Thursday 28 May 2015

Soorah Bakr 2- 10th (284-286)

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.

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सूरह अल्बक्र २ दूसरा पर 
10nth 


कुरान में एक लफ्ज़ या कोई फिकरा या अंदाजे बयान का सिलसिला बहुत देर तक कायम रहता है जैसे कोई अक्सर जाहिल लोग पढ़े लिखों की नक़्ल में पैरवी करते हैं. 
इस लिए भी ये उम्मी मुहम्मद का कलाम है, साबित करने के लिए लसानी तूल कलामी दरकार है. 
यहाँ पर धुन है लोग आप से पूछते हैं.
 अल्लाह का सवाल फर्जी होता है, जवाब में वह जो बात कहना चाहता है. ये जवाब एन इंसानी फितरत के मुताबिक होते हैं, जो हजारों सालों से तस्लीम शुदा हैं. जिसे आज मुस्लमान कुरानी ईजाद मानते हैं. आम मुसलमान समझता है इंसानियत, शराफत, और ईमानदारी, सब इसलाम की देन है, ज़ाहिर है उसमें तालीम की कमी है. उसे महदूद मुस्लिम मुआशरे में ही रखा गया है. 
" कुरान में कीडे निकलना भर मेरा मकसद नहीं है बहुत सी अच्छी बातें हैं, इस पर मेरी नज़र क्यूँ नहीं जाती?" 
अक्सर ऐसे सवाल आप की नज़र के सामने मेरे खिलाफ कौधते होंगे. 
बहुत सी अच्छी बातें, बहुत ही पहले कही गई हैं, एक से एक अज़ीम हस्तियां और नज़रियात इसलाम से पहले इस ज़मीन पर आ चुकी हैं जिसे कि कुरानी अल्लाह तसव्वुर भी नहीं कर सकता. 
अच्छी और सच्ची बातें फितरी होती हैं जिनहें आलमीं सचचाइयाँ भी कह सकते हैं. कुरान में कोई एक बात भी इसकी अपनी सच्चाई या इन्फरादी सदाक़त नहीं है. हजारों बकवास और झूट के बीच अगर किसी का कोई सच आ गया हो तो उसको कुरान का नहीं कहा जा सकता,
"माँ बाप की खिदमत करो" 
अगर कुरान कहता है तो इसकी अमली मिसाल श्रवण कुमार इस्लाम से सदियों पहले क़ायम कर चुका है. 
मौलाना कूप मंदूकों का मुतलिआ कुरान तक सीमित है इस लिए उनको हर बात कुरान में नज़र आती है. यही हाल अशिक्षित मुसलमानों का है. 
सूरह के आखीर में अल्लाह खुद अपने आप से दुआ मांगता है, बकौल मुहम्मद कुरआन अल्लाह का कलाम है, देखिए आयत में अल्लाह अपने सुपर अल्लाह के आगे कैसे ज़ारों कतार गिडगिडा रहा है. 
सदियों से अपने फ़ल्सफ़े को दोहरते दोहराते मुल्ला अल्ला को बहरूपिया बना चुका है, वह दुआ मांगते वक़्त बन्दा बन जाता है. मुहम्मद दुआ मांगते हैं तो एलानिया अल्लाह बन जाते हैं. उनके मुंह से निकली बात, चाहे उनके आल औलादों के खैर के लिए हो, चाहे सय्यादों के लिए बरकत की हो, कलाम इलाही बन कर निकलती है. 
आले इब्राहीमा व आला आले इब्राहिम इन्नका हमीदुं मजीद. यानि आले इब्राहीम गरज यहूदियों की खैर ओ बरकत की दुआ दुन्या का हर मुस्लमान मांगता है और वही यहूदी मुसलमानों के जानी दुश्मन बने हुए हैं . हम हिदुस्तानी मुसलमान यानि अरबियों कि भाष में हिंदी मिस्कीन अरबों के जेहनी गुलाम बने हुए हैं. 
अल्लाह को ज़ारों कतार रो रो कर दुआ मांगने वाले पसंद हैं. यह एक तरीके का नफ़्सियति ब्लेक मेल है. रंज ओ ग़म से भरा हुआ इंसान कहीं बैठ कर जी भर के रो ले तो उसे जो राहत मिलती है, अल्लाह उसे कैश करता है, 
(सूरह अलबकर-२ तीसरा परा तिरकर रसूल आयत 284-286) 

कुरान की एक बड़ी सूरह अलबकर अपनी २८६ आयातों के साथ तमाम हुई- जिसका लब्बो लुबाबा दर्ज जेल है - - -
क़ुरआन सार 

सूरह अल्बक्र 
* शराब और जुवा में बुराइयाँ हैं और अच्छइयां भी. 
*खैर और खैरात में उतना ही खर्च करो जितना आसान हो. 
* यतीमों के साथ मसलेहत की रिआयत रखना ज्यादा बेहतर है. 
*काफिर औरतों के साथ शादी मत करो भले ही लौंडी के साथ कर लो. 
*काफिर शौहर मत करो, उस से बेहतर गुलाम है. 
*हैज़ एक गन्दी चीज़ है हैज़ के आलम में बीवियों से दूर रहो. 
*मर्द का दर्जा औरत से बड़ा है. *सिर्फ दो बार तलाक़ दिया है तो बीवी को अपना लो चाहे छोड़ दो. 
*तलाक के बाद बीवी को दी हुई चीजें नहीं लेनी चाहिएं, मगर आपसी समझौता हो तो वापसी जायज़ है. जिसे दे कर औरत अपनी जन छुडा ले. 
*तीसरे तलाक़ के बाद बीवी हराम है.
*हलाला के अमल के बाद ही पहली बीवी जायज़ होगी. 
*माएँ अपनी औलाद को दो साल तक दूध पिलाएं तब तक बाप इनका ख़याल रखें. ये काम दाइयों से भी कराया जा सकता है. 
*एत्काफ़ में बीवियों के पास नहीं जाना चाहिए. 
*बेवाओं को शौहर के मौत के बाद चार महीना दस दिन निकाह के लिए रुकना चाहिए. *बेवाओं को एक साल तक घर में पनाह देना चाहिए 
*मुसलमानों को रमजान की शब् में जिमा हलाल हुवा.
वगैरह वगैरह सूरह कि खास बातें, 
इस के अलावः नाकाबिले कद्र बातें जो फुजूल कही जा सकती हैं भरी हुई हैं.
तमाम आलिमान को मोमिन का चैलेंज है.
मुसलमान आँख बंद कर के कहता है क़ुरआन में निजाम हयात (जीवन-विधान) है.
नमाज़ियो!
ये बात मुल्ला, मौलवी उसके सामने इतना दोहराते हैं कि वह सोंच भी नहीं सकता कि ये उसकी जिंदगी के साथ सब से बड़ा झूट है. ऊपर की बातों में आप तलाश कीजिए कि कौन सी इन बेहूदा बातों का आज की ज़िन्दगी से वास्ता है. इसी तरह इनकी हर हर बात में झूट का अंबार रहता है. इनसे नजात दिलाना हर मोमिन का क़स्द होना चाहिए .


जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Wednesday 27 May 2015

Soorah Bakr 2- 9th (263-283)

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.
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सूरह अल्बक्र २ दूसरा पर 
9nth
.(सूरह अलबकर-२ तीसरा परा तिरकर रसूल आयत 263-283) 
खर्च पर मुसलसल मुहम्मदी अल्लाह की ऊट पटांग तकरीर चलती रहती है. मालदार लोगों पर उसकी नज़रे बद लगी रहती है, सूद खोरी हराम है मगर बज़रीआ सूद कमाई गई दौलते साबका हलाल हो सकती है अगर अल्लाह की साझे दारी हो जाए. रहन, बय, सूद और इन सब के साथ साथ गवाहों की हाजिरी जैसी आमियाना बातें अल्लाह हिकमत वाला खोल खोल कर समझाता है. 
(सूरह अलबकर-२ तीसरा परा तिरकर रसूल आयत 263-273) 
अल्लाह ने आयतों में खर्च करने के तरीके और उस पर पाबंदियां भी लगाई हैं. कहीं पर भी मशक्क़त और ईमानदारी के साथ रिज़्क़ कमाने का मशविरा नहीं दिया है. इस के बर अक्स जेहाद लूट मार की तलकीन हर सूरह में है. 
"ऐ ईमान वालो! तुम एहसान जतला कर या ईजा पहुंचा कर अपनी खैरात को बर्बाद मत करो, उस शख्स की तरह जो अपना मॉल खर्च करता है, लोगों को दिखने की ग़रज़ से और ईमान नहीं रखता - - - ऐसे लोगो को अपनी कमाई ज़रा भी हाथ न लगेगी और अल्लाह काफिरों को रास्ता न बतला देंगे." 
जरा मुहम्मद की हिकमते अमली पर गौर करें कि वह लोगों से कैसे अल्लाह का टेक्स वसूलते हैं. जुमले की ब्लेक मेलिंग तवज्जेह तलब है - - -और अल्लाह काफिरों को रास्ता न बतला देंगे - - - 
एक मिसाल अल्लाह की और झेलिए- - - 
"भला तुम में से किसी को यह बात पसंद है कि एक बाग़ हो खजूर का और एक अंगूर का. इस के नीचे नहरें चलती हों, उस शख्स के इस बाग़ में और भी मेवे हों और उस शख्स का बुढापा आ गया हो और उसके अहलो अयाल भी हों, जान में कूवत नहीं, सो उस बाग़ पर एक बगूला आवे जिस में आग हो ,फिर वह बाग जल जावे. अल्लाह इसी तरह के नज़ाएर फरमाते हैं, तुम्हारे लिए ताकि तुम सोचो," 
(सूरह अलबकर-२ तीसरा परा तिरकर रसूल आयत 266) 
" और जो सूद का बकाया है उसको छोड़ दो, अगर तुम ईमान वाले हो और अगर इस पर अमल न करोगे तो इश्तहार सुन लो अल्लाह की तरफ से कि जंग का - - - और इस के रसूल कि तरफ से. और अगर तौबा कर लो गे तो तुम्हारे अस्ल अमवाल मिल जाएँगे. न तुम किसी पर ज़ुल्म कर पाओगे, न कोई तुम पर ज़ुल्म कर पाएगा." 
(सूरह अलबकर-२ तीसरा परा तिरकर रसूल आयत 279) 
एक अच्छी बात निकली मुहम्मद के मुँह से पहली बार 
"लेन देन किया करो तो एक दस्तावेज़ तैयार कर लिया करो, इस पर दो मर्दों की गवाही करा लिया करो, दो मर्द न मलें तो एक मर्द और दो औरतों की गवाही ले लो" 
(सूरह अलबकर-२ तीसरा परा तिरकर रसूल आयत 283) 

यानि दो औरत=एक मर्द 

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Tuesday 26 May 2015

Soorah Bakr 2 -8th ( 255-259)

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.
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सूरह अल्बक्र २ दूसरा पर 
8rth
आयत न २४४ के स्पोर्ट में मुहम्मद फिर एक बार मुसलमानों को भड़का रहे हैं कि अल्लाह को मंज़ूर है कि हम काफिरों का क़त्ल ओ कत्तल करें . 
"अल्लाह जिंदा है, संभालने वाला है, न उसको ऊंघ दबा सकती है न नींद, इसी की ममलूक है सब जो आसमानों में हैं और जो कुछ ज़मीन में है- - - -इसकी मालूमात में से किसी चीज़ को अपने अहाता ए इल्मी में नहीं ला सकते, मगर जिस कदर वह चाहे इस की कुर्सी ने सब आसमानों और ज़मीन को अपने अन्दर ले रखा है,और अल्लाह को इन दोनों की हिफाज़त कुछ गराँ नहीं गुज़रती और वह आली शान और अजीमुश्शान है" 
(सूरह अलबकर-२ तीसरा परा तिरकर रसूल आयत 255) 
मुहम्मद साहब को पता नहीं क्यूँ ये बतलाने की ज़रुरत पड़ गई कि अल्लाह मियां मुर्दा नहीं हैं, उन में जान है. और वह बन्दों की तरह ला परवाह भी नहीं हैं, जिम्मेदार हैं. अफ्यून या कोई नशा नहीं करते कि ऊंगते हों, या अंटा गफ़ील हो जाएँ, सब कुछ संभाले हुए हैं, ये बात अलग है की सूखा, बाढ़, क़हत, ज़लज़ला, तो लाना ही पड़ता है. अजब ज़ौक के मखलूक हैं, जो भी हो अहेद के पक्के हैं. दोज़ख के साथ किए हुए मुआहिदा को जान लगा कर निभाएंगे, उस गरीब का पेट जो भरना है. सब से पहले उसका मुंह चीरा है, बाक़ी का बाद में - - - चालू कसमें खा कर 
" दीन में ज़बरदस्ती नहीं." 
कुरान में ताजाद ((विरोधाभास) का यह सब से बड़ा निशान है. दीने इस्लाम में तो इतनी ज़बरदस्ती है कि इसे मानो या जज्या दो या गुलामी कुबूल करो या तो फिर इस के मुंकिर होकर जान गंवाओ. 
"दीन में ज़बरदस्ती नहीं."ये बात उस वक़्त कही गई थी जब मुहम्मद की मक्का के कुरैश से कोर दबती थी. जैसे आज भारत में मुसलामानों की कोर दब रही है, वर्ना इस्लाम का असली रूप तो तालिबानी ही है. 
(सूरह अलबकर-२ तीसरा परा तिरकर रसूल आयत 256) 
दीन की बातें छोड़ कर मुहम्म्द्द फिर किस्सा गोई पर आ जाते हैं. अल्लाह से एक क़िस्सा गढ़वाते है क़िस्सा को पढ़ कर आप हैरान होंगे कि क़िस्सा गो मकानों को उनकी छतों पर गिरवाता है. कहानी पढिए, कहानी पर नहीं, कहानी कार पर मुकुरइए और उन नमाजियों पर आठ आठ आंसू बहाइए जो इसको अनजाने में अपनी नमाजों में दोहरात्ते हैं. उनके ईमान पर मातम कीजिए जो ऐसी अहमकाना बातों पर ईमान रखते हैं. फिर दिल पर पत्थर रख कर सब्र कर डालिए कि वह मय अपने बल बच्चों के, तालिबानों का नावाला बन्ने जा रहे हैं. 

"तुम को इस तरह का क़िस्सा भी मालूम है, जैसे की एक शख्स था कि ऐसी बस्ती में ऐसी हालत में उसका गुज़र हुवा कि उसके मकानात अपनी छतों पर गिर गए थे, कहने लगे कि अल्लाह ताला इस बस्ती को इस के मरे पीछे किस कैफियत से जिंदा करेंगे, सो अल्लाह ताला ने उस शख्स को सौ साल जिंदा रक्खा, फिर उठाया, पूछा, कि तू कितनी मुद्दत इस हालत में रहा? उस शख्स ने जवाब दिया एक दिन रहा हूँगा या एक दिन से भी कम. अल्लाह ने फ़रमाया नहीं, बल्कि सौ बरस रहा. तू अपने खाने पीने को देख ले कि सड़ी गली नहीं और दूसरे तू अपने गधे की तरफ देख और ताकि हम तुझ को एक नज़र लोगों के लिए बना दें.और हड्डियों की तरफ देख, हम उनको किस तरह तरकीब दी देते हें, फिर उस पर गोश्त चढा देते हैं - - - बे शक अल्लाह हर चीज़ पर पूरी कुदरत रखते हैं.". 
(सूरहह अलबकर-२ तीसरा परा तिरकर रसूल आयत 259) 
मुहम्मद ऐसी ही बे सिर पैर की मिसालें कुरान में गढ़त्ते हैं जिसकी तफ़सीर निगार रफ़ू किया करते हैं..एक मुफ़स्सिर इसे यूं लिखता है - - -यानी पहले छतें गिरीं फिर उसके ऊपर दीवारें गिरीं, मुराद यह कि हादसे से बस्ती वीरान हो गई." 
इस सूरह में अल्लाह ने इसी क़िस्म की तीन मिसालें और दी हैं जिन से न कोई नसीहत मिलती है, न उसमें कोई दानाई है, पढ़ कर खिस्याहट अलग होती है. अंदाजे बयान बचकाना है, बेज़ार करता है, अज़ीयत पसंद हज़रात चाहें तो कुरआन उठा कर आयत २६१ देखें. सवाल उठता है हम ऐसी बातें वास्ते सवाब पढ़ते हैं? दिन ओ रात इन्हें दोहराते हैं, क्या अनजाने में हम पागल पन की हरकत नहीं करते ? हाँ! अगर हम इसको अपनी जबान में बआवाज़ बुलंद दोहराते रहें. सुनने वाले यकीनन हमें पागल कहने लगेंगे और इन्हें छोडें, कुछ दिनों बाद हम खुद अपने आप को पागल महसूस करने लगेंगे. आम तौर पर मुसलमान इसी मरज़ का शिकार है जिस की गवाह इस की मौजूदा तस्वीर है. वह अपने मुहम्मदी अल्लाह का हुक्म मान कर ही पागल तालिबान बन चुका है. 

.".(सूरह अलबकर-२ तीसरा परा तिरकर रसूल आयत 261) 


जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Monday 25 May 2015

Soorah Bakr 2 -7nth (231-253)

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.
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सूरह अल्बक्र २ दूसरा पर 
(सातवीं आखीर क़िस्त) A 231-253
"मुहम्मदी अल्लाह तलाक़ शुदा और बेवाओं के लिए अधूरे और बे तुके फ़रमान जारी करता है. बच्चों को दूध पिलाने कि मुद्दत और शरायत पर भी देर तक एलान करता है जो कि गैर ज़रूरी लगते हैं. एक तवील ला हासिल गुफ्तुगू जो कुरआन में बार बार दोहराई गई है जिस को इल्म का खज़ाना रखने वाले आलिम अपनी तकरीर में हवाला देते हैं कि अल्लाह ने यह बात फलां फलां सूरतों की फलां फलां आयत में फरमाई है, दर असल वह उम्मी मुहम्मद कि बड़ बड़ है जो बार बार कुरआन का पेट भरने के लिए आती है, और आलिमों का पेट इन आयातों कि जेहालत से भारती है. "
(सूरह अल्बक्र २ दूसरा पारा आयत २३१-२४२)
अल्लाह औरतों के जिंसी और अजवाजी मसलों की डाल से फुधक कर अफ़साना निगारी की टहनी पर आ बैठता है बद ज़ायका एक किस्सा पढ़ कर, आप भी अपने मुंह का ज़ायका बिगादिए - - - 
" तुझको उन लोगों का क़िस्सा तहकीक़ नहीं हुवा जो अपने घरों से निकल गए थे और वह लोग हजारो ही थे, मौत से बचने के लिए. सो अल्लाह ने उन के लिए फ़रमाया कि मर जाओ, फिर उन को जला दिया. बे शक अल्लाह ताला बड़े फज़ल करने वाले हैं लोगों पर मगर अक्सर लोग शुक्र नहीं करते."
(सूरह अल्बक्र २ दूसरा पारा आयत २४३) 
लीजिए अफ़साना तमाम .क्या फ़ज़ले इलाही? उस जालिम अल्लाह का यही ही जिस ने अपने बन्दों को बे यारो मददगार करके जला दिया ? ये मुहम्मद कि ज़लिमाना फ़ितरत की लाशुऊरी अक्कासी ही है जिसको वह निहायत फूहड़ ढंड से बयान करते हैं. 
देखिए मुहम्मद के मुंह से अल्लाह को या अल्लाह के मुंह से मुहम्मद को, यह बैंकिंग प्रोग्राम पेश करते हैं जेहाद करो - - - 
अल्लाह के पास आपनी जान जमा करी, मर गए तो दूसरे रोज़ ही जन्नत में दाखला, मोती के महल, हूरे, शराब, कबाब, एशे लाफानी, अगर कामयाब हुए तो जीते जी माले गनीमत का अंबार और अगर क़त्ताल से जान चुराते हो का याद रखो लौट कर अल्लाह के पास ही जाना है, वहाँ खबर ली जाएगी. कितनी मंसूबा बंद तरकीब है बे वकूफों के लिए.
"और अल्लाह कि राह में क़त्ताल करो. कौन शख्स है ऐसा जो अल्लाह को क़र्ज़ दिया और फिर अल्लाह उसे बढा कर बहुत से हिस्से कर दे और अल्लाह कमी करते हैं और फराखी करते हैं और तुम इसी तरफ ले जाए जाओगे"
(सूरह अलबकर-२ तीसरा परा तिरकर रसूल आयत २४४+२४५)
" अगर अल्लाह को मंज़ूर होता वह लोग (मूसा के बाद किसी नबी की उम्मत)उनके बाद किए हुआ बाहम कत्ल ओ क़त्ताल नहीं करते, बाद इसके, इनके पास दलील पहुँच चुकी थी, लेकिन वह लोग बाहम मुख्तलिफ हुए सो उन में से कोई तो ईमान लाया और कोई काफिर रहा. और अगर अल्लाह को मंज़ूर होता तो वह बाहम क़त्ल ओ क़त्ताल न करते लेकिन अल्लाह जो कहते है वही करते हैं"
(सुरह अलबकर-२ तीसरा परा तिरकर रसूल आयत २५३)
मुहम्मद ने कैसा अल्लाह मुरत्तब किया था? क्या चाहता था वह? क्या उसे मंज़ूर था? मन मानी? मुसलमान कब तक कुरानी अज़ाब में मुब्तिला रहेगा ? कब तक यह मुट्ठी भर इस्लामी आलिम अपमी इल्म के ज़हर की मार गरीब मुस्लिम अवाम चुकाते रहेंगे, मूसा को मिली उसके इलोही की दस हिदायतें आज क्या बिसात रखती हैं, हाँ मगर वक़्त आ गया है कि आज हम उनको बौना साबित कर रहे हैं. मूसा की उम्मत यहूद इल्म जदीद के हर शोबे में आसमान से तारे तोड़ रही है और उम्मते मुहम्मदी आसमान पर खाबों की जन्नत और दोज़ख तामीर कर रही है. इसके आधे सर फरोश तरक्की याफ़्ता कौमों के छोड़े हुए हतियार से खुद मुसलमानों पर निशाना साध रहे हैं और आधे सर फरोश इल्मी लियाक़त से दरोग फरोशी कर रहे हैं. 
मुसलमानों! 

खुदा के लिए जागो, वक्त की रफ़्तार के साथ खुद को जोडो, बहुत पीछे हुए जा रहे हो ,तुम ही न बचोगे तो इस्लाम का मतलब? यह इसलाम, यह इस्लामी अल्लाह, यह इस्लामी पयम्बर, सब एक बड़ी साजिश हैं, काश समझ सको. इसके धंधे बाज़ सब के सब तुम्हारा इस्तेसाल (शोषण) कर रहे है. ये जितने बड़े रुतबे वाले, इल्म वाले, शोहरत वाले, या दौलत वाले हैं, सब के सब कल्बे स्याह, बे ज़मीर, दरोग गो और सरापा झूट हैं. इसलाम तस्लीम शुदा गुलामी है, इस से नजात हासिल करने की हिम्मत जुटाओ, ईमान जीने की आज़ादी है, इसे समझो और मोमिम बनो.

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Friday 22 May 2015

Soorah Bakr 2 -6th (221-228)

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.
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सूरह अल्बक्र २ दूसरा पारा

छटवीं किस्त (-A221-228)

"निकाह मत करो काफिर औरतों के साथ जब तक कि वह मुसलमान न हो जाएँ और मुस्लमान चाहे लौंडी क्यूं न हो वह हजार दर्जा बेहतर है काफिर औरत से, गो वह तुम को अच्छी मालूम हो और औरतों को काफिर मर्दों के निकाह में मत दो, जब तक की वह मुसलमान न हो जाए, इस से बेहतर मुस्लमान गुलाम है"
(सूरह अल्बक्र २ दूसरा पर आयत 221)
हमारे मुल्क में फिरका परस्ती का जो माहौल बन गया है उसको देखते हुए दोनों क़ौमों को ज़हरीले फ़रमान की डट कर खिलाफ वर्जी करना चाहिए. हिदुस्तान में आपसी नफ़रत दूर करने की यही एक सूरत है कि दोनों फिरके आपस में शादी ब्याह करें ताकि नई नस्लें इस झगडे का खात्मा कर सकें. कितनी झूटी बात है - - - मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना. हम देखते हैं कि कुरआन की हर दूसरी आयत नफ़रत और बैर सिखला रही है
" और लोग आप से हैज़ (मासिक-धर्म) का हुक्म पूछते हैं, आप फरमा दीजिए की गन्दी चीज़ है, तो हैज़ में तुम ओरतों से अलाह्दा रहा करो और इनसे कुर्बत मत किया करो, जब तक कि वह पाक न हो जाएँ"
(सूरह अल्बक्र २ दूसरा पर आयत २२२)
देखिए कि अल्लाह कहाँ था, कहाँ आ गया? कौमी मसाइल समझा रहा था कि हैज़ (मासिक धर्म)की गन्दगी में घुस गया. कुरआन में देखेंगे यह अल्लाह की बकसरत आदत है ऐसे बेहूदा सवाल भी कुरआन ने मुहम्मद के हवाले किए हैं. हदीसें भी इसी क़िस्म की गलीज़ बातों से भरी पडी हैं. हैज़, उचलता हुवा पानी, तुर्श और शीरीं दरयाओं का मिलन, मनी, खून का लोथडा और दाखिल ओ खुरूज कि हिकमत से लबरेज़ अल्लाह की बातें जिसको मुसलमान निजामे हयात कहते हैं. अफ़सोस कि यही गंदगी इबारतें नमाजों में पढाई जाती है. 
* औरतों के हुकूक का ढोल पीटने वाला इसलाम क्या औरत को इंसान भी मानता है? या मर्दों के मुकाबले में उसकी क्या औकात है, आधी? चौथाई? या कोई मॉल ओ मता, जायदाद और शय ? इस्लामी या कुरानी शरा और कानून ज्यादा तर कबीलाई जेहालत के तहत हैं. इन्हें जदीद रौशनी की सख्त ज़रुरत है ताकि औरतें ज़ुल्म ओ सितम से नजात पा सकें. इनकी कुरानी जिल्लत का एक नमूना देखें - - - 
" तुम्हारी बीवियां तुम्हारी खेतियाँ हैं, सो अपनी खेतियों में जिस तरफ से होकर चाहो जाओ, और आइन्दा के लिए अपने लिए कुछ करते रहो और यकीन रक्खो कि तुम अल्लाह के सामने पेश होने वाले हो. और ऐसे ईमान वालों को खुश खबरी सुना दो"
(सूरह अल्बक्र २ दूसरा पर आयत २२३)
तुम्हारी बीवियां तुम्हारी खेतियाँ हैं, सो अपनी खेतियों में जिस तरफ से होकर चाहो जाओ, अल्लाह बे शर्मी पर उतर आया है तो बात साफ़ करना पड़ रही है कि यायूदियों में ऐसा भरम था कि औरत को औंधा कर जिमा (सम्भोग) करने में तनासुल (लिंग) योनि के बजाय बहक जाता है और नतीजे में बच्चा भेंगा पैदा होता है. इस लिए सीधा लिटा कर जिमा करना चाहिए. मुहम्मद इस यहूदी अकीदत को खारिज करते हैं और अल्लाह के मार्फ़त यह जिंसी आयत नाज़िल करते हैं कि औरत का पूरा जिस्म मानिन्द खेत है जैसे चाहो जोतो बोवो. 
* मुसलमानों में अवाम से ले कर बडे बड़े मौलाना तक कसमें बहुत खाते हैं. खुद अल्लाह कुरान में बिला वजे कसमे खाता दिखाई देता है. अल्लाह कहता है वह तुम को कभी नहीं पकडेगा तुम्हारी उस बेहूदा कसमों पर जो तुम रवा रवी में खा लेते हो मगर हाँ जिसे दिल से खा लेते हो, इस पर जवाब तलबी होगी (इसे इरादी कसमें भी कहा गया है) फिर भी फ़िक्र की बात नहीं, वह गफूर रुर रहीम है. इस सिलसिले में नीचे दोनों आयतें हैं आयत २२६ के मुताबिक औरत से चार माह तक जिंसी राबता न रखने की अगर क़सम खा लो और उसपर कायम रहो तो तलाक यक लख्त फैसल होगा और इस बीच अगर मन बदल जाए या जिंसी बे क़रारी में वस्ल की नोबत आ जाए तो अल्लाह इस क़सम की जवाब तलबी नहीं करेगा. ये आयत का मुसबत पहलू है. 
(सूरह अल्बक्र २ दूसरा पर आयत २२६ )
"अल्लाह ताला वारिद गीर न फरमाएगा तुम्हारी बेहूदा कसमों पर लेकिन वारिद गीर फरमाएगा इस पर जिस में तुम्हारी दिलों ने इरादा किया था और अल्लाह ताला गफूरुर रहीम है" 
(सूरह अल्बक्र २ दूसरा पर आयत 225)" 
"जो लोग क़सम खा बैठे हैं अपनी बीवियों से, उन को चार महीने की मोहलत है, सो अगर ये लोग रुजू कर लें तब तो अल्लाह ताला मुआफ कर देंगे और अगर छोड़ ही देने का पक्का इरादा कर लिया है तो अल्लाह ताला जानने और सुनने वाले हैं."
(सूरह अल्बक्र २ दूसरा पर आयत २२७) 
मुस्लिम समाज में औरतें हमेशा पामाल रही हैं आज भी ज़ुल्म का शिकार हैं. मुश्तरका माहोल के तुफैल में कहीं कहीं इनको राहत मिली हुई है जहाँ तालीम ने अपनी बरकत बख्शी है. देखिए तलाक़ के कुछ इस तरह गैर वाज़ह फ़रमाने मुहम्मदी - - -
" तलाक़ दी हुई औरतें रोक रखें अपने आप को तीन हैज़ तक और इन औरतों को यह बात हलाल नहीं कि अल्लाह ने इन के रहेम में जो पैदा किया हो उसे पोशीदा रखें और औरतों के शौहर उन्हें फिर लौटा लेने का हक रखते हैं, बशर्ते ये की ये इस्लाह का क़स्द रखते हों. और औरतों के भी हुकूक हैं जव कि मिस्ल उन ही के हुकूक के हैं जो उन औरतों पर है, काएदे के मुवाफिक और मर्दों का औरतों के मुकाबले कुछ दर्जा बढा हुवा है."
(सूरह अल्बक्र २ दूसरा पर आयत २२८)
"औरतों के हुकूक आयत में अल्लाह ने क्या दिया है ? अगर कुछ समझ में आए तो हमें भी समझाना. " दो बार तलाक़ देने के बाद भी निकाह क़ायम रहता है मगर तीसरी बार तलाक़ देने के बाद तलाक़ मुकम्मल हो जाती है. और औरत से राबता कायम करना हराम हो जाता है, उस वक़्त तक कि औरत का किसी दूसरे मर्द से हलाला न हो जाए."



जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Monday 18 May 2015

Soorah Bakr 2-5th (213-219)

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.
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सूरह अल्बक्र २ पहला पारा
पाँचवीं किस्त 213-230

अल्लाह कहता है - - - 
"क्या तुहारा ख़याल है कि जन्नत में दाखिल होगे, हाँलाकि तुम को अभी तक इन का सा कोई अजीब वक़ेआ अभी पेश नहीं आया है जो तुम से पहले गुज़रे हैं और उन पर ऐसी ऐसी सख्ती और तंगी वाके हुई है और उन को यहाँ तक जुन्बिशें हुई हैं कि पैग़म्बर तक और जो उन के साथ अहले ईमान थे बोल उठे कि अल्लाह की मदद कब आएगी. याद रखो कि अल्लाह की इमदाद बहुत नज़दीक है"
(सूरह अल्बक्र २ दूसरा पर आयत २१३)
मुहम्मद अपने शागिर्दों को तसल्ली की भाषा में समझा रहे हैं, कि अल्लाह की मदद ज़रूर आएगी और साथ साथ एलान है कि ये कुरान अल्लाह का कलाम है. इस कशमकश को मुसलमान सदियों से झेल रहा है कि इसे अल्लाह का कलाम माने या मुहम्मद का. ईमान लाने वालों ने इस्लाम कुबूल करके मुसीबत मोल ले ली है. 
उन के लिए अल्लाह फ़रमाता है - - - 
(तालिबानी आयत) 
"जेहाद करना तुम पर फ़र्ज़ कर दिया गया है और वह तुम को गराँ है और यह बात मुमकिन है तुम किसी अम्र को गराँ समझो और वह तुम्हारे ख़ैर में हो और मुमकिन है तुम किसी अम्र को मरगूब समझो और वह तुम्हारे हक में खराबी हो और अल्लाह सब जानने वाले हैं और तुम नहीं जानते," 
(सूरह अल्बक्र २ दूसरा पर आयत २१४)
नमाज़, रोजा, ज़कात, हज, जैसे बेसूद और मुहमिल अमल माना कि कभी न ख़त्म होने वाले अमले ख़ैर होंगे मगर ये जेहाद भी कभी न ख़त्म होने वाला अल्लाह का फरमाने अमल है कि जब तक ज़मीन पर एक भी गैर मुस्लिम बचे या एक भी मुस्लिम बचे? जेहाद जारी रहे बल्कि उसके बाद भी? मुस्लिम बनाम मुस्लिम (फिरका वार) बे शक. अल्लाह, उसका रसूल और कुरान अगर बर हक हैं तो उसका फ़रमान उस से जुदा नहीं हो सकता. सदियों बाद तालिबान, अलकायदा जैशे मुहम्मद जैसी इस की बर हक अलामतें क़ाएम हो रही हैं, तो इस की मौत भी बर हक है. इसलाम का यह मज्मूम बर हक, वक़्त आ गया है कि ना हक में बदल जाय. 
"लोग आप से शराब और कुमार (जुवा) के निस्बत दर्याफ़्त करते हैं, आप फरमा दीजिए कि दोनों में गुनाह की बड़ी बडी बातें भी हें और लोगों को फायदे भी हैं और गुनाह की बातें उनके फायदों से ज़्यादा बढी हुई हैं"
(सूरह अल्बक्र २ दूसरा पर आयत २१९)
बन्दाए हकीर मुहम्मद का रुतबा चापलूस इस्लामी कलम कारों ने इतना बढा दिया है कि कायनातों का मालिक उसको आप जनाब कह कर मुखातिब करता है. यह शर्म की बात है. अल्लाह में बिराजमान मुहम्मद मुज़ब्ज़ब बातें करते हैं जो हाँ में भी है और न में भी. मौलानाओं को फतवा बांटने की गुंजाइश इसी किस्म की कुरानी आयतें फराहम करती हैं जो जुवा खेलना या न खेलना शराब पीना या न पीना दोनों बाते जाएज़ ठहरती हैं. पता नहीं ये उस वक़्त की बात है जब शराब हलाल थी और वह दो घूट पीए रहे हों. वैसे भी शराब कहीं किसी मज़हब मे हराम नहीं, ईसा तो चौबीसों घंटे टून रहते. खुद इस्लाम में मौत तक सब्र से कम लो ऊपर धरी है शराबन तहूरा. हाँ जुवा खेलना किसी भी हालत में फायदे मंद नही खिलवाना अलबत्ता फायदे मंद है. अल्लाह नासमझ है.

( ज़हरीलi आयत)

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Friday 15 May 2015

xxxSoorah Bakr 2-4rth (139-161)

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.
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सूरह अल्बक्र २ पहला पारा 
(चौथी क़िस्त) A139-161
" आप फरमा दीजिए कि तुम लोग हम से हुज्जत किए जाते हो अल्लाह ताला के बारे में, हालां कि वह हमारा और तुम्हारा रब है। हम को हमारा क्या हुवा मिलेगा और तुम को तुम्हारा किया हुवा, और हम ने हक ताला के लिए अपने को खालिस कर रक्खा है. क्या कहे जाते हो कि इब्राहीम और इस्माईल और इसहाक और याकूब और औलाद याकूब यहूद या नसारा थे, कह दीजिए तुम ज़्यादा वाकिफ हो या हक ताला और इस शख्स से ज्यादा जालिम कौन होगा जो ऐसे शख्स का इख्फा करे जो इस के पास मिन जानिब अल्लाह पहंची हो और अल्लाह तुहारे किए से बे खबर नहीं " 
(सूरह अल्बक्र २ पहला पारा आयत १३९-140)
इस में आयत १४० बहुत खास है। पूरा कुरआन इसी की मदार पर घूमता है जिस से मुस्लमान गुमराह होते हैं तुम ज़्यादा वाकिफ हो या हक ताला कौमों की तवारीख कोई सच्चाई नहीं रखती, अल्लाह की गवाही के सामने. इसको न मानने वाले जालिम होते हैं, और जालिमों से अल्लाह निपटेगा.
मुसलमानों! पूरा यकीन कर सकते हो की तवारीख अक़वाम के आगे कुरानी अल्लाह की गवाही झूटी है। मुहम्मद से पहले इस्लाम था ही नहीं तो इब्राहीम और उनकी नस्लें मुस्लमान कैसे हो सकती हैं? ये सब मजनू बने मुहम्मद की गहरी चालें हैं.
" जिस जगह से भी आप बाहर जाएं तो अपना चेहरा काबा की तरफ़ रक्खा करें और ये बिल्कुल हक है और अल्लाह तुम्हारे किए हुए कामो से असला बे ख़बर नहीं है और तुम लोग जहाँ कहीं मौजूद हो अपना चेहरा खानाए काबा की तरफ़ रक्खो ताकि लोगों को तुम्हारे मुकाबले में गुफ्तुगू न रहे। मुझ से डरते रहो।" 
(सूरह अल्बक्र २ पहला पारा आयत १४९- १५० )
इस रसूली फरमान पर मुस्कुरइए, तसव्वुर में अमल करिए, भरी महफिल में बेवकूफी हो जाए तो कहकहा लगाइए। भेड़ बकरियों के लिए अल्लाह का यह फरमान मुनासिब ही है.
हुवा यूँ था की मुहम्मद ने मक्का से भाग कर जब मदीने में पनाह ली थी तो नमाजों में सजदे के लिए रुख करार पाया था बैतुल मुक़द्दस, जिस को किबलाए अव्वल भी कहा जाता है, यह फ़ैसला एक मसलेहत के तहत भी था, जिसे वक्त आने पर सजदे का रुख बदल कर काबा कर दिया गया ,जो कि मुहम्मद की आबाई इबादत गाह थी। इस तब्दीली से अहले मदीना में बडी चे-में गोइयाँ होने लगीं जिसको मुहम्मद ने सख्ती के साथ कुचल दिया, इतना ही नहीं, मंदर्जा बाला हुक्मे रब्बानी भी जारी कर दिया। 
(सूरह अल्बक्र २ पहला पारा {सयाकूल} आयत १४९- १५० ) 
मुसलमानों!
तुम्हारी बद नसीबी इन्हीं क़ुरआनी आयातों में छुपी हुई हैं. इन्हें गौर से पढो, फिर सोंचो कि क्या तुम मुहम्मदी फ़रेब में मुब्तिला हो? इससे निकल कर नई दुन्या में आओ. 

अल्लाह कहता है - - - 
" मगर जो लोग तौबा कर लें और इस्लाह कर लें तो ऐसे लोगों पर मैं मुतवज्जो हो जाता हूँ और मेरी तो बकसरत आदत हे तौबा कुबूल कर लेना और मेहरबानी करना." 
(सूरह अलबकर २, दूसरा पारा आयत १६०) 
अल्लाह की बकसरत आदत पर गौर करें. अल्लाह इंसानों की तरह ही अलामतों का आदी है. कुरान और हदीसों का गौर से मुतालिआ करें तो साफ साफ पाएँगे कि दोनों के मुसन्निफ़ एक हैं जो अल्लाह को कुदरत वाला नहीं बल्कि आदत वाला समझते हैं, 
अल्ला मियां तौबा न करने वालों के हक में फरमाते हैं - - -
" अलबत्ता जो लोग ईमान न लाए और इसी हालत में मर गए तो इन पर लानत है, अल्लाह की, फरिश्तों की, और आदमियों की. उन पर अज़ाब हल्का न होने पाएगा." 
(सूरह अलबकर २, दूसरा पारा आयत १६१ ) 
भला आदमियों की लानत कैसे हुई ? वही तो ईमान नहीं ला रहे. खैर अल्लाह मियां और रसूल मियां बोलते पहले हैं और सोंचते बाद में हैं. और इन के दल्लाल तो कभी सोचते ही नहीं. 
* बहुत सी चाल घात की बातें इस के बाद की आयतों में अल्लाह ने बलाई हैं, अपनी नसीहतें और तम्बीहें भी मुस्लमान बच्चों को दी हैं. कुछ चीजें हराम करार दी हैं, बसूरत मजबूरी हलाल भी कर दी हैं. यह सब परहेज़, हराम, हलाल और मकरूह क़ब्ले इसलाम भी था जिस को भोले भाले मुस्लमान इसलाम की देन मानते हैं. 



जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Tuesday 12 May 2015

Soorah Bakr 3 (117-18-27-30-33

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.
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सूरह अलबकर २ पहला पारा 2 
(तीसरी किस्त) A 117-133

अल्लाह की तरफ़ से भेजी गई कच्ची वातों पर जब लोग उंगली उठाते हैं और मुहम्मद को अपनी गलती का एहसास होता है तो उस आयत या पूरी की पूरी सूरह अल्लाह से मौकूफ (अमान्य) करा देते हैं। ये भी उनका एक हरबा होता. अल्लाह न हुवा एक आम आदमी हुवा जिस से गलती होती रहती है, उस पर ये कि उस को इस का हक है। बड़ी जोरदारी के साथ अल्लाह अपनी कुदरत की दावेदारी पेश करते हुए अपनी ताक़त का मजाहरा करता है कि वह कुरानी आयातों में हेरा-फेरी कर सकता है, इसकी वह कुदरत रखता है, कल वह ये भी कह सकता है कि वह झूट बोल सकता है, चोरी, चकारी, बे ईमानी जैसे काम भी करने की कुदरत रखता है। 
ज़बान बदलू अल्लाह कहता है - - - 
" हम किसी आयत का हुक्म मौकूफ़ कर देते हैं या उस आयत को फ़रामोश कर देते हैं तो उस आयत से बेहतर या उस आयत के ही मिस्ल ले आते हैं। क्या तुझ को मालूम नहीं कि अल्लाह ताला ऐसे हैं कि इन्हीं की सल्तनत आसमानों और ज़मीन की है और ये भी समझ लो कि तुम्हारे हक ताला के सिवा कोई यारो मदद गार नहीं। "
(सूरह अल्बक्र २ पहला पारा आयत) 
मुहम्मद इस कदर ताकत वर अल्लाह के ज़मीनी कमांडर बन्ने की आरजू रखते थे। 
" अल्लाह ताला जब किसी काम को करना चाहता है तो इस काम के निस्बत इतना कह देता है कि कुन यानी हो जा और वह फाया कून याने हो जाता है " 
(सूरह अल्बक्र २ पहला पारा आयत 117) 
विद्योत्मा से शिकस्त खाकर मुल्क के चार चोटी के क़ाबिल ज्ञानी पंडित वापस आ रहे थे , रास्ते में देखा एक मूरख (कालिदास) पेड़ पर चढा उसी डाल को काट रहा था जिस पर वह सवार था, उन लोगों ने उसे उतार कर उससे पूछा राज कुमारी से शादी करेगा? प्रस्ताव पाकर मूरख बहुत खुश हुवा। पंडितों ने उसको समझया की तुझको राज कुमारी के सामने जाकर बैठना है, उसकी बात का जवाब इशारे में देना है, जो भी चाहे इशारा कर दे। मूरख विद्योत्मा के सामने सजा धजा के पेश किया गया , विद्योत्मा से कहा गया महाराज का मौन है, जो बात चाहे संकेत में करें. राज कुमारी ने एक उंगली उठाई, जवाब में मूरख ने दो उँगलियाँ उठाईं. बहस पंडितों ने किया और विद्योत्मा हार गई। दर अस्ल एक उंगली से विद्योत्मा का मतलब एक परमात्मा था जिसे मूरख ने समझा वह उसकी एक आँख फोड़ देने को कह रही है. जवाबन उसने दो उंगली उठाई कि जवाब में मूरख ने राज कुमारी कि दोनों आखें फोड़ देने कि बात कही थी. जिसको पंडितों ने आत्मा और परमात्मा साबित किया. 
कुन फाया कून के इस मूर्ख काली दास की पकड़ पैगम्बरी फार्मूला है जिस पर मुस्लमान क़ौम ईमान रक्खे हुए है। ये दीनी ओलिमा कलीदास मूरख के पंडित हैं जो उसके आँख फोड़ने के इशारे को ही मिल्लत को पढा रहे है, दुन्या और उसकी हर शै कैसे वजूद में आई अल्लाह ने कुन फया कून कहा और सब हो गया. तालीम, तहकीक और इर्तेकई मनाजिल की कोई अहमियत और ज़रूरत नहीं. डर्बिन ने सब बकवास बकी है. सारे तजरबे गाह इनके आगे फ़ैल. उम्मी की उम्मत उम्मी ही रहेगी, इसके पंडे मुफ्त खोरी करते रहेंगे उम्मत को दो+दो+पॉँच पढाते रहेंगे . यही मुसलामानों की किस्मत है। 
अल्लाह कुन फया कून के जादू से हर काम तो कर सकता है मगर पिद्दी भर शहर मक्का के काफिरों को इस्लाम की घुट्टी नहीं पिला सकता। ये काएनात जिसे आप देख रहे हैं करोरो अरबो सालों के इर्तेकाई रद्दे अमल का नतीजा है, किसी के कुन फया कून कहने से नहीं बनी । 
* अज ख़ुद ना ख्वान्दा और उम्मी मुहम्मद अपने से ज्यादा ज़हीनो को जाहिल के लक़ब से नवाजते हैं जिसकी वकालत आलिमान इस्लाम आज तक आखें बंद करके अपनी रोटियाँ चलाने के लिए करते चले आ रहे हैं - -
" कुछ जाहिल तो यूँ कहते हैं कि हम से क्यों नहीं कलाम फ़रमाते अल्लाह ताला? या हमारे पास कोई और दलील आ जाए। इसी तरह वह भी कहते आए हैं जो इन से पहले गुज़रे हैं, इन सब के कुलूब यकसाँ हैं, हम ने तो बहुत सी दलीलें साफ साफ बयाँ कर दी हैं" 
(सूरह अल्बक्र २ पहला पारा आयत 118) 
* नाम निहाद अल्लाह के ख़ुद साख्ता रसूल ढाई तीन हजार साल क़ब्ल पैदा होने वाले बाबा इब्राहीम से अपने लिए दुआ मंगवाते हैं, उस वक़त जब वह काबा की दीवार उठा रहे होते हैं- - - 
" और जब उठा रहे थे इब्राहीम दीवारें खानाए काबा की और इस्माईल भी--- (दुआ गो थे) ऐ हमारे परवर दिगार हम से कुबूल फरमाइए,बिला शुबहा आप खूब सुनने वाले हैं, जानने वाले हैं, ऐ हमारे परवर दिगार! हमें और मती बना लीजिए और हमारी औलादों में भी एक ऐसी जमात पैदा कीजिए जो आप की मती हो। और हम को हमारे हज के अहकाम बता दिजिए और हमारे हाल पर तवज्जे रखिए. फिल हकीक़त आप ही हैं तवज्जे फरमाने वाले मेहरबानी करने वाले. ऐ हमारे परवर दिगार! और इस जमात से इन्हीं में के एक ऐसे पैगम्बर भी मुकर्रर कीजिए जो इन लोगों को आप की आयत पढ़ पढ़ कर सुनाया करें और आसमानी किताब की खुश फ़हमी दिया करें और इन को पाक करें - - - और मिल्लते इब्राहिमी से तो वही रू गर्दानी करेगा जो अपनी आप में अहमक होगा.और हम ने इन को दुन्या में मुन्तखिब किया और वह आखिरत में बड़े लायक लोगों में शुमार किए जाते हैं" 
(सूरह अल्बक्र २ पहला पारा आयत 127-130)
इस तरह मुहम्मद एक चाल चलते हुए अपने चलाए हुए दीन इस्लाम को यहूदियों, ईसाइयों, और मुसलमानों के मुश्तरका पूर्वज बाबा इब्राहीम का दीन बनाने की कोशिश कर रहे हैं. गोया साँप और सीढ़ी का खेल खेल कर ख़ुद मूरिसे आला के गद्दी नशीन बन जाते हैं। इब्राहिम बशरी तारीख में एक मील का पत्थर है। इनकी जीवनी ऐबो हुनर के साथ तारीख इंसानी में पहली दास्तान रखती है। इसी लिए इनको फादर अब्राहम का मुकाम हासिल है। उसको लेकर मुहम्मद ने आलमी राय को गुराह करने की कोशिश की । 
सारा, बीवी के अलावा इब्राहीम की एक लौंडी हाजरा (हैगर) थी जिसका बेटा इस्माईल था जिसकी नस्लों से कुरैश और ख़ुद हज़रत हैं। साथ ही बतलाता चलूं कि इब्राहीम ने कुर्बानी अपने छोटे बेटे इसहाक इब्न सारा की दी थी, इस्माईल की नहीं जिसको मुहम्मद के कुरआन ने अल्लाह की गवाही में बदल दिया। आगे हदीस में देखिएगा कि मुहम्मद ने बाबा इब्राहीम को भी अपने सामने बौना कर दिया है। 
मुझे कुरानी इबारतों को सोंच सोंच कर हैरत होत्ती है कि क्या आज भी दुन्या में इतने कूढ़ मग्ज़ बाक़ी हैं जो इसे समझ ही नहीं पा रहे हैं? या इस्लामी शातिर इतने मज़बूत हैं कि जो इन पर गालिग़ हैं।कुरआन में पोशीदा धांधली तो मुट्ठी भर लोगों के लिए थी. रात के अंधेरे में सेंध लगाती थी, आज तो दिन दहाड़े डाका डाल रही है. तालीम की रौशनी में ऐसी मुहम्मदी जेहालत पर मासूम बच्चा भी एक बार सुन कर मानने से हिचकिचाए. 
" जिस वक्त याकूब का आखिरी वक्त आया अपने बेटों से पूछा, तुम लोग मेरे मरने के बाद किस चीज़ की परस्तिश करोगे? बेटों ने जवाब दिया हम लोग उसी की परस्तिश करेंगे जिस की आप, आप के बुजुर्ग, इब्राहीम, इस्माईल, इसहाक परस्तिश करते आऐ हैं, यानी वही माबूद जो वाद्हू ला शरीक है और हम उसी की एताअत पर रहेंगे " 
(सूरह अल्बक्र २ पहला पारा आयत १३२-133)
इस क़िस्म की आयतें कुरआन में वाकेआत पर आधारित बहुतेरी है जो सभी तौरेत की चोरी हैं मगर सब झूट का लबादा, हाँ जड़ ज़रूर तौरेत में छिपी है। इस वाकए की जड़ है कि यूसफ़ के ख्वाब के मुताबिक जो कि उसने देखा था कि एक दिन सूरज और चाँद उसके सामने सर झुकाए खड़े होंगे और ग्यारा सितारे उसके सामने सजदे में पड़े होंगे, जो कि पूरा हुवा, जब युफुफ़ मिस्र का बेताज बादशाह हुवा तो उसका बाप गरीब याकूब और याकूब की जोरू उसके सामने सर झुके खड़े थे और उसके तमाम सौतेले भाई शर्मिदा सजदे में पड़े थे. याकूब के सामने दीन का कोई मसला ही न था मसला तो ग्यारा औलादों की रोटी का था. मुहम्मद का यह जेहनी शगूफा कहीं नहीं मिलेगा, यूसुफ़ की दास्तान तारीख में साफ़ साफ़ है.

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Friday 8 May 2015

Soorah Bakr 2 (23-43)

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.
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सूरह अलबकर -२ पहला पारा 
तीसरी किस्त ( 23-43)
कितनी बड़ी विडंबना है कि एक तरफ तो हम नफ़रत का पाठ पढाने वालों को सम्मान देकर सर आँखों पर बिठाते हैं, उनकी मदद सरकारी कोष से करते हैं, उनके हक में हमारा कानून भी है, मगर जब उनके पढे पाठों का रद्दे अमल होता है तो उनको अपराधी ठहराते हैं. ये हमारे मुल्क और क़ौम का दोहरा मेयार है. धर्म अड्डों धर्म गुरुओं को खुली छूट कि वोह किसी भी अधर्मी और विधर्मी को एलान्या गालियाँ देता रहे भले ही सामने वाला विशुद्ध मानव मात्र हो या योग्य कर्मठ पुरुष हो अथवा चिन्तक नास्तिक हो. इनको कोई अधिकार नहीं की यह अपनी मान हानि का दावा कर सकें. मगर उन मठाधिकारियों को अपने छल बल के साथ न्याय का सन्रक्षन मिला हुवा है. ऐसे संगठन, और संसथान धर्म के नाम पर लाखों के वारे न्यारे करते हैं, अय्याशियों के अड्डे होते हैं और अपने स्वार्थ के लिए देश को खोखला करते हैं. 
इन्हीं के साथ साथ हमारे मुल्क में एक कौम है मुसलमानों की जिसको दुनयावी दौलत से ज़्यादः आसमानी दौलत की चाह है. यह बात उन के दिलो दिमाग में सदियों से इस्लामी ओलिमा (धर्म गुरु) भर रहे हैं, जिनका ज़रीआ मुआश (भरण-पोषण) इस्लाम प्रचार है. हिंदुत्व की तरह ये भी हैं. मगर इनका पुख्ता माफिया बना है. इनकी भेड़ें न सर उठा सकती हैं न कोई इन्हें चुरा सकता है. बागियों को फतवा की तौक़ पहना कर बेयारो-मददगार कर दिया जाता है. कहने को हिदू बहु-संख्यक भारत में हैं मगर क्षमा करें धन लोभ और धर्म पाखण्ड ने उनको कायर बना रखा है, १०% मुस्लमान उन पर भारी है, तभी तो गाँव गाँव, शहर शहर मदरसे खुले हुए हैं जहाँ तालिबानी की तलब और अलकायदा के कायदे बच्चों को पढाए जाते हैं. भारत में जहाँ एक ओर पाखंडियों, और लोभियों की खेती फल फूल रही है वहीँ दूसरी और तालिबानियों और अल्काय्दयों की फसल तैयार हो रही है. 
सियासत दान देश के इतिहास में अपना नाम दर्ज कराने में बद मस्त हैं. क्या दुन्या के मान चित्र पर कभी कोई भारत था? क्या आज कहीं कोई भारत है? धर्म और मज़हब की अफीम खाए हुए, लोभ और अमानवीय मूल्यों को मूल्य बनाए हुए क्या हम कहीं से देश भक्त भारतीय भी हैं? नकली नारे लगाते हुए, ढोंग का परिधान धारण किए हुए हम केवल स्वार्थी ''मैं'' हूँ। हम तो मलेशिया, इंडोनेशिया तक भारत थे, थाई लैंड, बर्मा, श्री लंका और काबुल कंधार तक भारत थे. कहाँ चला गया भारत? अगर यही हाल रहा तो पता नहीं कहाँ जाने वाला है भारत. भारत को भारत बनाना है तो अतीत को दफ़्न करके वर्तमान को संवारना होगा, धर्म और मज़हब की गलाज़त को कोडों से साफ़ करना होगा. मेहनत कश अवाम को भारत का हिस्सा देना होगा न कि गरीबी रेखा के पार रखना और कहते रहना की रूपिए का पंद्रह पैसा ही गरीबों तक पहुँच पाता है. 
अब शुरू है उम्मी का दीवान - - -फतह मक्का के बाद अरब क़ौम अपनी इर्तेकाई उरूज को खो कर शिकस्त खुर्दगी पर गामज़न हो चुकी थी। जंगी लदान का इस्लामी हरबा उस पर इस क़दर पुर ज़ोर और इतने तवील अरसे तक रहा कि इसे दम लेने की फुर्सत न मिल सकी। इस्लामी ख़ुद साख्ता उरूज का ज़वाल उस पर इस कद्र ग़ालिब हुवा की इस का ताबनाक माज़ी कुफ़्र का मज़्मूम सिम्बल बन कर रह गया। योरोप के शाने बशाने बल्कि योरोप से दो क़दम आगे चलने वाली अरब क़ौम, योरोप के आगे ab घुटने टेके हुए है। 
अल्लाह कहता है - - - 
"अल्लाह काफिरों को चैलेंज करता है कि कुरान की एक आयत जैसी आयत कोई बना कर दिखलाए (ये मुहम्मदके अन्दर का शाएर बोलता है ) और लोग दर्जनों आयतें गढ़ गढ़ कर उन के सामने रख देते हैं मगर उनका चैलेंज कायम रहता है कि क़यामत तक नहीं बना सकते।" 
(सूरह अलबकर २ पहला पारा , आयत २३) 
मुहम्मद का ये दावा कुरआन में कई बार दोहराया जाता है। उसके बाद कुरआन कहता है - - "तो फिर बचते रहो दोज़ख से जिसका ईंधन आदमी और पत्थर हैं, तैयार हुई रक्खी है, काफिरों के लिए" 
(सूरहअलबकर २ पहला पारा , आयत २४ ) 
कभी इंसान और जिन्नात दोज़ख का ईधन हुवा करते हैं और अब बे जान, बे आमाल पत्थरों पर दोज़ख का अज़ाब नाज़िल होगा। अल्लाह को भूखी दोज़ख का पेट नहीं भरना बल्कि मुहम्मद को कुरआन का पेट भरना है अपनी बकवासों से और इस से मंसूब ओलिमा, आएमा, मुबल्लिग धंधे बाजों को अपनी अय्याराना तकरीरों और तहरीरों से. भोले भाले मुस्लिम अवाम को काश हकीक़त का एहसास हो और वक्त आवाज़ सुनाई दे. 
*कुरआन में मुहम्मद ने कुछ मिसालें अपनी इल्मी या बेईल्मी सलाहियत का मुजाहेरा करते हुए गढ़ी हैं और तारीफ में अपनी पीठ भी ठोंकी है। हालां कि सब की सब बे जान और फुस फुसी हैं,चंद एक पेश हैं--- 
" हाँ! वाक़ई अल्लाह ताला तो नहीं शर्माते इस बात से कि बयान करें कोई मिसाल,ख्वाह वह मछ्छर की हो, ख्वाह इस से भी बढ़ी हुई हो. जो ईमान लाए हुए हैं ,ख्वाह कुछ भी हो यकीन कर लेंगे कि बे शक ये मिसालें बहुत मौके की हैं और रह गए जो लोग काफिर हो चुके हैं, कहते रहेंगे कि वह कौन सा मतलब होगा जिस का क़स्द किया होगा अल्लाह ने, इस हकीर मिसाल से गुमराह करते हैं. अल्लाह ताला इस मिसाल से बहुतों को और हिदायत देते हैं." 
(सूरह अलबकर २ पहला पारा , आयत 2६ ) 
हवा का बुत अल्लाह दोज़ख का पेट पत्थरों से भर रहा है, ख़ुद साख्ता उम्मी मुहम्मद कुरआन का पेट इन मोह्मिल आयातों से भर रहे हैं, मुस्लमान हवाई बुत अपने अल्लाह का पेट इन बकवासी आयातों की इबादत से भर रहा है, आलिमाने दीन और मुतल्लिक़ीन दीन बराए ज़रीआ मआश अपना पेट इस्लाम से भर रहे है, नव जवानों ने जेहादी राह पकड़ी है, कमजोरों को इस्लाम ने खैराती रिज़्क़ बख्शा है। ये है इस्लामी निजाम का अंजाम. मुफक्किर को इस में जिंदा रहने की कोई राह नहीं. 
" अल्लाह फरिश्तों के सामने ये एलान करता है कि हम ज़मीन पर अपना एक नाएब इंसान की शक्ल में बनाएंगे। फ़रिश्ते इस पर एहतेजाज करते हैं कि तू ज़मीन पर फ़सादियों को पैदा करेगा जब कि हम लोग तेरी बंदगी के लिए काफी हैं। मगर अल्लाह नहीं मानता और एक बा इल्म आदम को बना कर, बे इल्म फरिश्तों की जबान बंद कर देता है। अल्लाह के हुक्म से तमाम फ़रिश्ते आदम के सामने सजदे में गिर जाते हैं, सिवाए इब्लीस के। इब्लीस मरदूद, माजूल और मातूब होता है। आदम और हव्वा जन्नत में अल्लाह की कुछ हिदायत के बाद आजाद रहने लगते हैं। हस्बे आदत अल्लाह बनी इस्राईल को काएल करता है की हमारी किताब कुरआन भी तुम्हारी ही किताबों की तरह है। इस के बाद क़यामत और आखरत की बातें करता है." 
(सूरह अलबकर २ पहला पारा ,आयत 30-43) 
आदम और हव्वा की तौरेती कहानी को कुछ रद्दो बदल करके मुहम्मद ने कुरआन में कई बार दोहराया है। मज़े की बात ये है कि हर बार बात कुछ बदल जाती है कहते हैं न कि " दरोग आमोज रा याद दाश्त नदारद." 
"क्या गज़ब है कहते हो और लोगों को नेक काम करने को (नेक काम करने से मुराद रसूल अल्लाह सल्लाह अलैहिःवसल्लम पर ईमान लाना) और अपनी ख़बर नहीं रखते, हालां कि तुम तिलावत करते हो किताब की, तो क्या तुम इतना भी नहीं समझते।" 

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Thursday 7 May 2015

Soorah Bakr 2 (11-22)

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.
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"और जब उनसे कहा जाता है कि ईमान लाओ उनकी तरह जो ईमान ला चुके हैं तो जवाब में कहते हैं कि क्या हम उनकी तरह बे वकूफ हैं ? याद रखो की यही बे वकूफ हैं जिस का इन को इल्म नहीं।" 
(सूरह अलबकर -२ पहला पारा अलम आयत 13) 
कुरआन के पसे मंज़र में ही रसूल कि असली तस्वीर छिपी हुई है. मुहम्मद अल्लाह के मुंह से कैसी कच्ची कच्ची बातें किया करते हैं, नतीजतन मक्का के लोग इस का मज़ाक बनाते हैं. इनको लोग तफरीहन खातिर में लाते हैं. ताकि माहौल में मशगला बना रहे. इनकी कयामती आयतें सुन सुन अक्सर लोग मज़े लेते हैं. और ईमान लाते हैं, उन पर और उन के जिब्रील अलैहिस्सलाम पर. महफ़िल उखड़ती है और एक ठहाके के साथ लोगों का ईमान भी उखड जाता है. इस तरह बे वकूफ बन जाने के बाद मुहम्मद कहते हैं यह लोग ख़ुद बेवकूफ हैं, जिसका इन को इल्म नहीं. इस्लाम पर ईमान लाने का मतलब है एक अनदेखे और पुर फरेब आक़बत से ख़ुद को जोड़ लेना. अपनी मौजूदा दुन्या को तबाह कर लेना. बगैर सोंचे समझे, जाने बूझे, परखे जोखे, किसी की बात में आकर अपनी और अपनी नस्लों कि ज़िन्दगी का तमाम प्रोग्राम उसके हवाले कर देना ही बे बेवकूफी है. ख़ुद मुहम्मद अपनी ज़िन्दगी को कयाम कभी न दे सके, और न अपनी नस्लों का कल्याण कर सके, यहाँ तक कि अपनी उम्मत को कभी चैन की साँस न दिला पाए . 
"वह बहरे हैं, गूंगे हैं और अंधे हैं, सो अब ये ईमान लाने पर रुजू नहीं होंगे. मगर वह(अल्लाह) इन्हें घेरे में लिए हुए है. अगर वह चाहे तो उनके गोशो चश्म (कान और आँख) को सलब (गायब) कर सकता है. वह ज़ात ऐसी है जिसने बनाया तुम्हारे लिए ज़मीन को फ़र्श और आसमान को छत और बरसाया आसमान से पानी, फिर उस पानी से पैदा किया फलों की गिजा" 
(सूरह अलबकर -२ पहला पारा अलम आयत 18-22) 
मुहम्मद गली सड़क, खेत खल्यान हर जगह सूरते क़ुरआनी की यह आयतें गाया करते. लोग दीवाने की बातों पर कोई तवज्जो न देते और अपना काम किया करते. आजिज़ आकर मुहम्मद कहते ---
"वह बहरे हैं, गूंगे हैं और अंधे हैं, सो अब ये ईमान लाने पर रुजू नहीं होंगे. मगर वह इन्हें घेरे में लिए हुए है. अगर वह चाहे तो उनके गोशो ---चश्म ----ऐसी बातें मुहम्मद कुरआन में बार बार दोहराते हैं, भूल जाते हैं कि कुरआन अल्लाह का कलाम है अगर वह बोलता तो यूँ कहता "मैं चाहूँ तो ------- 
मुसलमानों! 
यह कुरआन की शुरुआत है ,ऐसी बातों से ही कुरआन लबरेज़ है। कोई भी कारामद नुस्खा इसमें नहीं है, सिवाए बहलाने, फुसलाने और धमकाने के. इस्लाम मुहम्मद की एक साज़िश है अरबों के हक़ में और गैर अरबों के ख़िलाफ़ जिसको अंधी क़ौम मुसलमान कही जाने वाली ये आलमी बिरादरी जब भी समझ जाए सवेरा होगा.


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जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Wednesday 6 May 2015

Soorah bakar 2 (1-10)

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.
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"अलम " 
(सूरह अलबकर -२ पहला पारा अलम आयत १ ) 
यह भी क़ुरआन की एक आयत है. 
यानी अल्लाह की कोई बात है। 
ऐसे लफ्ज़ या हर्फ़ों को हुरूफ़े मुक़त्तेआत कहते हैं, जिन के कोई मानी नहीं होते। ये हमेशा सूरह के शुरुआत में आते है। आलिमाने दीन (दर अस्ल बेदीन लोग) कहते हैं इन का मतलब अल्लाह ही बेहतर जानता है। 
मेरा ख़याल है यह उम्मी मुहम्मद की हर्फ़ शेनासी की हद या मन्त्र की जप मात्र थी, वगरना अल्लाह जल्ले शानाहू की कौन सी मजबूरी थी की वह अपने अहकाम को यूँ मोहमिल (अर्थ-हीन) और गूंगा रखता। 
''ये किताब ऐसी है जिस में कोई शुबहा नहीं, राह बतलाने वाली है, अल्लाह से डरने वालों को।" 
(सूरह अलबकर -२ पहला पारा अलम आयत 2 ) 
आख़िर अल्लाह को इस कद्र अपनी किताब पर यक़ीन दिलाने की ज़रूरत क्या है? इस लिए कि यह झूटी है क़ुरआन में एक खूबी या चाल यह है कि मुहम्मद मुसलामानों को अल्लाह से डराते बहुत हैं। मुसलमान इतनी डरपोक क़ौम बन गई है कि अपने ही अली और हुसैन के पूरे खानदान को कटता मरता खड़ी देखती रही, अपने ही खलीफा उस्मान गनी को क़त्ल होते देखती रही, उनकी लाश को तीन दिनों तक सड़ती खड़ी देखती रही, किसी की हिम्मत न थी की उसे दफनाता, यहूदियों ने अपने कब्रिस्तान में जगह दी तो मिटटी ठिहाने लगी., मगर मुसलमान इतना बहादुर है कि जन्नत की लालच और हूरों की चाहत में सर में कफ़न बाँध कर जेहाद करता है. 
आगे आप देखिएगा कि मुहम्मद के कुरआन ने मुसलामानों को कितने आसमानी फ़ायदे बतलाए हैं और गौर कीजिएगा कि उसमें कितने ज़मीनी नुकसान पोशीदा हैं. 
"वह लोग ऐसे हैं जो ईमान लाते हैं छिपी हुई चीज़ों पर और क़ायम रखते हैं नमाज़ को यकीन रखते हैं इस किताब पर और उन किताबों पर भी जो इस के पहले उतारी गई हैं और यकीन रखते हैं आखिरत पर। बस यही लोग कामयाब हें" 
(सूरह अलबकर -२ पहला पारा अलम आयत 4-5) 
हरगिज़ नहीं छिपी हुई चीजें चोर हैं, फरेब हैं, छलावा हैं। अल्लाह छुपा हुवा है, कुफ्र और शिर्क के हर पहलू छुपे हुए हैं. मुहम्मद कुरआन के मार्फ़त आप को गुमराह कर रहे हैं. न कुरआन आसमानी किताब है न दूसरी और कोई किताब जिसको वह कहती है. जब असीमित आसमान ही कोई चीज़ नहीं है तो आसमान की तमाम बातें बकवास हैं. 
आखिरत का खौफ दिल में डाल कर मुहम्मदी खुदा ने इंसानी बिरादरी के साथ बहुत बड़ा जुर्म किया है. आखिरत तो वह है कि इंसान पूरी उम्र ऐसे गुजारे कि आखिरी लम्हे उसके दिल पर कोई बोझ न रहे. मौत के बाद कहीं कुछ नहीं है. 
"बे शक जो लोग काफ़िर हो चुके हैं, बेहतर है उनके हक में, ख्वाह उन्हें आप डराएँ या न डराएँ, वह ईमान न लाएंगे। बंद लगा दिया है अल्लाह ने उनके कानों और दिलों पर और आंखों पर परदा डाल दिया है" 
(सूरह अलबकर -२ पहला पारा अलम आयत 6-7) 
सारी कायनात पर कुदरत रखने वाला अल्लाह मामूली से काफिरों के सामने बेबस हो रहा है और अपने रसूल को मना कर रहा है कि इनको मत डराओ धमकाओ. यहाँ पर अल्लाह की मंशा ही नाक़ाबिले फ़हेम है कि एक तरफ़ तो वह अपने बन्दों के कानों में बंद लगा रखा है दूसरी तरफ़ इस्लाम को फैलाने की तहरीक? ख़ुद तूने आंखों और दिलों पर परदा डाल दिया है और अपने रसूल को पापड़ बेलने के काम पर लगा रखा है. यह कुछ और नहीं मुहम्मद की इंसानी फितरत है जो अल्लाह बनने की नाकाम कोशिश कर रही है. 
इस मौके पर एक वाकेया गाँव के एक नव मुस्लिम राम घसीटे उर्फ़ अल्लाह बख्श का याद आता है --- 
मस्जिद में नमाज़ से पहले मौलाना पेश आयत को बयान कर रहे थे, अल्लाह बख्श भी बैठा सुन रहा था, पास में बैठे गुलशेर ने पूछा , 
"अल्लाह बख्श कुछ समझे ? 
"अल्लाह बख्श ने ज़ोर से झुंझला कर जवाब दिया , 
"क्या ख़ाक समझे ! 
"जब अल्लाह मियाँ खुदई दिल पर परदा डाले हैं और कानें माँ डाट ठोके हैं. पहले परदा और डाट हटाएँ, मोलबी साहब फिर समझाएं" 
भरे नामाज़ियों में अल्लाह कि किरकिरी देख कर गुलशेर बोला "रहेगा तू काफ़िर का काफ़िर'' 
"तुम्हारे ऐसे अल्लाह की ऐसी की तैसी" कहता हुवा घसीटा राम सर की टोपी उतार कर ज़मीन पर फेंकता हुवा मस्जिद से बाहर निकल गया. 
"और इन में से बाज़ ऐसे हैं जो कहते हैं ईमान लाए मगर वह अन्दर से ईमान नहीं लाए, झूटे हैं, चाल बाज़ी करते हैं अल्लाह से. उनके दिलों में बड़ा मरज़ है जो बढ़ा दिया जाएगा. इन के लिए सज़ा दर्द नाक है, इस लिए कि वह झूट बोला करते हैं." 


(सूरह अलबकर -२ पहला पारा अलम आयत 8-10) 

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Saturday 2 May 2015

Soorah Alhamd 1/30

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.
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सूरह फातेहा (१) 


सब अल्लाह के ही लायक हैं जो मुरब्बी हें हर हर आलम के। (१) 
जो बड़े मेहरबान हैं , निहायत रहेम वाले हैं। (२) 
जो मालिक हैं रोज़ जज़ा के। (३) 
हम सब ही आप की इबादत करते हैं, और आप से ही दरखास्त मदद की करते हैं। (४) 
बतला दीजिए हम को रास्ता सीधा । (५) 
रास्ता उन लोगों का जिन पर आप ने इनआम फ़रमाया न कि रास्ता उन लोगों का जिन पर आप का गज़ब किया गया । (६) 
और न उन लोगों का जो रस्ते में गुम हो गए। (७) 
( पहला पारा जिसमें ७ आयतें हैं) 
कहते है क़ुरआन अल्लाह का कलाम है, मगर इन सातों आयतों पर नज़र डालने के बाद यह बात तो साबित हो ही नहीं सकती कि यह कलाम किसी अल्लाह जैसी बड़ी हस्ती ने अपने मुँह से अदा क्या हो। यह तो साफ साफ किसी बन्दा-ऐ-अदना के मुँह से निकली हुई अर्ज़दाश्त है. अल्लाह ख़ुद अपने आप से इस क़िस्म की दुआ मांगे, क्या यह मजाक नहीं है? 
या फिर अल्लाह किसी सुपर अल्लाह के सामने गुज़ारिश कर रहा है ? 
अगर अल्लाह इस बात को फ़रमाता तो वह इस तरह होती ----- 
"सब तारीफ़ मेरे लायक़ ही हैं, मैं ही पालनहार हूँ हर हर आलम का. १ 
मैं बड़ा मेहरबान, निहायत रहेम करने वाला हूँ. २ 
मैं मालिक हूँ रोज़े-जज़ा का..३ 
तो मेरी ही इबादत करो और मुझ से ही दरखास्त करो मदद की. ४ 
ऐ बन्दे मैं ही बतलाऊँगा तुझ को सीधा रास्ता . 5 
रास्ता उन लोगों का जिन पर हम नें इनआम फ़रमाया .६ 
न की रास्ता उन लोगों का जिन पर हम ने गज़ब किया और न उन लोगों का जो रस्ते से गुमहुए। 7" 
मगर,
 अगर अल्लाह इस तरह से बोलता तो ख़ुद साख्ता रसूल की गोट फँस गई होती और इन्हें पसे परदा अल्लाह बन्ने में मुश्किल पेश आती. बल्कि ये कहना दुरुस्त होगा कि मुहम्मद क़ुरआन को अल्लाह का कलाम ही न बना पाते.क्यूँकी ऐसे बड बोले अल्लाह को मानता कोई न जो खुद अपने मुँह से अपनी तारीफ़ झाड़ रहा हो.इस सिलसिले में इस्लामीं ओलिमा इस बात को यूँ रफू गरी करते हैं कि 
क़ुरआन में अल्लाह कभी ख़ुद अपने मुँह से कलाम करता है, 
कभी बन्दे की ज़बान से. 
याद रखे कि खुदाए बरतर के लिए ऐसी कोई मजबूरी नहीं थी कि वह अपने बन्दों को वहम में डालता और ख़ुद अपने सामने गिड़गिडाता. उसकी कुदरत तो अपरम्पार होगी अगर वह है.गौर करें पहली आयत----
कहता है --- 
 "सारी तारीफें मुझे ही ज़ेबा देती हैं क्यो कि मैं ही पालन हार हूँ तमाम काएनातों में बसने वालों का." 

अल्लाह मियाँ! अपने मुँह मियाँ मिट्ठू ? अच्छी बात नहीं, भले ही आप अल्लाह जल्ले शानाहू हों. प्राणी की परवरिश अगर आप अपनी तारीफ़ करवाने के लिए कर रहे हैं तो बंद करें पालन हारी. वैसे भी आप की दुन्या में लोग दुखी ज्यादा और सुखी कम हैं. 
दूसरी आयत पर आइए-----
आप न मेहरबान हैं, न रहेम वाले , यह आगे चल कर कुरानी आयतें चीख चीख कर गवाही देंगी, आप बड़े मुन्तक़िम( प्रतिशोधक) ज़रूर हैं और बे कुसुर अवाम का जीना हराम किए रहते हैं. 
तीसरी आयत ---
यौमे जज़ा (प्रलय दिवस) यहूदियों की कब्र गाह से बर आमद की गई रूहानियत की लाश, जिस को ईसाइयत ने बहुत गहराई में दफ़न कर दिया था, इस्लाम की हाथ लग गई, जिसे मुहम्मद ने अपनी धुरी बनाई. मुसलामानों की जिदगी का मकसद यह ज़मीन नहीं, वह आसमान की तसव्वुराती दुनिया है, जो यौमे-जज़ा के बाद मिलनी है. 
क़यामत नामा कुरआन पढ़ें. 
दर अस्ल मुसलमान यहूदियत को जी रहा है. 
*पाँचवीं आयत में अल्लाह अपने आप से या अपने सुपर अल्लाह से पूछता है कि बतला दीजिए हमको सीधा रास्ता. क्या अल्लाह टेढे रास्ते भी बतलाता है? 
यकीनन, आगे आप देखेंगे कि कुरानी अल्लाह किस कद्र अपने बन्दों को टेढे रास्तों पर गामज़न कर देता है जिस पर लग कर मुसलमान गुमराह हैं.क़ुरआन का क़ौल है 
अल्लाह जिस को चाहे गुमराह करे, 
कूढ़ मग्ज़ मुसलमान कभी इस पर गौर नहीं करता कि यह शैतानी हरकत इस का अल्लाह क्यों करता है? कहीं दाल में कुछ कला है. 
छटी आयत में अल्लाह कहता है रास्ता उन लोगों का रास्ता बतलाइए जिन पर आप ने करम फरमाया है. 
यहाँ इब्तेदा में ही मैं आप को उन हस्तियों का नाम बतला दें जिन पर अल्लाह ने करम फ़रमाया है, आगे काम आएगा क्यूं कि कुरान में सैकडों बार इन को दोहराया गया है. यह नम हैं---
इब्राहीम, इस्माईल, इस्हाक़, लूत, याकूब, यूसुफ़, मूसा, दाऊद, सुलेमान, ज़कर्या, मरयम, ईसा अलैहिस्सलामन वगैरह वगैरह.
 याद रहे यह हज़रात सब पाषण युग के हैं, जब इंसान कपड़े और जूते पहेनना सीख रहा था 
छटी आयत गौर तलब है कि अल्लाह गज़ब ढाने वाला भी है. अल्लाह और अपने मखलूक पर गज़ब भी ढाए? सब तो उसी के बनाए हुए हैं बगैर उसके हुक्म के पत्ता भी नहीं हिलता, इंसान की मजाल? 
उसने इंसान को ऐसा क्यूं बनाया की गज़ब ढाने की नौबत आ गई?
सातवीं आयत में भी अल्लाह अपने आप से दुआ गो है कि न उन लोगों का रास्ता न बतलाना `जो रास्ता गुम हुए. रास्ता गुम शुदा के भी चंद नाम हैं---
आजार, समूद, आद, फ़िरौन, वगैरह. इन का भी नाम कुरान में बार बार आता है. 
कुरआन अपने यहूदी और ईसाई मुरीदों की मालूमाती मदद में रद्दो बदल करके, उम्मी ( निरक्षर और नीम शाएर) मुहम्मद का कलाम है। इस का पता हर खास ओ आम क़ुरआनी विद्वान को मालूम है, मगर वह वह सब के सब धूर्त हैं. 
क़ुरआन का मिथ्य ही उनकी रोज़ी रोटी है.
यह सूरह फातेहा की सातों आयतें कलाम-इलाही बन्दे के मुंह से अदा हुई हैं। 
यह सिलसिला बराबर चलता रहेगा, अल्लाह कभी बन्दे के मुंह, से बोलता है, कभी मुहम्मद के मुंह से, तो कभी ख़ुद अपने मुंह से. 
माहरीन द्ल्लाले कुरआन ओलिमा इस को अल्लाह के गुफ्तुगू का अंदाजे बयान बतलाते हैं, मगर माहरीन ज़बान इंसानी इस को एक उम्मी जाहिल का पुथन्ना करार देते हैं. जिस को मुहम्मद ने वज्दानी कैफियत में गढा है. मुहम्मद को जब तक याद रहता है कि वह अल्लाह की ज़बान से बोल रहे हें तब तक ग्रामर सही रहती है,
जब भूल जाते है तो उनकी बात हो जाती है. 
यह बहुत मुश्किल भी था की पूरी कुरआन अल्लाह के मुंह से बुलवाते. 



जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान