Sunday 25 August 2013

सूरह जासिया -४५-(1)

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.

सूरह जासिया -४५-(1)

मुहम्मदी अल्लाह तअज्जुब में है कि  इसके कारनामें ज़मीन से लेकर आसमान तक बिखरे हुए हैं, आख़िर लोग इसके क़ायल क्यूँ नहीं होते? मुसलमान कुरआन को सैकड़ों साल से यक़ीन और अक़ीदे के साथ पढ़ रहे हैं, नतीजा ए कार ये है कि इनके समझ में ये आ गया कि मुहम्मद के ज़माने में कुफ्फार खुदा के क़ुदरत के क़ायल न रहे होंगे. या मुशरिकों का दावा रहा होगा कि बानिए कायनात उनके देवी देवता रहे होंगे. ये महेज़ इनका वह्म है. मगर कुरान ऐसी छाप इनके ज़ेहनो पर छोड़ता है. कि ज़माना ए मुहम्मद में इंसान दुश्मने अक्ल रहा होगा. ये कुरानी प्रोपेगंडा से फैलाया हुवा वहिमा है. 
वह लोग आज ही की तरह मुख्तलिफ फ़िक्र और मुख्तलिफ नज़रयात के मालिक हुवा करते थे. वह अल्लाह को मानने वाले और उसकी क़ुदरत को मानने और जानने वाले लोग थे. मुहम्मद ने जिस अल्लाह की तशकील की थी, वह उनकी फ़ितरत और उनकी सियासत के एतबार से था, यानी  ज़लिम, जाबिर, जाहिल, मकर फरेब का पैकर, मुन्तकिम  झूठा और खुदसर जिसकी तर्जुमानी मुहम्मद ने कुरआन में की है. अपनी इस गंदी हांडी के अन्दर, वह उस अज़ीम ताक़त को बन्द करके पकाना चाहते हैं जिसे क़ुदरत कहते हैं और परोसना चाहते हैं उन लोगों को जिनको क़ुदरत ने थोड़ी बहुत समझ दी है या अपना ज़मीर दिया है. जब वह इस गलाज़त को खाने से इंकार करते हैं तो वह उन पर इलज़ाम लगाते हैं
" तअज्जुब है कि अल्लाह की क़ुदरत को तस्लीम ही नहीं करते."
इधर हम जैसे लोग तअज्जुब में हैं कि एक अनपढ़, मक्र पैगमरी का फ़ासिक़, अपने धुन में किस क़दर आमादा ए रुसवाई था कि हज़ारों मज़ाक बनने के बाद भी, फिटकारने  और दुत्कारने के बाद भी, बे इज्ज़त और पथराव होने के बाद भी, मैदान से पीछे हटने को तैयार न था. फ़तह मक्का के बाद फिर तो ये फक्कड़ों और लखैरों का रसूल जब फातेह बन कर मक्का में दाख़िल हुवा होगा तो शहर के साहिबे इल्म ओ फ़िक्र पर क्या गुजरी होगी . आँखें बन्द करके सब्र कर गए होंगे, अपनी आने वाली नस्ल के मुस्तक़बिल को सोच कर वह जीते जी मर गए होंगे.
दस्यों लाख इंसानों का क़त्ल तो इस्लाम ने सिर्फ़ पचास साल में ही का डाला. 

एक ही राग को मुहम्मद सूरह शुरू होने से पहले हर बार गाते हैं - - -

"ये नाज़िल की हुई किताब है, अल्लाह ग़ालिब हिकमत वाले की तरफ़ से."
सूरह जासिया -४५- आयत (२)

झूट को सौ बार बोलो मुहम्मद साहब! हज़ार बार बोलो, लाख बार बोलो, झूट; झूट ही रहेगा. चाहे जितना ज़ोर लगा कर बोलो, बहर हाल झूट झूट ही रहेगा. तुम्हारे चेले ओलिमा चौदह सौ सालों से झूट को दोहरा रहे हैं फिर भी झूट को सच्चाई में तब्दील नहीं कर पाए.
अल्लाह कहीं कोई बेहूदा आयत गढ़ता है? 
यही नहीं अल्लाह क्या बोलता भी है, 
सवाल ये उठता है कि मुहम्मदी अल्लाह क्या हो भी सकता है? 
जो दाँव पेंच की बातें करता है, फिर भी तुम्हारे जाल में फँसे इंसान आज फडफडा रहे हैं, तुम्हारे बारे में ज़बान खोलने पर मौत तक दे दी जाती हैं, बहुत मुनज्ज़म गिरोह बन गया है झूट का जो इंसानों को झूट को ओढने और बिछाने पर मजबूर किए हुए है. 

"आसमान में और ज़मीन और ज़मीन पर  ईमान वालों के लिए बहुत से दलायल हैं और तुम्हारे और उन हैवानात के पैदा करने में जिनको ज़मीन पर फैला रखा है, दलायल हैं उन लोगों के लिए जो यक़ीन रखते हैं एक के बाद दीगरे रात और दिन के आने जाने में और उस रिज़्क के बारे में जिसको अल्लाह ने आसमान से उतरा "
सूरह जासिया - आयत (३-५)

निज़ाम ए क़ुदरत पर सतही और वक़ूफ़ाना तजज़िया को रूहानियत की पुडिया में भर कर मुहम्मद सीधे सादे लोगों को बेच रहे हैं.

"और ये अल्लाह की आयतें हैं जो सहीह सहीह तौर पर हम आपको पढ़ कर सुनाते हैं, तो फिर अल्लाह और इसकी आयातों के बाद और कौन सी बात पर ये लोग ईमान लावेंगे. बड़ी खराबी होगी हर ऐसे शख्स के लिए जो झूठा और नाफरमान है."  
सूरह जासिया - आयत (६-७)

मुहम्मद की तर्ज़ ए गुफ्तुगू ही झूट होने की गवाह है कि वह अपनी गढ़ी आयातों को "सहीह सहीह तौर पर" जताने की कोशिश करते हैं.

"जो अल्लाह की आयातों को सुनता है, जब इसके रूबरू पढ़ी जाती हैं, फिर भी वह तकब्बुर करता हुवा, इस तरह अड़ा रहता है, जैसे उसने उनको सुना ही न हो. सो ऐसे शख्स को एक दर्द नाक अज़ाब की खबर सुना दीजिए. और जब वह हमारी आयातों में से किसी आयत की ख़बर पाता है तो इसकी हँसी उड़ाता है, ऐसे लोगों के लिए सख्त ज़िल्लत का अज़ाब है." 
सूरह जासिया -४५- आयत (८-९)

क़ुरआन की हकीक़त यही थी, यही है  आज भी है और यही हमेशा रहेगी. आप किसी मुसलमान को क़ुरआनी आयतें अनजाने में ही सुनाइए  कि फलाँ धर्म ये बात कहता है तो वह इसकी खिल्ली उडाएगा मगर जब उसको बतलइए कि ये बात कुरआन की है तो वह अपमा मुँह पीट पीट कर तौबा तौबा करेगा..
मेरे मज़ामीन को बहुत से लोग कहते थे कि जाने कहाँ से आएँ बाएँ शाएँ  का कुरआन पेश करता है ये मोमिन. जब मैं नोट लगाया - - -
तो सब की बोलती बंद हो गई.

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Sunday 18 August 2013

Soorah dukhan 44 (2)

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.

सूरह दुखान ४४ (2)

मैं अपने नज़रयाती मुआमले में، कुछ में कठोर हूँ इसके बावजूद मेरी आँखों में आँसू उस वक्त ज़रूर छलक जाते हैं जब मैं स्टेज पर इंसानियत को सुर्खुरू होते हुए देखता हूँ, मसलन हिन्दू -मुस्लिम दोस्ती की नजीर हो, या फिर फ़र्ज़ के सवाल पर इंसानियत के लिए मौत को मुँह जाना. मेरे लम्हात में ऐसे पल भी आते हैं कि विदा होती हुई बेटी को जब माँ लिपटा कर रोती है तो मेरे आँसू नहीं रुकते, गोकि मैंने अपनी बेटियों को क़ह्क़हों के साथ रुखसत किया. इंसान की मामूली भूल चूक को भी मैं नज़र अंदाज़ कर देता हूँ. क्यूंकि उम्र के आगोश में बहुत सी लग्ज़िशें हो जाती हैं. मैं कि एक अदना सा इंसान, समझ नहीं पाता कि लोग छोटी छोटी और बड़ी बड़ी मान्यताएँ क्यूँ गढ़े हुए हैं और इन साँचों में क्यूँ ढले हुए है जब कि क़ुदरत उनका मार्ग  दर्शन हर मोड़ पर कर रही है.
बड़ी मान्यताओं  में अल्लाह, ईश्वर और गाड   आदि की मान्यता हैं. अगर वह इनमें से कोई होता तो यकीनी तौर पर इंसान को छोड़ कर हर जीव किसी न किसी तरह से उसकी उपासना करता. हर जीव पेट भरने के बाद उमंग, तरंग और मिलन की राह पर चल पड़ता है, न कि कुदरत की उपासना की तरफ. कुदरत का ये इशारा भी इंसान को जीने की राह दिखलाता है जिसे उल्टा ये अशरफुल मख्लूकात तआने के तौर पर उलटी बात ही करता है - - - इंसान हो या हैवान?
छोटी मान्यताएं हैं यह ज़मीन के जिल्दी रोग स्वयंभू औतार, पयम्बर, गुरु, महात्मा और दीनी रहनुमा.
अगर इन छोटी बड़ी मान्यताएं और कदरों से इंसान मुक्त हो जाय तो वह मानव से महा मानव बन सकता है, जिस दिन इंसान महा मानव बन जायगा ये धरती जन्नत नुमा बन जायगी.
दूसरे ख़लीफ़ा उमर के बेटे अब्दुल्ला से रवायत है कि मुहम्मद ने एक शख्स का हाथ अपने हाथों से काटा, जिसका जुर्म था तीन पैसे की मालियत की चोरी.(मुस्लिम - - - किताबुल हुदूद)
ऐसे ही मुहम्मद ने अपने ही क़बीले की एक खातून का हाथ क़लम कर दिया था, बहुत मामूली चोरी पर.ये तो थी इसकी पैगम्बरी की सख्त मिसाल, 
हैरत का मुक़ाम ये है कि यही शख्स कहता है कि 
"जेहाद में मारे जाने वाली बेकुसूर औरतों और बच्चो को मारना जायज़ है क्यूँकि काफ़िर मिन जुमला काफ़िर होते हैं.''
यह तो हदीसों की बातें थीं कि जिन पर मुसलामानों का एक गुमराह तबक़ा अहले हदीस बना हुवा है, अब चलिए देखें क़ुरआन की नसीहतें क्या कहती हैं - - -

"बल्कि वह शक में हैं और खेल में मसरूफ़ हैं, सो आप उस रोज़ का इंतज़ार करें कि आसमान की तरफ़  एक नज़र आने वाला धुवाँ पैदा हो, जो इन सब लोगों पर आम हो जाए. ये एक दर्द नाक सज़ा है. ऐ हमारे रब ! हम से इस मुसीबत को दूर कर दीजिए, हम ज़रूर ईमान ले आएँगे. इनको कब नसीहत होती है हालांकि इनके पास ज़ाहिर शान का पैग़म्बर आया फिर भी ये लोग इससे सरताबी करते रहे और यही कहते रहे कि सिखाया हुआ है और दीवाना है. हम चंदे इस अज़ाब को हटा देंगे तुम फिर इसी हालत में आ जाओगे.
जिस रोज़ हम बड़ी सख्त पकड़ पकड़ेंगे, हम बदला लेंगे." 
सूरह दुखान ४४-  आयत (९-१६)
अल्लाह के रसूल की पुर फरेब बातों को ख़ातिर में लाइए मगर उनकी पैगम्बरी को मद्दे नज़र रखते हुए. क्या इस मक्कारी को पैगम्बरी पाने का हक़ हासिल होना चाहिए?

"ये लोग कहते हैं कि आख़िर हालत बस यही, हमारा दुनिया में मरना है और दोबारा दुनिया में न ज़िन्दा होंगे. सो ऐ मुसलमानों! अगर तुम सच्चे हो तो हमारे बाप दादाओं को ला मौजूद करो. ये लोग ज़्यादः ही बढे हुए है. यातिब्बा की कौम और जो कौमें इससे पहले गुज़रीं, हमने उन सब को हलाक़ कर डाला, वह नाफ़रमान थे."
सूरह दुखान ४४-  आयत (३५-३७)
मुहम्मद के लचर मिशन के सामने जब मुखालिफ उनसे ठोस सवाल करते है तो वह खोखले जवाब के साथ फ़रार अख्तियार करते हैं. अक्सर वह सवालों का जवाब यूँ देते हैं
 "ये लोग ज़्यादः ही बढे हुए है. "
मुहम्मदी अल्लाह को हलाकुल्लाह कहा जा सकता है. यातिब्बा का नाम कहीं से सुन लिया होगा अल्लाह के अनपढ़ रसूल ने.

"बेशक ज़क़ूम का दरख़्त बड़े मुजरिमों को खाना होगा, जो तेल की तलछट जैसा होगा. वह पीप में ऐसा घुलेगा जैसे तेज़ गरम पानी खौलता है. हुक्म होगा, इसको दोज़ख के बीचो बीच घसीटते हुए ले जाओ, फिर इसके सर पे तकलीफ देने वाला गरम पानी छोड़ो. ले चख तू बड़ा मगरूर, मुकर्रम था. ये वही चीज़ है जिस पर तुम ज़क किया करते थे."
सूरह दुखान ४४-  आयत (४२-५०)
इन आयतों में हर नुक्ते पर अपने आप में छेड़ए कर देखिए कि मुहम्मद कितने बेतुके थे.

"बेशक अल्लाह से डरने वाले अमन की जगह पर होंगे. यानी बागों में और नहरों में. वह लिबास पहनेंगे बारीक और दबीज़ रेशम का, आमने सामने बैठे होंगे. ये बात इसी तरह है और इनका गोरी गोरी बड़ी बड़ी आँखों वालियों से ब्याह करेंगे. वहाँ इत्मीनान से हर क़िस्म का मेवा मंगाते होंगे. वहाँ बजुज़ इस मौत के जो दुन्या में हो चुकी थी, और मौत का ज़ाइका भी नहीं चखेंगे. और अल्लाह इन्हें दोज़ख से बचा लेगा."
सूरह दुखान ४४- परा २५ आयत (५१-५६)

हैरानी होती है कि मुसलमान इन क़ुरआनी बातों पर पूरा पूरा यक़ीन करते हैं और इस ज़िन्दगी को पाने के लिए हर उम्र में हराम मौत मरने को तैयार रहते हैं. बेवक्त हराम मौत मरना, अपने माँ बाप और अज़ीज़ों को दाग़े मुफ़ारिक़त दे जाना, कुदरत की बख्शी हुई अपनी इस ज़िन्दगी से हाथ धो लेना, इन हक़ीक़तों पर कभी गौर ही नहीं करते. ज़िन्दगी के कारनामों को अंजाम देने में मौत को जाए तो शहादत है, मुहम्मद की सुझाई हुई जन्नत पर लानत है कि इस के लिए मर जाए तो हिमाक़त है. बेमकसद मुसलसल जीते रहना ही मौत से बदतर है.


जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Sunday 11 August 2013

Soorah dukhan 44 (1)

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.

सूरह दुखान ४४- परा २५ (1)

एक दिन मुहम्मद अपने मरहूम  दोस्त इब्ने सय्यास के घर की तरफ़ चले, पास पहुँचे तो देखा कि इब्ने सय्यास का बेटा मैदान में अपने दोस्तों के साथ खेल रहा था. उसे मुहम्मद की आमद की ख़बर न हुई, जब मुहम्मद ने उसे थपकी दी तो उसने आँख उठ कर देखा.
मुहम्मद ने उससे पूछा कि -
" तू इस बात की गवाही देता है कि मैं अल्लाह का रसूल हूँ?"
उसने मुहम्मद की तरफ़ आँख उठा कर देखा और कहा,
 " हाँ मैं इस बात की गवाही देता हूँ कि आप उम्मियों के रसूल हैं."
इसके बाद उसने मुहम्मद से पूछा -
"क्या आप इस बात की गवाही देते हो  कि मैं अल्लाह का रसूल हूँ?"
मुहम्मद ने उसके सवाल पर लापरवाई बरतते हुए कहा,
"मैं अल्लाह के तमाम बर हक़ रसूलों पर ईमान रखता हूँ "
फिर उससे पूछा -
"तुझको क्या मालूम पड़ता है?"
उसने कहा -
"मुझे झूटी और सच्ची दोनों तरह की ख़बरें मालूम पड़ती हैं"
मुहम्मद ने कहा -
"तुझ पर मुआमला मख्लूत हो गया."
फिर बोले -
"मैंने तुझ से पूछने के लिए एक बात पोशीदा रख्खी है?"
वह बोला -
"वह दुख़ है"
मुहम्मद बोले -
"दूर हो! तू अपने मर्तबा से हरगिज़ तजाउज़ न कर सकेगा."
साथी ख़लीफ़ा उमर बोले -
"या रसूलिल्लाह अगर इजाज़त हो तो मैं इसे क़त्ल कर दूं"
मुहम्मद बोले -
"अगर ये वही दज्जाल है तो तुम इसे क़त्ल करने में क़ादिर नहीं हो सकोगे और अगर ये वह दज्जाल नहीं है तो इसे क़त्ल करने से क्या हासिल?"
उस बहादर लड़के का नाम था
" ऐसाफ़"
उसने किस बहादरी से कहा है -
"वह दुख़ है"
दुख़ के मानी धुवाँ होता है
मुहम्मद के लिए इससे बड़ा सच हो ही नहीं सकता.
ऐसाफ़ ! तुम पर मोमिन का सलाम पहुँचे
शायद इसी दुख़ की सच्चाई पर इस सूरह दुखान का नाम रख्खा गया हो.
अब पढ़िए अल्लाह के धुवाँ धार झूट का फ़साना - - -

"हा मीम"
जादू गरों का मंतर, लोगों की तवज्जो खींचने के लिए. दुष्ट ओलिमा ने इसमें भी अल्लाह का कोई पैगाम पोशीदा पाया है.
सूरह दुखान ४४- परा २५ आयत (१)

"क़सम है इस किताब वाज़ह  की कि हमने इसको बरकत वाली रात को उतारा है और हम आगाह करने वाले थे, इस रात में हर हिकमत वाला मुआमला हमारी पेशी से हुक्म होकर तय किया जाता है. हम बवजेह रहमत के जो आपके रब की तरफ़ से हुई है, आप को पैगम्बर बनाने वाले थे. बेशक वह बड़ा सुनने वाला और बड़ा जानने वाला है."
सूरह दुखान ४४- परा २५ आयत (२-६)

कहते हैं क़ुरआन  में कोई फ़र्क या बढ़त घटत नहीं हो सकती यहाँ तक कि ज़ेर ज़बर की भी नहीं.  वह तमाम इबारत क़ुरआन बनती गई जो मुहम्मद मदहोशी में बाईस सालों तक बोले और जितना होश में बोले अपनी उम्मियत के साथ वह हदीसें बन गईं. मदहोशी के आलम में बकी गई आयते कुरानी में तर्जुमा निगारों को बड़ी गुंजाईश है कि अर्थ हीन जुमलों को मनमानी करके सार्थक बना लें मगर हदीसों को जस का तस रखा गया. जिसमें मुहम्मद के किरदार का आइना है.
ऊपर की आयातों में मदहोशी है कि मुहम्मद जो कुछ कहना चाह रहे है, कह नहीं पा रहे. अल्लाह के रसूल कभी अल्लाह बन कर बातें करते हैं, तो कभी उसके रसूल बन जाते हैं. जहाँ अटक जाते है, वहां कलाम को छोड़ कर आगे बढ़ जाते हैं. कहते हैं - "आप को पैगम्बर बनाने वाले थे. बेशक वह बड़ा सुनने वाला और बड़ा जानने वाला है." आप वह हो गया.
मुलाहिजा हो -" इस रात में हर हिकमत वाला मुआमला हमारी पेशी से हुक्म होकर तय किया जाता है"
कुरआन कभी माहे रमजान में उतरता है और कभी बरकत वाली रात  शब क़दर को, वैसे मुहम्मद बाईस सालों तक क़ुरआनी उल्टियाँ करते रहे.




जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Sunday 4 August 2013

सूरह ज़ुखरुफ़ -४३ (२)

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.

सूरह ज़ुखरुफ़ -४३ 
(२)

आइए मुहम्मदी अल्लाह का ताबूत खोला जाए - - -

"और आप के रब की रहमत बदरजहा से बेहतर है जिसको ये लोग समेटते फिरते हैं, 
और अगर ये बात न होती कि तमाम आदमी एक ही तरह के हो जाएँगे,
तो जो लोग अल्लाह के साथ कुफ्र करते हैं,
उनके लिए उनके घरों की छतें हम चाँदी की कर देते.
और जीने भी जिस पर वह चढ़ कर जाते हैं,
और उनके घरों के कंवाड़े भी और तख़्त भी जिस पर तकिया लगा कर वह बैठते हैं,
और सोने के भी, और ये सब कुछ भी नहीं,
सिर्फ़ दुनयावी ज़िन्दगी की कुछ रोज़ की कामरानी है,
आखरत आप के रब के यहाँ खुदा तरसों के लिए है."
सूरह ज़ुखरुफ़ -४३ - पारा -२५ - आयत (३२-३५)

उम्मी मुहम्मद क्या बात कहना चाहते हैं? नतीजा अख्ज़ करना मोहल है. बात काफ़िरों के हक़ में जाती है जिसे मुतराज्जिम ने ब्रेकट में अपनी बात रख कर अल्लाह की मदद करके रसूल के हक में किया हुवा है. ऐसे आयतों को मुसलमान कहते हैं कि कुरआन का एक जुमला भी इंसान बना नहीं सकता. बेशक इंसान तो कभी नहीं बनाएगा ऐसा कलाम मगर पागल आदमी ऐसा कलाम दिन भर बडबडाया करता है.
सब लोग बराबर होते तो इंसान के लिए इससे बेहतर क्या हो सकता था, मगर अल्लाह के लिए मुश्किल खडी हो जाती कि उसको ऐसे रसूल कहाँ मयस्सर होते.
कुफ्फर ने तो अपने घरों  की छतें, जीनें और कंवाड़े तो चांदी के कर लिए हैं और मुसलमान फ़क़त अल्लाह हू, अल्लाह हू में मुब्तिला है. 

"और जो शख्स अल्लाह की नसीहत से अँधा हो जाए, हम इस पर एक शैतान मुसल्लत कर देते हैं, सो वह इनके साथ हो जाता है, और वह इनको राहे हक़ से रोकता है."
सूरह ज़ुखरुफ़ -४३ - पारा -२५ - आयत (३७)

तो अल्लाह सब के बड़ा शैतान हुवा जो इंसान के पीछे शैतान लगा देता है, जो उसे बुरी राहों पर चलाता है.
मुसलामानों! यक़ीन करो कि तुम्हारा अल्लाह ही शैतान है जो तुमको तरक़क़ी  नहीं करने देता.
आयत में दो अल्लाह के वजूद पर गौर करें.

"तो बस अगर हम आप को उठा लें तब भी वह बदला लेने वाला है."
सूरह ज़ुखरुफ़ -४३ - पारा -२५ - आयत (४१)

मुहम्मद की लगजिश देखिए कि यहाँ पर अल्लाह उनसे कहता है कि "अगर हम आप को उठा लें तब भी वह बदला लेने वाला है" 
अल्लाह हाज़िर, अल्लाह गायब की बात करता है.
अल्लाह मुहम्मद को ज़बान देता है कि आपके मरने के बाद भी वह उनके दुश्मनों से इन्तेकाम लेगा.गोया मुहम्मद मरने के बाद भी अपना भूत इंसानों पर तैनात कर रहे हैं.

"वह लोग शरारत से भरे थे, फिर जब उन्हों ने हमें ग़ुस्सा दिला दिया तो हम ने उन से बदला लिया और जिंदा डुबो दिया"
सूरह ज़ुखरुफ़ -४३ - पारा -२५ - आयत (५५)

ऐसा अल्लाह है तुम्हारा ऐ मुसलमानों. उसको भड़काया भी गया कि उसको तैश आ जाए. और तैश में आकर इंसानों को पानी में डुबो भी दिया. यानी वह ज़रा सा बेवक़ूफ़ भी है, कम अक्ल पहेलवान जैसा.
दर अस्ल ऐसी फ़ितरत मुहम्मद की ज़रूर थी.

 "जो हमारी बातों पर ईमान लाए थे? ? ?
(उनका अंजाम ये रहा कि तुम देख रहे हो कि - - -बतलाना भूल गया)
तुम और तुम्हारी बीवियां खुश खुश जन्नत में दाख़िल हो जाओ,
इनके पास सोने की रेकाबियाँ और गिलास ले जाएँगे, और वहाँ हर चीज़ मिलेगी.
जिसको दिल चाहेगा, जिससे आँखों को लज्ज़त होगी,
और तुम यहाँ हमेशा रहोगे
जन्नत है जिसके तुम मालिक बनाए गए, अपने आमाल के एवाज़,
तुम्हारे लिए इसमें बहुत से मेवे हैं जिन में से खा रहे हो."
सूरह ज़ुखरुफ़ -४३ - पारा -२५ - आयत (६९-७३)

किस अंदाज़ की चिरकुट गुफतुगू है अल्लाह हिकमत वाले की?
क्या औरतों के आमाल का हिसाब किताब नहीं होता? क्या वह अपने शौहरों के आमाल के सिलह में, अपने शौहरों के हमराह जन्नत में दाख़िल होंगी? वैसे मुहम्मद तो उनको मुकम्मल इंसान भी नहीं मानते थे, कहते थे कि एक दिन उनको दोज़ख दिखलाई गई जहाँ कसरत से औरतें थीं.(एक हदीस)
"बेशक नाफ़रमान लोग अज़ाबे दोज़ख में हमेशा रहेगे. वह उनसे हल्का न किया जाएगा और वह उसी में मायूस पड़े रहेंगे और हमने उन पर ज़ुल्म नहीं किया लेकिन खुद ही ज़ालिम थे. पुकारेंगे ऐ मालिक तुम्हारा परवर दिगार हमारा काम ही तमाम करदे और जवाब देगा कि तुम हमेशा इसी हाल में रहो. हमने सच्चा दीन तुम्हारे पास पहुँचाया लेकिन तुम में से अक्सर आदमी सच्चे दीन से नफ़रत करते थे."
सूरह ज़ुखरुफ़ -४३ - पारा -२५ - आयत (७४-७५)

ज़ालिम मोहम्मद की एक अदा ये भी है कि इस बात को बार बार दोहराते हैं कि
"हमने उन पर ज़ुल्म नहीं किया लेकिन खुद ही ज़ालिम थे" 
वह इतनी सी बात पर ज़ालिम हो गए कि तुम्हारे झूट को नहीं माना और तुम पैदायशी  ज़ालिम जो अपने ही बुजुर्गों, रिश्ते दारों और और अज़ीज़ों को मार के तीन दिनों तक उनकी लाशों को सड़ने दिया फिर एक एक को नाम और उनकी वल्दियत के साथ ताने देते हुए बदर के कुँए में उनकी लाशें फिंकवा दिया था.(हदीसें देखिए)
इस आयत में देखिए कि कुफ्फार किस तरह से गिडगिडाते हैं और मुहम्मदी अल्लाह पसीजने के बजाए और सख्त हुवा जा रहा है. मुहम्मद के झूठे दीन के प्रचारक बारहा इस धरती पर ज़िल्लत की मौत पा चुके है मगर ये अपनी माँ के खसम ओलिमा कुकुरमुत्ते की तरह पैदा होकर फिर से इंसान को बहकाना शुरू कर देते है.
वाकई ये मुहम्मदी दीन काबिले नफ़रत है.

"हाँ क्या उन लोगों का ख़याल है कि हम उनकी चुपके चुपके बातों को और मशविरे को नहीं सुनते हैं और हमारे फ़रिश्ते उनके पास हैं, वह भी लिखते हैं"
सूरह ज़ुखरुफ़ -४३ - पारा -२५ - आयत (८०)

देखिए कि मुहम्मद के चुगल खोर सहाबी किराम को मुहम्मद फरिश्तों का दर्जा दे रहे हैं.

"सो उनको आप शोगल और तफ़रीह में पड़ा रहने दें यहाँ तक कि उनको अपने इस दिन के साबेक़ा वाक़े हो जिसका इनसे वादा किया गया है."
सूरह ज़ुखरुफ़ -४३ - पारा -२५ - आयत (८३)
बद नियत रसूल कहता है कि इनको मश्गलों में पड़ा रहने दो ताकि हम उनसे बदला ले सकें.कि इसका वादा पूरा हो, जो इसने  इंसानियत के साथ किया था.

"और इसको रसूल के इस कहने की भी खबर है कि ऐ मेरे रब ये ऐसे लोग हैं कि ईमान नहीं लाते तो आप इनसे बे रुख रहिए और यूं कह दीजिए कि तुमको सलाम करते हैं तो तुम को भी मालूम हो जायगा."
सूरह ज़ुखरुफ़ -४३ - पारा -२५ - आयत (८९)

आयत में बेसिर पैर की बातें ही नहीं बे सिर पैर की भाषा भी है.


जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान