Monday 29 June 2015

Soorah aAale Imran 3 Part 8 (92-141)

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.

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सूरह आले इमरान ३ -
Part 8

चौथे पारे के शुरुआत में यहूदियों से इनके बुजुर्गों पर मुहम्मद विरोध करते हुए नई नई बातें मन गढ़ंत पेश करते हैं. उनको अपनी गढ़ी हुई बातें मनवाने की कोशिश करते है और मुसलमानों को उनकी सही बातें मानने से रोकते हैं. 
मुहम्मद के पास दो ही नुस्खे है पहला दोज़ख का खौफ दिखाना और दूसरा जन्नत की लालच देना. अल्लाह कहता है रोजे क़यामत लोगों के चेहरे दो रंग के होंगे, 
सफेद और काले. 
काले मुंह वाले दोज़खी और सफेद चेहरे वाले बेहिश्ती. 
मुहम्मद अपनी अल्प संख्यक उम्मत को समझाते हैं कि काफ़िरों से अगर मुकाबला होगा तो पीठ दिखला कर भागने वाले यही काफिर होंगे, मगर ज़रूरी है कि तुम साबित क़दम रहो. मुहम्मद को शायद कभी कभी अपनों से ही अपने जान को खतरा लगता है, घुमाओ दार बातों में वोह अल्लाह की ज़बान में बोलते हैं.
मुसलमानों! सोचो अचानक मुहम्मद किसी अदभुत अल्लाह को पैदा करते है, उसके फ़रमान अपने कानों से अनदेखे फ़रिश्ते से सुनते हैं और उसको तुम्हें बतलाते है। वोह अल्लाह सिर्फ़ २३ सालों की जिंदगी जिया, न उसके पहले कभी था, न उसके बाद कभी हुवा. 
इस मुहम्मदी अल्लाह पर भरोसा करना क्या अपने आप को धोका देना नहीं है? सोचो कि ऐसे अल्लाह की क़ैद से रिहाई की ज़रुरत है, करना कुछ भी नहीं है, बस जो ईमान उस से ले कर आए थे उसे वापस कर दो. लौटा दो ऐसे हवाई और नामाकूल अल्लाह को उस का ईमान. 
ईमान लाओ मोमिन का जो धर्म कांटे का ईमान रखता है.
" मगर हाँ! एक तो इस ज़रिए के सबब जो अल्लाह की तरफ़ से है, दूसरे इस ज़रिए से जो आदमी के तरफ़ से है और मुस्तहक हो गए गज़ब इलाही के और जमा दी गई उन पर पस्ती, यह इस वजह से हुवा कि वह लोग मुनकिर हो जाया करते थे एह्काम इलाही के और क़त्ल कर दया करते थे पैगम्बरों को नाहक और यह बे वज्ह हुवा कि इन लोगों ने इताअत न की और दायरे से निकल निकल जाते थे।"
सूरह आले इमरान ३ तीसरा पारा आयात (92-112)
यह गुनूदगी के आलम में बकी गई अल्लाह की कुछ और आयतें थीं। आप निकाल सकें तो कोई मतलब . निकालें अय्यार ओलिमा तो इस मे अपनी इल्म का जादू भर के पुर हिकमत, पुर रहमत, पुर अज़मत वगैरा वगैरा बनाए हुए हैं। अगर आप भी इसे नज़र अंदाज़ करते हैं तो याद रखें कि आने वाले कल में आप अपनी नस्लों के मुजरिम होंगे। 
* अहले किताब यानी यहूदियों में से एक हिस्से की मुहम्मद दिल खोल कर तारीफ करते हैं, उनकी जो अपनी किताब पर अमल करते हैं, मगर काफ़िरों के लिए नफ़रत में अज़ाफा हो जाता है अल्लाह इन से नफ़रत के पाठ कैसे पढाता है, 
देखिए - -
" हाँ तुम ऐसे हो कि उन लोगों से मुहब्बत रखते हो और वोह लोग तुम से असला मुहब्बत नहीं रखते, हालां कि तुम तमाम किताबों पर ईमान रखते हो और ये लोग जो तुम से मिलते हैं कह देते हैं ईमान ले आए और जब अलग होते हें तो तुम पर अपनी उँगलियाँ काट काट खाते हैं, मरे गैज़ के.आप कह दीजिए की तुम मर रहो अपने गुस्से में."
सूरह आले इमरान ३ तीसरा पारा आयात (113-119)
इस आयात से उस वक़्त के गैरत मंद, होश मंद और मजबूर अक्लमंदों पर सोच कर आज भी दिल कुढ़ता है. कितने मजबूर हो गए होगे ज़ी होश, साहिबे फ़िक्र और साहिबे ईमान. यह अल्लाह है कि नौज़बिल्लाह है? बन्दों को कहता है कि गुस्से से मर रहो. ऐसे अल्लाह को पुजवाने वाले खबीस आलिमों तुम को कब शर्म आएगी? तुम्हारे अल्लाह को एक काफ़िर कह रहा है 
" तू अपनी क़ह्हारी में मर"
* इस सूरह में शुरूआती इस्लामी जंगो का तज़करा है. पहली जंग बदर में हुई थी जिसमे मुसलमानों को फ़तह मिली थी और दूसरी जंग ओहद में हुई थी जिस में शिकस्त. फ़तह वाली जंग में अल्लाह ने मुसलमानों को मदद के लिए ३००० फ़रिश्ते भेज दिए थे. जंगे ओहद जो कि बकौल अल्लाह के मुहम्मद कि रज़ा के खिलाफ लड़ी गई थी, इस लिए फरिश्तों कि मदद नहीं आई।
" जब कि आप मुसलमानों से फरमाते थे कि क्या तुम को ये अमर काफ़ी न होगा कि तुहारा रब तुहें इमदाद करे, ३००० फरिश्तों के साथ जो उतारे जाएँगे. हाँ क्यूँ नहीं अगर तुम मुश्तकिल होगे और मुत्तकी रहोगे और वोह लोग तुम पर एक दम से आ पहुंचेगे तो तुम्हारा रब तुम्हारी मदद फरमाएगा,५००० फरिश्तों से जो एक खास वज़ा बनाएँ होंगे और ये महज़ इस लिए कि तुम्हारे लिए बशारत हो और ताकि तुम्हारे दिलों को क़रार हो जाए और नुसरत सिर्फ़ अल्लाह की तरफ़ से है जो कि ज़बर दस्त है."
सूरह आले इमरान ३ तीसरा पारा आयात (125-26)
जंगे ओहद हार जाने के बाद जिन लोगों को मुहम्मद के अल्लाह ने ५००० फरिश्तों की बटालियन भेजने की मदद की यकीन दहानी कराई थी वह कहीं नज़र नहीं आए और मुसलमानों को हार की जिल्लत ढोनी पड़ी, इस हालत में मुहम्मद की कला बाजियां देखने लायक हैं - - -
अल्लाह अपने रसूल से कहता है ---
"आप का कोई दखल नहीं यहाँ तक कि अल्लाह उन पर (काफिरों पर) या तो मुतवज्जो हो जाए या उन को कोई सज़ा देदे क्यूँ कि वह ज़ुल्म भी बड़ा कर रहे हैं - - - 
वोह जिसको चाहे बख्श दे जिसको चाहे अजाब दे - - - 
ईमान वालो सूद मत खाओ कई हिस्से और अल्लाह से दरो - - - 
ख़ुशी से कहना मानों अल्लाह और उसके रसूल का, उम्मीद है रहम किए जाओगे - - -
और दौडो मग्फेरत की तरफ जो परवर दिगार की तरफ से है - - - 
ऐसे लोग जो खर्च करते हैं फरागत में और तंगी में और गुस्से को ज़ब्त करने वाले और लोगों से दर गुज़र करने वाले और अल्लाह ऐसे लोगों को महबूब रखता है और तुम हिम्मत मत हारो और रंज मत करो और ग़ालिब तुम ही रहोगे अगर तुम पूरे मोमिन हो." 
सूरह आले इमरान ३ तीसरा पारा आयात (128-139)
" अगर तुम को ज़ख्म पहुंच जाय तो उस क़ौम को भी ऐसा ही ज़ख्म पाहुंचा है और हम इन अय्याम को उन लोगों के बीच अदलते बदलते रहा करते हैं, ताकि अल्लाह ईमान वालों को जान ले और तुम में से बाजों को शहीद बनाना था और अल्लाह ज़ुल्म करने वालों से मुहब्बत नहीं करते और ताकि मेल कुचैल से साफ़ कर दे ईमान वालों को और मिटा दे काफिरों को"
सूरह आले इमरान ३ तीसरा पारा आयात (141-40)
क़ुरआन की ये औसत सूरतें हैं जो मशकूक हुवा करती हैं, गोया इसमें इस्लामी मुल्लाओं के लिए मनमानी करने की काफी गुंजाईश है. खुद अल्लाह भी मुसलमानों के साथ जीत की यक़ीन दहानी कराने के बाद भी हार हो जाने पर कैसी मक्र की बातें करने लगा है, देखा जा सकता है. अँधेरे में रखने वाले इस्लामी विद्वान, मुस्लिम बुद्धि जीवी और कौमी रहनुमा, समय आ गया है कि अब जवाब दें- - -
कि लाखों, करोरों, अरबों बल्कि उस से भी कहीं अधिक बरसों से इस ब्रह्मांड का रचना कार अल्लाह क्या चौदह सौ साल पहले केवल तेईस साल चार महीने (मोहम्मद का पैगम्बरी काल) के लिए अरबी जुबान में बोला था? वह भी मुहम्मद से सीधे नहीं, किसी तथा कथित दूत के माध्यम से, वह भी बाआवाज़ बुलंद नहीं काना-फूसी कर के ? जनता कहती रही कि जिब्रील आते हैं तो सब को दिखाई क्यूँ नहीं पड़ते? जो कि उसकी उचित मांग थी और मोहम्मद बहाने बनाते रहे। क्या उसके बाद अल्लाह को साँप सूँघ गया कि स्वयम्भू अल्लाह के रसूल की मौत के बाद उसकी बोलती बंद हो गई और जिब्रील अलैहिस्सलाम मृत्यु लोक को सिधार गए ? उस महान रचना कार के सारे काम तो बदस्तूर चल रहे हैं, मगर झूठे अल्लाह और उसके स्वयम्भू रसूल के छल में आ जाने वाले लोगों के काम चौदह सौ सालों से रुके हुए हैं, मुस्लमान वहीँ है जहाँ सदियों पहले था, उसके हम रकाब यहूदी, ईसाई और दीगर कौमें आज हम मुसलमानों को सदियों पीछे अतीत के अंधेरों में छोड़ कर प्रकाश मय संसार में बढ़ गए हैं. हम मोहम्मद की गढ़ी हुई जन्नत के मिथ्य में ही नमाजों के लिए वजू, रुकू और सजदे में विपत्ति ग्रस्त है. मुहम्मदी अल्लाह उन के बाद क्यूँ मुसलमानों में किसी से वार्तालाप नहीं कर रहा है? जो वार्ता उसके नाम से की गई है उस में कितना दम है? ये सवाल तो आगे आएगा जिसका वाजिब उत्तर इन बदमआश आलिमो को देना होगा....
क़ुरआन का पोस्ट मार्टम खुली आँख से देखें "हर्फ़ ए ग़लत" का सिलसिला जारी हो गया है. आप जागें, मुस्लिम से मोमिन हो जाएँ और ईमान की बात करें। अगर ज़मीर रखते हैं तो सदाक़त अर्थात सत्य को ज़रूर समझेंगे और अगर इसलाम की कूढ़ मग्ज़ी ही ज़ेह्न में समाई है तो जाने दीजिए अपनी नस्लों को तालिबानी जहन्नम में.




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जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Friday 26 June 2015

Soorah Aale Imran 3 Part7 (62-89)

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें है
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सूरह आले इमरान  3-

  Part 7
ढोंग और ढकोंसला को धर्म का नाम दे कर उनको क़ौमियत में तकसीम कर दिया गया है। हिदू धर्म, इस्लाम, धर्म, ईसाई धर्म वगैरह वगैरह, 
जब कि धर्म सिर्फ़ एक होता है किसी वस्तु, जीव या व्यक्ति का सद गुण -
 जैसे काँटे (तराजू) का  धर्म (सदगुण) उस की सच्ची तोल, 
फूल का धर्म खुशबू, 
साबुन का धर्म साफ़ करना 
और वैसे ही इंसान का धर्म इंसानियत। 
इसी धर्म का अरबी पर्याय ईमान है जिस पर इस्लाम ने कब्ज़ा कर लिया है। इस्लाम अभी चौदह सौ साल पहले आया, ईमान और धर्म इंसान की पैदाइश के साथ साथ हजारों सालों से काएम हैं। 
इंसान इर्तेक़ाइ (रचना कालिक ) मरहलों में है, 
ये रचना-काल शिखर विंदू पर  हो, ढोंग और ढ्कोंसलों का कूड़ा इसकी राह से दूर हो जाए तो ये मानव से महा मानव बन जाएगा। 
खास कर मुस्लिम समाज जो पाताल में जा रहा है, इस को जगाना मेरे लिए ज़रूरी है क्यूँ कि इसी से मैं वाबिस्ता हूँ और यह ख़ुद अपना दुश्मन है। कोई इसका दोस्त नही । इस को तअस्सुब या जानिब दारी न समझा जाए, बल्कि कमज़ोर की मदद है ये। 
"यहूदी नबियों की तरह ईसाइयों के बारे में लगता है मुहम्मद की जानकारी कुछ कम है, इन के नाम ही सुन रखे हैं, इनकी कहानियां या हालत खुद बना लिए हैं और अल्लाह को उसका गवाह कर लिया है। 
इमरान और ज़कारिया के बारे में कुछ न कुछ बना ही लिया है। मरियम से तो नमाजों के रुकू भी कराए और नमाजें भी पढ़वाई हैं। 
ईसा को अपने रंग में रंगते हुए अपने हक में बातें भी कराते हैं। 
अपनी ही तरह उन पर वहियाँ भी उतरवाते हैं। ईसा खुद को खुदा का बेटा कहते कहते सलीब पर लटक गया और मुहम्मद उस को अपनी तरह ही अल्लाह का पैगम्बर बतलाते हैं." 
सूरह आले इमरान ३ तीसरा परा आयात (62-84) 
यही बातें भड़काऊ साबित होती हैं और कौमों में शर का बाईस बनी, जिस के नतीजे में लाखों इंसानी जानें गईं. आज भी अमरीका, योरोप बनाम अफगानिस्तान, ईराक, ईरान और दीगर मुस्लिम दुन्या से दुश्मनी की वजह यही कुरानी आयतें बनी हुई हैं. इन को सलीबी जंगों की बाकियात कहा जा सकता है.
कुरानी भूल भुलय्या में अल्लाह मुसलमानों को छका रहा है. मुहम्मद ईसा की अल्लाह से बात चीत कराने लगते हैं जिस के बाद अल्लाह ईसा को न मानने वालों को भी काफ़िर कहने लगता है। और क़यामत में मज़ा चखने का वादा करता है, जब कि ईसा के हरीफ यहूदी ही होते हैं. 
ईसा को मानने वालो को अल्लाह मोमिन कहने लगता है. 
शोब्देबाज़ और मदारी अल्लाह कहता है - - 
" और यहूदी एक चल चले और ईसा को बचने के लिए अल्लाह एक चल चला और अल्लाह खूब चलें चलने वाला है।
 यह आयतें हम तुम को पढ़ पढ़ कर सुनाते हैं जो की मिन जुमला दलाइल की हैं और मिन जुमला हिकमत आमोज मज़ामीं की हैं।" 
सोचिए कि वह अल्लाह कैसा होगा जो चालबाज़ हो?इसी तरह की बातों में अल्लाह मुसलमानों को लपेटे हुए है। इस में क्या अक़दस पाते हैं झुंड के झुंड नमाज़ी जिन्हें ओलिमा भेड़ बकरियों की तरह चरा रहे हैं.
अल्लाह मियां अपने प्यारे नबी से राज़ की बात का पर्दा फाश करते हैं - - - 
"इब्राहीम तो न यहूदी थे, न नसरानी और मुशरिकीन में भी न थे लेकिन तरीके मुस्तकीम वाले साहिबे इसलाम थे।" 
सूरह आले इमरान ३ तीसरा परा आयात (67) 
हज़रात इब्राहीम एक परदेसी थे, बद हाली और परेशानी की हालत में अपनी बीवी सारा को किसी मजबूरी के तहत अपनी बहन बतला कर मिसरी बादशाह फ़िरौन की पनाह में रहा करते थे. 
तौरेत के मुताबिक सारा हसीन थी और बादशाह कि मंजूरे नज़र हो कर उसके हरम में पनाह पा गई थी. सच्चाई खुलने पर हरम से बाहर की गई और साथ में इब्राहीम और उनका भतीजा लूत भी. उसके बाद दोनों चचा भतीजों ने मवेशी पालन का पेशा अपनाया और कामयाब गडरिया हुए.
बनी इस्राईल की शोहरत की वजेह तारीख़ में फिरअना के वज़ीर यूसुफ़ की ज़ात से हुई. युसूफ इतना मशहूर हुवा कि इसके बाप दादों का नाम तारिख में आ गया, वर्ना याकूब, इशाक , इस्माईल, और इब्राहीम जैसे मामूली लोगों का नामो निशान भी कहीं न होता.
मानव की रचना कालिक अवस्था में इब्राहीम को जो होना चाहिए था वोह थे, न इतने सभ्य कि उन्हें पैगाबर या अवतार कहा जाए, ना ही इतने बुरे कि जिन्हें अमानुष कहा जाय. मानवीय कमियाँ थीं उनमें कि अपनी बीवी को बहन बना कर बादशाह के शरण में गए और अपनी धर्म पत्नी को उसके हवाले किया. 
दूसरा उनका जुर्म ये था कि अपनी दूसरी गर्भ वती पत्नी हाजरा को पहली पत्नी सारा के कहने पर घर से निकल बाहर कर दिया था, जो कि रो धो कर सारा से माफ़ी मांग कर वापस घर आई. 
तीसरा जुर्म था कि दोबारा इस्माईल के पैदा हो जाने के बाद हाजरा को मय इस्माईल के घर से दूर मक्का के पास एक मरु खंड में मरने के लिए छोड़ आए. 
उनका चौथा बड़ा जुर्म था सपने के वहम को साकार करना और अपने बेटे इस्माईल को अल्लाह के नाम पर कुर्बान करना, जो मुसलमानों का अंध विश्वास बन गया है और हजारो जानवर हर साल मारे जाते हैं. 
है. 
आइए देखें कि हमारे समाज की विडंबना क्यू क्या ज़हर इसके लिए बोती है - - - 
" अल्लाह ऐसे लोगों की हिदायत कैसे करेगे जो काफ़िर हो गए, बाद अपने ईमान लाने के और बाद अपने इस इक़रार के कि मुहम्मद सच्चे हैं और बाद इस के कि उन पर वाजः दलायल पहुँच चुके थे और अल्लाह ऐसे बे ढंगे लोगों को हिदायत नहीं करते।" 
सूरह आले इमरान ३ तीसरा परा आयात (86) 
यह है मुहम्मद का अभियान जिसमे अल्लाह किसी गाँव के मेहतुक की तरह है जिसे कि वह रब्बुल आलमीन कहते हैं. उनका अल्लाह उन लोगों से बेज़ार हो रहा है जो रोज़ रोज़ मुसलमान से काफ़िर हो जाते हैं और काफ़िर से मुसलमान. 
" ऐसे लोगों की सज़ा ये है कि इन पर अल्लाह ताला की भी लानत होती है, फरिश्तों की और आदमियों की भी, सब की। वह हमेशा हमेशा के लिए दोज़ख में रहेंगे, इन पर अज़ाब हल्का न होने पाएगा और न ही मोहलत दी जाएगी, हाँ मगर तौबा करके जो लोग अपने आप को संवार लेंगे, सो अल्लाह ताला बख्शने वाला है." 
सूरह आले इमरान ३ तीसरा परा आयात (88-89) 
मुसलमानों!
 सोचो अचानक मुहम्मद किसी अदभुत अल्लाह को पैदा करते है, उसके फ़रमान अपने कानों से अनदेखे फ़रिश्ते से सुनते हैं और उसको तुम्हें बतलाते है। वोह अल्लाह सिर्फ़ २३ सालों की जिंदगी जिया, न उसके पहले कभी था, न उसके बाद कभी हुवा। 
इस मुहम्मदी अल्लाह पर भरोसा करना क्या अपने आप को धोका देना नहीं है? सोचो कि ऐसे अल्लाह की क़ैद से रिहाई की ज़रुरत है, करना कुछ भी नहीं है
बस जो ईमान उस से ले कर आए थे उसे वापस कर दो. लौटा दो ऐसे हवाई और नामाकूल अल्लाह को उस का ईमान. ईमान लाओ मोमिन का जो धर्म कांटे का ईमान रखता 

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Monday 22 June 2015

Soorah Aale Imran 3 Part 6 (51-61)

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.
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सूरह आले इमरान  3 
Part 6
" बे शक अल्लाह मेरे रब भी हैं और तुम्हारे रब भी हैं, सो तुम लोग इस की इबादत करो मगर ईसा ने जब इस से इंकार देखा तो कहा कोई ऐसे लोग भी हैं जो हमारे मदद गार हो जाएँ? अल्लाह के वास्ते. हवारीन बोले हम हैं मदद गार अल्लाह के, हम अल्लाह पर इमान लाए और आप इस के गवाह रहिए कि हम फरमा बरदार हैं." 
सूरह आले इमरान ३ तीसरा परा आयात (51-52) 
(हवारीन=ईसा के साथी धोबी) 
ये पैगाम-ए-इलाही नहीं, मुहम्मद की पुकार है, ईसा की तरह मक्का के लोगो को. ईसा के हवारी बन जाने की जो ईसा मसीह को जानते हैं, वोह मुहम्मद की सुर्रे बाज़ी को समझते हैं कि वह जो कुछ कह रहे हैं वह सब झूट है, ईसा के हवारी तो एन ईसा की गिरफ्तारी पर दुम दबा कर भाग खड़े हुवे थे, किसी ने उनकी मुखबिरी की थी तो कुछ ने अदालत के सामने मसीह को पहचानने से इंकार कर दिया था. मुहम्मद के इर्द दिर्द सुसाहिबों (चमचों) की कमी नहीं मगर कुरआन का पेट ईसा की बे सर पैर की बातों से भर रहे हैं।
" अल्लाह ईसा से कहता है तुम गम न करो, मैं तुम को वफ़ात (मौत) देने वाला हूँ, मैं तुम को अपनी तरफ उठा लेता हूँ और उन लोगों से पाक करने वाला हूँ जो तुहारे मुनकिर हैं और जो तुहारा कहना मानने वाले हैं वह गालिग़ होंगे। अल्लाह ईसा से भी रोज़े महशर की कहानी छेड़ देता है कि वह मुन्किरों की खबर लेगा, इस तरह मुहम्मद अपनी तबलीग को ईसा का फ़्रेम पहना देते हैं।" 
सूरह आले इमरान ३ तीसरा परा आयात (54-58) 
तबलीग=प्रचार 
मुस्लमान इन कुरानी आयातों में क्या मनन चितन के लिए कुछ पाते हैं? या फिर जैसा इस के ज्ञानी प्रचार करते हैं कि इस में मानव पीडा का हर उपचार है, हिकमत है, युक्ति है, जीवन धारा है, दूर दूर तक कहीं ऐसा कुछ है क्या? 
एक आयते अजीबिया मुलाहिज़ा हो. खुद मुहम्मद हालाते अजीबिया (आश्चर्य जनक) में हैं. पता नहीं वह वज्द (उन्मत्ता) के आलम में हैं या फिर हालते उम्मियत(निरक्छरता) में अपनी बात कह न पा रहे हों और इल्जाम अल्लाह पर है कि वोह मुश्तबाहुल मुराद (शंका युक्त) आयतें नाजिल करता है। 
" बे शक हालते अजीबिया ईसा की अल्लाह के नज़दीक मुशाबह हालते अजीबिया आदम के है कि उनको मिटटी से बनाया, फिर उनको हुक्म दिया कि हो, बस वह हो गए। यह अम्र वाकई आप के परवर दिगर की तरफ से है सो शुबहा करने वालों में न से न बनो।" 
सूरह आले इमरान ३ तीसरा परा आयात (59-60) 
मुशाबह=मुखाकृति 
५० साल पहले तक जब मदरसों के मुल्ले समाज पर हावी न थे और समाज पर हदीसों का इतना असर न था, उस वक़्त अगर कोई हदीस गैर फितरी(अलौकिक) मुल्ला बयान करता तो लोगों के तेवर चढ़ जाते और उसकी ज़बान बंद करदी जाती कि "कठ मुल्लाई मत किया करो" आज मुल्लाओं का गलबा हो गया है "हुज़ूर ने फ़रमाया है" कह कर कठ मुल्लाई बयान करते फिरते हैं। मुलाहिज़ा हो कि मुहम्मद कुरआन में कैसी कठ मुल्लाई की शर्त ईसाइयों के सामने रखते हैं - - 
-" जो शख्स ईसा के बाब में हुज्जत करे--- तो आप फरमा दीजिए कि आओ हम बुला लें अपने बेटों और तुम्हारे बेटों को, अपनी औरतों को और तुम्हारी औरतों को और खुद अपने तनों को और तुम्हारे तनों को, फिर हम दिल से दुआ करें इस तौर पर कि अल्लाह की लानत भेजें जो इस बहस में नाहक हो।" 
सूरह आले इमरान ३ तीसरा परा आयात (61) 
सूरह का नाम आले इमरान है, इमरान मरियम के बाप थे। मुहम्मद ने सुने सुनाए इन्जीली किस्सों को अपने अंदाज़ में डायलाग के साथ गढा है जिसमें अधूरे पन के साथ साथ फूहड़ पन भी है. कहानी को अल्लाह के नाम से जोड़ते हैं और अपने हक में तोड़ते हैं. तहरीर में बेशर्मी और बेहूदगी भरी हुई है. जिसारते बेजा का साफ़ साफ़ मुज़ाहिरा है. नीम दीवानगी की इन बकवासों को अल्लाह का कलाम कहा गया है. दुन्या की तमाम मज़हबी किताबों का अख्लाकी मुवाज़ना हो तो कुरआन उन में रुस्वाए ज़माना सिन्फ़ साबित होगी. इस की जवाब देही कभी भी वक़्त के मौजूदा बे कुसूर मुसलमानों की आबादी से हो सकती है कि ऐसे गैर अख्लाकी और इंसानियत दुश्मन एह्कम की पैरवी क्यूँ करते हो? कभी भी दुन्या का मुस्लमान एकदम खली हाथ हो सकता है, और उसका हशर इस्पेनी मुसलमानों जैसा हो सकता है जहाँ पर उन्हें सात सौ साल हुमरानी करने के बाद भी उन्हीं के अल्लाह के हिकमत भरे जहन्नम में झोंक दिया गया था. जी हाँ दस लाख जिंदा अल्लाह वाले एक साथ जलाए गए थे. सदियों यह ओलिमा गुमराह किए रहे इतनी बड़ी आबादी को. बेहतर है कि इस से पहले ही ये नादान क़ौम बेदार हो जाए. 
आला तर जदीद इंसानी क़द्रें इस के लिए आँखें बिछाए बैठी हुई है। 



जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Friday 19 June 2015

Soorah Aale Imran 3 Part 5 (34-50)

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.
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सूरह आले इमरान ३ 
(पाँचवीं क़िस्त) 
सूरह आले इमरान से मुराद है इमरान यानी मरियम के बाप की औलादें - -
अल्लाह अब सूरह के उन्वान पर आता है (इमरान की जोरू जिसका नाम अल्लाह भूल रहा है ( ? )) की गुफ्तुगू अल्लाह से चलती है, वह लड़के की उम्मीद किए बैठी रहती है, हो जाती है लड़की, जिसका नाम वोह मरियम रखती है. उधर बूढा ज़कारिया अल्लाह से एक वारिस की दरख्वास्त करता है जो पूरी हो जाती है, 
(इस का लड़का बाइबिल के मुताबिक मशहूर नबी योहन हुवा. जिस को कि उस वक़्त के हाकिम शाह हीरोद ने फांसी देदी थी. मुहम्मद को उसकी हवा भी नहीं लगी) 
इन सूरतों में जिब्रील ईसा की विलादत की बे सुरी तान छेड़ते हैं. बहुत देर तक अल्लाह इस बात को तूल दिए रहता है. इस को मुस्लमान चौदह सौ सालों से कलाम इलाही मान कर ख़त्म क़ुरआन किया करते हैं।
सूरह आले इमरान ३ तीसरा परा आयात (34-48) 

देखिए की मुहम्मद ईसा से कैसे गारे की चिडिया में, उसकी दुम उठवा कर फूंक मरवाते हैं और वह जानदार होकर फुर्र से उड़ जाती है - -
" बनी इस्राईल की तरफ से भेजेंगे पयम्बर बना कर, वह कहेंगे कि तुम लोगों के पास काफ़ी दलील लेकर आया हूँ, तुम्हारे परवर दिगर की जानिब से। वह ये है कि तुम लोगों के लिए गारे की ऐसी शक्ल बनाता हूँ जैसे परिंदे की होती है, फिर इस के अन्दर फूंक मार देता हूँ जिस से वह परिंदा बन जाता है। 
और अच्छा कर देता हूँ मादर जाद अंधे और कोढ़ी को और ज़िन्दा कर देता हूँ मुर्दों को अल्लाह के हुक्म से। 
और मैं तुम को बतला देता हूँ जो कुछ घर से खा आते हो और जो रख आते हो. 
बिला शुबहा इस में काफ़ी दलील है तुम लोगों के लिए, अगर तुम ईमान लाना चाहो."
सूरह आले इमरान ३ तीसरा परा आयात (49)
उम्मी मुहम्मद की बस की बात न थी कि किसी वाकिए को नज़्म कर पाते जैसे क़ाबिल तरीन रामायण और महाभारत के रचैताओं ने शाहकार पेश किए हैं। अभी वह इमरान का क़िस्सा भी बतला नहीं सके थे कि ईसा कि पैदाइश पर आ गए। ईसा के बारे में जो जग जाहिर सुन रखी थी उसको अल्लाह की आगाही बना कर अपने कबीलाई लाखैरों को परोस रहे हैं. उम्मियों और जाहिलों की अक्सरियत माहौल पर ग़ालिब हो गई और पेश कुरानी लाल बुझक्कड़ड़ी फलसफे मुल्क का निज़ाम बन गए, जैसा कि आज स्वात घाटी जैसी कई जगहों पर हो रहा है.
इस मसअला का हल सिर्फ जगे हुए मुसलमानों को ही हिम्मत के साथ करना होगा, कोई दूसरा इसे हल करने नहीं आएगा. कोई दूसरा अपना फायदा देख कर ही किसी के मसअलe में पड़ता है क्यूँ कि सब के अपने खुद के ही बड़े मसाइल हैं. 

" और मैं इस तौर पर आया हूँ कि तस्दीक करता हूँ इस किताब को जो तुमहारे पास इस से पहले थी,यानि तौरेत की. और इस लिए आया हूँ कि तुम लोगों पर कुछ चीजें हलाल कर दूं जो तुम पर हराम कर दी गई थीं और मैं तुम्हारे पास दलील लेकर आया हूँ तुम्हारे परवर दिगर कि जानिब से. हासिल यह कि तुम लोग परवर दिगर से डरो और मेरा कहना मनो"
सूरह आले इमरान ३ तीसरा परा आयात (50) 
मुहम्मद के पास लौट फिर कर वही बातें आती हैं, नया ज्यादा कुछ कहने को नहीं है. 
जिन आयातों को मैं छू नहीं रहा हूँ, उनमे कही गई बातें ही दोहराई गई हैं या इनतेहाई दर्जा लगवयात है. 
यहूदी बहुत ही तौहम परस्त और अपने आप ने बंधे हुए होते हैं जिनके कुछ हराम को मुहम्मद हलाल कर रहे हैं. गैर यहूदी अहले मदीना और अहले मक्का को इस से कोई लेना देना नहीं. मुहम्मद के अल्लाह की सब से बड़ी फ़िक्र की बात यह है कि लोग उस से डरते रहें. बन्दों की निडर होने से उसकी कुर्सी को खतरा क्यूँ है, 
मुसलमानों के समझ में नहीं आता कि यह खतरा पहले मुहम्मद को था और अब मुल्लों को है. 

मुसलामानों! बेदार हो जाओ, इन कुरआनी आयतों को समझो, समझ में आजाएं तो इन्हें अपने सुल्फा कि भूल समझ कर दफ़ना दो और इस से जुड़े हुए ज़रीया मआश को हराम क़रार दे कर समाज को पाक करो. 

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Monday 15 June 2015

Soorah aAale Imran 3 Part 4 (32-33)

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है। 
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.

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सूरह आले इमरान ३ 
चौथी किस्त

मुहम्मद उम्मी थे अर्थात निक्षर. तबीयतन शायर थे, मगर खुद को इस मैदान में छुपाते रहते , मंसूबा था कि जो शाइरी करूंगा वह आल्लाह का कलाम क़ुरआन होगा . इस बात की गवाही में क़ुरआन में मिलनें वाली तथा कथित काफिरों के मुहम्मद पर किए गए व्यंग '' शायर है ना'' है. 
शाइरी में होनें वाली कमियों को, चाहे वह विचारों की हों, चाहे व्याकरण की, मुहम्मद अल्लाह के सर थोपते हैं. अर्थ हीन और विरोद्दाभाशी मुहम्मद की कही गई बातें ''मुश्तबाहुल मुराद '' आयतें बन जाती हैं जिसका मतलब अल्लाह बेहतर जानता है. देखें (सूरह आले इमरान ३ तीसरा परा आयत (6+7) 
यह तो रहा क़ुरआन के लिए गारे हेरा में बैठ कर मुहम्मद का सोंचा गया पहला पद्य आधारित मिशन ''क़ुरआन''. 
दूसरा मिशन मुहम्मद का था गद्य आधारित. इसे वह होश हवास में बोलते थे, खुद को पैगम्बराना दर्जा देते हुए, हांलाकि यह उनकी जेहालत की बातें होतीं जिसे कठबैठी या कठ मुललाई कहा जाय तो ठीक होगा. यही मुहम्मदी ''हदीसें'' कही जाती हैं. 
क़ुरआन और हदीसों की बहुत सी बातें यकसाँ हैं, ज़ाहिर है एह ही शख्स के विचार हैं, ओलिमा-ए-दीन इसे मुसलामानों को इस तरह समझाते हैं कि अल्लाह ने क़ुरआन में कहा है जिस को हुज़ूर (मुहम्मद) ने हदीस फलाँ फलाँ में भी फरमाया है. अहले हदीस का भी एक बड़ा हल्का है जो मुहम्मद कि जेहालत पर कुर्बान होते हैं. शिया कहे जाने वाले मुस्लिम इससे चिढ्हते हैं.
मैं क़ुरआन के साथ साथ हदीसें भी पेश करता रहूँगा. 

तो लीजिए कुरानी अल्लाह फरमाता है - - -
" अल्लाह काफ़िरों से मुहब्बत नहीं करता"
सूरह आले इमरान ३ तीसरा परा आयात (32)

क्या काफ़िर अल्लाह के बन्दे नहीं हैं? फिर वह रब्बुल आलमीन कैसे हुवा? 
क़ुरआन की इन दोगली बातों का मौलानाओं के पास जवाब नहीं है। वह काफ़िरों से मुहब्बत नहीं करता तो काफ़िर भी अल्लाह को लतीफा शाह से ज्यादा नहीं समझते, मुस्लमान इस्लामी ओलिमा से अपनी हजामतें बनवाते रहें और काफ़िरों के आगे हाथ फैलाते रहें.

अल्लाह कहता है - -
" मोमिनों! किसी गैर मज़हब वालों को अपना राज़दार मत बनाओ। ये लोग तुम्हारी खराबी में किसी क़िस्म की कोताही नहीं करते और अगर तुम अक़्ल रखते हो तो हम ने अपनी आयतें खोल खोल कर सुना दीं। काफ़िरों से कहदो कि गुस्से से मर जाओ, अल्लाह तुम्हारे दिलों से खूब वक़िफ़ है। ऐ मुसलमानों! दो गुना, चार गुना सूद मत खाओ ताकि नजात हासिल हो सके।''
सूरह आले इमरान ३ तीसरा परा आयात (33) 
क्या यह कम ज़रफी की बातें किसी खुदाए बर हक की हो सकती हैं? क्या जगत का पालन हारा अगर, है कोई तो ऐसा गलीज़ दिल ओ दिमाग रखता होगा? 
अपने बन्दों को कहेगा की मर जाओ, 
नहीं ये गलाज़त किसी इंसानी दिमाग की है और वह कोई और नहीं मुहम्मद हैं। यह टुच्ची मसलेहत की बातें किसी मर्द बच्चे को ज़ेबा नहीं देतीं अल्लाह तो अल्लाह है. कानो में खुसुर फुसुर कर के ओछी बातें सिखलाने वाला, ज्यादा या कम सूद खाने को मना करने वाला अल्लाह हो ही नहीं सकता. 

मुसलमानों! 
जागो कहीं तुम धोके में अल्लाह की बजाए शैतान की इबादत तो नहीं कर रहे हो। कलाम इलाही पर एक मुंसिफाना नज़र डालो, आप को ऐसी तालीम दी जा रही है कि दूसरों की नज़र में हमेशा मशकूक बने रहो . एक हिदू इदारे के कुछ वर्कर आपस में मुझे भांपे बगैर बात कर रहे थे कि मुस्लमान पर कभी विश्वास न करना चाहे वह जलते तवे पर अपने चूतड रख दे, उसकी बात की इस आयात से तस्दीक हो जाती है. अल्लाह ने क़ुरआन में अपनी बातें खोल खोल कर समझाईं हैं, अल्ला मियां! जिसको आज आलिमान दीन ढकते फिर रहे हैं। 


जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Friday 12 June 2015

Soorah aale imran 3 Part 3 (10-28)

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.
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सूरह आले इमरान ३ 
तीसरी किस्त 
मैं हिन्दू हूँ न मुसलमान, न क्रिश्चेन और न ही कोई धार्मिक आस्था रखने वाला व्यक्ति. मैं सिर्फ एक इंसान हूँ, मानव मात्र। हिदू और मुस्लिम संस्कारों में ढले आदमी को मानव मात्र बनना बहुत ही मुश्किल काम है. कोई बिरला ही सत्य और सदाक़त से आँखें मिला पाता है कि परिवेश का ग़लबा उसके सामने त्योरी चढाए खड़ा रहता है और वह फिर आँखें मूँद कर असत्य की गोद में चला जाता है. 
ग़ालिब कहता है - - - 
बस कि दुश्वार है हर काम का आसान होना, 
आदमी को भी मयस्सर नहीं इंसान होना।
(हर आदमी, आदमी का बच्चा होता है चाहे उसे भेड़िए ने ही क्यूं न पाला हो और सभ्य होने के बाद ही आदमी इंसान कहलाता है)
मैं सिर्फ इन्सान हो चुका हूँ इस लिए मैं इंसान दोस्त हूँ. 
दुन्या में सब से ज्यादह दलित, दमित, शोषित और मूर्ख कौम है मुसलमन, 
उस से ज्यादा हमारे भारत में अछूत, हरिजन, दलित और पिछड़ा वर्ग के नामों से पहचान रखने वाला हिन्दू . 
पहले अंतर राष्ट्रीय कौम को क़ुरआनी आयातों ने पामाल कर रखा है,
दूसरेको भारत में लोभ और पाखण्ड ने। 
मुट्ठी भर लोग इन दोनों को उँगलियों पर नचा रहे हैं. मैं फिलहाल मुसलामानों को इस दलदल से निकलने का बेडा उठता हूँ, हिन्दू भाइयो के शुभ चिन्तक लाखों हैं. इस लिए मैं इस मुसलमन मानव जाति का असली शुभ चिन्तक हूँ यही मेरा मानव धर्म है. नादान मुसलमान मुझे अपना दुश्मन समझते हैं जब कि मैं उनके अज़ली दुश्मन इस्लाम की का विरोध करता हूँ और वाहियात गाथा कुरआन का. 
हर मानवता प्रेमी पाठक से मेरा अनुरोध है कि वह मेरे अभियान के साथ आएं, मेरे ब्लॉग को मुस्लिम भाइयों के कानों तक पहुँचाएँ। हर साधन से उनको इसकी सूचना दें। मैं मानवता के लिए जान कि बाज़ी लगा कर मैदान में उतरा हूँ, आप भी कुछ कर सकते हैं .
देखें क़ुरआन की बकवासें - - -
 
" बिल यकीन जो लोग कुफ्र करते हैं, हरगिज़ उनके काम नहीं आ सकते, उनके माल न उनके औलाद, अल्लाह तआला के मुकाबले में, ज़र्रा बराबर नहीं और ऐसे लोग जहन्नम का सोखता होंगे।"
सूरह आले इमरान ३ तीसरा परा आयात (१०)
खुद ला वलद मुहम्मद अपने दामाद की औलादों हसन और हुसैन का हशर हौज़ऐ कौसर के कनारे खड़े खड़े देख रहे होंगे। दुश्मने इंसानियत मुहम्मद तमाम उम्र अपने मुखालिफों को मारते पीटते और काटते कोसते रहे, असर उल्टा रहा अहले कुफ्र सुर्ख रू रहे और फलते फूलते रहे, मुस्लमान पामाल रहे और ज़र्द रू हुए। आज भी उम्मते मुहम्मदी पूरी दुन्या के सामने एक मुजरिम की हैसियत से खड़ी हुई है. किस क़दर कमजोर हैं कुरानी आयतें, मौजूदा मुसलमानों को कैसे समझाया जाय? 

" आप फरमा दीजिए क्या मैं तुम को ऐसी चीज़ बतला दूँ जो बेहतर हों उन चीजों से, ऐसे लोगों के लिए जो डरते हैं, उनके मालिक के पास ऐसे ऐसे बाग हैं जिन के नीचे नहरें बह रही हैं, हमेशा हमेशा के लिए रहेंगे, और ऐसी बीवियां हैं जो साफ सुथरी की हुई हैं और खुश नूदी है अल्लाह की तरफ से बन्दों को."
सूरह आले इमरान ३ तीसरा परा आयात (15)
देखिए कि इस क़ौम की अक़्ल को दीमक खा गई। अल्लाह रब्बे कायनात बंदे मुहम्मद को आप जनाब कर के बात कर रहा है, इस क़ौम के कानों पर जूँ तक नहीं रेगती. अल्लाह की पहेली है बूझें? अगर नहीं बूझ पाएँ तो किसी मुल्ला की दिली आरजू पूछें कि वह नमाजें क्यूँ पढता है? ये साफ सुथरी की हुई बीवियां कैसी होंगी, ये पता नहीं, अल्लाह जाने, जिन्से लतीफ़ होगा भी या नहीं? औरतों के लिए कोई जन्नती इनाम नहीं फिर भी यह नक़िसुल अक्ल कुछ ज़्यादह ही सूम सलात वालियाँ होती हैं। अल्लाह की बातों में कहीं कोई दम दरूद है? कोई निदा, कोई इल्हाम जैसी बात है? दीन के कलम कारों ने अपनी कला करी से इस रेत के महेल को सजा रक्खा है।
" अल्लाह बड़ी नरमी के साथ बन्दों को अपनी बंदगी की अहमियत को समझाता है. काफिरों की सोहबतों के नशेब ओ फ़राज़ समझाता है. अपनी तमाम खूबियों के साथ बन्दों पर अपनी मालिकाना दावेदारी बतलाता है. दोज़ख पर हुज्जत करने वालों को आगाह करता है. कुरान से इन्हिराफ़ करने वालों का बुरा अंजाम है, ग़रज़ ये कि दस आयातों तक अल्लाह कि कुरानी तान छिडी रहती है जिसका कोई नतीजा अख्ज़ करना मुहाल है.
"सूरह आले इमरान ३ तीसरा परा आयात (16-26)

अल्लाह की जुग्राफियाई मालूमात और क़ुदरत की राज़दारी के बारे में देखें। उम्मी मुहम्मद का तकमील करदा अल्लाह कहता है - - -
" कि वोह रात को दिन में दाखिल कर देते हैं और दिन को रात में. वोह जानदार चीज़ों को बेजान से निकाल लेता है (जैसे अंडे से चूजा) और बे जान चीज़ों को जानदार से निकाल लेता है (जैसे परिंदों से अंडा)
"सूरह आले इमरान ३ तीसरा परा आयात (27)
इस बात को मुहम्मद कुरआन में बार बार दोहराते हैं मगर आज के दौर में ओलिमा इस बात को जाहिल अवाम के आगे भी नहीं बयान करते, न ही अपनी तहरीर में कहीं इस आयत को छूते हैं. मगर मिस्कीन हिंदी हर रोज़ अपनी नमाजों में ज़रूर इस जेहालत को पढ़ते हैं। सोचिए कि जो शख्स यूनानी साइंस दानो सुकरात और अरस्तु से सदियों बाद पैदा हुवा हो उसकी समाजी जानकारी इतनी भी न हो कि रात और दिन कैसे होते है और अंडा जो परिन्दे के पेट से पैदा होता है वह जानदार होता है, जाहिलों के सरदार मोहम्मद अल्लाह के रसूल बने बैठे हैं. मुसलमानों के ये बद तरीन दुश्मन जो मुसल्मानो को जिंदा नोच नोच कर खा रहे हैं, ऐसे गाऊदी को सर्वर कायनात जैसे सैकडों लक़ब से नवाजे हुवे हैं. 

*यहूदियों का खुदा यहुवा हमेशा यहूदियों पर मेहरबान रहता है, गाड एक बाप की तरह हमेशा अपने ईसाई बेटों को मुआफ़ किए रहता है, ज़्यादह तर धार्मिक भगवान दयालु होते हैं, बस की एक मुसलमानों का अल्लाह है जो उन पर पैनी नज़र रखता है। वोह बार बार इन्हें धमकियाँ दिए रहता है। हर वक़्त याद दिलाता है रहता कि वह बड़ा अज़ाब देने वाला है। सख्त बदला लेने वाला है. चाल चलने वाला वाला है. गर्दन दबोचने वाला है. क़हर ढाने वाला है. वह मुसलमानों को हर वक़्त डराए रहता है. उसे डरपोक बन्दे पसंद हैं, बसूरत दीगर उसकी राह में जेहादी. वोह मुसलमानों को महदूद होकर जीने की सलाह देता है, जिस की वजह से हिदुस्तानी मुस्लमान कशमकश की ज़िन्दगी जीने पर मजबूर हैं. इन्हें मुल्क में मशकूक नज़रों से देखा जाए तो क्यूँ न देखा जाए ? 
देखिए अल्लाह कहता है - - -
''मुसलमानों को चाहिए कुफ्फारों को दोस्त न बनाएं, मुसलमानों से तजाउज़ करके जो शख्स ऐसा करेगा, वोह शख्स अल्लाह के साथ किसी शुमार में नहीं मगर अल्लाह तुम्हें अपनी ज़ात से डराता है." 
सूरह आले इमरान ३ तीसरा परा आयात (28)
इस कुरानी आयात को सुनने के बाद भारत की काफिर हिन्दू अक्सरीयत आबादी मुस्लिम अवाम को दोस्त कैसे बना सकती है? ऐसी कुरानी आयतों के पैरोकारों को हिन्दू अपना दुश्मन मानें तो क्यूँ न मानें? दुन्या के तमाम गैर मुस्लिम मुमालिक में बसे हुए मुसलमानों के साथ किस दर्जा ना आकबत अन्देशाना और ज़हरीला ये पैगाम है इसलाम का. 
मुस्लिम खवास और मज़हबी रहनुमा कहते हैं कि उनके बुजुर्गों ने पाकिस्तान न जाकर हिंदुस्तान जैसे सैकुलर मुल्क में रहना पसंद किया, इस लिए उन्हें सैकुलर हुकूक मिलने चाहिएं. सैकुलरटी की बरकतों के दावे दार ये लोग सैकुलर भी हैं और ऐसी आयात वाली क़ुरआन के पुजारी भी। इन्हीं की जुबान में - - -
" ये सब के सब हिदुस्तान के जदीद मुनाफिक हैं" 
इन से सावधान रहे हिद्स्तान।



जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Monday 8 June 2015

Soorah ale Imran 3 पार्ट २ (3-7)

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.
******************
सूरह आले इमरान ३ 
(दूसरी क़िस्त) 
मुसलमानों के साथ कैसा अजीब मज़ाक है कि उनका अल्लाह अपनी तमाम कार गुज़रियाँ खुद गिनवा रहा है वह भी उनका झूठा गवाह बन कर, उन का मुंसिफ बन कर। अफ़सोस का मुक़ाम ये है कि मुस्लमान ऐसे अल्लाह पर यक़ीन करता है। जब तक उसका यक़ीन पुख्ता है तब तक उसका ज़वाल भी यकीनी है. खुदा न करे वह दिन भी आ सकता है कि कहा जाय एक क़ौमे जेहालत उम्मते मुहम्मदी हुवा करती थी. 
तौरेत, इंजील, ज़ुबूर जैसी सैकडों तारीखी किताबें अपने वाजूदों को तस्लीम और तसदीक़ कराए हुए है, इन के सामने कुरआन हक़ीक़त में अल्लम गल्लम से ज्यादा कुछ भी नहीं. 
कुरआन का उम्मी मुसन्निफ़ सनद दे तौरेत, इंजील को तो तौरेत, इंजील की तौहीन है. 
कुरआन के मुताबिक मूसा पर आसमानी किताब तौरेत और ईसा पर आसमानी किताब इंजील नाज़िल हुई थी मगर इन दोनों की उम्मातें के पास इनकी मुस्तनद तारीख़ है. मूसा ने तौरेत लिखना शुरू किया जिसको कि बाद के नबी मुसलसल बढाते गए जो बिल आखीर ओल्ड टेस्टामेंट की शक्ल में महफूज़ हुई जोकि यहूदियों और ईसाइयों की तस्लीम शुदा बुनियादी किताब है. 
ईसा के बाद इस के हवारियों ने जो कुछ इस के हालात लिखे या लिखवाए वह इंजील है. दाऊद ने जो गीत रचे वह ज़ुबूर है.
सुलेमान और छोटे छोटे नबियों ने जो हम्दो सना की वह सहीफ़े हैं. 
यह सब किताबें आलमी स्कूलों, कालेजों, लाइबब्रेरिज में दस्तयाब हैं और रोज़े रौशन की तरह अयाँ हैं. बहुत तफसील के साथ सब कुछ देखा जा सकता है. 
ये किताबें मुक़द्दस ज़रूर मानी जाती हैं मगर आसमानी नहीं, सब ज़मीनी हैं, कुरआन इन्हें ज़बरदस्ती आसमानी बनाए हुए है, इन्हें अपने रंग में रंगने के लिए. 
इनकी मौजूदयत को कुरानी अल्लाह (इस्लामी सियासत के तहत) नकली कहता है.
इस की सजा मुसलामानों को चौदह सौ सालों से सिर्फ मुहम्मद की खुद सरी, खुद पसंदी और खुद बीनी की वज़ह से चुकानी पड़ रही है। 
बात अरब दुन्या की थी, समेट लिया पूरे एशिया अफ्रीका और आधे योरोप को. हम फ़िलहाल अपने उप महा द्वीप की बात करते हैं कि ये आग हम को एकदम पराई लग रही है जिसमे यह मज़हबी रहनुमा हम को धकेल रहे हैं. 
"सब कुछ संभालने वाले हैं. अल्लाह ने आप के पास जो कुरआन भेजा है वाकेअय्यत के साथ इस कैफ़ियत से कि वह तस्दीक करता है उन किताबों को जो इस से पहले आ चुकी हैं और इसी तरह भेजा था तौरेत और इंजील को."
सूरह आले सूरह आले इमरान ३ तीसरा परा आयत (3)
मुहम्मदी अल्लाह की वाकेअय्यत ऊपर बयां कर चुके हैं.
"जो लोग मुनकिर हैं अल्लाह ताला के आयतों के इन के लिए सजाए सख्त है और अल्लाह ताला गल्बा वाले हैं, बदला लेने वाले हैं.''
सूरह आले इमरान ३ तीसरा परा आयत (4) 
मुनकिर के लफ्जी माने तो होते हैं इंकार करने वाला, इन्सान या तो किसी बात का मुनकिर होता है या इक्रारी मगर लफ्ज़ मुनकिर का इस्लामी करण होने के बाद इसके मतलब बदल कर इसलाम कुबूल कर के फिर जाना वाला मुनकिर हो जाना है, 
ऐसे लोगों की सज़ा मोहसिन इंसानियत, सरवरे कायनात, मालिके क़ौनैन, हज़रात मुहम्मद मुस्तफ़ा, रसूल अकरम, सल्लललाहो अलैहे वालेही वसल्लम ने मौत फरमाई है. 
जो ताक़त कायनात पर ग़ालिब होगी, क्या वजह है कि वह हमारे हाँ न पर, हमारी मर्ज़ी पर, हमारे अख्तियार पर क्यों न गालिब हो, उसको मोहतसिब और मुन्तक़िम होने की ज़रुरत ही क्यूँ पड़ी.? 
ये क़ुरआन के उम्मी ख़ालिक का बातिल पैगाम है. खलिक़े हक़ीक़ी का नहीं हो सकता. 
मुसलमानों होश में आओ. कुरआन के बातिल एजेंट अपना कारोबार चला रहे हैं और कुछ भी नहीं. इन का कई बार सर क़लम किया गया है मगर ये सख्त जन फिर पनप आते हैं।
इसी तरह अरबों के मुश्तरका बुज़ुर्ब अब्राहम जो अरब इतिहासकारों के लिए पहला मील का पत्थर है, जिस से इंसानी समाज की तारीख़ शुरू होती है और जो फ़ादर अब्राहम कहे जाते है उनको भी मुहम्मद ने मुस्लमान बना लिया और उनका दीन इसलाम बतलाया। खुद पैदा हुए उनके हजारों साल बाद और अपने बाप को भी काफ़िर और जहन्नमी कहा मगर इब्राहीम अलैहिस्सलाम को जन्नती मुसलमान. काश मुसलमानों को कोई समझाए कि हिम्मत के साथ सोचें कि वह कहाँ हैं? एक लम्हे में ईमान दारी पर ईमान ला सकते है. मुस्लिम से मोमिन बन सकते हैं.
" जिसने नाज़िल किया किताब को जिस का एक हिस्सा वह आयतें हैं जो कि इश्तेबाह मुराद से महफूज़ हैं और यही आयतें असली मदार हैं किताब का. दूसरी आयतें ऐसी हैं जो कि मुश्तबाहुल मुराद हैं, सो जिन लोगों के दिलों में कजी है वह इन हिस्सों के पीछे हो लेते हैं. जो मुश्तबाहुल मुराद हैं, सो सोरिश ढूढने की ग़रज़ से. हालांकि इस का सही मतलब बजुज़ अल्लाह ताला के कोई नहीं जनता."
सूरह आले इमरान ३ तीसरा परा आयत (6+7) 
मुहम्मदी अल्लाह अपनी कुरानी आयातों की खामियों की जानकारी देता है कि इन में कुछ साफ़ साफ़ हैं और यही क़ुरआन की धुरी हैं और कुछ मशकूक हैं जिनको शर पसंद पकड़ लेते हैं. इस बात की वज़ाहत आलिमान क़ुरआन यूँ करते हैं कि क़ुरआन में तीन तरह की आयतें हैं---
१- अदना (जो साफ़ साफ़ मानी रखती हैं)
२- औसत (जो अधूरा मतलब रखती हैं)
३-तवास्सुत (जो पढने वाले की समझ में न आए और जिसको अल्लाह ही बेहतर समझे।)
सवाल उठता है कि एक तरफ़ दावा है हिकमत और हिदायते नेक से भरी हुई क़ुरआन अल्लाह की अजीमुश्शान किताब है और दूसरी तरफ़ तवस्सुत और औसत की मजबूरी ? 
अल्लाह की मुज़बज़ब बातें, एहकामे इलाही में तजाद, हुरूफ़े मुक़त्तेआत का इस्तेमाल जो किसी मदारी के छू मंतर की तरह लगते हैं। 
दर अस्ल कुरआन कुछ भी नहीं, मुहम्मद के वजदानी कैफ़ियत में बके गए बड का एह मज्मूआ है। इन में ही बाज़ बातें ताजाऊज़ करके बे मानी हो गईं तो उनको मुश्तबाहुल मुराद कह कर अल्लाह के सर हांडी फोड़ दिया है। 
वाज़ह हो कि जो चीजें नाज़िल होती हैं वह बला होती हैं. अल्लाह की आयतें हमेशा नाज़िल हुई हैं. कभी प्यार के साथ बन्दों के लिए पेश नहीं हुईं. कोई कुरानी आयत इंसानी ज़िन्दगी का कोई नया पहलू नहीं छूती, कायनात के किसी राज़ हाय का इन्क्शाफ़ नहीं करती, जो कुछ इस सिलसिले में बतलाती है दुन्या के सामने मजाक बन कर रह जाता है. बे सर पैर की बातें पूरे कुरआन में भरी पड़ी हैं, 
बस कि कुरआन की तारीफ, 
तारीफ किस बात की तारीफ उस बात का पता नहीं. 
इस की पैरवी मुल्ला, मौलवी, ओलिमाए दीन करते हैं जिन की नक़ल मुस्लमान भी करता है. आम मुस्लमान नहीं जानता की कुरआन में क्या है, खास जो कुछ जानते हैं वह सोचते है भाड़ में जाएँ, हम बचे रहें इन से, यही काफी है। 


यह आयत बहुत खास इस लिए है कि ओलिमा नामुराद अक्सर लोगों को बहकते हैं कि क़ुरआन को समझना बहुत मुश्किल है.


जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Saturday 6 June 2015

Soorah Aale Imran 3 (1 -2 )

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.
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सूरह आले इमरान ३ तीसरा पारा 
पहली किस्त
एक हदीस मुलहिज़ा फरमाएँ - - -
इस्लाम के दूसरे सूत्राधार अली मौला से रवायत है कि 
''एक ऊंटनी बद्र के जंगी माले-गनीमत(लूट)में मुझे मिली और एक रसूल ने तोह्फतन दी. इन दोनों को एक अंसार के सेहन में बाँध कर मैं सोंच रहा था कि इन पर अज़ख़ुर घास लाद कर लाया करूंगा और बेचूगा, इस तरह कुछ पैसा जमा कर के फातमा का वलीमा करूंगा जो कि अभी तक मुझ पर उधार था. 
इसी घर में हम्ज़ा बिन अब्दुल मतलब मुहम्मद के चचा शराब पी रहे थे, साथ में एक लौंडी ग़ज़ल गा रही थी जो कुछ इस तरह थी - - - 

चल ऐ हम्ज़ा इन मोटे ऊंटों पे जा,
बंधे हैं सेहन में जो सब एक जा,
चला इनकी गर्दन पे जल्दी छुरा,
मिला इनको तू खून में और लुटा,
बना इनके टुकड़ों से उम्दा जो हों,
गज़क गोश्त का हो पका और भुना। 
उसकी ग़ज़ल सुन कर हम्ज़ा ने तलवार उठाई और ऊटों की कोखें फाड़ दीं. अली यह मंज़र देख कर मुहम्मद के पास भागे हुए गए और जाकर शिकायत की, जहाँ ज़ैद बिन हार्सा भी मौजूद थे. तीनों अफराद जब हम्ज़ा के पास पहुंचे तो वह नशे में धुत्त था. उन सभों को देख कर गुस्से के आलम में लाल पीला हो रहा हो गया, बोला, 
'' तुम लोग हो क्या? मेरे बाप दादों के गुलाम हो.'' 
यह सुन कर मुहम्मद उलटे पाँव वापस हो गए
(देखें हदीस ''मुस्लिम - - - किताबुल अशर्बता'' + बुखारी १५७)
यह मुहम्मद का बहुत निजी मामला था, एक तरफ दामाद, दूसरी तरफ खुदा खुदा करके हुवा, मुसलमान बहादुर चचा हम्ज़ा ? होशियार अल्लाह के खुद मुख़्तार रसूल को एक रास्ता सूझा, 
दूसरे दिन ही अल्लाह की क़ुरआनी आयत नाज़िल करा दी कि शराब हराम हुई. 
मदीने में मनादी करा दी गई कि अल्लाह ने शराब को हराम क़रार दे दिया है.
जाम ओ पैमाना तोड़ दिए गए, मटके और खुम पलट दिए गए, 
शराबियों के लिए कोड़ों की सजाएं मुक़रर्र हुईं. 
कल तक जो शराब लोगों की महबूब मशरूब थी, उस से वह महरूम कर दिए गए. यकीनन खुद मुहम्मद ने मयनोशी उसी दिन छोड़ी होगी क्यूं कि कई क़ुरआनी आयतें शराबियों की सी इल्लत की बू रखती हैं. 
लोगों की तिजारत पर गाज गिरी होगी, मुहम्मद की बला से, उनका तो कौल थाकि सब से बेहतर तिजारत है जेहाद जिसमे लूट के माल से रातो रात माला माल हो जाओ. 
गौर करें की मुहम्मद ने अपने दामाद अली के लिए लोगों को शराब जैसी नेमत से महरूम कर दिया. शराब ज़ेहन इंसानी के लिए नेमत ही नहीं दवा भी है, दवा को दवा की तरह लिया जाए न के अघोरियों की तरह. शराब जिस्म के तमाम आज़ा को संतुलित रखती है आज की साइंसी खोज में इसका बड़ा योगदान है. यह ज़ेहन के दरीचों को खोलती है जिसमे नए नए आयाम की आमद होती है. इसकी लम्स कुदरत की अन छुई परतें खोलती हैं. शराब इंसान को मंजिल पाने के लिए मुसलसल अंगड़ाइयां अता करती है. 
आलमे इस्लाम की बद नसीबी है कि शराब की बे बरकती ने इसे कुंद जेहन, कौदम, और गाऊदी बना दिया है. इस्लाम तस्लीम करने के बाद कोई मुस्लिम बन्दा ऐसा नहीं हुवा जिस ने कि कोई नव ईजाद की हो. हमारे मुस्लिम समाज का असर हिन्दू समाज पर अच्छा खासा पड़ा है. इस समाज ने मुस्लिम समाज के रस्मो-रिवाज, खान पान, लिबासों, पोशाक, और तौर तरीकों को अपनाया और ऐसा नहीं कि सिर्फ हिन्दुओं ने ही अपनाया हो, मुसलामानों ने भी अपनाया। यूं कहें कि इस्लाम कुबूल करने के बाद भी अपने रस्मो रिवाज पर कायम रहे. मसलन दुल्हन का सुर्ख लिबास हो या जात बिरादरी. मगर सोमरस जो कि ऋग वेद मन्त्र का पवित्र उपहार है, हिदू समाज में हराम कैसे हो गया, 
मोदी का गुजरात इसे क्यूं क़ुबूल किए हुए है? 
गांधी बाबा इसके खिलाफ क्यूं सनके? 
यह तो वाकई आबे हयात है. 
किसी के लिए मीठा और चिकना हराम है तो किसी के लिए नमक और मिर्च. ज्यादा खाना नुकसान देह हो तो हराम हो जाता है और गरीब को कम खाना तो मजबूरी में हराम होता ही है. 
यह हराम हलाल का कन्सेप्ट ही इस्लामी बेवकूफियों में से एक है. 
हराम गिज़ा वह होती है जो मुफ्त और बगैर मशक्क़त की हो, 
दूसरों का हक हो लूट पाट की हो. 
मुसलमानों! 
माले गनीमत बद तरीन हराम गिज़ा है. 
आइए तीसरे पारे आले इमरान की बखिया उधेडी जाए - - - 

"अलम"
"सूरह आले इमरान ३ तीसरा परा आयत (1)
यह लफ्ज़ मोहमिल (यानी अर्थ शून्य) है जिसका मतलब अल्लाह ही जनता है. ऐसे हर्फों या लफ्ज़ों को कुरानी मंतिक़यों ने हुरूफे मुक़त्तेआत का नाम दिया है. यह सूरत के पहले आते हैं. यहाँ पर यह एक आयत यानी कोई बात, कोई पैगाम की हैसियत भी रखता है. इस अर्थ हीन शब्द के आगे + गल्लम लगा कर किसी अक्ल मंद ने इसे अल्लम गल्लम कर दिया, गोया इस का पूरा पूरा हक अदा कर दिया,
 अल्लम गल्लम. क़ुरआन का बेहतरीन नाम अल्लम गल्लम हो सकता है.
" अल्लाह तआला ऐसे हैं कि उन के सिवा कोई काबिल माबूद बनाने के नहीं और वह ज़िन्दा ओ जावेद है."
सूरह आले इमरान ३ तीसरा परा आयत (२)

यहाँ पर मैं फिर आप को एक बार याद दिला दूँ कि कुरआन कलाम अल्लाह नहीं कलाम मुहम्मद है, जैसा कि वह अल्लाह के बारे में बतला रहे हैं, साथ साथ उसकी मुशतहरी भी कर रहे हैं. इस आयत में बेवकूफी कि इत्तेला है. अल्लाह अगर है तो क्या मुर्दा होगा ? मुस्लमान तो मुर्दा खुदाओं का दामन थाम कर भी अपनी नय्या पार लगा लेता है. यह अल्लाह के ज़िन्दा होने और सब कुछ संभालने की बात मुहम्मद ने पहले भी कही है आगे भी इसे बार बार दोहराते रहेंगे.

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान