Monday 30 May 2011

सूरह ज़िल्ज़ाल ९९ - पारा ३०

मेरी तहरीर में - - -

क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का

नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.

सूरह ज़िल्ज़ाल ९९ - पारा ३०

(इज़ाज़ुल्ज़ेलतिल अर्जे ज़ुल्ज़ालहा)
ऊपर उन (७८ -११४) सूरतों के नाम उनके शुरूआती अल्फाज़ के साथ दिया जा रहा हैं जिन्हें नमाज़ों में सूरह फातेहा या अल्हम्द - - के साथ जोड़ कर तुम पढ़ते हो.. ये छोटी छोटी सूरह तीसवें पारे की हैं. देखो और समझो कि इनमें झूट, मकर, सियासत, नफरत, जेहालत, कुदूरत, गलाज़त यहाँ तक कि मुग़ललज़ात भी तुम्हारी इबादत में शामिल हो जाती हैं. तुम अपनी ज़बान में इनको पढने का तसव्वुर भी नहीं कर सकते. ये ज़बान ए गैर में है, वह भी अरबी में, जिसको तुम मुक़द्दस समझते हो, चाहे उसमे फह्हाशी ही क्यूँ न हो..
इबादत के लिए रुक़ूअ या सुजूद, अल्फाज़, तौर तरीके और तरकीब की कोई जगह नहीं होती, गर्क ए कायनात होकर कर उट्ठो तो देखो तुम्हारा अल्लाह तुम्हारे सामने सदाक़त बन कर खड़ा होगा. तुमको इशारा करेगा कि तुमको इस धरती पर इस लिए भेजा है कि तुम इसे सजाओ और सँवारो, आने वाले बन्दों के लिए, यहाँ तक कि धरती के हर बाशिदों के लिए. इनसे नफरत करना गुनाह है, इन बन्दों और बाशिदों की खैर ही तुम्हारी इबादत होगी. इनकी बक़ा ही तुम्हारी नस्लों के हक में होगा.
नमाज़ ही शुरूआत अल्लाह हुअक्बर से होती बह भी मुँह से बोलिए ताकि वह सुन सके?
अल्लाह हुअक्बर का लफ्ज़ी मअनी है अल्लाह सबसे बड़ा है.
तो सवाल उठता है कि अल्लाह हुअस्गर (छोटा अल्लाह) कौन हैं? भगवान राम या कृष्ण कन्हैया, भगवन महावीर या महात्मा गौतम बुध? ईसाइयों का गाड, यहूदियों का याहू या ईरानी ज़र्थुर्ष्ट का खुदा? कोई अकेली लकीर को बड़ा या छोटा दर्जा नहीं दिया जा सकता जब तक की उसके साथ उससे फर्क वाली लकीर न खींची जाए. इसलिए इन नामों की निशान दही की गई है.मुसलमानों को शायद ईसाई का गोंड., यहूदियों का याहू और ईरानियों का खुदा अपने अलाल्ह के बाद तौबा तौबा के साथ गवारा हो कि ये उनके अल्लाह के बाद हैं मगर बाकियों पर उनका लाहौल होगा.
सवाल उठता है कि वह एक ही लकीर खींच कर अपनी डफली बजाते है कि यही सबसे बड़ी लकीर है, अल्लाह हुअक्बर .
एक और बात जोकि मुसलमान शुऊरी तौर पर तस्लीम करता है कि शैतान मरदूद को उसके अल्लाह ने पावर दे रक्खा है कि वह दुन्या पर महदूद तौर पर खुदाई कर सकता है. अल्लाह की तरह शैतान भी हर जगह मौजूद है, वह भी अल्लाह के बन्दों के दिलों पर हुकूमत कर सकता है, भले ही गुमराह कंरने का. इस तरह शैतान को अल्लाह होअस्गर कहा जाए तो बात मुनासिब होगी मगर मुसलमान इस पर तीन बार लाहौल भेजेंगे.
इस पहले सबक में मुसलामानों की गुमराही बयान कर रहा हूँ, दूसरे हजारों पहलू हैं जिस पर मुसलमान ला जवाब होगा.


देखिए कि अल्लाह कुछ बोलने के लिए बोलता है, यही बोल मुसलमानों से नमाज़ों में बुलवाता है - - -

"जब ज़मीन अपनी सख्त जुंबिश से हिलाई जाएगी,
और ज़मीन अपने बोझ बहार निकल फेंकेगी,
और आदमी कहेगा, क्या हुवा?

उस रोज़ अपनी सब ख़बरें बयान करने लगेंगे,
इस सबब से कि आप के रब का इसको हुक्म होगा उस रोज़ लोग मुख्तलिफ़ जमाअतें बना कर वापस होंगे ताकि अपने आमाल को देख लें.
सो जो ज़र्रा बराबर नेकी करेगा, वह इसको देख लेगा ,और जो शख्स ज़र्रा बराबर बदी करेगा, वह इसे देख लेगा.
सूरह ज़िल्ज़ाल ९९ - पारा ३० आयत (१-८)
नमाज़ियो!
ज़मीन हर वक़्त हिलती ही नहीं बल्कि बहुत तेज़ रफ़्तार से अपने
मदारपर घूमती है. इतनी तेज़ कि जिसका तसव्वुर भी कुरानी अल्लाह नहीं कर सकता. अपने
मदारपर घूमते हुए अपने 'कुल' यानी सूरज का चक्कर भी लगाती है ,
अल्लाह को सिर्फ यही खबर है कि ज़मीन में मुर्दे ही दफ्न हैं जिन से वह बोझल है .
तेल. गैस और दीगर
मादानियात से वह बे खबर है.
क़यामत से पहले ही ज़मीन ने अपनी ख़बरें पेश कर दी है और पेश करती रहेगी मगर अल्लाह के आगे नहीं, साइंसदानों के सामने.
धर्म और मज़हब सच की ज़मीन और झूट के आसमान के दरमियाँ में मुअललक फार्मूले है.ये पायाए तकमील तक पहुँच नहीं सकते. नामुकम्मल सच और झूट के बुनियाद पर कायम मज़हब बिल आखिर गुमराहियाँ हैं. अर्ध सत्य वाले धर्म दर असल अधर्म है. इनकी शुरूआत होती है, ये फूलते फलते है, उरूज पाते है और ताक़त बन जाते है, फिर इसके बाद शुरू होता है इनका ज़वाल ये शेर से गीदड़ बन जाते है, फिर चूहे. ज़ालिम अपने अंजाम को पहुँच कर मजलूम बन जाता है. दुनया का आखीर मज़हब, मजहबे इंसानियत ही हो सकता है जिस पर तमाम कौमों को सर जड़ कर बैठने की ज़रुरत है.


जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Thursday 26 May 2011

सूरह बय्येनह ९८ - पारा ३०

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.
सूरह बय्येनह ९८ - पारा ३०
(लम यकुनेल लज़ीना कफ़रू)

ऊपर उन (७८ -११४) सूरतों के नाम उनके शुरूआती अल्फाज़ के साथ दिया जा रहा हैं जिन्हें नमाज़ों में सूरह फातेहा या अल्हम्द - - के साथ जोड़ कर तुम पढ़ते हो.. ये छोटी छोटी सूरह तीसवें पारे की हैं. देखो और समझो कि इनमें झूट, मकर, सियासत, नफरत, जेहालत, कुदूरत, गलाज़त यहाँ तक कि मुग़ललज़ात भी तुम्हारी इबादत में शामिल हो जाती हैं. तुम अपनी ज़बान में इनको पढने का तसव्वुर भी नहीं कर सकते. ये ज़बान ए गैर में है, वह भी अरबी में, जिसको तुम मुक़द्दस समझते हो, चाहे उसमे फह्हाशी ही क्यूँ न हो..
इबादत के लिए रुक़ूअ या सुजूद, अल्फाज़, तौर तरीके और तरकीब की कोई जगह नहीं होती, गर्क ए कायनात होकर कर उट्ठो तो देखो तुम्हारा अल्लाह तुम्हारे सामने सदाक़त बन कर खड़ा होगा. तुमको इशारा करेगा कि तुमको इस धरती पर इस लिए भेजा है कि तुम इसे सजाओ और सँवारो, आने वाले बन्दों के लिए, यहाँ तक कि धरती के हर बाशिदों के लिए. इनसे नफरत करना गुनाह है, इन बन्दों और बाशिदों की खैर ही तुम्हारी इबादत होगी. इनकी बक़ा ही तुम्हारी नस्लों के हक में होगा.
पाकिस्तान की वेबसाइट्स पर जिंसी बेराह रवी की सबसे ज़्यादः भरमार है. किसी भी मज़मून की साइट्स खोलें, धीरे धेरे जिन्स के दरवाजे खुल जाते हैं. जिन्स के ऐसे ऐसे उन्वान कि पढके सर शर्म से झुक जाता है. ऐसा कल्चर इस मुल्क में फ़ैल रहा है जहाँ इंसानी रिश्ते तार तार हो रहे हैं. ये ख़तरनाक वेब मुहिम माँ, बहेन और बेटियों की इज्ज़त उनके रखवाले ही लूटने लगेंगे, तब कहाँ ले जायगा कौम को इसका अंजाम ? इसका कुसूर वार इस्लाम हो सकता है जहां ज़ानियों को सजाए मौत दी जाती है. शायद ये कल्चर इस बेराह रवी के सहारे, फर्सूदा निजाम का जवाब हो.
दूसरी तरफ जेहादियों की दीवानगी भी अपने उरूज पर है. हर रोज़ उनके कारनामे हुकूमत को चिढाते रहते हैं. पाकिस्तान बेबस, न इस्लाम को निगल पा रहा है, न उगल पा रहा है.

देखिए कि बदतरीन खलायक का अल्लाह क्या कहता है - - -

"लोग अहले किताब और और मुशरिकों में से हैं, काफ़िर थे, वह बाज़ आने वाले न थे, जब तक कि इन लोगों के पास वाजेह दलील न आई,
एक अल्लाह का रसूल जो पाक सहीफ़े सुनावे,
जिनमें दुरुस्त मज़ामीन लिखे हों,
और जो लोग अहले किताब थे वह इस वाज़ह दलील के आने के ही मुख्तलिफ़ हो गए,
हालाँकि इन लोगों को यही हुक्म हुवा कि अल्लाह की इस तरह इबादत करें कि इबादत इसी के लिए खास रहें कि इबादत इसी के लिए खास रखें . यकसू होकर और नमाज़ की पाबन्दी रखें और ज़कात दिया करें.
और यही तरीका है इस दुरुस्त मज़ामीन का. बेशक जो लोग अहले किताब और मुशरिकीन से काफ़िर हुए, वह आतिश ए दोज़ख में जाएँगे. जहाँ हमेशा हमेशा रहेगे. ये लोग बद तरीन खलायक हैं.
बेशक जो लोग ईमान ले और अच्छे काम किए, वह बेहतरीन खलायक हैं.,
इनका सिलह इनके परवर दिगार के नज़दीक हमेशा रहने की बेहिश्तें हैं, जिनके नीचे नहरें जारी होंगी. अल्लाह इन से खुश होगा, ये अल्लाह से खुश होंगे, ये उस शख्स के लिए है जो हमेशा अपने रब से डरता है."
सूरह बय्येनह ९८ - पारा ३० (आयत (१-८)

नमाज़ियो!
सूरह में मुहम्मद क्या कहना चाहते हैं ? उनकी फितरत को समझते हुए मफहूम अगर समझ भी लो तो सवाल उठता है कि बात कौन सी अहमयत रखती है? क्या ये बातें तुम्हारे इबादत के क़ाबिल हैं ?क्या रूस, स्वेडन, नारवे, कैनाडा, यहाँ तक की कश्मीरियों के लिए घरों के नीचे बहती अज़ाब नहरें पसंद होंगी? आज तो घरों के नीचे बहने वाली गटरें होती हैं. मुहम्मद अरबी रेगिस्तानी थे जो गर्मी और प्यास से बेहाल हुवा करते थे, लिहाज़ा ऐसी भीगी हुई बहिश्त उनका तसव्वुर हुवा करता था.
ये कुरान अगर किसी खुदा का कलाम होता या किसी होशमंद इंसान का कलाम ही होता तो वह कभी ऐसी नाकबत अनदेशी की बातें न करता.


जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Wednesday 25 May 2011

सूरह क़द्र ९७ - पारा ३०

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.

सूरह क़द्र ९७ - पारा ३०
(इन्ना अनज़लना फी लैलतुल क़द्र)

ऊपर उन (७८ -११४) सूरतों के नाम उनके शुरूआती अल्फाज़ के साथ दिया जा रहा हैं जिन्हें नमाज़ों में सूरह फातेहा या अल्हम्द - - के साथ जोड़ कर तुम पढ़ते हो.. ये छोटी छोटी सूरह तीसवें पारे की हैं. देखो और समझो कि इनमें झूट, मकर, सियासत, नफरत, जेहालत, कुदूरत, गलाज़त यहाँ तक कि मुग़ललज़ात भी तुम्हारी इबादत में शामिल हो जाती हैं. तुम अपनी ज़बान में इनको पढने का तसव्वुर भी नहीं कर सकते. ये ज़बान ए गैर में है, वह भी अरबी में, जिसको तुम मुक़द्दस समझते हो, चाहे उसमे फह्हाशी ही क्यूँ न हो..
इबादत के लिए रुक़ूअ या सुजूद, अल्फाज़, तौर तरीके और तरकीब की कोई जगह नहीं होती, गर्क ए कायनात होकर कर उट्ठो तो देखो तुम्हारा अल्लाह तुम्हारे सामने सदाक़त बन कर खड़ा होगा. तुमको इशारा करेगा कि तुमको इस धरती पर इस लिए भेजा है कि तुम इसे सजाओ और सँवारो, आने वाले बन्दों के लिए, यहाँ तक कि धरती के हर बाशिदों के लिए. इनसे नफरत करना गुनाह है, इन बन्दों और बाशिदों की खैर ही तुम्हारी इबादत होगी. इनकी बक़ा ही तुम्हारी नस्लों के हक में होगा.

मैं कुरआन को एक साजिशी मगर अनपढ़ दीवाने की पोथी मानता हूँ और मुसलामानों को इस पोथी का दीवाना.
एक गुमराह इंसान चार क़दम भी नहीं चल सकता कि राह बदल देगा, ये सोच कर कि शायद वह गलत राह पर ग़ुम हो रहा है. इसी कशमकश में वह तमाम उम्र गुमराही में चला करता है. मुसलमानों की जेहनी कैफियत कुछ इसी तरह की है, कभी वह अपने दिल की बात मानता है, कभी मुहम्मदी अल्लाह की बतलाई हुई राह को दुरुस्त पाता है. इनकी इसी चाल ने इन्हें हज़ारों तबके में बाँट दिया है. अल्लाह की बतलाई हुई राह में ही राह कर कुछ अपने आपको तलाश करता है तो वह उसी पर अटल हो जाता है. जब वह बगावत कर के अपने नज़रिए का एलान करता है तो इस्लाम में एक नया मसलक पैदा होता है.यह अपनी मकबूलियत की दर पे तशैया (शियों का मसलक) से लेकर अहमदिए (मिर्ज़ा ग़ुलाम मुहम्मद कादियानी) तक होते हुए चले आए हैं. नए मसलक में आकर वह समझने लगते है कि हम मंजिल ए जदीद पर आ पहुंचे है, मगर दर असल वह अस्वाभाविक अल्लाह के फंदे में नए सिरे से फंस कर अपनी नस्लों को एक नया इस्लामी क़ैद खाना और भी देते है.
कोई बड़ा इन्कलाब ही इस कौम को रह ए रास्त पर ला सकता है जिसमे काफी खून खराबे की संभावनाएं निहित है. भारत में मुसलामानों का उद्धार होते नहीं दिखता है क्यूंकि इस्लाम के देव को अब्दी नींद सुलाने के लिए हिंदुत्व के महादेव को अब्दी नींद सुलाना होगा. यह दोनों देव और महा देव, सिक्के के दो पहलू हैं.
मुसलामानों इस दुन्या में एक नए मसलक का आग़ाज़ हो चुका है, वह है तर्क ए मज़हब और सजदा ए इंसानियत. इंसानों से ऊँचे उठ सको तो मोमिन की राह को पकड़ो जो कि सीध सड़क है.

जिस बात को अल्लाह बेशक से शुरू करता है, उसमे मुकम्मल शक करने की ज़रुरत है, देखो - - -

"बेशक हमने कुरआन को शब ए क़द्र में उतरा है,
और आपको कुछ मालूम है कि शब ए कद्र क्या चीज़ होती है,
शब ए कद्र हज़ार महीनों से बेहतर है,
इस रात में फ़रिश्ते रूहुल क़ुद्स अपने परवर दिगार के हुक्म से अम्र ए ख़ैर को लेकर उतरते हैं, सरापा सलाम है.
वह शब ए तुलू फजिर तक रहती है".
सूरह इन्शिराह ९४ - पारा ३० आयत (१-५)

नमाज़ियो !
मुहम्मदी अल्लाहसूरह में कुरआन को शब क़द्र की रात को उतारने की बात कर रहा है
तो कहीं पर कुरआन माहे रमजान में नाज़िल करने की बात करता है, जबकि कुरआन मुहम्मद के खुद साख्ता रसूल बन्ने के बाद उनकी आखरी साँस तक, तक़रीबन बीस साल चार माह तक मुहम्मद के मुँह से निकलता रहा. मुहम्मद का तबई झूट आपके सामने है. मुहम्मद की हिमाक़त भरी बातें तुम्हारी इबादत बनी हुई हैं, ये बडे शर्म की बात है. ऐसी नमाज़ों से तौबा करो. झूट बोलना ही गुनाह है, तुम झूट के अंबार के नीचे दबे हुए हो. तुम्हारे झूट में जब जिहादी शर शामिल हो जाता है तो वह बन्दों के लिए ज़हर हो जाता है. तुम दूसरों को क़त्ल करने वाली नमाज़ अगर पढोगे तप सब मिल कर तुमको ख़त्म कर देंगे. मुस्लिम से मोमिन हो जाओ, बड़ा आसान है. सच बोलना, सच जीना और सच ही पर जन देना पढो और उसपर अमल करो, ये बात सोचने में है पहाड़ लगती है, अमल पर आओ तो कोई रूकावट नहीं.
जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Tuesday 24 May 2011

सूरह अलक़ ९६ - पारा ३०

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.
सूरह अलक़ ९६ - पारा ३०
(इकरा बिस्मरब्बे कल लज़ी ख़लक़ा)

ऊपर उन (७८ -११४) सूरतों के नाम उनके शुरूआती अल्फाज़ के साथ दिया जा रहा हैं जिन्हें नमाज़ों में सूरह फातेहा या अल्हम्द - - के साथ जोड़ कर तुम पढ़ते हो.. ये छोटी छोटी सूरह तीसवें पारे की हैं. देखो और समझो कि इनमें झूट, मकर, सियासत, नफरत, जेहालत, कुदूरत, गलाज़त यहाँ तक कि मुग़ललज़ात भी तुम्हारी इबादत में शामिल हो जाती हैं. तुम अपनी ज़बान में इनको पढने का तसव्वुर भी नहीं कर सकते. ये ज़बान ए गैर में है, वह भी अरबी में, जिसको तुम मुक़द्दस समझते हो, चाहे उसमे फह्हाशी ही क्यूँ न हो..
इबादत के लिए रुक़ूअ या सुजूद, अल्फाज़, तौर तरीके और तरकीब की कोई जगह नहीं होती, गर्क ए कायनात होकर कर उट्ठो तो देखो तुम्हारा अल्लाह तुम्हारे सामने सदाक़त बन कर खड़ा होगा. तुमको इशारा करेगा कि तुमको इस धरती पर इस लिए भेजा है कि तुम इसे सजाओ और सँवारो, आने वाले बन्दों के लिए, यहाँ तक कि धरती के हर बाशिदों के लिए. इनसे नफरत करना गुनाह है, इन बन्दों और बाशिदों की खैर ही तुम्हारी इबादत होगी. इनकी बक़ा ही तुम्हारी नस्लों के हक में होगा.

मैं कभी कभी उन ब्लॉगों पर चला जाता हूँ जो मुझे दावत देते है कि कभी मेरे घर भी आइए. उनके घरों में घुसकर मुझे मायूसी ही हाथ लगती है. उनके मालिकन अक्सर अज्ञान हिन्दू और नादान मुसलमान होते हैउनके फालोवर्स एक दूसरे को इनवाईट करते हैं कि आओ,
मेरी माँ बहने हाज़िर हैं, इनको तौलो.
इन बेहूदों को इससे कम क्या कहा जा सकता है.
ये दोनों एक दूसरे का मल मूत्र खाने और पीने के लिए अपने खुले मुँह पेश करते हैं. इनके पूज्य और माबूद अपनी तमाम कमियों के साथ आज भी इनके पूज्य और माबूद बने हुए हैं.
ज़माना बदल गया है उनके देव नहीं बदले. उनको भूलने और बर तरफ़ करने ज़रुरत है न कि आस्थाओं की बासी कढ़ी को उबालते रहने की.

युग दृष्टा हमारे वैज्ञानिक ही सच पूछो तो हमारे देवता और पयम्बर हैं जो, हमें जीवन सुविधा प्रदान किए रहते है. इनकी पूजा अगर करने के लिए जाओ तो ये तुम्हारी नादानी पर मुस्कुरा देंगे और तुम्हें आशीर्वाद स्वरूप अपनी अगली इंसानी सुविधा का पता देगे.
लेंगे नहीं कुछ भी.

हम दिन रात उनकी प्रदान की हुई बरकतों को ओढ़ते बिछाते हैं और उनके ही आविष्कारो को अपने फ़ायदे के सांचे में ढालकर एक दूसरे पर कीचड उछालते हैं, क्या ये ब्लागिंग की सुविधा हमारे वैज्ञानिकों की देन नहीं है? ये शंकर जी या मुहम्मदी फरिश्तों की देन है, जिसके साथ हम अपना मुँह काला करते रहते हैं.
अल्लाह मुहम्मद से कहता है - - -
"आप कुरआन को अपने रब का नाम लेकर पढ़ा कीजिए,
जिस ने पैदा किया ,
जिसने इंसानों को खून के लोथड़े से पैदा किया,
आप कुरआन पढ़ा कीजे, और आपका रब बड़ा करीम है,
जिसने क़लम से तालीम दी,
उन चीजों की तालीम दी जिनको वह न जनता था,
सचमुच! बेशक!! इंसान हद निकल जाता है,
अपने आपको मुस्तगना देखता है,
ऐ मुखातब! तेरे रब की तरफ ही लौटना होगा सबको.
सूरह अलक़ ९६ - पारा ३० आयत (१-९)
ऐ मुखातब उस शख्स का हाल तो बतला,
जो एक बन्दे को मना करता है, जब वह नमाज़ पढता है,
ऐ मुखाताब भला ये तो बतला कि वह बंदा हिदायत पर हो,
या तक़वा का तालीम देता हो,
ऐ मुखाताब भला ये तो बतला कि अगर वह शख्स झुट्लाता हो और रू गरदनी करता हो,
क्या उस शख्स को ये खबर नहीं कि अल्लाह देख रहा है,
हरगिज़ नहीं, अगर ये शख्स बाज़ न आएगा तो हम पुट्ठे पकड़ कर जो दरोग़ और ख़ता में आलूदा हैं, घसीटेंगे.सो ये अपने हम जलसा लोगों को बुला ले.
हम भी दोज़ख के प्यादों को बुला लेंगे."
सूरह अलक़ ९६ - पारा ३० आयत (१०-१९)
नमाज़ियो!
जब हमल क़ब्ल अज वक़्त गिर जाता है तो वह खून का लोथड़ा जैसा दिखता है, मुहम्मद का मुशाहिदा यहीं तक है, जो अपने आँख से देखा उसे अल्लाह की हिकमत कहा. वह कुरान में बार बार दोहराते हैं कि " जिसने इंसानों को खून के लोथड़े से पैदा किया'' इंसान कैसे पैदा होता है, इसे मेडिकल साइंस से जानो.
इंसान को क़लम से तालीम अल्लाह ने नहीं दी, बल्कि इंसान ने इंसान को क़लम से तालीम दी. क़लम इन्सान की ईजाद है. कुदरत ने इंसान को अक्ल दिया कि उसने सेठे को क़लम की शक्ल दी, उसके बाद लोहे को और अब कम्प्युटर को शक्ल दे रहा है. मुहम्मद किसी बन्दे को मुस्तगना (आज़ाद) देखना पसंद नहीं करते.सबको अपना असीर देखना चाहते हैं बज़रीए अपने कायम किए अल्लाह के.
ये आयतें पढ़ कर क्या तुम्हारा खून खौल नहीं जाना चाहिए कि मुहम्मदी अल्लाह इंसानों की तरह धमकता है "अगर ये शख्स बाज़ न आएगा तो हम पुट्ठे पकड़ कर जो दरोग़ और ख़ता में आलूदा हैं, घसीटेंगे.सो ये अपने हम जलसा लोगों को बुला ले. हम भी दोज़ख के प्यादों को बुला लेंगे."
क्या मालिके-कायनात की ये औकात रह गई है?
मुसलमानों अपने जीते जी दूसरा जनम लो. मुस्लिम से मोमिन हो जाओ. मोमिन मज़हब वह होगा जो उरियाँ सच्चाई को कुबूल करे. कुदरत का आईनादार और ईमानदार. इस्लाम तुम्हारे साथ बे ईमानी है. इंसान का बुयादी हक है इंसानियत के दायरे में मुस्तगना (आज़ाद) होकर जीना, .

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Monday 23 May 2011

सूरह तीन ९५ - पारा ३०

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.

सूरह तीन ९५ - पारा ३०

(वत्तीने वज्जैतूने वतूरे सीनीना)

ऊपर उन (७८ -११४) सूरतों के नाम उनके शुरूआती अल्फाज़ के साथ दिया जा रहा हैं जिन्हें नमाज़ों में सूरह फातेहा या अल्हम्द - - के साथ जोड़ कर तुम पढ़ते हो.. ये छोटी छोटी सूरह तीसवें पारे की हैं. देखो और समझो कि इनमें झूट, मकर, सियासत, नफरत, जेहालत, कुदूरत, गलाज़त यहाँ तक कि मुग़ललज़ात भी तुम्हारी इबादत में शामिल हो जाती हैं. तुम अपनी ज़बान में इनको पढने का तसव्वुर भी नहीं कर सकते. ये ज़बान ए गैर में है, वह भी अरबी में, जिसको तुम मुक़द्दस समझते हो, चाहे उसमे फह्हाशी ही क्यूँ न हो..
इबादत के लिए रुक़ूअ या सुजूद, अल्फाज़, तौर तरीके और तरकीब की कोई जगह नहीं होती, गर्क ए कायनात होकर कर उट्ठो तो देखो तुम्हारा अल्लाह तुम्हारे सामने सदाक़त बन कर खड़ा होगा. तुमको इशारा करेगा कि तुमको इस धरती पर इस लिए भेजा है कि तुम इसे सजाओ और सँवारो, आने वाले बन्दों के लिए, यहाँ तक कि धरती के हर बाशिदों के लिए. इनसे नफरत करना गुनाह है, इन बन्दों और बाशिदों की खैर ही तुम्हारी इबादत होगी. इनकी बक़ा ही तुम्हारी नस्लों के हक में होगा.
अल्लाह क्या है?
अल्लाह का कोई भी ऐसा वजूद नहीं जो मज़ाहिब बतलाते हैं.
अल्लाह एक वह्म, एक गुमान है.
अल्लाह एक अंदाजा है, एक खौफ़ है.
अल्लाह एक अक़ीदा है जो विरासत या ज़ेहनी गुलामी के मार्फ़त मिलता है.
अल्लाह हद्दे ज़ेहन है या अक़ली कमजोरी की अलामत है,
अल्लाह अवामी राय है, या फिर दिल की चाहत,
कुछ लोगों की राय है कि अल्लाह कोई ताक़त है जिसे सुप्रीम पावर भी कह जाता है?
अल्लाह कुछ भी नहीं है, गुनाह और बद आमाली कोई फ़ेल नहीं होता, इन बातों का यक़ीन करके अगर कोई शख्स इंसानी क़द्रों से बगावत करता है तो वह बद आमाली की किसी हद को पार कर सकता है.
ऐसे कमज़ोर इंसानों के लिए अल्लाह को मनवाना ज़रूरी है.
मगर ये अम्र सिर्फ़ इस्लाह के लिए हो न कि पेशा बन जाए.
वैसे अल्लाह के मानने वाले भी गुनहगारी की तमाम हदें पर कर जाते हैं.
बल्कि अल्लाह के यक़ीन का मुज़ाहिरा करने वाले और अल्लाह की अलम बरदारी करने वाले सौ फीसद दर पर्दा बेज़मिर मुजरिम देखे गए हैं.
बेहतर होगा कि बच्चों को दीनी तालीम देने की बजाए अख्लाक्यात पढाई जाए, वह भी जदीद तरीन इंसानी क़द्रें जो मुस्तकबिल करीब में उनके लिए फायदेमंद हों.
मुस्तकबिल बईद में इंसानी क़द्रों के बदलते रहने के इमकानात हुवा करते है.
देखिए कि अल्लाह किन किन चीज़ों की कसमें खाता है और क्यूँ कसमें खाता है. अल्लाह को कंकड़ पत्थर और कुत्ता बिल्ली की क़सम खाना ही बाकी बचता है - - -

"क़सम है इन्जीर की,
और ज़ैतून की,
और तूर ए सीनैन की,
और उस अमन वाले शहर की,
कि हमने इंसानों को बहुर खूब सूरत साँचे में ढाला है.
फिर हम इसको पस्ती की हालत वालों से भी पस्त कर देते हैं.
लेकिन जो लोग ईमान ले और अच्छे काम किए तो उनके लिए इस कद्र सवाब है जो कभी मुन्क़ता न होगा.
फिर कौन सी चीज़ तुझे क़यामत के लिए मुनकिर बना रही है?
क्या अल्लाह सब हाकिमों से बड़ा हाकिम नहीं है?"
सूरह तीन ९५ - पारा ३० आयत (१-८)
नमाज़ियो!
मुहम्मदी अल्लाह और मुहम्मदी शैतान में बहुत सी यकसानियत है. दोनों हर जगह मौजूद रहते है, दोनों इंसानों को गुमराह करते हैं.
मुसलामानों का ये मुहाविरा बन कर रह गया है कि "जिसको अल्लाह गुमराह करे उसको कोई राह पर नहीं ला सकता"
आपने देखा होगा कि कुरआन में सैकड़ों बार ये बात है कि वह अपने बन्दों को गूंगा, बहर और अँधा बना देता है.
इस सूरह में भी यही काम अल्लाह करता है,
कि "हमने इंसानों को बहुर खूब सूरत साँचे में ढाला है."
"फिर हम इसको पस्ती की हालत वालों से भी पस्त कर देते हैं."
गोया इंसानों पर अल्लाह के बाप का राज है.
अगर इंसान को अल्लाह ने इतना कमज़ोर और अपना मातेहत पैदा किया है तो उस अल्लाह की ऐसी की तैसी.
इससे कनारा कशी अख्तियार कर लो. बस अपने दिमाग की खिड़की खोलने की ज़रुरत है.
कहीं जन्नत के लालची तो नहीं हो?
या फिर दोज़ख की आग से हवा खिसकती है?
इन दोनों बातों से परे, मर्द मोमिन बनो, इस्लाम को तर्क करके.

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Sunday 22 May 2011

सूरह इन्शिराह ९४ - पारा ३०

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.
सूरह इन्शिराह ९४ - पारा ३०
(अलम नशरह लका सद्रका)
ऊपर उन (७८ -११४) सूरतों के नाम उनके शुरूआती अल्फाज़ के साथ दिया जा रहा हैं जिन्हें नमाज़ों में सूरह फातेहा या अल्हम्द - - के साथ जोड़ कर तुम पढ़ते हो.. ये छोटी छोटी सूरह तीसवें पारे की हैं. देखो और समझो कि इनमें झूट, मकर, सियासत, नफरत, जेहालत, कुदूरत, गलाज़त यहाँ तक कि मुग़ललज़ात भी तुम्हारी इबादत में शामिल हो जाती हैं. तुम अपनी ज़बान में इनको पढने का तसव्वुर भी नहीं कर सकते. ये ज़बान ए गैर में है, वह भी अरबी में, जिसको तुम मुक़द्दस समझते हो, चाहे उसमे फह्हाशी ही क्यूँ न हो..
इबादत के लिए रुक़ूअ या सुजूद, अल्फाज़, तौर तरीके और तरकीब की कोई जगह नहीं होती, गर्क ए कायनात होकर कर उट्ठो तो देखो तुम्हारा अल्लाह तुम्हारे सामने सदाक़त बन कर खड़ा होगा. तुमको इशारा करेगा कि तुमको इस धरती पर इस लिए भेजा है कि तुम इसे सजाओ और सँवारो, आने वाले बन्दों के लिए, यहाँ तक कि धरती के हर बाशिदों के लिए. इनसे नफरत करना गुनाह है, इन बन्दों और बाशिदों की खैर ही तुम्हारी इबादत होगी. इनकी बक़ा ही तुम्हारी नस्लों के हक में होगा.
दुन्या की सब से बड़ी ताक़त कोई है, यह बात सभी मानते हैं चाहे वह आस्तिक हो या नास्तिक उसकी मान्यता सर्व श्रेष्ट है. उसका सम्मान सभी करते हैं, वह किसी को नहीं सेठ्ता. एक मुहम्मद ऐसे हैं जो उस सर्व शक्ति मान से अपनी इज्ज़त कराते हैं. अल्लाह मुहम्मद को सम्मान जनक शब्दों से ही संबोधित करता है.वह मुहम्मद को आप जनाब करके ही बात करता है. इसका असर ये है की मुसलमान मुहम्मद को मान सम्मान अल्लाह से ज्यादह देते है, वह इस बात को मानें या न मानें, मगर लाशूरी तौर पर उनके अमल बतलाते हैं की वह मुहम्मद को अल्लाह के मुकाबिले में ज्यादा मानते है. मुहम्मद की शान में नातिया मुशायरे हर रोज़ दुन्या के कोने कोनों में हुवा करते है, मगर अल्लाह की शान में "हम्दिया" मुशायरा कहीं नहीं सुना गया. अल्लाह की झलक तो संतों और सूफियों की हदों में देखने को मिलती है.
देखिए कि अल्लाह अपने आदरणीयमुहम्मद को कैसे लिहाज़ के साथ मुखातिब करता है - - -
"क्या हमने आपकी खातिर आपका सीना कुशादा नहीं कर दिया,
और हमने आप पर से आपका बोझ उतार दिया,
जिसने आपकी कमर तोड़ रक्खी थी,
और हमने आप की खातिर आप की आवाज़ बुलंद किया,
सो बेशक मौजूदा मुश्किलात के साथ आसानी होने वाली है,
तो जब आप फारिग हो जाया करेंतो मेहनत करें,
और अपने रब की तरफ़ तवज्जो दें."
सूरह इन्शिराह ९४ - पारा ३० आयत(१-८)
क्या क्या न सहे हमने सितम आप की खातिर
नमाज़ियो!
धर्म और मज़हब का सबसे बड़ा बैर है नास्तिकों से जिन्हें इस्लाम दहेरया और मुल्हिद कहता है. वो इनके खुदाओं को न मानने वालों को अपनी गालियों का दंड भोगी और मुस्तहक समझते हैं. कोई धर्म भी नास्तिक को लम्हा भर नहीं झेल पाता. यह कमज़र्फ और खुद में बने मुजरिम, समझते हैं कि खुदा को न मानने वाला कोई भी पाप कर सकता है, क्यूंकि इनको किसी ताक़त का डर नहीं. ये कूप मंडूक नहीं जानते कि कोई शख्सियत नास्तिक बन्ने से पहले आस्तिक होती है और तमाम धर्मों का छंद विच्छेद करने के बाद ही क़याम पाती है. वह इनकी खरी बातों को जो फ़ितरी तकाज़ा होती हैं, उनको ग्रहण कर लेता है और थोथे कचरे को कूड़ेदान में डाल देता है. यही थोथी मान्यताएं होती हैं धर्मों की गिज़ा. नास्तिकता है धर्मो की कसौटी. पक्के धर्मी कच्चे इंसान होते हैं. नास्तिकता व्यक्तित्व का शिखर विन्दु है.
एक नास्तिक के आगे बड़े बड़े धर्म धुरंदर, आलिम फाजिल, ज्ञानी ध्यानी आंधी के आगे न टिक पाने वाले मच्छर बन जाते हैं. पिछले दिनों कुछ टिकिया चोर धर्मान्ध्र नेताओं ने एलक्शन कमीशन श्री लिंग दोह पर इलज़ाम लगाया थ कि वह क्रिश्चेन हैं इस लिए सोनिया गाँधी का खास लिहाज़ रखते हैं. जवाब में श्री लिंगदोह ने कहा था,"मैं क्रिश्चेन नहीं एक नास्तिक हूँ और इलज़ाम लगाने वाले नास्तिक का मतलब भी नहीं जानते." बाद में मैंने अखबार में पढ़ा कि आलमी रिकार्ड में "आली जनाब लिंगदोह, दुन्या के बरतर तरीन इंसानों में पच्चीसवें नंबर पर शुमार किए गए हैं. ऐसे होते हैं नास्तिक.
फिर मैं दोहरा रहा हूँ कि दुन्या की ज़ालिम और जाबिर तरीन हस्तियाँ धर्म और मज़हब के कोख से ही जन्मी है. जितना खूनी नदियाँ इन धर्म और मज़ाहब ने बहाई हैं, उतना किसी दूसरी तहरीक ने नहीं. और इसके सरताज हैं मुहम्मद अरबी जिनकी इन थोथी आयतों में तुम उलझे हुए हो.
जागो मुसलामानों जागो.


जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Friday 20 May 2011

सूरह जुहा ९३ - पारा ३०

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.
सूरह जुहा ९३ - पारा ३०
( वज़ज़ुहा वल्लैले इज़ा सजा)

ऊपर उन (७८ -११४) सूरतों के नाम उनके शुरूआती अल्फाज़ के साथ दिया जा रहा हैं जिन्हें नमाज़ों में सूरह फातेहा या अल्हम्द - - के साथ जोड़ कर तुम पढ़ते हो.. ये छोटी छोटी सूरह तीसवें पारे की हैं. देखो और समझो कि इनमें झूट, मकर, सियासत, नफरत, जेहालत, कुदूरत, गलाज़त यहाँ तक कि मुग़ललज़ात भी तुम्हारी इबादत में शामिल हो जाती हैं. तुम अपनी ज़बान में इनको पढने का तसव्वुर भी नहीं कर सकते. ये ज़बान ए गैर में है, वह भी अरबी में, जिसको तुम मुक़द्दस समझते हो, चाहे उसमे फह्हाशी ही क्यूँ न हो.
इबादत के लिए रुक़ूअ या सुजूद, अल्फाज़, तौर तरीके और तरकीब की कोई जगह नहीं होती, गर्क ए कायनात होकर कर उट्ठो तो देखो तुम्हारा अल्लाह तुम्हारे सामने सदाक़त बन कर खड़ा होगा. तुमको इशारा करेगा कि तुमको इस धरती पर इस लिए भेजा है कि तुम इसे सजाओ और सँवारो, आने वाले बन्दों के लिए, यहाँ तक कि धरती के हर बाशिदों के लिए. इनसे नफरत करना गुनाह है, इन बन्दों और बाशिदों की खैर ही तुम्हारी इबादत होगी. इनकी बक़ा ही तुम्हारी नस्लों के हक में होगा.
देखो मुहम्मदी अल्लाह की रातें कैसे करार पति हैं - - -
"क़सम है दिन की रौशनी की,
और रात की जब वह क़रार पकडे,

कि आपके परवर दिगार ने न आपको छोड़ा न दुश्मनी की,

और
आखिरत आपके लिए दुन्या से बेहतर है.
अनक़रीब अल्लाह तअला आपको देगा,
सो आप खुश हो जाएँगे.

क्या अल्लाह ने आपको यतीम नहीं पाया,
फिर ठिकाना दिया और अल्लाह ने आपको बे खबर पाया,
फिर रास्ता बतलाया और अल्लाह ने आपको नादर पाया.

और मालदार बनाया,

तो आप यतीम पर सख्ती न कीजिए,

और सयाल को मत झिड़कइए,

और अपने रब के इनआमात का का तज़किरा करते रहा कीजिए." .

सूरह जुहा ९३ - पारा ३० आयत (१-११)
मुहम्मद बीमार हुए, तीन रातें इबादत न कर सके, बात उनके माहौल में फ़ैल गई. किसी काफ़िर ने इस पर यूँ चुटकी लिया,
"मालूम होता है तुम्हारे शैतान ने तुम्हें छोड़ दिया है."
मुहम्मद पर बड़ा लतीफ़ तंज़ था, जिस हस्ती को वह अपना अल्लाह मुश्तहिर करते थे, काफ़िर उसे उनका शैतान कहा करते थे. इसी के जवाब में खुद साख्ता रसूल की ये पिलपिली आयतें हैं.
नमाज़ियो !
इन आसमानी आयतों को बार बार दोहराओ. इसमें कोई आसमानी सच नज़र आता है क्या? खिस्याई हुई बातें हैं, मुँह जिलाने वाली. यहाँ मुहम्मद खुद कह रहे हैं कि वह मालदार हो गए हैं. जिनको इनके चापलूस आलिमों ने ज़िन्दगी की मुश्किल तरीन हालत में जीना इनकी हुलिया गढ़ रखा है. ये बेशर्म बड़ी जिसारत से लिखते है कि मरने के बाद मुहम्मद के पास चंद दीनार थे. मुहम्मद के लिए दस्यों सुबूत हैं कि वह अपने फायदे को हमेशा पेश इ नज़र रखा. तुम्हारे रसूल औसत दर्जे के एक अच्छे इंसान भी नहीं थे.
जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Thursday 19 May 2011

सूरह लैल ९२ - पारा ३०

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.
सूरह लैल ९२ - पारा ३०
(वललैलेइज़ा यगषा)

ऊपर उन (७८ -११४) सूरतों के नाम उनके शुरूआती अल्फाज़ के साथ दिया जा रहा हैं जिन्हें नमाज़ों में सूरह फातेहा या अल्हम्द - - के साथ जोड़ कर तुम पढ़ते हो.. ये छोटी छोटी सूरह तीसवें पारे की हैं. देखो और समझो कि इनमें झूट, मकर, सियासत, नफरत, जेहालत, कुदूरत, गलाज़त यहाँ तक कि मुग़ललज़ात भी तुम्हारी इबादत में शामिल हो जाती हैं. तुम अपनी ज़बान में इनको पढने का तसव्वुर भी नहीं कर सकते. ये ज़बान ए गैर में है, वह भी अरबी में, जिसको तुम मुक़द्दस समझते हो, चाहे उसमे फह्हाशी ही क्यूँ न हो.. इबादत के लिए रुक़ूअ या सुजूद, अल्फाज़, तौर तरीके और तरकीब की कोई जगह नहीं होती, गर्क ए कायनात होकर कर उट्ठो तो देखो तुम्हारा अल्लाह तुम्हारे सामने सदाक़त बन कर खड़ा होगा. तुमको इशारा करेगा कि तुमको इस धरती पर इस लिए भेजा है कि तुम इसे सजाओ और सँवारो, आने वाले बन्दों के लिए, यहाँ तक कि धरती के हर बाशिदों के लिए. इनसे नफरत करना गुनाह है, इन बन्दों और बाशिदों की खैर ही तुम्हारी इबादत होगी. इनकी बक़ा ही तुम्हारी नस्लों के हक में होगा.


ओसामा बिन लादेन की मौत के बाद मुजाहिदे इस्लाम दुन्या भर में बिरझाए हुए हैं. अब तो वक़्त आ गया है कि भारत में ये अपनी दीवानगी का मुजाहिरा नहीं कर पा रहे हैं ,क्यूंकि पिछले दिनों हुकूमत ए हिंद ने सख्त होकर इनको सबक दे दिया था कि अपने मज़हबी जूनून को अपने घर तक सीमित रखो. अब इनकी इतनी भी ताक़त नहीं बची कि दूसरे किसी गैर मुस्लिम मुल्क में अपनी दीवानगी का इज़हार करें, ले दे के ये दीवाने मुस्लिम मुमालिक में मुसलामानों को अपनी बुज़दिली, खुद कुश हमले को अंजाम देकर कर रहे हैं. खास कर पकिस्तान में आए दिन खूँ रेज़ी हो रही है. इस्लाम की तहरीक जेहाद के ज़रीए कमाई का रास्ता बनाओ, अभी तक मुसलमान के मुँह लगा हुवा है. इसके सूत्रधार हैं ओलिमा, यही ज़ात ए नापाक हमेशा आम इंसानों को बहकाती रही है, जो इनके झांसे में आकर इस्लाम क़ुबूल कर लिया करते थे. इस्लाम एक तरीका है, एक फार्मूला है ब्लेक मेलिंग का कि लोगों को मुसलमान बना कर अपने लिए साधन बनाओ, भरण पोषण का. ये इंसान को जेहादी बनाता है, जेहाद का मकसद है लूट मार, वह चाहे गैर मुस्लिम का हो चाहे मुसलामानों का. इतिसस गवाह हैं कि मुसलामानों ने जितना खुद मुसलामानों का खून किया है, उसका सवां हिस्सा भी काफिरों और मुरिकों का नहीं किया. आज पकिस्तान इस्लामी जेहादियों का क़त्ल गाह बना हुवा है. इसको इसकी सज़ा मिलनी भी चाहिए कि इस्लाम के नाम पर किसी देश का बटवारा किया था. इसके नज़रिए को मानने वाले तर्क वतन को मज़हब की बुनियाद पर तरजीह दिया था. इसके बानी मुहम्मद अली जिना को अपने कौम को इस्लामी क़त्ल गाह के हवाले कर देने का अज़ाब, उनकी रूह को इस्लामी जहन्नम में पड़ा होना चाहिए मगर काश कि इस्लामी जन्नत या जहन्नम में कुछ सच्चाई होती. हिन्दुतान अपनी तहजीब की बुन्यादों पर इर्तेकाई मंजिलों पर गामज़न है. मुसलामानों को चाहिए कि अपनों आँखें खोलें.
जाहिले मुतलक मुहम्मदी अल्लाह क्या कहता है देखो - - -

"क़सम है रात की जब वह छुपाले,
दिन की जब वह रौशन हो जाए,

और उसकी जिस ने नर और मादा पैदा किया,

कि बेशक तुम्हारी कोशिशें मुख्तलिफ हैं,.

सो जिसने दिया और डरा,

और अच्छी बात को सच्चा समझा,

तो हम उसको राहत की चीज़ के लिए सामान देंगे,

और जिसने बोख्ल किया और बजाए अल्लाह के डरने के,
इससे बे परवाई अख्तियार की और अच्छी बात को झुटलाया,

तो हम इसे तकलीफ़ की चीज़ के लिए सामान देंगे."

सूरह लैल ९२ - पारा ३० आयत (१-१०)
"और इसका माल इसके कुछ काम न आएगा,

जब वह बर्बाद होने लगेगा,

वाकई हमारे जिम्मे राह को बतला देना है,

और हमारे ही कब्जे में है,
आखिरत और दुन्या,
तो तुमको एक भड़कती हुई आग से डरा चुका हूँ,

इसमें वही बदबख्त दाखिल होगा जिसने झुटलाया और रूगरदानी की,

और इससे ऐसा शख्स दूर रखा जाएगा जो बड़ा परहेज़गार है,

जो अपना माल इस लिए देता है कि पाक हो जाए,

और बजुज़ अपने परवर दिगार की रज़ा जोई के,
इसके ज़िम्मे किसी का एहसान न था कि इसका बदला उतारना हो .

और वह शख्स अनक़रीब खुश हो जाएगा."
सूरह लैल ९२ - पारा ३० आयत(११-२१)
नमाजियों! हिम्मत करके सच्चाई का सामना करो. तुमको तुम्हारे अल्लाह का रसूल वर्गाला रहा है. अल्लाह का मुखौटा पहने हुए, वह तुम्हें धमका रहा है कि उसको माल दो. वह ईमान लाए हुए मुसलामानों से, उनकी हैसियत के मुताबिक टेक्स वसूल किया करता था. इस बात की गवाही ये क़ुरआनी आयतें हैं. ये सूरह मक्का में गढ़ी गई हैं जब कि वह एक्तेदार पर नहीं था. मदीने में मका मिलते ही भूख खुल गई थी. मुहम्मद ने कोई समाजी, फलाही,खैराती या तालीमी इदारा कायम नहीं कर रखा था कि वसूली हुई रक़म उसमे जा सके. मुहम्मद के चन्द बुरे दिनों का ही लेकर आलिमों ने इनकी ज़िन्दगी का नक्शा खींचा है और उसी का ढिंढोरा पीटा है. मुहम्मद के तमाम ऐब और खामियों की इन ज़मीर फरोशों ने पर्दा पोशी की है.
बनी नुज़ैर की लूटी हुई तमाम दौलत को मुहम्मद ने हड़प के अपने नौ बीवियों और उनके घरों के लिए वक्फ कर लिया था. और उनके बागों और खेतियों की मालगुजारी उनके हक में कर दिया था. जंग में शरीक होने वाले अंसारी हाथ मल कर राह गए थे. हर जंगी लूट मेल गनीमत में २०% मुहम्मद का उवा करता था.

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Wednesday 18 May 2011

सूरह शम्स ९१ - पारा ३०

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.
सूरह शम्स ९१ - पारा ३०
(वश्शमसे वज़ूहाहा)

ऊपर उन (७८ -११४) सूरतों के नाम उनके शुरूआती अल्फाज़ के साथ दिया जा रहा हैं जिन्हें नमाज़ों में सूरह फातेहा या अल्हम्द - - के साथ जोड़ कर तुम पढ़ते हो.. ये छोटी छोटी सूरह तीसवें पारे की हैं. देखो और समझो कि इनमें झूट, मकर, सियासत, नफरत, जेहालत, कुदूरत, गलाज़त यहाँ तक कि मुग़ललज़ात भी तुम्हारी इबादत में शामिल हो जाती हैं. तुम अपनी ज़बान में इनको पढने का तसव्वुर भी नहीं कर सकते. ये ज़बान ए गैर में है, वह भी अरबी में, जिसको तुम मुक़द्दस समझते हो, चाहे उसमे फह्हाशी ही क्यूँ न हो..
इबादत के लिए रुक़ूअ या सुजूद, अल्फाज़, तौर तरीके और तरकीब की कोई जगह नहीं होती, गर्क ए कायनात होकर कर उट्ठो तो देखो तुम्हारा अल्लाह तुम्हारे सामने सदाक़त बन कर खड़ा होगा. तुमको इशारा करेगा कि तुमको इस धरती पर इस लिए भेजा है कि तुम इसे सजाओ और सँवारो, आने वाले बन्दों के लिए, यहाँ तक कि धरती के हर बाशिदों के लिए. इनसे नफरत करना गुनाह है, इन बन्दों और बाशिदों की खैर ही तुम्हारी इबादत होगी. इनकी बक़ा ही तुम्हारी नस्लों के हक में होगा.

इस धरती पर मुख्तलिफ़ वक्तों में समाज में कुछ न कुछ वाकिए और हादसे हुवा करते है जिसे नस्लें दो तीन पुश्तों तक याद रखती हैं. इनको अगर मुरत्तब किया जाए लाखों टुकड़े ज़मीन के ऐसे हैं जो करोरों वाकिए से ज़मीन भरे हुए है. इसको याद रखना और बरसों तक दोहराना बेवकूफी की अलामत है. मगर मुसलमान इन बातों को याद करने की इबादत करते हैं. बहुत से ऐसे मामूली वाकिए कुरआन में है जिनको नमाज़ों में पढ़ा जाता है. पिछली सूरह में था कि आग तापते हुए मुसलामानों और मफरूज़ा काफिरों में कुछ कहा-सुनी हो गई, बात मुहम्मद के कान तक पहुँची, बस वह मामूली सा वाकिया क़ुरआनी आयत बन गया और मुसलमान वजू करके, नियत बाँध के, उसको रटा करते है. ऐसा ही एन वाकिया अबू लहब का है कि जब मुहम्मद ने अपने कबीले को बुला कर अपनी पैगम्बरी का एलान किया तो मुहम्मद के चचा अबी लहब, पहले शख्स थे जिन्होंने कहा, "तेरे हाथ माटी मिले , क्या इसी लिए तूने हमें बुलाया था?" बस ये बात कुरआन की एक सूरह बन गई जिसको मुसलमान सदियों से गा रहे हैं, "तब्बत यदा अबी लह्बिवं - - -"
मुहम्मदी अल्लाह का जेहनी मेयार देखो कि किस तरह की बातें करता है - - -
"क़सम है सूरज की और उसके रौशनी की,
और चाँद की, जब वह सूरज से पीछे आए,
और दिन की, जब वह इसको खूब रौशन कर दे,
और रत की जब वह इसको छुपा ले,
और आसमान की और उसकी. जिसने इसको बनाया.
और ज़मीन की और उसकी. जिस ने इसको बिछाया.
और जान की और उसकी, जिसने इसको दुरुस्त बनाया,
फिर इसकी बद किरदारी की और परहेज़ गारी की, जिसने इसको अल्क़ा (मुअललक़)किया,
यकीनन वह इसकी मुराद को पहुँचा जिस ने इसे पाक कर लिया ,
और नामुराद वह हुवा जिसने इसको दबा दिया."
सूरह शम्स ९१ - पारा ३० आयत (१-१०)
"कौम सुमूद ने अपनी शरारत के सबब तकज़ीब की,
जब कि इस कौम में जो सबसे ज़्यादः बद बख्त था,
वह उठ खड़ा हुआ तो उन लोगों से अल्लाह के पैगम्बर ने फ़रमाया कि अल्लाह की ऊँटनी से और इसके पानी पीने से खबरदार रहना,
सो उन्हों ने पैगम्बर को झुटला दिया, फिर इस ऊँटनी को मार डाला.
तो इनके परवर दिगार ने इनको इनके गुनाह के सबब इन पर हलाक़त नाज़िल फ़रमाई."
सूरह शम्स ९१ - पारा ३० आयत (११-१५)
नमाज़ियो !
अल्लाह चाँद की क़सम खा रहा है, जबकि वह सूरज के पीछे हो. इसी तरह वह दिन की क़सम खा रहा है जब कि वह सूरज को खूब रौशन करदे?
गोया तुम्हारा अल्लाह ये भी नहीं जनता कि सूरज निकलने पर दिन रौशन हो जाता है. वह तो जानता है कि दिन जब निकलता है तो सूरज को रौशन करता है.
इसी तरह रात को अल्लाह एक पर्दा समझता है जिसके आड़ में सूरज जाकर छिप जाता है.
ठीक है हजारो साल पहले क़बीलों में इतनी समझ नहीं आई थी, मगर सवाल ये है कि क्या अल्लाह भी इंसानों की तरह ही इर्तेकाई मराहिल में था?
मगर नहीं! अल्लाह पहले भी यही था और आगे भी यही रहेगा. ईश या खुदा कभी जाहिल या बेवकूफ तो हो ही नहीं सकता.
इस लिए मानो कि कुरआन किसी अल्लाह का कलाम तो हो ही नहीं सकता. ये उम्मी मुहम्मद की जेहनी गाथा है.
कुरआन में बार बार एक आवारा ऊँटनी का ज़िक्र है. कहते हैं कि अल्लाह ने बन्दों का चैलेंज कुबूल करते हुए पत्थर के एह टुकड़े से एक ऊँटनी पैदा कर दिया. बादशाह ने इसे अल्लाह की ऊँटनी करार देकर आज़ाद कर दिया था जिसको लोगों ने मार डाला और अल्लाह के कहर के शिकार हुए.
ये किंवदंती उस वक्त की है जब इंसान भी ऊंटों के साथ जंगल में रहता था, इस तरह की कहानी के साथ साथ.
मुहम्मद उस ऊँटनी को पूरे कुरआन में जा बजा चराते फिरते हैं.

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Monday 16 May 2011

सूरह बलद ९० - पारा ३०

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.
सूरह बलद ९० - पारा ३०
(लअ उक्सिमो बेहाज़िल बलदे)

ऊपर उन (७८ -११४) सूरतों के नाम उनके शुरूआती अल्फाज़ के साथ दिया जा रहा हैं जिन्हें नमाज़ों में सूरह फातेहा या अल्हम्द - - के साथ जोड़ कर तुम पढ़ते हो.. ये छोटी छोटी सूरह तीसवें पारे की हैं. देखो और समझो कि इनमें झूट, मकर, सियासत, नफरत, जेहालत, कुदूरत, गलाज़त यहाँ तक कि मुग़ललज़ात भी तुम्हारी इबादत में शामिल हो जाती हैं. तुम अपनी ज़बान में इनको पढने का तसव्वुर भी नहीं कर सकते. ये ज़बान ए गैर में है, वह भी अरबी में, जिसको तुम मुक़द्दस समझते हो, चाहे उसमे फह्हाशी ही क्यूँ न हो..
इबादत के लिए रुक़ूअ या सुजूद, अल्फाज़, तौर तरीके और तरकीब की कोई जगह नहीं होती, गर्क ए कायनात होकर कर उट्ठो तो देखो तुम्हारा अल्लाह तुम्हारे सामने सदाक़त बन कर खड़ा होगा. तुमको इशारा करेगा कि तुमको इस धरती पर इस लिए भेजा है कि तुम इसे सजाओ और सँवारो, आने वाले बन्दों के लिए, यहाँ तक कि धरती के हर बाशिदों के लिए. इनसे नफरत करना गुनाह है, इन बन्दों और बाशिदों की खैर ही तुम्हारी इबादत होगी. इनकी बक़ा ही तुम्हारी नस्लों के हक में होगा.

भारत की मरकजी सरकार और रियासती हुकूमतें भले ही मुस्लिम दुश्मन न हों, मगर यह मुस्लिम दोस्त भी नहीं. यह इलाकाई और कबीलाई तबकों की तरह मुसलमानों को भी छूट दिए हुए है कि मुसलमान सैकड़ों साल पुराने वहमों को ढ़ोते रहें. इन्हें शरई क़ानून के पालन की इजाज़त है, जो इंसानियत सोज़ है. पेश इमामों को और मुअज़ज़िनों को सरकार तनख्वाह मुक़र्रर किए हुए है कि वह मुसलामानों को पंज वक्ता खुराफात पढ़ाते रहे. मदरसों को तअव्वुन देती हैं कि वह हर साल निकम्मे और बेरोजगार पैदा करते रहें. मुसलमानों को नहीं मालूम कि उनका सच्चा हमदर्द कौन है. वह कुरआन को अपना राहनुमा समझते हैं जोकि दर असल उनके लिए ज़हर है. इसका कौमी और सियासी रहनुमा कोई नहीं है. इसे खुद आँखें खोलना होगा, तर्क इस्लाम करके मर्द ए सालह यानी मोमिन बनना होगा.
क़ुरआनी सियासत मुलाहिजा हो - - -
"मैं क़सम खता हूँ इस शहर की,
और आपको इस शहर में लड़ाई हलाल होने वाली है,
और क़सम है बाप की और औलाद की,
कि हमने इंसान को बड़ी मशक्कत में पैदा किया है,
क्या वह ख़्याल करता है कि इस पर किसी का बस न चलेगा,"
सूरह बलद ९० - पारा ३० आयत (१-५)
"कहता है हमने इतना वाफर मॉल खर्च कर डाला, क्या वह ये ख़याल करता है कि उसको किसी ने देखा नहीं,
क्या हमने उसको दो आँखें ,
और ज़बान और दो होंट नहीं दिए,
और हमने उसको दोनों रास्ते बतलाए,
सो वह शख्स घाटी से होकर निकला,
और आपको मालूम है कि घाटी क्या है,
और वह है किसी शख्स की गर्दन को गुलामी से छुड़ा देना है,
या खाना खिलाना फ़ाक़ा के दिनों में किसी यतीम रिश्तेदार को,.
या किसी खाक नशीन रिश्ते दार को."
सूरह बलद ९० - पारा ३० आयत (६-१६)
"फिर इन लोगों में से न हुवा जो ईमान लाए और एक दूसरे को फ़ह्माइश की, पाबन्दी की और एक दूसरे को तरह्हुम की फ़ह्माइश की, यही लोग दाहने वाले हैं,
और जो लोग हमारी आयातों के मुनकिर हैं वह बाएँ वाले हैं,
इन पर आग मुहीत होगी जिनको बन्द कर दिया जाएगा.
सूरह बलद ९० - पारा ३० आयत (१७-२०)
नमाज़ियो !
देखो कि अल्लाह साफ़ साफ़ अपने बाप और अपने औलाद की क़सम खा रहा है, जैसे कि मुहम्मद अपने माँ बाप को दूसरों पर कुर्बान किया करते थे, वैसे है तो ये उनकी ही आदतन क़सम जिसको बे खयाली में अल्लाह की तरफ़ से खा गए. हाँ, तुमको समझने की ज़रुरत है, इस बात को कि कुरआन किसी अल्लाह का कलाम नहीं बल्कि मुहम्मद की बकवास है.
अल्लाह कहता है कि उसने इंसान को बड़ी मशक्क़त से पैदा किया. है ना ये सरासर झूट कि इसके पहले मुहम्मद ने कहा था कि अल्लाह को कोई काम मुश्किल नहीं बस उसको कहना पड़ता है "कुन" यानि होजा, और वह हो जाता है. है न दोहरी बात यानी कुरानी तजाद यानी विरोधाभास. किसी खर्राच के खर्च पर मुहम्मद का कलेजा फट रहा है, कि शायद उसने अल्लाह का कमीशन नहीं निकाला. घाटी के घाटे और मुनाफ़े में अल्लाह क्या कह रहा है, सर धुनते रहो. मुहम्मद के गिर्द कोई भी मामूली वाकिया कुरआन की आयत बना हुवा है, जिसको तुम सुब्ह ओ शाम घोटा करते हो.


जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Sunday 15 May 2011

सूरह फज्र -८९ - पारा ३०

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.
सूरह फज्र -८९ - पारा ३०
(वल फजरे वला यालिन अशरिन)

ऊपर उन (७८ -११४) सूरतों के नाम उनके शुरूआती अल्फाज़ के साथ दिया जा रहा हैं जिन्हें नमाज़ों में सूरह फातेहा या अल्हम्द - - के साथ जोड़ कर तुम पढ़ते हो.. ये छोटी छोटी सूरह तीसवें पारे की हैं. देखो और समझो कि इनमें झूट, मकर, सियासत, नफरत, जेहालत, कुदूरत, गलाज़त यहाँ तक कि मुग़ललज़ात भी तुम्हारी इबादत में शामिल हो जाती हैं. तुम अपनी ज़बान में इनको पढने का तसव्वुर भी नहीं कर सकते. ये ज़बान ए गैर में है, वह भी अरबी में, जिसको तुम मुक़द्दस समझते हो, चाहे उसमे फह्हाशी ही क्यूँ न हो.
इबादत के लिए रुक़ूअ या सुजूद, अल्फाज़, तौर तरीके और तरकीब की कोई जगह नहीं होती, गर्क ए कायनात होकर कर उट्ठो तो देखो तुम्हारा अल्लाह तुम्हारे सामने सदाक़त बन कर खड़ा होगा. तुमको इशारा करेगा कि तुमको इस धरती पर इस लिए भेजा है कि तुम इसे सजाओ और सँवारो, आने वाले बन्दों के लिए, यहाँ तक कि धरती के हर बाशिदों के लिए. इनसे नफरत करना गुनाह है, इन बन्दों और बाशिदों की खैर ही तुम्हारी इबादत होगी. इनकी बक़ा ही तुम्हारी नस्लों के हक में होगा.
संत हसन बसरी का क़िस्सा मशहूर है कि वह जुनूनी कैफ़ियत में, अपने एक हाथ में आग और दूसरे हाथ में न पानी लेकर भागे चले जा रहे थे. लोगों ने उन्हें रोका और माजरा दर्याफ़्त किया, वह बोले जा रहा हूँ उस दोज़ख में पानी डालकर बुझा देने के लिए और उस जन्नत में आग लगा देने के लिए जिनके डर और लालच से लोग नमाज़ें पढ़ते हैं. तबेईन (मुहम्माद कालीन की अगली नस्ल)का दौर था जिसमे उस हस्ती ने ये एलान किया था. कुरआन की गुमराह कुन दौर था, हसन बसरी के नाम का वारंट निकल गया था, सरकारी अमला उनकी गिरफ़्तारी में सर गर्म था, उनके खैर खावाह उनको छिपाते फिरते. इस्लामी पैगाम के बाद आम और खास मुसलमान दोज़ख और जन्नत के ताल्लुक से ही नमाज़ पढता है, जिसको हसन जैसे हक शिनाश अज़ सरे नव ख़ारिज करते थे. ऐसे लोगों की ये जिसारत देख कर उनकी गर्दनें मार देने के एहकाम जारी हुए, मंसूर, तबरेज़, सरमद और कबीर इसकी मिसाल हैं.
अल्लाह की क़स्मों की क़िस्में मुलाहिजा हो, कसमें खा खा कर झूट बोलने वाला अल्लाह कहता है - - -
"क़सम फजिर की, और दस रातों की,
और जुफ्त की और ताक़ की,
और रात की जब वह चलने लगे,

क्यूंकि इसमें अक्ल मंदों के वास्ते काफ़ी क़सम भी है,

क्या आपको मालूम नहीं कि आपके परवर दिगार ने कौम आद यअनी कौम इरम के साथ क्या मुआमला किया?

जिन के क़द ओ
क़ामत सुतून जैसे थे,
जिन के बराबर शहरों ने कोई शख्स नहीं पैदा किया.

सूरह फज्र -८९ - पारा ३० आयत (१-८)
"और कौम सुमूद के जो वादिए कुरआ में ,
पत्थरों को तराशा करते थे
और मेखों वाले फ़िरओन के साथ
जिन्हों ने शहरों में सर उठा रख्खा था.

और इनमें बड़ा फसाद मचा रखा था,

सो आप के रब ने इन पर अज़ाब का कोड़ा बरसाया,

बेशक आप का रब घात में है,

सो आदमी को जब वह परवर दिगार आज़माता है,
यअनी इसको इकराम ओ इनाम देता है तो वह कहता है,
मेरे रब ने मेरी कद्र बढ़ा दी.

औए जब आज़माता है और इसकी रोज़ी इस पर तंग कर देता है
तो वह कहता है मेरे रब ने मेरी क़द्र घटा दी.''

सूरह फज्र -८९ - पारा ३० आयत (९-१६)
हर
गिज़ नहीं
यअनी तुम लोग यतीम की कद्र नहीं करते,

और दूसरों को भी मिस्कीन को खाना देने की तरगीब नहीं देते,

और मीरास का माल समेट कर खा जाते हो,

और माल से तुम लोग बहुत मुहब्बत रखते हो,
हरगिज़ ऐसा नहीं,

जिस रोज़ ज़मीन को तोड़ फोड़ कर रेजः रेजः कर दिया जाएगा,

आपका परवर दिगार और जौक़ दर जौक़ फ़रिश्ते आएँगे,

और इस रोज़ जहन्नम को लाया जाएगा,

उस रोज़ इंसान को समझ आए,
अब समझ आने का मौक़ा कहाँ रहा,

कहेगा काश मैं इस ज़िन्गागी लिए अपने कोई अमल आगे भेज लेता ता.

सूरह फज्र -८९ - पारा ३० आयत (१७-४२))
"पस इस रोज़ तो अल्लाह के अज़ाब के बराबर कोई अज़ाब देने वाला न निकलेगा,
न इसके झगड़ने वाले के बराबर झगड़ने वाला कोई निकलेगा,
ऐ इत्मीनान वाली रूह ,

तू अपने परवर दिगार की तरफ चल,
इस तरह से कि तू इससे खुश और वह तुझ से खुश,
फिर तू मेरे बन्दों में शामिल हो जा,

और मेरी जन्नत में दाखिल हो.

सूरह फज्र -८९ - पारा ३० आयत (२५-३०)

नमाज़ियो!
गौर से पढ़ा? कब तक अपने मुसल्ले को लपेट कर अपने बच्चों के कन्धों पर लादते रहोगे? कब तक? कितनी सदियों तक? दीगर कौमे जब अपने कन्धों पर पंख लगा कर उड़ने लगेंगी, तब तो बहुत देर हो चुकेगी. मेरे भाइयो ! देखो कि क्या कह रहा है तुम्हारा दीन? इसको खामोश करो, इसे अब्दी नींद सुला दो. अब और ज्यादा इस जिहालत को इस धरती पर रहने देने की इजाज़त नहीं होना चाहिए.
गौर करो तुम्हारा अल्लाह खुद अपने मुंह से कहता है,"बेशक आप का रब घात में है"
क्या कोई अल्लाह अपने बन्दों के साथ चाल घाट करने वाला होगा?
कहता है, "
न इसके झगड़ने वाले के बराबर झगड़ने वाला कोई निकलेगा, "
तुम्हारा अल्लाह लड़का है? ऐसे अल्लाह से पिंड छुडाओ.

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

सूरह ग़ाशियह -८८ - पारा ३०

मेरी तहरीर में - - -

क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।

नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.

सूरह ग़ाशियह -८८ - पारा ३०(हल अताका हदीसुल ग़ासिया)


ऊपर उन (७८ -११४) सूरतों के नाम उनके शुरूआती अल्फाज़ के साथ दिया जा रहा हैं जिन्हें नमाज़ों में सूरह फातेहा या अल्हम्द - - के साथ जोड़ कर तुम पढ़ते हो.. ये छोटी छोटी सूरह तीसवें पारे की हैं. देखो और समझो कि इनमें झूट, मकर, सियासत, नफरत, जेहालत, कुदूरत, गलाज़त यहाँ तक कि मुग़ललज़ात भी तुम्हारी इबादत में शामिल हो जाती हैं. तुम अपनी ज़बान में इनको पढने का तसव्वुर भी नहीं कर सकते. ये ज़बान ए गैर में है, वह भी अरबी में, जिसको तुम मुक़द्दस समझते हो, चाहे उसमे फह्हाशी ही क्यूँ न हो..
इबादत के लिए रुक़ूअ या सुजूद, अल्फाज़, तौर तरीके और तरकीब की कोई जगह नहीं होती, गर्क ए कायनात होकर कर उट्ठो तो देखो तुम्हारा अल्लाह तुम्हारे सामने सदाक़त बन कर खड़ा होगा. तुमको इशारा करेगा कि तुमको इस धरती पर इस लिए भेजा है कि तुम इसे सजाओ और सँवारो, आने वाले बन्दों के लिए, यहाँ तक कि धरती के हर बाशिदों के लिए. इनसे नफरत करना गुनाह है, इन बन्दों और बाशिदों की खैर ही तुम्हारी इबादत होगी. इनकी बक़ा ही तुम्हारी नस्लों के हक में होगा.
मुसलमान देखें कि उनका अल्लाह क्या आएँ बाएँ शाएँ बक रहा है - - -
"आपको उस मुहीते-आम वाकिए की कुछ खबर पहुँची है?
बहुत से चेहरे उस रोज़ ज़लील मुसीबत झेलते हुए,
ख़स्ता होंगे.
आतिशे-सोज़ाँ में दाखिल होंगे,
खौलते हुए चश्मे से पानी पिलाए जाएँगे,
इनको बजुज़ एक खारदार झाड़ के और कोई खाना नसीब न होगा.
जो न फ़रबा करेगा न भूक मिटेगा.
सूरह ग़ाशियह -८८ - पारा ३० आयत (-)
"बहुत से चेहरे उस रोज़ बा रौनक होंगे,
अपने कामों के बदौलत खुश होंगे.
बेहिश्ते-बरीं में होंगे,
जिसमें कोई लग्व बात न सुनेंगे.
इसमें बहते हुए चश्में होंगे.
इसमें ऊंचे ऊंचे तख़्त हैं,
और रखे हुए आब खोरे हैं,
और बराबर बराबर लगे हुए गद्दे हैं,
और सब तरफ कालीन फैले पड़े हैं"
सूरह ग़ाशियह -८८ - पारा ३० आयत (-१६)
तो क्या वह लोग ऊँट को नहीं देखते कि किस तरह पैदा किया गया है?
और आसमान को कि किस क़दर बुलंद है?
और पहाड़ों को कि किस तरह खड़े किए गए हैं?
और ज़मीन को कि किस क़दर बिछाई गई है? तो आप नसीहत कर दिया कीजिए.
आप तो सिर्फ़ नसीहत करने वाले हैं और आप उन पर मुसल्लत नहीं हैं.
हाँ मगर जो रू गरदानी करेगा और कुफ्र करेगा ,
तो उसको बड़ी सज़ा है.
क्यूंकि हमारे पास ही उनको आना होगा,
फिर हमारा ही काम इनसे हिसाब लेना है.
सूरह ग़ाशियह -८८ - पारा ३० आयत (१७-६२)नमाजियों!गौर करो कि जिस अल्लाह की तुम बंदगी करते हो वह किस क़दर आतिशी है?
कितना ज़बरदस्ती करने वाला?
कैसा ज़ालिम तबा?
इससे पल झपकते ही छुटकारा पा सकते हो.
बस मुहम्मद से नजात पा जाओ. मुहम्मद जो सियासत दान है, कीना परवर है, इक्तेदार का भूका है, शर्री और बोग्ज़ी है. इसकी बड़ी बुराई और
जुर्म ये है कि ये मुजस्सम झूठा शैतान है.
मुहम्मदी अल्लाह उसी की पैदा की हुई नाजायज़ औलाद है.
अगर मैं आज अल्लाह का रसूल बन जाऊँ तो मेरी दुआ कुछ इस तरह होगी - - -
" रसूल! तू मेरे बन्दों को आगाह कर कि ये दुनयावी ज़िन्दगी आरज़ी है और आख़िरी भी. इस लिए इसको कामयाबी के साथ जीने का सलीक़ा अख्तियार कर.
" बन्दे! तू सेहत मंद बन और अपनी नस्लों को सेहत मंद बना, उसके बाद तू कमज़ोरों का सहारा बन. " बन्दे!हमने अगर तुझे दौलत दी है तो तू मेरे बन्दों के लिए रोज़ी के ज़राए पैदा कर.
" बन्दे! हमने तुझे अगर ज़ेहन दिया है तो तू लोगों को इल्म बाँट,
" बन्दे! तू मेरी मख्लूक़ को जिस्मानी, ज़ेहनी और माली नुसान मत पहुँचा, ये अमल तुझे और तेरी नस्लों को पामाल करेगा.
" बन्दे! बन्दों के दुःख दर्द को समझ, यही तेरी ज़िंदगी की अस्ल ख़ुशी है.
"
बन्दे! तू मेरे बन्दों का ही नहीं तमाम मख्लूक़ का ख़याल रख क्यूंकि मैंने तुझे अशरफुल मख्लूकात बनाया है.
" बन्दे! मखलूक का ही नहीं बल्कि तमाम पेड़ पौदों का भी ख़याल रख क्यूंकि ये सब तेरे फ़ायदे के लिए हैं.
" बन्दे! साथ साथ इस धरती का भी ख़याल रख क्यूंकि यही सब जीव जंतु औए पेड़ पौदों की माँ है.
" बन्दे! तू कायनात का ही एक जुज़्व है, इसके सिवा कुछ भी नहीं.
" बन्दे! तू अपनी ज़िन्दगी को भरपूर खुशियों से भर ले मगर किसी को ज़रर पहुँचाए बगैर.

 
जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान