Monday 28 February 2011

सूरह जासिया -४५-परा - २५ (1)

मेरी तहरीर में - - -

क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।

नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.

सूरह जासिया -४५-परा - २५ (1)



मुहम्मदी अल्लाह तअज्जुब में है कि इसके कारनामें ज़मीन से लेकर आसमान तक बिखरे हुए हैं, आख़िर लोग इसके क़ायल क्यूँ नहीं होते? मुसलमान कुरआन को सैकड़ों साल से यक़ीन और अक़ीदे के साथ पढ़ रहे हैं, नतीजा ए कार ये है कि इनके समझ में ये आ गया कि मुहम्मद के ज़माने में कुफ्फार खुदा के क़ुदरत के क़ायल न रहे होंगे. या मुशरिकों का दावा रहा होगा कि बानिए कायनात उनके देवी देवता रहे होंगे. ये महेज़ इनका वह्म है. मगर कुरान ऐसी छाप इनके ज़ेहनो पर छोड़ता है. कि ज़माना ए मुहम्मद में इंसान दुश्मने अक्ल रहा होगा. ये कुरानी प्रोपेगंडा से फैलाया हुवा वहिमा है.
वह लोग आज ही की तरह मुख्तलिफ फ़िक्र और मुख्तलिफ नज़रयात के मालिक हुवा करते थे. वह अल्लाह को मानने वाले और उसकी क़ुदरत को मानने और जानने वाले लोग थे. मुहम्मद ने जिस अल्लाह की तशकील की थी, वह उनकी फ़ितरत और उनकी सियासत के एतबार से था, यानी, ज़ालिम, जाबिर, जाहिल, मकर फरेब का पैकर, मुन्तकिम झूठा और खुदसर अल्लाह, जिसकी तर्जुमानी मुहम्मद ने कुरआन में की है. अपनी इस गंदी हांडी के अन्दर, वह उस अज़ीम ताक़त को बन्द करके पकाना चाहते हैं जिसे क़ुदरत कहते हैं और परोसना चाहते हैं उन लोगों को जिनको क़ुदरत ने थोड़ी बहुत समझ दी है या अपना ज़मीर दिया है. जब वह इस गलाज़त को खाने से इंकार करते हैं तो वह उन पर इलज़ाम लगाते हैं " तअज्जुब है कि अल्लाह की क़ुदरत को तस्लीम ही नहीं करते."इधर हम जैसे लोग तअज्जुब में हैं कि एक अनपढ़, मक्र पैगमरी का फ़ासिक़, अपने धुन में किस क़दर आमादा ए रुसवाई था कि हज़ारों मज़ाक बनने के बाद भी, फिटकारने और दुत्कारने के बाद भी, बे इज्ज़त और पथराव होने के बाद भी, मैदान से पीछे हटने को तैयार न था. फ़तह मक्का के बाद फिर तो ये फक्कड़ों और लाखैरों का रसूल जब फातेह बन कर मक्का में दाख़िल हुवा होगा तो शहर के साहिबे इल्म ओ फ़िक्र पर क्या गुजरी होगी. आँखें बन्द करके सब्र कर गए होंगे, अपनी आने वाली नस्ल के मुस्तक़बिल को सोच कर वह जीते जी मर गए होंगे.
दसियों लाख इंसानों का क़त्ल तो इस्लाम ने सिर्फ़ पचास साल में ही का डाला.

एक ही राग को मुहम्मद सूरह शुरू होने से पहले हर बार गाते हैं - - -


"ये नाज़िल की हुई किताब है, अल्लाह ग़ालिब हिकमत वाले की तरफ़ से."सूरह जासिया -४५-परा - २५ आयत (२)झूट को सौ बार बोलो मुहम्मद साहब! हज़ार बार बोलो, लाख बार बोलो, झूट; झूट ही रहेगा. चाहे जितना ज़ोर लगा कर बोलो, बहर हाल झूट झूट ही रहेगा. तुम्हारे चेले ओलिमा चौदह सौ सालों से झूट को दोहरा रहे हैं फिर भी झूट को सच्चाई में तब्दील नहीं कर पाए.
अल्लाह कहीं कोई बेहूदा आयत गढ़ता है? यही नहीं अल्लाह क्या बोलता भी है, सवाल ये उठता है कि मुहम्मदी अल्लाह क्या हो भी सकता है? जो दाँव पेंच की बातें करता है, फिर भी तुम्हारे जाल में फँसे इंसान आज फडफडा रहे हैं, तुम्हारे बारे में ज़बान खोलने पर मौत तक दे दी जाती हैं, बहुत मुनज्ज़म गिरोह बन गया है झूट का जो इंसानों को झूट को ओढने और बिछाने पर मजबूर किए हुए है.


"आसमान में और ज़मीन पर ईमान वालों के लिए बहुत से दलायल हैं और तुम्हारे और उन हैवानात के पैदा करने में जिनको ज़मीन पर फैला रखा है, दलायल हैं उन लोगों के लिए जो यक़ीन रखते हैं एक के बाद दीगरे रात और दिन के आने जाने में और उस रिज़्क के बारे में जिसको अल्लाह ने आसमान से उतरा "सूरह जासिया -४५-परा - २५ आयत (३-५)निज़ाम ए क़ुदरत पर सतही और बे वक़ूफ़ाना तजज़िया को रूहानियत की पुडिया में भर कर मुहम्मद सीधे सादे लोगों को बेच रहे हैं.

"और ये अल्लाह की आयतें हैं जो सहीह सहीह तौर पर हम आपको पढ़ कर सुनाते हैं, तो फिर अल्लाह और इसकी आयातों के बाद और कौन सी बात पर ये लोग ईमान लावेंगे. बड़ी खराबी होगी हर ऐसे शख्स के लिए जो झूठा और नाफरमान है."
सूरह जासिया -४५-परा - २५ आयत (६-७)
मुहम्मद की तर्ज़ ए गुफ्तुगू ही झूट होने की गवाह है कि वह अपनी गढ़ी आयातों को "सहीह सहीह तौर पर" जताने की कोशिश करते हैं.
"जो अल्लाह की आयातों को सुनता है, जब इसके रूबरू पढ़ी जाती हैं, फिर भी वह तकब्बुर करता हुवा, इस तरह अड़ा रहता है, जैसे उसने उनको सुना ही न हो. सो ऐसे शख्स को एक दर्द नाक अज़ाब की खबर सुना दीजिए. और जब वह हमारी आयातों में से किसी आयत की ख़बर पाता है तो इसकी हँसी उड़ाता है, ऐसे लोगों के लिए सख्त ज़िल्लत का अज़ाब है."सूरह जासिया -४५-परा - २५ आयत (८-९)क़ुरआन की हकीक़त यही थी, यही है आज भी है और यही हमेशा रहेगी. आप किसी मुसलमान को क़ुरआनी आयतें अनजाने में ही सुनाइए कि फलाँ धर्म ये बात कहता है तो वह इसकी खिल्ली उडाएगा मगर जब उसको बतलइए कि ये बात कुरआन की है तो वह अपमा मुँह पीट पीट कर तौबा तौबा करेगा..
मेरे मज़ामीन को बहुत से लोग कहते थे कि जाने कहाँ से आएँ बाएँ शाएँ का कुरआन पेश करता है ये मोमिन. जब मैं नोट लगाया - - -
"मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी ''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है, हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं, और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
तो सब की बोलती बंद हो गई.

कलामे दीगराँ - - -"कोई अच्छा पेड़ नहीं जो निकम्मा फल लाए, और न कोई ही निकम्मा पेड़ है जो अच्छा फल लाए. हर एक पेड़ अपने फल से पहचाना जाता है""इंजील"
इसे कहते हैं कलाम पाक


जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

सूरह दुखान ४४- परा २५ (2)

मेरी तहरीर में - - -

क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।

नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.


सूरह दुखान ४४- परा २५ (2)


मैं अपने नज़रयाती मुआमले में कुछ कठोर हूँ इसके बावजूद मेरी आँखों में आँसू उस वक्त ज़रूर छलक जाते हैं जब मैं स्टेज पर इंसानियत को सुर्खुरू होते हुए देखता हूँ, मसलन हिन्दू -मुस्लिम दोस्ती की नजीर हो, या फिर फ़र्ज़ के सवाल पर इंसानियत के लिए मौत को मुँह जाना. मेरे लम्हात में ऐसे पल भी आते हैं कि विदा होती हुई बेटी को जब माँ लिपटा कर रोती है तो मेरे आँसू नहीं रुकते, गोकि मैंने अपनी बेटियों को क़ह्क़हों के साथ रुखसत किया. इंसान की मामूली भूल चूक को भी मैं नज़र अंदाज़ करदेता हूँ. क्यूंकि उम्र के आगोश में बहुत सी लग्ज़िशें हो जाती हैं. मैं कि एक अदना सा इंसान, समझ नहीं पाता कि लोग छोटी छोटी और बड़ी बड़ी मान्यताएँ क्यूँ गढ़े हुए हैं और इन साँचों में क्यूँ ढले हुए है जब कि क़ुदरत उनका मार्ग दर्शन हर मोड़ पर कर रही है.
बड़ी मान्यताओं में अल्लाह, ईश्वर और गाड आदि की मान्यता हैं. अगर वह इनमें से कोई होता तो यकीनी तौर पर इंसान को छोड़ कर हर जीव किसी न किसी तरह से उसकी उपासना करता. हर जीव पेट भरने के बाद उमंग, तरंग और मिलन की राह पर चल पड़ता है, न कि कुदरत की उपासना की तरफ. कुदरत का ये इशारा भी इंसान को जीने की राह दिखलाता है जिसे उल्टा ये अशरफुल मख्लूकात तआने के तौर पर उलटी बात ही करता है - - -

इंसान हो या हैवान?
छोटी मान्यताएं हैं यह ज़मीन के जिल्दी रोग स्वयंभू औतार, पयम्बर, गुरु, महात्मा और दीनी रहनुमा.
अगर इन छोटी बड़ी मान्यताएं और कदरों से इंसान मुक्त हो जाय तो वह मानव से महा मानव बन सकता है, जिस दिन इंसान महा मानव बन जायगा ये धरती जन्नत नुमा बन जायगी.

दूसरे ख़लीफ़ा उमर के बेटे अब्दुल्ला से रवायत है कि मुहम्मद ने एक शख्स का हाथ अपने हाथों से काटा, जिसका जुर्म था तीन पैसे की मालियत की चोरी.(मुस्लिम - - - किताबुल हुदूद)
ऐसे ही मुहम्मद ने अपने ही क़बीले की एक मुआज्ज़िज़ खातून का हाथ क़लम कर दिया था, बहुत मामूली चोरी पर. ये तो थी इसकी पैगम्बरी की सख्त मिसाल,
हैरत का मुक़ाम ये है कि यही शख्स कहता है कि "जेहाद में मारे जाने वाली बेकुसूर औरतों और बच्चो को मारना जायज़ है क्यूँकि काफ़िर मिन जुमला काफ़िर होते हैं.''
यह तो हदीसों की बातें थीं कि जिन पर मुसलामानों का एक गुमराह तबक़ा अहले हदीस बना हुवा
है, अब चलिए देखें क़ुरआन की नसीहतें क्या कहती हैं - - -


"बल्कि वह शक में हैं और खेल में मसरूफ़ हैं, सो आप उस रोज़ का इंतज़ार करें कि आसमान की तरफ़ एक नज़र आने वाला धुवाँ पैदा हो, जो इन सब लोगों पर आम हो जाए. ये एक दर्द नाक सज़ा है. ऐ हमारे रब ! हम से इस मुसीबत को दूर कर दीजिए, हम ज़रूर ईमान ले आएँगे. इनको कब नसीहत होती है हालांकि इनके पास ज़ाहिर शान का पैग़म्बर आया फिर भी ये लोग इससे सरताबी करते रहे और यही कहते रहे कि सिखाया हुआ है और दीवाना है. हम चंदे इस अज़ाब को हटा देंगे तुम फिर इसी हालत में आ जाओगे.
जिस रोज़ हम बड़ी सख्त पकड़ पकड़ेंगे, हम बदला लेंगे."
सूरह दुखान ४४- परा २५ आयत (९-१६)अल्लाह के रसूल की पुर फरेब बातों को ख़ातिर में लाइए मगर उनकी पैगम्बरी को मद्दे नज़र रखते हुए. क्या इस मक्कारी को पैगम्बरी पाने का हक़ हासिल होना चाहिए?

"ये लोग कहते हैं कि आख़िर हालत बस यही, हमारा दुनिया में मरना है और दोबारा दुनिया में न ज़िन्दा होंगे. सो ऐ मुसलमानों! अगर तुम सच्चे हो तो हमारे बाप दादाओं को ला मौजूद करो. ये लोग ज़्यादः ही बढे हुए है. यातिब्बा की कौम और जो कौमें इससे पहले गुज़रीं, हमने उन सब को हलाक़ कर डाला, वह नाफ़रमान थे."सूरह दुखान ४४- परा २५ आयत (३५-३७)मुहम्मद के लचर मिशन के सामने जब मुखालिफ उनसे ठोस सवाल करते है तो वह खोखले जवाब के साथ फ़रार अख्तियार करते हैं. अक्सर वह सवालों का जवाब यूँ देते हैं "ये लोग ज़्यादः ही बढे हुए है. "
मुहम्मदी अल्लाह को हलाकुल्लाह कहा जा सकता है.

यातिब्बा का नाम कहीं से सुन लिया होगा अल्लाह के अनपढ़ रसूल ने.


"बेशक ज़क़ूम का दरख़्त बड़े मुजरिमों को खाना होगा, जो तेल की तलछट जैसा होगा. वह पीप में ऐसा घुलेगा जैसे तेज़ गरम पानी खौलता है. हुक्म होगा, इसको दोज़ख के बीचो बीच घसीटते हुए ले जाओ, फिर इसके सर पे तकलीफ देने वाला गरम पानी छोड़ो. ले चख तू बड़ा मगरूर, मुकर्रम था. ये वही चीज़ है जिस पर तुम ज़क किया करते थे."सूरह दुखान ४४- परा २५ आयत (४२-५०)इन आयतों में हर नुक्ते पर अपने आप में छेड़ए कर देखिए कि मुहम्मद कितने बेतुके थे.

"बेशक अल्लाह से डरने वाले अमन की जगह पर होंगे. यानी बागों में और नहरों में. वह लिबास पहनेंगे बारीक और दबीज़ रेशम का, आमने सामने बैठे होंगे. ये बात इसी तरह है और इनका गोरी गोरी बड़ी बड़ी आँखों वालियों से ब्याह करेंगे. वहाँ इत्मीनान से हर क़िस्म का मेवा मंगाते होंगे. वहाँ बजुज़ इस मौत के जो दुन्या में हो चुकी थी, और मौत का ज़ाइका भी नहीं चखेंगे. और अल्लाह इन्हें दोज़ख से बचा लेगा."सूरह दुखान ४४- परा २५ आयत (५१-५६)हैरानी होती है कि मुसलमान इन क़ुरआनी बातों पर पूरा पूरा यक़ीन करते हैं और इस ज़िन्दगी को पाने के लिए हर उम्र में हराम मौत मरने को तैयार रहते हैं. बेवक्त हराम मौत मरना, अपने माँ बाप और अज़ीज़ों को दाग़े मुफ़ारिक़त दे जाना, कुदरत की बख्शी हुई अपनी इस ज़िन्दगी से हाथ धो लेना, इन हक़ीक़तों पर कभी गौर ही नहीं करते. ज़िन्दगी के कारनामों को अंजाम देने में मौत को जाए तो शहादत है, मुहम्मद की सुझाई हुई जन्नत पर लानत है कि इस के लिए मर जाए तो हिमाक़त है. बेमकसद मुसलसल जीते रहना ही मौत से बदतर है.

कलामे दीगराँ - - -"जैसे कि भले लोग अपनी जन की कोई परवाह न करके खिदमते-खलक में लगे रहते हैं, वैसे ही बुरे लोग दूसरों को दुःख पहुंचाने में आमादः रहते हैं""विष्णू धमोत्र"इसे कहते हैं कलामे पाक
जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Saturday 26 February 2011

सूरह दुखान ४४- परा २५ (1)

मेरी तहरीर में - - -

क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।

नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.


सूरह दुखान ४४- परा २५ (1)

आगाही


एक दिन मुहम्मद अपने मरहूम दोस्त इब्ने सय्यास के घर की तरफ़ चले, पास पहुँचे तो देखा कि इब्ने सय्यास का बेटा मैदान में अपने दोस्तों के साथ खेल रहा था. उसे मुहम्मद की आमद की उसे ख़बर न हुई, जब मुहम्मद ने उसे थपकी दी तो उसने आँख उठ कर उनको देखा.
मुहम्मद ने उससे पूछा कि -
" तू इस बात की गवाही देता है कि मैं अल्लाह का रसूल हूँ?"उसने मुहम्मद की तरफ़ दोबारा आँख उठा कर देखा और कहा,
" हाँ मैं इस बात की गवाही देता हूँ कि आप उम्मियों (अनपढ़ों) के रसूल हैं."इसके बाद उसने मुहम्मद से पूछा -
"क्या आप इस बात की गवाही देते हो कि मैं अल्लाह का रसूल हूँ?"मुहम्मद ने उसके सवाल पर लापरवाई बरतते हुए कहा,
"मैं अल्लाह के तमाम बर हक़ रसूलों पर ईमान रखता हूँ "फिर उससे पूछा -
"तुझको क्या मालूम पड़ता है?"उसने कहा -
"मुझे झूटी और सच्ची दोनों तरह की ख़बरें मालूम पड़ती हैं"मुहम्मद ने कहा -
"तुझ पर मुआमला मख्लूत हो गया."
फिर बोले -
"मैंने तुझ से पूछने के लिए एक बात पोशीदा रख्खी है?"वह बोला -
"वह दुख़ है"मुहम्मद बोले -
"दूर हो! तू अपने मर्तबा से हरगिज़ तजाउज़ न कर सकेगा."साथी ख़लीफ़ा उमर बोले -
"या रसूलिल्लाह अगर इजाज़त हो तो मैं इसे क़त्ल कर दूं"मुहम्मद बोले -
"अगर ये वही दज्जाल है तो तुम इसे क़त्ल करने में क़ादिर नहीं हो सकोगे और अगर ये वह दज्जाल नहीं है तो इसे क़त्ल करने से क्या हासिल?"उस बहादर लड़के का नाम था
" ऐसाफ़"उसने किस बहादरी से कहा है -
"वह दुख़ है"
दुख़ के मानी धुवाँ होता है
मुहम्मद के लिए इससे बड़ा सच हो ही नहीं सकता.
ऐसाफ़ ! तुम पर मोमिन का सलाम पहुँचेशायद इसी दुख़ की सच्चाई पर इस सूरह दुखान का नाम रख्खा गया हो.


अब पढ़िए अल्लाह के धुवाँ धार झूट का फ़साना - - -"हा मीम"
सूरह दुखान ४४- परा २५ आयत (१)जादू गरों का मंतर, लोगों की तवज्जो खींचने के लिए. दुष्ट ओलिमा ने इसमें भी अल्लाह का कोई पैगाम पोशीदा पाया है."क़सम है इस किताब वाज़ह की, कि हमने इसको बरकत वाली रात को उतारा है और हम आगाह करने वाले थे, इस रात में हर हिकमत वाला मुआमला हमारी पेशी से हुक्म होकर तय किया जाता है. हम बवजेह रहमत के जो आपके रब की तरफ़ से हुई है, आप को पैगम्बर बनाने वाले थे. बेशक वह बड़ा सुनने वाला और बड़ा जानने वाला है."सूरह दुखान ४४- परा २५ आयत (२-६)कहते हैं क़ुरआन में कोई फ़र्क या बढ़त घटत नहीं हो सकती यहाँ तक कि ज़ेर ज़बर की भी नहीं. वह तमाम इबारत क़ुरआन बनती गई जो मुहम्मद मदहोशी में बाईस सालों तक बोले और जितना होश में बोले अपनी उम्मियत के साथ वह हदीसें बन गईं. मदहोशी के आलम में बकी गई आयते कुरानी में तर्जुमा निगारों को बड़ी गुंजाईश है कि अर्थ हीन जुमलों को मनमानी करके सार्थक बना लें मर हदीसों को जस का तस रखा गया. जिसमें मुहम्मद के किरदार का आइना है.
ऊपर की आयातों में मदहोशी है कि मुहम्मद जो कुछ कहना चाह रहे है, कह नहीं पा रहे. अल्लाह के रसूल कभी अल्लाह बन कर बातें करते हैं, तो कभी उसके रसूल बन जाते हैं. जहाँ अटक जाते है, वहां कलाम को छोड़ कर आगे बढ़ जाते हैं. कहते हैं
- "आप को पैगम्बर बनाने वाले थे. बेशक वह बड़ा सुनने वाला और बड़ा जानने वाला है." आप वह हो गया?
मुलाहिजा हो -" इस रात में हर हिकमत वाला मुआमला हमारी पेशी से हुक्म होकर तय किया जाता है"कुरआन कभी माहे रमजान में उतरता है और कभी बरकत वाली रात शब क़दर को, वैसे मुहम्मद बाईस सालों तक क़ुरआनी उल्टियाँ करते रहे.

कलामे दीगराँ - - -"मैं ये चाहता हूँ क़ि तुम भलाई के लिए दाना, और बुरे के लिए नादान बने रहो. खुदाए अम्न शैतान को तुम्हारे पैरों से जल्दी ही कुचलवा देगा.""ईसा"इसे कहते हैं कलामे पाक



जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Friday 25 February 2011

सूरह ज़ुखरुफ़ -४३ - पारा -२५ (2)

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.

सूरह ज़ुखरुफ़ -४३ - पारा -२५ (2)


आइए मुहम्मदी अल्लाह का ताबूत खोला जाए - - -


"और आप के रब की रहमत बदरजहा से बेहतर है जिसको ये लोग समेटते फिरते हैं,
और अगर ये बात न होती कि तमाम आदमी एक ही तरह के हो जाएँगे,
तो जो लोग अल्लाह के साथ कुफ्र करते हैं,
उनके लिए उनके घरों की छतें हम चाँदी की कर देते.
और जीने भी जिस पर वह चढ़ कर जाते हैं,
और उनके घरों के कंवाड़े भी और तख़्त भी जिस पर तकिया लगा कर वह बैठते हैं,
और सोने के भी, और ये सब कुछ भी नहीं,
सिर्फ़ दुनयावी ज़िन्दगी की कुछ रोज़ की कामरानी है,
आखरत आप के रब के यहाँ खुदा तरसों के लिए है."
सूरह ज़ुखरुफ़ -४३ - पारा -२५ - आयत (३२-३५)उम्मी मुहम्मद क्या बात कहना चाहते हैं? नतीजा अख्ज़ करना मोहल है. बात काफ़िरों के हक़ में जाती है जिसे मुतराज्जिम ने ब्रेकट में अपनी बात रख कर अल्लाह की मदद करके रसूल के हक में किया हुवा है. ऐसे आयतों को मुसलमान कहते हैं कि कुरआन का एक जुमला भी इंसान बना नहीं सकता. बेशक इंसान तो कभी नहीं बनाएगा ऐसा कलाम मगर पागल आदमी ऐसा कलाम दिन भर बडबडाया करता है.
सब लोग बराबर होते तो इंसान के लिए इससे बेहतर क्या हो सकता था, मगर अल्लाह के लिए मुश्किल खडी हो जाती कि उसको ऐसे रसूल कहाँ मयस्सर होते.
कुफ्फर ने तो अपने घरों की छतें, जीनें और कंवाड़े तो चांदी के कर लिए हैं और मुसलमान फ़क़त अल्लाह हू, अल्लाह हू में मुब्तिला है.


"और जो शख्स अल्लाह की नसीहत से अँधा हो जाए, हम इस पर एक शैतान मुसल्लत कर देते हैं, सो वह इनके साथ हो जाता है, और वह इनको राहे हक़ से रोकता है."सूरह ज़ुखरुफ़ -४३ - पारा -२५ - आयत (३७)तो अल्लाह सब के बड़ा शैतान हुवा जो इंसान के पीछे शैतान लगा देता है, जो उसे बुरी राहों पर चलाता है.
मुसलामानों! यक़ीन करो कि तुम्हारा अल्लाह ही शैतान है जो तुमको तरक़क़ी नहीं करने देता.
आयत में दो अल्लाह के वजूद पर गौर करें.

"तो बस अगर हम आप को उठा लें तब भी वह बदला लेने वाला है."सूरह ज़ुखरुफ़ -४३ - पारा -२५ - आयत (४१)मुहम्मद की लगजिश देखिए कि यहाँ पर अल्लाह उनसे कहता है कि "अगर हम आप को उठा लें तब भी वह बदला लेने वाला है" अल्लाह हाज़िर, अल्लाह गायब की बात करता है.
अल्लाह मुहम्मद को ज़बान देता है कि आपके मरने के बाद भी वह उनके दुश्मनों से इन्तेकाम लेगा.गोया मुहम्मद मरने के बाद भी अपना भूत इंसानों पर तैनात कर रहे हैं.


"वह लोग शरारत से भरे थे, फिर जब उन्हों ने हमें ग़ुस्सा दिला दिया तो हम ने उन से बदला लिया और जिंदा डुबो दिया"सूरह ज़ुखरुफ़ -४३ - पारा -२५ - आयत (५५)ऐसा अल्लाह है तुम्हारा ऐ मुसलमानों. उसको भड़काया भी गया कि उसको तैश आ जाए. और तैश में आकर इंसानों को पानी में डुबो भी दिया. यानी वह ज़रा सा बेवक़ूफ़ भी है, कम अक्ल पहेलवान जैसा.
दर अस्ल ऐसी फ़ितरत मुहम्मद की ज़रूर थी.
"जो हमारी बातों पर ईमान लाए थे? ? ?(उनका अंजाम ये रहा कि तुम देख रहे हो कि - - -बतलाना भूल गया)
"तुम और तुम्हारी बीवियां खुश खुश जन्नत में दाख़िल हो जाओ,
इनके पास सोने की रेकाबियाँ और गिलास ले जाएँगे, और वहाँ हर चीज़ मिलेगी.
जिसको दिल चाहेगा, जिससे आँखों को लज्ज़त होगी,
और तुम यहाँ हमेशा रहोगे
जन्नत है जिसके तुम मालिक बनाए गए, अपने आमाल के एवाज़,
तुम्हारे लिए इसमें बहुत से मेवे हैं जिन में से खा रहे हो."
सूरह ज़ुखरुफ़ -४३ - पारा -२५ - आयत (६९-७३)किस अंदाज़ की चिरकुट गुफतुगू है अल्लाह हिकमत वाले की?
क्या औरतों के आमाल का हिसाब किताब नहीं होता? क्या वह अपने शौहरों के आमाल के सिलह में, अपने शौहरों के हमराह जन्नत में दाख़िल होंगी? वैसे मुहम्मद तो उनको मुकम्मल इंसान भी नहीं मानते थे, कहते थे कि एक दिन उनको दोज़ख दिखलाई गई जहाँ कसरत से औरतें थीं.(एक हदीस)


"नाफ़रमान लोग अज़ाबे दोज़ख में हमेशा रहेगे. वह उनसे हल्का न किया जाएगा और वह उसी में मायूस पड़े रहेंगे और हमने उन पर ज़ुल्म नहीं किया लेकिन खुद ही ज़ालिम थे. पुकारेंगे ऐ मालिक तुम्हारा परवर दिगार हमारा काम ही तमाम करदे और जवाब देगा कि तुम हमेशा इसी हाल में रहो. हमने सच्चा दीन तुम्हारे पास पहुँचाया लेकिन तुम में से अक्सर आदमी सच्चे दीन से नफ़रत करते थे."सूरह ज़ुखरुफ़ -४३ - पारा -२५ - आयत (७४-७५)ज़ालिम मोहम्मद की एक अदा ये भी है कि इस बात को बार बार दोहराते हैं कि "हमने उन पर ज़ुल्म नहीं किया लेकिन खुद ही ज़ालिम थे" वह इतनी सी बात पर ज़ालिम हो गए कि तुम्हारे झूट को नहीं माना और तुम पैदायशी ज़ालिम जो अपने ही बुजुर्गों, रिश्ते दारों और और अज़ीज़ों को मार के तीन दिनों तक उनकी लाशों को सड़ने दिया फिर एक एक को नाम और उनकी वल्दियत के साथ ताने देते हुए बदर के कुँए में उनकी लाशें फिंकवा दिया था.(हदीसें देखिए)इस आयत में देखिए कि कुफ्फार किस तरह से गिडगिडाते हैं और मुहम्मदी अल्लाह पसीजने के बजाए और सख्त हुवा जा रहा है.
मुहम्मद के झूठे दीन के प्रचारक बारहा इस धरती पर ज़िल्लत की मौत पा चुके है मगर ये अपनी माँ के खसम ओलिमा कुकुरमुत्ते की तरह पैदा होकर फिर से इंसान को बहकाना शुरू कर देते है.
वाकई ये मुहम्मदी दीन काबिले नफ़रत है.


"हाँ क्या उन लोगों का ख़याल है कि हम उनकी चुपके चुपके बातों को और मशविरे को नहीं सुनते हैं और हमारे फ़रिश्ते उनके पास हैं, वह भी लिखते हैं"सूरह ज़ुखरुफ़ -४३ - पारा -२५ - आयत (८०)देखिए कि मुहम्मद के चुगल खोर सहाबी किराम को मुहम्मद फरिश्तों का दर्जा दे रहे हैं.

"सो उनको आप शोगल और तफ़रीह में पड़ा रहने दें यहाँ तक कि उनको अपने इस दिन के साबेक़ा वाक़े हो जिसका इनसे वादा किया गया है."सूरह ज़ुखरुफ़ -४३ - पारा -२५ - आयत (८३)बद नियत रसूल कहता है कि इनको मश्गलों में पड़ा रहने दो ताकि हम उनसे बदला ले सकें.कि इसका वादा पूरा हो, जो इसने इंसानियत के साथ किया था.

"और इसको रसूल के इस कहने की भी खबर है कि ऐ मेरे रब ये ऐसे लोग हैं कि ईमान नहीं लाते तो आप इनसे बे रुख रहिए और यूं कह दीजिए कि तुमको सलाम करते हैं तो तुम को भी मालूम हो जायगा."सूरह ज़ुखरुफ़ -४३ - पारा -२५ - आयत (८९)आयत में बेसिर पैर की बातें ही नहीं बे सिर पैर की भाषा भी है.कलामे दीगराँ - - -"इंसान को न बहुत सादा लौह होना चाहिए न बहुत नरम. क्यूँकि सीधे पेड़ काट दिए जाते हैं और टेढ़े मेढ़े खड़े रहते हैं""गरुण पुराण''(हिदू धर्म)
इसे कहते हैं कलाम पाक

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Wednesday 23 February 2011

सूरह ज़ुखरुफ़ -४३ - पारा -२५ (1)

मेरी तहरीर में - - -

क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।

नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.



सूरह ज़ुखरुफ़ -४३ - पारा -२५ (1)


मौजूदा साइंस की बरकतों से फैज़याब दौर के लोगो! खास कर मुसलमानों!!
एक बार अपने ख़ुदा के वजूद का तसव्वुर अपनी ज़ेहनी सतह पर बड़ी गैर जानिब दारी से क़ायम करो. बस कि सच का मुक़ाम ज़ेहन में हो. सच से किसी शरीफ़ और ज़हीन आदमी को इंकार नहीं हो सकता, इसी सच को सामने रख कर ख़ुदा का वजूद तलाशो, हमारे कुछ सवालों का जवाब खुद को दो.
१-क्या ख़ुदा हिदुओं, मुसलामानों, ईसाइयों और दीगर मज़ाहिब के हिसाब से जुदा जुदा हो सकता है?
२- क्या ख़ुदा भारत, चीन, योरोप, अरब, अमरीका और जापान वगैरा के जुग़राफ़ियाई एतबार से अलग अलग हो सकता है?
३- क्या खुदा नस्लों, तबकों, फिरकों, संतों, गुरुओं, पैगम्बरों और क़बीलों के एतबार से जुदा जुदा हो सकते हैं?
४- समाज के इज्तेमाई (सामूहिक) फैसले के नतीजे से बरआमद खुदा क्या हो सकता है?
५- खौफ़, लालच, जंग ओ जेहाद से बरामद किया हुआ खुदा क्या सच हो सकता है?
६- क्या ज़ालिम, जाबिर, ज़बर दस्त, मुन्तकिम, चालबाज़, गुमराह करने वाली हस्ती खुदा हो सकती है?
७-पहले हमल में ही इंसान की क़िस्मत लिख्खे, फिर पैदा होते ही कांधों पर आमाल नवीस फ़रिश्ते मुक़र्रर करे. इसके बाद यौमे हिसाब मुनअकिद करे, क्या ऐसा कोई खुदा हो सकता है?
८-क्या खुदा ऐसा हो सकता है जो नमाज़, रोज़ा, पूजा पाठ, चढ़वाया और प्रसाद वगैरा का लालची हो सकता है?
९- क्या ऐसा खुदा कोई हो सकता है कि जिसके हुक्म के बगैर पत्ता भी न हिले?
तो क्या तमाम समाजी बुराइयाँ इसी का हुक्म हैं. तब तो दुन्या के तमाम दस्तूर इसके ख़िलाफ़ हैं.
१०- कहते हैं ख़ुदा के लिए हर कम मुमकिन है, क्या ख़ुदा इतना बड़ा पत्थर का गोला बना सकता है, जिसे वह खुद न उठा पाए?
मुसलमानों! इन सब सवालों का सही सही जवाब पाने के बाद तुम चाहो तो बेदार हो सकते हो.
जगे हुए इंसान को किसी पैगम्बर या मुरत्तब किए हुए अल्लाह की ज़रुरत नहीं होती है.
जगे हुए इंसान के का रहनुमा खुद इसके अन्दर विराजमान होता है.
याद रखो तुम्हारे जागने से सिर्फ़ तुम नहीं जागते, बल्कि इर्द गिर्द का माहौल जागेगा, चिराग़ जलने के बाद सिर्फ़ चिराग़ रौशनी में नहीं आता बल्कि तमाम सम्तें रौशन हो जाती हैं.
महक उट्ठो अपने अन्दर की खुशबू से. लाशऊरी तौर पर तुम अपनी इस खुशबू को खारजी रुकावटों के बायस पहचान नहीं पाते. ये खुशबू है इंसानियत की. मज़हब तो खारजी लिबास पर इतर का छिडकाव भर है.
छोडो इन पंज रुकनी लग्व्यात को. और इस पंज वकता खुराफ़ात को,
मैं देता हूँ तुम्हें बहुत ही आसान पाँच अरकान ए हयात.
१-सच को जानो. सच के बाद भी सच, सच को ओढो और बिछाओ,
२-मशक्कत, का एक नावाला भी अपने या अपने बच्चों के मुँह में हलाल है, मुफ़्त या हराम से मिली नेमत मुँह में मत जाने दो.
३- जिसारत, सदाक़त को जिसारत की बहुत सख्त ज़रुरत होती है, वैसे सदाक़त अपने आप में जिसारत है.
४. प्यार, इस धरती से, धरती की हर शै से और खुद से भी.
५- अमल, तुम्हारे किसी अमल से किसी को ज़ेहनी या जिस्मानी या फिर माली नुकसान न हो.
बस.
क़ुरआनी झूट पर नज़र डालो - - -
"हाम"सूरह ज़ुखरुफ़ -४३ - पारा -२५ - आयत (१)मुह्मिल यानी अर्थ हीन शब्द है. वैसे तो पूरा क़ुरआन ही अर्थ में अनर्थ है, नाइंसाफी और जब्र है.



"क़सम है इस किताब वाज़ेह की, कि हमने इसे अरबी ज़बान का क़ुरआन बनाया है ताकि तुम लोग इसे समझ लो और हमारे पास लौहे महफूज़ में बड़ी हिकमत भरी किताब है. क्या तुम से इस नसीहत को, इस बात से उठा लेंगे कि तुम हद से गुज़रने वाले हो."सूरह ज़ुखरुफ़ -४३ - पारा -२५ - आयत (२-५)अल्लाह अपने इस किताब की क़सम खाता है क्यूँकि ये अरबी ज़बान में है. न क़सम खाता तो भी इसे अरबी ज़बान में ही ज़माना देख रहा है. अब तो हर ज़बान में इस रुस्वाए ज़माना किताब वाज़ेह उरियाँ हो रही है.
मुहम्मद के ज़ेहन पर अरबी ज़बान का भूत काबिज़ है कि जिसे ये बार बार दोहरा रहे हैं.
लौह यानी पत्थर कि स्लेट जिस पर इबारत खुदी हुई हो. मूसा को ख़ुदा ने दस इबारत खुदी हुई पत्थर की पट्टिका दी थीं "The Ten comondments " जो अरब दुन्या में मशहूर ए ज़माना था. उसी को मुहम्मद अपने कलाम में बार बार गाते हैं कि ये क़ुरआन पत्थर की लकीर है, इस की फोटो कापी कर के जिब्रील लाते हैं.
वह कहते है कि क्या अल्लाह इससे बाज़ आएगा कि उसकी बात नहीं मानते, कभी नहीं. गोया अपने अल्लाह की बे गैरती बतला रहे हैं.
एक गावँइ कहावत है हालांकि फूहड़ है जिसे ज़द्दे क़लम में न लाते हुए भी लाना पड़ रहा है, अल्लाह की संगत का असर जो है कि वह बार बार अपने फूहड़ कलाम में फूहड़ पन को दोहराता है. कहावत यूं है कि "रात भर गाइन बजाइन, भोर माँ देखिन तो बेटा के छुन्याँ ही नहीं" यही कहावत लागू होती है कुरआन पर कि इसकी तारीफों के पुल बंधे है मगर पुल के नीचे देखा तो नाली बह रही थी. कुरआन में कुछ भी नहीं है सिवाए खुद की तारीफ़ के.



"और उन लोगों ने अल्लाह के बन्दे में अल्लाह का जुज़ ठहराया दिया और उनहोंने फ़रिश्तों को जो कि अल्लाह के बन्दे है, औरत क़रार दे रख्खा है. क्या इनकी पैदाइश के वक़्त मौजूद थे? इनका ये दावा लिख लिया जाता है और क़यामत के दिन इनसे बाज़ पुर्स होगी."सूरह ज़ुखरुफ़ -४३ - पारा -२५ - आयत (१९)इशारा ईसाइयत की तरफ़ है जो फरिश्तों को इंसान से हट कर वह मासूम मख्लूक़ मानते हैं जो कोई जिन्स नहीं रखते. ऊपर मैंने कहा था कि अल्लाह कुरआन फूहड़ पन से भरा हुवा है,.इसी आयत में यह बात आ गई कि फूहड़ मुहम्मद ईसाइयों से पूछते है कि फ़रिश्ते जब जन्म ले रहे थे तो क्या यह लोग खड़े इनका जिन्स देख रहे थे. इनसे पूछा जा सकता है कि जब अल्लाह इन्हें पैगम्बर बना रहा था तो कोई गवाह था. इनकी झूटी गवाहियाँ अज़ान और नमाज़ों में तो हर रोज़ दी जाती है.

"और वह लोग यूँ कहते हैं कि अगर अल्लाह चाहता तो हम लोग उन (बुतों) की इबादत न करते. उनको इसकी कुछ तहक़ीक़ नहीं, सब बे तहक़ीक़ बातें करते है. क्या हमने उनको इससे पहले कोई किताब दे रख्खी है कि वह इससे इस्तेद्लाल करते. और कहते हैं कि अगर कुरआन अल्लाह का कलाम है तो दोनों बस्ती मक्का और तायफ़ के किसी बड़े आदमी पर क्यूँ न नाज़िल किया गया. क्या ये लोग अपने रब की रहमते नबूवत को तक़सीम करना चाहते है?"सूरह ज़ुखरुफ़ -४३ - पारा -२५ - आयत (२०-२१+३१-३२)लोगों का सीधा और वाजिब सवाल और मुहम्मद का टेढ़ा और गैर वाजिब जवाब. मक्का के लोगों का कहना था कि वह पैगम्बरी को तक़सीम ओ ज़रब नहीं करना चाहते थे, वह सिर्फ़ इतना चाहते थे कि कुरआन अगर वाकई अरब में और अरबी ज़बान में आई होती तो किसी संजीदः, सलीक़े मंद, पढ़ा लिखा, नेक तबा, शरीफुन-नफ्स, अम्न पसंद, ईमानदार, साहिबे किरदार, साहिबे इंसाफ, साहिबे फ़िक्र के हिस्से में आती, न कि किसी झूठे और शर्री के हिस्से में.कलामे दीगराँ - - -
"मैं कहता आँखन की देखी, तू कागत की लेखी""कबीर"इसे कहते हैं कलाम पाक  
 
 
 

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Tuesday 22 February 2011

सूरह शूरा - ४२ - पारा २५ (2)

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.


सूरह शूरा - ४२ - पारा २५ (2)


खालिस काफ़िर ले दे के नेपाल या भारत में ही बाक़ी बचे हुए हैं कुफ़्र और शिर्क इंसानी तहज़ीब की दो क़ीमती विरासतें है. इनके पास दुन्या की क़दीम तरीन किताबें हैं जिन से इस्लाम ज़दा मुमालिक महरूम हो गए हैं. इनके पास बेश कीमती चारों वेद मौजूद हैं, जो कि मुख्तलिफ़ चार इंसानी मसाइल का हल हुवा करते थे, इन्हीं वेदों की रौशनी में १८ पुराण हैं. माना कि ये मुबालगों से लबरेज़ है, मगर तमाज़त और ज़हानत के साथ, जिहालत से बहुत दूर हैं. इसके बाद इनकी शाख़ें १०८ उप निषद मौजूद हैं, रामायण और महा भारत जैसी क़ीमती गाथाएँ, गीता जैसी सबक आमोज़ किताबें, अपनी असली हालत में मौजूद हैं. ये सारी किताबें तखलीक़ हैं, तसव्वर की बुलंद परवाज़ें हैं, जिनको देख कर दिमाग हैरान हो जाता है. और अपनी धरोहर पर रश्क होता है. जब बड़ी बड़ी कौमों के पास कोई रस्मुल ख़त भी नहीं था, तब हमारे पुरखे ऐसे ग्रन्थ रचा करते थे. अरबों का कल्चर भी इसी तरह मालामाल था और कई बातों में वह आगे था, जिसे इस्लाम की आमद ने धो दिया. बढ़ते हुए कारवाँ की गाड़ियाँ बैक गेर में चली गई.
माज़ी में इंसानी दिमाग को रूहानी मर्कज़ियत देने के लिए मफ्रूज़ा माबूदों, देवी देवताओं और राक्षसों के किरदार उस वक़्त के इंसानों के लिए अलहाम ही थे. तहजीबें बेदार होती गईं और ज़ेहनों में बलूगत आती गई, काफ़िर अपने ग्रंथो को एहतराम के साथ ताक़ पर रखते गए. ख़ुशी भरी हैरत होती है कि आज भी उनके वच्चे अपने पुरखों की रचनाओं को पौराणिक कथा के रूप में पहचानते हैं.
कुरआन इन ग्रंथों के मुकाबले में अशरे अशीर भी नहीं. ये कोई तखलीक़ ही नहीं है बल्कि तखलीक़ के लिए एक बद नुमा दाग़ है. मुसलमान इसकी पौराणिक कथा की जगह, मुल्लाओं की बखानी हुई पौराणिक हकीकत की तरह जानते हैं और इन देव परी की कहानियों पर यक़ीन और अक़ीदा रखते है. यह मुसलमान कभी बालिग़ हो ही नहीं सकते. एक वक़्त इस्लामी इतिहास में ऐसा आ गया था कि इंगलिस्तान अरबों के क़ब्ज़े में होने को था कि बच गया. इतिहास कार "वर्नियर" लिखता है "अगर कहीं ऐसा हो जाता तो आज आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में पैगम्बर मुहम्मद के फ़रमूदात पढाए जा रहे होते."अरब भी मुहम्मद को देखने और सुनने के बाद कहते थे कि "इसका कुरआन शायर के परेशान ख़यालों का पुलिंदा है" इस हक़ीक़त को जिस कद्र जल्दी मुसलमान समझ लें, इनके हक में होगा .
एक ही हल है कि मुसलमान को तर्क-इस्लाम करके, अपने बुनयादी कल्चर को संभालते हुए मोमिन बन जाने की सलाह है. जिसकी तफ़सील हम बार बार अपने मज़ामीन में दोहराते है. कोई भी गैर मुस्लिम नहीं चाहता कि मुसलमान इस्लाम का दामन छोड़े. अरब तरके इस्लाम करके बेदार हुए तो योरप और अमरीका के हाथों से तेल का खज़ाना निकल जाएगा, भारत के मालदार लोगों के हाथों से नौकर चाकर, मजदूर, मित्री और एक बड़ा कन्ज़ियूमर तबक़ा सरक जाएगा. तिजारत और नौकरियों में दूसरे लोग कमज़ोर हो जाएँगे, गोया सभी चाहते है कि दुन्या कि २०% आबादी सोलवीं सदी में अटकी रहे.
ये हैं गुमराही परोसने वाली क़ुरआनी आयतें - - -

"सो आप इस तरह बुलाते रहिए जिस तरह हुक्म हुवा है. मुस्तक़ीम रहिए और उनकी ख्वाहिश पर मत चलिए और आप कह दीजिए कि अल्लाह ने जितनी किताबें नाज़िल फ़रमाई हैं, सब पर ईमान लाता हूँ और मुझको ये इल्म भी हुवा है कि तुम्हारे दरमियान मैं अदल रख्खूँ . अल्लाह हमारा भी मालिक है और तुम्हारा भी मालिक है और हमारे आमाल हमारे लिए और तुम्हारे आमाल तुम्हारे लिए. हमारी तुम्हारी कुछ बहस नहीं . अल्लाह सबको जमा करेगा और उसी के पास जाना है."सूरह शूरा - ४२ - पारा २५ आयत (१५)अल्लाह सुलह पसँद हो रहा है, इसकी गोट मक्का में फँस चुकी है इसी लिए मुहम्मद की शिद्दत पसँद भाषा बदली बदली लगती है. ये विपत्ति इस्लाम पर थोड़े अरसे के लिए ही आई थी इसी आयत को नेता और मुल्ला आज दोहराया करते हैं कि इस्लाम कहता है तुम्हारा दीन तुम्हारे लिए और हमारा दीन हमारे लिए. इस सँकट के हटते ही मुहम्मद की आयतें फिर हठ धर्मी पर आ गई थीं. पिछले बाब में आपको याद होगा कि सूरह को अल्लाह के नाम से शुरू नहीं किया गया था. क्यूँकि मुहम्मद ने मुआहदा तोडा था.
"याद रख्खो जो लोग क़यामत के बारे में झगड़ते है बड़ी दूर की गुमराही में में हैं""सूरह शूरा - ४२ - पारा २५ आयत (१८)
मुहम्मद की तमाम आयतें जाहिलों के लिए है जिन पर फ़िक्र बार होती है. आग में पड़े हुए लोग हाथा पाई करेंगे?काश की उनके दिमागों में सवालिया निशान उभरे. इसके पहले मुहम्मद ने कहा है कि नफ्सी नफ्सी का आलम होगा.

"आप यूं कहिए कि मैं तुम से कोई मतलब नहीं रखना चाहता बजुज़ रिश्ते दारी की मुहब्बत के.""सूरह शूरा - ४२ - पारा २५ आयत (२३)मुहम्मद रिश्तेदारों को क़त्ल करने के लिए उनसे मतलब रखना चाहते है. जैसा कि जंग बदर नें उन्हों ने किया, तीस करीबी रिश्तेदारों का गला रेत कर.


"क्या वह लोग कहते हैं कि इन्हों ने अल्लाह पर झूठा बोहतान बाँध रख्खा है?
"और अगर अल्लाह दुन्या में सब बन्दों को रोज़ी फ़राख कर देता तो दुन्या में शरारत करने लगते लेकिन जितना रिज़क़ चाहता है अंदाज़ से हार एक के लिए उतार देता है, वह अपने बन्दों को जानने वाला और देखने वाला है."
"सूरह शूरा - ४२ - पारा २५ आयत (24-२७)लोग सौ फीसदी सच कहते थे. तुम्हारे वारिसों के ज़ुल्म ओ सितम ने झूट को सच बना दिया.
अल्लाह कहाँ खूराक मुहय्या कराता है? लाखों लोग अकाल के गाल में चले जाते है. मासूम बच्चों से लेकर अच्छे बन्दे, चरिंदे और परिंदे तक.


"और मिन जुमला इसकी निशानियों के जहाज़ हैं, समंदर में, जैसे पहाड़. अगर वह चाहे तो हवा को ठहरा दे तो वह समन्दर में खड़े के खड़े रह जाएँ. बेशक इस में निशानियाँ हैं. हर साबिर शाकिर के लिए. या इन जहाज़ों को इनके आमाल के सबब तबाह कर दे और बहुत से आदमियों के लिए दर गुज़र कर जाए. और उन लोगों को जो हमारी आयातों में झगडे निकालते हैं मालूम हो जाए कि इनके लिए कहीं बचाओ नहीं.""सूरह शूरा - ४२ - पारा २५ आयत (३५)मुहम्मदी अल्लाह से ज़्यादः जहाज़ की हवाओं को मल्लाहों ने समझा था और उनके लिए उन्हों ने मस्तूल बनाए थे. अल्लाह आलिमुल गैब को इतना भी पता नहीं कि आने वाला वक़्त बगैर हवा के जहाज़ दौड़ेंगे.
मुहम्मद कैसी बेसिर पर की बातें करते है - - -"या इन जहाजों को इनके आमाल के सबब तबाह कर दे" अब आश्याओं के आमाल भी होने लगे. फरिश्तों,जिन्नातों शैतानों और इंसान के बाद अपनी नई मखलूक जहाजों का वजूद भी शामिल ए मखलूक हुवा

"वाकई अल्लाह जालिमों को पसँद नहीं करता और जो अपने ऊपर ज़ुल्म हो चुकने के बाद बराबर का बदला लेले, सो ऐसे लोगों पर कोई इलज़ाम नहीं और जो सब्र करे और मुआफ़ करदे तो ये अलबत्ता बड़े हिम्मत के कामों में से है.""सूरह शूरा - ४२ - पारा २५ आयत (४०-४२)मुहम्मद की कुछ बाते वाजिब लगती हैं, अगर उनके पहले से चला आ रहा हो तो ये उनकी बात नहीं हुई.

"और अल्लाह जिसे गुमराह करे उसे नजात के लिए कोई रास्ता नहीं.""सूरह शूरा - ४२ - पारा २५ आयत (४६)बेशक अल्लाह से बड़ा शैतान तो कोई हो भी कैसे सकता है.कलामे दीगराँ - - -"अगर तुम में से हर कोई अपने भाई को दिल से मुआफ करेगा तो मेरा बाप बहिश्त में जो बैठा है, वह तुम्हारे साथ भी वैसा ही करेगा?""ईसा"इससे कहते हैं कलम पाक
जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

 

Wednesday 9 February 2011

सूरह शूरा - ४२ - पारा २५ (1)

मेरी तहरीर में - - -

क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।

नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.


सूरह शूरा - ४२ - पआरा २५ (1)
 
हर शै की तरह इंसानी ज़ेहन भी इर्तेकई मरहलों के हवाले रहता है जिसके तहत अभी इंसानी मुआशरे को खुदा की ज़रुरत है. कुछ लोग बहुत ही सादा लौह होते हैं, उन्हें अपने वजूद के सुपुर्दगी में मज़ा आता है. जैसे की एक हिन्दू धर्म पत्नि अपने पति को ही देवता मान कर उसके चरणों में पड़ी रहने में राहत महसूस करती है. हमारे एक डाक्टर दोस्त हैं, जो बहुत ही सीधे सादे नेक दिल इंसान हैं, वह अपने हर काम का अंजाम ईश्वर की मर्ज़ी पर डाल के बहुत सुकून महसूस करते हैं, उनको देख कर बड़ा रश्क आता है कि वह मुझ से बेहतर ज़िन्दगी गुज़ारते हैं, कभी कभी अन्दर का कमज़ोर इंसान भटक कर कहता है कि किसी न किसी खुदा को मान कर ही जीना चाहिए. किसी का क्या नुक्सान है कि कोई अपना खुदा रख्खे. ये फ़ितरते इंसानी ही नहीं, बल्कि फ़ितरते हैवानी भी है. एक कुत्ता अपने मालिक के क़दमों पर लोट कर कितना खुश होता है. बहुत से हैवान इंसान की पनाह में रहकर ही अमाँ पाते हैं. अपने पूज्य, अपने माबूद, अपने देव और अपने मालिक के तरफ़ ये क़दम इंसान या हैवान के दिल के अन्दर से फूटा हुवा जज़बा है, न कि इनके ऊपर लादा गया तसल्लुत. ये किसी खारजी तहरीक या तबलीग का नतीजा नहीं, इसके पीछे कोई डर, खौफ नहीं, कोई लालच या सियासत नहीं है. इसको मनवाने के लिए कोई क़ुरआनी अल्लाह की आयतें नहीं जिसके एक हाथ में दोज़ख की आग और दूसरे हाथ में जन्नत का गुलदस्ता रहता है. अन्दर से फूटी हुई ये चाहत क़ुरआनी अल्लाह की तरह हमारे वजूद की घेरा बंदी नहीं करतीं. आपका ख़ुदा किसी को मुतास्सिर न करे, शौक से पूजिए जब तक कि आप अपने सिने बलूगत में न आ जाएं, आप की समझ में ज़िन्दगी के राज़ ओ नयाज़ न झलकें.बेटे ने कहा अब्बा अब्बा फफीम खाएँगे. बाप बोला बेटा पहले अफ़ीम कहना तो सीखो. ये रही अल्लाह की फफीम - - -"हा मीम"
सूरह शूरा - ४२ - पारा २५ आयत (१)ये मुसलमानों की फफीम है जिसके कोई मानी नहीं है, न मुसलमानों का कोई बाप ऐसा है जो इन्हें अफ़ीम कहना सिखलाए और अफ़ीम के नाक़िस इस्तेमाल से आगाह करे, गोया पूरी कौम अफ़ीम के नशे में धुत्त पड़ी हुई है. यही 'हामीम या फफीम' का शिकार साठ साल पहले पूरी चीन कौम थी, वहाँ उनका बाप पैदा हुवा और अफ़ीम के मुज़िर असरात को बतलाया और इसकी फ़सलों को तबाह किया. आज मज़हबों से चीन नजात पा चुका है और दुन्या का सुर्खुरू तरीन मुल्क बनने की दर पर है. योरोप में कार्ल मार्क्स ने कहा 'मज़हब अफ़ीम का नशा है' जिस का इलाज कौमो के लिए ज़रूरी है'' नतीजतन दुन्या ने इस नशे को समझा और इससे उनको छुटकारा मिला. बद नसीब हिदुस्तान और मुस्लिम दुन्या इस के पंजे में फंसी हुई है. मुसलमानों का कोई रहनुमा पैदा होना मुश्किल है कि इनको खुद जागना होगा."ऐन सीन क़ाफ़"सूरह शूरा - ४२ - पारा २५ आयत (२)ये हुरूफ़ मुक़त्तेआत है. बस अफ़ीम का ही हम सर भाँग की तरह.


"इसी तरह ज़बरदस्त हिकमत वाला अल्लाह आप की तरफ़ और आप के पहले नबियों की तरफ़ वह्यी भेजता रहा. कुछ बईद नहीं कि आसमान अपने ऊपर से फट पड़ें और फ़रिश्ते अपने रब की तस्बीह और तम्हीद करते हैं और ज़मीन वालों के लिए माफ़ी माँगते हैं और हम ने आप पर ये कुरआन अरबी वह्यी के जारीए नाज़िल किया है ताकि आप मक्का में रहने वालों को और जो लोग इसके आस पास हैं, उनको डराएँ और जमा होने वाले दिन से डराएँ."सूरह शूरा - ४२ - पारा २५ आयत (३-७)
ये अल्लाह मुसलमानी ज़हनों पर नाजायज़ बाप की तरह मुसल्लत रहता है. एक ख्वाह मख्वाह का डर मुसलामानों को कचोके लगाता रहता है. इनका ज़ालिम अल्लाह इन पर कोई भी ज़ुल्म कर सकता है, कुछ नहीं तो आसमान ही इनके सर पर गिरा दे. कौन इन्हें समझाए कि आसमान कोई छत जैसी चीज़ नहीं, ये हद्दे नज़र है. क़ुरआनी आयतें समझाती हैं कि इंसान का वजूद ही धरती पर एक गुनाह है, जिसके लिए मुसलमान बे मार की तौबा किया करता है, यह इतना बड़ा मुजरिम है कि इसके लिए फ़रिश्ते भी दुआ किया करते हैं, इस तरह से इनका खेवन हार ले दे के रसूल ही बचते है.
अल्लाह ने अरबी में कुरआन इस लिए भेजा था कि इससे अरबियों को डराया जाए, बद किस्मती ये है कि इसे हिंदी भी झेल रहे है.


"आप जानदार चीज़ों को बेजान से निकल देते हैं, (जैसे मुर्गी से अंडा) और बेजान चीज़ों को जानदार से निकलते हैं (अंडे से चूजा)""सूरह शूरा - ४२ - पारा २५ आयत (९)क़ुरआनी अल्लाह यानी मुहम्मद की मशहूर जिहालत जो बार बार इस कलाम पाक को नापाक करती है. मुसलमानों ! क्या इक्कीसवीं सदी में भी तुम ऐसी आयातों पर भरोसा करते हो जो साबित करती हैं कि अंडे बेजान होते है.

कलामे दीगराँ - - -"पाएमाली से पहले क़िब्र और ठोकर से पहले घमंड होता है. बे इज्ज़ाती उन्हीं की होती है जिन्हें इज्ज़त का नशा होता है, मगर नरम लोगों में समझ होती है,"
"यहूदी मसलक "
इसे कहते हैं कलाम पाक
जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

सूरह हा मीम सजदा - ४१-पारा २४ (2)

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।


नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.


सूरह हा मीम सजदा - ४१-पारा २४ (2)




 
"तुम अपने काले करतूत करते वक़्त ये तो न करते थे कि अपने कान आँख और खाल से अपनी हरकत छुपा सकते. लेकिन तुम ज़्यादः तर इस गुमान में रहे कि वह बहुत कुछ जो तुम करते रहे अल्लाह को मालूम नहीं."सूरह हा मीम सजदा - ४१-पारा २४ आयत (२२)ए मुहम्मद तेरे अल्लाह ने शर्म से मुँह छुपा लिया था जब तू अपनी बहू जैनब के साथ काले करतूत कर रहा था .


"और हम ने इसके लिए कुछ साथ रहने वाले शयातीन मुक़र्रर कर रखे थे सो इन्हों ने इनके अगले पिछले आमाल इनकी नज़र में मुस्तःसिन कर रखे थे और इनके लिए भी अल्लाह का कौल पूरा होके रहा.जो इनके पहले जिन और इंसान हो गुज़रे है बेशक वह भी ख़सारे में रहे."सूरह हा मीम सजदा - ४१-पारा २४ आयत (२५)यह आयत मेरे कौल की सदाक़त बयान करती है कि अल्लाह और शैतान आपस में भाई भाई हैं और एक हैं. जब अल्लाह ही शैतान से काम कराता है तो इंसान दो तो तरफ़ा मार झेल रहा है.
मुहम्मद एक बेवकूफ साजिशी का नाम है, जिसे नादान मुसलमान समझ नहीं पाते.


"और कहते हैं इस क़ुरआन को सुनो मत और इसके बीच ही शोर कर दिया करो. ऐसे काफ़िरों को हम बड़ा सख्त मज़ा चखाएंगे और उनके बुरे कामों का भर पूर सज़ा उनको देंगे,"सूरह हा मीम सजदा - ४१-पारा २४ आयत (२६-२७)मुहम्मद की असली हालत ये सूरह बतला रही है कि किस क़दर लाखैरे और बेहया ज़ात थी उनकी. जाहिलों की पुश्त पनाही उसके बाद माले ग़नीमत की लालच से ये जिहालत की आयतें इबादत की बन गईं .

"और मिन जुमला इसकी निशानियों में एक ये है कि तू ज़मीन को देखता है कि दबी दबी पड़ी है, फिर जब हम पानी बरसाते हैं तो ये उभरती और फूलती है, हमने इस ज़मीन को ज़िंदा कर दिया वही मुर्दों को जिंदा करेगा. बे शक वह हर चीज़ पर क़ादिर है."सूरह हा मीम सजदा - ४१-पारा २४ आयत (२९)ज़मीन का मुशाहिदा न किसानों के लिए किया न मज़दूरों के लिए, जिनका तअल्लुक़ ज़मीन से है. अपने लाल बुझककड़ी दिमाग से इंसानों की फ़सल ज़मीन से उगा रहे हैं.

"और ये बड़ी बा वक़अत किताब है जिसमें गैर वाकई बात न आगे से आ सकती है न इसके पीछे की तरफ़ से. ये अल्लाह हकीम महमूद की तरफ़ से नाज़िल किया गया है और अगर हम इसे अजमी कुरआन बनाते तो यूँ कहते कि इसकी आयतें साफ़ साफ़ क्यूँ बयान नहीं की गईं. ये क्या बात है कि अजमी कुरआन और अरबी रसूल ? आप कह दीजिए कि ये कुरआन ईमान वालों के लिए राह नुमा और शिफ़ा है. और जो ईमान नहीं लाते उनके लिए डाट लगा दी गई है." सूरह हा मीम सजदा - ४१-पारा २४ आयत (४१-४४) बार बार उम्मी अपना तकिया कलाम कुरआन में दोहराते हैं "न आगे से आ सकती है न इसके पीछे की तरफ़ से." अल्लाह का नया नाम किसी तालीम याफ़्ता ने सुझाया "अल्लाह हकीम महमूद" अस्ल में कुरआन तौरेत और यहूदियत की चोरी है मगर इसमें झूट और जिहालत की आमेज़िश कर दी गई.मालूम हो कि जब उस्मान गनी कुरआन को तरतीब देने पर आए तो इसके आगे से, पीछे ऊपर से और नीचे से ५०% आयतें निकल कर कूड़ेदान में डाल दी गईं थी. कि आप की आयतें इन्तेहाई दर्जे हिमाक़त की थी और कराहियत की भी थीं. अरबी और अजमी की बातें कितनी झोलदार हैं.
कितना मामूली फ़िक्र का रसूल है जो कहता है
"जो ईमान नहीं लाते उनके लिए डाट लगा दी गई है."
"बहुत जल्द हम अपनी निशानियाँ उनके चारो तरफ़ दिखलाएँगे और खुद इनके अन्दर भी, यहाँ तक कि इनके लिए ये इक़रार किए बगैर कोई चारा न होगा कि ये कुरआन हक़ है. क्या तुम्हारे लिए ये काफ़ी नहीं कि तुम्हारा परवर दिगार हर हर चीज़ पर खुद गवाह है . आगाह हो जाओ कि इसने हर चीज़ को अपने घेरे में ले रखा है."सूरह हा मीम सजदा - ४१-पारा २४ आयत (५३-५४)पहली बार मुहम्मद डरा धमका नहीं रहे बल्कि आगाह कर रहे हैं मगर एक झूट के साथ. कुदरत की निशानियाँ तो चारो तरफ़ रौशन हैं जो इन्हें नज़र नहीं आतीं, नज़र कुछ आता है तो किज़्ब और मिथ्य.
कलामे दीगराँ - - -"अच्छे और बुरे कामों के नतीजे परछाइयों की तरह साथ साथ लगे रहते हैं.""शिन्तो "(जापानी मसलक)इसे कहते हैं कलाम पाक

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Tuesday 8 February 2011

सूरह हा मीम सजदा - ४१-पारा २४ (1)


मेरी तहरीर में - - -

 
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
 

 
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.


सूरह हा मीम सजदा - ४१-पारा २ (1)

भारत के मुस्तकबिल करीब में मुसलामानों की हैसियत बहुत ही तशवीश नाक होने का अंदेशा है. अभी फ़िलहाल जो रवादारी बराए जम्हूरियत बक़रार है, बहुत दिन चलने वाली नहीं. इनकी हैसियत बरक़रार रखने में वह हस्तियाँ है जिनको इस्लाम मुसलमान मानता ही नहीं और उन पर मुल्ला फतवे की तीर चलाते रहते हैं. उनमे मिसाल के तौर पर डा. ए पी. जे अब्दुल कलाम, तिजारत में अज़ीम प्रेम जी, सिप्ला के हमीद साहब वगैरा ,फ़िल्मी दुन्या के ए. आर. रहमान, आमिर खान, शबाना आज़मी. और दिलीप कुमार, फ़नकारों में फ़िदा हुसैन, बिमिल्ला खान जैसे कुछ लोग हैं. आम आदमियों में सैनिक अब्दुल हमीद जैसी कुछ फौजी हस्तियाँ भी हैं जो इस्लाम को फूटी आँख भी नहीं भाते. मैंने अपने कालेज को एक क्लास रूम बनवा कर दिया तो कुछ इस्लाम ज़दा कहने लगे की यही पैसा किसी मस्जिद की तामीर में लगते तो क्या बात थी, वहीँ उस कालेज के एक टीचर ने कहा तुमने मुसलामानों को सुर्खुरू कर दिया, अब हम भी सर उठा कर बातें कर सकते है.
कौन है जो सेंध लगा रहा है आम मुसलामानों के हुकूक़ पर?
कि सरकार को सोचना पड़ता है कि इनको मुलाज़मत दें या न दें?
आर्मी को सोचना पड़ता है कि इनको कैसे परखा जाय?
कंपनियों को तलाश करना पड़ता कि इनमें कोई जदीद तालीम का बंदा है भी?
बनिए और बरहमन की मुलाजमत को इनके नाम से एलर्जी है.
इसकी वजेह इस्लाम है और इसके गद्दार एजेंट जो तालिबानी ज़ेहन्यत रखते हैं.
यह भी हमारी गलतियों से खता के शिकार हैं.
हमारी गलती ये है कि हम भारत में मदरसों को फलने फूलने का अवसर दिए हुए है जहाँ वही पढाया जाता है जो कुरआन में है.

अब शुरू करिए शैतानुर्रज़ीम के नाम से - - -
"हा मीम"
सूरह हा मीम सजदा - ४१-पारा २४ आयत (१)जी हाँ! यह भी एक बात कही है अल्लाह ने, जिसे आप समझ नहीं पाएंगे. जो बात अल्लाह की आपके समझ में आती हैं वो ही कौन सी बेहतर बात है. ज़िन्दगी को कौन सा मज़ा देती हैं.


"ये कलाम रहमान और रहीम की तरफ़ से नाज़िल किया जाता है."सूरह हा मीम सजदा - ४१-पारा २४ आयत (२)मुहम्मद के जेहन में पहली बार रहमान और रहीम नाज़िल हुए हैं यही बात हिदुस्तानी रवा दारी में जब कही जाती है तो राम रहीम हो जाती है .
"बशारत देने वाला और डर सुनाने वाला और वह लोग सुनते ही नहीं, और मुँह फेर कर चले जाते हैं .''सूरह हा मीम सजदा - ४१-पारा २४ आयत (४)
जो आयतें ज़िन्दगी को मुर्दनी बनाएँ उनको कौन सुनना गवारा करेगा? जब तक कि इस्लामी तलवार सर पर न हो. हम धीरे धीरे कोफ़्त को सुनने के आदी हो गए हैं, वह भी ज़बाने गैर में. ये आयतें बशारत नहीं खबासत और कराहियत देती हैं अगर अपनी ज़बान में इसका इल्म हो, इसका ख़ालिस तर्जुमा हो .


"और कहते हैं कि जिस बात की तरफ़ आप हमें दावत देते हो हमारे दिल में उस के लिए कोई जगह नहीं और हम ने अपने कान भी बंद कर लिए, आप के और हमारे बीच पर्दा पद गया है, हमारी समझ में कुछ नहीं आता, बस तुम अपना काम करो और हम अपना काम जारी रखेंगे."सूरहहा मीम सजदा - ४१-पारा २४ आयत (५)ये बातें लोग उल्टा मुहम्मद के मुँह पर तअने के तौर पर वापस मारते हैं. अल्लाह की आयतें बार बार दोहराई जाती हैं कि ये काफ़िर समझने वाले नहीं हमने इनके कानों में डाट लगा दी कई और आँखों पर पर्दा डाल दिया है. सुम्मुम, बुक्मुम फ़हुम लायारजऊन. है जिसे बार बार वह कुरआन में गाया करते है."सुनो! मैं भी तुम्हारी तरह ही एक बशर हूँ, मुझ पर ये वह्यी नाज़िल होती है कि तुम्हारा माबूद एक ही माबूद है सो इसकी तरफ़ सीध बाँध लो और इससे माफ़ी माँगो, वर्ना शरीक करने वालों की बड़ी बर्बादी होगी."सूरह हा मीम सजदा - ४१-पारा २४ आयत २४ (६)खुदा न करे कि कोई बशर तुम जैसा मक्कार दूसरा हो. ये मक्र भरी तुम्हारी वहियाँ इस धरती के करोड़ों इंसानों का खून पी चुकी हैं फिर भी तुम्हारे अल्लाह की प्यास अभी बुझी नहीं.
"और उसने ज़मीन में उसके ऊपर पहाड़ बना दिए हैं,
और उसमें फायदे की चीज़ रख दीं,
और इसमें इसकी गिज़ाएँ तजवीज़ कर दीं.
चार दिन में पूरे हैं, पूछने वालों के लिए.
फिर आसमान की तरफ़ तवज्जो फ़रमाई और वह धुवाँ सा था,
सो इससे और ज़मीन से फ़रमाया कि तुम दोनों ख़ुशी से आओ या ज़बरदस्ती से.
दोनों ने अर्ज़ किया हम दोनों हाज़िर हैं,
सो दो रोज़ में इसके सात आसमान बनाए और हर आसमान में इसके मुताबिक अपना हुक्म भेज दिया और हमने इस करीब वाले आसमान को सितारों से ज़ीनत दी और हिफाज़त दी.
ये तजवीज़ है ज़बरदस्त वाक़िफ़ ए कुल की."
सूरह हा मीम सजदा - ४१-पारा २४ आयत (१०-१२)हर जुमला मुहम्मद की मूर्खता का बखान करते हैं - -
तौरेती इलाही छ दिन में दुनिया की तकमील करता जिसकी फूहड़ नक़ल उम्मी ने की "चार दिन में पूरे हैं, पूछने वालों के लिए.''
आसमान धुवाँ था तो ज़मीन क्या थी? और कहाँ थी? कि अल्लाह उनको धमका रहा है किसी उजड पहेलवान की तरह"सो इससे और ज़मीन से फ़रमाया कि तुम दोनों ख़ुशी से आओ या ज़बरदस्ती से."
दोनों भाई बहनों से से अर्ज़ करवा रहा है उम्मी "दोनों ने अर्ज़ किया हम दोनों हाज़िर हैं, "
अपने अल्लाह का नया नाम तराशते हुए कहता है,"वाक़िफ़ ए कुल '' किसी ने सुझा दिया होगा कि उसका ये नाम दो. नाम भर रखने से क्या फ़ायदा, जब पूरा मज़मून ही गुड गोबर हो.
"उनसे कह दीजिए कि मैं तुमको ऐसे आफ़त से डरता हूँ जैसे आद ओ सुमूद पर आफ़त आई थी जब कि इनके पास इनके आगे से भी इनके पीछे से भी पैगम्बर आए थे."
सूरह हा मीम सजदा - ४१-पारा २४ आयत (१३)दुन्या में लाखों हुक्मरान आए हैं आदिलो मरदूद, मगर मुहम्मदी अल्लाह को दस पाँच नाम ही याद हैं जिन्हें बार बार दोहराता है."जिस दिन अल्लाह के दुश्मन दोज़ख की तरफ़ जमा कर के ले जाए जाएंगे, यहाँ तक कि जब इसके करीब आ जाएंगे तो इन के कान, इनकी आँखें और इनकी खालें इन पर इनके आमाल की गवाही देंगे. और उस वक़्त वह लोग अपने अअज़ा से कहेगे तुमने हमारे ख़िलाफ़ गवाही क्यों दिया ? वह कहेंगे कि अल्लाह ने हमें गोयाई दी, जिसने हर चीज़ को गोयाई दी."सूरह हा मीम सजदा - ४१-पारा २४ आयत (१९-२१)
ए रसूल तेरा अल्लाह चालबाज़ है, ज़ालिम है, क़ह्हार है, अय्यार है, मक्कार है और मुन्तकिम है जैसा कि तूने कई बार बतलाया तो उसे इन बनाए गए गवाहों की क्या ज़रुरत है?कलामे दीगराँ - - -"तुम जो पढ़ते हो, अगर सब पर आँखें बंद करके भरोसा कर लेते हो, तो बेहतर है कि तुम पढो मत.""शिन्तो"
जापानी पैगम्बर ( गालिबन सैंट्रो कार इसी के नाम पर है)
जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

सूरह मोमिन ४० परा २४ (3)

मेरी तहरीर में - - -

क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।

नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.


सूरह मोमिन ४० परा २४ (3)


धर्म और ईमान के मुख़तलिफ़ नज़रिए और माने, अपने अपने हिसाब से गढ़ लिए गए हैं. आज के नवीतम मानव मूल्यों का तकाज़ा, इशारा करता है कि धर्म और ईमान हर वस्तु के उसके गुण और द्वेष की अलामतें हैं. इस लम्बी बहेस में न जाकर मैं सिर्फ़ मानव धर्म और ईमान की बात पर आना चाहूँगा. मानव हित, जीव हित और धरती हित में जितना भले से भला सोचा और भरसक प्रयास किया जा सके वही सब से बड़ा धर्म है और उसी कर्म में ईमान दारी है.
वैज्ञानिक हमेशा ईमानदार होता है क्यूँकि वह नास्तिक होता है, इसी लिए वह अपनी खोज को अर्ध सत्य कहता है. वह कहता है यह अभी तक का सत्य है कल का सत्य भविष्य के गर्भ में है.
मुल्लाओं और पंडितों की तरह नहीं कि आखरी सत्य और आखरी निज़ाम की ढपली बजाते फिरें.
धर्म और ईमान हर आदमी का व्यक्तिगत मुआमला होता है मगर होना चाहिए हर इंसान को धर्मी और ईमान दार, कम से कम दूसरे के लिए. इसे ईमान की दुन्या में ''हुक़ूक़ुल इबाद'' कहा गया है, अर्थात ''बन्दों का हक़'' आज के मानव मूल्य दो क़दम आगे बढ़ कर कहते हैं ''हुक़ूक़ुल मख़लूक़ात '' अर्थात हर जीव का हक़.
धर्म और ईमान में खोट उस वक़्त शुरू हो जाती है जब वह व्यक्तिगत न होकर सामूहिक हो जाता है. धर्म और ईमान, धर्म और ईमान न रह कर मज़हब और रिलीज़न यानी राहें बन जाते हैं. इन राहों में आरंभ हो जाता है कर्म कांड, वेश भूषा, नियमावली, उपासना पद्धित, जो पैदा करते हैं इंसानों में आपसी भेद भाव.
राहें कभी धर्म और ईमान नहीं हो सकतीं. धर्म तो धर्म कांटे की कोख से निकला हुआ सत्य है, पुष्प से पुष्पित सुगंध है, उपवन से मिलने वाली बहार है. हम इस धरती को उपवन बनाने के लिए समर्पित रहें , यही मानव धर्म है. धर्म और मज़हब के नाम पर रची गई पताकाएँ, दर अस्ल अधार्मिकता के चिन्ह हैं.
आप अक्सर तमाम धर्मों की अच्छाइयों(?) की बातें करते हैं यह धर्म जिन मरहलों से गुज़र कर आज के परिवेश में कायम हैं,
क्या यह अधर्म और बे ईमानी नहीं बन चुके है?
क्या यह सब मानव रक्त रंजित नहीं हैं?
इनमें अच्छाईयां है कहाँ? जिनको एक जगह इकठ्ठा किया जाय, यह तो परस्पर विरोधी हैं..मैं आप का कद्र दान हूँ, बेहतर होता कि आप अंत समय में मानव धर्म के प्रचारक बन जाएँ और अपना पाखंडी गेरुआ वेश भूषा और दाढ़ी टोपी तर्क करके साधारण इंसान जैसी पहचान बनाएं.

अब देखिए कि बादशाह फ़िरओन के दरबार में मुहम्मदी अल्लाह क्या क्या नाटक खेल रहा है - - -"दरबारी वज़ीर मोमिन ने अपनी तक़रीर जारी रखते हुए कहा कि ऐ बिरादराने कौम मुझे डर है कि बड़ी बड़ी कौमों जैसी बरबादी का दिन तुम पर भी आ जाएगा, जैसा कि कौम नूह, कौम आद, और कौम सुमूद वालों का हाल बना और उसके बाद भी बहुत से लोग बर्बाद हो चुके, हालांकि अल्लाह अपने बन्दों पर ज़ुल्म करने का इरादा नहीं रखता. ऐ बिरादराने कौम मुझको तुम पर एक ऐसे दिन के आ पड़ने का खौफ है जब बहुत चीख पुकार करोगे. वह दिन ऐसा होगा कि पीठ फेर कर भागोगे मगर अल्लाह से बचाने वाला तुम को कहीं भी न मिल सकेगा. याद रखो कि जिसे अल्लाह गुमराही में पड़ा रहने दे तो उसको राह पर कोई नहीं ला सकता."सूरह मोमिन ४० परा २४ आयत (३०-३३)
आसानी से समझा जा सकता है कि आयतें मुहम्मद मक्र बयान करती हैं. वह दरबारी मोमिन की आड़ में अपनी बात कर रहे है.



"फ़िरऔन बोला : ऐ हामान! मेरे लिए एक ऊँची इमारत बनाओ ताकि मैं ऊपर के रास्तों पर पहुँच कर देख सकूँ. आसमानों के रस्ते पर जाना चाहता हूँ, ताकि मूसा के माबूद को झाँक कर देख लूं. मैं तो इसे झूटा समझता हूँ. फ़िरऔन की ऐसी बुरी हरकत अपनी निगाह में बहुत अच्छी मालूम पड़ती थी, जिसके सबब सही रस्ते से उसको रोका गया और फ़िरऔन की हर तदबीर बेअसर और बेकार साबित हुई."सूरह मोमिन ४० परा २४ आयत (४०-४२)मुहम्मदी अल्लाह अपनी ज़बान और कलाम का हक़ तक नहीं अदा कर पा रहा, जिसे मुसलमान अल्लाह का कलाम कहते हैं. इसे तमाम उम्र दोहराते रहते हैं.कहता है - - -
"ताकि मैं ऊपर के रास्तों पर पहुँच कर देख सकूँ. आसमानों के रस्ते पर जाना चाहता हूँ, ताकि मूसा के माबूद को झाँक कर देख लूं."ऐसे गाऊदी अल्लाह को मुसलमान ही गले उतार सकते हैं.
मोमिन वज़ीर कहता है - - -
"मेरी बात बहुत जल्द तुम को याद आकर रहेगी.तब बहुत पछताओगे अब मैं अपने मुआमले अल्लाह के सुपुर्द करता हूँ जो बन्दों को देख रहा है. अल्लाह ने उस मोमिन को उनके करीब के चक्कर से बचा लिया और अज़ाब ने आले फ़िरऔन पर बुरी तरह घेरा डाल दिया."
सूरह मोमिन ४० परा २४ आयत (३८-४५)
मुसलमानों! क्या बिकुल नहीं समझ पाते सच्चाई को या फिर सच से तुम्हें परहेज़ है?
ऐसे अल्लाह के चक्कर में मुसलमान कौम पंसी हुई है.



"मरने के बाद इन्हें सुब्ह ओ शाम आग पर पेश किया जाता है और जिस दिन क़यामत कायम होगी, हुक्म होगा कि फ़िरऔन और उसके साथ वालों को सख्त अज़ाब में दाखिल करो. भयानक होगा वह मंज़र जब आग में गिरने के बाद ये लोग आपस में झगड़ रहे होंगे. तब दबा कर रक्खे गए लोग अपने बड़ों से कहेंगे, तुम्हारे कहने पर चलते थे , फिर क्या तुम मुझ पर से इस आग के अज़ाब को कुछ कम करा सकोगे? बड़े कहेंगे हमको तुमको सभी को इस जहन्नम में पड़े रहना है कि अल्लाह अपने बन्दों के दरमियान फैसला कर चुका है. दोज़खी लोग दोज़ख के दरोगा से कहेंगे, अपने रब से दुआ करो कि किसी एक दिन के वास्ते तो हम को इस अज़ाब से हल्का करदे . जवाब में दोज़ख के अफ़सरान बोलेंगे कि क्या तुम्हारे पास तुम्हारे रसूल इस अज़ाब की चेतावनी देने नहीं आए ? बोलेंगे कि हाँ ! वह तो बराबर हमको डराते रहे . जहन्नम के अफ़सर कहेंगे कि बस अब बात ख़त्म हुई, तुम खुद दुआ कर लो और काफिरों की दुआ कतई कुबूल नहीं होगी."सूरह मोमिन ४० परा २४ आयत (४७-५०)"मरने के बाद इन्हें सुब्ह ओ शाम आग पर पेश किया जाता है"ताकि उन्हें ताज़ा रखा जा सके.

"जब आग में गिरने के बाद ये लोग आपस में झगड़ रहे होंगे."गोया आपस में धक्के मुक्की कर के गंदे पानी में गिरा दिए गए हों.



इस्लाम अपने बड़े बुजुर्गों की बातों को न मानने का पैगाम दे रहा है.
ये आयतें मुसलामानों की घुट्टी में पिलाई हुई है, इन हराम जादे ओलिमा ने जिसे कि एक बच्चा भी तस्लीम करने में बेजारी महसूस करे.

"कयामत आकर रहेगी लेकिन बहुत से लोग ऐसी बेशक खबर पर भी यकीन नहीं करते."
"ऐसी बेशक खबर पर भी यकीन नहीं करते."
उम्मी की बेशक ख़बरें मुसलामानों का ही यकीन हो सकती हैं.


"अल्लाह ने तुम्हारे लिए रात बनाया ताकि तुम इसमें सुकून और राहत हासिल कर सको और दिन इस लिए कि तुमको अच्छी तरह दिखाई दे, बे शक अल्लाह तो लोगों पर फ़ज़ल फ़रमाने वाला है लेकिन बहुत से लोग शुक्र ही नहीं करते."

मुसलामानों! रात और दिन ज़मीन पर सूरज की रौशनी है जो हिस्सा सूरज के सामने रहता है वहाँ दिन होता है, बाकी में रात, इतनी तालीम तो आ ही गई होगी. अब देखने के लिए दिन की ज़रुरत नहीं पड़ती इसे भी तुम रौशन हो चुके हो. अपने दिमागों को भी रौशन करो. मुहम्मदी अल्लाह के दुश्मन कौमों ने रातों को भी दिन से ज़्यादः रौशन कर लिया है. मुहम्मदी अल्लाह की हर बात गलत साबित हो चुकी है. मुसलमान झूट के अंधेरों में मुब्तिला है," वही तो है जो तुम्हारी पैदाइश मिटटी से करता है, फिर उसे फुटकी बूँद बना देता है, फिर उसको लहू के लोथड़े यानि लहू की फुटकी में तब्दील फ़रमाता है, फिर तुमको बच्चा बना कर बाहर निकालता है, फिर तुम हो कि अपनी जवानी तक पहुँचाए जाते हो, फिर बहुत बूढ़े भी हो जाते हो. कुछ तो अपना वक़्त हो जाने पर जवानी या बुढापे के पहले ही मर जाते हैं, और बाकी बहुत से अपने अपने वक़्त तक बराबर पहुँचते रहते हैं. इन हालात को ध्यान में रख कर अक्ल से काम लो."सूरह मोमिन ४० परा २४ आयत (५९-६७)अक्ल से काम लो और उम्मी की जनरल नालेज पर तवज्जो दो.
इंसान की पैदाइश के सिलसिले में ये उम्मी का गया हुवा ये नया राग है.


"जिन लोगों ने कुरआन को झुटला दिया उनको अभी मालूम हुआ जाता है. कि तौक इनके गर्दनों में होंगी और जंजीरें इन्हें घसीटते हुए खौलते पानी में ले जाएँगी, फिर ये खौलते पानी में झोंक दिए जाएँगे, फिर इनसे पूछा जायगा कि ग़ैर अल्लाह कहाँ गए? जिनको तुम शरीक ठहराते थे? और कहेंगे कि वह तो हम से गायब हो गए, बल्कि हम तो इसके क़ब्ल किसी को नहीं पूजते थे. अल्लाह तआला इस तरह काफ़िरों को गलती में फँसाए रहता है. ये सज़ा इसके बदले में है कि तुम दुन्या में नाहक ही खुशियाँ मनाते थे, जहन्नम के दरवाज़ों में अब दाखिल हो जाओ. अपनी बड़ाई हाँकने वालों का क्या ही बुरा ठिकाना है."सूरह मोमिन ४० परा २४ आयत (७२-७६)"अभी मालूम हुआ जाता है"चौदा सौ साल हो गए अभी तक अल्लाह का अभी नहीं आया.

कलामे दीगराँ - - -
"हे प्रभु!
हम इस दुन्या में क़र्ज़ से मुबर्रा, उस दुन्या में क़र्ज़ से मुबर्रा और फिर तीसरी दुन्या में क़र्ज़ से मुबर्रा रहें. हम क़र्ज़ से बरी हो कर उन राहों और उन जहानों में रिहायश करें जहाँ देवता और हमारे पुरखे रहते हैं"

"अथर वेद"(हिन्दू धर्म)




जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

सूरह मोमिन ४० परा २४ (2)

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।

नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.

सूरह मोमिन ४० परा २४ (2) 

मुसलमानों! तुम अगर अपना झूटा मज़हब इस्लाम को तर्क कर के मोमिन हो जाओ तो तमाम कौमें तुम्हारी पैरवी के लिए आमादा नज़र आएँगी. कौन कमबख्त ईमान दारी की कद्र नहीं करेगा? माज़ी की तमाम दुन्या लाशऊरी तौर पर मौजूदा दुन्या की हुकूमतों को ईमानदार बनने के लिए कुलबुला रही है, मगर मज़हबी कशमकश इनके आड़े आती है. चीन पहला मुल्क है जिसने मज़हबी वबा से छुटकारा पा लिया है नतीजतन वह ज़माने में सुर्खुरू होता जा रहा है, शायद हम चीन की सच्ची सियासत की पैरवी पर मजबूर हो जाएं.
मोमिन लफ्ज़ अरबी है, इसके लिए तमाम इंसानियत अरबों की शुक्र गुज़ार है कि इतना पाक साफ़ शुद्ध और लाजवाब लफ्ज़ दुन्या को उन्हों ने दिया जिसे एक अरब ने ही इस्लाम का नाम देकर इस पर डाका डाला और लूट कर खोखला कर दिया. मगर इसका असर अभी भी क़ायम है.
ऐसे ही "सेकुलर" लफ्ज़ को हमारे नेताओं ने लूटा है. सेकुलर के मानी हैं "ला मज़हब" जिसका नया मानी इन्हों ने गढ़ा है "सभी मज़हब को लिहाज़ में लाना" सियासत दान और मज़हबी लोग ही गैर मोमिन होते हैं, अवाम तो मोम की तरह मोमिन, होती है, हर सांचे में ढल जाती है.


देखिए कि लुटेरा दीन क्या कहता है - - -"वह लोग कहेंगे कि ए मेरे परवर दिगार! आप ने हमें दो बार मुर्दा रखा और दो बार ज़िन्दगी दी, सो हम अपनी ख़ताओं का इक़रार करते हैं, तो क्या निकलने की कोई सूरत है? फ़रमाएगा हरगिज़ नहीं, इस लिए कि जब एक अकेले अल्लाह से दुआ करने को कहा जाता था, तो तुम ने मुख्तलिफ़ की, की थी और अल्लाह के साथ जब किसी दूसरे को शरीक करने को कहा जाता था तो तुम ने कुबूल कर लिया, बस आज अल्लाह आली शान जो सब से बड़ा है, उसका हुक्म हो चुका है."सूरह मोमिन ४० परा २४ आयत (११-१२)मुहम्मद गलती से कह रहे हैं कि "दो बार मुर्दा रखा" मौत तो एक बार ही आती है - - - खैर ये इंसानी भूल चूक है, कोई कुदरत की नहीं, मुहम्मदी अल्लाह न कुदरत है न अल्लाह की कुदरत.
कई बार मैं बतला चुका हूँ कि मुहम्मद की खसलत और फ़ितरत ही उनके रचे हुए अल्लाह की हुवा करती है कि वह कितना बे रहेम और ज़ालिम है. अपनी तबीअत के मुताबिक ही रचा है अल्लाह को.

"वह रफीउद दर्जात, वह अर्श का मालिक है, वह अपने बन्दों में से ही जिस पर चाहता है, वह्यी यानी अपना हुक्म भेजता है ताकि इज्तेमा के दिन से डराए. जिस दिन सब लोग सामने आ मौजूद होंगे. इनकी बात अल्लाह से छुपी नहीं होगी. आज के रोज़ किसकी हुकूमत होगी, बस अल्लाह की होगी. जो यकता ग़ालिब है. आज हर एक को इसके किए का बदला दिया जायगा, आज ज़ुल्म न होगा, अल्लाह बहुत जल्द हिसाब लेने वाला है. और आप लोगों को एक करीब आने वाली मुसीबत से डराएँ, जिस रोज़ कलेजे मुँह को आ जाएँगे, घुट घुट जाएँगे. जालिमों का कोई दोस्त होगा न सिफारसी."सूरह मोमिन ४० परा २४ आयत (१५-१८)उम्मी मुहम्मद कहते है "आज के रोज़ किसकी हुकूमत होगी, बस अल्लाह की होगी" जैसे बाकी दिनों में शैतान की हुकूमत रहती हो. क़यामत का हर मंज़र नामा जुदा जुदा होता है, यह उनके झूट की क़िस्में हैं.

"और फ़िरओन ने कहा मुझको छोड़ दो मैं मूसा को क़त्ल कर डालूँगा, उसको चाहिए कि अपने रब को पुकारे. हमको अंदेशा है कि वह तुम्हारा दीन बदल डालेगा या मुल्क में कोई खराबी फैला दे.और मूसा ने कहा मैं अपने और तुम्हारे रब की पनाह लेता हूँ और हर ख़र दिमाग़ शख्स से जो रोज़े हिसाब पर यक़ीन नहीं रखता."
सूरह मोमिन ४० परा २४ आयत (२६-२७)जाह ओ जलाल वाला बादशाह कहता है मुझ को छोड़ दो? जैसे उसको किसी ने पकड़ रक्खा हो. बादशाह के एक इशारे से मूसा की गर्दन उड़ाई जा सकती थी. बेवकूफ खुद साख्ता रसूल को इन बातों की तमाज़त कहाँ थी. वह उस ज़माने में मूसा से इस्लाम की तबलीग कराता है. और इस वक़्त की उसकी उम्मत को क्या कहा जाए, उसने तो अकीदत के नाम पर जिहालत खरीद रख्खी है.
सानेहा ये है कि मुसलमान इन बातों को समझने की कोशिश नहीं करता. फ़िरओन की ज़िन्दगी के इन्हीं बातों को अल्लाह ने कान लगा कर सुना और मुहम्मद के कान में जिब्रील से फुसकी करवाया.


"और एक मोमिन शख्स जो फ़िरऔन के ख़ानदान से थे, अपना ईमान पोशीदा रक्खे हुए थे, कहा कि तुम एक शख्स को इस बात पर क़त्ल करते हो कि वह कहता है मेरा परवर दिगार अल्लाह है, हाँलाकि वह तुम्हारे रब की तरफ़ से दलील लाया है कि अगर वह झूठा है तो उसके झूट का वबाल उसी पर पडेगा और अगर वह सच्चा है तो इसकी पेश ख़बरी के मुताबिक तुम पर कोई अज़ाब भी आ सकता है. जान रक्खो कि अल्लाह ऐसे शख्स को राह नहीं देता जो हद से बढ़ जाने वाला और झूठा हो."सूरह मोमिन ४० परा २४ आयत (२८)
इस्लाम से दो हज़ार साल पहले ही कोई मोमिन पैदा हो गया था जो ईमान को पोशीदा रक्खे हुए था?
मुहम्मद जो ज़बान पर आता बक जाते उनकी हर गलत बात का जवाब ओलिमा ने गढ़ रक्खे हैं. इस बात का जवाब उन्हों ने इस तरह बना रक्खा है कि इस्लाम दीने इब्रामी मज़हब है.
उनसे कोई पूछे कि खुद नबी का बाप जहन्नम में क्यूँ जल रहा है जैस कि मुहम्मद खुद कहते हैं कि उनका बाप जहन्नम रसीदा हुवा.

कलामे दीगराँ - - -"जो शख्स दौलत को आबे हयात समझ कर तरह तरह के आमाले बद से दौलत हासिल करता है, वह बद आमालियों के जाल में फँस जाता है. वह बहुत से लोगों की मुखालिफ़त और दुश्मनी के नतीजे में सब कुछ यहीं गँवा कर जहन्नम रसीदा हो जाता है.""जैन धर्म"
इसे कहते हैं कलाम पाक


जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Saturday 5 February 2011

सूरह मोमिन ४० पारा २४ (1)

मेरी तहरीर में - - -


क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।


नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.
सूरह मोमिन ४० पारा २४ (1)



सूरह मक्का की है जोकि मुहम्मद की तरकीब, तबलीग और तक़रीर से पुर है. वह कुछ डरे हुए है, उनको अपने ऊपर मंडराते ख़तरे का पता चल चुका है, पेशगी में इब्राहीम और मूसा की गिरफ़्तारी की आयतें गढ़ने लगे हैं. उन पर जो आप बीती होती है वह अगलों की आप बीती बन जाती है.
नाक लगी फटने,
खैरात लगी बटने,
उस वक़्त लोग उन्हें सुनते और दीवाने की बडबड जानकर नज़र अंदाज़ कर जाते तअज्जुब आज के लोगों पर है कि लोग उसी बडबड को अल्लाह का कलाम मानने लगे हैं.
मुहम्मद जानते थे कि अल्लाह नाम की कोई मख्लूक़ नहीं है. उसका वजूद कयासों में मंडला रहा है, इस लिए वह खुद अल्लाह बन कर कयासों में समां गए. इस हक़ीक़त को हर बुद्धि जीवी जनता है और हर बद ज़ाद आलिम भी. मगर माटी के माधव अवाम को हमेशा झूट और मक्र में ही सच्चाई नज़र आती है. वक़्त मौजूँ हो तो कोई भी होशियार मुहम्मद अल्लाह का मुखौटा पहन कर भेड़ों की भीड़ में खड़ा हो सकता है और वह कम अक़लों का खुदा बन सकता है. दो चार नस्लों के बाद वह मुस्तनद भी हो जाता है. ये हमारी पूरब की दुन्या की ख़ासियत है. मुहम्मद ने अल्लाह का रसूल बन कर कुछ ऐसा ही खेल खेला जिस से सारी दुन्या मुतास्सिर है. मुहम्मद इन्तेहाई दर्जा खुद परस्त और खुद ग़रज़ इंसान थे. वह हिकमते अमली में चाक चौबंद, पहले मूर्ति पूजकों को निशाना बनाया, अहले किताब (ईसाई और यहूदी) को भाई बंद बना रखा, कुछ ताक़त मिलने के बाद मुल्हिदों और दहरियों ( कुछ न मानने वाले, नास्तिक ) को निशाना बनाया, और मज़बूत हुए, तो अहले किताब को भी छेड़ दिया कि इनकी किताबें असली नहीं हैं, इन्हों ने फ़र्ज़ी गढ़ ली हैं, असली तो अल्लाह ने वापस ले लीं हैं. हालाँक़ि अहले किताब को छेड़ने का मज़ा इस्लाम ने भरपूर चखा, और चखते जा रहे हैं मगर खुद परस्त और खुद गरज मुहम्मद को इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता. वह को अपने सजदे में झुका हुवा देखना चाहते थे, इसके अलावा कुछ भी नहीं.
ईमान लाने वालों में एक तबका मुन्किरों का पैदा हुआ जिसने इस्लाम को अपना कर फिर तर्क कर दिया, जो मुहम्मदी खुदा को करीब से देखा तो इसे झूट क़रार दिया, उनको ग़ालिब मुहम्मद ने क़त्ल कर देने का हुक्म दिया इससे बा होश लोगों का सफाया हो गया, जो डर कर इस्लाम में वापस हुए वह मुरतिद कहलाए.
मुहम्मद खुद सरी, खुद सताई, खुद नुमाई और खुद आराई के पैकर थे. अपनी ज़िन्दगी में जो कुछ चाहा, पा लिया, मरने के बाद भी कुछ छोड़ना नहीं चाहते थे कि खुद को पैग़म्बरे आखरुज़ ज़मा बना कर कायम हो गए, यही नहीं मुहम्मद अपनी जिहालत भरी कुरआन को अल्लाह का आखरी निज़ाम बना गए. मुहम्मद ने मानव जाति के साथ बहुत बड़ा जुर्म किया है जिसका खाम्याज़ा सदियों से मुसलमान कहे जाने वाले बन्दे झेल रहे है. अध् कचरी, अधूरी, पुर जेह्ल और नाक़िस कुछ बातों को आखरी निज़ाम क़रार दे दिया है. क्या उस शख्स के सर में ज़रा भी भेजा नहीं था क़ि वह इर्तेकाई तब्दीलियों को समझा ही नहीं. क्या उसके दिल में कोई इंसानी दर्द था ही नहीं कि इसके झूट एक दिन नंगे हो जाएँगे,तब इसकी उम्मत का क्या हश्र होगा?
आज इतनी बड़ी आबादी हज़ारों झूट में क़ैद, मुहम्मद की बख्शी हुई सज़ा काट रही है. वह सज़ा जो इसे विरासत में मिली हुई है, वह सज़ा जो ज़हनों में पिलाई हुई घुट्टी की तरह है, वह क़ैद जिस से रिहाई खुद कैदी नहीं गवारा करता, रिहाई दिलाने वाले से जान पर खेल जाता है. इन पर अल्लाह तो रहेम करने वाला नहीं, आने वाले वक्तों में देखिए, क्या हो? कहीं ये अपने बनाए हुए क़ैद खाने में ही दम न तोड़ दें. या फिर इनका कोई सच्चा पैगम्बर पैदा हो.
आइए क़ुरआनी जिहालत पर एक नज़र डालें - - -
"हा मीम"
सूरह मोमिन ४० परा २४ आयत (१)
अल्लाह का ये छू मंतर कभी एक आयत (बात) होती है और कभी कभी कोई बात नहीं होती. यहाँ पर ये "हा मीम" एक बात है जो की अल्लाह के हमल में है.
"ये किताब उतारी गई है अल्लाह की तरफ़ से जो ज़बर दस्त है. हर चीज़ का जानने वाला है, गुनाहों को बख्शने वाला है, और तौबा को क़ुबूल करने वाला है. सख्त सज़ा देने वाला और क़ुदरत वाला है. इसके सिवा कोई लायक़े इबादत नहीं है, इसके पास लौट कर जाना है. अल्लाह की इस आयत पर वही लोग झगड़ने लगते हैं जो मुनकिर हैं, सो उनका चलना फिरना आप को शुबहे में न डाले."
"सूरह मोमिन ४० परा २४ आयत (२-४)
अल्लाह कोई ऐसी हस्ती नहीं है जो इंसानी दिल ओ दिमाग़ रखता हो, जो नमाज़ रोज़ा और पूजा पाठ से खुश होता हो या नाराज़. यहाँ तक कि वह रहेम करे या सितम ढाए जाने से भी नावाकिफ़ है. अभी तक जो पता चला है, हम सब सूरज की उत्पत्ति हैं और उसी में एक दिन लीन हो जाएँगे. हमारे साइंसदान कोशिश में हैं कि नसले इंसानी बच बचा कर तब तक किसी और सय्यारे को आबाद कर ले, मगर हमारे वजूद को फ़िलहाल लाखों साल तक कोई खतरा नहीं.

"जो फ़रिश्ते अर्श को उठाए हुए हैं और जो फ़रिश्ते इसके गिर्दा गिर्द हैं और अपने रब की तस्बीह और तम्हीद करते रहतेहैं और ईमान वालों के लिए इसतेगफ़ार करते रहते है कि ऐ मेरे परवर दिगार इन लोगों को बख्श दीजिए जिन्हों ने तौबा कर लिया है और उनके माँ बाप बीवी और औलादों में से जो लायक़ हों उनको भी बहिश्तों में दाखिल कीजिए."
सूरह मोमिन ४० परा २४ आयत (७-८)
जो फ़रिश्ते अर्श को उठाए हुए है तो उनका पैर किस ज़मीन पर टिकता है? फ़रिश्ते अर्श को उठाए हुए नहीं बल्कि अर्श में लटके अपनी जान की दुआ करने में लगे होंगे. मुहम्मद कितने सख्त हैं कि "उनके माँ बाप बीवी और औलादों में से जो लायक़ हों उनको भी बहिश्तों में दाखिल कीजिए." अगर इन लोगों ने इस्लाम को क़ुबूल कर लिया हो तभी वह लायक हो सकते हैं.
अल्लाह बने मुहम्मद अपनी तबीअत की ग़ममाज़ी कुछ इस तरह करते हैं - - -
"बेशक जो लोग कुफ़्र की हालत में मर कर आए होंगे, उनको सुना दिया जाएगा जिस तरह आज तुम को अपने रब से नफ़रत है, इससे कहीं ज़्यादः अल्लाह को तुम से नफ़रत थी जब तुमको दुन्या में ईमान की तरफ़ दावत दी जाती थी और तुम इसे मानने से इंकार करते थे,"
सूरह मोमिन ४० परा २४ आयत (१०)
ऐसी आयतें बार बार इशारा करती है कि मुहम्मद अंदरसे खुद को खुदा माने हुए थे. इन से बड़ा जहन्नमी और कौन हो सकता है? अल्लाह है तो क्या बन्दों से इतनी नफ़रत का इज़हार कर सकता है?

कलामे दीगराँ - - -
लीक पुरानी न तजैं, कायर कुटिल कपूत.
लीक पुरानी न रहैं, शायर, सिंह, सपूत.

"कबीर"

इसको कहते हैं कलाम पाक


जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान