Sunday 9 December 2012

सूरतुल रोम ३०-२१ वाँ पारा (2)

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.
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ईमान

सिने बलूगत से पहले मैं ईमान का मतलब माली लेन देन की पुख्तगी को समझता रहा मगर जब मुस्लिम समाज में प्रचलित शब्द "ईमान" को जाना तो मालूम हुवा कि "कलमाए शहादत", पर यक़ीन रखना ही इस्लामी इस्तेलाह (परिभाषा) में ईमान है, जिसका माली लेन देन से कोई वास्ता नहीं. कलमाए शहादत का निचोड़ है अल्लाह, रसूल, कुरआन और इनके फ़रमूदात पर आस्था के साथ यकीन रखना, ईमान कहलाता है. सिने बलूगत आने पर एहसास ने इस पर अटल रहने से बगावत करना शुरू कर दिया कि इन की बातें माफौकुल फितरत (अप्राकृतिक और अलौकिक) हैं. मुझे इस बात से मायूसी हुई कि लेन देन का पुख्ता होना ईमान नहीं है जिसे आज तक मैं समझता था. बड़े बड़े बस्ती के मौलानाओं की बेईमानी पर मैं हैरान हो जाता कि ये कैसे मुसलमान हैं? मुश्किल रोज़ बरोज़ बढती गई कि इन बे-ईमानियों पर ईमान रखना होगा. धीरे धीरे अल्लाह, रसूल और कुरानी फरमानों का मैं मुनकिर होता गया और ईमाने-अस्ल मेरा ईमान बनता गया कि कुदरती सच ही सच है. ज़मीर की आवाज़ ही हक है.
हम ज़मीन को अपनी आँखों से गोल देखते है जो सूरज के गिर्द चक्कर लगाती है, इस तरह दिन और रत हुवा करते हैं. अल्लाह, रसूल, कुरान और इनके फ़रमूदात पर यकीन करके इसे रोटी की तरह चिपटी माने, और सूरज को रत के वक़्त अल्लाह को सजदा करने चले जाना, अल्लाह का उसको मशरिक की तरफ से वापस करना - - -  ये मुझको क़ुबूल न हो सका. मेरी हैरत की इन्तहा बढती गई कि मुसलमानों का ईमान कितना कमज़ोर है. कुछ लोग दोनों बातो को मानते हैं, इस्लाम के रू से वह लोग मुनाफ़िक़ हुए यानी दोगले. दोगला बनना भी मुझे मंज़ूर हुवा.
मुसलमानों! मेरी इस उम्रे-नादानी से सिने-बलूगत के सफ़र में आप भी शामिल हो जाइए और मुझे अकली पैमाने पर टोकिए, जहाँ मैं ग़लत लगूँ. इस सफ़र में मैं मुस्लिम से मोमिन हो गया, जिसका ईमान सदाक़त पर अपने अकले-सलीम के साथ सवार है. आपको दावते-ईमान है कि आप भी मोमिन बनिए और आने वाले बुरे वक्त से नजात पाइए. आजके परिवेश में देखिए कि मुस्लमान खुद मुसलमानों का दुश्मन बना हुआ है वह भी पाकिस्तान, अफगानिस्तान, ईराक और दीगर मुस्लिम मुमालिक में. बाक़ी जगह गैर मुस्लिमो को वह अपना दुश्मन बनाए हुए है. कुरान के नाक़िस पैगाम अब दुन्या के सामने अपने असली रूप में नाजिल और हाजिर हैं. इंसानियत की राह में हक़ परस्त लोग इसको क़ायम नहीं रहने देंगे, वह सब मिलकर इस गुमराह कुन इबारत को गारत कर देंगे, उसके फ़ौरन बाद आप का नंबर होगा. जागिए मोमिन हो जाने का पहले क़स्द करिए, क्यूंकि मोमिन बनना आसान भी नहीं, सच बोलने और सच जीने में लोहे के चने चबाने पड़ते हैं. इसके बाद तरके-इस्लाम का एलान कीजिए.






सूरतुल रोम ३०-२१ वाँ पारा 

(दूसरी क़िस्त) 

अब आ जाएँ क़ुरआनी राग माले पर - - -  
"और इसी निशानियों में से ये है कि वह तुम्हें बिजली दिखाता है जिस से डर भी होता है और उम्मीद भी होती है और वही आसमान से पानी बरसता है, फिर उसी से ज़मीन को उस मुर्दा हो जाने के बाद जिंदा कर देता है. इसमें इन लोगों के लिए निशानियाँ हैं जो अक्ल रखते हैं. और इसी निशानियों में से ये है कि आसमान और ज़मीन उसके हुक्म से क़ायम हैं. फिर जब तुमको पुकार कर ज़मीन से बुलावेगा तो तुम यक बारगी पड़ोगे और जितने आसमान और ज़मीन हैं, सब उसी के ताबे हैं. और वही रोज़े अव्वल पैदा करता है और वही दोबारा पैदा करेगा, और ये इसके नजदीक ज्यादा आसान है. "
सूरतुल रोम ३०-२१ वाँ पारा आयत (२४-२७)
मुसलमानों अल्लाह को बाद में जानो, पहले निज़ामे कुदरत को समझो. पेड़ पौदों की तरह क्या इंसान ज़मीन से उगने शुरू हो जाएँगे? ज़मीन न मुर्दा होती है न जिंदा, पानी ही ज़िदगी है. बेतर ये होता कि अल्लाह एक बार इंसान को पानी की बूँदें की तरह योम हश्र बरसता. ये थोडा छोटा झूट होता. 

"अल्लाह तअला तुमसे एक मज्मूने-अजीब, तुम्हारे ही हालात में बयान फ़रमाते हैं, क्या तुम्हारे गुलामों में कोई शख्स तुम्हारा उस माल में जो हमने तुम्को दिया है, शरीक है कि तुम और वह इस में बराबर के हों, जिनका तुम ऐसा ख्याल करते हो जैसा अपने आपस में ख़याल किया करते हो? हम इसी तरह समझदार के लिए दलायल साफ़ साफ़ बयान करते हैं " 
सूरतुल रोम ३०-२१ वाँ पारा आयत (२८)
क्या अल्लाह की इस ना मुकम्मल बकवास में कोई दम है, अलबत्ता ये अजीबो गरीब ज़रूर है. 

"सो जिसको खुदा गुमराह करे उसको कौन राह पर लावे"
सूरतुल रोम ३०-२१ वाँ पारा आयत (२९)
ये आयत कुरआन में मुहम्मद का तकिया कलाम है जो बार बार आती है, नतीजतन मुसलमान इसे दोहराते रहते हैं, बगैर इस पर गौर किए कि आयत कह क्या रही है, कि अल्लाह शैतान से भी बड़ा शैतान है कि सीधे सादे अपने बन्दों को ऐसा गुमराह करता है कि उसका राह पर आना मुमकिन ही नहीं है. 

"जिन लोगों ने अपने दीन के टुकड़े टुकड़े कर रखे है और बहुत से गिरोह हो गए हैं, हर गिरोह अपने तरीक़े पर नाज़ाँ है जो उसके पास है - - - 
इंसान को कम से कम ज़ेहनी आज़ादी थी कि अपने आस्था के मुताबिक़ अपना खुदा चुने हुए था. वह इरतेकाई हालत के सहारे आज इंसान बन गया होता, अगर इस्लाम ने इसके पैर में बेड़ियाँ न डाली होती.
क्या उनको मालूम है कि अल्लाह तअला जिसको चाहे ज़्यादः रोज़ी दे देता है जिसको चाहे कम देता है. इसमें निशानियाँ हैं उन लोगों के लिए जो ईमान रखते हैं.- - - 
अल्लाह तअला नहीं बल्कि बन्दों के घटिया निजाम के चलते इंसानों की शहेन शाही और गदा गरी हुवा करती है, आज भी भारत में हर इंसान को लूट की आज़ादी है, चाहे देश में कोई तबक़ा भूकों मरे. दुन्य को चीन और डेनमार्क जैसे निज़ाम की ज़रुरत है.
अल्लाह ही वह है जिसने तुम को पैदा किया, फिर रिज्क़ दिया फिर मौत देता है, फिर तुमको जिलाएगा. क्या तुम्हारे शरीकों में कोई ऐसा है?- - - 
पहले अल्लाह को तलाशी, साबित करिए, फिर उसकी करनी तय करिए. अल्लाह तो मुहम्मद जैसे घाघ बजोर लाठी बने बैठे हैं और मुसलमानों को जेहालत पर ठहराए हुए है.
खुश्की और तरी में लोगों के आमाल के सबब बलाएँ फ़ैल रही हैं ताकि अल्लाह तअला उनके बअज़ आमाल का मज़ा उनको चखा दे ताकि वह बअज़ आएँ, 
मुसलमानों का अल्लाह इस इंतज़ार में रहता है कि कब मौक़ा मिले और कब इन बन्दों पर क़हर बरसाएं.
वाकई अल्लाह तअला काफिरों को पसंद नहीं करता - - - 
मुहम्मदी अल्लाह इंसानों में नफ़रत फैलता है और सियासत दान प्रचार करते हैं कि इस्लान ख़ुलूस, मुहब्बत, प्रेम और भाई चारे को फैलता है. काफिरों से नफ़रत का पैगाम ही मुसलामानों को बदनाम और कमज़ोर किए हुए है.
''और हमने आप से पहले बहुत से पैगम्बर इनके कौमों के पास भेजे और वह उनके पास दलायल लेकर आए सो हमने उन लोगों से इन्तेकाम लिया जो मुर्तकाब जरायम हुए थे और अहले ईमान को ग़ालिब करना हमारा ज़िम्मा था.'' 
ईसाइयत का खुदा हमेशा अपने बन्दों को माफ़ किए रहता है और कभी अपने बन्दों पर ज़ुल्म नहीं करता, इंतेक़ाम लेना तो वह जानता ही नहीं, नतीजतन वह दुन्या की सफ़े अव्वल की कौम बन गई है. इन्तेकाम के डर से मुसलमान हमेशा चिंतित रहता है और अपना क़ीमती वक़्त इबादत में सर्फ़ करता है,जिसे कि उसे अपनी नस्लों को सुर्खरू करने में लगाना चाहिए. इस अकीदे के बाईस वह बुजदिल भी है. जो अल्लाह बदला लेता हो उस पर लानत है. 

''सो आप मुर्दों को नहीं सुना सकते और बहरों को आवाज़ नहीं सुना सकते जब कि पीठ फेर कर चल दें, आप अंधों को उनकी बेराही से राह पर नहीं ला सकते, आप तो बस उनको सुना सकते हैं जो हमारी आयातों पर यकीन रखते हैं, बस वह मानते हैं.
सूरतुल रोम ३०-२१ वाँ पारा आयत (३०-५७) 
मुहम्मद को अपना राग अवाम को सुनाने का मरज़ था, वह राग जो बेरागा था. आज की नई क़द्रें ऐसे लोगों को पसंद नहीं करतीं, पहले भी इनको पसंद नहीं किया जाता था मगर लखैरों को माल ग़नीमत की लालच ने इस जुर्म को सफल बनाया, जिसका अंजाम बहर हाल आज का आईना है जिसे मुसलमान देखना ही नहीं चाहते. 

"और हमने इस कुरआन में तरह तरह के उम्दा मज़ामीन बयान किए हैं. और अगर आप उनके पास कोई निशानी ले आवें तब भी ये काफ़िर जो हैं, यही कहेंगे कि तुम सब निरा अहले बातिल हो. जो लोग यकीन नहीं करते अल्लाह तअला उनके दिलों में यूँ ही मुहर लगा देता है. तो आप सब्र कीजिए, बेशक अल्लाह का वादा सच्चा है, और ये बद यकीन लोग आपको बेबर्दाश्त न कर पाएँगे."
सूरतुल रोम ३०-२१ वाँ पारा आयत (६०-७५)
खुद खुद अल्लाह से मुहर लगवाते हैं और फिर चाहते हैं कि सब लोग उसको तोड़ें भी। 
सिडीसौदाइयों की तरह क्या क्या बक रहे हो, अल्लाह मियां? ये कौन लोग निरे अहले बातिल हैं? बद यकीन हैं? ये कौन लोग है जो आपको बेबर्दाश्त नहीं कर परहे है? ये बेबर्दाश्त क्या होता है. 


जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

3 comments:

  1. bahut khoob, kya shaandar likha hai.

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  2. आसिफ साहब,
    मैं यह मज़ामीन सिर्फ मुसलमान भाइयों के लिए ही लिखता हूँ , हिन्दू भी पढ़ कर अगर इसका फ़ायदा लें तो कट्टरता से दूर हो सकते है और मानव कल्याण में मेरे साथ आ सकते है , मगर मुसलमान जो गले तक कुरानी ग़लाज़त में डूबा हुआ है उसे कैसे निकाला जाए? वह आज तबाही की कगार पर है, जिसे यह ज़मीर फरोश ओलिमा इस गलाज़त से निकलने नहीं दे रहे।
    आप देखें कि यह नादान कैसे अपने खैर ख्वाह को गाली गलोज से नवाज़ रहे हैं। मैं आप जैसे मुसलमानों का शुक्र गुज़ार हूँ। आप मुसलमानों को आने वाली ज़िल्लत से आगाह करते रहे , हम लोग इस से ज्यादह और कर भी क्या सकते हैं।
    शुक्र गुज़ार मोमिन

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    1. मोमिन साहब ! मैं ने करीब करीब 1000 अरबी पुस्तकों का अध्यन किया है । कलम के मुजरिमीन हजरात हर मैजू में तवील बहस व मुबाहिसा के बाद ," वल्लाहु आलम " ही कहते नजर आ रहे हैं । फिर लाखों रू0 की सियाही ,और करोडों मिलियन्स के कागजात बरबाद करने की क्या जरूरत थी । आप का तबसरा सच्चाई और हकगोई पर मब्नी है ।आपकी जितनी भी तारीफ की जाए कम है ,, नई नस्ल इस्का भरपूर फाइदा उठा रही है।

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