Sunday 15 July 2012

Soorah Momnoon -23 Part 3

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.



सूरह मोमिनून - 23  
(तीसरी क़िस्त)  



मुसलमानों!
अमरीका के फ्लोरिडा चर्च की तरफ़ से एलान है क़ि वह ११-९ को कुरआन को नज़र ए आतिश करेंगे. मुसलामानों के लिए ये वक़्त है खुद से मुहासबा तलबी का, स्व-मनन का, अपने ओलिमा की ज़ेहनी गुलामी छोड़ कर इस बात पर गौर करने का क़ि वह अब अपना फैसला खुद करें, मगर ईमानदारी के साथ. मुसलमानों को चाहिए कि  कुरआन का मुतालेआ करें, ना कि  तिलावत. देखें क़ि ज़माना हक बजानिब है या कुरआन? मैं कुछ आयतें आपको पढने का मशविरा देरहा हूँ   - - -
सूरह- आयत
बकर - १९०-१९२-२१४-२४४-२४५-
इमरान- १६७- १६८-१७०
निसा ७५-७७
मायदा- ३५
इंफाल १५-१६-१७-३९- ४३- ६४ -६७
तौबः ५- १६- २९ -४१- ४५- ४६ - ४७ -५३ - ८४ - ८६ -
मुहम्मद - २० -२१ -२२
फतह १६-२०-२३
सफ़- १०-११-
यह चंद आयतें बतौर नमूना हैं, पूरा का पूरा कुरआन ज़हर में बुझा हुआ झूट है.
इन आयातों में जेहाद की तलकीन की गई है. देखिए कि  किस हठ धर्मी के साथ दूसरों को क़त्ल कर देने के एह्कामत हैं. मुसलमान अल्लाह के हुक्म पर जहाँ मौक़ा मिलता है, क़ुरआनी अल्लाह के मुताबिक ज़ुल्म ढाने लगता है.ऐसी कौम को जदीद इंसानी क़द्रें ही अब तक बचाए हुए हैं वगरना माज़ी के आईने को देख कर जवाब देने में अगर हैवानियत पहुंचे तो मुसलामानों का सारी दुन्या से नाम ओ निशान ही ख़त्म हो जाय। स्पेन में आठ सौ साल हुक्मरानी के बाद जब मुसलमान अपने आमालों के भुगतान में आए तो दस लाख मुस्लमान दहकती हुई मसनवी दोज़ख में झोंक दिए गए। अभी कल की बात है क़ि ईराक में दस लाख मुसलमान चीटियों की तरह मसल दिए गए. ऐसा चौदह सौ सालों से चला आ रहा है, जिसकी खबर आलिमान दीन आप को मक्र के रूप में देते हैं क़ि वह सब शहादत के सीगे में दाखिल हो कर जन्नत नशीन हुए. इंसानों को यह सजाएँ क़ुरआनी आयतें दिलवाती हैं. इसकी जिम्मे दारी इस्लाम ख़ोर ओलिमा की हमेशा से रही है. आप लोग सिर्फ शिकारयों के शिकार हैं. क्या आप अपनी नस्लों को क़ुरआनी फरेब में आकर आग में झोंकने का तसव्वुर कर सकते हैं? झूट को पामाल करने के लिए जब तक आप ज़माने के साथ न होंगे, खुद को पायमाल करते रहेंगे। अगर आप थोड़े से भी इंसाफ पसंद हैं तो खुद हाथ बढ़ा कर ऐसी मकरूह इबारत आग में झोंक देंगे.
क़ुरआनी आयतें गुमराहियाँ हैं, आइए देखें क़ि यह इंसानों को किन रास्तों पर ले जा रही हैं- - - 

''हमने कौम नूह के बाद दूसरा गिरोह पैदा किया फिर हमने इनमें से ही एक पैगम्बर भेजा कि तुम लोग अल्लाह की इबादत किया करो. इसके सिवा तुम्हारा कोई माबूद नहीं है. तो इनमें से जिन्हों ने कुफ्र किया था और आखिरत को झुटलाया था और हमने इनको दुन्या के ऐश दिए, कहने लगे पस वह तुम्हारी तरह ही एक आदमी है. ये वही खाते हैं जो तुम खाते हो, वाही पीते हैं जो तुम पीते हो, इसके कहने पर चलोगे तो घाटे में रहोगे क्या वह तुम से कहता है कि मर जाओगे तो मिटटी और हड्डियाँ हो जाओगे, तो निकाले जाओगे, बहुत ही बईद है जो तुम से कही जाती है. पैगम्बर ने दुआ किया कि ऐ मेरे रब मेरा बदला ले - - - फिर हमने इन्हें खश ओ खाशाक कर दिया. सो अल्लाह की मर काफिरों पर फिर इनको हालाक होने पर हमने और उम्मत पैदा की.''
सूरह मओमेनून २३- परा-१८ -आयत (३१-४२)
कुफ्र यानी वहदानियत (एकेश्वरवाद) को नकारना , उसके जगह किसी आसान हस्ती को अपनी आस्था के अनुसार दिल लगाना इतना जुर्म हुवा कि गोया अल्लाह के साथ ज़ुल्म करना हो. बार बार कुरआन इस बात को दोहराता है. काफिरों को ज़ालिम कहता है , अजीब सी बात हुई बन्दा ए नाचीज़, खालिके कायनात पर ज़ुल्म करे, उसको मारे पीटे, ज़ख़्मी करें और जेहनी अज़ीयत पहुँचाएं, यही तो होता है ज़ुल्म. अल्लाह नाचार बन्दों के ज़ुल्म सहता रहे? मुहम्मद का ज़ेहनी दीवालिया पन का एक हरबा ही इसे कहा जायगा . मुसलमानों को इतनी अक्ल नहीं रह गई है कि इस पर गौर करके अपनी राय कायम करें. इनके पण्डे नुमा ओलिमा अपने गोरख धंधे में इन्हें फंसाए हुए है.
माबूद (पूज्य) के नाम पर इंसान हमेशा ठगा गया है और ठगा जाता रहेगा जब तक कि इसके खिलाफ सख्ती से न काम लिया जाएगा. मुहम्मद नूह के बाद किसी गुम नाम पैगम्बर का ज़िक्र कर रहे है. नाम वरों  का ज़िक्र बार बार दोहरा चुके हैं 

."हमने अपने पैगम्बरों को एक के बाद दीगर भेजे. जब किसी उम्मत के पस उसका रसूल आया तो उन्हों ने उसको झुटलाया. सो हमने एक के बाद एक का नंबर लगा दिया और हम ने इन की कहानियाँ बना दीं.सो अल्लाह की मार उन लोगों पर जो ईमान न लाते थे.''
सूरह मओमेनून २३- परा-१८ -आयत (४४)
अल्लाह बने मुहम्मद मुहाविरे का इस्तेमाल भी अल्लाह के मुंह से करते हैं, अल्लाह कहता है "अल्लाह की मार उन लोगों पर जो ईमान न लाते थे.'' लाशूरी तौर पर इस बात का एतराफ  भी करते हैं कि पैगम्बरों के बारे में जो भी वह बतलाते हैं वह बनाई हुई कहानियां हैं. इतना खुला हुवा कुरानी मुआमला मुसलामानों की अक्ल से बईद है . 

अल्लाह एक बार फिर मूसा को पकड़ता है उसके बाद ईसा को मरयम के साथ. दोनों को एक बुलंद मुकाम पर लेजा कर पनाह देता है और खाने पिने के लिए मेवे मुहय्या करता है इसके बाद अपनी आयतों की खूबियाँ बयां करता है. जोकि बकवास की हद तक जाती हैं.
सूरह मओमेनून २३- परा-१८ -आयत (४५-६६) 

"यहाँ तक कि जब हम इन खुश हाल लोगों को अज़ाब में धर पकड़ेंगे तो वह फ़ौरन चिल्ला उठेंगे . अब मत चिल्लाओ , हमारी तरफ़ से तुम्हारी मुतलाक़ मदद न होगी , हमारी आयतें तुमको पढ़ पढ़ कर सुनाई जाया करती थीं तो तुम उलटे पाँव भागते थे, तकब्बुर करते हुए, कुरआन का मशगला बनाते हुए, इसकी शान में बेहूदा बकते थे."
सूरह मओमेनून २३- परा-१८ -आयत (६७)
मुसलमानों! देखो कि तुम्हारे परवर दिगार को बात करने का सलीक़ा भी नहीं , मुस्तकबिल में हाल का सीगा पंचता है. बच्चों को बहलाने, फुसलाने औए धमकाने का तरीका अख्तियार करता है, बालिग नव जवान और बूढों तक को समझ नहीं कि इन बातों से उनकी रूह कांपती है. कोई फर्क न पड़ता इन बैटन से अगर बातें कौम कि पसमांद का बीस न होतीं.
क्या कभी आप ने गौर किया है कि सम्तें (दिशाएँ) कहाँ तक जाती हैं? ये वक़्त कब शुरू हुवा है? अल्लाह ईश्वर है? तो ज़ाहिर है इस के पहले के होंगे. ये क़ुरआनी अल्लाह हमको आदम तक की खबर देता है या फिर उनके बाद के नूह, मूसा, ईसा तक की और हर बात मुहम्मद पर जाकर ख़त्म हो जाती है. यानी करोरों सालों की तारीख को सिर्फ ६००० साल तक की खबर मुहम्मदी अल्लाह को है. आज वक़्त इतना आगे बढ़ चुका है कि दर्जा आठ का तालिब इल्म भी इस मुहम्मदी अल्लाह की खबर ले सकता है, वह इसके आधे फरमानों का मज़ाक बना सकता है. मगर मुसलमान बुजुर्गवार को समझाना बच्चे क्या न्यूटन के बस की बात भी नहीं . कभी कभी जी करता है कि जाने दें इस कौम को जहन्नम के ग़ार में मगर क्या करें कि इंसानी दिल हर इन्सान का खैर ख्वाह है.

"और जो लोग आखिरत पर ईमान नहीं रखते, ये हालत है कि उस रस्ते से हटते जाते हैं और अगर हम उन पर मेहरबानी फरमा दें और इन पर जो तकलीफ़ है उसको अगर हम दूर कर भी दें तो भी वह लोग अपनी गुमराहियों में भटकते हुए इसरार करते हैं और हमने उनको गिरफ़्तार भी किया है सो उन लोगों ने न अपने रब के सामने फरोतनी की न आजज़ी अख्तियार की."
सूरह मओमेनून २३- परा-१८ -आयत (७४-७६)
अल्लाह की बकवास का एक नमूना ही कही जाएगी ये आयत। जिसका कहीं से कोई मतलब ही नहीं निकलता. आलिमान दीन इसकी खूबी यूँ बयान करते हैं कि कुरआन को समझना हर एक की बस की बात नहीं. यानी इन कमियों में भी उन्हें खूबी नज़र आती है.


जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

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