी ढोकर गुज़ारा करती थी. यह मुहम्मदी अल्लाह जो हिकमत वाला है, अपनी हिकमत से इन दोनों प्राणी को पत्थर की मूर्ति ही बना देता. कुन फिया कून" कहने की ज़रुरत थी. सच पूछिए तो मुहम्मदी अल्लाह भी मुहम्मद की हुलया का ही है.
   


जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान