Sunday 31 March 2013

सूरह फ़ातिर -३५ पारा -२२

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.

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सूरह फ़ातिर -३५ पारा -२२  

(तीसरी क़िस्त )

"आप तो सिर्फ डराने वाले हैं, हमने ही आपको हक़ देकर खुश ख़बरी सुनाने वाला और डराने वाला भेजा है. और कोई उम्मत ऐसी नहीं हुई जिसमे कोई डर सुनाने वाला नहो."
सूरह फ़ातिर -३५ पारा -२२ आयत (२४)

या अल्लाह अब डराना बंद कर कि हम सिने बलूग़त को पहुँच चुके हैं.
डराने वाला, डराने वाला, पूरा कुरआन डराने वाला से भरा हुवा है. पढ़ पढ़ कर होंट घिस गए है. क्या जाहिलों की टोली में कोई न था कि उसको बतलाता कि डराने वाला बहरूपिया होता है. 'आगाह करना' होता है जो तुम कहना चाहते हो.
मुजरिम अल्लाह के रसूल ने, इंसानों की एक बड़ी तादाद को डरपोक बना दिया है, या तो फिर समाज का गुन्डा.

"वह बाग़ात में हमेशा रहने के लिए जिसमे यह दाखिल होंगे, इनको सोने का कंगन और मोती पहनाए जाएँगे और पोशाक वहाँ इनकी रेशम की होगी और कहेंगे कि अल्लाह का लाख शुक्र है जिसने हम से ये ग़म दूर किए. बेशक हमारा परवर दिगार बड़ा बख्शने वाला है."
सूरह फ़ातिर -३५ पारा -२२ आयत (३३-३४)

सोने के कँगन होंगे, हीरों के जडाऊ हार, मोतियों के झुमके और चांदी की पायल जिसको पहन कर जन्नती छमा छम नाचेंगे, क्यूँ कि वहाँ औरतें तो होंगी नहीं.

"और जो लोग काफ़िर है उनके लिए दोज़ख की आग है. न तो उनको क़ज़ा आएगी कि मर ही जाएँ और न ही दोज़ख का अज़ाब उन पर कम होगा. हम हर काफ़िर को ऐसी सज़ा देते हैं और वह लोग चिल्लाएँगे कि ए मेरे परवर दिगार! हमको निकाल लीजिए, हम अच्छे काम करेंगे, खिलाफ उन कामों के जो किया करते थे. क्या हमने तुम को इतनी उम्र नहीं दी थी कि जिसको समझना होता समझ सकता और तुम्हारे पास डराने वाला नहीं पहुँचा था? तो तुम मज़े चक्खो, ऐसे जालिमों का मदद गार कोई न होगा."
सूरह फ़ातिर -३५ पारा -२२ आयत (३६-३७)

ऐसी आयतें बार बार कुरआन में आई हैं, आप बार बार गौर करिए कि मुहम्मदी अल्लाह कितना बड़ा ज़ालिम है कि उसकी इंसानी दुश्मन फ़रमानों को न मानने वालों का हश्र क्या होगा? माँगे मौत भी न मिलेगी और काफ़िर अन्त हीन काल तक जलता और तड़पता रहेगा. मुसलमान याद रखें कि अल्लाह के अच्छे कामों का मतलब है उसकी गुलामी बेरूह नमाज़ी इबादत है और उसे पढ़ते रहने से कोई फिकरे इर्तेक़ा या फिकरे- नव  दिमाग में दाखिल ही नहीं हो सकती और ज़कात की भरपाई से कौम भिखारी की भिखारी बनी रहेगी और हज से अहले-मक्का की परवरिश होती रहेगी.
मुसलामानों कुछ तो सोचो अगर मुझको ग़लत समझते हो तो कुदरत ने तुम्हें दिलो दिमाग़ दिया है. इस्लाम मुहम्मद की मकरूह सियासत के सिवा कुछ भी नहीं है.

"आप कहिए कि तुम अपने क़रार दाद शरीकों के नाम तो बतलाओ जिन को तुम अल्लाह के सिवा पूजा करते हो? या हमने उनको कोई किताब भी दी है? कि ये उसकी किसी दलील पर क़ायम हों. बल्कि ये ज़ालिम एक दूसरे निरी धोका का वादा कर आए हैं."
सूरह फ़ातिर -३५ पारा -२२ आयत (४०)

और आप भी तो लोगों के साथ निरी धोका हर रहे हैं, अल्लाह के शरीक नहीं, दर पर्दा अल्लाह बन गए हैं, इस गढ़ी  हुई कुरआन को अल्लाह की किताब बतला कर कुदरत को पामाल किए हुए हैं. इसकी हर दलील कठ मुललई की कबित है.

"और इन कुफ्फर(कुरैश) ने बड़े जोर की क़सम खाई थी कि इनके पास कोई डराने वाला आवे तो हम हर उम्मत से से ज़्यादः हिदायत क़ुबूल करने वाले होंगे, फिर इनके पास जब एक पैगम्बर आ पहुंचे तो बस इनकी नफ़रत को ही तरक्की हुई - - - सो क्या ये इसी दस्तूर के मुन्तज़िर हैं जो अगले काफ़िरों के साथ होता रहा है, सो आप कभी अल्लाह के दस्तूर को बदलता हुवा न पाएँगे. और आप अल्लाह के दस्तूर को मुन्तकिल  होता हुवा न पाएँगे."
सूरह अहज़ाब में अल्लाह ने वह आयतें मौकूफ(स्थगित करना या मुल्तवी करना) कर दिया था और मुहम्मद ने कहा था कि उसको अख्तिअर है कि वह जो चाहे करे. पहली आयत में अल्लाह का दस्तूर ये था कि बहू या मुँह बोली बहू के साथ निकाह हराम है, फिर वह आयतें मौकूफ हो गईं . नई आयतों में अल्लह ने मुँह बोली बहू के साथ निकाह को इस लिए जायज़ क़रार दिया ताकि मुसलामानों पर इसकी तंगी ना रहे. मुहम्मदी अल्लाह का मुँह है या जिस्म का दूसरा खंदक ? वह कहता है कि "और आप अल्लाह के दस्तूर को मुन्ताकिल होता हुवा न पाएँगे." अल्लाह ने अपना दस्तूर फर्जी फ़रिश्ते जिब्रील के मुँह में डाला, जिब्रील मुहम्मद के मुँह में उगला और मुहम्मद इस दस्तूर को मुसलामानों के कानों में टपकते हैं. मुहम्मद को अपना इल्म ज़ाहिर करना था कि वह लफ्ज़ 'मुन्तकिल' को खूब जानते हैं.
मुसलमानों! मोमिन को समझो, परखो, तोलो,खंगालो, फटको और पछोरो  .
हज़ारों साल नर्गिस अपनी बेनूरी पे रोती है 
चमन में जाके होता है कोई तब दीदा वर पैदा.
मेरी इस जिसारत की क़द्र करो. इस्लामी दुन्या कानों में रूई ठूँसे बैठी है,
हराम के जने कुत्ते ओलिमा तुम्हें जिंदा दरगोर किए हुवे हैं,
तुम में सच बोलने और  सच सुनने की सलाहियत ख़त्म हो गई है.
तुमको इन गुन्डे आलिमो ने नामर्द बना दिया है.
जिसारत करके मेरी हौसला अफ़ज़ाई  करो जो तुम्हारा शुभ चिन्तक और खैर ख्वाह है.
मैं मोमिन हूँ और मेरा मसलक ईमान दारी है,
इस्लाम अपनी शर्तों को तस्लीम कराता है जिसमें ईमान रुसवा होता है,
मेरे ब्लॉग पर अपनी राय भेजो भले ही गुमनाम हो.
 अगर मेरी बातों में कुछ सदाक़त पाते हो तो.


जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Sunday 24 March 2013

सूरह फ़ातिर -३५ पारा -२२

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.

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सूरह फ़ातिर -३५ पारा -२२ 
(दूसरी क़िस्त)  


"तो क्या ऐसा शख्स जिसको उसका अमले-बद से अच्छा करके दिखाया गया, फिर वह उसको अच्छा समझने लगा, और ऐसा शख्स जिसको क़बीह को क़बीह (बुरा)समझता है, कहीं बराबर हो सकते हैं

सो अल्लाह जिसको चाहता गुमराह करता है.
जिसको चाहता है हिदायत करता है .
सो उन पर अफ़सोस करके कहीं आपकी जान न जाती रहे .
अल्लाह को इनके सब कामों की खबर है.
और अल्लाह हवाओं को भेजता है, फिर वह बादलों को उठाती हैं फिर हम इनको खुश्क कर के ज़मीन की तरफ हाँक ले जाते हैं, फिर हम इनको इसके ज़रिए से ज़मीन को जिंदा करते हैं. इसी तरह (रोज़े -हश्र  इंसानों का) जी उठाना है. जो लोग इज्ज़त हासिल करना चाहें तो, तमाम इज्ज़त अल्लाह के लिए ही हैं.
अच्छा कलाम इन्हीं तक पहुँचता है और अच्छा काम इन्हें पहुँचाता है."
सूरह फ़ातिर -३५ पारा -२२ आयत (८-१०)

इन आयतों के एक एक जुमले पर गौर करिए कि उम्मी अल्लाह क्या कहता है?
*मतलब ये कि अच्छे और बुरे दोनों कामों के फ़ायदे हैं मगर दोनों बराबर नहीं हो सकते.
*मुसलामानों के लिए सबसे भला काम है= जिहाद, फिर नमाज़, ज़कात और हज वगैरा और बुरा काम इन की मुख्लिफत.
*जब अल्लाह ही बन्दे को गुमराह करता है तो ख़ता वार अल्लाह हुवा या बंदा?
*जिसको हिदायत नहीं देता तो उसे दोज़ख में क्यूँ डालता है ? क्या इस लिए कि उससे, उसका पेट भरने का वादा किए हुए है ?
*जब सब कामों की खबर है तो बेखबरी किस बात की? फ़ौरन सज़ा या मज़ा चखा दे, क़यामत आने का इंतज़ार कैसा? बुरे करने ही क्यूँ देता है इंसान को?
*अल्लाह हवाओं को हाँकता है, जैसे चरवाहे मुहम्मद बकरियों को हाँका करते थे.
*गोया इंसान कि दफ़्न होगा और रोज़ हश्र बीज की तरह उग आएगा. फिर सारे आमाल की खबर रखने वाला अल्लाह खुद भी नींद से उठेगा और लोगों  के आमालों का हिसाब किताब करेगा.
*"तमाम इज्ज़त अल्लाह के लिए ही हैं." तब तो तुम इसके पीछे नाहक भागते हो, इस दुन्य में बेईज्ज़त बन कर ही जीना है. जो मुस्लमान जी रहे हैं.
मुसलमानों! तुम जागो. अल्लाह को सोने दो. क़यामत हर खित्ता ए ज़मीन पर तुम्हारे लिए आई हुई है. पल पल तुम क़यामत की आग में झुलस रहे हो. कब तुम्हारे समझ में आएगा. क़यामत पसंद मुहम्मद हर तालिबान में जिंदा है जो मासूम बच्चियों को तालीम से ग़ाफ़िल किए हुए है. गैरत मंद औरतों पर कोड़े बरसा कर ज़िन्दा दफ़्न करता है. ठीक ऐसा ही ज़िन्दा मुहम्मद करता था.

"अल्लाह ने तुम्हें मिटटी से पैदा किया, फिर नुत्फ़े से पैदा किया, फिर तुमको जोड़े जोड़े बनाया और न किसी औरत को हमल रहता है, न वह  जनती है, मगर सब उसकी इत्तेला से होता है और न किसी की उम्र ज़्यादः की जाती है न उम्र कम की जाती है मगर सब लूहे-महफूज़ (आसमान में पत्थर पर लिखी हुई किताब) में होता हो.ये सब अल्लाह को आसान है."
सूरह फ़ातिर -३५ पारा -२२ आयत (११)

इंसान के तकमील का तरीका कई बार बतला चुके हैं अल्लाह मियाँ! कभी अपने बारे में भी बतलाएँ कि आप किस तरह से वजूद में आए.
उम्मी का ये अंदाज़ा यहीं तक महदूद है. वह अनासिरे खमसा (पञ्च तत्व) से बे खबर है,"मिटटी से भी और फिर नुत्फे से भी"? मुहम्मद तमाम मेडिकल साइंस को कूड़े दान में डाले हुए हैं. मुसलमान आसमानी पहेली को सदियों से बूझे और बुझाए हुए है.

"और दोनों दरिया बराबर नहीं है, एक तो शीरीं प्यास बुझाने वाला है जिसका पीना आसन है. और एक खारा तल्ख़ है और तुम हर एक से ताजः गोश्त खाते हो, जेवर निकलते हो जिसको तुम पहनते हो और तू कश्तियों को इसमें देखता है, पानी को फाड़ती हुई चलती हैं, ताकि तुम इससे रोज़ी ढूढो और शुक्र करो."

सूरह फ़ातिर -३५ पारा -२२ आयत (१२)


मुहम्मदी अल्लाह की जनरल नालेज देखिए कि खारे समन्दर को दूसरा दरिया कहते हैं , ताजः मछली को ताजः गोश्त कहते हैं , मोतियों को जेवर कहते हैं. हर जगह ओलिमा अल्लाह की इस्लाह करते हैं. भोले भाले और जज़बाती मुसलामानों को गुमराह करते हैं. 

"वह रात को दिन में और दिन को रात दाखिल कर देता है. उसने सूरज और चाँद को काम पर लगा रक्खा है. हर एक वक्ते-मुक़र्रर पर चलते रहेंगे. यही अल्लाह तुम्हारा परवर दिगार है और इसी की सल्तनत है और तुम जिसको पुकारते हो उसको खजूर की गुठली के छिलके के बराबर भी अख्तियार नहीं" 
सूरह फ़ातिर -३५ पारा -२२ आयत (१३)

रात और दिन आज भी दाखिल हो रहे हैं एक दूसरे में मगर वहीँ जहाँ तालीम की रौशनी अभी तक नहीं पहुची है. अल्लाह सूरज और चाँद को काम पर लगाए हुए है अभी भी जहां आलिमाने-दीन की बद आमालियाँ  है. मुहम्मदी अल्लाह की हुकूमत कायम रहेगी जब तक इस्लाम मुसलामानों को सफ़ा ए हस्ती से नेस्त नाबूद न कर देगा.

"अगर वह तुमको चाहे तो फ़ना कर दे और एक नई मखलूक पैदा कर दे, अल्लाह के लिए ये मुश्किल  नहीं."
सूरह फ़ातिर -३५ पारा -२२ आयत (१४)

अल्लाह क्या, कोई भी गुंडा बदमाश किसी को फ़ना कर सकता है.
मगर मख्लूको में इंसान भी एक किस्म की मखलूक, अगर वह वह इसे ख़त्म कर दे तो पैगम्बरी किस पर झाडेंगे?
मैं बार बार मुहम्मद की अय्यारी और झूट को उजागर कर रहा हूँ ताकि आप जाने कि उनकी हक़ीक़त क्या है. यहाँ पर मख़लूक की जगह वह काफ़िर जैसे इंसानों को मुखातिब करना चाहते हैं मगर इस्तेमाल कर रहे हैं शायरी लफ्फाजी.

"आप तो सिर्फ़ ऐसे लोगों को डरा सकते हैं जो बिन देखे अल्लाह से डर सकते हों और नमाज़ की पाबंदी करते हों."
सूरह फ़ातिर -३५ पारा -२२ आयत (१८)

बेशक ऐसे गधे ही आप की सवारी बने हुए हैं.

"और अँधा और आँखों वाला बराबर नहीं हो सकते और न तारीकी और रौशनी, न छाँव और धूप और ज़िंदे मुर्दे बराबर नहीं हो सकते. अल्लाह जिस को चाहता है सुनवा देता है. और आप उन लोगों को नहीं सुना सकते जो क़ब्रों में हैं." 
सूरह फ़ातिर -३५ पारा -२२ आयत (१९-२२)

मगर या अल्लाह तू कहना क्या चाहता है, 
तू ये तो नहीं रहा कि मुल्ला जी और डाक्टर बराबर नहीं हो सकते.
जो इस पैगाम को सुनने से पहले क़ब्रों में चले गए, क्या उन पर भी तू रोज़े-हश्र मुक़दमा चला कर दोज़खी जेलों में ठूँस देगा ? तेरा उम्मी रसूल तो यही कहता है कि उसका बाप अब्दुल्लह भी जहन्नम रसीदा होगा.
या अल्लाह क्या तू इतना नाइंसाफ़ हो सकता है?
दुन्या को शर सिखाने वाले फित्तीन के मरहूम वालिद का उसके जुर्मों में क्या कुसूर हो सकता है? 

कलामे दीगराँ - - - 
"आदमी में बुराई ये है कि वह दूसरे का मुअल्लिम (शिक्षक) बनना चाहता है और बीमारी ये है कि वह अपने खेतों की परवाह नहीं करता और दूसरे के खेतों की निराई करने का ठेका ले लेता है."
" कानफ़्यूशश"
यह है कलाम पाक 



जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Sunday 17 March 2013

सूरह फ़ातिर -३५

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.


सूरह फ़ातिर -३५ पारा -२२  (1)
(पहली क़िस्त) 


मुहम्मद के ज़ेहन में पैग़म्बर बनने का ख़याल कैसे आया और फिर ये ख़याल जूनून में कैसे बदला??
मुहम्मद एक औसत दर्जे के समाजी फ़र्द थे. तालीम याफ्ता न सही, मगर साहिबे फ़िक्र थे. अब ये बात अलग है कि इंसान की फ़िक्र समाज के लिए तामीरी हो या तख़रीबी. मुहम्मद की कोई ख़ूबी अगर कही जाए तो उनके अन्दर दौलत से मिलने वाली ऐश व आराम की कोई अहेमयत नहीं थी. क़ेनाअत पसँद थे, लेन देन के मुआमले में वह ईमान दार भी थे.
मुहम्मद ने ज़रीआ मुआश के लिए मक्के वालों की बकरियाँ चराईं. सब से ज़्यादः आसान काम है, बकरियाँ चराना वह  इसी दौरान ज़ेहनी उथल पुथल में पैगम्बरी का खाका बनाते रहे.
 एक वाक़िया हुवा कि ख़ाना ए काबा की दीवार ढह गई जिसमें संग ए असवद नस्ब था जोकि आकाश से गिरी हुई उल्का थी. दीवार की तामीर अज़ सरे नव हुई, मक्का के क़बीलों में इस बात का झगड़ा शुरू हुआ कि किस कबीले का सरदार असवद को दीवार में नस्ब करेगा? पंचायत हुई, तय ये हुवा कि जो शख्स दूसरे दिन सुब्ह सब से पहले काबे में दाखिल होगा उसकी बात मानी जायगी. अगले दिन सुबह सब से पल्हले मुहम्मद हरम में दाखिल हुए.(ये बात अलग है कि वह सहवन वहाँ पहुँचे या क़सदन, मगर क़यास कहता है कि वह रात को सोए ही नहीं कि जल्दी उठाना है) बहर हाल दिन चढ़ा तमाम क़बीले के लोग इकठ्ठा हुए, मुहम्मद की बात और तजवीज़ सुनने के लिए.
 मुहम्मद ने एक चादर मंगाई और असवद को उस पर रख दिया, फिर हर क़बीले के सरदारों को बुलाया, सबसे कहा कि चादर का किनारा पकड़ कर  दीवार तक ले चलो. जब चादर दीवार के पास पहुच गई तो खुद असवद को उठा कर दीवार में नस्ब कर दिया. सादा लोह अवाम ने वाहवाही की, हालाँकि उनका मुतालबा बना रहा कि पत्थर कौन नस्ब करे. मुहम्मद को चाहिए था कि सरदारों में जो सबसे ज़्यादः बुज़ुर्ग होता उससे पत्थर नस्ब करने को कहते.
 मुहम्मद अन्दर से फूले न समाए कि वह अपनी होशियारी से क़बीलो में बरतर हो गए. उसी दिन उनमें ये बात पक्की हो गई कि पैगम्बरी का दावा किया जा सकता है.
तारीख अरब के मुताबिक बाबा ए कौम इब्राहीम के दो बेटे हुए इस्माईल और इसहाक़. छोटे इसहाक़ की औलादें बनी इस्राईल कहलाईं जिन्हें यहूदी भी कहा जाता है. इन में नामी गिरामी लोग पैदा हुए, मसलन यूफुफ़, मूसा, दाऊद, सुलेमान और ईसा वगैरा और पहली तारीखी किताब मूसा ने शुरू की तो उनके पेरू कारों ने साढ़े चार सौ सालों तक इसको मुरत्तब करने का सिलसिला क़ायम रखा. 
लौंडी जादे हाजरा (हैगर) पुत्र इस्माइल की औलादें इस से महरूम रहीं जिनमें मुहम्मद भी आते हैं. उनमें हमेशा ये क़लक़ रहता कि काश हमारे यहाँ भी कोई पैगम्बर होता कि हम उसकी पैरवी करते. इन रवायती चर्चा मुहम्मद के दिल में गाँठ की तरह बन्ध गई कि कौम में पैगामरी की जगह ख़ाली है.
मदीने की एक उम्र दराज़ बेवा, मालदार खातून, ख़दीजा ने मुहम्मद को अपने साथ निकाह की पेश कश की. वह फ़ौरन राज़ी हो गए कि बकरियों की चरवाही से छुट्टी मिली और आराम के साथ रोटी का ज़रीया मिला. इस राहत के बाद वह रोटियाँ बांध कर ग़ार ए हिरा में जाते और अल्लाह का रसूल बन्ने का ख़ाक़ा तैयार करते.
इस दौरान उनको जिंसी तकाजों का सामान भी मिल गया था और छह अदद बच्चे भी हो गए, साथ में ग़ार ए हिरा में आराम और प्लानिग का मौक़ा भी मिलता कि रिसालत की शुरूवात कब की जाए, कैसे की जाए, आगाज़, हंगाम और अंजाम की कशमकश में आखिर कार एक रोज़ फैसला ले ही लिया कि गोली मारो सदाक़त, सराफ़त और दीगर इंसानी क़दरों को. ख़ारजी तौर पर समाज में वह अपना मुक़ाम जितना बना चुके हैं, वही काफ़ी है.
एक दिन उन्हों ने अपने इरादे को अमली जामा पहनाने का फैसला कर ही डाला. अपने कबीले कुरैश को एक मैदान में इकठ्ठा किया, भूमिका बनाते हुए उन्हों ने अपने बारे में लोगों की राय तलब की, लोगों ने कहा तुम औसत दर्जे के इंसान हो कोई बुराई नज़र नहीं आती, सच्चे, ईमान दार, अमानत  और साबिर तबअ शख्स हो. मुहम्मद  ने पूछा अगर मैं कहूँ कि इस पहाड़ी के पीछे एक फ़ौज आ चुकी है तो यकीन कर लोगे? लोगों ने कहा कर सकते हैं इसके बाद मुहम्मद ने कहा - - -
मुझे अल्लाह ने अपना रसूल चुना है.
ये सुन कर क़बीला भड़क उट्ठा. कहा तुम में कोई ऐसे आसार, ऐसी खूबी और अज़मत नहीं कि तुम जैसे जाहिल गँवार को अल्लाह चुनता फिरे.
मुहम्मद के चाचा अबू लहेब बोले
 "माटी मिले, तूने इस लिए हम लोगों को यहाँ बुलाया था?''
सब मुँह फेर कर चले गए. मुहम्मद की इस हरकत और जिसारत से कुरैशियों को बहुत तकलीफ़ पहुंची मगर मुहम्मद मैदान में कूद पड़े तो पीछे मुड कर न देखा.
बाद में वह कुरैशियों के बा असर लोगों से मिलते रहे और समझाते रहे कि अगर तुम मुझे पैगम्बर मान लिया और मैं कामयाब हो गया तो तुम बाकी क़बीलों बरतर होगे, मक्का ज़माने में बरतर होगा और अगर नाकाम हुवा तो खतरा सिर्फ मेरी जान को होगा. इस कामयाबी के बाद बदहाल मक्कियों को हमेशा हमेश के लिए रोटी सोज़ी का सहारा मिल जाएगा.
मगर कुरैश अपने माबूदों (पूज्य) को तर्क करके मुहम्मद के अल्लाह को  अपना माबूद बनाए को तैयार न हुए.
इस हकीकत के बाद क़ुरआन की बनी आयातों को परखें.

"तमाम तर हम्द अल्लाह तअला को लायक़ है जो आसमानों और ज़मीनों को पैदा करने वाला है. जो फरिश्तों को पैगाम रसा बनाने वाला है, जिनके दो दो तीन तीन और चार चार पर दार बाजू हैं, जो पैदाइश में जो चाहे ज़्यादः कर देता है. बे शक अल्लाह हर चीज़ पर क़ादिर है."
सूरह फ़ातिर -३५ पारा -२२ आयत (१)

तमाम हम्द उन हस्तियों की होनी चाहिए जिनहों ने इंसान और इंसानियत के किए कुछ किया हो. जो मुसबत ईजादों के मूजिद हों. उन पर लअंतें हों जिन्हों ने इंसानी खून से नहाया हो .
ईसाइयों के फ़रिश्ते न नर होते हैं न नारी और उनका कोई जींस भी नहीं होता, अलबत्ता छातियाँ होती हैं जिस को मुहम्मदी अल्लाह कहता है ये लोग तब मौजूद थे जब वह पैदा हुए कि उनको औरत बतलाते हैं. तअने देता है कि अपने लिए तो बेटा और अल्लाह के लिए बेटी? मुहम्मद हर मान्यता का धर्म का विरोध करते हुए अपनी बात ऊपर रखते हैं चाहे वह कितनी भी धान्ली की क्यूं न हो. खुद फरिश्तों के बाजू गिना रहे हैं, जैसे अपनी आँखों से देखा हो. 

"अल्लाह जो रहमत लोगों के लिए खोल दे, सिवाए इसके कोई बंद करने वाला नहीं और जिसको बंद कर दे, सो इसके बाद इसको कोई जारी करने वाला नहीं - - - ए लोगो ! तुम पे जो अल्लाह के एहसान हैं, इसको याद करो, क्या अल्लाह के सिवा कोई खालिक़ है जो तुमको ज़मीन और आसमान से रिज़्क पहुँचाता हो. इसके सिवा कोई लायक़-इबादत नहीं. अगर ये लोग आप को झुट्लाएंगे तो आप ग़म न करें क्यूंकि आप से पहले भी बहुत से पैगम्बर झुट्लाए जा चुके हैं. "
सूरह फ़ातिर -३५ पारा -२२ आयत (२-४)

अभी तक कोई अल्लाह खोजा नहीं जा सका, दुन्या को वजूद में आए लाखों बरस हो गए. अगर वह मुहम्मदी अल्लाह है तो निहायत टुच्चा है जिसे नमाज़ रोज़ों की शदीद ज़रुरत है. किसी भी इंसान पर वह एहसान नहीं करता बल्कि ज़ुल्म ज़रूर करता है कि आज़ाद रूह किसी पैकर के ज़द में आकर ज़िन्दगी पर थोपी गई मुसीबतें झेलता है. 

"ए लोगो! अल्लाह का वादा ज़रूर सच्चा है, सो ऐसा न हो कि ये दुन्यावी ज़िन्दगी तुम्हें धोके में डाल रखे और ऐसा न हो कि तुम्हें धोकेबाज़ शैतान अल्लाह से धोके में डाल दे . ये शैतान बेशक तुम्हारा दुश्मन है, सो तुम इसको दुश्मन समझते रहो. वह तो गिरोह को महेज़ इस लिए बुलाता है कि वह दोंनों दोज़खियों में शामिल हो जाएँ."
सूरह फ़ातिर -३५ पारा -२२ आयत (५-६)

अल्लाह और शैतान दोनों ही इन्सान को दोज़ख में डालने का बेडा उठाए  हुए हैं. लगता है कि अल्लाह इंसानों का दुश्मन नंबर वन है, तभी तो किसी वरदान की तरह दोज़ख भेट करने का वादा करता है,ऐसे अल्लाह को जूते मार कर घर (दिल) से बाहर करिए, और शैतान नंबर दो को समझने की कोशिश करिए जिसकी बकवास ये क़ुरआन है.
उम्मी फरमाते हैं "धोकेबाज़ शैतान अल्लाह से धोके में डाल दे."
मुतराज्जिम  अल्लाह की इस्लाह करते हैं.
कलामे दीगराँ - - -
"जन्नत और दोज़ख दोनों इंसान के दिल में होते हैं."
"शिन्तो"
  जापानी पयम्बर   
इसे कहते हैं कलाम पाक 


जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Sunday 10 March 2013

सूरह सबा ३४ (2)

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.

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सूरह सबा ३४
(दूसरी क़िस्त)  

इस्लाम की हक़ीक़त
मक्का वाले मुहम्मद की रिसालत को बहुत ही मामूली एक समाजी वाकिए के तौर पर लिए हुए थे. मुहम्मद ज्यादः हिस्सा तो माहौल की तफ़रीह हुवा करते थे. अपने सदियों पुराने पूज्य की शान में गुसताखियों को बर्दाश्त  करने में एक लिहाज़ भी था, काबा के ताकिया दारों के खानदान के फर्द होने का,. इसके अलावा मालदार बीवी के शौहर होने का लिहाज़ भी उनको बचाता रहा. फिर एक मुहज़ज़ब समाज में एतदाल भी होता है, क़ूवते बर्दाश्त  के लिए. समाज की ये भी ज़िम्मेदारी होती है कि फक्कड़ लोगों को अहेमियत न दो, उन्हें झेलते रहो. खुद को अल्लाह का रसूल कहना अपनी बे सिर पैर की बातों की तुकबंदी बना कर उसे अल्लाह का कलाम कहना, आयतें की एक फ़रिश्ते के कंधे पर आमद, सब मिला कर समाज के लिए अच्छा मशग़ला थे मुहम्मद. इन पर पाबन्दी लगाना मुनासिब न था.
बड़ी गौर तलब बात है कि उस वक़्त ३६० देवी देवताओं का मुततहदा  निज़ाम किसी जगह क़ायम होना. ये कोई मामूली बात नहीं थी. हरम में ३६० मूर्तियाँ दुन्या की ३६० मुल्कों, खित्तों और तमद्दुन की मुश्तरका अलामतें थीं. काबा का ये कल्चर जिसकी बुन्याद पर अक्वाम मुत्तहदा क़ायम हुवा. काबा मिस्मार न होता तो हो सकता था कि आज का न्यू यार्क मक्का होता और अक्वाम मुत्तहदा हरम में क़ायम होता, इस्लाम से पहले इतना ठोस थी अरबी सभ्यता. अल्लाह वाहिद के खब्ती मुहम्मद ने इर्तेका के पैरों में बेड़ियाँ पहना कर क़ैद कर दिया.
मुहम्मद की दीवानगी बारह साल मक्का में सर धुनती रही. जब पानी सर से ऊपर उठा तो अहले मक्का ने तय किया कि इस फ़ितने का सद्दे बाब हो.  कुरैशियों ने इन्हें मौत के घाट उतारने का फ़ैसला कर लिया. मुहम्मद को जब इस बात का इल्म हुवा तो उनकी पैग़म्बरी सर पर पैर रख कर मक्का से रातो रात भागी. अल्लाह के रसूल का इस सफ़र में बुरा हल था कि मुरदार जानवरों की सूखी हुई चमड़ी चबा चबा कर जान बचानी पड़ी, न इनके अल्लाह ने इनको रिज्क़ मुहय्या किया न जिब्रील को तरस आई. रसूल अपने परम भक्त अबुबकर के साथ मदीने पहुँच गए जहां इन्हें सियासी पनाह इस लिए मिली कि मदीने के साथ मक्का वालों की पुरानी रंजिश चली आ रही थी.
ग्यारह साल बाद मुहम्मद तस्लीम शुदा अल्लाह के रसूल और फ़ातेह बनकर जब मक्के में दाख़िल हुए तो आलमे इंसानियत की तारीख़ में वह मनहूस तरीन दिन था. उसी दिन से कभी मुसलामानों पर और कभी मुसलामानों के पड़ोसी मुल्क के बाशिंदों पर ज़मीन तंग होती गई.
कुछ लोग इस वहम के शिकार हैं कि मुसलामानों ने सदियों आधी दुन्या पर हुकूमत कीं.  इनका अंदरूनी सानेहा ये है कि मुसलमान हमेशा आपस में ही एक दूसरे की गर्दनें काट कर  फ़ातेह और मफतूह रहे. वह बाहमी तौर पर इतना लड़े मरे कि पढ़ कर हैरत नाक अफ़सोस होता है. मुसलामानों की आपसी जंग मुहम्मद के मरते ही शुरू हुई जिसमें एक लाख ताज़े ताज़े हुए मुसलमान मारे गए, ये थी जंगे "जमल" जो मुहम्मद की बेगम आयशा और दामाद अली के दरमियान हुई फिर तो ये सिलसिला शुरू हुआ तो आज तक थमने का नाम नहीं लिया. मुहम्मद के चारो ख़लीफ़ा एक दूसरे की साज़िश से क़त्ल हुए, इस्लाम के ज़्यादः तर हुक्मरान साज़िशी तलवारों से कम उम्र में मौत के घाट उतारे गए.
इस्लाम का सब से ख़तरनाक पहलू जो उस वक़्त वजूद में आया था, वह था जंग के ज़रीया लूट पाट करके हासिल किए गए अवामी इमलाक को गनीमत कह कर जायज़ करार देना. लोगों का ज़रीया मुआश बन गई थीं जंगें. चौदह सौ साल गुज़र गए, इस्लामियों में इसकी बरकतें आज भी क़ायम हैं. अफ़ग़ानिस्तान  में आज भी किराए के टट्टू मिलते हैं चाहे उनके हाथों मुसलामानों का क़त्ल करा लो, चाहे काफ़िर का. इस्लाम में रह कर गैर जानिबदारी तो हो ही नहीं सकती कि उसका गला कट्टर मुसलमान पहले दाबते हैं जो गैर जानिब दार होता है.
इस्लाम के इन घिनावनी सदियों को मुस्लिम इतिहास कर इस्लाम का सुनहरा दौर लिखते हैं.
अब चलते है क़ुरआन की हक़ीक़त पर 

"सो अपनों ने सरताबी की तो हमने उन पर बंद का सैलाब छोड़ दिया, हमने उनको फलदार बाग़ों के बदले, बाँज बागें दे दीं जिसमें ये चीज़ें रह गईं, बद मज़ा फल और झाड़, क़द्रे क़लील बेरियाँ उनको ये सज़ा हमने उनकी नाफ़रमानी की वजेह से दीं , और हम ऐसी सज़ा बड़े ना फ़रमानों को ही दिया करते हैं."
सूरह सबा ३४- २२ वाँ पारा आयत (१७)
अल्लाह बन बैठा रसूल अपनी तबीअत, फ़िरत और ख़सलत के मुताबिक अवाम को सज़ा देने के लिए बेताब रहता है. वह किस क़दर ज़ालिम था कि उसकी अमली तौर में दास्तानें हदीसों में भरी पडी हैं. तालिबान ऐसे दरिन्दे  उसकी ही पैरवी कर रहे हैं. देखिए कि अपने लोगों के लिए कैसी सोच रखता है, "सो अपनों ने सरताबी की तो हमने उन पर बंद का सैलाब छोड़ दिया"

"हम ने उनको अफ़साना बना दिया और उनको बिलकुल तितर बितर कर दिया. बेशक इसमें हर साबिर और शाकिर के लिए बड़ी बड़ी इबरतें हैं"
सूरह सबा ३४- २२ वाँ पारा आयत (१९)
मुसलमानों! 
अगर ऐसा अल्लाह कोई है जो अपने बन्दों को तितर बितर करता हो और उनको तबाह करके अफ़साना बना देता हो तो वह अल्लाह नहीं बंदा ए  शैतान है, जैसे कि मुहम्मद थे.
वह चाहते हैं कि उनकी ज़्यादितियों के बावजूद लोग कुछ न बोलें और सब्र करें.

"उन्होंने ये भी कहा हम अमवाल और औलाद में तुम से ज्यादः हैं और हम को कभी अज़ाब न होगा. कह दीजिए मेरा परवर दिगार जिसको चाहे ज्यादः रोज़ी देता है और जिसको चाहता है कम देता है, लेकिन अक्सर लोग वाक़िफ़ नहीं और तुम्हारे अमवाल और औलाद ऐसी चीज़ नहीं जो दर्जा में हमारा मुक़र्रिब बना दे, मगर हाँ ! जो ईमान लाए और अच्छा काम करे, सो ऐसे लोगों के लिए उनके अमल का दूना सिलह है. और वह बाला खाने में चैन से होंगे."
सूरह सबा ३४- २२ वाँ पारा आयत (३५-३७)

कनीज़ मार्या के हमल को आठवाँ महीना लगने के बाद जब समाज में चे-मे गोइयाँ शुरू हुईं तो मार्या के दबाव मे आकर मुहम्मद ने उसे अपनी कारस्तानी कुबूला और बच्चा पैदा होने पर उसको अपने बुज़ुर्ग इब्राहीम का नाम  दिया, उसका अक़ीक़ा भी किया. ढाई साल में वह मर गया तब भी समाज में चे-मे गोइयाँ हुईं कि बनते हैं अल्लाह के नबी और बुढ़ापे में एह लड़का हुवा, उसे भी बचा न सके. तब मुहम्मद ने अल्लाह से एक आयत उतरवाई " इन्ना आतोय्ना कल कौसर - - - "यानी उस से बढ़ कर अल्लाह ने मुझको जन्नत के हौज़ का निगराँ बनाया - - -
तो इतने बेगैरत थे हज़रात.
इस सूरह के पासे मंज़र मे इन आयतों भी मतलब निकला जा सकता है.
एक उम्मी की रची हुई भूल भूलैय्या में भटकते राहिए कोई रास्ता ही नान मिलेगा, 

"आप कहिए कि मैं तो सिर्फ़ एक बात समझता हूँ, वह ये कि अल्लाह वास्ते खड़े हो जाओ, दो दो, फिर एक एक , फिर सोचो कि तुम्हारे इस साथी को जूनून नहीं है. वह तुम्हें एक अज़ाब आने से पहले डराने वाला है."
बेशक, ये आयत ही काफ़ी है कि आप पर कितना जूनून था. दो दो, फिर एक एक - - - फिर उसके बाद सिफ़र सिफ़र फिर नफ़ी एक एक यानी बने हुए रसूल की इतनी धुनाई होती और इस तरह होती कि इस्लामी फ़ितने का वजूद ही न पनप पाता. 
सूरह सबा ३४- २२ वाँ पारा आयत (४६)
यहूदी धर्म कहता है - - -
ऐ ख़ुदा!
फ़िरके फ़िरके का इन्साफ़ करेगा. मुल्क मुल्क के लोगों के झगडे मिटाएगा, वह अपने तलवारों को पीट पीट कर हल के फल और भालों को हँस्या बनाएँगे, तब एक फ़िरका दूसरे फ़िरके पर तलवारें नहीं चलाएगा न आगे लोग  जंग के करतब सीखेंगे.
"तौरेत"
ये हो सकती है अल्लाह की वह्यी या कलाम ए पाक.     




जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Sunday 3 March 2013

सूरह सबा ३४(पहली क़िस्त)

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.

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सूरह सबा ३४
(पहली क़िस्त) 

इस सूरह में ऐसा कुछ भी नहीं है जो नया हो. मुहम्मद कुफ़्फ़ार ए मक्का के दरमियान सवालों-जवाब का सिलसिला दिल चस्प है. कुफ्फार कहते हैं - -
" ए मुहम्मद ये क़ुरआन तुम्हारा तराशा हुआ झूट है"

क़ुरआन मुहम्मद का तराशा हुवा झूट है, ये सौ फ़ीसदी सच है. 
कमाल का ख़मीर था उस शख्स का, 
जाने किस मिटटी का बना हुवा था वह, 
शायद ही दुन्या में पैदा हुवा हो कोई इंसान, तनहा अपनी मिसाल आप है वह. 
अड़ गया था अपनी तहरीक पर जिसकी बुनियाद झूट और मक्र पर रखी हुई थी.
हैरत का मुकाम ये है की हर सच को ठोकर पर मारता हुवा, 
हर गिरफ़्त पर अपने पर झाड़ता हुवा, 
झूट के बीज बोकर फ़रेब की फ़सल काटने में कामयाब रहा. दाद देनी पड़ती है कि इस कद्र बे बुन्याद दलीलों को लेकर उसने इस्लाम की वबा फैलाई कि इंसानियत उस का मुंह तकती रह गई. 
साहबे ईमान लोग मुजरिम की तरह मुँह छिपाते फिरते. खुद साख्ता पैगम्बर की फैलाई हुई बीमारी बज़ोर तलवार दूर दराज़ तक फैलती चली गई.वक़्त ने इस्लामी तलवार को तोड़ दिया मगर बीमारी नहीं टूटी. इसके मरीज़ इलाज ए जदीद की जगह इस्लामी ज़हर पीते चले गए, खास कर उन जगहों पर जहाँ मुकामी बद नज़मी  के शिकार और दलित लोग. इनको मजलूम से ज़ालिम बनने का मौक़ा जो मिला. 
इस्लाम की इब्तेदा ये बतलाती है कि मुहम्मद का ख़ाब क़बीला ए क़ुरैश की अजमत क़ायम करना और अरब की दुन्या तक ही था, इस कामयाबी के बाद अजमी (गैर अरब) दुन्या इसके लूट का मैदान बनी, साथ साथ ज़ेहनी गुलामी के लिए तैयार इंसानी फ़स्ल भी. 
मुहम्मद अपनी जाबिराना आरज़ू के तहत बयक वक़्त दर पर्दा अल्लाह बन गए, मगर बजाहिर उसके रसूल खुद को कायम किया. वह एक ही वक़्त में रूहानी पेशवा, मुमालिक के रहनुमा और बेताज बादशाह हुए, इतना ही नहीं, एक डिक्टेटर भी थे, 
बात अगर जिन्स की चले तो राजा इन्दर साबित होते हैं. 
कमाल ये कि मुतलक़ जाहिल, एक क़बीलाई फ़र्द.हठ धर्मी को ओढ़े-बिछाए, ज़ालिमाना रूप धारे, जो चाहा अवाम से मनवा लिया, इसकी गवाही ये कुरआन और उसकी हदीसें हैं.
मुहम्मद की नक़्ल करते हुए हज़ारों बाबुक ख़ुर्मी और क़दियानी हुए मगर कोई मुहम्मद की गर्द भी न छू सके .

"तमाम तर हम्द उसी अल्लाह को सजावार है जिसकी मिलकियत में है जो कुछ आसमानों में है और जो कुछ ज़मीन में है और उसी को हुक्म 
आख़ रत में है और वह हिकमत वाला ख़बरदार है."
सूरह सबा ३४- २२ वाँ पारा आयत (१)
मुसलामानों!अल्लाह को किसी हम्द की ज़रुरत है, न वह कोई मिलकियत रखता है. उसने एक निज़ाम बना कर मख्लूक़ को दे दिया है, उसी के तहत इस दुन्या का कारोबार चलता है. आख़रत बेहतर वो होती है जो आप मौत से पहले मुतमईन हों कि आपने किसी का बुरा नहीं किया है. नादान लोग अनजाने में बद आमाल हो जाते हैं, वह अपना अंजाम भी इसी दुन्या में झेलते हैं. हिसाब किताब और मैदान हश्र मुहम्मद की चालें और घातें हैं.

"और ये काफ़िर कहते हैं कि हम पर क़यामत न आएगी, आप फ़रमा दीजिए कि क्यूं नहीं? क़सम है अपने परवर दिगार आलिमुल ग़ैब की, वह तुम पर आएगी, इससे कोई ज़र्रा बराबर भी ग़ायब नहीं, न आसमान में और न ज़मीन में और न कोई चीज़ इससे छोटी है न बड़ी है मगर सब किताब ए मुबीन में है."
सूरह सबा ३४- २२ वाँ पारा आयत (३)
अल्लाह खुद अपनी क़सम खाता है और अपनी तारीफ़ अपने मुँह से करता हुआ खुद को "परवर दिगार आलिमुल गैब" बतलाता है. ऐसे अल्लाह से नजात पाने में ही समझदारी है. 
बेशक क़यामत काफ़िरों पर नहीं आएगी क्यूंकि वह रौशन दिमाग़ हैं और मुसलमानों पर तो पूरी दुन्या में हर रोज़  क़यामत आती है क्योंकि वह अपने मज़हब की तारीकियों में भटक रहे हैं.

"काफ़िर कहते हैं कि हम तुमको ऐसा आदमी बतलाएँ कि जो तुमको ये अजीब ख़बर देता है, जब तुम मरने के बाद (सड़ गल कर) रेज़ा रेज़ा हो जाओगे तो (क़यामत के दिन) ज़रूर तुम एक नए जन्म में आओगे. मालूम नहीं अल्लाह पर इसने ये झूट बोहतान बाँधा है या इसको किसी तरह का जूनून है."
सूरह सबा ३४- २२ वाँ पारा आयत (७-८)
जैसा कि हम बतला चुके हैं कि इस्लाम की बुनयादी रूह यहूदियत है. ये अक़ीदा भी यहूदियों का है कि क़यामत के रोज़ सबको उठाया जाएगा, पुल ए सरात से सबको गुज़ारा जायगा जिसे गुनाहगार पार न कर पाएँगे और कट कर जहन्नम रसीदा होंगे, मगर बेगुनाह लोग पुल को पार कर लेंगे और जन्नत में दाखिल होंगे. इस बात को अरब दुन्या अच्छी तरह जानती थी, मुहम्मद ऐसा बतला रहे हैं जैसे इस बात को वह पहली बार लोगों को बतला रहे हों. इस बात से अल्लाह पर कोई बोहतान या इलज़ाम आता है?

"और हमने दाऊद को अपनी तरफ़ से बड़ी निआमत दी थी,  
ए पहाड़ो! दाऊद के साथ तस्बीह किया करो और परिंदों को हुक्म दिया और सुलेमान अलैहिस सलाम के लिए हवा को मुसख़खिर (मुग्ध करने वाला) कर दिया था  कि इसकी सुबः की मंजिल एक एक महीने भर की हुई और इसकी शाम की मंजिल एक महीने भर की हुई और हमने इनके लिए ताँबे का चश्मा बहा दिया और जिन्नातों में बअज़े  ऐसे थे जो इनके आगे काम करते थे, उनके रब के हुक्म से और उनमें से जो हमारे हुक्म की सरताबी करेगा हम उसको दोज़ख़ का अज़ाब चखा देंगे. वह जिन्नात उनके लिए ऐसी चीजें बनाते जो इन्हें मंज़ूर होता. बड़ी बड़ी इमारतें, मूरतें और लगन जिससे हौज़ और देगें एक जगह जमी रहें.
ए दाऊद के ख़ानदान वालो! तुम सब शुक्रिया में नेक काम किया करो और मेरे बन्दों में शुक्र गुज़ार कम ही हैं."
सूरह सबा ३४- २२ वाँ पारा आयत (१०-१३)
ए मेरे अज़ीज़ दोस्तों! कुछ गौर करो कि क्या पढ़ते हो. क्या तुम्हारा अक़ीदा उस अल्लाह पर है जो पहाड़ों से तस्बीह पढवाता हो? देखिए कि आपका उम्मी रसूल अपनी बात भी पूरी तरह नहीं कर पा रहा. पागलों की तरह जो ज़बान में आता है, बकता रहता है. उसके सआदत मंद इन लग्व यात को नियत बाँध कर नमाज़ें पढ़ते हैं. भला कब तक जिहालत की कतारों में खड़े रहोगे ? इस तरह तुम अपनी नस्लों के साथ ज़ुल्म और जुर्म किए जा रहे हो. ऐसी क़ुरआनी आयतों को उठा कर कूड़ेदान के हवाले करो जो कहती हों कि- - -

" ए पहाड़ो! दाऊद के साथ तस्बीह किया करो  और इत्तेला देती हों कि सुलेमान अलैहिस सलाम के लिए हवा को मुसख्खिर (मुग्ध करने वाला) कर दिया था "
ये सुब्ह व् शाम की मंजिलों का पता मिलता है अरब के गँवारों के इतिहास में, आज हिंद में ये बातें दोहराई जा रही हैं .

"सुबः की मंजिल एक एक महीने भर की हुई और इसकी शाम की मंजिल एक महीने भर की हुई." 
"हमने इनके लिए ताँबे का चश्मा बहा दिया "

तांबा तो खालिस होता ही नहीं, ये लोहे और पीतल का मुरक्कब हुआ करता है, रसूल को इसका भी इल्म नहींकि धातुओं का चश्मा नहीं होता. जिहालत कुछ भी गा सकती है. मगर तुम तो तालीम याफ़्ता हो चुके हो, फिर तुम जिहालत को क्यूं गा रहे हो?

"जिन्नातों में बअज़े  ऐसे थे जो इनके आगे काम करते थे,"
अगर ये मुमकिन होता तो सुलेमान जंगें करके हज़ारों यहूदी जानें न कुर्बान करता और जिन्नातों को इस काम पर लगा देता.जिन्नात कोई मख़लूक़ नहीं होती है, अपनी औलादों को समझाओ..

"जो हमारे हुक्म की सरताबी करेगा, हम उसको दोज़ख का अज़ाब चखा देंगे"
अल्लाह कैसे गुंडों जैसी बातें करता है, ये अल्लाह की नहीं गुन्डे मुहम्मद की ख़सलत बोल रही है.

"बड़ी बड़ी इमारतें, मूरतें और लगन जिससे हौज़ और देगें एक जगह जमी रहें."
ये मुहम्मद कालीन वक़्त की ज़रुरत थी, अल्लाह को मुस्तक़बिल की कोई ख़बर नहीं कि आने वाले ज़माने में पानी गीज़र से गर्म होगा और वह भी चलता फिरता हुवा करेगा.

 "मेरे बन्दों में शुक्र गुज़ार कम ही हैं."
कैसे अल्लाह हैं आप कि बन्दों को कंट्रोल नहीं कर पा रहे? और पहाड़ों से तस्बीह कराने का दावा करते हैं.

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान