Wednesday 29 June 2011

सूरह फ़लक़ - ११३ - पारा - ३० +सूरह फ़लक़ - 114 - पारा - ३०

मेरी तहरीर में - - -


क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।

नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.

सूरह फ़लक़ - ११३ - पारा - ३०
(कुल आऊजो बेरब्बिल फलके)
सूरह फ़लक़ - 114 - पारा - ३०
(कुल आऊजो बेरब्बिंनासे) 

आज मैं खुश हूँ कि क़ुरआन की आख़िरी सूरह पर पहुँच चुका हूँ. सूरह अव्वल यानी सूरह फातेहा में मैंने आपको बतलाया था कि मुहम्मद खुद अपने कलाम को अल्लाह बन कर फ़रमाने की नाकाम कोशिश की, जिसे ओलिमा ने क़लम का ज़ोर दिखला कर कहा कि अल्लाह कभी अपने मुँह से बोलता है, कभी मुहम्मद के मुँह से, तो कभी बन्दे के मुँह से बोलता है. बोलते बोलते देखिए कि आखिर में अल्लाह की बोलती बंद हो गई, उसने सच बोलकर अपनी खुदाई के खात्मे का एलान कर दिया है.
क़ुरआन की ३० सूरतों का सिलसिला बेतुका सा है, कोई सूरह इस्लाम के वक़्त ए इब्तेदा की है तो अगली सूरह आखिर दौर की आ जाती है. बेहतर यह होता कि इसे मुरत्तब करते वक़्त मुहम्मद की तहरीक के मुताबिक इस का सिसिला होता. खैर, इस्लाम की तो सभी चूलें ढीली हैं, उनमें से एक यह भी है. इस खामी से एक फ़ायदा यह हुवा है कि इन आखिरी दो सूरतों में इस्लाम की वहदानियत की हवा खुद मुहम्मदी अल्लाह ने निकाल दिया है. अल्लाह जिब्रील के मार्फ़त जो पैगाम मुहम्मद के लिए भेजता है उसमे मुहम्मद उन तमान कुफ्र के माबूदों से पनाह माँगते है, अल्लाह की, जिसे हमेशा नकारते रहे, जिससे साबित है कि उनमें खुदाई करने का दम है. इस सूरह में अल्लाह तमाम माबूदों को पूजने का मश्विरः देता है क्यूंकि वह बीमारी से निढाल है.
मुहम्मद शदीद बीमार हो गए थे, कहते हैं कि उनका पेट फूल गया था, जिसकी वजेह थी कि कुछ यहूदिनों ने उन पर जादू टोना कर दिया था कि उनकी बजने वाली मिटटी जाम हो गई थी और उनका बजना बंद हो गया था.पिछली सूरतों में उन्होंने फ़रमाया है कि इंसान बजने वाली मिटटी का बना हुवा है) पेट इतना फूल गया था कि बोलती बंद हो गई थी. जिब्रील अलैहिस सलाम वहयी लेकर आए और मंदार्जा जेल आयतें पढनी शरू कीं, तब जाकर धीरे धीरे उनका जाम खुलने लगा, उनसे जिब्रील ने कहलवाया कि - - -
"तुम गाठों पर पढ़ पढ़ कर फूंकने वाली वालियों को तस्लीम करो कि उनकी भी एक हस्ती है तुम्हारे अल्लाह जैसी ही."
"हसद करने वाले भी दमदार हैं जो अपना असर अल्लाह की तरह रखते हैं, जब वह हसद करने पर आ जाएं."
"आदमियों के मालिक, बादशाहों का भी अल्लाह की तरह ही कोई मुक़ाम है."
"आदमियों के मुखतलिफ़ माबूदों ; लात, मनात और उज्जा वगैरा को भी तस्लीम करो कि वह भी अल्लाह की तरह ही कोई ताक़त हैं."
"वुस्वुसा डालने के वहेम को भी अपना माबूद तस्लीम करो जब तुम वुस्वुसे में आओ."
"जिन्न को तो तुम पहले से ही अल्लाह दो नम्बरी माने बैठे हो. तो ठीक है . . . ."
एन हफ्ते की मामूली बीमारी ने मुहम्मद को ऐसा सबक़ सिखलाया कि इस्लाम का मुँह काला हो गया. मुहम्मद के फूले हुए पेट से मुहम्मदी अल्लाह की सारी हवा ख़ारिज हो गई,
मुसलमान सिर्फ इन ग्यारह आयतों की दो सूरतों को ही पढ़ कर संजीदगी से मुहम्मद को समझ लें तो मुहम्मदी अल्लाह को समझ पाना आसान होगा.
सूरह फ़लक़ - ११३ - पारा - ३०
(कुल आऊजो बेरब्बिल फलके)

"आप कहिए कि मैं सुब्ह के मालिक की पनाह लेता हूँ,
तमाम मख्लूकात के शर से,
और अँधेरी रत की शर से,जब वह रात आ जाए,
और गाठों पर पढ़ पढ़ कर फूँकने वालियों की शर से,
और हसद करने वालों के शर से, जब वह हसद करने लगें."
(सूरह फ़लक़ - ११३ - पारा - ३० आयत (१-५)
सूरह नास ११४ - पारा - ३०
(कुल आऊजो बेरब्बिंनासे)

"आप कहिए,
कि मैं आदमियों के मालिक और आदमियों के बादशाह,
और आदमियों के माबूद से पनाह लेता हूँ,
वुस्वुसा डालने, पीछे हट जाने वाले के शर से,
जो आदमियों के दिलों में वुस्वसा डालता है,
ख्वाह वह जिन हो या आदमी."
नमाज़ियो !
सूरह फ़लक और सूरह नास के बारे में वाक़िया है कि यहूदिनों ने मुहम्मद पर जादू टोना करके उनको बीमार कर दिया था, तब अल्लाह ने यह दोनों सूरतें बयक वक़्त नाजिल कीं, घर की तलाशी ली गई, एक ताँत (सूखे चमड़े की रस्सी) की डोरी मिली, जिसमे ग्यारह गाठें थीं. इसके मुकाबिले में जिब्रील ने मंदार्जा ग्यारह आयतें पढ़ीं, हर आयत पर डोरी की एक एक गाठें खुलीं, और सभी गांठें खुल जाने पर मुहम्मद चंगे हो गए.
जादू टोना को इस्लामी आलिम झूट क़रार देते हैं, जब कि इसके ताक़त के आगे रसूल अल्लाह की अमाँ चाहते हैं.
यह क़ुरआन क्या है?
राह भटके हुए मुहम्मदी अल्लाह की भूल भुलय्या ? या
मुहम्मद की, अल्लाह का पैगम्बर बन्ने की चाहत ?

मुसलमानों!
मैं तुम्हारा और तुम्हारी नस्लों का सच्चा ख़ैर ख्वाह हूँ , इस लिए कि दुन्या की कोई कौम तुम जैसी सोई हुई नहीं है. माजी परस्ती तुम्हारा ईमान बन गया है, जब कि मुस्तकबिल पर तुम्हारे ईमान को क़ायम होना चाहिए.
हमारी तहकीकात और हमारे तजुरबे, हमारे अभी तक के सच है, इन पर इमान लाओ. कल यह झूट भी हो सकते हैं, तब तुम्हारी नस्लें नए फिर एक बार सच पर ईमान लाएँगी, उनको इस बात पर लाकर कायम करो, और इस्लाम से नजात दिलाओ.

अब आइन्दा "हदीसी हादसे" के उन्वान से मेरी तहरीक का सिलसिला शुरू होगा.
 
 
 
जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Tuesday 28 June 2011

सूरह इखलास - ११२ - पारा - ३०

मेरी तहरीर में - - -

क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।

नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं।


सूरह इखलास - ११२ - पारा - ३०
( कुल हवाल लाहो अहद)

 
तथा कथित बाबा, रामदेव की मौजूदः कहानी, इनकी शख्सियत, इनका तौर तरीक़ा, इनकी लफ्फाज़ी और चाल-घात, कुछ कुछ मुहम्मद से मिलती जुलती हैं. जंगे-बदर के बाद जंगे-ओहद में अल्लाह के खुद साख्ता रसूल हार के बाद अपने मुँह ढक कर हारी हुई फ़ौज के सफ़े-आखीर में पनाह लिए हुए खड़े थे और अबू सुफ्यान की आवाज़ ए बुलंद को सुनकर भी टस से मस न हुए. वह आवाज़ जंग का बाहमी समझौता हुवा करती थी कि नाम पुकारने के बाद दस्ते के मुखिया को सामने आ जाना चाहिए ताकि उसके मातहतों का खून खराबा मजीद न हो.
वैसे भी मुहम्मद ने कभी तलवार और तीर कमान को हाथ नहीं लगाया, बस लोगों को चने की झाड़ पर चढाए रहते थे. उनका कलाम होता ,'' मार ज़ोर लगा के, तुझ पर मेरे माँ बाप कुर्बान"
बकौल लालू ,बाबा कुदंग योग लगा कर भागे.
राम देव ने लिबासे निसवां पहन कर जान बचाई और मुहम्मद ने लिबासे दरोग (मिथ्य)का सहारा लिया.
मुहम्मद अल्लाह के झूठे रसूल थे और रामदेव जनता का झूठा पीड़ा मोचक. उसके समर्थको को देख कर मैं मुसलमानों को देखता हूँ और अपना सर पीटता हूँ.


अल्लाह मुखलिस हो रहा है, कहता है - - -  


"आप कह दीजिए वह यानि अल्लाह एक है,
अल्लाह बेनयाज़ है,
इसके औलाद नहीं,
और न वह किसी की औलाद है, और न कोई उसके बराबर है."
नमाज़ियो !सूरह अखलास दूसरी ग़नीमत सूरह है, पहली ग़नीमत थी सूरह फातेहा. बाक़ी कुरआन सूरतें करीह हैं , तमाम सूरतें मकरूह हैं. इन दोनों सूरतों को छोड़ कर बाक़ी कुरआन नज़रे-आतिश कर दिया जाय, तो भी इस्लाम की लाज बच सकती है, वरना तो ज़रुरत है मुकम्मल इन्कलाब की.
इसमें कोई शक नहीं की कुदरत की न कोई औलाद है, न ही वह किसी की औलाद। इसी तरह कुदरत की मज़म्मत करना या उसे पूजना दोनों ही नादानियाँ हैं. कुदरत का सामना करना ही उसका पैगाम है. कुदरत पर फ़तह पाना ही इंसानी तजस्सुस और इंसानी ज़िन्दगी का राज़ है. कुदरत को मगलूब करना ही उसकी चाहत है.

 
जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Saturday 25 June 2011

सूरह लहेब १११ - पारा - ३०

मेरी तहरीर में - - -

क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।

नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.

सूरह लहेब १११ - पारा - ३०
(तब्बत यदा अबी लहबिंव वतब्बा)



ऊपर उन (७८ -११४) सूरतों के नाम उनके शुरूआती अल्फाज़ के साथ दिया जा रहा हैं जिन्हें नमाज़ों में सूरह फातेहा या अल्हम्द - - के साथ जोड़ कर तुम पढ़ते हो.. ये छोटी छोटी सूरह तीसवें पारे की हैं. देखो और समझो कि इनमें झूट, मकर, सियासत, नफरत, जेहालत, कुदूरत, गलाज़त यहाँ तक कि मुग़ललज़ात भी तुम्हारी इबादत में शामिल हो जाती हैं. तुम अपनी ज़बान में इनको पढने का तसव्वुर भी नहीं कर सकते. ये ज़बान ए गैर में है, वह भी अरबी में, जिसको तुम मुक़द्दस समझते हो, चाहे उसमे फह्हाशी ही क्यूँ न हो..
इबादत के लिए रुक़ूअ या सुजूद, अल्फाज़, तौर तरीके और तरकीब की कोई जगह नहीं होती, गर्क ए कायनात होकर कर उट्ठो तो देखो तुम्हारा अल्लाह तुम्हारे सामने सदाक़त बन कर खड़ा होगा. तुमको इशारा करेगा कि तुमको इस धरती पर इस लिए भेजा है कि तुम इसे सजाओ और सँवारो, आने वाले बन्दों के लिए, यहाँ तक कि धरती के हर बाशिदों के लिए. इनसे नफरत करना गुनाह है, इन बन्दों और बाशिदों की खैर ही तुम्हारी इबादत होगी. इनकी बक़ा ही तुम्हारी नस्लों के हक में होगा.
अबू लहब मुहम्मद के सगे चाचा थे, ऐसे चाचा कि जिन्हों ने चालीस बरस तक अपने यतीम भतीजे मुहम्मद को अपनी अमाँ और शिफक़त में रक्खा. अपने मरहूम भाई अब्दुल्ला की बेवा आमना के कोख से जन्मे मुहम्मद की खबर सुन कर अबू लहब ख़ुशी से झूम उट्ठे और अपनी लौड़ी को आज़ाद कर दिया, जिसने बेटे की खबर दी थी और उसकी तनख्वाह मुक़र्रर कर के मुहम्मद को दूध पिलाई की नौकरी दे दिया. बचपन से लेकर जवानी तक मुहम्मद के सर परस्त रहे. दादा के मरने के बाद इनकी देख भाल किया, यहाँ तक कि मुहम्मद की दो बेटियों को अपने बेटों से मंसूब करके उनको सुबुक दोष किया. अपने मोहसिन चचा का तमाम अह्सानत पल भर में फरामोश कर दिया।

वजेह ?
हुवा यूँ था की एक रोज़ मुहम्मद ने तमाम ख़ानदान कुरैश को कोह ए मिन्फा पर इकठ्ठा होने की दावत दी. लोग अए तो मुहम्मद ने सब से पहले तम्हीद बांधा और फिर एलान किया कि अल्लाह ने मुझे अपना पैगम्बर मुक़र्रर किया. लोगों को इस बात पर काफी गम ओ गुस्सा और मायूसी हुई कि ऐसे जाहिल को अल्लाह ने अपना पैगम्बर कैसे चुना ? सबसे पहले अबू लहेब ने ज़बान खोली और कहा, "तू माटी मिले, क्या इसी लिए तूने हम लोगों को यहाँ बुलाया है?इसी बात पर मुहम्मद ने यह सूरह गढ़ी जो कुरआन में इस बात की गवाह बन कर १११ के मर्तबे पर है. सूरह लहेब कुरआन की वाहिद सूरह है जिस में किसी फ़र्द का नाम दर्ज है. किसी ख़लीफ़ा या क़बीले के किसी फ़र्द का नाम कुरआन में नहीं है.
"ज़िक्र मेरा मुझ से बढ़ कर है कि उस महफ़िल में है"


देखिए कि अल्लाह किसी बेबस औरत की तरह कैसे अबू लहेब को कोस रहा है - - -"अबू लहब तेरे हाथ टूट जाएँ, न मॉल उसके काम आया,
न उसकी कमाई .
वह अनक़रीब एक शोला ज़न आग में दाखिल होगा,
वह भी और उसकी बीवी भी, जो लकड़ियाँ लाद कर लाती है,
उसके गले में एक रस्सी होगी खूब बाटी हुई."

सूरह लहेब १११ - पारा - ३० आयत (१-५)नमाज़ियो !गौर करो कि अपनी नमाज़ों में तुम क्या पढ़ते हो? क्या यह इबारतें क़ाबिल ए इबादत हैं?
अल्लाह अबू लहेब और उसकी जोरू को बद दुआएँ दे रहा है और साथ में उसकी बीवी को. उनके हालत पर तआने भी दे रहा है कि वह उस ज़माने में लकड़ी ढोकर गुज़ारा करती थी. यह मुहम्मदी अल्लाह जो हिकमत वाला है, अपनी हिकमत से इन दोनों प्राणी को पत्थर की मूर्ति ही बना देता. "कुन फिया कून" कहने की ज़रुरत थी।

सच पूछिए तो मुहम्मदी अल्लाह भी मुहम्मद की हुलया का ही है।



जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Friday 24 June 2011

सूरह काफिरून १०९ - पारा ३०

मेरी तहरीर में - - -

क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।

नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.


सूरह काफिरून १०९ - पारा ३०(कुल्या अय्योहल कफिरूना)



ये छोटी छोटी सूरह तीसवें पारे की हैं. देखो और समझो कि इनमें झूट, मकर, सियासत, नफरत, जेहालत, कुदूरत, गलाज़त यहाँ तक कि मुग़ललज़ात भी तुम्हारी इबादत में शामिल हो जाती हैं. तुम अपनी ज़बान में इनको पढने का तसव्वुर भी नहीं कर सकते. ये ज़बान ए गैर में है, वह भी अरबी में, जिसको तुम मुक़द्दस समझते हो, चाहे उसमे फह्हाशी ही क्यूँ न हो..
इबादत के लिए रुक़ूअ या सुजूद, अल्फाज़, तौर तरीके और तरकीब की कोई जगह नहीं होती, गर्क ए कायनात होकर कर उट्ठो तो देखो तुम्हारा अल्लाह तुम्हारे सामने सदाक़त बन कर खड़ा होगा. तुमको इशारा करेगा कि तुमको इस धरती पर इस लिए भेजा है कि तुम इसे सजाओ और सँवारो, आने वाले बन्दों के लिए, यहाँ तक कि धरती के हर बाशिदों के लिए. इनसे नफरत करना गुनाह है, इन बन्दों और बाशिदों की खैर ही तुम्हारी इबादत होगी. इनकी बक़ा ही तुम्हारी नस्लों के हक में होगा.
 
एक बार मक्का के मुअज़ज़िज़ कबीलों ने मिलकर मुहम्मद के सामने एक तजवीज़ रखी, कि आइए हम लोग मिल कर अपने अपने माबूदों की पूजा एक hi जगह अपने अपने तरीकों से किया करें, ताकि मुआशरे में जो ये नया फ़ितना खडा हुआ है, उसका सद्दे-बाब हो. इससे हम सब की भाई चारगी क़ायम रहेगी, सब के लिए अम्न ओ अमान रहेगा.
,
मंदार्जा ज़ेल सियासी आयतें मुलाहिजा हों- - -"आप कह दीजिए कि ऐ काफ़िरो!
न मैं तुम्हारे माबूदों की परिस्तिश करता हूँ,
और न तुम मेरे माबूदों की परिस्तिश करते हो,
और न मैं तुम्हारे माबूदों की परिस्तिश करूँगा,
और न तुम मेरे माबूद की परिस्तिश करोगे.
तुमको तुम्हारा बदला मिलेगा और मुझको मेरा बदला मिलेगा."
सूरह काफिरून १०९ - पारा ३०- आयत (१-६)
बुत परस्तों (मुशरिकीन) की यह तजवीज़ माक़ूल थी जो आजकी जदीद क़द्रों की तरह ही माकूल है , मगर मुहम्मद को यह बात गवारा न हुई. यह पेश कश मुहम्मद को रास नहीं आई क्यूँकि यह इनके तबअ से मेल नहीं खा रही थी. मुहम्मद को अम्न ओ अमान पसंद न था, इसनें जंग, लूट मार और शबखून कहाँ? वह तो अपने तरीकों को दुन्या पर लादना चाहते थे. अपनी रिसालत पर खतरा मसूस करते हुए उन्होंने अपने हरबे के मुताबिक अल्लाह की वह्यी उतरवाई

नमाज़ियो !अल्लाह के पसे पर्दा उसका खुद साख्ता रसूल अपने अल्लाह से अपनी मर्ज़ी उगलवा रहा है.. . . . आप कह दीजिए, जैसे कि नव टंकियों में होता है. अल्लाह को क्या क़बाहत है कि खुद मंज़रे आम पर आकर खुद अपनी बात कहे ? या ग़ैबी आवाज़ नाज़िल करे. इस क़दर हिकमत वाला अल्लाह क्या गूंगा hai कि आवाज़ के लिए उसे किसी बन्दे की ज़रुरत पड़ती है ? यह कुरान साज़ी मुहम्मद का एक ड्रामा है जिस पर तुम आँख बंद करके भरोसा करते हो. सोचो, लाखों सालों से क़ायम इस दुन्या में, हज़ारों साल से क़ायम इंसानी तहज़ीब में, क्या अल्लाह को सिर्फ़ २२ साल ४ महीने ही बोलने का मौक़ा मिला कि वह शर्री मुहम्मद को चुन कर, तुम्हारी नमाज़ों के लिए कुरआन बका?अगर आज कोई ऐसा अल्लाह का रसूल आए तो?
उसके साथ तुम्हारा क्या सुलूक होगा?

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Wednesday 22 June 2011

सूरह नस्र ११० पारा - ३०

मेरी तहरीर में - - -

क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।

नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.


सूरह नस्र ११० पारा - ३०
(इज़ाजाअ नसरुल लाहे वलफतहो)



ऊपर उन (७८ -११४) सूरतों के नाम उनके शुरूआती अल्फाज़ के साथ दिया जा रहा हैं जिन्हें नमाज़ों में सूरह फातेहा या अल्हम्द - - के साथ जोड़ कर तुम पढ़ते हो.. ये छोटी छोटी सूरह तीसवें पारे की हैं. देखो और समझो कि इनमें झूट, मकर, सियासत, नफरत, जेहालत, कुदूरत, गलाज़त यहाँ तक कि मुग़ललज़ात भी तुम्हारी इबादत में शामिल हो जाती हैं. तुम अपनी ज़बान में इनको पढने का तसव्वुर भी नहीं कर सकते. ये ज़बान ए गैर में है, वह भी अरबी में, जिसको तुम मुक़द्दस समझते हो, चाहे उसमे फह्हाशी ही क्यूँ न हो..
इबादत के लिए रुक़ूअ या सुजूद, अल्फाज़, तौर तरीके और तरकीब की कोई जगह नहीं होती, गर्क ए कायनात होकर कर उट्ठो तो देखो तुम्हारा अल्लाह तुम्हारे सामने सदाक़त बन कर खड़ा होगा. तुमको इशारा करेगा कि तुमको इस धरती पर इस लिए भेजा है कि तुम इसे सजाओ और सँवारो, आने वाले बन्दों के लिए, यहाँ तक कि धरती के हर बाशिदों के लिए. इनसे नफरत करना गुनाह है, इन बन्दों और बाशिदों की खैर ही तुम्हारी इबादत होगी. इनकी बक़ा ही तुम्हारी नस्लों के हक में होगा.
 
नट खट बातूनी बच्चे से देर रात को माँ कहती है, बेटे सो जाओ नहीं तो बागड़ बिल्ला आ जाएगा. माँ की बात झूट होते हुए भी झूट के नफ़ी पहलू से अलग है. यह सिर्फ मुसबत पहलू के लिए है कि बच्चा सो जाए ताकि उसकी नींद पूरी हो सके, मगर यह बच्चे को डराने के लिए है.
क़ुरआन का मुहम्मदी अल्लाह बार बार कहता है, "मैं डराने वाला हूँ "
ऐसे ही माँ बच्चे को डराती है.
लोग उस अल्लाह से डरें जब तक कि सिने बलूगत न आ जाए, यह बात किसी फ़र्द या कौम के ज़ेहनी बलूगत पर मुनहसर करती है कि वह बागड़ बिल्ला से कब तक डरे.
यह डराना एक बुराई, जुर्म और गुनाह बन जाता है कि बच्चा बागड़ बिल्ला से डर कर किसी बीमारी का शिकार हो जाए, डरपोक तो वह हो ही जाएगा माँ की इस नादानी से. डर इसकी तमाम उम्र का मरज़ बन जाता है.
मुसलमान अपने बागड़ बिल्ला से इतना डरता है कि वह कभी बालिग ही नहीं होगा.
मूर्तियाँ जो बुत परस्त पूजते हैं, वह भी बागड़ बिल्ला ही हैं लेकिन उनको अधिकार है कि सिने- बलूगत आने पर वह उन्हें पत्थर मात्र कह सकें, उन पर कोई फ़तवा नहीं, मगर मुसलमान अपने हवाई बुत को कभी बागड़ बिल्ला नहीं कह सकता.
देखिए कि बागड़ बिल्ला क्या कहता है - - -


"जब अल्लाह की मदद और फतह आ पहुंचे,
और आप लोगों को अल्लाह के दीन में जौक़ जौक़ दाख़िल होता हुवा देखें,
तो अपने रब की तस्बीह और तहमीद कीजिए और उससे इस्तेग्फार की दरख्वास्त कीजिए. वह बड़ा तौबा कुबूल करने वाला है."
सूरह नस्र ११० पारा - ३० आयत (१-३)
मुहम्मद का ख्वाब ए वहदानियत शक्ल पाने वाली है, मक्का की फ़तह हासिल करने वाले हैं, उनका ला शऊर बेदार हो रहा है, वह भी अपने रचे हुए अल्लाह से डरने लगे हैं, उनकी बद आमलियाँ उनको झिंझोड़ रही है, नतीजतन वह अपनी मग्फ़िरत की दुआ कर रहे हैं. खुशियों और मायूसियो से पुर यह सूरह है.फ़तह मक्का का दिन दुन्या की तमाम इंसानी आबादी के लिए एक बद तरीन दिन था, खास कर मुसलामानों के लिए नामुराद दिन कहा जाएगा, इस के बाद दीन जैसे मुक़द्दस उन्वान को लेकर जब तलवार उट्ठी तो इंसानों के लिए यह ज़मीन तंग हो गई. सदियाँ गुज़र गईं मगर यह जिहादी सिलसिला अभी तक ख़त्म नहीं हुवा. इतने बड़े इंसानी खून का हिसाब जब एक बन्दे हक़ीर अल्लाह से तलब करता है, तब अल्लाह नज़रें चुराता है. इस नतीजा ए फ़िक्र के बाद बंदा ए अहक़र, बन्दा ए बरतर हो गया और उसने ऐसे कमतर अल्लाह की नमाज़ें अपने पर हराम कर लीं.
 जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Monday 20 June 2011

सूरह कौसर १०८ - पारा ३०

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.
सूरह कौसर १०८ - पारा ३०
(इन्ना आतयना कल कौसर)

ऊपर उन (७८ -११४) सूरतों के नाम उनके शुरूआती अल्फाज़ के साथ दिया जा रहा हैं जिन्हें नमाज़ों में सूरह फातेहा या अल्हम्द - - के साथ जोड़ कर तुम पढ़ते हो.. ये छोटी छोटी सूरह तीसवें पारे की हैं. देखो और समझो कि इनमें झूट, मकर, सियासत, नफरत, जेहालत, कुदूरत, गलाज़त यहाँ तक कि मुग़ललज़ात भी तुम्हारी इबादत में शामिल हो जाती हैं. तुम अपनी ज़बान में इनको पढने का तसव्वुर भी नहीं कर सकते. ये ज़बान ए गैर में है, वह भी अरबी में, जिसको तुम मुक़द्दस समझते हो, चाहे उसमे फह्हाशी ही क्यूँ न हो..
इबादत के लिए रुक़ूअ या सुजूद, अल्फाज़, तौर तरीके और तरकीब की कोई जगह नहीं होती, गर्क ए कायनात होकर कर उट्ठो तो देखो तुम्हारा अल्लाह तुम्हारे सामने सदाक़त बन कर खड़ा होगा. तुमको इशारा करेगा कि तुमको इस धरती पर इस लिए भेजा है कि तुम इसे सजाओ और सँवारो, आने वाले बन्दों के लिए, यहाँ तक कि धरती के हर बाशिदों के लिए. इनसे नफरत करना गुनाह है, इन बन्दों और बाशिदों की खैर ही तुम्हारी इबादत होगी. इनकी बक़ा ही तुम्हारी नस्लों के हक में होगा.
आज कल जिहाद को लेकर बहसें चल रही हैं. पिछले दिनों ndtv पर इस सिलसिले में एक तमाशा देखने को मिला. इसमें मुस्लिम बाज़ीगर आलिमों और सियासत दानों ने बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया, लग रहा था कि इस्लाम का दिफ़ा कर रहे हों, बजाए इसके कि वह सच्चाई से काम लेते, जिससे मुस्लिम अवाम का कुछ फ़ायदा हो. जिहाद के नए नए नाम और मअनी तराशे गए, इसका हिंदी करण किया गया कि जिहाद परियास और प्रयत्न का नाम है, यज्ञं और परितज्ञं को जिहाद कहा जाता है. उन सभों की लफ्ज़ी मानों में यह दलीले सही थीं मगर जिहाद का और उसके अर्थ का इस्लामी करण किया गया है, काश कि ऐसा होता जैसा कि यह जोगी बतला रहे थे. क़ुरआन में जिहाद के फ़रमान हैं, "इस्लाम के लिए जंगी जिहाद करो, गैर मुस्लिम और ख़ास कर काफ़िरों से इतनी जिहाद करो कि उनका वजूद न बचे." सैकड़ों आयतें इस संदभ में पेश की जा सकती हैं. इस सन्दर्भ में. "काफ़िर वह होते हैं जो कुफ्र करते है और एकेश्वर को नहीं मानते तथा मूर्ति पूजा करते है. bharat के हिन्दू 'मिन जुमला काफ़िर' हैं, इसको मुसलामानों के दिल ओ दिमाग से निकाला नहीं जा सकता.
खैबर की जंग इसकी तारीखी गवाह है, जिसमें खुद मुहम्मद शामिल थे. ये जिहाद इतनी कुरूर थी कि इसके बयान के लिए इन ओलिमा के पास हिम्मत और जिसारत नहीं कि यह टीवी चैनलों के सामने बयान कर सकें. इसी जंग में मिली मज़लूम सफ़िया, मुहम्मद की बीवियों में से एक थी जिसे मजबूर होना पड़ा कि अपने बाप, भाई, शौहर और पूरे खानदान की लाशों के बीच मुहम्मद के साथ सुहाग रात मनाए.
अलकायदा, तालिबान और अन्य जिहादी तंजीमें सही मअनो में क़ुरआनी मुसलमान हैं जो खैबर को अफगानिस्तान के कुछ हिस्से में मुहम्मदी काल को दोहरा रहे हैं.

"बेशक हमने आपको कौसर अता फ़रमाई,
सो आप अपने परवर दिगार की नमाज़ें पढ़िए,
और क़ुरबानी कीजिए, बिल यक़ीन आपका दुश्मन ही बे नाम ओ निशान होगा"
सूरह कौसर १०८ - पारा ३० आयत (१-३)

नमाज़ियो !
नमाज़ से जल्दी फुर्सत पाने के लिए अक्सर आप मंदार्जा बाला छोटी सूरह पढ़ते हो. इसके पसे-मंज़र में क्या है, जानते हो?
सुनो,खुद साख्ता रसूल की बयक वक़्त नौ बीवियाँ थीं. इनके आलावा मुताअददित लौंडियाँ और रखैल भी हुवा करती थीं. जिनके साथ वह अय्याशियाँ किया करते थे. उनमें से ही एक मार्या नाम की लौड़ी थी, जो हामला हो गई थी. मार्या के हामला होने पर समाज में चे-में गोइयाँ होने लगी कि जाने किसका पाप इसके पेट में पल रहा है? बात जब ज्यादः बढ़ गई तो मार्या ने अपने मुजरिम पर दबाव डाला, तब मुहम्मद ने एलान किया कि मार्या के पेट में जो बच्चा पल रहा है, वह मेरा है. ये एलान रुसवाई के साथ मुहम्मद के हक में भी था कि खदीजा के बाद वह अपनी दस बीवियों में से किसी को हामला न कर सके थे गोया अज सरे नव जवान हो गए(अल्लाह के करम से). बहरहाल लानत मलामत के साथ मुआमला ठंडा हुआ. इस सिलसिले में एक तअना ज़न को मुहम्मद ने उसके घर जाकर क़त्ल भी कर दिया.
नौ महीने पूरे हुए, मार्या ने एक बच्चे को जन्म दिया, मुहम्मद की बांछें खिल गई कि चलो मैं भी साहिबे औलादे नारीना हुवा. उन्होंने लड़के की विलादत की खुशियाँ भी मनाईं. उसका अक़ीक़ा भी किया, दावतें भी हुईं. उन्हों ने बच्चे का नाम रखा अपने मूरिसे आला के नाम पर 'इब्राहीम'
इब्राहीम ढाई साल की उम्र पाकर मर गया, एक लोहार की बीवी को उसे पालने के किए दे दिया था, जिसके घर में भरे धुंए से उसका दम घुट गया था.
खुली आँखों से जन्नत और दोज़ख देखने वाले और इनका हाल बतलाने और हदीस फ़रमाने वाले अल्लाह के रसूल के साथ उनके मुलाज़िम जिब्रील अलैहिस्सलाम ने उनके साथ कज अदाई की और अपने प्यारे रसूल के साथ अल्लाह ने दगाबाज़ी कि उनका ख्वाब चकनाचूर हो गया. मुहल्ले की औरतों ने फब्ती कसी " बनते हैं अल्लाह के रसूल और बाँटते फिरते है उसका पैगाम, बुढ़ापे में एक वारिस हुवा, वह भी लौड़ी जना, उसको भी इनका अल्लाह बचा न सका. मुहम्मद तअज़ियत की जगह तआने पाने लगे. बला के बेशर्म और ढीठ मुहम्मद ने अपने हरबे से काम लिया, और अपने ऊपर वह्यी उतारी जो मंदार्जा बाला आयतें हैं. अल्लाह उनको तसल्ली देता है कि तुम फ़िक्र न करो मैं तुमको, (नहीं! बल्कि आपको) इस हराम जने इब्राहीम के बदले जन्नत के हौज़ का निगरान बनाया, आकर इसमें मछली पालन करना.
अच्छा ही हुवा लौंडी ज़ादा गुनहगार बाप का बेगुनाह मासूम बचपन में जाता रहा वर्ना मुहम्मदी पैगम्बरी का सिलसिला आज तक चलता रहता और पैगम्बरे आखिरुज्ज़मां का ऐलान भी मुसलमानों में न होता.




जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Friday 17 June 2011

सूरह माऊन१०७ - पारा ३०

मेरी तहरीर में - - -



क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।

नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.


सूरह माऊन१०७ - पारा ३०
(अरायतललज़ी योकज्ज़ेबो बिद्दीन)


कट्टर हिन्दू संगठन अक्सर कुरआन के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाते रहते हैं मगर उनका मुतालबा सीमित रहता है कि क़ुरआन से केवल बह आयतें हटा दी जाएँ जो काफ़िरों के ख़िलाफ़ जिहाद का आह्वान करती हैं, बाक़ी कुरआन पर उनको कोई आपत्ति नहीं. इस मांग में उनका हित इस्लामी जिहादियों की तरह ही निहित है कि इससे मुस्लिम वर्ग का हमेशा अहित ही होगा. मुस्लिम अपनी आस्था के तहत ऊपर की दुन्या में मिलने वाली जन्नत के लिए इस दुन्या की ज़िन्दगी को संतोष के साथ गुज़ार देंगे. उनको मजदूर, मिस्त्री, राज, नाई, भिश्ती और मुलाजिम सस्ते दामों में मिलते रहेंगे.
मुस्लिम कट्टरता बेवक़ूफ़ होती है जो इन्सान को एक बार में ही कत्ल करके खुद इंसानों की मोहताज हो जाती है, इसके बर अक्स हिन्दू कट्टरता बुद्धिमान होती है जो इन्सान को उसकी जिंदगी को मुसलसल क़त्ल किए रहती है, न मरने देती है न मुटाने देती है. यह मानव समाज को धीरे धीरे अछूत बना कर, उनका एक वर्ग बना देती और खुद स्वर्ण हो जाती है. पाँच हज़ार साल से भारत के मूल बाशिदे और आदि वासी इसकी मिसाल हैं.
इन दोनों कट्टरताओं को मज़हब और धर्म पाले रहते है, जिनको मानना ही मानव समाज की हत्या या फिर उसकी खुद कुशी है.
इसके आलावा क़ुरआन के मुख़ालिफ़ कम्युनिस्ट और पश्चिमी देश भी है जो पूरे कुरआन को ही जला देने के हक में है, इन देशों में धर्म ओ मज़हब की अफीम नहीं बाक़ी बची है, इस लिए वह पूरी मानवता के हितैषी हैं.
भारतीय मुसलामानों के दाहिने खाईं है, तो बाएँ पहाड़. उसका मदद गार कोई नहीं है, बैसे भी मदद मोहताजों को चाहिए. वह मोहताज नहीं, अभी भी ताक़त हासिल कर सकते है, बेदारी की ज़रुरत है, हिम्मत करके मुस्लिम से हट कर मोमिन हो जाएँ.


ज़कात और नमाज़ का भूखा और प्यासा मुहम्मदी अल्लाह कहता है - - -



"क्या आपने ऐसे शख्स को नहीं देखा जो रोज़े-जजा को झुट्लाता है,
सो वह शख्स है जो यतीम को धक्के देता है,
वह मोहताज को खाना खिलने की तरगीब नहीं देता,
सो ऐसे नमाजियों के लिए बड़ी खराबी है,
जो अपनी नमाज़ को भुला बैठे हैं,
जो ऐसे है कि रिया करी करते हैं,
और ज़कात बिलकुल नहीं देते."

सूरह माऊन१०७ - पारा ३० आयत(१-७)
देखो और समझो कि तुम्हारी नमाज़ों में झूट, मकर, सियासत, नफरत, जेहालत, कुदूरत, गलाज़त यहाँ तक कि मुग़ललज़ात भी तुम्हारी इबादत में शामिल हो जाती हैं. तुम अपनी ज़बान में इनको पढने का तसव्वुर भी नहीं कर सकते. ये ज़बान ए गैर में है, वह भी अरबी में, जिसको तुम मुक़द्दस समझते हो, चाहे उसमे फह्हाशी ही क्यूँ न हो..
इबादत के लिए रुक़ूअ या सुजूद, अल्फाज़, तौर तरीके और तरकीब की कोई जगह नहीं होती, गर्क ए कायनात होकर कर उट्ठो तो देखो तुम्हारा अल्लाह तुम्हारे सामने सदाक़त बन कर खड़ा होगा. तुमको इशारा करेगा कि तुमको इस धरती पर इस लिए भेजा है कि तुम इसे सजाओ और सँवारो, आने वाले बन्दों के लिए, यहाँ तक कि धरती के हर बाशिदों के लिए. इनसे नफरत करना गुनाह है, इन बन्दों और बाशिदों की खैर ही तुम्हारी इबादत होगी. इनकी बक़ा ही तुम्हारी नस्लों के हक में होगा.
नमाज़ियो !
मुहम्मद की सोहबत में मुसलमान होकर रहने से बेहतर था की इंसान आलम-ए-कुफ्र में रहता. मुहम्मद हर मुसलमान के पीछे पड़े रहते थे, न खुद कभी इत्मीनान से बैठे और न अपनी उम्मत को चैन से बैठने दिया. इनके चमचे हर वक़्त इनके इशारे पर तलवार खींचे खड़े रहते थे " या रसूल्लिल्लाह ! हुक्म हो तो गर्दन उड़ा दूं"

आज भी मुसलमानों को अपनी आकबत पर खुद एतमादी नहीं है. वह हमेशा खुद को अल्लाह का मुजरिम और गुनाहगार ही माने रहता है. उसे अपने नेक आमाल पर कम और अल्लाह के करम पर ज्यादह भरोसा रहता है. मुहम्मद की दहकाई हुई क़यामत की आग ने मुसलामानों की शख्सियत कुशी कर राखी है. कुदरत की बख्शी हुई तरंग को मुसलमानों से इस्लाम ने छीन लिया है.
नमाज़ियो ! सजदे में जाकर मेरी बातों पर गौर करो, अगर तुम्हारी आँख खुले तो, सजदे से सर उठाकर अपनी नमाज़ की नियत को तोड़ दो और ज़िदगी की रानाइयों पर भी एक नज़र डालो. ज़िन्दगी जीने की चीज़ है, इसे मुहम्मदी जंजीरों से आज़ाद करो.  

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Wednesday 15 June 2011

सूरह क़ुरैश १०६ - पारा ३०

मेरी तहरीर में - - -

क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।

नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.


सूरह क़ुरैश १०६ - पारा ३०
( लेईलाफे कुरैशिन ईलाफेहिम)


समाज की बुराइयाँ, हाकिमों की ज्यादतियां और रस्म ओ रिवाज की ख़ामियाँ देख कर कोई साहिबे दिल और साहिबे जिगर उठ खड़ा होता है, वह अपनी जान को हथेली पर रख कर मैदान में उतरता है. वह कभी अपनी ज़िदगी में ही कामयाब हो जाता है, कभी वंचित रह जाता है और मरने के बाद अपने बुलंद मुकाम को छूता है, ईसा की तरह. मौत के बाद वह महात्मा, गुरू और पैगम्बर बन जाता है. इसका वही मुख़ालिफ़ समाज इसके मौत के बाद इसको गुणांक में रुतबा देने लगता है, इसकी पूजा होने लगती है, अंततः इसके नाम का कोई धर्म, कोई मज़हब या कोई पन्थ बन जाता है. धर्म के शरह और नियम बन जाते हैं, फिर इसके नाम की दुकाने खुलने लगती हैं और शुरू हो जाती है ब्यापारिक लूट. अज़ीम इन्सान की अजमत का मुक़द्दस खज़ाना, बिल आखीर उसी घटिया समाज के लुटेरों के हाथ लग जाता है. इस तरह से समाज पर एक और नए धर्म का लदान हो जाता है.
हमारी कमजोरी है कि हम अज़ीम इंसानों की पूजा करने लगते हैं, जब कि ज़रुरत है कि हम अपनी ज़िन्दगी उसके पद चिन्हों पर चल कर गुजारें. हम अपने बच्चों को दीन पढ़ाते हैं, जब कि ज़रुरत है कि उनको आला और जदीद तरीन अखलाक़ी क़द्रें पढ़ाएँ. मज़हबी तालीम की अंधी अकीदत, जिहालत का दायरा हैं. इसमें रहने वाले आपस में ग़ालिब ओ मगलूब और ज़ालिम ओ मज़लूम रहते हैं.
दाओ धर्म कहता है "जन्नत का ईश्वरीय रास्ता ये है कि अमीरों से ज़्यादा लिया जाए और गरीबों को दिया जाए. इंसानों की राह ये है कि गरीबों से लेकर खुद को अमीर बनाया जाए. कौन अपनी दौलत से ज़मीन पर बसने वालों की खिदमत कर सकता है? वही जिसके पास ईश्वर है. वह इल्म वाला है, जो दौलत इकठ्ठा नहीं करता. जितना ज्यादः लोगों को देता है उससे ज्यादः वह पाता है."


अल्लाह अपने कुरैश पुत्रों को हिदायत देता है कि - - -



"चूँकि कुरैश खूगर हो गए,
जाड़े के और गर्मी के, यानी जाड़े और गर्मी के आदी हो गए,
तो इनको चाहिए कि काबः के मालिक की इबादत करें,
जिसने इन्हें भूक में खाना दिया और खौफ़ से इन्हें अम्न दिया."
सूरह क़ुरैश १०६ - पारा ३० आयत (१-४)
कुरआन में आयातों का पैमाना क्या है? इसकी कोई बुन्याद नहीं है. आयत एक बात पूरी होने तक तो स्वाभाविक है मगर अधूरी बात किस आधार पर कोई बात हुई ? देखिए, "चूँकि कुरैश खूगर हो गए,"
ये अधूरी बात एक आयत हो गई और कभी कभी पूरा पूरा पैरा ग्राफ एक आयत होती है. इस मसलक की कोई बुनियाद ही नहीं, इससे ज्यादः अधूरा पन शायद ही और कहीं हो.


नमाज़ियो !तुम कुरैश नहीं हो और न ही (शायद) अरबी होगे, फिर क़ुरैशियों के लिए, यह कुरैश सरदार की कही हुई बात को तुम अपनी नमाज़ों में क्यूँ पढ़ते हो? क्या तुम में कुछ भी अपनी जुगराफियाई खून की गैरत बाकी नहीं बची? यह कुरैश जो उस वक़्त भी झगडालू वहशी थे और आज भी अच्छे लोग नहीं हैं. वह तुमको हिंदी मिसकीन कहते हैं, तेल की दौलत के नशे में बह आज से सौ साल पहले की अपनी औकात भूल गए, जब हिंदी हाजियों के मैले कपडे धोया करते थे और हमारे पाखाने साफ़ किया करते थे. आज वह तुमको हिक़ारत की निगाह से देखते हैं और तुम उनके नाम के सजदे करते हो. क्या तुम्हारा ज़मीर इकदम मर गया है?
अगर तुम कुरैश या अरबी हो भी तो सदियों से हिंदी धरती पर हो, इसी का खा पी रहे हो, तो इसके हो जाओ. कुरैश होने का दावा ऐसा भी न हो कि क़स्साब से कुरैशी हो गए हो याकि जुलाहे से अंसारी, कई भारतीय वर्गों ने खुद को अरबी मुखियों को अपना नाजायज़ मूरिसे-आला बना रख्खा है, ये बात नाजायज़ वल्दियत की तरह है. बेहतर तो यह है कि नामों आगे क़बीला, वर्ग और जाति सूचक इशारा ही ख़त्म कर दो.




जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Monday 13 June 2011

सूरह फ़ील १०५ - पारा ३०

मेरी तहरीर में - - -

क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।

नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.



सूरह फ़ील १०५ - पारा ३०
(अलम तरा कैफ़ा फ़अला रब्बोका बेअसहाबिल फ़ील)


ऊपर उन (७८ -११४) सूरतों के नाम उनके शुरूआती अल्फाज़ के साथ दिया जा रहा हैं जिन्हें नमाज़ों में सूरह फातेहा या अल्हम्द - - के साथ जोड़ कर तुम पढ़ते हो.. ये छोटी छोटी सूरह तीसवें पारे की हैं. देखो और समझो कि इनमें झूट, मकर, सियासत, नफरत, जेहालत, कुदूरत, गलाज़त यहाँ तक कि मुग़ललज़ात भी तुम्हारी इबादत में शामिल हो जाती हैं. तुम अपनी ज़बान में इनको पढने का तसव्वुर भी नहीं कर सकते. ये ज़बान ए गैर में है, वह भी अरबी में, जिसको तुम मुक़द्दस समझते हो, चाहे उसमे फह्हाशी ही क्यूँ न हो..
इबादत के लिए रुक़ूअ या सुजूद, अल्फाज़, तौर तरीके और तरकीब की कोई जगह नहीं होती, गर्क ए कायनात होकर कर उट्ठो तो देखो तुम्हारा अल्लाह तुम्हारे सामने सदाक़त बन कर खड़ा होगा. तुमको इशारा करेगा कि तुमको इस धरती पर इस लिए भेजा है कि तुम इसे सजाओ और सँवारो, आने वाले बन्दों के लिए, यहाँ तक कि धरती के हर बाशिदों के लिए. इनसे नफरत करना गुनाह है, इन बन्दों और बाशिदों की खैर ही तुम्हारी इबादत होगी. इनकी बक़ा ही तुम्हारी नस्लों के हक में होगा.



अगर इंसान किसी अल्लाह, गाड और भगवान् को नहीं मानता तो सवाल उठता है कि वह इबादत और आराधना किसकी करे ? मख्लूक़ फ़ितरी तौर पर किसी न किसी की आधीन होना चाहती है. एक चींटी अपने रानी के आधीन होती है, तो एक हाथी अपनेझुण्ड के सरदार हाथी या पीलवान का अधीन होता है. कुत्ते अपने मालिक की सर परस्ती चाहते है, तो परिंदे अपने जोड़े पर मर मिटते हैं. इन्सान की क्या बात है, उसकी हांड़ी तो भेजे से भरी हुई है, हर वक्त मंडलाया करती है, नेकियों और बदियों का शिकार किया करती है. शिकार, शिकार और हर वक़्त शिकार, इंसान अपने वजूद को ग़ालिब करने की उडान में हर वक़्त दौड़ का खिलाडी बना रहता है, मगर बुलंदियों को छूने के बाद भी वह किसी की अधीनता चाहता है.
सूफी तबरेज़ अल्लाह की तलाश में इतने गहराई में गए कि उसको अपनी ज़ात के आलावा कुछ न दिखा, उसने अनल हक (मैं खुदा हूँ) कि सदा लगाई, इस्लामी शाशन ने उसे टुकड़े टुकड़े कर के दरिया में बहा देने की सजा दी. मुबल्गा ये है कि उसके अंग अंग से अनल हक की सदा निकलती रही.
कुछ ऐसा ही गौतम के साथ हुवा कि उसने भी भगवन की अंतिम तलाश में खुद को पाया और " आप्पो दीपो भवः " का नारा दिया.
मैं भी किसी के आधीन होने के लिए बेताब था, खुदा की शक्ल में मुझे सच्चाई मिली और मैंने उसमे जाकर पनाह ली.
कानपूर के ९२ के दंगे में, मछरिया की हरी बिल्डिंग मुस्लिम परिवार की थी, दंगाइयों ने उसके निवासियों को चुन चुन कर मारा, मगर दो बन्दे उनको न मिल सके, जिनको कि उन्हें खास कर तलाश थी. पड़ोस में एक हिन्दू बूढी औरत रहती थी, भीड़ ने कहा इसी घर में ये दोनों शरण लिए हुए होंगे, घर की तलाशी लो. बूढी औरत अपने घर की मर्यादा को ढाल बना कर दरवाजे खड़ी हो गई. उसने कहा कि मजाल है मेरे जीते जी मेरे घर में कोई घुस जाए, रह गई अन्दर मुसलमान हैं ? तो मैं ये गंगा जलि सर पर रख कर कहती हूँ कि मेरे घर में कोई मुसलमान नहीं है. औरत ने झूटी क़सम खाई थी, दोनों व्यक्ति घर के अन्दर ही थे, जिनको उसने मिलेट्री आने पर उसके हवाले किया.
ऐसे झूट का भी मैं अधीन हूँ.



ये खाए हुए भूसे का नतीजा गोबर वाली आयत है. गोबर गणेश अल्लाह कहता है - - -
"क्या आपको मालूम नहीं कि आपके रब ने हाथी वालों के साथ क्या मुआमला किया?
क्या इनकी तदबीर को सर ता पा ग़लत नहीं कर दिया?
और इन पर ग़ोल दर ग़ोल परिंदे भेजे,
जो इन लोगों पर कंकड़ कि पत्थरियाँ फेंकते थे,
सो अल्लाह ने इनको खाए हुए भूसा की तरह कर दिया."
सूरह फ़ील १०५ - पारा ३० आयत (१-५)
नमाज़ियो !इस्लाम नाज़िल होने से तकरीबन अस्सी साल पहले का वक़ेआ है कि अब्रहा नाम का कोई हुक्मरां मक्के में काबा पर अपने हाथियों के साथ हमला वर हुवा था. किम-दंतियाँ हैं कि उसकी हाथियों को अबाबील परिंदे अपने मुँह से कंकड़याँ ढो ढो कर लाते और हाथियों पर बरसते, नतीजतन हाथियों को मैदान छोड़ कर भागना पड़ा और अब्रहा पसपा हुवा. यह वक़ेआ ग़ैर फ़ितरी सा लगता है मगर दौरे जिहालत में अफवाहें सच का मुकाम पा जाती हैं.
वाजः हो कि अल्लाह ने अपने घर की हिफ़ाज़त तब की जब खाना ए काबा में ३६० बुत विराजमान थे. इन सब को मुहम्मद ने उखाड़ फेंका, अल्लाह को उस वक़्त परिंदों की फ़ौज भेजनी चाहिए था जब उसके मुख्तलिफ शकले वहां मौजूद थीं. अल्लाह मुहम्मद को पसपा करता. अगर बुत परस्ती अल्लाह को मंज़ूर न होती तो मुहम्मद की जगह अब्रहा सललललाहे अलैहे वसल्लम होता.
यह मशकूक वक़ेआ भी कुरानी सच्चाई बन गया और झूट को तुम अपनी नमाज़ों में पढ़ते हो?





जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Saturday 11 June 2011

सूरह हो म ज़ह १०४ - पारा ३०

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.

सूरह हो म ज़ह १०४ - पारा ३०
(वैलुल्ले कुल्ले होमा ज़तिल लोमाज़ते)

ऊपर उन (७८ -११४) सूरतों के नाम उनके शुरूआती अल्फाज़ के साथ दिया जा रहा हैं जिन्हें नमाज़ों में सूरह फातेहा या अल्हम्द - - के साथ जोड़ कर तुम पढ़ते हो.. ये छोटी छोटी सूरह तीसवें पारे की हैं. देखो और समझो कि इनमें झूट, मकर, सियासत, नफरत, जेहालत, कुदूरत, गलाज़त यहाँ तक कि मुग़ललज़ात भी तुम्हारी इबादत में शामिल हो जाती हैं. तुम अपनी ज़बान में इनको पढने का तसव्वुर भी नहीं कर सकते. ये ज़बान ए गैर में है, वह भी अरबी में, जिसको तुम मुक़द्दस समझते हो, चाहे उसमे फह्हाशी ही क्यूँ न हो..
इबादत के लिए रुक़ूअ या सुजूद, अल्फाज़, तौर तरीके और तरकीब की कोई जगह नहीं होती, गर्क ए कायनात होकर कर उट्ठो तो देखो तुम्हारा अल्लाह तुम्हारे सामने सदाक़त बन कर खड़ा होगा. तुमको इशारा करेगा कि तुमको इस धरती पर इस लिए भेजा है कि तुम इसे सजाओ और सँवारो, आने वाले बन्दों के लिए, यहाँ तक कि धरती के हर बाशिदों के लिए. इनसे नफरत करना गुनाह है, इन बन्दों और बाशिदों की खैर ही तुम्हारी इबादत होगी. इनकी बक़ा ही तुम्हारी नस्लों के हक में होगा.
अल्लाह को मानने से पहले उसे जानने की ज़रुरत है. इसके लिए हमें अपने दिमाग को रौशन करना पड़ेगा. इस धरती पर जितने भी रहमान और भगवन है, सब हजरते इंसान के दिमागों के गढ़े हुए हैं. क़ुदरत और फ़ितरत इनके हथियार हैं और इनके खालिक़ ए मशकूक की बरकत इनका ज़रीआ मुआश. इन खुदा फरोशों से दूर रहकर ही हम सच के आशना हो सकते हैं. फ़ितरत ने हमें सिर्फ़ खाम मॉल दिया है और इसे शक्ल देने के लिए औज़ार दिए हैं . . .
हाथ पैर, कान नाक, मुँह और दिल ओ दिमाग और सब से आखीर मरहला, जब हम शक्ल मुकम्मल कर लेते हैं तो फिनिशिग के लिए दिए हैं,
ज़मीर नुमा पालिश.
इस तरह हम ज़िन्दगी के तमाम मुआमले तराश सकते हैं और फिनिशिंग तक ला सकते हैं. इस ज़मीन को ही जन्नत बना सकते हैं. हमें अपने दिलो- दिमाग की हालत ठीक करना है, जिस पर रूहानियत ग़ालिब है.


अल्लाह की आग की सिफ़त मुलाहिजा हो, दुन्या की तमाम आग अल्लाह की नहीं है?

"बड़ी खराबी है ऐसे शख्स के लिए जो पसे पुश्त ऐब निकलने वाला हो.
रू दर रू तअने देने वाला हो, जो माल जमा करता हो और इसे बार बार गिनता हो.
वह ख्याल करता है, उसका माल उसके पास सदा रहेगा.
हरगिज़ नहीं! वह शख्स ऐसी आग में डाला जाएगा,
जिसमें जो कुछ पड़े वह इसको तोड़ फोड़ दे.
और आपको मअलूम है कि वह तोड़ फोड़ करने वाली आग कैसी है?
वह अल्लाह की आग है जो सुलगाई गई है, जो दिलों तक पहुँचेगी,
वह इन पर बंद कर दी जाएगी.
वह लोग आग के बड़े बड़े सुतूनों में होंगे."
सूरह हो म ज़ह १०४ - पारा ३०-आयत (१-९)

नमाज़ियो !
अपने अक़ीदों को मानो,
मगर ज़रूरी है कि इसे जानो भी.
अल्लाह जैसी हस्ती आजिज़ है, उन लोगों से जो उसे , उसकी अन देखी सूरत और ऊँट पटाँग बातों को मानने को तैयार नहीं,
आखिर इसके लिए क्या मुंकिन नहीं है कि वह मुजस्सिम अपने बन्दों के सामने आ जाए?
और अपने वजूद का सुबूत दे,
जिन बन्दों की किस्मत में उसने जन्नत लिख रखी हैं, उनके हाथों में छलकता जाम थमा दे,
उनके लिए बैज़ा जैसी बड़ी बड़ी आँखों वाली गोरी गोरी हूरों की परेड करा दे.
क़ुरआन कहता है अल्लाह और उसके रसूल को मानो तो मरने के बाद जन्नत की पूरी फिल्म दिखलाई जाएगी,
तो इस फिल्म का ट्रेलर दिखलाना उसके लिए क्या मुश्किल खड़ी करता है,
वह ऐसा करदे तो उसके बाद कौन कमबख्त काफ़िर बचेगा?
मगर अल्लाह के लिए ये सब कर पाना मुमकिन नहीं,
अफ़सोस तुम्हारे लिए कितना आसान है, इस खयाली अल्लाह को बगैर सोचे विचारे मान लेते हो.
इसे जानो,
जागो! मुसलमानों जागो!!

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Thursday 9 June 2011

सूरह अस्र १०३ - पारा ३०

मेरी तहरीर में - - -


क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।


नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.



सूरह अस्र १०३ - पारा ३०
(वलअसरे इन्नल इनसाना)

ऊपर उन (७८ -११४) सूरतों के नाम उनके शुरूआती अल्फाज़ के साथ दिया जा रहा हैं जिन्हें नमाज़ों में सूरह फातेहा या अल्हम्द - - के साथ जोड़ कर तुम पढ़ते हो.. ये छोटी छोटी सूरह तीसवें पारे की हैं. देखो और समझो कि इनमें झूट, मकर, सियासत, नफरत, जेहालत, कुदूरत, गलाज़त यहाँ तक कि मुग़ललज़ात भी तुम्हारी इबादत में शामिल हो जाती हैं. तुम अपनी ज़बान में इनको पढने का तसव्वुर भी नहीं कर सकते. ये ज़बान गैर में है, वह भी अरबी में, जिसको तुम मुक़द्दस समझते हो, चाहे उसमे फह्हाशी ही क्यूँ हो..
इबादत के लिए रुक़ूअ या सुजूद, अल्फाज़, तौर तरीके और तरकीब की कोई जगह नहीं होती, गर्क कायनात होकर कर उट्ठो तो देखो तुम्हारा अल्लाह तुम्हारे सामने सदाक़त बन कर खड़ा होगा. तुमको इशारा करेगा कि तुमको इस धरती पर इस लिए भेजा है कि तुम इसे सजाओ और सँवारो, आने वाले बन्दों के लिए, यहाँ तक कि धरती के हर बाशिदों के लिए. इनसे नफरत करना गुनाह है, इन बन्दों और बाशिदों की खैर ही तुम्हारी इबादत होगी. इनकी बक़ा ही तुम्हारी नस्लों के हक में होगा.

तथा कथित बाबा राम देव एक मदारी है जो योग के नाम पर उछल कूद करता है. वह अव्वल दर्जे का अय्यार है जो भोले भाले अवाम को ठगता है. पैसे से दूर दिखने बाला ये धूर्त अपने हर काम में पैसे की दुर्गन्ध सूंघता है. इसकी एक ही प्रेक्टिस है" पेट की धौकनी " इसका तमाशा ये कुईन विक्टोरिया तक को दिखा चुका है. अफ़सोस होता है अवाम पर जो इसकी लकवा ग्रस्त आँखे और चेहरे को देख कर भी इसे हर बीमारी का मसीहा मानते हैं.
रामदेव एक फटीचर गवइए से अरबों का मालिक बन गया है, उसकी आकान्छाएँ यहीं तक सीमित नहीं, बल्कि वह देश का राष्ट्र पति बन्ने का सपना देख रहा है. योग गुरु तो उसने खुद को स्थापित कर ही चुका है, अब अवशधि सम्राट की दौड़ में शामिल है. परदे के पीछे राम देव क्या है, इसका पोल भी जल्द ही दुन्या के सामने आ जायगा. इसको बढ़ावा देने वाले या तो सीधी सादी जनता है या फिर कपटी कुटिल मुट्ठी भर लोग. खेद है कि भेद चाल चलने वाली जनता के लिए जम्हूरियत की सौगात है.
ऐसे हालात ही इन कुटिलों को एक दिन मुहम्मद सललललाहो अलैहे वसल्लमबना देते हैं.
देखिए की मुहम्मद सललललाहो अलैहे वसल्लम कुरआन में क्या क्या बकते हैं - - -

"क़सम है ज़माने की,
कि इंसान बड़े ख़सारे में है,
मगर जो लोग ईमान लाए और उन्हों ने अच्छे कम किए और एक दूसरे को हक की फ़ह्माइश करते रहे और एक दूसरे को पाबंदी की फ़ह्माइश करते रहे"
सूरह वल अस्र १०३ पारा-३० आयत (१-३)
नमाज़ियो !
आज जदीद क़द्रें आ चुकी हैं कि 'बिन माँगी राय' मत दो, क़ुरआन कहता है," एक दूसरे को हक की फ़ह्माइश करते रहो"
हक नाहक इंसानी सोच पर मुनहसर करता है, जो तुम्हारे लिए हक़ का मुक़ाम रखता है, वह किसी दूसरे के लिए नाहाक़ हो सकता है. उसको अपनी नज़र्याती राय देकर, फर्द को महेज़ आप छेड़ते हैं, जो कि बिल आखीर तनाजिए का सबब बन सकता है.
इन्हीं आयातों का असर है कि मुसलामानों में तबलीग का फैशन बन गया है और इसकी जमाअतें बन गई हैं. यही तबलीग (फ़ह्माइश)जब जब शिद्दत अख्तियार करती है तो जान लेने और जान देने का सबब बन जाती है और इसकी जमाअतें तालिबानी हो जाती हैं.
इस्लाम हर पहलू से दुश्मने-इंसानियत है. अपनी नस्लों को इसके साए से बचाओ.
जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Tuesday 7 June 2011

सूरह तकासुर १०२ - पारा ३०

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.

सूरह तकासुर १०२ - पारा ३०
(अल्हाको
मुत्तकासुरो हत्ता ज़ुर्तमुल मकाबिर)
ऊपर उन (७८ -११४) सूरतों के नाम उनके शुरूआती अल्फाज़ के साथ दिया जा रहा हैं जिन्हें नमाज़ों में सूरह फातेहा या अल्हम्द - - के साथ जोड़ कर तुम पढ़ते हो.. ये छोटी छोटी सूरह तीसवें पारे की हैं. देखो और समझो कि इनमें झूट, मकर, सियासत, नफरत, जेहालत, कुदूरत, गलाज़त यहाँ तक कि मुग़ललज़ात भी तुम्हारी इबादत में शामिल हो जाती हैं. तुम अपनी ज़बान में इनको पढने का तसव्वुर भी नहीं कर सकते. ये ज़बान ए गैर में है, वह भी अरबी में, जिसको तुम मुक़द्दस समझते हो, चाहे उसमे फह्हाशी ही क्यूँ न हो..
इबादत के लिए रुक़ूअ या सुजूद, अल्फाज़, तौर तरीके और तरकीब की कोई जगह नहीं होती, गर्क ए कायनात होकर कर उट्ठो तो देखो तुम्हारा अल्लाह तुम्हारे सामने सदाक़त बन कर खड़ा होगा. तुमको इशारा करेगा कि तुमको इस धरती पर इस लिए भेजा है कि तुम इसे सजाओ और सँवारो, आने वाले बन्दों के लिए, यहाँ तक कि धरती के हर बाशिदों के लिए. इनसे नफरत करना गुनाह है, इन बन्दों और बाशिदों की खैर ही तुम्हारी इबादत होगी. इनकी बक़ा ही तुम्हारी नस्लों के हक में होगा.

मुसलामानों का एक फख्र ए नाहक ये भी है कि दुन्या में क़ुरआन वाहिद ऐसी करिश्माई किताब है कि जिसको हिफ्ज़ (कंठस्त) किया जा सकता है, इसलिए कि ये आसमानी किताब है. यक़ीन किया जा सकता है कि इस बात में जुज़्वी सच्चाई है, क्यूंकि चौदह सौ सालों में इसके लाखों हाफिज़ हुए होंगे और आज भी हजारहा मौजूद हैं. इस बात पर एक तहक़ीक़ी निगाह डालने की ज़रुरत है. सब से पहले कि कुरआन एक मुक़फ्फ़ा नसर (तुकान्ती गद्य) है जिसमे सुर, लय और तरन्नुम बनना फितरी है. इसको नगमों की तरह याद किया जा सकता है. खुद कुरआन के तर्जुमे को किसी दूसरी भाषा में हिफ्ज़ कर पाना मुमकिन नहीं, क्यूंकि ये कोई संजीदा मज़मून नहीं है, कोई भी नज़्म खुद को याद कराने की कशिश रखती है. इसके हिफ्ज़ का शिकार तालिब इल्म किसी दूसरे मज़मून के आस पास नहीं रहता, जब वह दूसरे सब्जेक्ट पर जोर डालता है तो उसका क़ुरआनी हिफ्ज़ ख़त्म होने लगता है.
आमाद ए जेहाद तालिब इल्म कुरआन क्या, इससे बड़ी बड़ी किताबो का हफिज़ा कर लेता है. एक लाख बीस हज़ार की ज़खीम किताब महा भारत बहुतों को कंठस्त हुई. सिन्फ़ आल्हा ज़बानी गाया जाता है जो बांदा जिले के लोगों में सीना बसीना अपने पूर्वजों से आय़ा. इस विधा को जाहो-जलाल के साथ गाया जाता है कि सुनने वाले पर जादू चढ़ कर बोलता है.
अभी एक नवजवान ने पूरी अंग्रेजी डिक्शनरी को, लफ़्ज़ों को उलटी हिज्जे के साथ याद करके दुन्या को अचम्भे में ड़ाल दिया, इसका नाम गिनीज़ बुक आफ रिकार्ड में दर्ज हुआ.

अहम् बात ये है कि इतनी बड़ी तादाद में हाफ़िज़े कुरआन, कौम के लिए कोई फख्र की बात नहीं, ये तो शर्म की बात है कि कौम के नवजवान को हाफ़िज़े जैसे गैर तामीरी काम में लगा दिया जाए. इतने दिनों में तो वह ग्रेजुएट हो जाते. कोई कौम दुन्या में ऐसी नहीं मिलेगी जो अपने नव जवानों की ज़िन्दगी इस तरह से बर्बाद करती हो.
मुसलामानों की गफ़लत का एक क़ुरआनी नमूना मुलाहिजा हो - - -
"फख्र करना तुमको गाफ़िल किए रखता है,
यहाँ तक कि तुम कब्रिस्तानों में पहुँच जाते हो,
हरगिज़ नहीं तुमको बहुत जल्द मालूम हो जाएगा.
(फिर) हरगिज़ नहीं तुमको बहुत जल्द मालूम हो जाएगा.
हरगिज़ नहीं अगर तुम यकीनी तौर पर जान लेते,
वल्लाह तुम लोग ज़रूर दोज़ख को देखोगे.
वल्लाह तुम लोग ज़रूर इसको ऐसा देखना देखोगे जोकि खुद यक़ीन है, फिर उस रोज़ तुम सबको नेमतों की पूछ होगी".
सूरह तकासुर १०२ - पारा ३० - आयत (१-८)
नमाज़ियो!
तुम अल्लाह के कलाम की नंगी तस्वीर देख रहे हो, कुरआन में इसके तर्जुमान इसे अपनी चर्ब ज़बानी से बा लिबास करते है. क्या बक रहे हैं तुम्हारे रसूल ? वह ईमान लाए हुए मुसलामानों को दोज़ख में देखने की आरज़ू रखते हैं. किसी तोहफे की तरह नवाजने का यकीन दिलाते हैं. " वल्लाह तुम लोग ज़रूर दोज़ख को देखोगे." अगर वाकई कहीं दोज़ख होती तो उसमें जाने वालों में मुहम्मद का नाम सरे फेहरिश्त होता.

आख़िरी आयत "वल्लाह तुम लोग ज़रूर इसको ऐसा देखना देखोगे जोकि खुद यक़ीन है, फिर उस रोज़ तुम सबको नेमतों की पूछ होगी".को बार दोहरा कर कोई माकूल मतलब निकल सको तो निकालो.


जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Monday 6 June 2011

सूरह अलक़ारिआ १०१- पारा ३०

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.

सूरह अलक़ारिआ १०१- पारा ३०
(अल्क़ारेअतो मल्क़ारेअतो)

ऊपर उन (७८ -११४) सूरतों के नाम उनके शुरूआती अल्फाज़ के साथ दिया जा रहा हैं जिन्हें नमाज़ों में सूरह फातेहा या अल्हम्द - - के साथ जोड़ कर तुम पढ़ते हो.. ये छोटी छोटी सूरह तीसवें पारे की हैं. देखो और समझो कि इनमें झूट, मकर, सियासत, नफरत, जेहालत, कुदूरत, गलाज़त यहाँ तक कि मुग़ललज़ात भी तुम्हारी इबादत में शामिल हो जाती हैं. तुम अपनी ज़बान में इनको पढने का तसव्वुर भी नहीं कर सकते. ये ज़बान ए गैर में है, वह भी अरबी में, जिसको तुम मुक़द्दस समझते हो, चाहे उसमे फह्हाशी ही क्यूँ न हो..
इबादत के लिए रुक़ूअ या सुजूद, अल्फाज़, तौर तरीके और तरकीब की कोई जगह नहीं होती, गर्क ए कायनात होकर कर उट्ठो तो देखो तुम्हारा अल्लाह तुम्हारे सामने सदाक़त बन कर खड़ा होगा. तुमको इशारा करेगा कि तुमको इस धरती पर इस लिए भेजा है कि तुम इसे सजाओ और सँवारो, आने वाले बन्दों के लिए, यहाँ तक कि धरती के हर बाशिदों के लिए. इनसे नफरत करना गुनाह है, इन बन्दों और बाशिदों की खैर ही तुम्हारी इबादत होगी. इनकी बक़ा ही तुम्हारी नस्लों के हक में होगा.

एक बच्चे ने बाग़ में बैठे कुछ बुजुर्गों से, आकर पूछा क़ि क्या उनमें से कोई उसके एक सवाल का जवाब दे सकता है?
छोटा बच्चा था, लोगों ने उसकी दिलजोई की, बोले पूछो.
बच्चे ने कहा एक बिल्ली अपने बच्चे के साथ सड़क पार कर रही थी क़ि अचानक एक कार के नीचे आकर मर गई, मगर उसका बच्चा बच गया, बच्चे नेवापस आकर अपनी माँ के कान में कुछ कहा और वहां से चला गया. ,
आप लोगों में कोई बतलाए क़ि बच्चे ने अपनी माँ के कान में क्या कहा होगा ?
बुड्ढ़े अपनी अपनी समझ से उस बच्चे को बारी बारी जवाब देते रहे जिसे बच्चा ख़ारिज करता रहा. थक हार कर बुड्ढों ने कहा , अच्छा भाई हारी, तुम ही बतलाओ क्या कहा होगा?
बच्चे ने कहा उसने अपनी माँ के कान में कहा था "मियाऊँ"
आलिमान दीन की चुनौती है कि कुरआन का सही मतलब समझना हर एक की बस की बात नहीं, वह ठीक ही समझते है क़ि मियाऊँ को कौन समझ सकता है? मुहम्मद के मियाऊँ का मतलब है "क़यामत ज़रूर आएगी"

देखिए क़ि मुहम्मद उम्मी सूरह में आयतों को सूखे पत्ते की तरह खड़खडाते हैं. सूखे पत्ते सिर्फ जलाने के काम आते हैं. वक़्त का तकाज़ा है क़ि खड़खडाने वाले सूखे खड़खडाने वाली पत्तों की तरह ही इन कुरानी आयतों को जला दिया जाए - - -

"वह खड़खडाने वाली चीज़ कैसी कुछ है, वह खड़खडाने वाली चीज़?
वह खाद्खादाने वाली चीज़ कैसी कुछ है वह खड़खडाने वाली चीज़ ??
और आपको मालूम है कैसी कुछ है वह खड़खडाने वाली चीज़,
जिस रोज़ आदमी परेशान परवानों जैसे हो जाएँगे .
और पहाड़ रंगीन धुनी हुई रूई की तरह हो जाएगे,
फिर जिस शख्स का पल्ला भारी होगा,
वह तो खातिर ख्वाह आराम में होगा,
और जिसका पल्ला हल्का होगा,
तो उसका ठिकाना हाविया होगा,और आपको मालूम है, वह हाविया क्या है?
वह एक दहकती हुई आग है."
सूरह अलक़ारिआ १०१- पारा ३० आयत (१-११)
नमाज़ियो !
इस सूरह को ज़बान ए उर्दू में हिफज़ करो उसके बाद एक हफ्ते तक अपनी नमाज़ों में ज़बान ए उर्दू में (या जो भी आपकी मादरी ज़बान हो), अल्हम्द के बाद इसे ही जोड़ो. अगर तुम उस्तुवार पसंद हो तो तुम्हारे अन्दर एक नया नमाज़ी नमूदार होगा. वह मोमिन की राह तलाश करेगा, जहाँ सदाक़त और उस्तुवारी है.
नमाज़ के लिए जाना है तो ज़रूर जाओ, उस वक्फे में वजूद की गहराई में उतरो, खुद को तलाश करो. अपने आपको पा जाओगे तो वही तुम्हारा अल्लाह होगा. उसको संभालो और अपनी ज़िन्दगी का मकसद तुम खुद मुक़र्रर करो.
तुम्हें इन नमाज़ों के बदले 'मनन चिंतन' की ज़रुरत है. इस धरती पर आए हो तो इसके लिए खुद को इसके हवाले करो, इसके हर जीव की खिदमत तुम्हारी ज़िन्दगी का मक़सद होना चाहिए, इसे कहते हैं ईमान, क़ि जो झूट का इस्तेमाल किसी भी हालत में न करे. तुम्हारे कुरआन में मुहम्मदी झूट का अंबार है.
जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Thursday 2 June 2011

सूरह आदियात १०० - पारा ३०

मेरी तहरीर में - - -

क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।

नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.


सूरह आदियात १०० - पारा ३०(वलआदेयाते ज़बहन)


ऊपर उन (७८ -११४) सूरतों के नाम उनके शुरूआती अल्फाज़ के साथ दिया जा रहा हैं जिन्हें नमाज़ों में सूरह फातेहा या अल्हम्द - - के साथ जोड़ कर तुम पढ़ते हो.. ये छोटी छोटी सूरह तीसवें पारे की हैं. देखो और समझो कि इनमें झूट, मकर, सियासत, नफरत, जेहालत, कुदूरत, गलाज़त यहाँ तक कि मुग़ललज़ात भी तुम्हारी इबादत में शामिल हो जाती हैं. तुम अपनी ज़बान में इनको पढने का तसव्वुर भी नहीं कर सकते. ये ज़बान ए गैर में है, वह भी अरबी में, जिसको तुम मुक़द्दस समझते हो, चाहे उसमे फह्हाशी ही क्यूँ न हो..
इबादत के लिए रुक़ूअ या सुजूद, अल्फाज़, तौर तरीके और तरकीब की कोई जगह नहीं होती, गर्क ए कायनात होकर कर उट्ठो तो देखो तुम्हारा अल्लाह तुम्हारे सामने सदाक़त बन कर खड़ा होगा. तुमको इशारा करेगा कि तुमको इस धरती पर इस लिए भेजा है कि तुम इसे सजाओ और सँवारो, आने वाले बन्दों के लिए, यहाँ तक कि धरती के हर बाशिदों के लिए. इनसे नफरत करना गुनाह है, इन बन्दों और बाशिदों की खैर ही तुम्हारी इबादत होगी. इनकी बक़ा ही तुम्हारी नस्लों के हक में होगा.


कुदरत के कुछ अटल कानून हैं. इसके कुछ अमल हैं और हर अमल का रद्दे अमल, इस सब का मुजाहिरा और नतीजा है सच, जिसे कुदरती सच भी कहा जा सकता है.कुदरत का कानून है २+२=४ इसके इस अंजाम ४ के सिवा न पौने चार हो सकता है न सवा चार. कुदरत जग जाहिर (ज़ाहिर) है और तुम्हारे सामने भी मौजूद है.



कुदरत को पूजने की कोई लाजिक नहीं हो सकती,कोई जवाज़ नहीं, मगर तुम इसको इससे हट कर पूजना चाहते हो इस लिए होशियारों ने इसका गायबाना बना दिया है. उन्हों ने कुदरत को माफौकुल फितरत शक्ल देकर अल्लाह, खुदा और भगवन वगैरा बना दिया है. तुम्हारी चाहत की कमजोरी का फ़ायदा ये समाजी कव्वे उठाया करते है. तुम्हारे झूठे पैगम्बरों ने कुदरत की वल्दियत भी पैदा कर रखा है कि सब उसकी कुदरत है.दर असल दुन्या में हर चीज़ कुदरत की ही क़ुदरत है, जिसे समझाया जाता है कि इंसानी जेहन रखने वाले अल्लाह की कुदरत है.
कुदरत कहाँ कहती है कि तुम मुझको तस्लीम करो, पूजो और मुझसे डरो? कुदरत का कोई अल्लाह नहीं और अल्लाह की कोई कुदरत नहीं. दोनों का दूर दूर तक कोई रिश्ता नहीं. क़ुदरत खालिक भी है और मखलूक भी. वह मंसूर की माशूक भी है और राबिया बासरी का आषिक भी. भगवानों, रहमानों और शैतानों का उस के साथ दूर का भी रिश्ता नहीं है. देवी देवता और अवतार पयम्बर तो उससे नज़रें भी नहीं मिला सकते. क़ुदरत के अवतार पयम्बर हैं, उसके मद्दे मुकाबिल खड़े हुए उसके खोजी हमारे साइंसटिस्ट, जिनकी शान है उनकी फरमाई हुए मजामीन और उनके नतायज जो मखलूक को सामान ए ज़िन्दगी देते हैं. मजदूरों को मशीने देते है और किसानो को नई नई भरपूर फसलें. यही मेहनत कश इस कायनात को सजाने और संवारने में लगे हुए हैं. सच्चे फ़रिश्ते यही हैं.
तुम अपने गरेबान में मुँह डाल कर देखो कि कहीं तुम भी तो इन अल्लाह फरोशो के शिकार तो नहीं?
क़ुदरत को सही तौर पर समझ लेने के बाद, इसके हिसाब से ज़िन्दगी बसर करना ही जीने का सलीका है.
देखिए पैगम्बर अल्लाह के नाम पर कैसी कैसी बेहूदा आयतें गढ़ते हैं, वह भी अल्लाह को कसमें खिला खिला कर.
"क़सम है उन घोड़ों की जो हाफ्ते हुए दौड़ते हैं,
फिर टाप मार कर आग झाड़ते हैं,
फिर सुब्ह के वक़्त तख़्त ओ ताराज करते हैं,
फिर उस वक़्त गुबार उड़ाते हैं,
फिर उस वक़्त जमाअत में जा घुसते हैं,
बेशक आदमी अपने परवर दिगार का बड़ा नाशुक्रा है,
और इसको खुद भी इसकी खबर है,
और वह माल की मुहब्बत में बड़ा मज़बूत है,
क्या इसको वह वक़्त मालूम नहीं जब जिंदा किए जाएँगे, जितने मुर्दे कब्र में हैं.
और आशकारा हो जाएगा जो कुछ दिलों में है,
बेशक इनका परवर दिगार इनके हाल से, उस रोज़ पूरा आगाह है."


नमाज़ियो !इन आयतों को एक सौ एक बार गिनते हुए पढो, शायद तुमको अपनी दीवानगी पर शर्म आए. तुम बेदार होकर इन घोड़ों की खुराफातें जो जंग से वाबिस्ता हैं, से अपने आप को छुड़ा सको. आप को कुछ नज़र आए कि आप की नमाज़ों में घोड़े अपने तापों की नुमाइश कर रहे हैं. मुहम्मद अपने इग्वाई ( जेहादी) प्रोग्रामों को बयान कर रहे हैं, जैसा कि उनका तरिका ए ज़ुल्म था कि अलल सुब्ह वह पुर अमन आबादी पर हमला किया करते थे.

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान