मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.
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गाय बचाओ आश्रम
दूध पूत से छुट्टी पाइस , भूखी खड़ी है गइया ,
इसके दुःख को कोई न समझे , देखे खड़ा क़सय्या।
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गाय बचाओ आश्रम
दूध पूत से छुट्टी पाइस , भूखी खड़ी है गइया ,
इसके दुःख को कोई न समझे , देखे खड़ा क़सय्या।
मैं कुछ दिनों के लिए वंधना (कानपुर) एक हिंदू आश्रम में M J Khan के नाम से रहा। लोगों के मुस्लिम विरोध पर आश्रम के संस्थापक स्वामी जी ने उनको समझाया कि वह खाड़ी देशों में जाते है तो वहाँ मुसलमान ही उनके मेज़बान होते हैं। डरना तो खान साहब को चाइए जो तुम्हारे बीच रहने आए हैं।
वहाँ जानवरों से मेरा प्यार देख कर गऊ शाले की देख भाल रखने की ज़िम्मेदारी मुझे सौप दी गई। एक गाय गाभिन थी, बियाने से पहले समस्या खड़ी हो गई मैं मवेशी डॉक्टर के पास गया , उसने आकर गाय के काम को आसान किया। गाय ने एक बहुत खूब सूरत बछिया जनी । उसे इंसानो के बच्चों की तरह मैं खेलाता। वहां के लोग हमें देख कर मुस्कुराते।
गाय में बड़ा ऐब निकला कि उसका दूध इतना भी न होता कि उसके बच्चे का पेट भर पाता ।
इसी बीच एक पति पत्नी एक काली गाय उसके नए जन्मे बच्चे को लेकर आये उसे आश्रम को दान किया और १०१ रुपया भी दिया , हाथ जोड़ा , नमस्कार किया और चलते बने। दूसरे दिन मालूम हुवा कि यह माता पहली वाली से भी ज़्यादा कमज़ोर है , इसमें दूध ही नहीं था।
गायों के सेवक पाल जी ने बतलाया कि द्वेदी जी आफ़िफ़ में चर्चा कर रहे थे कि दो दो निकम्मे जानवरों का खर्च खराबा कैसे उठाया जाय।
मैं इतवार को घर चला गया था , वापस आकर देखा तो दोनों गायें नदारद थीं। मैंने पाल से पूछा ? उसने मुस्कुराते हुए इशारा किया कि गईं।
मैं समझ गया कि जो सुनते आए थे , उसे देख भी लिया।
इस आश्रम के संस्थापक प्रसिध स्वामी जी हुवा करते थे , लेखक थे , प्रवचन में ताक और स्वामी चिन्मयानन्द के उत्तराधिकारी थे. प्रबंधक द्वेदी जी स्वामी जी के दामाद थे।
इन्हीं के हवाले से मैं चिन्मया आश्रम सिधवाड़ी (धर्मशाला) गया जहाँ स्वामियों गुरुवों और पंडों के साथ रहा। वहां ढेर सारे शिष्य और शिष्याओं का जमावड़ा था।
यहाँ पर अय्याशियों का एक अलग अद्धयाय है।
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जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान