Sunday 26 February 2012

Soorah Taha 20

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.


जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Friday 24 February 2012

NayaaElaan

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.



नया एलान  


ज़िन्दगी एक ही पाई, ये अधूरी है बहुत, 
इसको गैरों से छुड़ा लो, ये ज़रूरी है बहुत. 
इसको जीने की मुकम्मल हमें आज़ादी हो, 
इसको शादाब करें, इसकी न बर्बादी हो. 
इसपे वैसे भी मुआशों की मुसीबत है बहुत, 
तन के कपड़ों की, घर व् बार की कीमत है बहुत. 
इसपे क़ुदरत के सितम ढोने की पाबन्दी है, 
मुल्की क़ानून की, आईन की ये बन्दी है. 
बाद इन सबके, ये जो सासें बची हैं इसकी, 
उसपे मज़हब ने लगा रक्खी हैं मुहरें अपनी. 

खास कर मज़हब-ए-इस्लाम बड़ा मोहलिक है, 
इसका पैगाम ग़लत, इसका गलत मालिक है. 
दीन ये कुछ भी नहीं, सिर्फ़ सियासत है ये, 
बस ग़ुलामी है ये, अरबों की विरासत है ये. 
देखो कुरान में बस थोड़ी जिसरत करके, 
तर्जुमा सिर्फ़ पढो, हाँ , न अक़ीदत करके. 
झूट है इसमें, जिहालत हैं रिया करी, 
बोग्ज़ हैं धोखा धडी है, निरी अय्यारी है. 
गौर से देखो, हयतों की निज़ामत है कहाँ? 
इसमें जीने के सलीके हैं, तरीक़त है कहाँ? 
धांधली की ये फ़क़त राह दिखाता है हमें, 
गैर मुस्लिम से कुदूरत ये सिखाता है हमें. 
जंगली वहशी कुरैशों में अदावत का सबब, 
इक कबीले का था फितना, जो बना है मज़हब. 
जंग करता है मुस्लमान जहाँ पर हो सुकून, 
इसको मरगूब जेहादी गिजाएँ, कुश्त व् खून. 
सच्चा इन्सान मुसलमान नहीं हो सकता, 
पक्का मुस्लिम कभी इंसान नहीं हो सकता. 
सोहबत ए ग़ैर से यह कुछ जहाँ नज़दीक हुए, 
धीरे धीरे बने इंसान, ज़रा ठीक हुए. 
इनकी अफ़गान में इक पूरी झलक बाकी है, 
वहशत व् जंग व् जूनून, आज तलक बाक़ी है

तर्क ए इस्लाम का पैगाम है मुसलमानों ! 
वर्ना, ना गुफ़तनी अंजाम है मुसलमानों ! 
न वह्यी और न इल्हाम है मुसलमानों ! 
एक उम्मी का बुना दाम है मुसलमानों ! 
इस से निकलो कि बहुत काम है मुसलमानों ! 
शब् है खतरे की, अभी शाम है मुसलमानों !

जिस क़दर जल्द हो तुम इस से बग़ावत कर दो. 
बाकी इंसानों से तुम तर्क ए अदावत कर दो. 
तुम को ज़िल्लत से निकलने की राह देता हूँ, 
साफ़ सुथरी सी तुम्हें इक सलाह देता हूँ. 
है एक लफ्ज़ इर्तेक़ा, अगर जो समझो इसे, 
इसमें सब कुछ छुपा है समझो इसे. 
इसको पैगम्बरों ने समझा नहीं, 
तब ये नादिर ख़याल था ही नहीं. 
इर्तेक़ा नाम है कुछ कुछ बदलते रहने का, 
और इस्लाम है महदूदयत को सहने का. 
बहते आए हैं सभी इर्तेक़ा की धारों में, 
ये न होती तो पड़े रहते अभी ग़ारों में. 
हम सफ़र इर्तेक़ा के हों, तो ये तरक्क़ी है, 
कायनातों में नहीं ख़त्म, राज़ बाकी है.

तर्क ए इस्लाम का मतलब नहीं कम्युनिष्ट बनो, 
या कि फिर हिन्दू व् ईसाई या बुद्धिष्ट बनो, 
चूहे दानों की तरह हैं सभी धर्म व् मज़हब. 
इनकी तब्दीली से हो जाती है आज़ादी कब? 
सिर्फ़ इन्सान बनो तर्क हो अगर मज़हब, 
ऐसी जिद्दत हो संवरने की जिसे देखें सब. 

धर्म व् मज़हब की है हाजत नहीफ़ ज़हनों को, 
ज़ेबा देता ही नहीं ये शरीफ़ ज़हनो को. 
इस से आज़ाद करो जिस्म और दिमागों को. 
धोना बाकी है तुन्हें बे शुमार दागों दागों को. 
सब से पहले तुम्हें तालीम की ज़रुरत है, 
मंतिक व् साइंस को तस्लीम की ज़रुरत है. 
आला क़द्रों की करो मिलके सभी तय्यारी, 
शखसियत में करें पैदा इक आला मेयारी. 
फिर उसके बाद ज़रुरत है तंदुरुस्ती की, 
है मशक्क़त ही फ़कत ज़र्ब, तंग दस्ती की.

पहले हस्ती को संवारें, तो बाद में धरती, 
पाएँ नस्लें, हो विरासत में अम्न की बस्ती, 
कुल नहीं रब है, यही कायनात है अपनी, 
इसी का थोडा सा हिस्सा हयात है अपनी.. 
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जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Wednesday 22 February 2012

Soorah Kuhaf

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.


जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Sunday 19 February 2012

Soorah Maryam 18

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.







जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Sunday 12 February 2012

Bani Israil 17

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.


मंद बुद्धि फौजी
अन्ना हज़ारे 

अन्ना हजारे एक सीधा सदा इन्सान है साथ साथ ज़रा सा बेवकूफों जैसा भी. उसका सिधापा उसकी बेवकूफियों में गड मड हो जाता है, जिसे वह खुद नहीं समझ पाता. उसकी यही खूबियाँ हैं जो अवाम को बहुत जल्द भा जाती हैं और दिल्ली में मुतास्सिर कर जाती हैं जो मुंबई पहुँचते पहुँचते फुस्स हो जाती हैं. जनता जनार्दन की भीड़ भेड़ चाल होती है जो कुछ संभालने पर होश में आती है. दिल्ली की दीवानगी मुबई में होश में आ गई थी.अन्ना ने मुबई में जमा कुछ सैकड़ों के मजमे को अपनी आँखों से देखा और बच्चे के हाथों से शरबत का गिलास लेकर पी लिया. अगर दिल्ली जैसा हुजूम होता तो बन्दा उसके दम पर झूम उठता. 
अन्ना की बे वाकूफियों में पहली बेवकूफी यह है की वह बार बार दोहराते हैं है कि सरकार ने उनके साथ धोखा धडी किया? 
वह सरकार के मुकाबिले में हैं क्या? 
खुद को सरकार का सामानांतर समझ बैठे ? वह सरकार की तुलना में खुद को सरकार ए सानी समझ बैठे या सरकार विरोधी अपोजीशन? 
अन्ना खुद अपने मुंह से कहते हैं कि मैं एलक्शन लड़ूं तो मेरी ज़मानत भी जाप्त हो जाय.
तो इतने कमज़ोर शहरी की औकात क्या है कि सरकार उसके साथ धोका धडी करे. उनका बार बार यह दोहराना किसी समझदार इन्सान को एक आँख भी नहीं भाता कि बकलम खुद एक मीनार बने हुए हैं. 
अन्ना बैलट पेपर पर प्रतिनिधियों के नामों के साथ साथ एक खाना और चाहते हैं
 " इनमे कोई नहीं" 
हैना इसमें अन्ना की छिपी हुई बे वकूफी, 
अरे जो वोट देने नहीं जाते वह इसी कालम में अपनी राय घर बैठे दे देते हैं. 
अगर बिल्फर्ज़ यह खाना बैलट पेपर पर बना भी दिया जय तो समाजी मन चले खास कर इस खाने के लिए वोट डालने चले जाएँगे, और हरबार यह "ज़ीरो" जीतता रहे और बाकी हारते रहें तो इस बेवकूफी का अंततः क्या होगा? एलक्शन   बारों मासी बन जाएँगे. 
चुने हुए प्रतिनिधि को वापस बुलाने का प्रवधान भी इसी बेवकूफी का दूसरा रूप होगा जिसका अंजाम भी मुसलसल चुनाव होत्ते रहना . 
अन्ना एक ईमानदार और भले मानुष है मगर वह मानव श्रेणी में बुद्धि जीवी तक नहीं और समझदार भी नहीं. वह अपने किसी कबीलाई देव की गढ़ी हुई मूर्ति को इतना श्रधा पूर्ण सिजदा करते है कि इन की धोती ऊपर होती है और टोपी नीचे चली जाती है . कहा जा सकता है कि यह उन की निजी श्रधा का मुआमला है मगर उसकी निजता से सार्व जानिकता भी जुडी हुई है. 
इसी तरह वह भारत माता की जय का नारा लगवाते हैं क्या अन्ना हजारे चीनी माता अथवा पाकिस्तानी माता के पुत्रों के साथ जंगी मुहाज पर डटे हुए हैं? 
भूल जाते हो कि तुम भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई लड़ रहे हो यहाँ पर भारत माता की जय बे मौक़ा और बे महेल है. ठीक इसी तरह वन्दे मातरम का नारा भी बे वक़्त की शहनाई है. मानव मूल्यों की लड़ाई के लिए इन पाखंडों की कोई जगह नहीं. 
सामाजिक बुराई को देश भक्ति अथवा देश पूजा से खत्म नहीं किया जा सकता बल्कि ठोस धरातल पर आने की ज़रुरत है. 
अन्ना की निजता और सार्वजनिकता को इनके कर्म कांड और इनके स्लोगन, इनकी तहरीक को उलटी दिशा ले जाती है. ठीक इसी तरह जैसे टीम अन्ना ने एक दाढ़ी वाले को अपने साथ पकड़ रक्खा है. समाजी इन्कलाब के लिए दाढ़ी और छोटी की कोई जगह नहीं होती.
टीम अन्ना सारे के सारे हम्माम के नंगे हैं. यह एक पाक साफ हस्ती के साथ जुड़ कर उसे भी नापाक और अशुद्द कर रहे हैं. 
अन्ना अपनी जिद और अपने अभिमान को त्याग कर अगर मैदान में तन ए तनहा आएँ और लोगों से निवेदन करें कि वे रिश्वत न देने की शपत लें अगर जन साधारण हैं. और रिश्वत न लेने की शपत लें अगर जन असाधारण(सरकारी) हैं. उसके बाद उन लोगों को अन्ना टोपी पहनने का हक दें . 
जन साधारण को सफेद टोपी और जन असाधारण(सरकारी) को हरी टोपी. 
यह टोपियाँ वही लगाएँ जो अपने जीवन में पूर्ण रूप से शुद्ध आचरण रखते हों. 







जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Sunday 5 February 2012

सूरह नह्ल 16(तीसरी किस्त)

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.

सूरह नह्ल 16
(तीसरी किस्त)
आजकल मुसलमानों में इस बात की खुमारी रहती है कि उनके इस्लाम को बड़ी तादाद में गैर मुस्लिम क़ुबूल कर रहे हैं, वह भी पढ़े लिखे प्रोफ़ेसर लेविल के लोग. है भी हैरत की बात कि गीता और वैद  जैसी कीमती किताबों को ठुकरा कर कुरान जैसी अहमकाना दलील रखने वाली किताब पर ईमान लाते हैं. यह लोग आखिर कुरआन में क्या पाते हैं? 
यह लोग इस्लामी चेहरा मोहरा और लबो-लहजा अपना कर उनकी तहरीक का एक हिस्सा बन जाते हैं. मज़े की बात यह है कि यह लोग इस्लामी तालीम खुद मुसलमानों से उनके साथ रह के लेते है, ऐसे लोग जब इस्लामी तहरीक, तक़रीर और तदबीर में शामिल हो जाते हैं तो मुसलमान फूले नहीं समाते. मुसलमानों को अपने ऊपर कभी भी भरोसा नहीं रहता, बल्कि अपने अल्लाह के भरोसे रहते हैं, या फिर इस किस्म के दूसरों पर ज्यादह भरोसा होता है, वह सुबूत में ऐसे गैर मुस्लिम का नाम पेश कर देते हैं कि उस दानिश वर ने इस्लाम कुबूल किया तो इस्लाम में ज़रूर कोई बात होगी. उसकी लिखी हुई किताब पढो और इस्लाम को समझो. 
उनके पास ऐसे दानिशवरों कि लिस्ट मौजूद होती है जिन्हों ने इस्लाम को अपनाया. 
मैं ऐसी किताबों का मुतालिया करता हूँ ? क्या इतना पढ़ा लिखा आदमी इस क़दर गिर सकता है कि मुहम्मद जो मुजरिमे-इंसानियत है, "को सल्लललाहो अलैहेवसल्लम" कहे? ख़याली इस्लामी अल्लाह, उसके कल्पित जन्नत और दोज़ख और रूस्वाए- ज़माना कुरान को महिमा मंडित करे? 
मैं ऐसे किसी शख्स को रू बरु देखना चाहता था.एक रोज़ मेरे एक रिश्ते दार ने ऐसे एक प्रोफ़ेसर को मेरे रूबरू कर दिया. उन से मिलकर और उनसे बात करके सारा राज़ खुला कि कट्टर और सज़िशी हिन्दू तंजीमो के इशारे पर यह लोग अपने जीवन की आहूतियाँ देते है और इस्लाम कुबूल करने का नाटक करते हैं. इनको हिदायत होती है कि मुसलामानों को जिहालत में मुब्तिला रक्खो ताकि यह हमारे मुकाबिले में किसी भी मैदाने-इल्म में न आ सकें. 
इनको हिदू तंजीमें अच्छी नौकरियां दिलाती हैं और खुद ऐसे लोगों के लिए खुफिया माली फायदे और तहफ्फुज़ देती हैं. 


''और वह लोग खुदा के नेमत को पहचानते हैं, फिर इसके मुनकिर होते हैं, और ज्यादह तर इनमें न सिपास हैं.''
सूरह नह्ल पर१४ आयत (८३) 
मुहम्मद क़ुदरत की नेमतों को तस्लीम कराते हैं, फिर कहते हैं कि इन्हीं के खालिक अल्लाह का कलाम हम तुम लोगों को सुनते हैं, उसी ने मुझे अपना रसूल बना कर तुम सब पर नाज़िल किया है, इस बात को लेकर लोग उखड जाते हैं तो मुहम्मद उन लोगों को एहसान फ़रामोश कहते हैं, अल्लाह की बख्शीश का. देखिए कि दूर की कौड़ी, दिमागी तिकड़म, अल्लाह बन जाने की दौड़ में बन्दा हक़ीर. 
मुहम्मदी अल्लाह क़यामती पंचायत क़ायम करता है जिसमें वह खुद और उसके नबी हाकिम और गवाह होते हैं, काफ़िर मुद्दई बन कर मुक़दमा दायर करता है, बेढब अल्लाह उन की सजा बढ़ा देता है, ऐसा बार बार मुहम्मद अपने क़ुरआनी बकवास में दोहराते हैं.
सूरह नह्ल पर१४ आयत (८४-९०)
 
''और तुम लोग उस औरत के मुशाबह मत बनो जिसने अपना सूत काते, पीछे बोटी बोटी करके नोच डाला। । . . और अल्लाह तअला को अगर मंज़ूर होता तो वह सब को एक तरह का ही बना देते लेकिन जिस को चाहते हैं बे राह कर देते हैं और जिसको चाहते हैं राह पर डाल देते हैं और तुम से तुम्हारे आमाल कीबाज़पुर्स ज़रूर होगी.''
सूरह नह्ल पर१४ आयत (९१-९३)
 
अल्लाह अपने बन्दों को उन पागल अपनी बंदियों की तरह बनने को मना करता है जिनको काते हुए सूत को बोटियों की तरह नोचने वाला बना रक्खा है. वह भी अल्लाह की बनाई हुई हैं मगर उन जैसा ना बनना, वह तो नमूना है कि कहीं उनकी तरह ना बन जाओ. हालांकि ''अल्लाह तअला को अगर मंज़ूर होता तो वह सब को एक तरह का ही बना देते'' मगर उनको दोज़ख और जन्नत का तमाशा जो देखना था, तभी तो ''जिसको चाहते हैं राह पर डाल देते हैं'' और ''जिस को चाहते हैं बे राह कर देते हैं'' अब भला बतलाइए कि इन्सान के बस में क्या राह गया है? सिवाए अल्लाह के मर्ज़ी के. या आलावा मुहम्मद के गुलामी के.
मुसलमानों कैसे तुमको समझया जाए कि तुम्हारा अल्लाह एक फ्राड है, तुम्हारा रसूल महा फ्राड। 
 
''तो जब आप कुरआन पढना चाहें तो शैतान मरदूद से अल्लाह की पनाह मांग लिया करें यकीनन इसका काबू उन लोगों पर नहीं चलता जो इमान रखते हैं और अपने रब पर भरोसा रखते हैं.
सूरह नह्ल पर१४ आयत (९८-९९)
यानी शैतान इंसानी दिमाग पर इतना ग़ालिब रहता है कि अल्लाह भी इस का क़ायल है. इसके गलबा से महफूज़ रहने के लिए अल्लाह की पनाह मांगी जाय. ज़ालिम है ही ऐसी चीज़, लाख दे पनाह अल्लाह, चंद लम्हों में अंगड़ाई लेती हुई महबूबा की शक्ल में शैतान आँखों के सामने आया कि अल्लाह फुर्र. बेकारों के लिए ज़रीआ मुआश खुदा है, कुरआन नहीं, साइंस दानों के लिए उक्दा कुशाई मंजिले मक़सूद है कुरआन नहीं, मुहम्मद की रची हुई कुरआन नक़ायस इंसानी क्या, बल्कि नक़ायस ए मखलूकात का दर्जा रखती है. 
 
''और जब हम किसी आयत को बजाए दूसरी आयत के बदलते हैं और हालांकि अल्लाह तअला जो हुक्म देता है, इसको वही खूब जनता है तो यह लोग कहते हैं कि आप इफतरा करने वाले हैं बल्कि इन्हीं में से कुछ लोग जाहिल हैं. आप फरमा दीजिए कि इसको रूहुल क़ुद्स, आप के रब की तरफ़ से हिकमत के मुवाफ़िक़ लाए हैं ताकि ईमान वालों को साबित क़दम रखें और मुसलमानों के लिए खुश खबरी हो जाए. और हम को मालूम है कि लोग कहते हैं इनको तो आदमी सिखला जाता है. जिस शख्स की तरफ़ यह निसबत करते हैं उसकी ज़ुबान तो अजमी है और यह कुरआनसाफ़ अरबी में है.''
सूरह नह्ल पर१४ आयत (१०१-१०३)
इंसानों पर बहुत ही गराँ वक़्त था क्या हिंदी क्या अरबी। मुहम्मद के गिर्द निहायत लाखैरे क़िस्म के लोग रहा करते थे, उस वक़्त पेट भर जाने का मसअला ही बहुत बड़ा था, उनमे अरबी अजमी, ईसाई ,यहूदी और काफिरों-मुशरिक सभी नज़र्यात की टोली मुहम्मद के समर्थकों में थी। ऐसे में वह लोग मुहम्मद की मदद करते क़ुरआनी आयतों में , कभी कोई ग़लत आयत मुहम्मद के मुँह से बहैसियत क़ुरआनी आयत निकल जाती और उसके जानकर शोर मचाते तो उसको वापस लेना पड़ता तब अवाम तअना देती कि क्या अल्लाह भी ग़लती करता है? तब मुहम्मद बड़ी बे शर्मी के साथ मुकाबिला करते.
 द्ल्लाम नाम के एक ईसाई की उस वक़्त बड़ी चर्चा थी कि वह मुहम्मद का क़ुरआनी रहबर है. यह आयत उसी के संदर्भ में है.
 

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान