Monday 30 November 2020

खुदाओं की दुन्या


खुदाओं की दुन्या  

ऐसा लगता है कि यह एशिया महाद्वीप की सर ज़मीं का तक़ाज़ा है कि इस पर पैदा होने वाला मानव बग़ैर भगवान, अल्लाह  या किसी रूहानी हस्ती के पुर सुकून रह ही नहीं सकता. इनकी ज़ेहनी ग़िज़ा के लिए कम से कम एक झूटी महा शक्ति, एकेशवर, कोई वाहिद ए मुतलक़, कोई सुपर पावॅर चाहिए ही. 
पहले जानमाज़ चाहिए फिर दस्तर ख़्वान, 
पहले मंदिर व मस्जिद उसके बाद घर की छत. 
कुछ भी हो एक परम पूज्य चाहिए ही जो इनकी तरह ही सोच विचार वाला हो, 
इंसान जानवर, पेड़, दरिया, परबत, हत्ता कि पत्थर की मूर्ति ही क्यों न हो.  
कोई शक्ल ओ सूरत न हो तो निरंकार ही सही, 
कोई न कोई आफ़ाक़ी ख़ुदा इनको चाइए ही वरना सांस लेना दूभर हो जाए. 
वह अनेशश्वर वादी को पशु मानते हैं, हैवान समझते हैं 
जो सुकर्म और कुकर्म में कोई अंतर नहीं समझता. 
मैं कभी कभी अतीत में दूर तक जाता हूँ ब्रह्मा, विष्णु, महेश काल तक जो अढाई अरब साल का होता है, इसी महाकाल में संसार निर्मित होता है और इसका अंत होता है - - - तो मैं इस मिथ्य को सत्य मान लेता हूँ कि इसी में नजात है कि आगे दूर तक मत सोचो. 
इसके बाद तौरेत का झूट जो यहूदियों, ईसाइयों और मुसलमानों के लिए ख़याल ए सवाब बना हुवा है, का वर्णण आता है जो सिर्फ साढ़े छः हज़ार साल पहले दुन्या के वजूद में आने की बात करता है. वह नाटा ठिंगना और हास्य स्पद लगता है. 
लाखो वर्ष पहले के इंसानी और हैवानी कंकाल मिलते है 
तो पहला आदमी आदम कहाँ ठहरता है ? 
यह दोनों सूरतें कोरी कल्पनाएँ हैं, जहाँ पर अक़ल ए इंसानी जाकर अटक जाती है.  इनको कंडम किए बिना वह आगे नहीं बढ़ सकता.
अब बचती है डरबन की थ्योरी जो बतलाती है कि इंसान का वजूद भी दूसरे जीवों की तरह पानी से ही हुवा. यह ख़याल अभी तक का सत्य मालूम पड़ता है, बाक़ी पूर्ण सत्य आने वाले भविष्य में छुपा हुवा है. 
 आप अपने सर मुबारक को खुजलाएं कि आप अपने सरों में इन अक़ली गद्दा रूहानियत फ़रोशों की दूकानों से ख़रीदा हुवा सौदा सजाए हुए हैं ???
या बेदारी की तरफ़ आने के लिए तैयार हैं ?
इन पाखंडियो के द्वारा मुरत्तब किए हुए ख़ुदाओं में से जो कम अज़ कम एक को नहीं मानता, यह कहते हैं वह जानवर है.  
अब मैं आपको फिर डर्बिन की तरफ़ मोड़ रहा हूँ जिस में कुछ न कुछ सच्चाई नज़र आएगी. हो सकता है इंसान की शाख जीव जंतु से कुछ अलग हो मगर इंसान हैवानी हालात से दो चार होते हुए ही यहाँ तक पहुंचा है. पाषाण युग तक इंसान यक़ीनी तौर पर हैवानो का हम सफ़र रहा है, इसके बावजूद तब तक आदमी सिर्फ़ आदमी ही था. उस वक़्त तक इंसानी ज़ेहन में किसी बाक़ायदा अल्लाह का तसव्वर क्यों नहीं आया ? 
उस वक़्त किसी खुदा के जैसे नहीं बल्कि वजूद की बक़ा पर तवज्जो हुवा करती थी.
यह ख़ुदा फ़रोश इंसान के लिए ख़ुदा को इतना ही फ़ितरी और लाज़िम मानते हैं तो उस वक़्त ख़ुद ख़ुदा ने अपनी ज़ात को क्यों नहीं मनवा लिया? 
जैसा कि मैंने अर्ज़ किया कि अहद ए संग के क़ब्ल आदमी हैवानों का हम सफ़र था, इसके बाद इसको पहाड़ी खोहों, दरख़्तों और ज़मीनी पैदावारों ने कुछ राहत पहुंचाई. प्राकृतिक हल चल से भी कुछ नजात मिली, इंसान इंसानी क़बीलों में रहने लगा जिसकी वजह से इसमें कुछ हिम्मत और ताक़त आई. इसके बावजूद इसे जान तोड़ मेहनत और अपनी सुरक्षा से छुटकारा नहीं मिला. वह इतना थक कर चूर हो जाता कि उसे और कुछ सोचने का मौक़ा ही न मिलता. उस वक़्त तक किसी ख़्दा का विचार इसके दिल में नहीं आया.
वह रचना कालिक सीढ़ियाँ चढ़ता गया, 
चहार दीवारियाँ इंसान को सुरक्षित करती गईं, 
ज़मीनी फ़स्लेँ तरतीब पाने लगीं, 
जंगली जानवर मवेशी बनकर क़ाबू में आने लगे. 
राहत की सासें जब उसे मयस्सर हुईं तो ज़ेहनों को कुछ सोचने का मौक़ा मिला.
इंसानी क़बीलों के कुछ अय्यारों ने इस को भापा और ख़ुदाओं का रूहानी जाल बिछाना शुरू किया. इस कोशिश में वह बहुत कामयाब हुवा. होशियार ओझों के यह फ़ार्मूले ज़ेहनी ख़ुराक के साथ साथ मनोरंजन के साधन भी साबित हुए.
  इस तरह लोगों के मस्तिष्क में ख़ुदा का बनावटी वजूद दाखिल हुवा 
जोकि रस्म व रिवाज बनता हुवा वज्द और जुनून की कैफ़ियत अख़्तियार कर गया. 
दुन्या भर की ज़मीनों पर ख़ुदा अंकुरित हुवा, 
कहीं देव और देवियाँ उपजीं, 
कहीं पैग़मबर और अवतार हुए तो कहीं निरंकार.
 इंसान ज़हीन होता गया, नफ़ा और नुक़सान विकसित हुए, 
फ़ायदे मंद चीज़ों को पूजने की तमीज़ आई, 
जिससे डरा उसे भी पूजना प्रारम्भ कर दिया. 
छोटे और बड़े ख़ुदा बनते गए या यूं कहें कि 
आने वाली महा शक्ति के कल पुर्ज़े ढलना शुरू हुए, 
जो बड़ी ताक़त बनी, उसका ख़ुदा तस्लीम होता गया.

***

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Sunday 29 November 2020

जन्नत की हूरें




जन्नत की हूरें

अरबिस्तान (मिडिल ईस्ट) और तुर्किस्तान (मध्य एशिया) के बाशिदे सेक्सी हुवा करते हैं. इस में अय्याशी कम, संतान उत्पत्ति का जज्बा ज्यादा कारगर है. क्योंकि बच्चे ही उनकी असली संपति होती है. 
उनकी औरतें बच्चा पैदा करने की मशीन होने में समाज का गौरव हुवा करती हैं. हमारे उप महाद्वीप खास कर भारत के लोग सेक्स से ज्यादा, 
आध्यात्मिक हुवा करते हैं. वह सेक्स से दूर भागते हैं. 
सेक्स को समाधि मानते हैं. 
वह इससे बचने के लिए योगी और सन्यासी बन जाते हैं, 
यहाँ ताक कि साधु साध्वी और ब्रह्मचारी भी. 
बाल ब्रहमचर्य तो यहाँ महिमा मंडित हुवा करते हैं, 
गोया महात्मा ने कभी सेक्स-पाप नहीं किया.
बड़ा शांत स्वभाव होता है इनका. एक सामान्य मर्द याऔरत, 
इन्हें नपुंसक भी कह सकते है.  
अरबिस्तान और तुर्किस्तान के बाशिदों का मिज़ाज इसके उल्टा होता है. 
वहां ब्रहमचर्य का तसव्वुर भी नहीं होता. 
बहु विवाह और अनेक बच्चे वाले ही वहां का सम्मान है.
इस्लाम तो ब्रहमचर्य को हराम समझता है. 
न संभोग तो घर बार की ज़िम्मेदारी ही सही,
एक बेबसऔरत या बेवा का सहारा ही सही.
वहां मुस्लिम में माँ, बहिन, बेटियों के लिए कोई आश्रम नहीं होता.
न ही बनारस और विन्द्रा वन जैसे पंडों का बनाया गया क़ैद खाना 
जिस में वह अय्याशी  भी करते हैं और देह व्योपार भी. 
हिन्दू भगवन से मोक्ष की प्रार्थना करता है.
इसके बर अक्स  
इस सेक्सी समाज के लिए अल्लाह कहता है 
तुम अपनी समाजी जिम्मेदारी पूरी तरह से निभावगे 
तो तुमको मरने के बाद भी sex के लिए हूरों के झुण्ड देंगे. 
इनका अल्लाह झूटा हो या बे ईमान, 
औरतों की हिफाज़त करने में सफल है. 
*****


जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Saturday 28 November 2020

अली ने एक क़ौम को जिंदा जला डाला

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अली ने एक क़ौम को जिंदा जला डाला 

हदीस बुख़ारी जदीद उर्दू - 1245

"अली ने एक क़ौम को जिंदा जला दिया, 
ये बात जब उनके चचा अब्बास के कान में पड़ी तो उन्हें उनके इस फ़ेल का सदमा हुवा. उन्होंने ने कहा ये सज़ा अल्लाह को ही ज़ेब देती है, 
बल्कि जो शख़्स अपना दीन बदल दे उसको क़त्ल कर देना चाहिए।" 
*शिया हज़रात ने अली मौला के इतने क़सीदे गढ़े हैं कि हिटलर का शागिर्द मौसुलेनी इनके आगे पानी भरे. उनको मिनी अल्लाह (मौला) कहते हैं, जिनकी हक़ीक़त हदीसें जगह जगह खोलती हैं कि वह घस खुद्दे थे, बुज़दिल थे, लालची थे और इन्तेहाई ज़ालिम शख़्स भी थे. 
जनाब अली मौला ने एक क़ौम को जिंदा जला डाला, मुहम्मद से चार क़दम आगे. भला उस क़ौम की क्या ग़लती रही होगी ? 
वह कितनी बे यार ओ मदद गार रही होगी कि ज़ालिमों के हाथों जल मरी. 
अली के इस अमल से बजरंग दल के दारा सिंह का वाक़ेया ज़ेहन में ताज़ा हो गया, जिसने कार में सोए हुए मिशन के एक ख़ुदाई ख़िदमत गार को उसके दो बच्चों समेत जिंदा जला दिया था. 
एक मुसलमानों का तब्कः कहता है कि इस्लाम को फैलाने में अली मौला का बड़ा हाथ था. इनमे से कुछ इन्हें मुहम्मद के बाद मानते हैं तो कुछ मुहम्मद से पहले. 
इनकी इस मज़मूम और मकरूह कार गुज़ारी के बाद हज़ारो लोग इस मौला को "अली दम दम दे अन्दर और अली का पहला नंबर" 
का दम भरते हैं,
इनमे कोई अज़मत पैदा हो ही सकती नहीं सकती. 
उनकी औलादों का क्या हश्र हुवा ? शायद अली की बद आमालियों का अंजाम है कि  उनके मानने वाले चौदह सौ सालों से सीना कूबी कर कर के उनके गुनाहों की तलाफ़ी कर रहे हैं.
मियां अब्बास कहते हैं की वह होते तो उनको जलाते न, बल्कि क़त्ल कर देते. 
बाप का राज हो गया था कुछ दिनों के लिए. इन इंसानियत सोज़ मज़ालिम के अंजाम में आज दुन्या की तमाम क़ौमों पर इन्तेक़ाम का भूत सवार हो चुका है. अगर ऐसा है तो कोई तअज्जुब की बात नहीं.
मैं ने माना कि वहशत का दौर था, उस वक़्त तमाम क़ौमें वहशत का शिकार थीं मगर कोई उनमे मुहम्मद जैसा घुटा पैग़म्बरी का दावे दार नहीं हुवा जो अपना नापाक साया सैकड़ों साल तक इंसानी आबादी पर क़ायम रखता.
क्या मुसलमान इस बात के मुन्तज़र हैं कि अली का जवाब उनको दिया जाय, जैसे कि स्पेन में हुवा, इससे पहले तर्क इस्लाम कर दें. 
डेनमार्क के दानिश मंद की राय मानते हुए अज़ ख़ुद क़ुरआनी सफ़्हात को नज़रे-आतिश कर दें.
इस्लाम को छोड़ कर ईमान की राह अख़्तियार करें और मोमिन बन जाएं. 


जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Friday 27 November 2020

क़िस्सा-ए-मेराज


क़िस्सा-ए-मेराज 
हदीस 
बुख़ारी जदीद उर्दू - २२३ 
मुहम्मद ने अपनी ज़िन्दगी में जो सब से बड़ा झूट गढ़ा वह क़िस्सा-ए-मेराज था. 
उससे बड़ा सानेहा ये है कि मुसलमान इस झूट पर आज भी यक़ीन रखते हैं. 
ख़ुराफ़ाती ज़ेहन गढ़ता है कि - - -

मैं मक्का में था, यकायक मेरे कमरे की छत शक हुई और जिब्रील नाज़िल हुए. उन्हों ने मेरा सीना चाक करके पाक किया और एक तिशत (कटोरा) जो हिकमत और ईमान से लबरेज़ था, इससे मेरे सीने को पुर किया और सीने को बराबर कर दिया फिर मुझको आसमान की तरफ़ ले चले." 
जब आसमानी दुनिया के करीब पहुंचे. उन्हों ने दरवाज़ा खोलने की फ़रमाइश की. 
आवाज़ आई कौन है? 
जिब्रील ने कहा मैं जिब्रील. 
आवाज़ आई तुम्हारे साथ कौन है ? 
कहा मुहम्मद रसूललिलाह. 
उधर से जवाब आता इन्हें नबी बना कर मबऊस किया गया ? 
जिब्रील के हाँ - - - कहते ही दरवाज़ा खुल गया. 
हम आसमानी दुन्या पर पहुँचे, 
वहां हमने देखा, एक शख़्स को कि उसके दाहिने जानिब भी रूहें है और बाएँ जानिब भी रूहें हैं. 
वह दाएं जानिब देख कर ख़ुशी से हंस देता है और बाएँ जानिब देख कर ग़म से रो देता है. 
उन्हों ने मुझे देखते ही मरहबा कहा और मेरा इस्तक़बाल किया. 
बेटे और नबी के अलफ़ाज़ से मुझे पुकारा. 
मैंने जिब्रील से दरयाफ़्त किया ये कौन हैं? 
बतलाया आदम अलैहिस्सलाम हैं. 
इनकी दाएं जानिब जो इनकी औलादें हैं वह जन्नती हैं और बाएँ जानिब जो औलादें है, वह दोजखी. वह दाएँ के जन्नती औलादों को देख कर हंस देते हैं और बाएँ जानिब दोजख़ियों को देख कर रो देते हैं. 
इसके बाद हम दूसरे आसमान की जानिब चढ़े. 
वहां भी सबिक़ा नौअय्यत दरपेश हुई और दरवाज़ा खोल दिया गया. 
मुहम्मद कहते हैं वहां उन्हों ने आसमानों पर ने ईसा, मूसा और इब्राहीम अलैहिस्सलामान को देखा. 
मुहम्मद आसमान चढ़ते, जिब्रील अलैहिस्सलाम आसमानों का दरवाज़ा खटखटाते और ईसा, इदरीस. और इब्राहीम अलैहिस्सलामान से मिलते मिलाते और अपना ख़ैर मक़दम कराते पांचवीं आसमान पर पहुँच जाते है जहाँ उनकी मुलाक़ात मूसा से होती है. उनसे गुफ़्तुगू करने के बाद सातवें आसमान पर पहुँचते हैं, जहाँ उनकी मुलाक़ात चिलमन की आड़ में बैठे अल्लाह मियाँ से होती है. 
अल्लाह मियाँ  बैठे कुछ लिख रहे थे, उनके क़लम की सरसराहट मुहम्मद को सुनाई पड़ रही थी. 
अल्लाह मियाँ से दरपर्दा पचास रिकत नमाज़ों का तोहफ़ा मुसलमानों के लिए मुहम्मद को मिला. 
मुहम्मद लौटते हुए मूसा से फिर मिले और अपने तोहफ़े से मूसा को आगाही दी. मूसा ने उनको अल्लाह मियाँ के पास लौटाया कि जाओ, इतनी ज्यादा नमाज़ों को कम कराओ. मुहम्मद दो बार इसी तरह गए और लौटे.
बिल-आख़ीर पाँच रिकत मंज़ूर करा के वापस हुए. अल्लाह ने कहा अच्छा पांच बार पढो जिससे पचास रिकात का सवाब मिलेगा अब हमारे क़ौल में तब्दीली नहीं होगी. 
वापसी पर मूसा ने फिर मुहम्मद को समझाया कि तुम्हारी उम्मत के लिए यह भी बहुत ज़्यादः है, कम कराओ, देखो मुझे अपनी उम्मत से सबक़ लिया है कि अल्लाह के फ़रमान की पाबंद नहीं हो सकी.
मुहम्मद ने मूसा से कहा - - -
"अब मुझको अपने परवर दिगार से शर्म आती है, वापस न जाऊँगा" 
अलग़रज़ जिब्रील मुझे वहां से सदरतुल मुन्तेहा पर ले गए. 
मैंने मुख़्तलिफ़ रंगों से मुज़य्यन पाया जो मेरी समझ में नहीं आ सकते. 
वहां से मैं जन्नत में दाख़िल हुवा. 
वहां की मिटटी को देखा कि मुश्क है और मोतियों के हार वहां मौजूद हैं. 

*यह मेराजुन नबी का वाक़ेया तब हुवा था जब मुहम्मद मक्के में थे. 
इतने बड़े वाक़ेए का ज़िक्र हज़रत दस साल बाद मदीने में अपने मुंह लगे साथी अनस को सुनाते हैं.
वाज़ह हो कि एक बार और जिब्रील ने बचपन में इनका सीने को चीड फाड़ कर साफ़ और पाक किया था. जिब्रील को चाहिए था कि वह सीने की बजाए उनका  भेजा पाक साफ़ कराते जोकि झूट की गलाज़त से बदबू दार हो गया था.
मेराजुन नबी का वाक़ेया मुख़्तलिफ़ ओलिमा ने अपने अपने ढंग से मुसलमानों को परोसा है. कहते हैं कि मुहम्मद के इस तवील सफ़र में इतना ही वक़्त लगा था कि जब जिब्रील इनको सफ़र से उस शक हुए कमरे पर छोड़ा था तो दरवाज़े की कुण्डी हिल रही थी जिससे वह निकल कर गए थे और उनका तकिया अभी तक गरम था यानी पल झपकते ही आसमानी सफ़र से वापस आ गए थे.
कहते हैं कि मुहम्मद के साथी और दूसरे ख़लीफ़ा उमर ने मुहम्मद को आगाह किया था कि अगर आप ऐसी पुडिया छोड़ते रहे तो इस्लाम की मुहिम एक दिन छू हो जाएगी. फिर मुहम्मद ने उसके बाद इस क़िस्म की बाज़ी नहीं की. 

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Thursday 26 November 2020

अबू अब्दुल्ला मुहम्मद इब्ने इब्राहीम मुग़ीरा जअफ़ी बुख़ारी


"अबू अब्दुल्ला मुहम्मद इब्ने इब्राहीम मुग़ीरा जअफ़ी बुख़ारी

अल्लाह के मुँह से कहलाई गई मुहम्मद की बातें क़ुरआन जानी जाती हैं 
और मुहम्मद के क़ौल व फ़ेल और कथन हदीसें कहलाती हैं. 
मुहम्मद की ज़िन्दगी में ही हदीसें इतनी भरमार हो गई थीं 
कि उनको मुसलसल बोलते रहने के लिए मुहम्मद को सैकड़ों सालों की ज़िन्दगी चाहिए थी, 
ग़रज़ उनकी मौत के बाद हदीसों पर पाबन्दी लगा दी गई थी, 
उनके हवाले से या हदीसों के हवाले से बात करने वालों की ख़ातिर कोड़ों से होती थी.
डेढ़ सौ साल बाद बुख़ारा में एक मूर्ति पूजक वंश का इब्राहीम मुग़ीरा जअफ़ी मुसलमान हो गया था.उसका पोता
"अबू अब्दुल्ला मुहम्मद इब्ने इब्राहीम मुग़ीरा जअफ़ी बुख़ारी'' हुवा जो कि उर्फ़ ए आम में इमाम बुख़ारी के नाम से इस्लामी दुन्या में जाना जाता है,
 उसने मुहम्मद की तमाम ख़सलतें, झूट, मक्र, ज़ुल्म, ना इंसाफी, बे ईमानी और अय्याशियाँ खोल खोल कर बयान की हैं जिसे गाऊदी मुसलमान समझ ही नहीं सकते. 
इमाम बुख़ारी ने किया है बहुत अज़ीम काम जिसे इस्लाम के ज़ुल्म और जब्र के ख़िलाफ़ ''इंतकाम -ऐ-जारिया'' कहा जा सकता है."
अंधे, बहरे और गूंगे मुसलमान उसकी हिकमत-ए-अमली को नहीं समझ पाएँगे, 
वह तो ख़त्म कुरआन की तर्ज़ पर ख़त्म बुख़ारी शरीफ़ के कोर्स बच्चों को करा के इंसानी जिंदगियों से खिलवाड़ कर रहे हैं.
इस्लामी कुत्ते, ओलिमा लिखते हैं कि 

"इमाम बुख़ारी ने छः लाख हदीसों पर शोध किया और तीन लाख हदीसें कंठस्त कीं, 
इतना ही नहीं तीन तहज्जुद की रातों में एक क़ुरआन ख़त्म कर लिया करते थे 
और इफ़्तार से पहले एक क़ुरआन. हर हदीस लिखने से पहले दो रेकत नमाज़ पढ़ते."

ज़रा ग़ौर करिए इसके लिए इमाम बुख़ारी को कितने हज़ार साल की उम्र दरकार होती ?
 तीन लाख सही हदीसों हाफिज़ दावेदार लिखने पर आए तो सिर्फ १०००० से भी कम हदीसें क़लम बंद कर सके. उनको खंगाल कर उर्दू आलिम अब्दुल दायम अल्जलाली ने २१५५  हदीसें चुनीं.
नाम किताब "जदीद सहिह बुख़ारी शरीफ़ उर्दू "जिसे हवाले के लिए मैंने 
"जदीद बुख़ारी" लिखा है.

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Wednesday 25 November 2020

कुन फ़या कून

कुन फ़या कून

 विद्योत्मा से शिकस्त खाकर मुल्क के चार चोटी के क़ाबिल ज्ञानी पंडित वापस आ रहे थे, रास्ते में देखा कि एक मूरख (कालिदास) पेड़ पर चढा उसी डाल को काट रहा था जिस पर वह सवार था, उन लोगों ने उसे उतार कर उससे पूछा राज कुमारी से शादी करेगा? 
प्रस्ताव पाकर मूरख बहुत ख़ुश हुवा. 
पंडितों ने उसको समझया की तुझको राज कुमारी के सामने जाकर बैठना है, उसकी बात का जवाब इशारे में देना है, जो भी चाहे इशारा कर दे। 
मूरख विद्योत्मा के सामने सजा धजा के पेश किया गया , 
विद्योत्मा से कहा गया महाराज का मौन है, जो बात चाहे संकेत में करें. 
राज कुमारी ने एक उंगली उठाई, जवाब में मूरख ने दो उँगलियाँ उठाईं. 
बहस पंडितों ने किया और विद्योत्मा हार गई। 
दर अस्ल एक उंगली से विद्योत्मा का मतलब एक परमात्मा था जिसे मूरख ने समझा वह उसकी एक आँख फोड़ देने को कह रही है. जवाबन उसने दो उंगली उठाई कि जवाब में मूरख ने राज कुमारी कि दोनों आखें फोड़ देने कि बात कही थी. जिसको पंडितों ने आत्मा और परमात्मा साबित किया. 
कुन फ़या  कून के इस मूर्ख काली दास की पकड़ पैग़म्बरी फ़ार्मूला है जिस पर मुस्लमान क़ौम ईमान रक्खे हुए है. 
ये दीनी ओलिमा कलीदास मूरख के पंडित हैं जो उसके आँख फोड़ने के इशारे को ही मिल्लत को पढा रहे है, दुन्या और उसकी हर शै कैसे वजूद में आई अल्लाह ने कुन फ़या कून कहा और सब हो गया. तालीम, तहक़ीक़ और इर्तेकई मनाजिल की कोई अहमियत और ज़रूरत नहीं. 
डर्बिन ने सब बकवास बकी है. सारे तजरबे गाह इनके आगे फ़ैल. 
उम्मी की उम्मत उम्मी ही रहेगी, इसके पंडे मुफ़्त खो़री करते रहेंगे. 
उम्मत को दो+दो=पॉँच पढाते रहेंगे . 
यही मुसलामानों की क़िसमत है. 
अल्लाह कुन फ़या कून के जादू से हर काम तो कर सकता है मगर पिद्दी भर शहर मक्का के काफ़िरों को इस्लाम की घुट्टी नहीं पिला सकता. 
ये काएनात जिसे आप देख रहे हैं करोरो अरबो सालों के इर्तेकाई रद्दे अमल का नतीजा है, किसी के  कुन फ़या कून कहने से नहीं बनी. 
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जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Tuesday 24 November 2020

इतिहास


इतिहास 

पाषाण युग से लेकर परमाणु युग तक के इर्तेकाई (रचना कालिक) काल, युग अंश की रूप रेखा इतिहास होता है. 
आज के परिवेश में बैठ कर इतिहास को पता  भर ही जाना जा सकता है, 
पढ़ा और समझा नहीं जा सकता. 
कुछ मित्र मार्क्स वाद और प्रजा तांत्रिक की समझ के आईने में झांक कर इतिहास को समझने की कोशिश करते हैं, 
उनको राय है कि इतिहास को समझने के लिए उस इर्तेकाई काल में जी कर इतिहास को समझे.
अतीत में राजा और प्रजा की कल्पना ,
पालक और पालतू  जैसी हुवा करती थी. 
पालतू (जनता) को पेट भर भोजन, 
स्वादानुसार भोजन, 
आवास,संरक्षण और शांत जीवन मात्र से पालक का वास्ता हुवा करता था, 
पालक की प्रशाशनीय व्योवस्था क्या है ? 
इससे पालतू को कोई लेना देना नहीं था. 
वह मंदिर को लूट कर माल लाता हो या मस्जिद को तोड़ कर, 
उसकी सुविधा का ख़याल रखता हो.
महमूद गजनवी ने सत्तरह घुड सवारों को लेकर सोम नाथ को लूट के  गजनी ले गया, हज़ारों मील का सफ़र था, जनता जनार्दन ने उसे देखा और मात्र इतना कहा "कोई राजा किसी राजा पर हमला करने जा रहा है."
जनता में उस वक़्त कोई देश भक्ति थी न हुब्बुल वतनी. 
उसे क्या लेना देना राजाओं के खेल से ?

पहले आम दस्तूर हुवा करता था राजा ने धर्म बदला, 
प्रजा ने भी उसके नए धर्म को स्वीकार कर लिया, 
भारत के इतिहास में सम्राट अशोक की कहानी इस बात की खुली मिसाल है. 
राजा जनता के मेहनत और देश की उपज को जनता हे हक़ में न सर्फ़ करके अपने अय्याशियों में सर्फ़ करता है, 
महल और रानिवासे बनवाता है, 
तबतो ज़रूर पालक के ख़िलाफ़ पालतू के कान खड़े होते. 
पालक आपस में एक दूसरे का हक़ मारते तो उनकी आपस में आवाज़ बुलंद होती. 

मेरे बचपन में बस्ती के फ़क़ीर झोली लिए भीख मांगते 
और कुत्ते उन पर भौंकते.
शेख़ सअदी इसे इस तरह रूप देते हैं कि,
कुत्ता फ़क़ीर से कहता है, मैं रात व दिन बस्ती की रखवाली करता हूँ और बदले में दर दर जाकर एक कौर की उम्मीद करता हूँ, 
कौर मिला तो खा लिया, न मिला तो भूखे पेट पड रहा. 
और तू पेट को झोली बना कर मांगता रहता है जो कभी भारती ही नहीं.

कुछ बादशाहों ने अपनी ज़िन्दगी पालक बन कर ही नहीं,
 पालतू की (प्रजा की) तहर ही जिया है .
प्रजा को उसके राज तंत्र से कोई वास्ता नहीं कि उसने अपने भाइयों को मार कर व्योवस्था कायम की हो या बाप को क़ैद करके .
राज कुमारों के शीश काटे हों या आस पास के राजाओं की गर्दनें उड़ाई हों, 
जिनका बाप बना है, उनको कैसे पाला .  
उनके कर्मों का हिसाब उनकी नस्लें चुकाएंगी.

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

ज़्यारत गाहें और सफ़ाई


 इतिहास 

पाषाण युग से लेकर परमाणु युग तक के इर्तेकाई (रचना कालिक) काल, युग अंश की रूप रेखा इतिहास होता है. 
आज के परिवेश में बैठ कर इतिहास को पता  भर ही जाना जा सकता है, 
पढ़ा और समझा नहीं जा सकता. 
कुछ मित्र मार्क्स वाद और प्रजा तांत्रिक की समझ के आईने में झांक कर इतिहास को समझने की कोशिश करते हैं, 
उनको राय है कि इतिहास को समझने के लिए उस इर्तेकाई काल में जी कर इतिहास को समझे.
अतीत में राजा और प्रजा की कल्पना ,
पालक और पालतू  जैसी हुवा करती थी. 
पालतू (जनता) को पेट भर भोजन, 
स्वादानुसार भोजन, 
आवास,संरक्षण और शांत जीवन मात्र से पालक का वास्ता हुवा करता था, 
पालक की प्रशाशनीय व्योवस्था क्या है ? 
इससे पालतू को कोई लेना देना नहीं था. 
वह मंदिर को लूट कर माल लाता हो या मस्जिद को तोड़ कर, 
उसकी सुविधा का ख़याल रखता हो.
महमूद गजनवी ने सत्तरह घुड सवारों को लेकर सोम नाथ को लूट के  गजनी ले गया, हज़ारों मील का सफ़र था, जनता जनार्दन ने उसे देखा और मात्र इतना कहा "कोई राजा किसी राजा पर हमला करने जा रहा है."
जनता में उस वक़्त कोई देश भक्ति थी न हुब्बुल वतनी. 
उसे क्या लेना देना राजाओं के खेल से ?

पहले आम दस्तूर हुवा करता था राजा ने धर्म बदला, 
प्रजा ने भी उसके नए धर्म को स्वीकार कर लिया, 
भारत के इतिहास में सम्राट अशोक की कहानी इस बात की खुली मिसाल है. 
राजा जनता के मेहनत और देश की उपज को जनता हे हक़ में न सर्फ़ करके अपने अय्याशियों में सर्फ़ करता है, 
महल और रानिवासे बनवाता है, 
तबतो ज़रूर पालक के ख़िलाफ़ पालतू के कान खड़े होते. 
पालक आपस में एक दूसरे का हक़ मारते तो उनकी आपस में आवाज़ बुलंद होती. 

मेरे बचपन में बस्ती के फ़क़ीर झोली लिए भीख मांगते 
और कुत्ते उन पर भौंकते.
शेख़ सअदी इसे इस तरह रूप देते हैं कि,
कुत्ता फ़क़ीर से कहता है, मैं रात व दिन बस्ती की रखवाली करता हूँ और बदले में दर दर जाकर एक कौर की उम्मीद करता हूँ, 
कौर मिला तो खा लिया, न मिला तो भूखे पेट पड रहा. 
और तू पेट को झोली बना कर मांगता रहता है जो कभी भारती ही नहीं.

कुछ बादशाहों ने अपनी ज़िन्दगी पालक बन कर ही नहीं,
 पालतू की (प्रजा की) तहर ही जिया है .
प्रजा को उसके राज तंत्र से कोई वास्ता नहीं कि उसने अपने भाइयों को मार कर व्योवस्था कायम की हो या बाप को क़ैद करके .
राज कुमारों के शीश काटे हों या आस पास के राजाओं की गर्दनें उड़ाई हों, 
जिनका बाप बना है, उनको कैसे पाला .  
उनके कर्मों का हिसाब उनकी नस्लें चुकाएंगी.
***

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Monday 23 November 2020

क़ुरानी निज़ाम ए हयात


क़ुरानी निज़ाम ए हयात 

मैं फिर इस बात को दोहराता हूँ कि मुसलमान समझता है कि इस्लाम में कोई ऐसी नियमा वली है जो उसके लिए मुकम्मल है, ये सोच  बिलकुल बे बुन्याद है, 
बल्कि क़ुरआन की नियम तो मुसलमानों को पाताल में ले जाते हैं. 
मुसलमानों ने क़ुरानी निज़ाम ए हयात को कभी अपनी आँखों से नहीं देखा, 
बस कानों से सुना भर है. इनका कभी क़ुरआन का सामना हुवा है, 
तो तिलावत के लिए. 
मस्जिदों में कुवें के मेंढक मुल्ला जी अपने ख़ुतबे में जो उल्टा सीधा समझाते हैं, ये उसी को सच मानते हैं. जदीद तालीम और साइंस का स्कालर भी समाजी लिहाज़ में आकर जुमा जुमा नमाज़ पढने चला ही जाता है. 
इसके माँ  बाप ठेल ढकेल कर इसे मस्जिद भेज ही देते हैं, वह भी अपनी आक़बत की ख़ातिर. मज़हब इनको घेरता है कि हश्र के दिन अल्लाह इनको जवाब तलब करेगा कि अपनी औलाद को टनाटन मुसलमान क्यूँ नहीं बनाया ? 
और कर देगा जहन्नम में दाखिल.
क़ुरआन में ज़मीनी ज़िन्दगी के लिए कोई गुंजाईश नहीं है, 
जो है वह क़बीलाई है, निहायत फ़रसूदा. क़ब्ल ए इस्लाम, अरबों में रिवाज था कि शौहर अपनी बीवी को कह देता था कि तेरी पीठ मेरी माँ या बहन की तरह हुई, 
बस उनका तलाक़ हो जाया करता था. इसी तअल्लुक़ से एक वक़ेआ हुवा कि  कोई ओस बिन सामत नाम के शख़्स ने ग़ुस्से में आकर अपनी बीवी हूला को तलाक़ का मज़कूरा जुमला कह दिया. 
बाद में दोनों जब होश में आए तो एहसास हुआ कि ये तो बुरा हो गया. 
इन्हें अपने छोटे छोटे बच्चों का ख़याल आया कि इनका क्या होगा? 
दोनों मुहम्मद के पास पहुँचे और उनसे दर्याफ़्त किया कि उनके नए अल्लाह इसके लिए कोई गुंजाईश रखते हैं ? कि वह इस आफ़त ए नागहानी से नजात पाएँ. 
मुहम्मद ने दोनों की दास्तान सुनने के बाद कहा तलाक़ तो हो ही गया है, 
इसे फ़रामोश नहीं किया जा सकता. 
बीवी हूला खूब रोई पीटी और मुहम्मद के सामने गींजी कि नए अल्लाह से कोई हल निकलवाएँ. 
फिर हाथ उठा कर सीधे अल्लाह से वह मुख़ातिब हुई और जी भर के अपने दिल की भड़ास निकाली, 
नोट :-
मेरे हिंदी लेख ख़ास कर उन मुस्लिम नव जवानो के लिए होते हैं जो उर्दू नहीं जानते. अगर इसे ग़ैर मुस्लिम भी पढ़ें तो अच्छा है, हमें कोई एतराज़ नही, 
बस इतनी ईमान दारी के साथ कि अपने गरेबान में मुंह डाल कर देखें 
कि कहीं उनके धर्म में भी कोई मानवीय मूल्य आहत तो नहीं होते. धन्यवाद
***** 

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Sunday 22 November 2020

ज़्यारत गाहें और सफ़ाई

ज़्यारत गाहें और सफ़ाई
 
क्या आपने कभी ग़ौर किया है कि सारी दुन्या में मुसलमान पसमान्दा क्यूं हैं? 
सारी दुन्या को छोड़ें अपने मुल्क भारत में ही देखें कि मुसलमान एक दो नहीं हर मैदान में सब से पीछे हैं. मैं इस वक़्त इस बात का एहसास शिद्दत के साथ कर रहा हूँ . 
क्यों कि मैं Ved is at your door '' के मुतहर्रिक स्वर्गीय स्वामी चिन्मयानानद के आश्रम के एक कमरे में मुकीम हूँ, जो कि हिमालयन बेल्ट हिमांचल प्रदेश में तपोवन के नाम से मशहूर है. आश्रम साफ़ शफ़्फ़फ़, कहीं गंदगी का नाम निशान नहीं, वाकई यह जगह धरती पर एक स्वर्ग जैसी है. ईमान दारी ऐसी कि कमरों में ताले की ज़रुरत नहीं. सिर्फ़ सौ रुपिए रोज़ में रिहाइश और ख़ू राक बमय चाय या कोफी. ज़रुरत पड़े तो इलाज भी मुफ्त. 
मैं यहाँ अपने मोमिन के नाम से आज़ादाना रह रहा हूँ, उनके दीक्षा प्रोग्रामो में हिस्सा लेकर अपनी जानकारी में अज़ाफ़ा भी कर रहा हूँ. 
इनकी शिक्षा में कहीं कोई नफ़रत का पैग़ाम नहीं है. जदीद तरीन इंसानी क़द्रों के साथ साथ धर्म का ताल मेल भी, आप उनसे खुली बहेस भी कर सकते हैं. 
मैं ने यहाँ हिन्दू धर्म ग्रंथों का ज़ख़ीरा पाया और जी भर के मुतालिआ किया.
इसी तरह मैंने कई मंदिर, गुरु द्वारा, गिरजा देखा,
 बहाइयों का लोटस टेम्पिल देखा, ओशो आश्रम में रहा , 
इन जगहों में दाख़िले पर जज़्बए एहतराम पैदा होता है , 
इसके बरअक्स मुसलामानों के दरे अक़दस पर दिल बुरा होता है और नफ़रत के साथ वापसी होती है. चाहे वह ख़्वाजा अजमेरी की दरगाह हो या निज़ामुद्दीन का दर.  
जामा मस्जिद हो या मुंबई का हाजी अली. जाने में कराहियत होती है. 
आने जाने के रास्तों पर गन्दगी के ढेर के साथ साथ भिखारियों, अपाहिजों और कोढियों की मुसलसल कतारें राह पार करना दूभर कर देती है. 
मुजाविर (पण्डे) अकीदत मंदों की जेबें ख़ाली करने पर आमादः रहते हैं. 
मेरी अक़ीदत मन्द अहलिया निजामुद्दीन औलिया की दरगाह पहुँचने से पहले ही भैंसे की गोश्त की सडांध, और गंदगी के बाईस उबकाई करने लगीं. 
बेहूदे फूल फरोश फूलों की डलिया मुँह पर लगा देते है. वह बग़ैर ज़्यारत किए वापस हुईं. इसी तरह अजमेर की दरगाह में लगे मटकों का पानी पीना गवारा न किया, 
सारी आस्था वहाँ बसे भिखारियों और हराम खो़र मुजविरों के नज़र हो गई.
औरों के और मुसलामानों के ये क़ौमी ज़्यारत गाहें, क़ौमों के मेयार का आइना दार हैं.. 
मुसलमान आज भी बेहिस हैं जिसकी वजेह है दीन इस्लाम. 
दूसरी क़ौमों ने परिवर्तन के तक़ाज़ों को तस्लीम कर लिया है और वक़्त के साथ साथ क़दम मिला कर चलती हैं. मुसलमान क़ुरआनी झूट को गले में बांधे हुए है. क़ुरआनी और हदीसी असरात ही इनके तमद्दुनी मर्काज़ों पर ग़ालिब है. 
मुसलमान दिन में पाँच बार मुँह हाथ और पैरों को धोता है जिसे वजू कहते हैं और बार बार तनासुल (लिंग) को धोकर पाक करता है, मगर नहाता है आठवें दिन जुमा जुमा. 
उसके कपडे साफ़ी हो जाते हैं मगर उसमें पाकी बनी रहती है. नतीजतन उसके कपडे और जिस्म से बदबू आती रहती है. जहाँ जायगा अपनी दीनी बदबू के साथ. मुसलामानों को यह वर्सा मुहम्मद से मिला है. वह भी गन्दगी पसंद थे कई हदीसें इसकी गवाह हैं, अक्सर बकरियों के बाड़े में नमाज़ पढ़ लिया करते.
दूसरी बात ज़कात और ख़ै रात की रुकनी पाबंदी ने क़ौम को भिखारी ज़्यादः बनाया है जिसकी वजेह से मेहनत की कमाई हुई रोटी को कोई दर्जा ही नहीं मिला. 
सब क़ुरआनी बरकतें है, 
जहां सदाक़त नहीं होती वहां सफ़ाई भी नहीं होती और न कोई मुसबत अलामत पैदा हो पाती है.
आश्रम में कव्वे, कुत्ते कहीं नज़र नहीं आते, इनके लिए कहीं कोई गंदगी छोड़ी ही नहीं जाती. ख़ूबसूरत चौहद्दी में शादाब दरख़्त, उनपर चहचहाते हुए परिंदों के झुण्ड. जो कानों में रस घोलते हैं. 
ऐसी कोई मिसाल भारत उप महाद्वीप में मुसलामानों की नहीं है. 
यहाँ जो भी तालीम दी जाती है उसमें क़ुरआनी नफ़रत  होती है जो इंसानों के हक़ में नहीं.
*****

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Saturday 21 November 2020

ऐ ईमान वालो!


ऐ ईमान वालो! 

''ऐ ईमान वालो! जब तुम काफ़िरों के मुक़ाबिले में रू बरू हो जाओ तो इन को पीठ मत दिखलाना और जो शख़्स इस वक़्त पीठ दिखलाएगा, अल्लाह के गज़ब में आ जाएगा और इसका ठिकाना दोज़ख होगा और वह बुरी जगह है. 
सो तुम ने इन को क़त्ल नहीं किया बल्कि अल्लाह ने इनको क़त्ल किया 
और आप ने नहीं फेंकी (?) , 
जिस वक़्त आप ने फेंकी थी, 
मगर अल्लाह ने फेंकी 
और ताकि मुसलामानों को अपनी तरफ़ से उनकी मेहनत का ख़ूब एवज़ दे. 
अल्लाह तअला ख़ूब सुनने वाले हैं.''
 (अल्लाह की यह फेंक अल्लाह ही जनता है )
सूरह -इंफाल - ८ नौवाँ परा आयत (१५-१६-१७)

मज़ाहिब ज़्यादः तर इंसानी ख़ून के प्यासे नज़र आते हैं ख़ास कर इस्लाम और यहूदी मज़हब. इसी पर उनकी इमारतें खड़ी हुई हैं धर्म ओ मज़हब को भोले भाले लोग इनके दुष प्रचार से इनको पवित्र समझते हैं और इनके जाल में आ जाते हैं. तमाम धार्मिक आस्थाओं का योग मेरी नज़र में एक इंसानी ज़िन्दगी से कमतर होता है. 
गढ़ा हुवा अल्लाह मुहम्मद की क़ातिल फ़ितरत का खुलकर मज़हिरा करता है. 
आज की जगी हुई दुनिया में अगर मुसलामानों के समझ में यह बात नहीं आती तो वह अपनी क़ब्र अपने हाथ से तैयार कर रहे हैं. 
क़ुरआन में अल्लाह फेंकता है यह कोई अरबी इस्तेलाह रही होगी मगर आप हिदी में इसे बजा तौर पर समझ लें कि अल्लाह जो फेंकता है वह दाना फेंकने की तरह है, बण्डल छोड़ने की तरह है और कहीं कहीं ज़ीट छोड़ने की तरह.
नोट :-
मेरे हिंदी लेख ख़ास कर उन मुस्लिम नव जवानो के लिए होते हैं जो उर्दू नहीं जानते. अगर इसे ग़ैर मुस्लिम भी पढ़ें तो अच्छा है, हमें कोई एतराज़ नही, 
बस इतनी ईमान दारी के साथ कि अपने गरेबान में मुंह डाल कर देखें 
कि कहीं उनके धर्म में भी कोई मानवीय मूल्य आहत तो नहीं होते. धन्यवाद


जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Tuesday 17 November 2020

ईमान


ईमान      

सिने बलूग़त से पहले मैं ईमान का मतलब माली लेन देन की पुख़्तगी को समझता रहा, मगर जब मुस्लिम समाज में प्रचलित शब्द "ईमान" को जाना तो मालूम हुवा कि 
"कलमाए शहादत", पर यक़ीन रखना ही इस्लामी इस्तेलाह (परिभाषा) में ईमान है, 
जिसका माली लेन देन से कोई वास्ता नहीं. 
कलमाए शहादत का निचोड़ है अल्लाह, रसूल, क़ुरआन और इनके फ़रमूदात पर आस्था के साथ यक़ीन रखना, ईमान कहलाता है. 
सिने बलूग़त आने पर एहसास ने इस पर अटल रहने से बग़ावत करना शुरू कर दिया 
कि इन की बातें माफ़ौक़ुल फ़ितरत (अप्राकृतिक और अलौकिक) हैं. 
मुझे इस बात से मायूसी हुई कि लेन देन का पुख़्ता होना ईमान नहीं है 
जिसे आज तक मैं समझरहा था. 
बस्ती के बड़े बड़े मौलानाओं की बेईमानी पर मैं हैरान हो जाता कि 
ये कैसे मुसलमान हैं? 
मुश्किल रोज़ बरोज़ बढ़ती गई कि इन बे-ईमानियों पर ईमान रखना होगा.? 
धीरे धीरे अल्लाह, रसूल और क़ुरआनी फ़रमानों का मैं मुंकिर होता गया और 
ईमाने-अस्ल मेरा ईमान बनता गया कि क़ुदरती सच ही सच है. 
ज़मीर की आवाज़ ही हक़ है.
हम ज़मीन को अपनी आँखों से गोल देखते है जो सूरज के गिर्द चक्कर लगाती है, 
इस तरह दिन और रात हुवा करते हैं. 
अल्लाह, रसूल, क़ुरान और इनके फ़रमूदात पर यक़ीन करके इसे रोटी की तरह चिपटी माने, और सूरज को रात के वक़्त अल्लाह को सजदा करने चले जाना, 
अल्लाह का उसको मशरिक की तरफ़ से वापस करना - - -  
ये मुझको क़ुबूल न हो सका. 
मेरी हैरत की इन्तहा बढ़ती गई कि मुसलमानों का ईमान कितना कमज़ोर है. 
कुछ लोग दोनों बातो को मानते हैं, 
इस्लाम के रू से वह लोग मुनाफ़िक़ हुए यानी दोग़ले. 
दोग़ला बनना भी मुझे मंज़ूर न हुवा.
मुसलमानों! 
मेरी इस उम्रे-नादानी से सिने-बलूग़त के सफ़र में आप भी शामिल हो जाइए और 
मुझे अक़ली पैमाने पर टोकिए, जहाँ मैं ग़लत लगूँ. 
इस सफ़र में मैं मुस्लिम से मोमिन हो गया, जिसका ईमान, 
सदाक़त पर अपने अक़ले-सलीम के साथ सवार है. 
आपको दावते-ईमान है कि आप भी मोमिन बनिए 
और आने वाले बुरे वक़्त से नजात पाइए. 
आजके परिवेश में देखिए कि मुसलमान ख़ुद मुसलमानों का दुश्मन बना हुआ है, 
वह भी पाकिस्तान, अफ़ग़ानिस्तान, ईराक़ और दीगर मुस्लिम मुमालिक में
आपस में मद्दे-मुक़ाबिल है. 
बाक़ी जगह ग़ैर मुस्लिमो को वह अपना दुश्मन बनाए हुए है. 
क़ुरान के नाक़िस पैग़ाम अब दुन्या के सामने अपने असली रूप में 
हाज़िर और नाज़िल हैं. 
इंसानियत की राह में हक़ परस्त लोग इसको क़ायम नहीं रहने देंगे, 
वह सब मिलकर इस ग़ुमराह कुन इबारत को ग़ारत कर देंगे, 
उसके फ़ौरन बाद आप का नंबर होगा. 
जागिए मोमिन हो जाने का क़स्द करिए, 
 मोमिन बनना इतना आसान भी नहीं, 
सच बोलने और सच जीने में लोहे के चने चबाने पड़ते हैं. 
मोमिन बन जाने के सब आसान हो जाता है, 
इसके बाद तरके-इस्लाम का एलान कर दीजिए.
***
जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Monday 16 November 2020

क़ुरानी निज़ाम ए हयात

क़ुरानी निज़ाम ए हयात 

मैं फिर इस बात को दोहराता हूँ कि मुसलमान समझता है कि इस्लाम में कोई ऐसी नियमा वली है जो उसके लिए मुकम्मल है, ये सोच  बिलकुल बे बुन्याद है, बल्कि क़ुरआन की नियम तो मुसलमानों को पाताल में ले जाते हैं. 
मुसलमानों ने क़ुरानी निज़ाम ए हयात को कभी अपनी आँखों से नहीं देखा, 
बस कानों से सुना भर है. इनका कभी क़ुरआन का सामना हुवा है, 
तो तिलावत के लिए. 
मस्जिदों में कुवें के मेंढक मुल्ला जी अपने ख़ुतबे में जो उल्टा सीधा समझाते हैं, ये उसी को सच मानते हैं. जदीद तालीम और साइंस का स्कालर भी समाजी लिहाज़ में आकर जुमा जुमा नमाज़ पढने चला ही जाता है. 
इसके माँ  बाप ठेल ढकेल कर इसे मस्जिद भेज ही देते हैं, वह भी अपनी आक़बत की ख़ातिर. मज़हब इनको घेरता है कि हश्र के दिन अल्लाह इनको जवाब तलब करेगा कि अपनी औलाद को टनाटन मुसलमान क्यूँ नहीं बनाया और कर देगा जहन्नम में दाखिल.
क़ुरआन में ज़मीनी ज़िन्दगी के लिए कोई गुंजाईश नहीं है, 
जो है वह क़बीलाई है, निहायत फ़रसूदा. क़ब्ल ए इस्लाम, अरबों में रिवाज था कि शौहर अपनी बीवी को कह देता था कि तेरी पीठ मेरी माँ या बहन की तरह हुई, बस उनका तलाक़ हो जाया करता था. इसी तअल्लुक़ से एक वक़ेआ हुवा कि कोई ओस बिन सामत नाम के शख़्स ने ग़ुस्से में आकर अपनी बीवी हूला को तलाक़ का मज़कूरा जुमला कह दिया. 
बाद में दोनों जब होश में आए तो एहसास हुआ कि ये तो बुरा हो गया. 
इन्हें अपने छोटे छोटे बच्चों का ख़याल आया कि इनका क्या होगा? 
दोनों मुहम्मद के पास पहुँचे और उनसे दर्याफ़्त किया कि उनके नए अल्लाह इसके लिए कोई गुंजाईश रखते हैं ? कि वह इस आफ़त ए नागहानी से नजात पाएँ. 
मुहम्मद ने दोनों की दास्तान सुनने के बाद कहा तलाक़ तो हो ही गया है, 
इसे फ़रामोश नहीं किया जा सकता. 
बीवी हूला खूब रोई पीटी और मुहम्मद के सामने गींजी कि नए अल्लाह से कोई हल निकलवाएँ. 
फिर हाथ उठा कर सीधे अल्लाह से वह मुख़ातिब हुई और जी भर के अपने दिल की भड़ास निकाली, 
नोट :-
मेरे हिंदी लेख ख़ास कर उन मुस्लिम नव जवानो के लिए होते हैं जो उर्दू नहीं जानते. अगर इसे ग़ैर मुस्लिम भी पढ़ें तो अच्छा है, हमें कोई एतराज़ नही, 
बस इतनी ईमान दारी के साथ कि अपने गरेबान में मुंह डाल कर देखें 
कि कहीं उनके धर्म में भी कोई मानवीय मूल्य आहत तो नहीं होते. धन्यवाद
*****

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Sunday 15 November 2020

क़ुदरत के क़ानून


क़ुदरत के क़ानून 

क़ुदरत के कुछ अटल क़ानून हैं. 
इसके कुछ अमल हैं और हर अमल का रद्दे अमल, 
इस सब का मुज़ाहिरा और नतीजा है सच, 
जिसे क़ुदरती सच भी कहा जा सकता है.
क़ुदरत का क़ानून है 2+2=4 इसके इस अंजाम 4 के सिवा 
न पौने चार हो सकता है न सवा चार. 
क़ुदरत जग जाहिर (ज़ाहिर) है और तुम्हारे सामने मौजूद है.
क़ुदरत को पूजने की कोई लाजिक नहीं हो सकती, कोई जवाज़ नहीं, 
मगर तुम इसको इससे हट कर पूजना चाहते हो, 
इस लिए होशियारों ने इसका ग़ायबाना बना दिया है. 
उन्हों ने क़ुदरत को माफ़ौक़ुल फ़ितरत (अलौकिक) शक्ल देकर 
अल्लाह और भगवन वग़ैरा बना दिया है. 
तुम्हारी चाहत की कमज़ोरी का फ़ायदा ये समाजी कव्वे उठाया करते है. 
तुम्हारे झूठे पैग़मबरों ने क़ुदरत की वल्दियत भी पैदा कर रखा है 
कि सब उसकी क़ुदरत है.  
दर असल दुन्या में हर चीज़ क़ुदरत की ही क़ुदरत है, 
जिसे समझाया जाता है कि इंसानी ज़ेहन रखने वाला, 
उस अल्लाह की क़ुदरत है.
क़ुदरत कहाँ कहती है कि तुम मुझको तस्लीम करो, पूजो और मुझसे डरो? 
क़ुदरत का कोई अल्लाह नहीं और अल्लाह की कोई क़ुदरत नहीं. 
दोनों का दूर दूर तक कोई रिश्ता नहीं. 
क़ुदरत ख़ालिक़ भी है और मख़लूक़ भी. 
वह मंसूर की माशूक भी है और राबिया बसरी का आशिक़ भी. 
भगवानों, रहमानों और शैतानों का उस के साथ दूर का भी रिश्ता नहीं है. 
देवी देवता और अवतार पयंबर तो उससे नज़रें भी नहीं मिला सकते. 
क़ुदरत के अवतार बने जो पयंबर हैं, सब झूटे हैं.
उसके मद्दे मुक़ाबिल खड़े हुए उसके खोजी हमारे साइंसटिस्ट हैं, 
जिनकी शान है उनकी फ़रमाए हुए मज़ामीन और उनके नतायज 
जो मख़लूक़ को सामान ए ज़िंदगी देते हैं. 
मजदूरों को मशीने देते है और किसानो को नई नई भरपूर फ़सलें. 
यही मेहनत कश इस कायनात को सजाने और संवारने में लगे हुए हैं. 
सच्चे फ़रिश्ते यही हैं.
तुम अपने गरेबान में मुँह डाल कर देखो कि कहीं तुम भी तो 
इन अल्लाह फ़रोशो के शिकार तो नहीं?
क़ुदरत को सही तौर पर समझ लेने के बाद, 
इसके हिसाब से ज़िंदगी बसर करना ही जीने का सलीक़ा है.
***

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Saturday 14 November 2020

मेरा इख़्तिसार


मेरा इख़्तिसार (संक्षिप्त) 

ख़ुश हाल किसान का पोता और बदहाल मज़दूर का बेटा, 
मैं एक साधारण परिवार से हूँ .  
दस साल की उम्र तक स्कूल का मुंह नहीं देखा था, 
मामा ने मोहल्ले में जूनियर हाई स्कूल खोला, 
पांचवीं पास बच्चे उन्हें कक्षा 6 के लिए मिल गए, 
बाहर  बरांडे में मोहल्ले के अनपढ़ और लाख़ैरे बच्चे बैठने लगे, 
उनमें से एक भी था. 
पढ़ाई की ललक दिल में थी मामा ने मुझे समझा और 
कक्षा ६ में मुझे बैठने की इजाज़त दे दी.  
मुझे तालीम का सिरा मिल गया था, 
मैं दर्जा नौ में आते आते क्लास टॉप कर गया. 
और पांच साल में ही हाई स्कूल कर लिया. 
बदहाली ने आगे पढ़ने न दिया, 
पांच साल ग़ुरबत से लड़ने की नाकाम कोशिश की, 
उसके बाद तरक़्क़ी का सिरा मेरे हाथ लगा, 
पुवर फंड लेकर पढ़ने वाले तालिब इल्म ने लाखों रुपए इनकम टैक्स भरे.  
बड़ी ईमानदारी की रोज़ी कमाई. 
साठ साल की उम्र आते आते अपनी माली तरक़्क़ी से भी मेरा मन भर गया. 
मैं सोलह साल की नाबालिग़ उम्र तक मज़हबी रहा, 
उसके बाद मज़हब को मैंने अपनी आँखों से देखना शुरू किया , 
मैं ने पाया कि धर्म व् मज़हब में जितना झूट और फ़रेब है, 
उतना और कहीं नहीं . 
कारोबार से फ़ारिग़ होने के बाद मैंने अपना समय सच्चाई को पाने के 
लिए वक़्फ़ कर दिया,
सालों साल से दिल में जमा उदगार फटने लगा. 
मैं 50 साल से अपनी तहरीर से इंसानी ज़ेहन खोल रहा हूँ,
जिसमें शेर व् शायरी भी एक माध्यम है . 
***

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Friday 13 November 2020

नामी गिरामी


नामी गिरामी 

गहरवार ठाकुर वंसज के एक पुरुष हुए जिनका काल्पनिक नाम - - -
नामी गिरामी रख कर मैं उनका संक्षेप में इतिहास बतलाता हूँ - - - 
नामी गिरामी रात को सोए तो सुबह उठ कर परिवार और समाज के लोगों को इकठ्ठा किया और एलान किया कि - - -
मैंने रात को नींद के आलम में अपनी यवनि (मुसलमान) उप पत्नी का झूटा पानी पी लिया है, इसलिए अब मैं हिन्दू धर्म में रहने योग्य नहीं रहा .
 मैं कालिमा पढ़ के मुसलमान हो रहा हूँ. 
और वह पल भर में मुसलमान हो गए.

नामी गिरामी के निर्णय को सुनकर महफ़िल अवाक रह गई 
और माहौल में मौत का सा सन्नाटा छा गया .
पंडितों और प्रोहितों ने उन्हें हज़ार समझाया और प्रयास किया कि वेद मन्त्रों के अनुष्ठान में इसका निदान है, मगर नामी गिरामी इसके लिए राज़ी न हुए, तो न हुए .
नामी गिरामी के निर्णय से परिवार पर विपत्ति ही आ गई, 
दो छोटे भाइयों ने घर बार छोड़ कर दूर देश बसाया, 
दो हिन्दू पत्नियों में से एक ने वैराग ले लिया और 
दूसरी ने नामी गिरामी का साथ दिया . 
नामी गिरामी शेरशाह सूरी के गहरे प्रभाव में थे, 
उसके पतन के साथ साथ नामी गिरामी पर भी ज़वाल आया, 
उन्हें अपना राज्य छोड़ कर दर बदर होना पड़ा.
मैं जुनैद मुंकिर उन्हीं नामी गिरामी कि चौदहवीं संतान हूँ. 
मेरे भीतर उन्ही पूर्वजों का हिदू ख़ून प्रवाह कर रहा है. 
मुसलमान गहरवारों का अपने हिदू गहरवारों से हमेशा संपर्क रहा है . 
मुझे अपने एक बुज़ुर्ग की चिट्ठी आई कि - - - 
आपके लिए हमेशा द्वार खुले हैं, चाहें तो घर वापसी कर लें, स्वागत है.
मै ने उनको जवाब दिया कि 
आप अनजाने में वही ग़लती मुझ से करवाना चाहते है 
जो मेरे पूर्वज नामी गिरामी ने किया था. 
उनकी मजबूरी थी कि उस समय इस्लाम के अलावा 
उनके पास कोई दूसरा विकल्प नहीं था 
मगर 400 सालों बाद मेरे पास विकल्प है, 
मैं मुसलमान से हट कर मानव-मात्र हो गया हूँ. 
अब मानव धर्म ही मेरा धर्म है.

 इस दास्तान को बयान करने की वजह यह है कि मेरा ज़मीर चाहता है 
कि मैं अपने हिन्दू भाइयों को भी स्वाभाविक सच्चाइयों से आगाह करूँ, 
उनकी ख़ामियां और ख़ूबिया उनके सामने रखूं , 
ख़्वाह परिणाम कुछ भी हो . 
सत्य कभी हिदू  या मुसलमान नहीं होता. 
***

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Thursday 12 November 2020

क़ौम का दोहरा चरित्र


क़ौम का दोहरा चरित्र 

कितनी बड़ी विडंबना है कि एक तरफ़ तो हम नफ़रत का पाठ पढ़ाने वालों को सम्मान देकर सर आँखों पर बिठाते हैं, उनकी मदद सरकारी कोष से करते हैं, उनके हक़ में हमारा कानून भी है, मगर जब उनके पढ़े पाठों का रद्दे अमल होता है तो उनको अपराधी ठहराते हैं. ये हमारे मुल्क और क़ौम का दोहरा मेयार है. 
धर्म अड्डों, धर्म ग़ुरुओं को खुली छूट कि वह किसी भी अधर्मी और विधर्मी को एलान्या गालियाँ देता रहे भले ही सामने वाला विशुद्ध मानव मात्र हो या योग्य कर्मठ पुरुष हो अथवा चिन्तक नास्तिक हो. 
इनको कोई अधिकार नहीं की यह अपनी मान हानि का दावा कर सकें. 
मगर उन मठाधिकारियों को अपने छल बल के साथ न्याय का संरक्षण मिला हुवा है. ऐसे संगठन, और संसथान धर्म के नाम पर लाखों के वारे न्यारे करते हैं, अय्याशियों के अड्डे होते हैं और अपने स्वार्थ के लिए देश को खोखला करते हैं. 
इन्हीं के साथ साथ हमारे मुल्क में एक क़ौम  है मुसलमानों की जिसको दुनयावी दौलत से ज़्यादः आसमानी दौलत की चाह है. यह बात उन के दिलो दिमाग़ में सदियों से इस्लामी ओलिमा (धर्म ग़ुरु) भर रहे हैं, जिनका ज़रीआ मुआश (भरण-पोषण) इस्लाम प्रचार है. 
हिंदुत्व की तरह ये भी हैं. मगर इनका पुख़्ता  माफ़िया बना हुवा है. 
इनकी भेड़ें न सर उठा सकती हैं न कोई इन्हें चुरा सकता है. 
बाग़ियों को फ़तवा की तौक़ पहना कर बेयारो-मददगार कर दिया जाता है. 
कहने को हिदू बहु-संख्यक भारत में हैं मगर क्षमा करें धन लोभ और धर्म पाखण्ड ने उनको कायर बना रखा है, 10% मुसलमान  उन पर भारी है, तभी तो गाँव गाँव, शहर शहर मदरसे खुले हुए हैं जहाँ तालिबानी की तलब और अलक़ायदा के क़ायदे बच्चों को पढ़ाए जाते हैं. भारत में जहाँ एक ओर पाखंडियों, और लोभियों की खेती फल फूल रही है वहीं दूसरी और तालिबानियों और अलक़ायदयों की फ़सल तैयार हो रही है. 
सियासत दान देश के इतिहास में अपना नाम दर्ज कराने में बद मस्त हैं. 
क्या दुन्या के मान चित्र पर कभी कोई भारत था? 
क्या आज कहीं कोई भारत है? 
धर्म और मज़हब की अफ़ीम खाए हुए, लोभ और अमानवीय मूल्यों को मूल्य बनाए हुए क्या हम कहीं से देश भक्त भारतीय भी हैं? नक़ली नारे लगाते हुए, ढोंग का परिधान धारण किए हुए हम केवल स्वार्थी ''मैं'' हूँ. 
हम तो मलेशिया, इंडोनेशिया तक भारत थे, थाई लैंड, बर्मा, श्री लंका और काबुल कंधार तक भारत थे. कहाँ चला गया भारत? अगर यही हाल रहा तो पता नहीं कहाँ जाने वाला है भारत. भारत को भारत बनाना है तो अतीत को दफ़्न करके वर्तमान को संवारना होगा, धर्म और मज़हब की गलाज़त को कोडों से साफ़ करना होगा. मेहनत कश अवाम को भारत का हिस्सा देना होगा न कि गरीबी रेखा के पार रखना और कहते रहना की रूपिए का पंद्रह पैसा ही गरीबों तक पहुँच पाता है. 
***
जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Wednesday 11 November 2020

तजावुज़ और जुमूद


तजावुज़ और जुमूद   
       *
मैं इस्लाम का आम जानकर हूँ , इसका आलिम  फ़ाज़िल नहीं. 
इस की गहराइयों में जाकर देखा तो इसका मुंकिर हो गया, 
सिने बलूग़त में आकर जब इस पर नज़रे-सानी किया तो जाना कि 
इसमें तो कोई गहराई ही नहीं है. 
लिहाज़ा इसके अंबारी लिटरेचर से सर को बोझिल करना मुनासिब नहीं समझा.
 जिन पर नज़र गई तो पाया कि कालिमा ए हक़ के नाहक़ जवाज़ थे. 
हो सकता है कि कहीं पर मेरी अधूरी जानकारी दर पेश आ जाए 
मगर मेरी तहरीक में इसकी कोई अहमियत नहीं है, 
क्यूँ कि इनकी बहसें बाहमी इख़्तलाफ़ और तजावुज़ व जुमूद  के दरमियान हैं. 
टोपी लगा कर नमाज़ पढ़ी जाए, बग़ैर टोपी पहने भी नमाज़ जायज़ है - - ,  
ये इनके मौज़ूअ हुवा करते हैं. 
मेरा सवाल है नमाज़ पढ़ते ही क्यूँ हो? 
मेरा मिशन है मुसलमानों को इस्लामी नज़र बंदी से नजात दिलाना

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Tuesday 10 November 2020

कट्टरता बेवक़ूफ़ी होती है


कट्टरता बेवक़ूफ़ी होती है   
            
मुस्लिम अपनी आस्था के तहत ऊपर की दुन्या में मिलने वाली जन्नत के लिए 
इस दुन्या की ज़िंदगी को संतोष के साथ ग़ुज़ार देंगे. 
ग़ैर मुस्लिमों को मज़दूर, मिस्त्री, राज, नाई, भिश्ती और 
मुलाज़िम सस्ते दामों में मिलते रहेंगे.
मुस्लिम कट्टरता बेवक़ूफ़ी होती है जो इन्सान को एक बार में ही क़त्ल करके 
हमेशा के लिए उसके फ़ायदे से बंचित कर देती है , 
इसके बर अक्स हिन्दू कट्टरता बुद्धिमान होती है 
जो इन्सान को दास बना कर रखती है , 
न मरने देती है न मुटाने देती है. 
यह मानव समाज को धीरे धीरे अछूत बना कर, उनका एक वर्ग बना देती है 
और ख़ुद स्वर्ण हो जाती है. 
पाँच हज़ार साल से भारत के मूल बाशिदे और आदि वासी इसकी मिसाल हैं.
इन दोनों कट्टरताओं को मज़हब और धर्म पाले रहते है, 
जिनको मानना ही मानव समाज की हत्या या फिर उसकी ख़ुद कुशी है.
इसके आलावा क़ुरआन के मुख़ालिफ़ कम्युनिस्ट और पश्चिमी देश भी है 
जो पूरे क़ुरआन को ही जला देने के हक़ में है, 
इन देशों में धर्म ओ मज़हब की अफ़ीम नहीं बाक़ी बची है, 
इस लिए वह पूरी मानवता के हितैषी हैं.
भारतीय मुसलमानो के दाहिने खाईं है, तो बाएँ पहाड़. 
उसका मदद गार कोई नहीं है, 
बैसे भी मदद मोहताजों को चाहिए. 
वह मोहताज नहीं, अभी भी ताक़त हासिल कर सकते है, 
उन्हें बेदारी की ज़रुरत है, 
हिम्मत करके मुस्लिम से हट कर मोमिन हो जाएँ..
***    
जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Monday 9 November 2020

अल्लाह बनाम क़ुदरत


अल्लाह बनाम क़ुदरत 

अल्लाह कुछ और नहीं यही क़ुदरत है, कहीं और नहीं, 
सब तुम्हारे सामने यहीं मौजूद है. 
अल्लाह के नाम से जितने नाम सजे हुए हैं, 
सब तुम्हारा वह्म हैं और साज़िश्यों की तलाश हैं. 
क़ुदरत जितना तुम्हारे सामने मौजूद है उससे कहीं ज़्यादः 
तुम्हारे नज़र और ज़ेहन से ओझल है. 
उसे साइंस तलाश कर रही है. 
जितना तलाशा गया है वही सत्य है,
बाक़ी सब इंसानी कल्पनाएँ हैं .
आदमी आम तौर पर अपने पूज्य की दासता चाहता है, 
ढोंगी पूज्य पैदा करते रहते हैं और हम उनके जाल में फंसते रहते हैं. 
हमें दासता ही चाहिए तो अपनी ज़मीन की दासता करें, इसे सजाएं, संवारें. 
इसमें ही हमारे पीढ़ियों का भविष्य निहित है. 
मन की अशांति का सामना एक पेड़ की तरह करें जो झुलस झुलस कर धूप में खड़ा रहता है, वह मंदिर और मस्जिद की राह नहीं ढूंढता, 
आपकी तरह ही एक दिन मर जाता है .
हमें ख़ुदाई हक़ीक़त को समझने में अब देर नहीं करनी चाहिए, 
वहमों के ख़ुदा इंसान को अब तक काफ़ी बर्बाद कर चुके हैं, 
अब और नहीं. 
***
जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Sunday 8 November 2020

बारीक बीन अँधा


बारीक बीन अँधा   
         
मुसलमानों! 
अल्लाह तअला न बारीक बीन है न बाख़बर, 
न वह बनिए की तरह है कि सब का हिसाब किताब रखता है, 
वह अगर है तो एक निज़ाम बना कर क़ुदरत के हवाले कर दिया है, 
अगर नहीं है तो भी क़ुदरत का निज़ाम ही कायनात में लागू है. 
हर अच्छे बुरे का अंजाम मुअय्यन है, 
इस ज़मीन की रफ़्तार अरबों बरस से मुक़र्रर है कि है कि 
वह एक मिनट के देर के बिना साल में एक बार अपनी धुरी पर 
अपना चक्कर पूरा करती है. 
क़ुदरत गूँगी, बहरी है और अंधी है 
उससे निपटने के लिए इंसान हर वक़्त उसके मद्दे मुक़ाबिल रहता है. 
अगर वह मुक़ाबिला न करता होता तो अपना वजूद गवां बैठता, 
आज जानवरों की तरह सर्दी, गर्मी और बरसात की मार झेलता होता, 
बड़ी बड़ी इमारतों में ए सी में न बैठा होता.
मुसलमान उसका मुक़ाबिला नहीं करता बल्कि उसको पूजता है, 
यही वजेह है कि वह ज़वाल पज़ीर है.
***
जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Saturday 7 November 2020

अल्लाह हु असग़र


अल्लाह हु असग़र
               
नमाज़ की शुरूआत अल्लाह हुअकबर से होती बह भी मुँह से बोलिए 
ताकि वह सुन सके? 
अल्लाह हुअकबर का लफ़्ज़ी मअनी है अल्लाह सबसे बड़ा है. 
तो सवाल उठता है कि अल्लाह हु असग़र कौन हैं? 
यानी छोटा अल्लाह ?
भगवान राम या कृष्ण कन्हैया, भगवन महावीर या महात्मा गौतम बुध? 
ईसाइयों का गाड, यहूदियों का यहवः या ईरानी ज़र्थुर्ष्ट ? 
कोई अकेली लकीर को बड़ा या छोटा दर्जा नहीं दिया जा सकता 
जब तक की उसके साथ उससे फ़र्क़ वाली लकीर न खींची जाए. 
इसलिए इन नामों की हैसियत की निशान दही की गई है.
मुसलमानों को शायद ईसाई का गाड, यहूदियों का यह्वः और 
सवाल उठता है कि वह एक ही लकीर खींच कर अपनी डफ़ली बजाते है 
कि यही सबसे बड़ी लकीर है, अल्लाह हुअकबर . 
एक और बात जोकि मुसलमान शुऊरी तौर पर तस्लीम करता है कि 
शैतान मरदूद को उसके अल्लाह ने पावर दे रक्खा है कि 
वह दुन्या पर महदूद तौर पर ख़ुदाई कर सकता है. 
अल्लाह की तरह ही शैतान भी हर जगह मौजूद है, 
वह भी अल्लाह के बन्दों के दिलों पर हुकूमत कर सकता है, 
भले ही ग़ुमराह कंरने का. 
इस तरह शैतान को अल्लाह होअस्गर कहा जाए 
तो बात मुनासिब होगी मगर 
मुसलमान इस पर तीन बार लाहौल भेजेंगे. 
इस पहले सबक में मुसलामानों की ग़ुमराही बयान कर रहा हूँ, 
दूसरे दरजनों पहलू हैं जिन पर मुसलमान ला जवाब होगा.
***  
जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Friday 6 November 2020

मुज़बज़ब हैं मुसलमान

मुज़बज़ब हैं मुसलमान
       
भारत के मुस्तक़बिल क़रीब में मुसलमानों की हैसियत बहुत ही तशवीश नाक होने का अंदेशा है. अभी फ़िलहाल जो रवादारी बराए जम्हूरियत बरक़रार है, 
बहुत दिन चलने वाली नहीं. इनकी हैसियत बरक़रार रखने में वह हस्तियाँ है जिनको इस्लाम मुसलमान मानता ही नहीं और उन पर मुल्ला फ़तवे की तीर चलाते रहते हैं. 
उनमे मिसाल के तौर पर डा. ए पी. जे अब्दुल  कलाम, 
तिजारत में अज़ीम प्रेम जी, सिप्ला के हमीद साहब वग़ैरह, 
फ़िल्मी  दुन्या के दिलीप कुमार, आमिर ख़ान, शबाना आज़मी. और ए. आर. रहमान, फ़नकारों में जो अब नहीं रहे, फ़िदा हुसैन, बिमिल्ला ख़ान जैसे कुछ लोग हैं. 
आम आदमियों में सैनिक अब्दुल हमीद जैसी कुछ फ़ौजी हस्तियाँ भी हैं 
जो इस्लाम को फूटी आँख भी नहीं भाते. 
मैंने अपने कालेज को एक क्लास रूम बनवा कर दिया तो कुछ इस्लाम ज़दा कहने लगे की यही पैसा किसी मस्जिद की तामीर में लगाते तो क्या बात थी, 
वहीं उस कालेज के एक मुस्लिम टीचर ने कहा तुमने मुसलमानों को सुर्ख़रू कर दिया, अब हम भी सर उठा कर बातें कर सकते है.
कौन है जो सेंध लगा रहा है आम मुसलमानों के हुकूक़ पर?
कि सरकार को सोचना पड़ता है कि इनको मुलाज़मत दें या न दें?
आर्मी को सोचना पड़ता है कि इनको कैसे परखा जाय?
कंपनियों को तलाश करना पड़ता कि इनमें कोई जदीद तालीम का बंदा है भी? बनिए और बरहमन की मुलाज़मत को इनके नाम से एलर्जी है.
इसकी वजेह इस्लाम है और इसके ग़द्दार एजेंट जो तालिबानी ज़ेहन्यत रखते हैं. यह भी हमारी ग़लतियों से ख़ता के शिकार हैं. 
हमारी ग़लती ये है कि हम भारत में मदरसों को फलने फूलने का अवसर दिए हुए है जहाँ वही पढ़ाया जाता है जो क़ुरआन में है.
***
जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Thursday 5 November 2020

फ़िर्क़े और बिरादरी

फ़िर्क़े और बिरादरी   '
              
क़बले-इस्लाम अरब में मुख़्तलिफ़ फ़िरक़े हुवा करते थे जिसके बाक़ियात 
ख़ास कर उप महाद्वीप में आज भी पाए जाते हैं. 
इनमें क़ाबिले ज़िक्र नीचे दिए जाते हैं ---
1- काफ़िर ---- यह क़दामत पसंद होते थे जो 
पुरखों के प्रचीनतम धर्म को अपनाए रहते थे. 
सच पूछिए तो यही इंसानी आबादी हर पैग़मबर और रिफ़ार्मर का रा-मटेरियल हुवा करते हैं. 
बाक़ियात में इसका नमूना आज भी भारत में मूर्ति पूजक और भांत भांत अंध विश्वाशों में लिप्त हिन्दू है.
ऐसा लगता है चौदह सौ साला पुराना अरब पूर्व में भागता हुआ भारत में आकर ठहर गया हो और थके मांदे इस्लामी तालिबान, अल क़ायदा और जैशे मुहम्मद उसका पीछा कर रहे हों.
2- मुशरिक ---- जो अल्लाह वाहिद (एकेश्वर) के साथ साथ 
दूसरी सहायक हस्तियों को भी ख़ातिर में लाते हैं. 
मुशरिकों का शिर्क जनता की ख़ास पसंद है. 
इसमें हिदू मुस्लिम सभी आते है, गोकि मुसलमान को मुशरिक कह दो तो 
मारने मरने पर तुल जाएगा मगर वह बहुधा ख्वाजा अजमेरी का मुरीद होता है, 
पीरों का मुरीद होता है जो की इस्लाम के हिसाब से शिर्क है. 
आज के समाज में रूहानियत के क़ायल हिन्दू हों या 
मुसलमान थोड़े से मुशरिक ज़रूर होते हैं.
3- मुनाफ़िक़ ---- वह लोग जो बज़ाहिर कुछ, और बबातिन कुछ और, 
दिन में मुसलमानों के साथ और रात में काफ़िरों के. 
ऐसे लोग हमेशा रहे हैं जो दोहरी ज़िंदगी का मज़ा लूटते रहे हैं. 
मुसलमानों में हमेशा से कसरत से मुनाफ़िक़ पाए जाते हैं.
4- मुंकिर ----- मुंकिर का लफ्ज़ी मतलब है, इंकार करने वाला 
जिसका इस्लामी करन करने के बाद इस्तेलाही मतलब किया गया है कि 
इस्लाम क़ुबूल करने के बाद उस से फिर जाने वाला मुंकिर होता है. 
बाद में आबाई मज़हब इस्लाम को तर्क करने वाला भी मुंकिर कहलाया.
5-मजूसी ----- आग, सूरज और चाँद तारों के पुजारी. ज़रथुष्टि की उम्मत.
6-मुल्हिद ------ (नास्तिक) हर दौर में ज़हीनों को ढोंगियों ने उपाधियाँ दीं हैं. 
मुझे इन पर फ़ख़्र है कि इंसान की यह ज़ेहनी परवाज़ बहुत पुरानी है.
7- इनके आलावा यहूदी और ईसाई क़ौमे तो मद्दे मुक़ाबिल इस्लाम थीं ही 
जो क़ुरआन में छाई हुई हैं.
इस के बाद शिया सुन्नी जैसे 72 मुसलमानी फ़िरक़े इस्लाम की देन हैं 
***
जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Wednesday 4 November 2020

मुजरिम आस्थाएँ+जो सत्य नहीं वह मिथ्य है.


मुजरिम आस्थाएँ   
    
जिस तरह आप कभी कभी ख़ुदाए बरतर की ज़ात में ग़र्क़ होकर 
कुछ जानने की कोशिश करते हैं, 
इसी तरह कभी मुहम्मद की ज़ात में ग़र्क़ होकर कुछ तलाश करने की कोशिश करें. अभी तक बहैसियत मुसलमान उनकी ज़ात में जो पाया है, 
शऊरी तौर पर देखा जाए तो वह सब दूसरों के मार्फ़त है.  
इनके क़ुरआन और इनकी हदीस में ही सब कुछ उजागर है. 
आपके लिए मुहम्मद की पैरवी कल भी ज़हर थी और आज भी ज़हर है. 
इंसानियत की अदालत में आज सदियों बाद भी इन पर मुक़दमा चलाया जा सकता है, जिसमे बहेस मुबाहिसे के लिए मुहज्ज़ब समाज के दानिशवरों को दावत दी जाय.
 इनका फ़ैसला यही होगा की इस्लाम और क़ुरआन पर यक़ीन रखना 
क़ाबिले जुर्म अमल होगा.
आज न सही एक दिन ज़रूर ऐसा वक़्त आएगा कि मज़हबी ज़ेहन रखने वाले 
तमाम मजहबों के अनुयाइयों को सज़ा भुगतना होगा 
जिसमे पेश पेश होंगे मुसलमान.
धर्म व् मज़हब द्वारा निर्मित ख़ुदा और भगवान दुर्गन्ध भरे झूट हैं, 
इसके विरोध में सच्चाई सुबूत लिए खड़ी है. 
मानव समाज अभी पूर्णतया बालिग़ नहीं हुवा है, 
यह अभी अर्ध विकसित है, 
इसी लिए झूट का बोल बाला है और सत्य का मुँह काला है. 
जब तक ये उलटी बयार बहती रहेगी, 
मानव समाज सच्ची खुशियों से बंचित रहेगा.   
***
जो सत्य नहीं वह मिथ्य है. 
         
क़ुदरत ने ये भूगोल रूपी इमारत को वजूद में लाने का जब इरादा किया 
तो सब से पहले इसकी बुनियाद "सच और ख़ैर" की कंक्रीट से भरी. 
फिर इसे अधूरा छोड़ कर आगे बढ़ती हुई मुस्कुराई कि 
मुकम्मल इसको हमारी रख्खी हुई बुनियाद करेगी. 
वह आगे बढ़ गई कि उसको कायनात में अभी बहुत से भूगोल बनाने हैं. 
उसकी कायनात इतनी बड़ी है कि कोई बशर अगर लाखों रौशनी साल 
(light years ) की उम्र भी पाए तब भी उसकी कायनात के फ़ासले को 
किसी विमान से तय नहीं कर सकता, 
तय कर पाना तो दूर की बात है, 
अपनी उम्र को फ़ासले के तसव्वुर में सर्फ़ करदे 
तो भी किसी नतीजे पर नहीं पहुँच पाएगा  .
क़ुदरत तो आगे बढ़ गई इन दो वारिसों "सच और ख़ैर" के हवाले करके 
इस भूगोल को कि यही इसे बरक़रार रखेंगे जब तक ये चाहें. 
भूगोल की तरह ही क़ुदरत ने हर चीज़ को गोल मटोल पैदा किया  
कि ख़ैर के साथ पैदा होने वाली सादाक़त ही इसको जो रंग देना चाहे दे. 
क़ुदरत ने पेड़ को गोल मटोल बनाया कि इंसान की 
"सच और ख़ैर" की तामीरी अक़्ल इसे फर्नीचर बना लेगी, 
उसने पेड़ों में बीजों की जगह फर्नीचर नहीं लटकाए. 
ये ख़ैर का जूनून है कि वह क़ुदरत की उपज को इंसानों के लिए 
उसकी ज़रुरत के तहत लकड़ी की शक्ल बदले.
तमाम ईजादें ख़ैर (परोकार) का जज़्बा ही हैं कि आज इंसानी जिंदगी 
कायनात के दूसरे सय्यारों तक पहुँच गई है, 
ये जज़्बा ही एक दिन इंसानों को ही नहीं बल्कि हैवानों को भी उनके हुक़ूक़ दिलाएगा.
जो सत्य नहीं वह मिथ्य है. 
दुन्या हर तथा कथित धर्म अपने कर्म कांड और आडम्बर के साथ मिथ्य हैं , 
इससे मुक्ति पाने के बाद ही क़ुदरत का धर्म अपने शिखर पर आ जाएगा 
और ज़मीन पाक हो जाएगी.
***

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Tuesday 3 November 2020

ज़हरीला ये पैग़ाम


ज़हरीला ये पैग़ाम
           
*यहूदियों का ख़ुदा यहुवा हमेशा यहूदियों पर मेहरबान रहता है, 
गाड एक बाप की तरह हमेशा अपने ईसाई बेटों को मुआफ़ किए रहता है, 
ज़्यादह तर धार्मिक भगवान दयालु होते हैं, 
बस कि  एक मुसलमानों का अल्लाह है जो उन पर पैनी नज़र रखता है. 
वोह बार बार इन्हें धमकियाँ दिए रहता है. 
हर वक़्त याद दिलाता रहता है कि वह बड़ा अज़ाब देने वाला है. 
सख़्त बदला लेने वाला है. 
चाल चलने वाला वाला है. 
गर्दन दबोचने वाला है. क़हर ढाने वाला है. 
वह मुसलमानों को हर वक़्त डराए रहता है. 
उसे डरपोक बन्दे पसंद हैं, 
बसूरत दीगर उसकी राह में जेहादी उसकी पहली पसंद हैं.. 
वोह मुसलमानों को महदूद होकर जीने की सलाह देता है, 
जिस की वजह से हिदुस्तानी मुसलमान कशमकश की ज़िन्दगी जीने पर मजबूर हैं. 
इन्हें मुल्क में मशकूक नज़रों से देखा जाए तो क्यूँ न देखा जाए ? 
देखिए अल्लाह कहता है - - -
''मुसलमानों को चाहिए कुफ़्फ़ारों को दोस्त न बनाएं, 
मुसलमानों से तजाउज़ करके जो शख़्स ऐसा करेगा, वह शख़्स  अल्लाह के साथ किसी शुमार में नहीं मगर अल्लाह तुम्हें अपनी ज़ात से डराता है." 
सूरह आले इमरान 3  आयत (28)
इस क़ुरआनी आयात को सुनने के बाद भारत की काफ़िर हिन्दू अक्सरीयत आबादी मुस्लिम अवाम को दोस्त कैसे बना सकती है? 
ऐसी क़ुरआनी आयतों के पैरोकारों को हिन्दू अपना दुश्मन मानें तो क्यूँ न मानें? दुन्या के तमाम ग़ैर मुस्लिम मुमालिक में बसे हुए मुसलमानों के साथ किस दर्जा ना आक़बत अन्देशाना और ज़हरीला ये पैग़ाम है इसलाम का. 
मुस्लिम ख़वास और मज़हबी रहनुमा कहते हैं कि उनके बुजुर्गों ने पाकिस्तान न जाकर हिंदुस्तान जैसे सैकुलर मुल्क में रहना पसंद किया, इस लिए उन्हें सैकुलर हुक़ूक़ मिलने चाहिएं. 
सैकुलरटी की बरकतों के दावे दार ये लोग सैकुलर भी हैं और ऐसी आयात वाली क़ुरआन के पुजारी भी. 
***
जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Monday 2 November 2020

नमाज़ी इंक़लाब


नमाज़ी इंक़लाब      
      
आजकल चार छः औसत पढ़े लिखे मुसलमान जब किसी जगह इकठ्ठा होते हैं तो उनका मौजूअ ए गूफ़्तुगू होता है 
'मुसलामानों पर आई हुई आलिमी आफतें' 
बड़ी ही संजीदगी और रंजीदगी के साथ इस पर बहेस मुबाहिसे होते हैं. 
सभी अपनी अपनी जानकारियाँ और उस पर रद्दे अमल पेश करते हैं. 
अमरीका और योरोप को और उनके पिछ लग्गुओं को जी भर के कोसा जाता है. 
भग़ुवा होता जा रहा हिंदुस्तान को भी सौतेले भाई की तरह मुख़ातिब करते हैं 
और इसके अंजाम की भरपूर आगाही भी देते हैं. 
सच्चे क़ौमी रहनुमा जो मुस्लिमों में है, उनको 'साला गद्दार है', 
कहक़र मुख़ातिब करते हैं. 
वह मुख़्तलिफ़ होते हुए भी अपने मिल्ली रहनुमाओं का ग़ुन गान ही करते है.
अमरीकी पिट्ठू अरब देशों को भी नहीं बख़्शा जाता. 
बस कुछ नर्म गोशा होता है तो पाकिस्तान के लिए.
इसके बाद वह मुसलामानों की पामाली की वजह एक दूसरे से 
उगलवाने की कोशिश करते हैं, 
वह इस सवाल पर एक दूसरे का मुँह देखते हैं कि 
कोई सच बोलने की जिसारत करे. 
सच बोलने की मजाल किसकी है? 
इसकी तो सलाहियत ही इस क़ौम में नहीं. 
बस कि वह सारा इलज़ाम ख़ुद पर आपस में बाँट लेते हैं, 
कि हम मुसलमान ही ग़ुमराह हो गए हैं. 
माहौल में कभी कभी बासी कढ़ी की उबाल जैसी आती है. 
क़ुरआन और हदीसों की बे बुन्याद अज़मतों के अंबार लग जाते हैं, 
गोया दुन्या भर की तमाम ख़ूबियाँ इनमें छिपी हुई हैं. 
माज़ी को ज़िंदा करके अपनी बरतरी के बखान होते हैं. 
इस महफ़िल में जो ज़रा सा इस्लामी लिटरेचर का कीड़ा होता है, 
वह माहौल पर छा जाता है.
फिर वह माज़ी के घोड़ो से उतरते हैं, 
हाल के हालात पर आने के बाद सर जोड़ कर बैठते हैं कि 
आख़िर इस मसअले  का हल क्या है? 
हल के तौर पर इनको, इनकी ग़ुमराही याद आती है 
और सामने इनके खड़ी होती है 
'नमाज़', 
ज़ोर होता है कि हम लोग अल्लाह को भूल गए हैं, 
अपनी नमाज़ों से गाफ़िल हो गए है. 
उन पर कुछ दिनों के लिए नमाज़ी इंक़लाब आता है और 
उनमें से कुछ लोग आरज़ी तौर पर नमाज़ी बन जाते है.
असलियत ये है कि आज मुसलमान जितना दीन के मैदान में डटा हुवा है 
उतना कभी नहीं था. 
इनकी पस्मान्दगी की वजह इनकी नमाज़ और इनका दीन ही है. 
मुसलमान अपने चूँ चूँ के मुरब्बे की आचार दानी को उठा कर 
अगर ताक़ पर रख दें, तो वह किसी से पीछे नहीं रहेगे.
***
जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान