Thursday 27 February 2014

Soorah qalam 68

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.
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सूरह क़लम - ६८ पारा २९
"नून"
ये हुरूफ़ ए मुक़ततेआत है जिसके मअनी अल्लाह ही बेहतर जनता है. हुरूफ़ ए मुक़ततेआत ५० बार कुरआन में आए है. 
इस्लामी वज़े में सजे हुए (नूरानी गोल्डेन दाढ़ी, सफ़ा चट्ट  मुच्छें, सर पे पगड़ी और आँखों में सुरमा) मुल्ला को व्यँग से 'चुकतता मुक़तता' कहा जाता है. इसी रिआयत से ऐसे बेमानी लफ़्ज़ों को 'हुरूफ़ ए मुक़ततेआत" कहा गया होगा.

"क़सम है क़लम की और इसके लिखने की कि आप अपने रब के फज़ल से मजनू नहीं हैं"
सूरह क़लम - ६८ पारा २९ आयत (१-२)

"और आपके लिए ऐसा उज्र है जो ख़त्म होने वाला नहीं. और आप बेशक एखलाक के आला पैमाने हैं"
सूरह क़लम - ६८ पारा २९ आयत (३-४)

"तो अनक़रीब आप भी देख लेंगे और ये लोग भी कि तुम में किसको जूनून था."
सूरह क़लम - ६८ पारा २९ आयत (७)

और आप ऐसे शख्स का कहना न मानें जो बहुत कसमें खाने वाला हो, बे वक़अत हो तअने देने वाला हो , चुगलियाँ लगाता फिरता हो, नेक काम से रोकने वाला हो."

"हद से गुजरने वाला हो, गुनाहों का करने वाला हो, सख्त मिज़ाज हो, इन सब के अलावा हराम ज़ादा हो, इस सबब से कि माल और औलाद वाला हो. जब हमारी आयतें उसके सामने पढ़ी जाती हैं तो वह कहता है, ये बे सनद बातें हैं. अगलों से न्कूल होती चली आई हैं.हम अनक़रीब उसकी नाक पर दाग लगा देंगे."
सूरह क़लम - ६८ पारा २९ आयत (११-१६)

"और ये काफ़िर जब कुरान सुनते है तो ऐसे मालूम होते हैं कि गोया आपको अपनी निगाहों से फिसला कर गिरा देंगे और कहते हैं कि ये मजनू है, हालाँकि ये कुरान जिसके साथ आप तकल्लुम फरमा रहे है, तमाम जहाँ के लिए नसीहत है." 
सूरह क़लम - ६८ पारा २९ आयत (५२)

मुहम्मदी अल्लाह अपने रसूल के लिए क़लम की क़सम खाता है जिससे उसका कोई वास्ता नहीं है.वह इस बात की भी मुहम्मद को ये यकीन दिलाने के लिए कहता है कि आप जनाब दीवाने नहीं बल्कि आला ज़र्फ़ इंसान हैं, जैसे कि खुद मुहम्मद अपनी इस खूबियों  से नावाकिफ हों. मुहम्मद की अय्यारी खुद इन आयतों का आईना दार हैं. मुहम्मद अपने दुश्मनों के लिए सलवातें ही नहीं, गलियाँ भी अपने अल्लाह के ज़बानी सुनवाते   हैं.

मुसलामानों! क्या तुम सैकड़ों साल के पुराने क़बीलों से भी गए गुज़रे हो? जो इन बकवासों से इस शख्स को अपनी निगाहों से गिराए हुए थे. एक अदना सा बन्दा तुम्हारा खुदा और तुम्हारा रसूल बना हुवा है, वह भी इन गलीज़ आयतों की पूरी दलील और पूरे सुबूत के साथ.

जागो, वर्ना तुम्हारी मौत अनक़रीब लिखी हुई है. ज़माना तुम्हारी जेहालत का शर अब और बर्दाश्त नहीं कर सकता.
सादिक दुन्या में बातिल खुद अपने आप में घुट रहा है. क्या तुम कोई घुटन महसूस नहीं कर रहे हो?


इस सूरह में एक वाहियात सी मिसाल भी है कि लोगों ने बगैर इंसा अल्लाह कहे रात को खेत काटने की बात ठानी, सुब्ह देखते हैं कि खेत में फसल गायब है. ताकीद और नसीहत है कि बिना इंशा अल्लाह कहे कोई वादा मत करो. ये इंशा अल्लाह बे ईमानो को काफी मौक़ा दिए हुए है कि वह मामले को टालते रहें. इस इंशा अल्लाह में मुसलमानों की द नियती शामिल रहती है.


जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Sunday 23 February 2014

SOOrah malak 67

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.
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मुसलमानों !
दस्तूर ए कुदरत के मुताबिक हर सुब्ह कुछ   बदलाव हुवा करते हैं 
कहते हैं कि परिवर्तन ही प्रकृति नियम है.फ़िराक़ कहते हैं -
निज़ाम ए दह्र बदले, आसमान बदले ज़मीं बदले,
कोई बैठा रहे कब तक हयात ए बे असर लेकर.
क्या तुम "हयात ए बे असरी" को जी रहे हो? 
हर रोज़ सुब्ह ओ शाम तुम कुछ नया देखते हो . इसके बावजूद तुम पर असर नहीं होता? इंसानी ज़ेह्न भी इसी ज़ुमरे में आता है, जो कि तब्दीली चाहता है.बैल गाड़ियाँ इस तबदीली की बरकत से आज तेज़ रफ़्तार रेलें बन गई हैं..
 तुम जब सोते हो तो इस नियत को बाँध कर सोया करो कि कल कुछ नया होगा, जिसको 
 तुम जब सोते हो तो इस नियत को बाँध कर सोया करो कि कल कुछ नया होगा, जिसको अपनाने में हमें कोई संकोच नहीं होगा.

मगर तुम तो सदियों पुरानी रातों में सोए हुए हो, जिसका सवेरा ही नहीं होने देते. दुनिया कितनी आगे बढ़ गई है, तुमको खबर भी नहीं.

उट्ठो आँखें खोलो. इस्लाम तुम पर नींद की अलामत है. इसे अपनाए हुए तुम कभी भी इंसानी बिरादरी की अगली सफों में नहीं आ सकते. इस से अपना मोह भंग करो वर्ना तुम्हारी नस्लें तुमको कभी मुआफ नहीं करेगी.

खुद साख्ता अल्लाह बना पैगम्बर कहता है - - -

"वह बड़ा आलीशान है, जिसके कब्जे में तमाम सल्तनत है और हर चीज़ पर कादिर है, जिस ने मौत और हयात पैदा किया, ताकि तुम्हारी आजमाइस करे कि तुम में अमल में कौन ज़्यादः अच्छा है और वह ज़बरदस्त बख्शने वाला है."
सूरह  मुलक -६७ -पारा -२९- आयत (१-२)

मुसलामानों ! 
अगर किसी अल्लाह ने तुमको आजमाने के लिए पैदा किया है तो उस पर लअनत भेजो. एक बाप अपनी औलाद को पाल पोस कर इस लिए परवान चढ़ाया कि औलाद बड़ी होकर उसके बुढ़ापे का सहारा बनेगी, तो इंसानी कमजोरी के तहत ये बात जायज़ हो सकती है, महार अल्लाह का अगर ये ख़याल है तो तुम उस अल्लाह मुँह पर उसके एलान को मार दो. 

"जिसने सात आसमान ऊपर तले पैदा किए. सो तू फिर निगाह डाल के देख ले  . . . फिर बार बार निगाहे ज़ेल और दरमान्दा होकर तेरी तरफ़ लौट आएँगे और करीब के आसमान को चराग़ों से आरास्ता कर रखा है और हमने उनको शैतान के मरने का ज़ारीया भी बना दिया है और हम ने उनके लिए दोज़ख का अज़ाब भी तैयार कर रखा है."
सूरह  मुलक -६७ -पारा -२९- आयत (३-५)

कहाँ हैं ऊपर तले सात आसमान? 
ये मुहम्मदी अटकलें हैं. वह अरबों खरबों सितारों और सय्यारों को शामयाने की किंदील समझते हैं, और सितारों के टूटने को राम बाण. अहमकों के सरदार सरवरे कायनात.

"जब काफ़िर लोग दोज़ख में डाले जाएँगे तो उसकी बड़ी शोर की आवाज़ सुनेंगे और वह इस तरह ज़ोर मारती होगी जैसे मालूम होगा कि गुस्से के मारे फट पड़ेगी . . . "
सूरह  मुलक -६७ -पारा -२९- आयत (८)

क्या मुहम्मदी अल्लाह में तुमको कहीं भी जेहालत नज़र नहीं आती?. 
"बेशक जो लोग अपने परवर दिगार से बे देखे डरते हैं, उनके लिए मगफिरत और उजरे अज़ीम है."
सूरह  मुलक -६७ -पारा -२९- आयत (११)

पैगम्बर दगाबाज़ है जो बगैर देखे और बिना सोचे समझे किसी अल्लाह या  रसूल्लिल्लाह का यक़ीन दिलाता है. मुआज्ज़िन झूटी गवाही अपनी अजान में देता है, उसको सजा मिलनी चाहिए. 

"आप कहिए कि उसी ने तुमको पैदा किया और कान, नाक और दिल दिया मगर तुम लोग कम शुक्र करते हो"
सूरह  मुलक   -६७ -पारा -२९- आयत (२३)


अफ़सोस कि मुसलमान अपने कान, नाक और दिल का इस्तेमाल नहीं करता.  


जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Thursday 20 February 2014

Soorah Tahreen 66

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.
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सूरह तह्रीम ६६ पारा २८ 

अन्ना हज़ारे का इन्क़लाब आया और चार दिन में पूरे मुल्क को हिला कर चला गया. इस इन्क़लाब में गांधी के साथ कोई ' अबुल कलाम आज़ाद न हसरत मोहनी न मुहम्मद अली, न शौक़त अली नहीं था. मुसलामानों का कहीं दूर दूर तक अता पता नहीं था. शबाना आज़मी ज़रूर थी जिसको आलिमान इस्लाम " नचनियाँ,गवैया और नापाक औरत से नवाज़ते हैं. शबाना एक अज़ीम फ़न्कारह ही नहीं, एक अज़ीम इंसान भी है, जिसकी पहचान आक्सफोर्ड का एवार्ड है जो इसे मिला. ऐसी ही कुछ फ़िल्मी हस्तियाँ हैं जिनका मेल भारतीयता से खाता है. 
अन्ना की हवा में जो जमाअत इस्लामी ने हिस्सा लिया वह 'मेहमान नाज़ेबा' थे उनकी तंजीम तो इस्लामी इन्कलाब की मुन्तजिर है. वह इंसानी मसायल से बेबहरा है.चाहते हैं कि देश में तमाम रहनुमाओं की तस्वीरें उतार कर अल्लाह की तस्वीर लगा दी जाए, जैसे अभी मिस्र में देखा गया कि होस्नी मुबारक की तस्वीर हटा कर हवा का बुत, यानी अल्लाह का तोगरा लगा दिया गया. 
बरेली के तथा कथित 'आला हज़रात' ने उन मुसलामानों को कुफ्र का फतुवा दिया था जो गाँधी जी की अर्थी में शरीक हुए थे. फिर भी उनके नाम की "आला हजरत एक्सप्रेस" चलाई जा रही है और मुसलमान सुब्ह ओ शाम उसका गुणगान करते हैं. 
इस्लाम की घुट्टी मुसलमानों को दुन्या में कहीं सुर्ख रू नहीं होने देगी, ये जहाँ भी दूसरी कौमों के साथ रहते हैं अपने आप में ज़लील ओ ख्वार रहते हैं. जहाँ ये काबिज़ हैं, हर रोज़ अपनी जेहादी मौत के नवाला आपस में होते रहते हैं. इस्लाम ने इंसानों को ऐसा ज़हरीला नशा पिलाया है जिसकी काट अभी तक तो पैदा नहीं हुवा है.
फिर मैं कहूँगा कि मुसलमान इस्लाम से तौबा करके मुस्लिम से ईमान दार 'मोमिन' हो जाएँ, एक एलान के साथ. उनका कुछ न छिनेगा, न बदलेगा, न नाम, न तहजीब ओ तमद्दुन, न रख रखाव और न किसी दूसरे धर्म की पैरवी . धर्मांतरण का मतलब होगा चूहे दानों की अदला बदली. धर्म के नए मानी हैं धाँधली जिस दिन इस बात को समझ कर कोई गाँधी, कोई अन्ना पैदा होंगे उस दिन हिदुस्तान में मुकम्मल इन्कलाब आएगा.
देखो कि तुम अपनी नमाज़ों में क्या पढ़ते हो - - - 

"ऐ नबी जिस चीज़ को अल्लाह ने आप के लिए हलाल किया है, आप उसे क्यूँ हराम फ़रमाते हैं. अपनी बीवियों की खुशनूदी हासिल करने के लिए? और अल्लाह बख्शने वाला है." 
मुहम्मद ज़रा सी बात पर बीवियों को तलाक़ देने पर आ गए जिसे उनका अल्लाह हलाल फ़रमाता है बल्कि समझाता है कि आप जनाब तलाक़ को क्यूँ हराम समझते हैं? हमारे ओलिमा डफ्ली बजाया करते है कि तलाक़ अल्लाह को सख्त ना पसन्द है. कुरान में ऐसा कहीं है 
तो यहाँ पर तलाक़ इतना आसान क्यूँ?
दोहरा और मुतज़ाद हुक्म मुहम्मदी अल्लाह क्यूँ फ़रमाता रहता है? 

"जब पैगम्बर ने एक बात चुपके से फरमाई, फिर जब बीवी ने वह बात दूसरी बीवी बतला दी और पैगम्बर को अल्लाह ने इसकी खबर देदी व् पैगम्बर ने थोड़ी सी बात जतला दी और थोड़ी सी टाल गए.जतलाने पर वह कहने लगी, आपको किसने खबर दी? आपने फ़रमाया मुझको बड़े जानने वाले, खबर रखने वाले ने खबर दी." (यानी अल्लाह ने) 

वाक़ेआ यूं है- मुहम्मद की एक बीवी ने उनको शहद पिला दिया था , उन्हों ने इस शर्त पर पिया कि दूसरी किसी बीवी को इसकी खबर न हो, मगर उसने अपनी सवतन को बतला दिया कि उनको बात ज़ाहिर न करना. दूसरी ने तीसरी को कहा आज राजा इन्दर आएँ तो कहना, क्या शहेद पिया है कि बू आ रही है? यही मैं भी कहूँगी. मज़ा आएगा.
मुहम्मद दूसरी के यहाँ गए तो उसने उनसे पुछा,"क्या शहेद पिया है कि बू आ रही है? वह इंकार करते हुए टाल गए. फिर तीसरी ने भी उनसे यही सवाल दोराय .क्या शहेद पिया है कि बू आ रही है?" 
मुहम्मद सनके कि जिसके यहाँ शहद पिया थ ये उसकी हरकत है सब बीवियों से उसने गा दिया . बस इतनी सी बात पर पैगम्बर अपनी बीवियों पर बरसे कि अल्लाह ने उनको सारी खबर देदी. गोया अल्लाह ने उनकी बीवियों में चुगल खोरी करता फिरा. 

{मैं मुहम्मदी अल्लाह को ज़ालिम, जाबिर, चाल चलने वाला, और मुन्ताकिम के साथ साथ चुगल खोर भी कहता हूँ. जो अपने बन्दों को आपस में लड़ाता है.) 
और सभी ९ बीवियों को तलाक़ देने की धमकी देने लगे. 

"ऐ दोनों बीवियों ! अगर तुम अल्लाह के सामने तौबा कर लो तो तुम्हारे दिल मायल हो रहे हैं और अगर पैगम्बर के मुकाबले में तुम दोनों कार रवाईयाँ करती रहीं तो याद रखो पैगम्बर का रफ़ीक़ अल्लाह है और जिब्रील है और नेक मुसलमान हैं और इनके अलावा फ़रिश्ते मददगार हैं.''

मुआम्मद दो बे सहारा और मजबूर औरतो के लिए अल्लाह की, फरिश्तों की और इंसानों की फ़ौज खडी कर रहे हैं, इससे ही इनकी कमजोरी का अंदाजः किया जा सकता है. 

"अगर पैगम्बर तुम औरतों को तलाक़ देदें तो उसका परवर दिगार बहुत जल्द तुम्हारे बदले इनको तुम से अच्छी बीवियाँ दे देगा जो इस्लाम वालियाँ, ईमान वालियाँ, फरमा बरदारी करने वालियाँ, तौबा करने वालियाँ, इबादत करने वालियाँ और रोजः रखने वालियाँ होंगी. कुछ बेवा और कुछ कुंवारियाँ होंगी." 

ऐसे रसूल पर ग़ैरत वालियों की लअनत . कितनी घटिया सोच थी इस रंगीले रसूल की.

"ऐ ईमान वालो तुम अपने आप को और अपने घरों को आग से बचाओ जिसका ईंधन आदमी और पत्थर है, जिस पर तुन्दखू फ़रिश्ते हैं, जो अल्लाह की नाफ़रमानी नहीं करते, किसी बात में, जो उनको हुक्म दिया जाता है और जो कुछ उनको हुक्म दिया जाता है उसको बजा लाते है." 

मुसलमानों! 
क्या ऐसी बातें तुम्हारी इबादत और तिलावत के लायक हैं जो वज्द में आकर तुम बकते हो. बड़े शर्म की बात है. सोचो, अल्लाह की बात में कोई बात तो हो. वह पागल अल्लाह ख़ता कार इंसानों को ही नहीं बे ख़ता पत्थरों को भी दोज़ख रसीदा करता है.

"ऐ नबी कुफ्फर से और मुनाफिकीन से जेहाद कीजिए और उनका ठिकाना दोज़ख है और बुरी जगह है" 

किसी इंसान का खून किसी हालत में भी जायज़ नहीं हो सकता, चाहे वह कितना बड़ा मुजरिम ही क्यूँ न हो, क़ातिल ही क्यूँ न हो. क़त्ल के मुजरिम को अल्म नाक ज़िन्दगी गुज़ारने की सज़ा हो ताकि वह आखिरी साँसों तक सज़ा काटता ही मरे. 
मगर हाँ !जेहादियों को देखते ही गोली मार देनी चाहिए जो इंसानी खून के बदले सवाब पाते हों. 

"अल्लाह काफिरों के लिए नूह की बीवी और लूत कि बीवी का हाल बयान फ़रमाता है. वह दोनों हमारे खास में से खास दो बन्दों के निकाह में थीं. सो उन औरतों दोनों बन्दों का हक ज़ाया किया . दोनों नेक बन्दे अल्लाह के मुकाबिले में उनके ज़रा भी काम न आ सके और उन दोनों औरतों को हुक्म हो गया और जाने वालों के साथ तुम भी दोज़ख में जाओ." 

अल्लाह का मुकाबिला किस्से हुवा था? ऐ पागल क्या बक रहा है. ? कमज़ोर नामर्द अपनी बीवियों को किस नामर्दी के साथ धमका रहा है. 
सूरह तह्रीम ६६ पारा २८ आयत (१-१०) 


जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Sunday 16 February 2014

SOORah Talaq 65

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.
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सूरह तलाक़ ६५ 
मैं फिर इस बात को दोहराता हूँ कि मुस्लमान समझता है कि इस्लाम में कोई ऐसी नियमावली है जो उसके लिए मुकम्मल है, ये धारणा  बिलकुल बे बुन्याद है, बल्कि कुरआन के नियम तो मुसलामानों को पाताल में ले जाते हैं. मुसलामानों ने कुरानी निजाम ए हयात को कभी अपनी आँखों से नहीं देखा, बस कानों से सुना भर है. इनका कभी कुरआन का सामना हुवा है, तो तिलावत के लिए. मस्जिदों में कुवें के मेंढक मुल्ला जी अपने खुतबे में जो उल्टा सीधा समझाते हैं, ये उसी को सच मानते हैं. 
जदीद तालीम और साइंस का स्कालर भी समाजी लिहाज़ में आकर जुमा जुमा नमाज़ पढने चला ही जाता है. इसके माँ बाप ठेल ढकेल कर इसे मस्जिद भेज देते हैं, वह भी अपनी आकबत की खातिर. मज़हब इनको घेरता है कि हश्र के दिन अल्लाह इनको जवाब तलब करेगा कि अपनी औलाद को टनाटन मुसलमान क्यूँ नहीं बनाया ? और कर देगा जहन्नम में दाखिल. 
कुरआन में ज़मीनी ज़िन्दगी के लिए कोई गुंजाईश नहीं है, जो है वह क़बीलाई है, निहायत फ़रसूदा. 
क़ब्ल ए इस्लाम, अरबों में रिवाज था कि शौहर अपनी बीवी को कह देता था कि "तेरी पीठ मेरी माँ या बहन की तरह हुई," बस उनका तलाक हो जाया करता था. 
इसी तअल्लुक़ से एक वक़ेआ पेश आया कि कोई ओस बिन सामत नाम के शख्स ने गुस्से में आकर अपनी बीवी हूला को तलाक़ का मज़कूरा जुमला कह दिया. बाद में दोनों जब होश में आए तो एहसास हुआ कि ये तो बुरा हो गया. इन्हें अपने छोटे छोटे बच्चों का ख़याल आया कि इनका क्या होगा? दोनों मुहम्मद के पास पहुँचे और उनसे दर्याफ़्त किया कि उनके नए अल्लाह इसके लिए कोई गुंजाईश रखते हैं ? कि वह इस आफत ए नागहानी से नजात पाएँ. मुहम्मद ने दोनों की दास्तान सुनने के बाद कहा तलाक़ तो हो ही गया है, इसे फ़रामोश नहीं किया जा सकता. बीवी हूला खूब रोई पीटी और मुहम्मद के सामने गींजी कि नए अल्लाह से कोई हल निकलवाएँ. फिर हाथ उठा कर सीधे अल्लाह से वह मुख़ातिब हुई और जी भर के अपने दिल की भड़ास निकाली, तब जाकर अल्लाह पसीजा और मुहम्मद पर वह्यी आई. इसी रिआयत से इस सूरह का नाम सूरह तलाक़ पड़ा, वैसे होना तो चाहिए सूरह हूला. 
अब देखिए और सुनिए अल्लाह के रसूल पर आने वाली वहियाँ यानी ईश वाणी - - -
" ए पैगम्बर ! 
जब तुम लोग औरतों को तलाक़ देने लगो तो उनको इद्दत से पहले तलाक़ दो और तुम इद्दत को याद रखो और अल्लाह से डरते रहो जो तुम्हारा रब है. इन औरतों को इनके घरों से मत निकालो और न वह औरतें खुद निकलें, मगर हाँ अगर कोई खुली बे हयाई करे तो और बात है. ये सब अल्लाह के मुक़र्रर किए हुए एहकाम हैं." 

"फिर जब औरतें इद्दत गुजरने के करीब पहुँच जाएँ, इनको कायदे के मुवाफिक निकाह में रहने दो या कायदे के मुवाफिक इन्हें रिहाई देदो और आपस में दो मुअत्बर शख्सों को गवाह कर लो." 

"तुम्हारी बीवियों में जो औरतें हैज़ (मासिक धर्म) आने से मायूस हो चुकी हैं, अगर तुमको शुब्हः है तो इनकी इद्दत तीन महीने है और इसी तरह जिनको हैज़ नहीं आया और हामला औरतों का इनके हमल का पैदा हो जाना है. . ."

" जो शख्स अल्लाह औए उसके रसूल की पूरी इताअत करेगा, अल्लाह तअला उसको ऐसी बहिश्तों में दाखिल कर देंगे जिसके नीचे नहरें जारी होंगी, हमेशा हमेशा इनमें रहेंगे. ये बड़ी कामयाबी है." 

अल्लाह की आकाश वाणी कुछ समझ में आई? 
पता नहीं इन आयतों से ओस बिन सामत और हूला बी की बरबादियों का कोई हल निकला या नहीं, 
इनको रोजों से नजात तो नहीं मिली अलबत्ता नमाज़ें इनके गले और पड़ गईं. कहीं कोई हल तो नाजिल नहीं हुवा . हाँ बे सिर पैर की बातें ज़रूर नाज़िल हो गईं. इस अल्लाही एहकाम में चौदह सौ सालों से माहरीन दीनयात ज़रूर मुब्तिला है कि वह आपस में मुख्तलिफ रहा करते हैं. तलाक के बाद शौहर का घर बीवी के लिए अपना कहाँ रह जाता है कि वह वहाँ जमी रहे और इद्दत के दौरान शौहर उसके साथ मनमानी करता रहे. 

गौर तलब है कि मुहम्मद ने हमेशा मर्दों को ही इंसान का दर्जा दिया है. 
ये सारी मुहम्मदी नाज़ेबगी आज रायज नहीं है, पहले रही होगी. इसको सुधार कर ही शरअ को एक पैकर दिया गया है जो कि दर अस्ल एहकाम ए इलाही में इन्सान की मुदाखलत का नतीजा है, वर्ना अल्लाह की गुत्थी और भी उलझी हुई होती. 
अल्लाह की बातें पहले भी मुज़ब्ज़ब थीं और आज भी मुज़ब्ज़ब हैं. जैसे इस्लामी शरअ कुरआन को तराश खराश कर इस्लाम के बहुत दिन बाद बनाई गई, वैसे ही आज भी इसमें तबदीली की ज़रुरत है और इतनी ज़रुरत है कि आज इस्लाम की खुल कर मुखालिफत की जाए. खास कर औरतों के हक में इस्लाम निहायत ज़ालिम ओ जाबिर है, अफ़सोस कि यही औरतें इस्लाम की ज्यादह पाबंद है. वह सुब्ह उठ कर कुरआन की तिलावत को मख्खियों की तरह भिनभिनाने लगती हैं. वह अपने ही खिलाफ उतरी अल्लाह की आयातों पर मर्दों से ज्यादह ईमान रखती है. इनको इनका अल्लाह अकले सलीम दे.५०% की ये इंसानी आबादी अगर जग जाए तो मुसलामानों की दुन्या बदल सकती है.
कोई हूला नहीं पैदा हो रही कि अल्लाह को इन नाकिस आयातों पर अल्लाह को तलब करे. तमिल नाडू की कुछ मुस्लिम औरतें अपनी अलग एक मस्जिद बना कर उसमें पेश इमामी खुद करती है, इससे मर्दों का गलबा उन पर से उठा है. 
इसे इनकी बेदारी कहें या नींद? 
आजतक वह कठ मुल्लों की गिरफ्त में थीं, अब वह कठ मुल्लियों की गिरफ्त में होंगी. खवातीन की मस्जिद में भी मुहम्मदी अल्लाह के कानून कायदे होंगे. क्या इस मस्जिद में उन क़ुरआनी आयतों का बाई काट किया जाएगा जो औरतों को रुसवा करती हैं. 


जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Sunday 9 February 2014

Soorah Taghabun 64

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.
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सूरह तग़ाबुन ६४

मुहम्मदी अल्लाह काफिरों, मुशरिकों, मुकिरों और मुल्हिदों का उनके मरने के बाद जो करेगा सो तो बाद की बात है, फिलहाल जिन लोगों ने इसका दीन ए इस्लाम क़ुबूल हर लिया है, उनकी जान साँसत में डाले हुए है. जिन्हों ने इस्लाम नहीं कुबूल किया उनके लिए तो क़यामत और सवाब ओ अज़ाब मज़ाक की बातें हैं मगर जिन्हों ने इस्लाम की घुट्टी पी ली है उनपर अल्लाह का खौफ़ तारी रहता है. इस नए मौला की याद आते ही मुस्लिम, मस्जिद की तरफ़ भागते हैं. नमाज़ को किसी भी हालत में अल्लाह मुआफ़ नहीं करता खड़े होकर नहीं तो बैठ कर, बैठ कर भी नहीं लेट कर, बोल नहीं सकते तो इशारे से ही सहीह.नमाज़ किसी भी हालत में मुआफ़ नहीं.
इसी तरह रोज़ा भी है मगर थोड़ी सी रिआयत के साथ. आज नहीं रख पाए तो क़ज़ा हुवा, बाद में रखना पड़ेगा. मोहताजों को खाना खिला कर इसका हर्जाना अदा किया जा सकता है या दूसरे को बदले में रोज़ा रखवा कर जान छूट सकती है.
कुछ मॉल टाल इकठ्ठा हुवा तो इससे नजात पाने के लिए हज का रुक्न सामने खड़ा हुवा है कि मक्का जाकर आले रसूल की मदद करिए. यानी हज फ़र्ज़ बन जाता है.
इसके बाद खैरात लाजिम है. हर हालत में ज़कात निकलना फ़र्ज़ है २.५% सालाना अगर ४० रपय बचे तो १ रुपया ज़कात निकालिए. ये भुगतान तब तक लाजिम है जब तक की आप खुद खैरात खोरों की लाइन में न आ जाएँ.
चौदह सौ सालों से मुसलमान हुए इंसानी बिरादरी इस टार्चर को झेलती हुई चली आ रही है.इनकी ये अज़ीयत पसंदी दर असल इनकी ज़ेहनी गिज़ा बन चुकी है. जैसे कि क़दीम यूनान के उम्र क़ैद काटने वाले कैदियों को अपने हथकड़ियों और बेड़ियों से प्यार हो जाया करता था कि वह उसे रगड घिस करते कि क़ैदी के वह ज़ेवर चमकने लगते थे. वह उन बेड़ियों से नजात पाने के बाद उसे लादे रहते.
मुसलमान इन गैर तामीरी अमल और फेल के इतने आदी हो चुके हैं कि जैसे इन लग्व्यात के बगैर जिंदा ही नहीं रह सकते. अल्लाह के एजेंट्स इसके लिए हम्मा वक़्त तैयार रहते हैं. मुसलमान अपनी इस दीनी मुसीबत को ज़रा देर के लिए भूलना भी चाहे तो ये भूलने नहीं देते. वह दिन में पाँच बार इन्हें लाउड स्पीकर से याद दिलाए रहते हैं कि चलो अल्लाह के सामने उठठक  बैठक करने का वक़्त हो गया है. पहले ये गाज़ी माले गनीमत का मज़ा लिया करते थे अब मस्जिदों की खिमत की ज़कात, मदरसों के चंदा और गण्डा तावीज़ इनका माल गनीमत बन चुके हैं
ये हराम खोर और निकम्मे खुद धरती का बोझ बने हुए हैं और हर साल अपनी जैसी एक जमात कौम को खोखला करने के लिए खड़ी कर देते हैं. ये लोग मुल्क के मदरसों में सरकारी मदद से मुफ्त खोरी की तालीम ए नाक़िस पाते हैं फिर बड़े होने पर बड़ी बड़ी मज़हबी किताबें लिखते है
एक नमूना मैं पेश कर रहा हूँ ,इनकी तहरीर का - - -  
एक बादशाह का क़िस्सा है कि निहायत मूतशद्दित (आतंकी) और मुतअस्सिब) (भेद भाव करने वाला) था. इत्तेफ़ाक़ से मुसलामानों की एक लड़ाई में गिरफ़्तार हो गया. चूंकि मुसलामानों को इसने तकलीफ बहुत पहुँचाई थी, इस लिए इंतेक़ाम का ज़ोर इनमें भी बहुत था. इसको एक देग में डाल कर आग पर रख दिया.  इसने अव्वल अपने बुतों को पुकारना शुरू कर दिया और मदद चाही, जब कुछ न बन पडा तो वहीँ मुसलमान हुवा और लाइलाहा इललिल्लाह का विरद (रटंत) शुरू कर दिया. लगातार पढ़ रहा था और ऐसी हालत में जिस ख़ुलूस और जोश से पढ़ा जा सकता है. ज़ाहिर है अल्लाह तअला शानाहू की तरफ़ से जो मदद हुई, और इस ज़ोर की बारिश हुई कि वह सारी आग भी बुझ गई और देग ठंडी हो गई. इसके बाद जोर की आँधी चली, जिससे वह देग उडी और दूर उस शहर में जहां सब काफ़िर ही रहते थे, जा गिरी. ये शख्स लगातार कलमे तय्यबा पढ़ रहा था, लोग इसके गिर्द जमा हो गए और अजूबा देख के हैरान थे. इससे हाल दर्याफ़्त किया, उसने अपनी सरगुज़श्त सुनाई, जिससे वह लोग भी मुसलमान हो गए.
(तबलीगी निसाब फ़ज़ायल ज़िक्र ८९) 
मुसलामानों की ये रुस्वाए ज़माना जमाअत है जिसका ज़ेहनी मेयार आपने देखा.
अब देखिए कि इनके अल्लाह का क्या मेयार है.

"सब कुछ जो आसमानों में है, ज़मीन में हैं, अल्लाह की पकी बयान करती हैं, इसी की सल्तनत है और वही तारीफ़ के लायक़ है और वह हर शय पर क़ादिर है ."
"वही है जिसने तुम को पैदा किया है, सो इनमे बअज़े काफ़िर हैं, बअज़े मोमिन और अल्लाह तुम्हारे आमाल देख रहा है."
"ये  काफ़िर दावा करते हैं हरगिज़ हरगिज़ दोबारा जिंदा न किए जाएँगे. आप कह दीजिए क्यूँ नहीं ? वल्लाह! दोबारा जिंदा किए जाएँगे. तुमको सब जतला दिया जाएगा"
"ए ईमान वालो! तुम्हारी बअज़ बीवियां और औलाद तुम्हारे दुश्मन हैं, सो तुम इनसे होशियार रहो और अगर तुम मुआफ़ करदो और दर गुज़र कर जाओ और बख्श दो तो अल्लाह बख्शने वाला है, रहेम करने वाला है."
"तो जहाँ तक तुम से हो सके अल्लाह से डरते रहो और सुनो और मानो. खर्च किया करो ये तुम्हारे लिए बेहतर होगा और जो शख्स नफसानी हिरस से महफ़ूज़ है, ऐसे लोग फलाह पाते हैं. अगर तुम अल्लाह को अच्छी तरह क़र्ज़ दोगे तो वह इसको तुम्हारे लिए बढाता चला जाएगा और तुम्हारे गुनाह बख्श देगा और अल्लाह बड़ा क़द्र दान है. बड़ा बुर्दबार है, पोशीदः और ज़ाहिर को जानने वाला, ज़बरदस्त है, हिकमत वाला.है "
सूरह तग़ाबुन ६४ आयत (१-१-१८)
मुहम्मद दर अस्ल अल्लाह की हकीकत को जान चुके थे कि वह एक वह्म के सिवा और कुछ भी नहीं. इस बात का फ़ायदा लेते हुए खुद दर पर्दा अल्लाह बन बैठे थे, इस बात की गवाही कई जगह परखुद कुरआन देता है. अगर मुसलामानों के अक़ीदे का कोई अल्लाह होता तो वह सब से पहले मुहम्मद के साथ  कुछ इस तरह पेश आता- - -

ऐ मुहम्मद! तू मुझसे मुतालिक़ हमेशा ग़लत बयानी किया करता है,
मैं जो कुछ हूँ तुझे मालूम भी नहीं और जो नहीं हूँ वह तू खूब जानता है. 
मैंने कब तुझ पिद्दी को आप, आप कहकर मुख़ातिब किया था कि अपनी बकवास में तू बार बार कहता है
 " आप कह दीजिए - - -"
मैं अपने बन्दों को डराता हूँ?
इसके लिए कब तुझको मुक़र्रर किया?
वह खर्च  करें या न करें, उनका ज़ाती मुआमला है. मैं या तू कौन होते हैं इसकी राय के लिए?
जो जितनी मशक्क़त से चीज़ें पैदा करेगा वह उसे सर्फ़ करने में उतना ही मोहतात रहेगा.
 भला मैंने बन्दों से कब क़र्ज़ माँगा ?
तूने मुझे एक सूद खोर बनिया बना कर बन्दों के सामने ला खड़ा किया.
 तूने मुझे भी अपने जैसा समझा ?
 मैं ये हूँ, मैं वह हूँ. मैं कद्र दान हूँ, मैं बुर्दबार हूँ, ज़बरदस्त हूँ, हिकमत वाला हूँ - - -
तुझे गलत फ़हमी है कि ये सब तू हो गया है और मेरा नाम लेकर तू इसका एलान किया करता है
ऐ अक्ल के अंधे! मैं अल्लाह हूँ अल्लाह!
इंसान जैसी अगर शक्ल नहीं है तो इंसान जैसी मेरी अक्ल कैसे हो सकती है?
मेरी अजीब ओ गरीब खसलातें तू बन्दों के सामने पेश किया करता है.
 तू अल्लाह बन कर बन्दों को गुमराह कर रहा है जिसक अन्जाम कमसे कम इनके लिए बुरा ही होगा.

तू दुन्या के गुनाह गारों में अव्वल होगा. 


जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Sunday 2 February 2014

Soorah Munafeqoon 63

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान
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सूरह मुनाफिकून ६३- पारा २८

"जब आपके पास ये मुनाफिकीन आते हैं तो कहते हैं हम गवाही देते हैं कि  आप बेशक अल्लाह के रसूल हैं और ये तो अल्लाह को मालूम है कि आप अल्लाह के रसूल हैं, अल्लाह तअला ही गवाही देता है.''

इंसानी फितरत की सब से बड़ी कमजोरी है अल्लाह . इसको मनवाकर उस से कुछ भी मनवाना आसान है. कुछ लोग अल्लाह के बाद सोचना ही पाप समझते हैं.
किस बेशर्मी से बात कही गई है
 "ये तो अल्लाह को मालूम है कि आप अल्लाह के रसूल हैं, अल्लाह तअला ही गवाही देता है.''
किस बुनियाद पर मुनाफ़िक़ मुहम्मद को रसूल मानने या न मानने की गवाही दे रहे हैं.?
कुदरत कोई चीज़ है, इसकी गवाही तो दी जा सकती है मगर इंसानी सोंच के नतीजे में उसे कोई रूप देना सरासर बे ईमानी है.

"मुनाफिकीन झूठे हैं. इन लोगों ने अपनी कसमों को सिपर बना रख्खा है. फिर ये अल्लाह की राह से रोकते हैं. बेशक इनके ये आमाल बहुत बुरे हैं."

जिस तरह खुद अल्लाह कुरआन में अपनी क़स्मों को सिपर बना कर, क़स्मों की छीछा लेदर करता है कि क़स्मों की कोई औकात नहीं रह जाती, उसी की राह पर उसके बन्दे चल रहे हैं .

"यही लोग आपके दुश्मन हैं. इनसे होशियार रहिए, अल्लाह इनको ग़ारत करे. कहाँ फिरे चले जाते हैं, जब इन से कहा जाता है कि रसूल के पास आओ, वह तुम्हारा इस्तगफ़ार  करदें तो मुंह फेर लेते हैं और उनको देखेंगे तो तकब्बुर करते हुए बेरुखी करते हैं."

क्या खूब ! अल्लाह कहता है कि अल्लाह उसे गारत करे. गोया वह भी मोहताज है और दुआ गो है.
मुहम्मद की सहीह औकात यही है कि वह पागलों की तरह कुरआन बकते और लोग दीवाने की बात अनसुनी करके आगे बढ़ जाते. आज उन लोगों पर हैरत होती है जो उसकी बड़ बड़ को दोहराना इबादत और तिलावत का दर्जा दिए हुए हैं.
मुहम्मदी दिमाग की शातिराना चाल है कि कुरआन अल्लाह का कलाम है, वह जो भी कहता है, वह वही जाने.. अगर मुहम्मद इसे अपना कलाम कहते तो हर गली कूँचे में उनकी दुर्गत होती. इसी लिए मैं कहता हूँ कि इंसान की सबसे बड़ी कमजोरी है अल्लाह, ईश्वर या गोड.

"ये कहते हैं कि  अगर अब मदीना लौट कर जाएँगे तो इज्ज़त वाला वहाँ से, ज़िल्लत वाले को बहार निकल देगा. और अल्लाह की है इज्ज़त और उसके रसूल की और मुसलामानों की, लेकिन मुनाफिकीन जानते नहीं..ऐ ईमान वालो! तुमको तुम्हारे मॉल और औलाद अल्लाह की याद से गाफिल न करने पाएँ ."
"अगर अब मदीना लौट कर जाएँगे तो इज्ज़त वाला वहाँ से, ज़िल्लत वाले को बहार निकल देगा"

ये बात मुहम्मद का सख्त मुख़ालिफ़ और मदीना के होने वाले मुखिया अब्दुल्ला बिन उब्बी की जो यक़ीनन ठीक कह रहा था. मुहम्मद के मदीने आमद से उसका बना बनाया खेल बिगड़ गया था. वह अपने  साथियों से कहता कि  तुम्हारे कहने पर उनको मैंने अल्लाह का रसूल मान लिया, फिर  उनकी ज्यादती भी    मजबूरन तस्लीम कर लिया कि ज़कात भी देने लगा, अब तुम चाहते हो कि उनका सजदा भी हम करने लगें तो ये हमसे न होगा.
बुग्ज़ी मुहम्मद ने अब्दुल्ला बिन उब्बी के मरने के बाद उसे उसकी कब्र से निकलवाया था और उसके मुँह में थूका था. हराम ज़ादे ओलिमा उस पर भी मुहम्मद का गुन गान किया.