Thursday 28 July 2011

सूरह आले इमरान ३

मेरी तहरीर में - - -

क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।

क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.

सूरह आले इमरान ३


नवीं किस्त

मुहम्मद की एक फ़रामूदा हदीस मुलाहिज़ा हो - - -

मुहम्मद कालीन अबू ज़र कहते हैं कि हुज़ूर गिरामी सल लाल्लाहो अलैह वसस्सल्लम (अर्थात मुहम्मद) ने मुझ से फ़रमाया,

''अबू ज़र तुम को मालूम है यह आफताब (डूबने के बाद) कहाँ जाता है?

मैं ने अर्ज़ किया खुदा या खुदा का रसूल ही बेहतर जानता है,

फ़रमाया यह अर्श पर इलाही के सामने जाकर सजदा करता है और दोबारा तुलू (प्रगट) होने कि इजाज़त तलब करता है. इसको इजाज़त दी जाती है, लेकिन क़रीब क़यामत में यह सजदा की बदस्तूर इजाज़त तलब करेगा, लेकिन इसका सजदा कुबूल होगा न इजाज़त मिलेगी, बल्कि हुक्म होगा कि जिस तरफ से आया है उसी तरफ को वापस हो जा. चुनांच वह मगरिब (पश्चिम) से तुलू होगा. ''(बुखारी १३०३) +(सही मुस्लिम - - किताबुल ईमान)

तो मियाँ मुहमम्म्द इस किस्म के लाल बुझक्कड़ थे और अबू ज़र जैसे उल्लू के पट्ठे जो आँख तो आँख मुँह बंद करके सुनते थे, यह भी पूछने की हिम्मत न करते कि सूरज के हाथ पांव सर कहाँ है कि वह सजदा करता होगा?

मुहम्मद से सदियों पहले यूनान और भारत में आकाश के रहस्य खुल चुके थे। अफ़सोस का मुकाम यह है कि आज भी मुसलमान अहले हदीस लाखों की तादाद में इस गलाज़त को ढो रहे हैं।मैं एक गाँव में हुक्के के साथ पीने का मशगला अपने दोस्तों के साथ कर रहा था कि एक मुल्ला जी नमूदार हुए. हमने एख्लाकन उन्हें हुक्के कि तरफ इशारह करके कहा आइए नोश फरमाइए. हुक्के को धिक्कारते हुए बोले,

हुज़ूर ने फ़रमाया है

"हुक्का, बीडी, सिगरेट पीने वालों के मुंह से क़यामत के दिन शोले निकलेंगे''

लीजिए हो गई एक ताज़ा हदीस, जी हाँ! मुहम्मद के नाम से हर कठ मुल्ला रोज़ नई नई हदीसें गढ़ता है। मुहमाद के ज़माने में हुक्का, बीडी, सिरेट कहाँ थे?


अब शुरू करता हूँ अल्लाह के नाम से मुहम्मद का राग माला - - -

" और उन से कहा गया आओ अल्लाह की रह में लड़ना या दुश्मन का दफ़ीअ बन जाना। वह बोले कि अगर हम कोई लडाई देखते तो ज़रूर तुम्हारे साथ हो लेते, यह उस वक़्त कुफ़्र से नजदीक तर हो गए, बनिस्बत इस हालत के की वह इमान के नज़दीक तर थे।"
सूरह आले इमरान ३ तीसरा परा आयात (168)
ये जज़्बाए जेहाद ओ क़त्ताल ओ जंग और लूट पाट, जज़्बए ईमाने इस्लामी का अस्ल है.
चौदह सौ सालों से यह इस्लामी ईमान के भूखे और इंसानी खून के प्यासे, भूके भेडिए मौजूदा तालिबान इंसानी आबादी को सताते चले आ रहे हैं. यह सब अपने आका हज़रात मुहम्मद(+अल्काबात) की पैरवी करते हैं.

मुहम्मद पुर अमन किसी बस्ती पर हमला करने के लिए लोगों को वर्गाला रहे हैं, जिस पर लोगों का माकूल जवाब देखा जा सकता है जिसे मुहम्मद उनको कुफ्र के नज़दीक बतला रहे हैं. अफ़सोस कि भारतीय लोकतंत्र इस्लामी तबलीग के ज़हर को चीन की तरह नहीं समझ पा रही, इसके साथ समस्या ये है कि इसे पहले हिंदुत्व के बड़े देव के नाक में नकेल डालनी होगी।



" ऐसे लोग हैं जो अपने भाइयों के निस्बत बैठे बातें बनाते हैं कि वह हमारा कहना मानते तो क़त्ल न किए जाते, आप कहिए कि अच्छा अपने ऊपर से मौत को हटाओ, अगर तुम सच्चे हो."सूरह आले इमरान ३ तीसरा परा आयात (170)
मुहम्मद नंबर१ कठ मुल्ला थे, कठ मुल्लाई दुन्या में शायद मुहम्मद की ही ईजाद है.

जंग ओहद में मरने वालों के पस्मानदागान के आँखें खुश्क नहीं हो पा रही हैं और मुहम्मद उन के ज़ख्मों पर कठ मुल्लाई का नमक छिड़क रहे हैं, उनके गुंडे उनके साथ हैं, उनके सभी रिश्ते दार सूबों के हुक्मरान बन कर जेहादी वुसअत की मौज उड़ा रहे हैं.

बे फौफ रसूल जो बोलते है वह अल्लाह की ज़बान होती है.

सूरह के आखीर में अल्लाह अपने शिकार मुसलामानों को जेहादी लूट मार में लपेटने की भरपूर कोशिश कर रहा है. इसके दांव पेंच ऐसे हैं जैसे कोई सोबदे बाज़ किसी गंवारू बाज़ार में रंगीन राख को अक्सीर दवा बता कर बेच रहा हो जो खाने, पीने, लगाने और सूंघने, हर हाल में फायदे मंद है. कुरानी आयातों का भी यही हाल है. ओलिमा का प्रोपेगंडा है कि इसमें तमाम हिकमत है, यह कुरआने हकीम है,

अगर हिकमत कहीं नज़र न आए तो इसे पढ़ कर मुर्दों को बख्शो सब उसके आमाल ए बद मग्फेरत की नज़र हो जाएगे, यह बात अलग है की अल्लाह बन्दे की किस्मत उसके हमल में ही लिख देता है. इस तालिबानी अल्लाह के हाथों से जिब्रीली तलवार, शैतानी ढाल, दोज़ख के अंगार और जन्नत के लड्डू छीन लिए जाएँ तो यह कंगाल हो जाए.



"और जो लोग कुफ्र कर रहे हैं वह ये खयाल हरगिज़ न करें कि हमारा इन को मोहलत देना बेहतर है। हम उनको सिर्फ इस लिए मोहलत दे रहे हैं कि ताकि जुर्म में उनके और तरक्की हो जाए और उन को तौहीन आमेज़ सजा होगी।''
सूरह आले इमरान ३ तीसरा परा आयात (178)
किर्द गारे कायनात नहीं किसी क़स्बे का बनिया हुआ जो लोगों को कर्ज़ दे कर सूद बढ़ते रहने का इन्तेज़ार कर रहा है. आखीर में मन मानी तौर पर बक़ाया वसूल कर लेगा. दुन्या से जेहालत अलविदा हुई, सूद, ब्याज और मूल धन की शक्लें बदलीं, न बदल पाई तो बेचारे मुसलमानों की तक़दीर में लिखी हुई ये कुरान।
"कुल्ले नफ़्सिन ज़ाइक़तुलमौत''-हर जानदार को मौत का मज़ा चखना है, और तुम को तुम्हारी पूरी पूरी पादाश क़यामत के रोज़ ही मिलेगी, सो जो शख्स दोज़ख से बचा लिया गया और जन्नत में दाखिल किया गया, सो पूरा पूरा कामयाब वह हुवा। और दुनयावी ज़िन्दगी तो कुछ भी नहीं, सिर्फ धोके का सौदा है।"सूरह आले इमरान ३ तीसरा परा आयात (185)मुसलमानों की पस्मान्दगी की कहानी बस इसी आयत से शुरू होती है और इसी पर ख़त्म. वह मौत के अंजाम को हर हर साँस में ढोता है मुस्लमान, बजाए इस के कि ज़िन्दगी की नेमतों को ढोए. जब कभी रद्दे अमल में इसका बागी होता है तो जेहादी तशद्दुद को जीने की अंगडाई लेता है. दुन्या के हर नशेब ओ फ़राज़ से बे नयाज़ पल भर में खुद कुश आलात के हवाले अपने को करके अल्लाह और दीन की राह में शहीद हो जाता है। वहां उसे यकीने कामिल है कि वह सब कुछ मिलेगा जिसका वादा उस से अल्लाह कर रहा है। वह मासूम, नहीं जनता कि अल्लाह के खोल में एक खूखार पयम्बरी कयाम करती है।"ऐ मेरे परवर दीगर! बिला शुबहा आप जिसको चाहें दोजख में दाखिल करें, उसको वाकई रुसवा ही कर दिया और ऐसे बे इन्साफों का कोई साथ देने वाला नहीं।''
सूरह आले इमरान ३ तीसरा परा आयात (192)
यह एक आयात है जिसमें साफ साफ मुहम्मद अल्लाह को मुखातिब कर रहे हैं और कहते हैं कि यह अल्लाह का कलाम है।कुरान में हर जगह अल्लाह बन्दों के साथ बे इंसाफी करता है और उल्टा इलज़ाम बन्दों पर लगता है। मन मानी अल्लाह की है, जिसको चाहे दोज़ख दे, जिसको चाहे जन्नत, इसको मानने वाले मूरख ही तो हैं, अपने आप में क़ैद इस झूठे अल्लाह के बन्दे.


"ऐ हमारे परवर दिगर! हमें वह चीज़ भी दीजिए जिसका हम से आप ने अपने पैगम्बर के मार्फ़त वादा फ़रमाया था और हम को क़यामत के रोज़ रुसवा न कीजिए और यक़ीनन आप वादा खिलाफ़ी नहीं करते।''
सूरह आले इमरान ३ तीसरा परा आयात (194)यह आयत चीख चीख कर गवाही दे रही है कि क़ुरआन उम्मी मुहम्मद का गढ़ हुवा साजिशी कलाम है जिसको वह अल्लाह का कलाम कहते हैं.
एक अदना आदमी भी इस आयत को पढ़ कर कह सकता है कि ये बात मुहम्मद की है जिस में कोई पैगम्बर गवाह भी है. खुदा गारत करे इन आलिमों को जो इतनी बड़ी मुसलमान आबादी की आँखों में धूल झोंके हुए हैं।



"तुझ को इस शहर में काफिरों का चलना फिरना मुबालगा में न डाल दे. चंद दिनों की बहार है, फिर उनका ठिकाना दोज़ख होगा और वह बुरी आराम की जगह है."सूरह आले इमरान ३ तीसरा परा आयात (197)जुमले में उम्मियत टपक रही है. बुरी जगह आराम की कैसे हो सकती है? और अगर आराम की है तो बुरी कैसे हुई? दुश्मने इंसानियत, इंसानों के लिए हमेशा बुरा सोचा, बुरा किया. मुहम्मद की बुराई क़ौम पे अज़बे जरिया है.


"जो लोग अल्लाह से डरें उनके लिए बागात हैं, जिनके नीचे नहरें जारी होंगी। वह इस में हमेशा हमेशा के लिए रहेंगे. यह मेहमानी होगी अल्लाह की तरफ से."सूरह आले इमरान ३ तीसरा परा आयात (198)यह लाली पफ की आयत पूरे कुरआन में बार बार आई है. शायद अल्लाह की इसी बात पर ग़ालिब ने चुटकी ली है.

हम को मालूम है जन्नत की हकीक़त लेकिन,
दिल के बहलाने को ग़ालिब ये ख़याल अच्छा है।


जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

सूरह आले इमरान ३

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तहरीर में - - -



क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।



नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं।


 
सूरह आले इमरान

आठवीं किस्त



जंगे ओहद की हार पर लोगों में फैली बद गुमानी, बे चैनी और

बगावत पर मुहम्मद धीरे धीरे क़ाबू पा रहे हैं। उनका अल्लाह मज़बूत होता चला जा रहा है।

देखिए उसकी हिम्मत की दाद दीजिए - - -

" हाँ! क्या ये खयाल करते हो कि जन्नत में दाखिल हो गए, हालां कि अभी तक अल्लाह ने उन लोगों को तो देखा ही नहीं जिन्हों ने तुम लोगों में से जेहाद की हो और न उन लोगों को देखा जो लोग साबित क़दम रहे हों, तुम तो मरने की तमन्ना कर रहे थे।"

सूरह आले इमरान ३ तीसरा परा आयात (142)


मुसलमानों!
तर्क ए इसलाम के लिए यही आयत काफी है, जो अल्लाह दावा करता हो कि वह कायनात की हर मख्लूक़ के हर एक अमल ओ हरकत की खबर रखता है, जिसके हुक्म के बगैर कोई पत्ता भी न हिलता हो, वह कुरआन में कहता है कि "हालां कि अभी तक अल्लाह ने उन लोगों को तो देखा ही नहीं जिन्हों ने तुम लोगों में से जेहाद की हो और न उन लोगों को देखा जो लोग साबित क़दम रहे हों"

कुरान क़यामत तक बदला नहीं जा सकता, ये बात इसकी ज़िल्लत के लिए मुनासिब ही है, मगर क्या इस के साथ साथ तुम नस्ल ए इंसानी भी न बदलने का अहेद किए बैठे हो?



"और तुम मरने की तमन्ना कर रहे थे, मौत के सामने आने से पहले, सो इस को खुली आँखों से देखा था।"

सूरह आले इमरान ३ तीसरा परा आयात (143)

हारी हुई जंगे ओहद के बारे में जब चे मे गोइयाँ होती हैं तो होशियार नबी इस की ज़िम्मे दारियाँ अल्लाह पर डाल देते हैं। अल्लाह जंग जूओं को माव्ज़ा देने में टाल मटोल करते हुए कहता है - - -



" अभी इसे मालूम नहीं कि जंग तुमने कैसी लड़ी (वैसे) तुम तो मौत की तमन्ना पहले ही कर रहे थे।"

अल्लाह ने यहाँ पर बे ईमानी की लम्बी और नामार्दाना बहेस की है जो की इन्तेहाई शर्मनाक है, खास कर मुस्लमान दानिश वरों के लिए, रह गई बात पढ़े लिखे जाहिलों के लिए तो उनको जेहालत ही अज़ीज़ है, वह अपने इल्म नाकिस के साथ जहन्नम में जाएँ। कुरान इंसानी क़त्ले आम जेहाद के एवज ऊपर शराब और शबाब से भरी जन्नत दिलाने का यकीन दिलाता है, गाल्बन यही यकीन उनकी तमन्ना है. अब देखिए अल्लाह मुहम्मद के ज़रीआ बेवकूफ बन जाने वालों को कैसे ताने देता है

" तुम तो मौत की तमन्ना पहले ही कर रहे थे।"

मतलब साफ है की तुम मेरे झांसे में आए।

''और मुहम्माद निरे अल्लाह के रसूल ही तो हैं आप से पहले भी कई अल्लाह के रसूल गुज़र चुके हैं सो अगर आप का इंतकाल भी हो जावे या अगर आप शहीद ही हो जाएँ तो क्या लोग उल्टे फिर जाएँगे और जो उल्टा फिर भी जाएगा तो अल्लाह का कोई नुकसान न होगा।"

सूरह आले इमरान ३ तीसरा परा आयात (144)

मुहम्मद निरे अल्लाह के रसूल तो नहीं मगर निरे घाघ और पैकरे दरोग ज़रूर हैं। ठीक कहते हैं कि इसलाम मे रुकने या फिरने से उसके अल्लाह का कोई नुकसान या नफ़ा होने का नहीं मगर इनकी ईजाद से डेढ़ हज़ार साल से इंसानियत शर्मिंदा है। जब तक इन्सान जेहनी बलूगत को नहीं छूता इस्लामी शर्मिंदगी उस पर ग़ालिब रहेगी।


" हम अभी डाले देते हैं हौल काफिरों के दिलों में बसबब इस के कि उन्हों ने अल्लाह का शरीक ऐसी चीजों को ठहराया जिस की कोई दलील अल्लाह ताला ने नाजिल नहीं फरमाई और इन की जगह जहन्नम है. और वह बुरी जगह है."

सूरह आले इमरान ३ तीसरा परा आयात (151)

अल्लाह का डेढ़ हज़ार साल पहले का "अभी" कभी नहीं आया। हुवा उल्टा मुसलमानों के दिलों में हौल ज़रूर पड़ा हुवा है। काफिरों के पास बे बुन्याद दलीलों का न होना, बेहतर है, कुरान के होने से। काफिरों के पास सैकडों कारामद ग्रन्थ उस वक़्त मौजूद थे जिनका नाम भी अनपढ़ मुहम्मद ने सुना नहीं होगा। जंगे ओहद की शिकस्त के बाद मुसलमानों में बड़ी बे चैनी का आलम था. अल्लाह इन पर इल्जाम लगता है कि उन्हों ने आखरत के बजाए दुन्या को तरजीह दिया.

हार की फजीहत थी, जीती हुई जंग में लालची मुसलमानों की लालच। जो नकली माले गनीमत लूटने के लिए दौड़ पड़े, जो कि मुखालिफ़ की हिकमते अमली थी.


हुवा यूँ कि मुसलमानों ने देखा कि कुछ औरतें गठरियाँ लिए भाग रही है जिनको उन्हों ने माल समझा और दौड़ पड़े उसे लूटने। मुहम्मद आवाज़ लगाते रहे लौट आओ मगर किसी ने इनकी न सुनी.

कुछ लोग एह्तेजजन कहते है हमारी कुछ चलती है क्या? मुहम्मद कहते हैं - - -


चली तो सब अल्लाह की है। कुछ लोग कहते हैं हम मना कर रहे थे की मौत (जेहाद) की तरफ मत जाओ। मुहम्मद कहते हैं मौत आती है तो घर बैठे बैठे आ जाती है, मकतूल का कत्ल होना तो उसका मुक़द्दर था. मुहम्मद मरने वालों के पस्मंदगान को यूं भी समझाते हैं कि ये अल्लाह की आज़माइश थी इन लोगों की बातिन की जो पीठ मोड़ कर मैदान जंग से वापस आए. फिर दूसरी बोली बोलते हैं इन को शैतान ने इन के कुछ आमल के बाईस बहका दिया.

मुहम्मद किज़्ब और मक्र के मरहम से शिकस्त खुर्दों के ज़ख्म भर रहे हैं साथ साथ उन पर नमक पाशी भी कर रहे हैं॥

" और यकीन मनो की अल्लाह ने इन्हें मुआफ कर दिया और अगर तुम अल्लाह की रह में मारे जाओ या मर जाओ तो बिल ज़रुरत अल्लाह के पास की मग्फ़ेरत और रहमत, उन चीज़ों से बेहतर है जिन को यह लोग जमा कर रहे हैं."

सूरह आले इमरान ३ तीसरा परा आयात (145-158)

अगर मर गए या मारे गए तो बिल ज़रुरत अल्लाह के पास ही जमा होगे। इस बीसवीं सदी में ऐसी अंध विशवासी बातें? अल्लाह इंसानी लाशें जमा करेगा दोज़ख सुलगाने के लिए? अल्लाह अपने नबी मुहम्मद कि तारीफ करता है कि अगर वह तुनुक और सख्त मिजाज होते तो सब कुछ मुन्तशिर हो गया होता? यानि कायनात का दारो मदार उम्मी मुहम्मद पर मुनहसर था इसी रिआयत से ओलिमा उनको सरवरे कायनात कहते हैं।

मुहम्मद को अल्लाह सलाह देता है कि खास खास उमूर पर मुझ से राय ले लिया करो। गोया अल्लाह एक उम्मी दिमागी फटीचर को मुशीर कारी का अफ़र दे रहा है।

अस्ल में इस्लामी अफीम पिला पिला कर आलिमान इसलाम ने मुसलमानों को दिमागी तौर पर फटीचर बना दिया है।


नबूवत अल्लाह के सर चढ़ कर बोल रही है, वक़्त के दानिश वर खून का घूट पी रहे हैं कि जेहालत के आगे सर तस्लीम ख़म है. मुहम्मद मुआशरे पर पूरी नज़र रखे हुए हैं .एक एक बागी और सर काश को चुन चुन कर ख़त्म कर रहे हैं या फिर ऐसे बदला ले रहे हैं कि दूसरों को इबरत हो. हदीसें हर वाकिए की गवाह हैं और कुरान जालिम तबा रसूल की फितरत का, मगर बदमाश ओलिमा हमेशा मुहम्मद की तस्वीर उलटी ही अवाम के सामने रक्खी. इन आयातों में मुहम्मद की करीह तरीन फितरत की बदबू आती है, मगर ओलिमा इनको, इतर से मुअत्तर किए हुए है।

अल्लाह बने मुहम्मद कहत्ते हैं - - -


" हकीक़त में अल्लाह ने मुसलमानों पर बड़ा एहसान किया है जब कि इनमें इन्हें कि जींस के एक ऐसे पैगम्बर को भेजा कि वह इनको अल्लाह कि आयतें पढ़ कर सुनते हैं."

सूरह आले इमरान ३ तीसरा परा आयात (164)

बकौल सलमान रश्दी कुरआन की आयतों का इस से अच्छा कोई नाम हो ही नहीं सकता जो उसने रखा है शैतानी आयतें (सैटनिक वर्सेज़)। मुस्लमान आखें मूँद कर इस की तिलावत करते रहें ताकि शैतान इन को अपने काबू में रख सके.



जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Tuesday 26 July 2011

सूरह आले इमरान ३ तीसरा पारा

मेरी तहरीर में - - -



क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।



नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.

सूरह आले इमरान ३ तीसरा पारा सातवीं किस्त


चौथे पारे के शुरुआत में यहूदियों से इनके बुजुर्गों पर मुहम्मद विरोध करते हुए नई नई बातें मन गढ़ंत पेश करते हैं. उनको अपनी गढ़ी हुई बातें मनवाने की कोशिश करते है और मुसलमानों को उनकी सही बातें मानने से रोकते हैं.

मुहम्मद के पास दो ही नुस्खे है पहला दोज़ख का खौफ दिखाना और दूसरा जन्नत की लालच देना. अल्लाह कहता है रोजे क़यामत लोगों के चेहरे दो रंग के होंगे,

सफेद और काले.

काले मुंह वाले दोज़खी और सफेद चेहरे वाले बेहिश्ती.

मुहम्मद अपनी अल्प संख्यक उम्मत को समझाते हैं कि काफ़िरों से अगर मुकाबला होगा तो पीठ दिखला कर भागने वाले यही काफिर होंगे, मगर ज़रूरी है कि तुम साबित क़दम रहो. मुहम्मद को शायद कभी कभी अपनों से ही अपने जान को खतरा लगता है, घुमाओ दार बातों में वोह अल्लाह की ज़बान में बोलते हैं.


मुसलमानों! सोचो अचानक मुहम्मद किसी अदभुत अल्लाह को पैदा करते है, उसके फ़रमान अपने कानों से अनदेखे फ़रिश्ते से सुनते हैं और उसको तुम्हें बतलाते है। वोह अल्लाह सिर्फ़ २३ सालों की जिंदगी जिया, न उसके पहले कभी था, न उसके बाद कभी हुवा.

इस मुहम्मदी अल्लाह पर भरोसा करना क्या अपने आप को धोका देना नहीं है? सोचो कि ऐसे अल्लाह की क़ैद से रिहाई की ज़रुरत है, करना कुछ भी नहीं है, बस जो ईमान उस से ले कर आए थे उसे वापस कर दो. लौटा दो ऐसे हवाई और नामाकूल अल्लाह को उस का ईमान.

ईमान लाओ मोमिन का जो धर्म कांटे का ईमान रखता है.


" मगर हाँ! एक तो इस ज़रिए के सबब जो अल्लाह की तरफ़ से है, दूसरे इस ज़रिए से जो आदमी के तरफ़ से है और मुस्तहक हो गए गज़ब इलाही के और जमा दी गई उन पर पस्ती, यह इस वजह से हुवा कि वह लोग मुनकिर हो जाया करते थे एह्काम इलाही के और क़त्ल कर दया करते थे पैगम्बरों को नाहक और यह बे वज्ह हुवा कि इन लोगों ने इताअत न की और दायरे से निकल निकल जाते थे।"सूरह आले इमरान ३ तीसरा पारा आयात (92-112)यह गुनूदगी के आलम में बकी गई अल्लाह की कुछ और आयतें थीं। आप निकाल सकें तो कोई मतलब . निकालें अय्यार ओलिमा तो इस मे अपनी इल्म का जादू भर के पुर हिकमत, पुर रहमत, पुर अज़मत वगैरा वगैरा बनाए हुए हैं। अगर आप भी इसे नज़र अंदाज़ करते हैं तो याद रखें कि आने वाले कल में आप अपनी नस्लों के मुजरिम होंगे।


* अहले किताब यानी यहूदियों में से एक हिस्से की मुहम्मद दिल खोल कर तारीफ करते हैं, उनकी जो अपनी किताब पर अमल करते हैं, मगर काफ़िरों के लिए नफ़रत में अज़ाफा हो जाता है अल्लाह इन से नफ़रत के पाठ कैसे पढाता है,

देखिए - -" हाँ तुम ऐसे हो कि उन लोगों से मुहब्बत रखते हो और वोह लोग तुम से असला मुहब्बत नहीं रखते, हालां कि तुम तमाम किताबों पर ईमान रखते हो और ये लोग जो तुम से मिलते हैं कह देते हैं ईमान ले आए और जब अलग होते हें तो तुम पर अपनी उँगलियाँ काट काट खाते हैं, मरे गैज़ के.आप कह दीजिए की तुम मर रहो अपने गुस्से में."
सूरह आले इमरान ३ तीसरा पारा आयात (113-119)इस आयात से उस वक़्त के गैरत मंद, होश मंद और मजबूर अक्लमंदों पर सोच कर आज भी दिल कुढ़ता है. कितने मजबूर हो गए होगे ज़ी होश, साहिबे फ़िक्र और साहिबे ईमान. यह अल्लाह है कि नौज़बिल्लाह है? बन्दों को कहता है कि गुस्से से मर रहो. ऐसे अल्लाह को पुजवाने वाले खबीस आलिमों तुम को कब शर्म आएगी? तुम्हारे अल्लाह को एक काफ़िर कह रहा है

" तू अपनी क़ह्हारी में मर"* इस सूरह में शुरूआती इस्लामी जंगो का तज़करा है. पहली जंग बदर में हुई थी जिसमे मुसलमानों को फ़तह मिली थी और दूसरी जंग ओहद में हुई थी जिस में शिकस्त. फ़तह वाली जंग में अल्लाह ने मुसलमानों को मदद के लिए ३००० फ़रिश्ते भेज दिए थे. जंगे ओहद जो कि बकौल अल्लाह के मुहम्मद कि रज़ा के खिलाफ लड़ी गई थी, इस लिए फरिश्तों कि मदद नहीं आई।
" जब कि आप मुसलमानों से फरमाते थे कि क्या तुम को ये अमर काफ़ी न होगा कि तुहारा रब तुहें इमदाद करे, ३००० फरिश्तों के साथ जो उतारे जाएँगे. हाँ क्यूँ नहीं अगर तुम मुश्तकिल होगे और मुत्तकी रहोगे और वोह लोग तुम पर एक दम से आ पहुंचेगे तो तुम्हारा रब तुम्हारी मदद फरमाएगा,५००० फरिश्तों से जो एक खास वज़ा बनाएँ होंगे और ये महज़ इस लिए कि तुम्हारे लिए बशारत हो और ताकि तुम्हारे दिलों को क़रार हो जाए और नुसरत सिर्फ़ अल्लाह की तरफ़ से है जो कि ज़बर दस्त है."सूरह आले इमरान ३ तीसरा पारा आयात (125-26)जंगे ओहद हार जाने के बाद जिन लोगों को मुहम्मद के अल्लाह ने ५००० फरिश्तों की बटालियन भेजने की मदद की यकीन दहानी कराई थी वह कहीं नज़र नहीं आए और मुसलमानों को हार की जिल्लत ढोनी पड़ी, इस हालत में मुहम्मद की कला बाजियां देखने लायक हैं - - -अल्लाह अपने रसूल से कहता है ---

"आप का कोई दखल नहीं यहाँ तक कि अल्लाह उन पर (काफिरों पर) या तो मुतवज्जो हो जाए या उन को कोई सज़ा देदे क्यूँ कि वह ज़ुल्म भी बड़ा कर रहे हैं - - -

वोह जिसको चाहे बख्श दे जिसको चाहे अजाब दे - - -

ईमान वालो सूद मत खाओ कई हिस्से और अल्लाह से दरो - - -

ख़ुशी से कहना मानों अल्लाह और उसके रसूल का, उम्मीद है रहम किए जाओगे - - -

और दौडो मग्फेरत की तरफ जो परवर दिगार की तरफ से है - - -

ऐसे लोग जो खर्च करते हैं फरागत में और तंगी में और गुस्से को ज़ब्त करने वाले और लोगों से दर गुज़र करने वाले और अल्लाह ऐसे लोगों को महबूब रखता है और तुम हिम्मत मत हारो और रंज मत करो और ग़ालिब तुम ही रहोगे अगर तुम पूरे मोमिन हो."

सूरह आले इमरान ३ तीसरा पारा आयात (128-139)" अगर तुम को ज़ख्म पहुंच जाय तो उस क़ौम को भी ऐसा ही ज़ख्म पाहुंचा है और हम इन अय्याम को उन लोगों के बीच अदलते बदलते रहा करते हैं, ताकि अल्लाह ईमान वालों को जान ले और तुम में से बाजों को शहीद बनाना था और अल्लाह ज़ुल्म करने वालों से मुहब्बत नहीं करते और ताकि मेल कुचैल से साफ़ कर दे ईमान वालों को और मिटा दे काफिरों को"सूरह आले इमरान ३ तीसरा पारा आयात (141-40)क़ुरआन की ये औसत सूरतें हैं जो मशकूक हुवा करती हैं, गोया इसमें इस्लामी मुल्लाओं के लिए मनमानी करने की काफी गुंजाईश है. खुद अल्लाह भी मुसलमानों के साथ जीत की यक़ीन दहानी कराने के बाद भी हार हो जाने पर कैसी मक्र की बातें करने लगा है, देखा जा सकता है. अँधेरे में रखने वाले इस्लामी विद्वान, मुस्लिम बुद्धि जीवी और कौमी रहनुमा, समय आ गया है कि अब जवाब दें- - -

कि लाखों, करोरों, अरबों बल्कि उस से भी कहीं अधिक बरसों से इस ब्रह्मांड का रचना कार अल्लाह क्या चौदह सौ साल पहले केवल तेईस साल चार महीने (मोहम्मद का पैगम्बरी काल) के लिए अरबी जुबान में बोला था? वह भी मुहम्मद से सीधे नहीं, किसी तथा कथित दूत के माध्यम से, वह भी बाआवाज़ बुलंद नहीं काना-फूसी कर के ? जनता कहती रही कि जिब्रील आते हैं तो सब को दिखाई क्यूँ नहीं पड़ते? जो कि उसकी उचित मांग थी और मोहम्मद बहाने बनाते रहे। क्या उसके बाद अल्लाह को साँप सूँघ गया कि स्वयम्भू अल्लाह के रसूल की मौत के बाद उसकी बोलती बंद हो गई और जिब्रील अलैहिस्सलाम मृत्यु लोक को सिधार गए ? उस महान रचना कार के सारे काम तो बदस्तूर चल रहे हैं, मगर झूठे अल्लाह और उसके स्वयम्भू रसूल के छल में आ जाने वाले लोगों के काम चौदह सौ सालों से रुके हुए हैं, मुस्लमान वहीँ है जहाँ सदियों पहले था, उसके हम रकाब यहूदी, ईसाई और दीगर कौमें आज हम मुसलमानों को सदियों पीछे अतीत के अंधेरों में छोड़ कर प्रकाश मय संसार में बढ़ गए हैं. हम मोहम्मद की गढ़ी हुई जन्नत के मिथ्य में ही नमाजों के लिए वजू, रुकू और सजदे में विपत्ति ग्रस्त है. मुहम्मदी अल्लाह उन के बाद क्यूँ मुसलमानों में किसी से वार्तालाप नहीं कर रहा है? जो वार्ता उसके नाम से की गई है उस में कितना दम है? ये सवाल तो आगे आएगा जिसका वाजिब उत्तर इन बदमआश आलिमो को देना होगा....

क़ुरआन का पोस्ट मार्टम खुली आँख से देखें "हर्फ़ ए ग़लत" का सिलसिला जारी हो गया है. आप जागें, मुस्लिम से मोमिन हो जाएँ और ईमान की बात करें। अगर ज़मीर रखते हैं तो सदाक़त अर्थात सत्य को ज़रूर समझेंगे और अगर इसलाम की कूढ़ मग्ज़ी ही ज़ेह्न में समाई है तो जाने दीजिए अपनी नस्लों को तालिबानी जहन्नम में.

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Monday 25 July 2011

सूरह आले इमरान ३ तीसरा पारा

मेरी तहरीर में - - -



क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।

नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.


सूरह आले इमरान ३ तीसरा पारा आयात

छटवीं किस्त


यही बातें भड़काऊ साबित होती हैं और कौमों में शर का बाईस बनी, जिस के नतीजे में लाखों इंसानी जानें गईं. आज भी अमरीका, योरोप बनाम अफगानिस्तान, ईराक, ईरान और दीगर मुस्लिम दुन्या से दुश्मनी की वजह यही कुरानी आयतें बनी हुई हैं. इन को सलीबी जंगों की बाकियात कहा जा सकता है. कुरानी भूल भुलय्या में अल्लाह मुसलमानों को छका रहा है.

मुहम्मद ईसा की अल्लाह से बात चीत कराने लगते हैं जिस के बाद अल्लाह ईसा को न मानने वालों को भी काफ़िर कहने लगता है। और क़यामत में मज़ा चखने का वादा करता है, जब कि ईसा के हरीफ यहूदी ही होते हैं. ईसा को मानने वालो को अल्लाह मोमिन कहने लगता है. शोब्देबाज़ और मदारी अल्लाह कहता है - -


" और यहूदी एक चाल चले और ईसा को बचने के लिए अल्लाह एक चाल चला और अल्लाह खूब चालें चलने वाला है। यह आयतें हम तुम को पढ़ पढ़ कर सुनाते हैं जो की मिन जुमला दलाइल की हैं और मिन जुमला हिकमत आमोज मज़ामीं की हैं।"
सूरह आले इमरान ३ तीसरा पारा आयात (62-)
सोचिए कि वह अल्लाह कैसा होगा जो चालबाज़ हो? इसी तरह की बातों में अल्लाह मुसलमानों को लपेटे हुए है। इस में क्या अक़दस पाते हैं झुंड के झुंड नमाज़ी जिन्हें ओलिमा भेड़ बकरियों की तरह चरा रहे हैं.

अल्लाह मियां अपने प्यारे नबी से राज़ की बात का पर्दा फाश करते हैं - - -
"इब्राहीम तो न यहूदी थे, न नसरानी और मुशरिकीन में भी न थे लेकिन तरीके मुस्तकीम वाले साहिबे इसलाम थे।"सूरह आले इमरान ३ तीसरा पारा आयात (67)हज़रात इब्राहीम एक परदेसी थे, बद हाली और परेशानी की हालत में अपनी बीवी सारा को किसी मजबूरी के तहत अपनी बहन बतला कर मिसरी बादशाह फ़िरौन की पनाह में रहा करते थे. तौरेत के मुताबिक सारा हसीन थी और बादशाह कि मंजूरे नज़र हो कर उसके हरम में पनाह पा गई थी. सच्चाई खुलने पर हरम से बहार की गई और साथ में इब्राहीम और उनका भतीजा लूत भी. उसके बाद दोनों चचा भतीजों ने मवेशी पालन का पेशा अपनाया और कामयाब गडरिया हुए.


बनी इस्राईल की शोहरत की वजेह तारीख़ में फिरअना के वज़ीर यूसुफ़ की ज़ात से हुई. युसूफ इतना मशहूर हुवा कि इसके बाप दादों का नाम तारिख में आ गया, वर्ना याकूब, इशाक , इस्माईल, और इब्राहीम जैसे मामूली लोगों का नामो निशान भी कहीं न होता.


मानव की रचना कालिक अवस्था में इब्राहीम को जो होना चाहिए था वोह थे, न इतने सभ्य कि उन्हें पैगाबर या अवतार कहा जाए, ना ही इतने बुरे कि जिन्हें अमानुष कहा जाय. मानवीय कमियाँ थीं उनमें कि अपनी बीवी को बहन बना कर बादशाह के शरण में गए और अपनी धर्म पत्नी को उसके हवाले किया.

दूसरा उनका जुर्म ये था कि अपनी दूसरी गर्भ वती पत्नी हाजरा को पहली पत्नी सारा के कहने पर घर से निकल बाहर कर दिया था, जो कि रो धो कर सारा से माफ़ी मांग कर वापस घर आई.

तीसरा जुर्र्म था कि दोबारा इस्माईल के पैदा हो जाने के बाद हाजरा को मय इस्माईल के घर से दूर मक्का के पास एक मरु खंड में मरने के लिए छोड़ आए.

उनका चौथा बड़ा जुर्म था सपने के वहम को साकार करना और अपने बेटे इशाक को अल्लाह के नाम पर कुर्बान करना, जो मुसलमानों का अंध विश्वास बन गया है और हजारो जानवर हर साल मारे जाते हैं.

आइए देखें कि हमारे समाज की विडंबना क्या ज़हर इसके लिए बोती है - - -

" अल्लाह ऐसे लोगों की हिदायत कैसे करेगे जो काफ़िर हो गए, बाद अपने ईमान लाने के और बाद अपने इस इक़रार के कि मुहम्मद सच्चे हैं और बाद इस के कि उन पर वाजः दलायल पहुँच चुके थे और अल्लाह ऐसे बे ढंगे लोगों को हिदायत नहीं करते।"सूरह आले इमरान ३ तीसरा पारा आयात (86)
यह है मुहम्मद का अभियान जिसमे अल्लाह किसी गाँव के मेहतुक की तरह है जिसे कि वह रब्बुल आलमीन कहते हैं. उनका अल्लाह उन लोगों से बेज़ार हो रहा है जो रोज़ रोज़ मुसलमान से काफ़िर हो जाते हैं और काफ़िर से मुसलमान.


" ऐसे लोगों की सज़ा ये है कि इन पर अल्लाह ताला की भी लानत होती है, फरिश्तों की और आदमियों की भी, सब की। वह हमेशा हमेशा के लिए दोज़ख में रहेंगे, इन पर अज़ाब हल्का न होने पाएगा और न ही मोहलत दी जाएगी, हाँ मगर तौबा करके जो लोग अपने आप को संवार लेंगे, सो अल्लाह ताला बख्शने वाला है."सूरह आले इमरान ३ तीसरा पारा आयात (88-89)मुसलमानों!
सोचो अचानक मुहम्मद किसी अदभुत अल्लाह को पैदा करते है, उसके फ़रमान अपने कानों से अनदेखे फ़रिश्ते से सुनते हैं और उसको तुम्हें बतलाते है। वोह अल्लाह सिर्फ़ २३ सालों की जिंदगी जिया, न उसके पहले कभी था, न उसके बाद कभी हुवा। इस मुहम्मदी अल्लाह पर भरोसा करना क्या अपने आप को धोका देना नहीं है? सोचो कि ऐसे अल्लाह की क़ैद से रिहाई की ज़रुरत है, करना कुछ भी नहीं है, बस जो ईमान उस से ले कर आए थे उसे वापस कर दो. लौटा दो ऐसे हवाई और नामाकूल अल्लाह को उस का ईमान. ईमान लाओ मोमिन का जो धर्म कांटे का ईमान रखता है.


जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Saturday 23 July 2011

सूरह आले इमरान ३

मेरी तहरीर में - - -

क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।

नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.
सूरह आले इमरान ३ तीसरा पारा

चौथी किस्त


मुहम्मद उम्मी थे अर्थात निक्षर. तबीयतन शायर थे, मगर खुद को इस मैदान में छुपाते रहते , मंसूबा था कि जो शाइरी करूंगा वह आल्लाह का कलाम क़ुरआन होगा . इस बात की गवाही में क़ुरआन में मिलनें वाली तथा कथित काफिरों के मुहम्मद पर किए गए व्यंग '' शायर है ना'' है.

शाइरी में होनें वाली कमियों को, चाहे वह विचारों की हों, चाहे व्याकरण की, मुहम्मद अल्लाह के सर थोपते हैं. अर्थ हीन और विरोद्दाभाशी मुहम्मद की कही गई बातें ''मुश्तबाहुल मुराद '' आयतें बन जाती हैं जिसका मतलब अल्लाह बेहतर जानता है. देखें (सूरह आले इमरान ३ तीसरा परा आयत 6+7)

यह तो रहा क़ुरआन के लिए गारे हेरा में बैठ कर मुहम्मद का सोंचा गया पहला पद्य आधारित मिशन ''क़ुरआन''.

दूसरा मिशन मुहम्मद का था गद्य आधारित. इसे वह होश हवास में बोलते थे, खुद को पैगम्बराना दर्जा देते हुए, हांलाकि यह उनकी जेहालत की बातें होतीं जिसे कठबैठी या कठ मुललाई कहा जाय तो ठीक होगा. यही मुहम्मदी ''हदीसें'' कही जाती हैं.

क़ुरआन और हदीसों की बहुत सी बातें यकसाँ हैं, ज़ाहिर है एह ही शख्स के विचार हैं, ओलिमा-ए-दीन इसे मुसलामानों को इस तरह समझाते हैं कि अल्लाह ने क़ुरआन में कहा है जिस को हुज़ूर (मुहम्मद) ने हदीस फलाँ फलाँ में भी फरमाया है. अहले हदीस का भी एक बड़ा हल्का है जो मुहम्मद कि जेहालत पर कुर्बान होते हैं. शिया कहे जाने वाले मुस्लिम इससे चिढ्हते हैं.
मैं क़ुरआन के साथ साथ हदीसें भी पेश करता रहूँगा.


तो लीजिए कुरानी अल्लाह फरमाता है - - -" अल्लाह काफ़िरों से मुहब्बत नहीं करता"सूरह आले इमरान ३ तीसरा परा आयात (32)क्या काफ़िर अल्लाह के बन्दे नहीं हैं? फिर वह रब्बुल आलमीन कैसे हुवा?

क़ुरआन की इन दोगली बातों का मौलानाओं के पास जवाब नहीं है। वह काफ़िरों से मुहब्बत नहीं करता तो काफ़िर भी अल्लाह को लतीफा शाह से ज्यादा नहीं समझते, मुस्लमान इस्लामी ओलिमा से अपनी हजामतें बनवाते रहें और काफ़िरों के आगे हाथ फैलाते रहें.अल्लाह कहता है - -" मोमिनों! किसी गैर मज़हब वालों को अपना राज़दार मत बनाओ। ये लोग तुम्हारी खराबी में किसी क़िस्म की कोताही नहीं करते और अगर तुम अक़्ल रखते हो तो हम ने अपनी आयतें खोल खोल कर सुना दीं। काफ़िरों से कहदो कि गुस्से से मर जाओ, अल्लाह तुम्हारे दिलों से खूब वक़िफ़ है। ऐ मुसलमानों! दो गुना, चार गुना सूद मत खाओ ताकि नजात हासिल हो सके।''सूरह आले इमरान ३ तीसरा परा आयात (33) क्या यह कम ज़रफी की बातें किसी खुदाए बर हक की हो सकती हैं? क्या जगत का पालन हारा अगर, है कोई तो ऐसा गलीज़ दिल ओ दिमाग रखता होगा?

अपने बन्दों को कहेगा की मर जाओ,

नहीं ये गलाज़त किसी इंसानी दिमाग की है और वह कोई और नहीं मुहम्मद हैं। यह टुच्ची मसलेहत की बातें किसी मर्द बच्चे को ज़ेबा नहीं देतीं अल्लाह तो अल्लाह है. कानो में खुसुर फुसुर कर के ओछी बातें सिखलाने वाला, ज्यादा या कम सूद खाने को मना करने वाला अल्लाह हो ही नहीं सकता.



मुसलमानों!
जागो कहीं तुम धोके में अल्लाह की बजाए शैतान की इबादत तो नहीं कर रहे हो। कलाम इलाही पर एक मुंसिफाना नज़र डालो, आप को ऐसी तालीम दी जा रही है कि दूसरों की नज़र में हमेशा मशकूक बने रहो . एक हिदू इदारे के कुछ वर्कर आपस में मुझे भांपे बगैर बात कर रहे थे कि मुस्लमान पर कभी विश्वास न करना चाहे वह जलते तवे पर अपने चूतड रख दे, उसकी बात की इस आयात से तस्दीक हो जाती है. अल्लाह ने क़ुरआन में अपनी बातें खोल खोल कर समझाईं हैं, अल्ला मियां! जिसको आज आलिमान दीन ढकते फिर रहे हैं।



सूरह आले इमरान से मुराद है इमरान यानी मरियम के बाप की औलादें - - -अल्लाह अब सूरह के उन्वान पर आता है इमरान की जोरू जिसका नाम अल्लाह भूल रहा है ( ? ) की गुफ्तुगू अल्लाह से चलती है, वह लड़के की उम्मीद किए बैठी रहती है, हो जाती है लड़की, जिसका नाम वोह मरियम रखती है. उधर बूढा ज़कारिया अल्लाह से एक वारिस की दरख्वास्त करता है जो पूरी हो जाती है, (इस का लड़का बाइबिल के मुताबिक मशहूर नबी योहन हुवा. जिस को कि उस वक़्त के हाकिम शाह हीरोद ने फांसी देदी थी. मुहम्मद को उसकी हवा भी नहीं लगी) इन सूरतों में जिब्रील ईसा की विलादत की बे सुरी तान छेड़ते हैं. बहुत देर तक अल्लाह इस बात को तूल दिए रहता है. इस को मुस्लमान चौदह सौ सालों से कलाम इलाही मान कर ख़त्म क़ुरआन किया करते हैं।
सूरह आले इमरान ३ तीसरा परा आयात (34-48)



देखिए की मुहम्मद ईसा से कैसे गारे की चिडिया में, उसकी दुम उठवा कर फूंक मरवाते हैं और वह जानदार होकर फुर्र से उड़ जाती है - -" बनी इस्राईल की तरफ से भेजेंगे पयम्बर बना कर, वह कहेंगे कि तुम लोगों के पास काफ़ी दलील लेकर आया हूँ, तुम्हारे परवर दिगर की जानिब से।
वह ये है कि तुम लोगों के लिए गारे की ऐसी शक्ल बनाता हूँ जैसे परिंदे की होती है, फिर इस के अन्दर फूंक मार देता हूँ जिस से वह परिंदा बन जाता है।

और अच्छा कर देता हूँ मादर जाद अंधे और कोढ़ी को और ज़िन्दा कर देता हूँ मुर्दों को अल्लाह के हुक्म से।

और मैं तुम को बतला देता हूँ जो कुछ घर से खा आते हो और जो रख आते हो.

बिला शुबहा इस में काफ़ी दलील है तुम लोगों के लिए, अगर तुम ईमान लाना चाहो."सूरह आले इमरान ३ तीसरा परा आयात (49)उम्मी मुहम्मद की बस की बात न थी कि किसी वाकिए को नज़्म कर पाते जैसे क़ाबिल तरीन रामायण और महाभारत के रचैताओं ने शाहकार पेश किए हैं। अभी वह इमरान का क़िस्सा भी बतला नहीं सके थे कि ईसा कि पैदाइश पर आ गए। ईसा के बारे में जो जग जाहिर सुन रखी थी उसको अल्लाह की आगाही बना कर अपने कबीलाई लाखैरों को परोस रहे हैं. उम्मियों और जाहिलों की अक्सरियत माहौल पर ग़ालिब हो गई और पेश कुरानी लाल बुझक्कड़ड़ी फलसफे मुल्क का निज़ाम बन गए, जैसा कि आज स्वात घाटी जैसी कई जगहों पर हो रहा है.

इस मसअला का हल सिर्फ जगे हुए मुसलमानों को ही हिम्मत के साथ करना होगा, कोई दूसरा इसे हल करने नहीं आएगा. कोई दूसरा अपना फायदा देख कर ही किसी के मसअलe में पड़ता है क्यूँ कि सब के अपने खुद के ही बड़े मसाइल हैं.

मुसलामानों! बेदार हो जाओ, इन कुरआनी आयतों को समझो, समझ में आजाएं तो इन्हें अपने सुल्फा कि भूल समझ कर दफ़ना दो और इस से जुड़े हुए ज़रीया मआश को हराम क़रार दे कर समाज को पाक करो." और मैं इस तौर पर आया हूँ कि तस्दीक करता हूँ इस किताब को जो तुहारे पास इस से पहले थी,यानि तौरेत की. और इस लिए आया हूँ कि तुम लोगों पर कुछ चीजें हलाल कर दूं जो तुम पर हराम कर दी गई थीं और मैं तुम्हारे पास दलील लेकर आया हूँ तुम्हारे परवर दिगर कि जानिब से. हासिल यह कि तुम लोग परवर दिगर से डरो और मेरा कहना मनो"सूरह आले इमरान ३ तीसरा परा आयात (50) मुहम्मद के पास लौट फिर कर वही बातें आती हैं, नया ज्यादा कुछ कहने को नहीं है. जिन आयातों को मैं छू नहीं रहा हूँ, उनमे कही गई बातें ही दोहराई गई हैं या इनतेहाई दर्जा लगवयात है.

यहूदी बहुत ही तौहम परस्त और अपने आप ने बंधे हुए होते हैं जिनके कुछ हराम को मुहम्मद हलाल कर रहे हैं. गैर यहूदी अहले मदीना और अहले मक्का को इस से कोई लेना देना नहीं. मुहम्मद के अल्लाह की सब से बड़ी फ़िक्र की बात यह है कि लोग उस से डरते रहें. बन्दों की निडर होने से उसकी कुर्सी को खतरा क्यूँ है,

मुसलमानों के समझ में नहीं आता कि यह खतरा पहले मुहम्मद को था और अब मुल्लों को है.



जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Wednesday 20 July 2011

आले इमरान -Soorah 3 para 3

मेरी तहरीर में - - -

क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।

नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.


आले इमरान -3
चौथी किस्त


मैंने आपको क़ुरआन और हदीस का फर्क समझाया था।
तो लीजिए मुहम्मद की एक हदीस मुलाहिजा फरमाइए - - -


"जो व्यक्ति केवल मेरी सहमति के लिए और मुझ पर विश्वास जताने हेतु तथा मेरे दूत (मुहम्मद) के प्रमाणी करण के कारण मेरे रस्ते में जिहाद की उपलब्धियों के लिए निकलता है तो मेरे लिए निर्धारित है कि मैं उसको बदले में माल ए गनीमत (लुटे गए माल) से माला माल कर के वापस करूँ या जन्नत में दाखिल करूँ. मोहम्मद कहते है अगर मुझे मेरी उम्मत (सम्प्रदाय) का खौफ न होता (कि मेरे बाद उनका पथ प्रदर्शन कौन करेगा) तो मैं मुजाहिदीन के किसी लश्कर के पीछे न रहता और यह पसंद करता कि मैं अल्लाह के रह में सम्लित होकर जीवित रहूँ, फिर शहीद हो जाऊं, फिर जीवित हो जाऊं, फिर शहीद हो जाऊं - - -

"(हदीस बुखारी ३४)

मदरसों में शिक्षा का श्री गणेश इन हदीसों (मुहम्मद कथानात्मकों) से होती है, इससे हिन्दू ही नहीं आम मुस्लमान अनजान है.

मुहम्मदी अल्लाह की सहमति मार्ग क्या है ? इसे हर मुसलमान को इस्लामदारी से नहीं, बल्कि ईमानदारी से सोचना चाहिए.

मुहम्मदी अल्लाह मुसलमानों को अपने हिदू भाइयों के साथ जेहाद कि रज़ा क्यूं रखता है? इसका उचित जवाब न मिलने तक समस्त तर्क अनुचित हैं जो इस्लाम को शांति का द्योतक सिद्ध करते हैं.

मुसलमानों! सौ बार बार इस हदीस को पढो, अगर एक बार में ये तुम्हारे पैगम्बर तुम्हारी समझ में न आएं कि ये किस मिट्टी के बने हुए इन्सान थे?

खुद को जंग से इस लिए बचा रहे हैं कि इन को अपनी उम्मत का ख़याल है, तो क्या उम्मत के लिए अल्लाह पर भरोसा नहीं या मौत का क्या एतबार ?

सब मक्र की बातें हैं. मुहम्मद प्रारंभिक इस्लामी छ सात जंगों में शामिल रहे जिसे गिज्वा कहते हैं. हमेशा लश्कर के पीछे रहते जिसको स्वयं स्वीकारते है. तरकश से तीर निकाल निकाल कर जवानो को देते और कहते कि मार तुझ पर मेरे माँ बाप कुर्बान.

जंगे ओहद में मिली शर्मनाक हार के बाद अंतिम पंक्ति में मुंह छिपाए खड़े थे, .नियमानुसार जब अबू सुफ्यान ने तीन बार आवाज़ लगाईं थी कि अगर मुहम्मद जिंदा हों तो खुद को जंगी कैदी बनना मंज़ूर करें और सामने आएं . अल्लाह के झूठे रसूल, बन्दे के लिए भी झूठे मुजरिम बने. जान बचा कर अपनी उम्मत को अंधा बनाए हुए हैं .


आइए अब कुरआनी आयतों को देखा जाए कि अल्लाह इन में कौन सी रहस्य की बातों पर से पर्द हटाता है - - -" बे शक अल्लाह मेरे रब भी हैं और तुम्हारे रब भी हैं, सो तुम लोग इस की इबादत करो मगर ईसा ने जब इस से इंकार देखा तो कहा कोई ऐसे लोग भी हैं जो हमारे मदद गार हो जाएँ? अल्लाह के वास्ते. हवारीन बोले हम हैं मदद गार अल्लाह के, हम अल्लाह पर इमान लाए और आप इस के गवाह रहिए कि हम फरमा बरदार हैं."
सूरह आले इमरान ३ तीसरा परा आयात (51-52)(हवारीन=ईसा के साथी धोबी)
ये पैगाम-ए-इलाही नहीं, मुहम्मद की पुकार है, ईसा की तरह मक्का के लोगो को. ईसा के हवारी बन जाने की जो ईसा मसीह को जानते हैं, वोह मुहम्मद की सुर्रे बाज़ी को समझते हैं कि वह जो कुछ कह रहे हैं वह सब झूट है, ईसा के हवारी तो एन ईसा की गिरफ्तारी पर दुम दबा कर भाग खड़े हुवे थे, किसी ने उनकी मुखबिरी की थी तो कुछ ने अदालत के सामने मसीह को पहचानने से इंकार कर दिया था. मुहम्मद के इर्द दिर्द मुसाहिबों (चमचों) की कमी नहीं मगर कुरआन का पेट ईसा की बे सर पैर की बातों से भर रहे हैं।



" अल्लाह ईसा से कहता है तुम गम न करो, मैं तुम को वफ़ात (मौत) देने वाला हूँ, मैं तुम को अपनी तरफ उठा लेता हूँ और उन लोगों से पाक करने वाला हूँ जो तुहारे मुनकिर हैं और जो तुहारा कहना मानने वाले हैं वह गालिग़ होंगे। अल्लाह ईसा से भी रोज़े महशर की कहानी छेड़ देता है कि वह मुन्किरों की खबर लेगा, इस तरह मुहम्मद अपनी तबलीग को ईसा का फ़्रेम पहना देते हैं।"सूरह आले इमरान ३ तीसरा परा आयात (54-58)
(तबलीग=प्रचार)
मुस्लमान इन कुरानी आयातों में क्या मनन चितन के लिए कुछ पाते हैं? या फिर जैसा इस के ज्ञानी प्रचार करते हैं कि इस में मानव पीडा का हर उपचार है, हिकमत है, युक्ति है, जीवन धारा है, दूर दूर तक कहीं ऐसा कुछ है क्या?एक आयते अजीबिया मुलाहिज़ा हो. खुद मुहम्मद हालाते अजीबिया (आश्चर्य जनक) में हैं. पता नहीं वह वज्द (उन्मत्ता) के आलम में हैं या फिर हालते उम्मियत(निरक्छरता) में अपनी बात कह न पा रहे हों और इल्जाम अल्लाह पर है कि वोह मुश्तबाहुल मुराद (शंका युक्त) आयतें नाजिल करता है।


" बे शक हालते अजीबिया ईसा की अल्लाह के नज़दीक मुशाबह हालते अजीबिया आदम के है कि उनको मिटटी से बनाया, फिर उनको हुक्म दिया कि हो, बस वह हो गए। यह अम्र वाकई आप के परवर दिगर की तरफ से है सो शुबहा करने वालों में न से न बनो।"सूरह आले इमरान ३ तीसरा परा आयात (59-60)

(मुशाबह=मुखाकृति)५० साल पहले तक जब मदरसों के मुल्ले समाज पर हावी न थे और समाज पर हदीसों का इतना असर न था, उस वक़्त अगर कोई हदीस गैर फितरी(अलौकिक) मुल्ला बयान करता तो लोगों के तेवर चढ़ जाते और उसकी ज़बान बंद करदी जाती कि "कठ मुल्लाई मत किया करो" आज मुल्लाओं का गलबा हो गया है "हुज़ूर ने फ़रमाया है" कह कर कठ मुल्लाई बयान करते फिरते हैं।


मुलाहिज़ा हो कि मुहम्मद कुरआन में कैसी कठ मुल्लाई की शर्त ईसाइयों के सामने रखते हैं - - -

" जो शख्स ईसा के बाब में हुज्जत करे--- तो आप फरमा दीजिए कि आओ हम बुला लें अपने बेटों और तुम्हारे बेटों को, अपनी औरतों को और तुम्हारी औरतों को और खुद अपने तनों को और तुम्हारे तनों को, फिर हम दिल से दुआ करें इस तौर पर कि अल्लाह की लानत भेजें जो इस बहस में नाहक हो।"
सूरह आले इमरान ३ तीसरा परा आयात (61)
सूरह का नाम आले इमरान है, इमरान मरियम के बाप थे। मुहम्मद ने सुने सुनाए इन्जीली किस्सों को अपने अंदाज़ में डायलाग के साथ गढा है जिसमें अधूरे पन के साथ साथ फूहड़ पन भी है. कहानी को अल्लाह के नाम से जोड़ते हैं और अपने हक में तोड़ते हैं. तहरीर में बेशर्मी और बेहूदगी भरी हुई है.

जिसारते बेजा का साफ़ साफ़ मुज़ाहिरा है.

नीम दीवानगी की इन बकवासों को अल्लाह का कलाम कहा गया है. दुन्या की तमाम मज़हबी किताबों का अख्लाकी मुवाज़ना हो तो कुरआन उन में रुस्वाए ज़माना सिन्फ़ साबित होगी. इस की जवाब देही कभी भी वक़्त के मौजूदा बे कुसूर मुसलमानों की आबादी से हो सकती है

कि ऐसे गैर अख्लाकी और इंसानियत दुश्मन एह्कम की पैरवी क्यूँ करते हो?

कभी भी दुन्या का मुस्लमान एकदम खाली हाथ हो सकता है, और उसका हशर इस्पेनी मुसलमानों जैसा हो सकता है जहाँ पर उन्हें सात सौ साल हुमरानी करने के बाद भी उन्हीं के अल्लाह के हिकमत भरे जहन्नम में झोंक दिया गया था.

जी हाँ दस लाख जिंदा अल्लाह वाले एक साथ जलाए गए थे.

सदियों यह ओलिमा गुमराह किए रहे इतनी बड़ी आबादी को. बेहतर है कि इस से पहले ही ये नादान क़ौम बेदार हो जाए. आला तर जदीद इंसानी क़द्रें इस के लिए आँखें बिछाए बैठी हुई है।



जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Tuesday 19 July 2011

सूरह आले इमरान ३ तीसरा पारा

मेरी तहरीर में - - -

क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।

नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.


तीसरी किस्त


मैं हिन्दू हूँ न मुसलमान, न क्रिश्चेन और न ही कोई धार्मिक आस्था रखने वाला व्यक्ति. मैं सिर्फ एक इंसान हूँ, मानव मात्र। हिदू और मुस्लिम संस्कारों में ढले आदमी को मानव मात्र बनना बहुत ही मुश्किल काम है. कोई बिरला ही सत्य और सदाक़त से आँखें मिला पाता है कि परिवेश का ग़लबा उसके सामने त्योरी चढाए खड़ा रहता है और वह फिर आँखें मूँद कर असत्य की गोद में चला जाता है.

ग़ालिब कहता है - - -



बस कि दुश्वार है हर काम का आसान होना,

आदमी को भी मयस्सर नहीं इंसान होना।

(हर आदमी, आदमी का बच्चा होता है चाहे उसे भेड़िए ने ही क्यूं न पाला हो और सभ्य होने के बाद ही आदमी इंसान कहलाता है)

मैं सिर्फ इन्सान हो चुका हूँ इस लिए मैं इंसान दोस्त हूँ. दुन्या में सब से ज्यादह दलित, दमित, शोषित और मूर्ख कौम है मुसलमन,

उस से ज्यादा हमारे भारत में अछूत, हरिजन, दलित और पिछड़ा वर्ग के नामों से पहचान रखने वाला हिन्दू .

पहले अंतर राष्ट्रीय कौम को क़ुरआनी आयातों ने पामाल कर रखा है,

दूसरेको भारत में लोभ और पाखण्ड ने।

मुट्ठी भर लोग इन दोनों को उँगलियों पर नचा रहे हैं. मैं फिलहाल मुसलामानों को इस दलदल से निकलने का बेडा उठता हूँ, हिन्दू भाइयो के शुभ चिन्तक लाखों हैं. इस लिए मैं इस मुसलमन मानव जाति का असली शुभ चिन्तक हूँ यही मेरा मानव धर्म है. नादान मुसलमान मुझे अपना दुश्मन समझते हैं जब कि मैं उनके अज़ली दुश्मन इस्लाम की का विरोध करता हूँ और वाहियात गाथा कुरआन का.

हर मानवता प्रेमी पाठक से मेरा अनुरोध है कि वह मेरे अभियान के साथ आएं, मेरे ब्लॉग को मुस्लिम भाइयों के कानों तक पहुँचाएँ। हर साधन से उनको इसकी सूचना दें। मैं मानवता के लिए जान कि बाज़ी लगा कर मैदान में उतरा हूँ, आप भी कुछ कर सकते हैं .
देखें क़ुरआन की बकवासें - - - 
" बिल यकीन जो लोग कुफ्र करते हैं, हरगिज़ उनके काम नहीं आ सकते, उनके माल न उनके औलाद, अल्लाह तआला के मुकाबले में, ज़र्रा बराबर नहीं और ऐसे लोग जहन्नम का सोखता होंगे।"सूरह आले इमरान ३ तीसरा परा आयात (१०)खुद ला वलद मुहम्मद अपने दामाद की औलादों हसन और हुसैन का हशर हौज़ऐ कौसर के कनारे खड़े खड़े देख रहे होंगे। दुश्मने इंसानियत मुहम्मद तमाम उम्र अपने मुखालिफों को मारते पीटते और काटते कोसते रहे, असर उल्टा रहा अहले कुफ्र सुर्ख रू रहे और फलते फूलते रहे, मुस्लमान पामाल रहे और ज़र्द रू हुए। आज भी उम्मते मुहम्मदी पूरी दुन्या के सामने एक मुजरिम की हैसियत से खड़ी हुई है. किस क़दर कमजोर हैं कुरानी आयतें, मौजूदा मुसलमानों को कैसे समझाया जाय?



" आप फरमा दीजिए क्या मैं तुम को ऐसी चीज़ बतला दूँ जो बेहतर हों उन चीजों से, ऐसे लोगों के लिए जो डरते हैं, उनके मालिक के पास ऐसे ऐसे बाग हैं जिन के नीचे नहरें बह रही हैं, हमेशा हमेशा के लिए रहेंगे, और ऐसी बीवियां हैं जो साफ सुथरी की हुई हैं और खुश नूदी है अल्लाह की तरफ से बन्दों को."सूरह आले इमरान ३ तीसरा परा आयात (15)देखिए कि इस क़ौम की अक़्ल को दीमक खा गई। अल्लाह रब्बे कायनात बंदे मुहम्मद को आप जनाब कर के बात कर रहा है, इस क़ौम के कानों पर जूँ तक नहीं रेगती. अल्लाह की पहेली है बूझें? अगर नहीं बूझ पाएँ तो किसी मुल्ला की दिली आरजू पूछें कि वह नमाजें क्यूँ पढता है? ये साफ सुथरी की हुई बीवियां कैसी होंगी, ये पता नहीं, अल्लाह जाने, जिन्से लतीफ़ होगा भी या नहीं? औरतों के लिए कोई जन्नती इनाम नहीं फिर भी यह नक़िसुल अक्ल कुछ ज़्यादह ही सूम सलात वालियाँ होती हैं। अल्लाह की बातों में कहीं कोई दम दरूद है? कोई निदा, कोई इल्हाम जैसी बात है? दीन के कलम कारों ने अपनी कला करी से इस रेत के महेल को सजा रक्खा है।" अल्लाह बड़ी नरमी के साथ बन्दों को अपनी बंदगी की अहमियत को समझाता है. काफिरों की सोहबतों के नशेब ओ फ़राज़ समझाता है. अपनी तमाम खूबियों के साथ बन्दों पर अपनी मालिकाना दावेदारी बतलाता है. दोज़ख पर हुज्जत करने वालों को आगाह करता है. कुरान से इन्हिराफ़ करने वालों का बुरा अंजाम है, ग़रज़ ये कि दस आयातों तक अल्लाह कि कुरानी तान छिडी रहती है जिसका कोई नतीजा अख्ज़ करना मुहाल है."सूरह आले इमरान ३ तीसरा परा आयात (16-26)


अल्लाह की जुग्राफियाई मालूमात और क़ुदरत की राज़दारी के बारे में देखें। उम्मी मुहम्मद का तकमील करदा अल्लाह कहता है - - -" कि वोह रात को दिन में दाखिल कर देते हैं और दिन को रात में. वोह जानदार चीज़ों को बेजान से निकाल लेता है (जैसे अंडे से चूजा) और बे जान चीज़ों को जानदार से निकाल लेता है (जैसे परिंदों से अंडा)"सूरह आले इमरान ३ तीसरा परा आयात (27)इस बात को मुहम्मद कुरआन में बार बार दोहराते हैं मगर आज के दौर में ओलिमा इस बात को जाहिल अवाम के आगे भी नहीं बयान करते, न ही अपनी तहरीर में कहीं इस आयत को छूते हैं. मगर मिस्कीन हिंदी हर रोज़ अपनी नमाजों में ज़रूर इस जेहालत को पढ़ते हैं। सोचिए कि जो शख्स यूनानी साइंस दानो सुकरात और अरस्तु से सदियों बाद पैदा हुवा हो उसकी समाजी जानकारी इतनी भी न हो कि रात और दिन कैसे होते है और अंडा जो परिन्दे के पेट से पैदा होता है वह जानदार होता है, जाहिलों के सरदार मोहम्मद अल्लाह के रसूल बने बैठे हैं. मुसलमानों के ये बद तरीन दुश्मन जो मुसल्मानो को जिंदा नोच नोच कर खा रहे हैं, ऐसे गाऊदी को सर्वर कायनात जैसे सैकडों लक़ब से नवाजे हुवे हैं.

*यहूदियों का खुदा यहुवा हमेशा यहूदियों पर मेहरबान रहता है, गाड एक बाप की तरह हमेशा अपने ईसाई बेटों को मुआफ़ किए रहता है, ज़्यादह तर धार्मिक भगवान दयालु होते हैं, बस की एक मुसलमानों का अल्लाह है जो उन पर पैनी नज़र रखता है। वोह बार बार इन्हें धमकियाँ दिए रहता है। हर वक़्त याद दिलाता है रहता कि वह बड़ा अज़ाब देने वाला है। सख्त बदला लेने वाला है. चाल चलने वाला वाला है. गर्दन दबोचने वाला है. क़हर ढाने वाला है. वह मुसलमानों को हर वक़्त डराए रहता है. उसे डरपोक बन्दे पसंद हैं, बसूरत दीगर उसकी राह में जेहादी. वोह मुसलमानों को महदूद होकर जीने की सलाह देता है, जिस की वजह से हिदुस्तानी मुस्लमान कशमकश की ज़िन्दगी जीने पर मजबूर हैं. इन्हें मुल्क में मशकूक नज़रों से देखा जाए तो क्यूँ न देखा जाए ?


देखिए अल्लाह कहता है - - -''मुसलमानों को चाहिए कुफ्फारों को दोस्त न बनाएं, मुसलमानों से तजाउज़ करके जो शख्स ऐसा करेगा, वोह शख्स अल्लाह के साथ किसी शुमार में नहीं मगर अल्लाह तुम्हें अपनी ज़ात से डराता है."
सूरह आले इमरान ३ तीसरा परा आयात (28)इस कुरानी आयात को सुनने के बाद भारत की काफिर हिन्दू अक्सरीयत आबादी मुस्लिम अवाम को दोस्त कैसे बना सकती है? ऐसी कुरानी आयतों के पैरोकारों को हिन्दू अपना दुश्मन मानें तो क्यूँ न मानें? दुन्या के तमाम गैर मुस्लिम मुमालिक में बसे हुए मुसलमानों के साथ किस दर्जा ना आकबत अन्देशाना और ज़हरीला ये पैगाम है इसलाम का.

मुस्लिम खवास और मज़हबी रहनुमा कहते हैं कि उनके बुजुर्गों ने पाकिस्तान न जाकर हिंदुस्तान जैसे सैकुलर मुल्क में रहना पसंद किया, इस लिए उन्हें सैकुलर हुकूक मिलने चाहिएं. सैकुलरटी की बरकतों के दावे दार ये लोग सैकुलर भी हैं और ऐसी आयात वाली क़ुरआन के पुजारी भी। इन्हीं की जुबान में - - -" ये सब के सब हिदुस्तान के जदीद मुनाफिक हैं" इन से सावधान रहे हिद्स्तान।




जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Monday 18 July 2011

सूरह आले इमरान ३ तीसरा पारा (2)

मेरी तहरीर में - - -

क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।


नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.




मुसलमानों के साथ कैसा अजीब मज़ाक है कि उनका अल्लाह अपनी तमाम कार गुज़रियाँ खुद गिनवा रहा है वह भी उनका झूठा गवाह बन कर, उन का मुंसिफ बन कर। अफ़सोस का मुक़ाम ये है कि मुस्लमान ऐसे अल्लाह पर यक़ीन करता है। जब तक उसका यक़ीन पुख्ता है तब तक उसका ज़वाल भी यकीनी है. खुदा न करे वह दिन भी आ सकता है कि कहा जाय एक क़ौमे जेहालत उम्मते मुहम्मदी हुवा करती थी.

तौरेत, इंजील, ज़ुबूर जैसी सैकडों तारीखी किताबें अपने वाजूदों को तस्लीम और तसदीक़ कराए हुए है, इन के सामने कुरआन हक़ीक़त में अल्लम गल्लम से ज्यादा कुछ भी नहीं.

कुरआन का उम्मी मुसन्निफ़ सनद दे तौरेत, इंजील को तो तौरेत, इंजील की तौहीन है.

कुरआन के मुताबिक मूसा पर आसमानी किताब तौरेत और ईसा पर आसमानी किताब इंजील नाज़िल हुई थी मगर इन दोनों की उम्मातें के पास इनकी मुस्तनद तारीख़ है. मूसा ने तौरेत लिखना शुरू किया जिसको कि बाद के नबी मुसलसल बढाते गए जो बिल आखीर ओल्ड टेस्टामेंट की शक्ल में महफूज़ हुई जोकि यहूदियों और ईसाइयों की तस्लीम शुदा बुनियादी किताब है.

ईसा के बाद इस के हवारियों ने जो कुछ इस के हालात लिखे या लिखवाए वह इंजील है.

दाऊद ने जो गीत रचे वह ज़ुबूर है.

सुलेमान और छोटे छोटे नबियों ने जो हम्दो सना की वह सहीफ़े हैं.

यह सब किताबें आलमी स्कूलों, कालेजों, लाइबब्रेरिज में दस्तयाब हैं और रोज़े रौशन की तरह अयाँ हैं. बहुत तफसील के साथ सब कुछ देखा जा सकता है.

ये किताबें मुक़द्दस ज़रूर मानी जाती हैं मगर आसमानी नहीं, सब ज़मीनी हैं, कुरआन इन्हें ज़बरदस्ती आसमानी बनाए हुए है, इन्हें अपने रंग में रंगने के लिए.

इनकी मौजूदयत को कुरानी अल्लाह (इस्लामी सियासत के तहत) नकली कहता है.

इस की सजा मुसलामानों को चौदह सौ सालों से सिर्फ मुहम्मद की खुद सरी, खुद पसंदी और खुद बीनी की वज़ह से चुकानी पड़ रही है।

बात अरब दुन्या की थी, समेट लिया पूरे एशिया अफ्रीका और आधे योरोप को. हम फ़िलहाल अपने उप महा द्वीप की बात करते हैं कि ये आग हम को एकदम पराई लग रही है जिसमे यह मज़हबी रहनुमा हम को धकेल रहे हैं

 
"सब कुछ संभालने वाले हैं. अल्लाह ने आप के पास जो कुरआन भेजा है वाकेअय्यत के साथ इस कैफ़ियत से कि वह तस्दीक करता है उन किताबों को जो इस से पहले आ चुकी हैं और इसी तरह भेजा था तौरेत और इंजील को."सूरह आले सूरह आले इमरान ३ तीसरा परा आयत (3)

मुहम्मदी अल्लाह की वाकेअय्यत ऊपर बयां कर चुके हैं.


"जो लोग मुनकिर हैं अल्लाह ताला के आयतों के इन के लिए सजाए सख्त है और अल्लाह ताला गल्बा वाले हैं, बदला लेने वाले हैं.''

सूरह आले इमरान ३ तीसरा परा आयत (4)

मुनकिर के लफ्जी माने तो होते हैं इंकार करने वाला, इन्सान या तो किसी बात का मुनकिर होता है या इक्रारी मगर लफ्ज़ मुनकिर का इस्लामी करण होने के बाद इसके मतलब बदल कर इसलाम कुबूल कर के फिर जाना वाला मुनकिर हो जाना है,

ऐसे लोगों की सज़ा मोहसिन इंसानियत, सरवरे कायनात, मालिके क़ौनैन, हज़रात मुहम्मद मुस्तफ़ा, रसूल अकरम, सल्लललाहो अलैहे वालेही वसल्लम ने मौत फरमाई है.

जो ताक़त कायनात पर ग़ालिब होगी, क्या वजह है कि वह हमारे हाँ न पर, हमारी मर्ज़ी पर, हमारे अख्तियार पर क्यों न गालिब हो, उसको मोहतसिब और मुन्तक़िम होने की ज़रुरत ही क्यूँ पड़ी.?

ये क़ुरआन के उम्मी ख़ालिक का बातिल पैगाम है. खलिक़े हक़ीक़ी का नहीं हो सकता.

मुसलमानों होश में आओ. कुरआन के बातिल एजेंट अपना कारोबार चला रहे हैं और कुछ भी नहीं. इन का कई बार सर क़लम किया गया है मगर ये सख्त जन फिर पनप आते हैं।

इसी तरह अरबों के मुश्तरका बुज़ुर्ब अब्राहम जो अरब इतिहासकारों के लिए पहला मील का पत्थर है, जिस से इंसानी समाज की तारीख़ शुरू होती है और जो फ़ादर अब्राहम कहे जाते है उनको भी मुहम्मद ने मुस्लमान बना लिया और उनका दीन इसलाम बतलाया। खुद पैदा हुए उनके हजारों साल बाद और अपने बाप को भी काफ़िर और जहन्नमी कहा मगर इब्राहीम अलैहिस्सलाम को जन्नती मुसलमान. काश मुसलमानों को कोई समझाए कि हिम्मत के साथ सोचें कि वह कहाँ हैं? एक लम्हे में ईमान दारी पर ईमान ला सकते है. मुस्लिम से मोमिन बन सकते हैं.



" जिसने नाज़िल किया किताब को जिस का एक हिस्सा वह आयतें हैं जो कि इश्तेबाह मुराद से महफूज़ हैं और यही आयतें असली मदार हैं किताब का. दूसरी आयतें ऐसी हैं जो कि मुश्तबाहुल मुराद हैं, सो जिन लोगों के दिलों में कजी है वह इन हिस्सों के पीछे हो लेते हैं. जो मुश्तबाहुल मुराद हैं, सो सोरिश ढूढने की ग़रज़ से. हालांकि इस का सही मतलब बजुज़ अल्लाह ताला के कोई नहीं जनता."

सूरह आले इमरान ३ तीसरा परा आयत (6+7)

मुहम्मदी अल्लाह अपनी कुरानी आयातों की खामियों की जानकारी देता है कि इन में कुछ साफ़ साफ़ हैं और यही क़ुरआन की धुरी हैं और कुछ मशकूक हैं जिनको शर पसंद पकड़ लेते हैं. इस बात की वज़ाहत आलिमान क़ुरआन यूँ करते हैं कि क़ुरआन में तीन तरह की आयतें हैं---

१- अदना (जो साफ़ साफ़ मानी रखती हैं)

२- औसत (जो अधूरा मतलब रखती हैं)

३-तवास्सुत (जो पढने वाले की समझ में न आए और जिसको अल्लाह ही बेहतर समझे।)

सवाल उठता है कि एक तरफ़ दावा है हिकमत और हिदायते नेक से भरी हुई क़ुरआन अल्लाह की अजीमुश्शान किताब है और दूसरी तरफ़ तवस्सुत और औसत की मजबूरी ?

अल्लाह की मुज़बज़ब बातें, एहकामे इलाही में तजाद, हुरूफ़े मुक़त्तेआत का इस्तेमाल जो किसी मदारी के छू मंतर की तरह लगते हैं।

दर अस्ल कुरआन कुछ भी नहीं, मुहम्मद के वजदानी कैफ़ियत में बके गए बड का एह मज्मूआ है। इन में ही बाज़ बातें ताजाऊज़ करके बे मानी हो गईं तो उनको मुश्तबाहुल मुराद कह कर अल्लाह के सर हांडी फोड़ दिया है।


वाज़ह हो कि जो चीजें नाज़िल होती हैं वह बला होती हैं. अल्लाह की आयतें हमेशा नाज़िल हुई हैं. कभी प्यार के साथ बन्दों के लिए पेश नहीं हुईं. कोई कुरानी आयत इंसानी ज़िन्दगी का कोई नया पहलू नहीं छूती, कायनात के किसी राज़ हाय का इन्क्शाफ़ नहीं करती, जो कुछ इस सिलसिले में बतलाती है दुन्या के सामने मजाक बन कर रह जाता है. बे सर पैर की बातें पूरे कुरआन में भरी पड़ी हैं,

बस कि कुरआन की तारीफ,

तारीफ किस बात की तारीफ उस बात का पता नहीं.

इस की पैरवी मुल्ला, मौलवी, ओलिमाए दीन करते हैं जिन की नक़ल मुस्लमान भी करता है. आम मुस्लमान नहीं जनता की कुरआन में क्या है, खास जो कुछ जानते हैं वह सोचते है भाड़ में जाएँ, हम बचे रहें इन से, यही काफी है।

यह आयत बहुत खास इस लिए है कि ओलिमा नामुराद अक्सर लोगों को बहकते हैं कि क़ुरआन को समझना बहुत मुश्किल है.




जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Saturday 16 July 2011

सूरह आले इमरान ३ तीसरा पारा

मेरी तहरीर में - - -



क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।



नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.



सूरह आले इमरान ३ तीसरा पारा
पहली किस्त

एक हदीस मुलहिज़ा फरमाएँ - - -

इस्लाम के दूसरे सूत्राधार अली मौला से रवायत है कि

''एक ऊंटनी बद्र के जंगी माले-गनीमत(लूट)में मुझे मिली और एक रसूल ने तोह्फतन दी. इन दोनों को एक अंसार के सेहन में बाँध कर मैं सोंच रहा था कि इन पर अज़ख़ुर घास लाद कर लाया करूंगा और बेचूगा, इस तरह कुछ पैसा जमा कर के फातमा का वलीमा करूंगा जो कि अभी तक मुझ पर उधार था. इसी घर में हम्ज़ा बिन अब्दुल मतलब मुहम्मद के चचा शराब पी रहे थे, साथ में एक लौंडी ग़ज़ल गा रही थी जो कुछ इस तरह थी - - -


चल ऐ हम्ज़ा इन मोटे ऊंटों पे जा,

बंधे हैं सेहन में जो सब एक जा,

चला इनकी गर्दन पे जल्दी छुरा,

मिला इनको तू खून में और लुटा,

बना इनके टुकड़ों से उम्दा जो हों,

गज़क गोश्त का हो पका और भुना।



उसकी ग़ज़ल सुन कर हम्ज़ा ने तलवार उठाई और ऊटों की कोखें फाड़ दीं. अली यह मंज़र देख कर मुहम्मद के पास भागे हुए गए और जाकर शिकायत की, जहाँ ज़ैद बिन हार्सा भी मौजूद थे. तीनों अफराद जब हम्ज़ा के पास पहुंचे तो वह नशे में धुत्त था. उन सभों को देख कर गुस्से के आलम में लाल पीला हो रहा हो गया, बोला,

'' तुम लोग हो क्या? मेरे बाप दादों के गुलाम हो.''

यह सुन कर मुहम्मद उलटे पाँव वापस हो गए

(देखें हदीस ''मुस्लिम - - - किताबुल अशर्बता'' + बुखारी १५७)

यह मुहम्मद का बहुत निजी मामला था, एक तरफ दामाद, दूसरी तरफ खुदा खुदा करके हुवा, मुसलमान बहादुर चचा हम्ज़ा ? होशियार अल्लाह के खुद मुख़्तार रसूल को एक रास्ता सूझा,

दूसरे दिन ही अल्लाह की क़ुरआनी आयत नाज़िल करा दी कि शराब हराम हुई.

मदीने में मनादी करा दी गई कि अल्लाह ने शराब को हराम क़रार दे दिया है.

जाम ओ पैमाना तोड़ दिए गए, मटके और खुम पलट दिए गए,

शराबियों के लिए कोड़ों की सजाएं मुक़रर्र हुईं.

कल तक जो शराब लोगों की महबूब मशरूब थी, उस से वह महरूम कर दिए गए. यकीनन खुद मुहम्मद ने मयनोशी उसी दिन छोड़ी होगी क्यूं कि कई क़ुरआनी आयतें शराबियों की सी इल्लत की बू रखती हैं.

लोगों की तिजारत पर गाज गिरी होगी, मुहम्मद की बला से, उनका तो कौल थाकि सब से बेहतर तिजारत है जेहाद जिसमे लूट के माल से रातो रात माला माल हो जाओ.

गौर करें की मुहम्मद ने अपने दामाद अली के लिए लोगों को शराब जैसी नेमत से महरूम कर दिया. शराब ज़ेहन इंसानी के लिए नेमत ही नहीं दवा भी है, दवा को दवा की तरह लिया जाए न के अघोरियों की तरह. शराब जिस्म के तमाम आज़ा को संतुलित रखती है आज की साइंसी खोज में इसका बड़ा योगदान है. यह ज़ेहन के दरीचों को खोलती है जिसमे नए नए आयाम की आमद होती है. इसकी लम्स कुदरत की अन छुई परतें खोलती हैं. शराब इंसान को मंजिल पाने के लिए मुसलसल अंगड़ाइयां अता करती है.

आलमे इस्लाम की बद नसीबी है कि शराब की बे बरकती ने इसे कुंद जेहन, कौदम, और गाऊदी बना दिया है. इस्लाम तस्लीम करने के बाद कोई मुस्लिम बन्दा ऐसा नहीं हुवा जिस ने कि कोई नव ईजाद की हो. हमारे मुस्लिम समाज का असर हिन्दू समाज पर अच्छा खासा पड़ा है. इस समाज ने मुस्लिम समाज के रस्मो-रिवाज, खान पान, लिबासों, पोशाक, और तौर तरीकों को अपनाया और ऐसा नहीं कि सिर्फ हिन्दुओं ने ही अपनाया हो, मुसलामानों ने भी अपनाया। यूं कहें कि इस्लाम कुबूल करने के बाद भी अपने रस्मो रिवाज पर कायम रहे. मसलन दुल्हन का सुर्ख लिबास हो या जात बिरादरी. मगर सोमरस जो कि ऋग वेद मन्त्र का पवित्र उपहार है, हिदू समाज में हराम कैसे हो गया,

मोदी का गुजरात इसे क्यूं क़ुबूल किए हुए है?

गांधी बाबा इसके खिलाफ क्यूं सनके? यह

तो वाकई आबे हयात है.

किसी के लिए मीठा और चिकना हराम है तो किसी के लिए नमक और मिर्च. ज्यादा खाना नुकसान देह हो तो हराम हो जाता है और गरीब को कम खाना तो मजबूरी में हराम होता ही है.

यह हराम हलाल का कन्सेप्ट ही इस्लामी बेवकूफियों में से एक है.

हराम गिज़ा वह होती है जो मुफ्त और बगैर मशक्क़त की हो,

दूसरों का हक हो लूट पाट की हो.


मुसलमानों!

माले गनीमत बद तरीन हराम गिज़ा है.


आइए तीसरे पारे आले इमरान की बखिया उधेडी जाए - - -


"अलम"

"सूरह आले इमरान ३ तीसरा परा आयत (1)यह लफ्ज़ मोहमिल (यानी अर्थ शून्य) है जिसका मतलब अल्लाह ही जनता है. ऐसे हर्फों या लफ्ज़ों को कुरानी मंतिक़यों ने हुरूफे मुक़त्तेआत का नाम दिया है. यह सूरत के पहले आते हैं. यहाँ पर यह एक आयत यानी कोई बात, कोई पैगाम की हैसियत भी रखता है. इस अर्थ हीन शब्द के आगे + गल्लम लगा कर किसी अक्ल मंद ने इसे अल्लम गल्लम कर दिया, गोया इस का पूरा पूरा हक अदा कर दिया, अल्लम गल्लम. क़ुरआन का बेहतरीन नाम अल्लम गल्लम हो सकता है.

" अल्लाह तआला ऐसे हैं कि उन के सिवा कोई काबिल माबूद बनाने के नहीं और वह ज़िन्दा ओ जावेद है."

सूरह आले इमरान ३ तीसरा परा आयत (२)

यहाँ पर मैं फिर आप को एक बार याद दिला दूँ कि कुरआन कलाम अल्लाह नहीं कलाम मुहम्मद है, जैसा कि वह अल्लाह के बारे में बतला रहे हैं, साथ साथ उसकी मुशतहरी भी कर रहे हैं. इस आयत में बेवकूफी कि इत्तेला है. अल्लाह अगर है तो क्या मुर्दा होगा ? मुस्लमान तो मुर्दा खुदाओं का दामन थाम कर भी अपनी नय्या पार लगा लेता है. यह अल्लाह के ज़िन्दा होने और सब कुछ संभालने की बात मुहम्मद ने पहले भी कही है आगे भी इसे बार बार दोहराते रहेंगे.


जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Thursday 14 July 2011

क़ुरआन सार

मेरी तहरीर में - - -




क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।




नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.





क़ुरआन सार


आठवीं आखिरी किस्त




* शराब और जुवा में बुराइयाँ हैं और अच्छइयां भी.


*खैर और खैरात में उतना ही खर्च करो जितना आसान हो.


* यतीमों के साथ मसलेहत की रिआयत रखना ज्यादा बेहतर है.


*काफिर औरतों के साथ शादी मत करो भले ही लौंडी के साथ कर लो.


*काफिर शौहर मत करो, उस से बेहतर गुलाम है.


*हैज़ एक गन्दी चीज़ है हैज़ के आलम में बीवियों से दूर रहो.


*मर्द का दर्जा औरत से बड़ा है. *सिर्फ दो बार तलाक़ दिया है तो बीवी को अपना लो चाहे छोड़ दो.


*तलाक के बाद बीवी को दी हुई चीजें नहीं लेनी चाहिएं, मगर आपसी समझौता हो तो वापसी जायज़ है. जिसे दे कर औरत अपनी जन छुडा ले.


*तीसरे तलाक़ के बाद बीवी हराम है.


*हलाला के अमल के बाद ही पहली बीवी जायज़ होगी.


*माएँ अपनी औलाद को दो साल तक दूध पिलाएं तब तक बाप इनका ख़याल रखें. ये काम दाइयों से भी कराया जा सकता है.


*एत्काफ़ में बीवियों के पास नहीं जाना चाहिए.


*बेवाओं को शौहर के मौत के बाद चार महीना दस दिन निकाह के लिए रुकना चाहिए. *बेवाओं को एक साल तक घर में पनाह देना चाहिए


*मुसलमानों को रमजान की शब् में जिमा हलाल हुवा.
वगैरह वगैरह सूरह कि खास बातें
,


इस के अलावः नाकाबिले कद्र बातें जो फुजूल कही जा सकती हैं भरी हुई हैं.


तमाम आलिमान को मोमिन का चैलेंज है.
मुसलमान आँख बंद कर के कहता है क़ुरआन में निजाम हयात (जीवन-विधान) है.


नमाज़ियो!


ये बात मुल्ला, मौलवी उसके सामने इतना दोहराते हैं कि वह सोंच भी नहीं सकता कि ये उसकी जिंदगी के साथ सब से बड़ा झूट है. ऊपर की बातों में आप तलाश कीजिए कि कौन सी इन बेहूदा बातों का आज की ज़िन्दगी से वास्ता है. इसी तरह इनकी हर हर बात में झूट का अंबार रहता है. इनसे नजात दिलाना हर मोमिन का क़स्द होना चाहिए .


जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

सूरह अल्बक्र २

मेरी तहरीर में - - -


क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।


नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.


सूरह अल्बक्र २


सातवीं किस्त




मुहम्मद ने कैसा अल्लाह मुरत्तब किया था? क्या चाहता था वह? क्या उसे मंज़ूर था? मन मानी? मुसलमान कब तक कुरानी अज़ाब में मुब्तिला रहेगा ? कब तक यह मुट्ठी भर इस्लामी आलिम अपमी इल्म के ज़हर की मार गरीब मुस्लिम अवाम चुकाते रहेंगे,


मूसा को मिली उसके इलोही की दस हिदायतें आज क्या बिसात रखती हैं, हाँ मगर वक़्त आ गया है कि आज हम उनको बौना साबित कर रहे हैं. मूसा की उम्मत यहूद इल्म जदीद के हर शोबे में आसमान से तारे तोड़ रही है और उम्मते मुहम्मदी आसमान पर खाबों की जन्नत और दोज़ख तामीर कर रही है. इसके आधे सर फरोश तरक्की याफ़्ता कौमों के छोड़े हुए हथियार से खुद मुसलमानों पर निशाना साध रहे हैं और आधे सर फरोश इल्मी लियाक़त से दरोग फरोशी कर रहे हैं.


आयत न २४४ के स्पोर्ट में मुहम्मद फिर एक बार मुसलमानों को भड़का रहे हैं कि


अल्लाह को मंज़ूर है कि हम काफिरों का क़त्ल ओ कत्तल करें .


"अल्लाह जिंदा है, संभालने वाला है, न उसको ऊंघ दबा सकती है न नींद, इसी की ममलूक है सब जो आसमानों में हैं और जो कुछ ज़मीन में है- - - -


इसकी मालूमात में से किसी चीज़ को अपने अहाता ए इल्मी में नहीं ला सकते, मगर जिस कदर वह चाहे इस की कुर्सी ने सब आसमानों और ज़मीन को अपने अन्दर ले रखा है,और अल्लाह को इन दोनों की हिफाज़त कुछ गराँ नहीं गुज़रती और वह आली शान और अजीमुश्शान है"


(सूरह अलबकर-२ तीसरा परा तिरकर रसूल आयत 255)


मुहम्मद साहब को पता नहीं क्यूँ ये बतलाने की ज़रुरत पड़ गई कि अल्लाह मियां मुर्दा नहीं हैं, उन में जान है. और वह बन्दों की तरह ला परवाह भी नहीं हैं, जिम्मेदार हैं. अफ्यून या कोई नशा नहीं करते कि ऊंगते हों, या अंटा गफ़ील हो जाएँ, सब कुछ संभाले हुए हैं, ये बात अलग है की सूखा, बाढ़, क़हत, ज़लज़ला, तो लाना ही पड़ता है. अजब ज़ौक के मखलूक हैं, जो भी हो अहेद के पक्के हैं. दोज़ख के साथ किए हुए मुआहिदा को जान लगा कर निभाएंगे, उस गरीब का पेट जो भरना है. सब से पहले उसका मुंह चीरा है, बाक़ी का बाद में - - - चालू कसमें खा कर " दीन में ज़बरदस्ती नहीं." कुरान में ताजाद ((विरोधाभास) का यह सब से बड़ा निशान है. दीने इस्लाम में तो इतनी ज़बरदस्ती है कि इसे मानो या जज्या दो या गुलामी कुबूल करो या तो फिर इस के मुंकिर होकर जान गंवाओ.


"दीन में ज़बरदस्ती नहीं."


ये बात उस वक़्त कही गई थी जब मुहम्मद की मक्का के कुरैश से कोर दबती थी. जैसे आज भारत में मुसलामानों की कोर दब रही है, वर्ना इस्लाम का असली रूप तो तालिबानी ही है.


(सूरह अलबकर-२ तीसरा परा तिरकर रसूल आयत 256)


दीन की बातें छोड़ कर मुहम्म्द्द फिर किस्सा गोई पर आ जाते हैं. अल्लाह से एक क़िस्सा गढ़वाते है क़िस्सा को पढ़ कर आप हैरान होंगे कि क़िस्सा गो मकानों को उनकी छतों पर गिरवाता है. कहानी पढिए, कहानी पर नहीं, कहानी कार पर मुकुरइए और उन नमाजियों पर आठ आठ आंसू बहाइए जो इसको अनजाने में अपनी नमाजों में दोहरात्ते हैं. उनके ईमान पर मातम कीजिए जो ऐसी अहमकाना बातों पर ईमान रखते हैं. फिर दिल पर पत्थर रख कर सब्र कर डालिए कि वह मय अपने बल बच्चों के, तालिबानों का नावाला बन्ने जा रहे हैं.


"तुम को इस तरह का क़िस्सा भी मालूम है, जैसे की एक शख्स था कि ऐसी बस्ती में ऐसी हालत में उसका गुज़र हुवा कि उसके मकानात अपनी छतों पर गिर गए थे, कहने लगे कि अल्लाह ताला इस बस्ती को इस के मरे पीछे किस कैफियत से जिंदा करेंगे, सो अल्लाह ताला ने उस शख्स को सौ साल जिंदा रक्खा, फिर उठाया, पूछा, कि तू कितनी मुद्दत इस हालत में रहा? उस शख्स ने जवाब दिया एक दिन रहा हूँगा या एक दिन से भी कम. अल्लाह ने फ़रमाया नहीं, बल्कि सौ बरस रहा. तू अपने खाने पीने को देख ले कि सड़ी गली नहीं और दूसरे तू अपने गधे की तरफ देख और ताकि हम तुझ को एक नज़र लोगों के लिए बना दें.और हड्डियों की तरफ देख, हम उनको किस तरह तरकीब दी देते हें, फिर उस पर गोश्त चढा देते हैं - - - बे शक अल्लाह हर चीज़ पर पूरी कुदरत रखते हैं."


(सूरहह अलबकर-२ तीसरा पारा तिरकर रसूल आयत 259)


मुहम्मद ऐसी ही बे सिर पैर की मिसालें कुरान में गढ़त्ते हैं जिसकी तफ़सीर निगार रफ़ू किया करते हैं..एक मुफ़स्सिर इसे यूं लिखता है - - -यानी पहले छतें गिरीं फिर उसके ऊपर दीवारें गिरीं, मुराद यह कि हादसे से बस्ती वीरान हो गई." इस सूरह में अल्लाह ने इसी क़िस्म की तीन मिसालें और दी हैं जिन से न कोई नसीहत मिलती है, न उसमें कोई दानाई है, पढ़ कर खिस्याहट अलग होती है. अंदाजे बयान बचकाना है, बेज़ार करता है, अज़ीयत पसंद हज़रात चाहें तो कुरआन उठा कर आयत २६१ देखें. सवाल उठता है हम ऐसी बातें वास्ते सवाब पढ़ते हैं? दिन ओ रात इन्हें दोहराते हैं, क्या अनजाने में हम पागल पन की हरकत नहीं करते ? हाँ! अगर हम इसको अपनी जबान में बआवाज़ बुलंद दोहराते रहें. सुनने वाले यकीनन हमें पागल कहने लगेंगे और इन्हें छोडें, कुछ दिनों बाद हम खुद अपने आप को पागल महसूस करने लगेंगे. आम तौर पर मुसलमान इसी मरज़ का शिकार है जिस की गवाह इस की मौजूदा तस्वीर है. वह अपने मुहम्मदी अल्लाह का हुक्म मान कर ही पागल तालिबान बन चुका है. .".(सूरह अलबकर-२ तीसरा पारा तिरकर रसूल आयत 261) खर्च पर मुसलसल मुहम्मदी अल्लाह की ऊट पटांग तकरीर चलती रहती है. मालदार लोगों पर उसकी नज़रे बद लगी रहती है, सूद खोरी हराम है मगर बज़रीआ सूद कमाई गई दौलते साबका हलाल हो सकती है अगर अल्लाह की साझे दारी हो जाए. रहन, बय, सूद और इन सब के साथ साथ गवाहों की हाजिरी जैसी आमियाना बातें अल्लाह हिकमत वाला खोल खोल कर समझाता है.


(सूरह अलबकर-२ तीसरा पारा तिरकर रसूल आयत 263-273)


अल्लाह ने आयतों में खर्च करने के तरीके और उस पर पाबंदियां भी लगाई हैं. कहीं पर भी मशक्क़त और ईमानदारी के साथ रिज़्क़ कमाने का मशविरा नहीं दिया है. इस के बर अक्स जेहाद लूट मार की तलकीन हर सूरह में है.


"ऐ ईमान वालो! तुम एहसान जतला कर या ईजा पहुंचा कर अपनी खैरात को बर्बाद मत करो, उस शख्स की तरह जो अपना मॉल खर्च करता है, लोगों को दिखने की ग़रज़ से और ईमान नहीं रखता - - - ऐसे लोगो को अपनी कमाई ज़रा भी हाथ न लगेगी और अल्लाह काफिरों को रास्ता न बतला देंगे." जरा मुहम्मद की हिकमते अमली पर गौर करें कि वह लोगों से कैसे अल्लाह का टेक्स वसूलते हैं. जुमले की ब्लेक मेलिंग तवज्जेह तलब है - - -और अल्लाह काफिरों को रास्ता न बतला देंगे - - - एक मिसाल अल्लाह की और झेलिए- - - "भला तुम में से किसी को यह बात पसंद है कि एक बाग़ हो खजूर का और एक अंगूर का. इस के नीचे नहरें चलती हों, उस शख्स के इस बाग़ में और भी मेवे हों और उस शख्स का बुढापा आ गया हो और उसके अहलो अयाल भी हों, जान में कूवत नहीं, सो उस बाग़ पर एक बगूला आवे जिस में आग हो ,फिर वह बाग जल जावे. अल्लाह इसी तरह के नज़ाएर फरमाते हैं, तुम्हारे लिए ताकि तुम सोचो,"


(सूरह अलबकर-२ तीसरा पारा तिरकर रसूल आयत 266)


"और जो सूद का बकाया है उसको छोड़ दो, अगर तुम ईमान वाले हो और अगर इस पर अमल न करोगे तो इश्तहार सुन लो अल्लाह की तरफ से कि जंग का - - - और इस के रसूल कि तरफ से. और अगर तौबा कर लो गे तो तुम्हारे अस्ल अमवाल मिल जाएँगे. न तुम किसी पर ज़ुल्म कर पाओगे, न कोई तुम पर ज़ुल्म कर पाएगा."


(सूरह अलबकर-२ तीसरा पारा तिरकर रसूल आयत 279)


एक अच्छी बात निकली मुहम्मद के मुँह से पहली बार "लेन देन किया करो तो एक दस्तावेज़ तैयार कर लिया करो, इस पर दो मर्दों की गवाही करा लिया करो, दो मर्द न मलें तो एक मर्द और दो औरतों की गवाही ले लो"


(सूरह अलबकर-२ तीसरा परा तिरकर रसूल आयत 283)


यानि दो औरत=एक मर्द कुरान में एक लफ्ज़ या कोई फिकरा या अंदाजे बयान का सिलसिला बहुत देर तक कायम रहता है जैसे कोई अक्सर जाहिल लोग पढ़े लिखों की नक़्ल में पैरवी करते हैं. इस लिए भी ये उम्मी मुहम्मद का कलाम है, साबित करने के लिए लसानी तूल कलामी दरकार है. यहाँ पर धुन है लोग आप से पूछते हैं. अल्लाह का सवाल फर्जी होता है, जवाब में वह जो बात कहना चाहता है. ये जवाब एन इंसानी फितरत के मुताबिक होते हैं, जो हजारों सालों से तस्लीम शुदा हैं. जिसे आज मुस्लमान कुरानी ईजाद मानते हैं. आम मुसलमान समझता है इंसानियत, शराफत, और ईमानदारी, सब इसलाम की देन है, ज़ाहिर है उसमें तालीम की कमी है. उसे महदूद मुस्लिम मुआशरे में ही रखा गया है. " कुरान में कीडे निकलना भर मेरा मकसद नहीं है बहुत सी अच्छी बातें हैं, इस पर मेरी नज़र क्यूँ नहीं जाती?" अक्सर ऐसे सवाल आप की नज़र के सामने मेरे खिलाफ कौधते होंगे. बहुत सी अच्छी बातें, बहुत ही पहले कही गई हैं, एक से एक अज़ीम हस्तियां और नज़रियात इसलाम से पहले इस ज़मीन पर आ चुकी हैं जिसे कि कुरानी अल्लाह तसव्वुर भी नहीं कर सकता. अच्छी और सच्ची बातें फितरी होती हैं जिनहें आलमीं सचचाइयाँ भी कह सकते हैं. कुरान में कोई एक बात भी इसकी अपनी सच्चाई या इन्फरादी सदाक़त नहीं है. हजारों बकवास और झूट के बीच अगर किसी का कोई सच आ गया हो तो उसको कुरान का नहीं कहा जा सकता,"माँ बाप की खिदमत करो" अगर कुरान कहता है तो इसकी अमली मिसाल श्रवण कुमार इस्लाम से सदियों पहले क़ायम कर चुका है. मौलाना कूप मंदूकों का मुतलिआ कुरान तक सीमित है इस लिए उनको हर बात कुरान में नज़र आती है. यही हाल अशिक्षित मुसलमानों का है. सूरह के आखीर में अल्लाह खुद अपने आप से दुआ मांगता है, बकौल मुहम्मद कुरआन अल्लाह का कलाम है, देखिए आयत में अल्लाह अपने सुपर अल्लाह के आगे कैसे ज़ारों कतार गिडगिडा रहा है. सदियों से अपने फ़ल्सफ़े को दोहरते दोहराते मुल्ला अल्ला को बहरूपिया बना चुका है, वह दुआ मांगते वक़्त बन्दा बन जाता है. मुहम्मद दुआ मांगते हैं तो एलानिया अल्लाह बन जाते हैं. उनके मुंह से निकली बात, चाहे उनके आल औलादों के खैर के लिए हो, चाहे सय्यादों के लिए बरकत की हो, कलाम इलाही बन कर निकलती है. आले इब्राहीमा व आला आले इब्राहिम इन्नका हमीदुं मजीद. यानि आले इब्राहीम गरज यहूदियों की खैर ओ बरकत की दुआ दुन्या का हर मुस्लमान मांगता है और वही यहूदी मुसलमानों के जानी दुश्मन बने हुए हैं . हम हिदुस्तानी मुसलमान यानि अरबियों कि भाष में हिंदी मिस्कीन अरबों के जेहनी गुलाम बने हुए हैं.


अल्लाह को ज़ारों कतार रो रो कर दुआ मांगने वाले पसंद हैं. यह एक तरीके का नफ़्सियति ब्लेक मेल है. रंज ओ ग़म से भरा हुआ इंसान कहीं बैठ कर जी भर के रो ले तो उसे जो राहत मिलती है, अल्लाह उसे कैश करता है,


(सूरह अलबकर-२ तीसरा पारा तिरकर रसूल आयत 284-286)


कुरान की एक बड़ी सूरह अलबकर अपनी २८६ आयातों के साथ तमाम हुई- जिसका लब्बो लुबाबा दर्ज जेल है - - -*


शराब और जुवा में में बुराइयाँ हैं और अच्छइयां भी.





जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान