Sunday 9 June 2013

Soorah Momin 40 (1)

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।

नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.

 सूरह मोमिन ४० पारा  २४  (1)

ये सूरह मक्का की है जोकि मुहम्मद की तरकीब, तबलीग और तक़रीर से पुर है. वह कुछ  डरे हुए है, उनको अपने ऊपर मंडराते ख़तरे का पता चल चुका है, पेशगी में इब्राहीम और मूसा की गिरफ़्तारी की आयतें गढ़ने लगे हैं. उन पर जो आप बीती होती है वह अगलों की आप बीती बन जाती है. नाक लगी फटने,  खैरात लगी बटने, उस वक़्त लोग उन्हें सुनते और दीवाने की बडबड जानकर नज़र अंदाज़ कर जाते. तअज्जुब आज के लोगों पर है कि लोग उसी बडबड को अल्लाह का कलाम मानने लगे हैं.
मुहम्मद जानते थे क़ि अल्लाह नाम की कोई मख्लूक़ नहीं है. उसका वजूद कयासों में मंडला रहा है,  इस लिए वह खुद अल्लाह बन कर कयासों में समां गए. इस हक़ीक़त को हर साहिब ए होश (बुद्धि जीवी) जनता है और हर बद ज़ाद आलिम भी. मगर माटी के माधव अवाम को हमेशा झूट और मक्र में ही सच्चाई नज़र आती है. वक़्त मौजूँ हो तो कोई भी होशियार मुहम्मद अल्लाह का मुखौटा पहन कर भेड़ों की भीड़ में खड़ा हो सकता है और वह कम अक़लों का खुदा बन सकता है. दो चार नस्लों के बाद वह मुस्तनद भी हो जाता है. ये हमारी पूरब की दुन्या की ख़ासियत  है.
मुहम्मद ने अल्लाह का रसूल बन कर कुछ ऐसा ही खेल खेला जिस से सारी दुन्या मुतास्सिर है. मुहम्मद इन्तेहाई दर्जा खुद परस्त और खुद ग़रज़ इंसान थे. वह हिकमते अमली में चाक चौबंद, पहले मूर्ति पूजकों को निशाना बनाया, अहले किताब (ईसाई और यहूदी) को भाई बंद बना रखा, कुछ ताक़त मिलने के बाद मुल्हिदों और दहरियों ( कुछ न मानने वाले, नास्तिक ) को निशाना बनाया, और मज़बूत हुए, तो अहले किताब को भी छेड़ दिया कि  इनकी किताबें असली नहीं हैं, इन्हों ने फर्जी गढ़ ली हैं, असली तो अल्लाह ने वापस ले लीं हैं. हालाँक़ि अहले किताब को छेड़ने का मज़ा इस्लाम ने भरपूर चखा, और चखते जा रहे हैं मगर खुद परस्त और खुद गरज मुहम्मद को इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता. वह को अपने सजदे में झुका हुवा देखना चाहते थे, इसके अलावा कुछ भी नहीं.
ईमान लाने वालों में एक तबका मुन्किरों का पैदा हुआ जिसने इस्लाम को अपना कर फिर तर्क कर दिया, जो मुहम्मदी खुदा को करीब से देखा तो इसे झूट क़रार दिया, उनको ग़ालिब मुहम्मद ने क़त्ल कर देने का हुक्म दिया इससे बा होश लोगों का सफाया हो गया, जो डर कर इस्लाम में वापस हुए वह मुरतिद कहलाए.
मुहम्मद खुद सरी, खुद सताई, खुद नुमाई और खुद आराई के पैकर थे. अपनी ज़िन्दगी में जो कुछ चाहा, पा लिया, मरने के बाद भी कुछ छोड़ना नहीं चाहते थे कि खुद को पैग़म्बरे आखरुज़ ज़मा बना कर कायम हो गए, यही नहीं मुहम्मद अपनी जिहालत भरी कुरआन को अल्लाह का आखरी निज़ाम बना गए. मुहम्मद ने मानव जाति के साथ बहुत बड़ा जुर्म किया है जिसका खाम्याज़ा सदियों से मुसलमान कहे जाने वाले बन्दे झेल रहे है.
अध् कचरी, अधूरी, पुर जेह्ल और नाक़िस कुछ बातों को आखरी निज़ाम क़रार दे दिया है. क्या उस शख्स के सर में ज़रा भी भेजा नहीं था क़ि वह इर्तेकाई तब्दीलियों को समझा ही नहीं. क्या उसके दिल में कोई इंसानी दर्द था ही नहीं कि इसके झूट एक दिन नंगे हो जाएँगे.तब इसकी उम्मत का क्या हश्र होगा?
आज इतनी बड़ी आबादी हज़ारों झूट में क़ैद, मुहम्मद की बख्शी हुई सज़ा काट रही है. वह सज़ा जो इसे विरासत में मिली हुई है, वह सज़ा जो ज़हनों में पिलाई हुई घुट्टी की तरह है, वह क़ैद जिस से रिहाई खुद कैदी नहीं गवारा करता, रिहाई दिलाने वाले से जान पर खेल जाता है. इन पर अल्लाह तो रहेम करने वाला नहीं, आने वाले वक्तों में देखिए, क्या हो? कहीं ये अपने बनाए हुए क़ैद खाने में ही दम न तोड़ दें. या फिर इनका कोई सच्चा पैगम्बर पैदा हो. 

"हा मीम"
सूरह मोमिन ४० परा २४ आयत (१)
अल्लाह का ये छू मंतर कभी एक आयत (बात) होती है और कभी कभी कोई बात नहीं होती. यहाँ पर ये "हा मीम" एक बात है जो की अल्लाह के हमल में है.

" ये किताब उतारी गई है अल्लाह की तरफ़ से जो ज़बर दस्त है. हर चीज़ का जानने वाला है, गुनाहों को बख्शने वाला है, और तौबा को क़ुबूल करने वाला है. सख्त सज़ा देने वाला और क़ुदरत वाला है. इसके सिवा कोई लायक़े इबादत नहीं है, इसके पास लौट कर जाना है. अल्लाह की इस आयत पर वही लोग झगड़ने लगते हैं जो मुनकिर हैं, सो उनका चलना फिरना आप को शुबहे में न डाले."
सूरह मोमिन ४० परा २४ आयत (२-४)

अल्लाह कोई ऐसी हस्ती नहीं है जो इंसानी दिल ओ दिमाग़ रखता हो, जो नमाज़ रोज़ा और पूजा पाठ से खुश होता हो या नाराज़. यहाँ तक कि वह रहेम करे या सितम ढाए जाने से भी नावाकिफ़ है. अभी तक जो पता चला है, हम सब सूरज की उत्पत्ति हैं और उसी में एक दिन लीन हो जाएँगे. हमारे साइंसदान कोशिश में हैं कि नसले इंसानी बच बचा कर तब तक किसी और सय्यारे को आबाद कर ले, मगर हमारे वजूद को फ़िलहाल लाखों साल तक कोई खतरा नहीं.

"जो फ़रिश्ते अर्श को उठाए हुए हैं और जो फ़रिश्ते इसके गिर्दा गिर्द हैं और अपने रब की तस्बीह और तम्हीद करते रहतेहैं और ईमान वालों के लिए इसतेगफ़ार करते रहते है कि ऐ मेरे परवर दिगार इन लोगों को बख्श दीजिए जिन्हों ने तौबा कर लिया है और उनके माँ बाप बीवी और औलादों में से जो लायक़ हों उनको भी बहिश्तों में दाखिल कीजिए."
सूरह मोमिन ४० परा २४ आयत (७-८)

जो फ़रिश्ते अर्श को उठाए हुए है तो उनका पैर किस ज़मीन पर टिकता है? फ़रिश्ते अर्श को उठाए हुए नहीं बल्कि अर्श में लटके अपनी जान की दुआ करने में लगे होंगे. मुहम्मद कितने सख्त हैं कि "उनके माँ बाप बीवी और औलादों में से जो लायक़ हों उनको भी बहिश्तों में दाखिल कीजिए." अगर इन लोगों ने इस्लाम को क़ुबूल कर लिया हो तभी वह लायक हो सकते हैं.
अल्लाह बने मुहम्मद अपनी तबीअत की ग़ममाज़ी  कुछ इस तरह करते हैं - - -
"बेशक जो लोग कुफ़्र की हालत में मर कर आए होंगे, उनको सुना दिया जाएगा जिस तरह आज तुम को अपने रब से नफ़रत  है, इससे कहीं ज़्यादः अल्लाह को तुम से नफ़रत थी जब तुमको दुन्या  में ईमान की तरफ़ दावत दी जाती थी और तुम इसे मानने से इंकार करते थे,"
सूरह मोमिन ४० परा २४ आयत (१०)

ऐसी आयतें बार बार इशारा करती है कि मुहम्मद अंदरसे खुद को खुदा माने हुए थे. इन से बड़ा जहन्नमी और कौन हो सकता है?


जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

3 comments:

  1. Mjhe to lag raha hai ki tu khud ko Allah smjh raha hai,,Jo daaru pi k ye hadees likh raha hai,,,saale tauba krle wrna ek nayi hadees tere pariwar me aa jayegi

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    1. पहले मोमिन की सच्ची बातों को पढो ,,,,तुम्हारी टिप्पणी, तुम्हारी जिहालत का संकेत दे रही है । कुरान ,हदीस ,में क्या अंतर है ? यह भी तुम नही जानते ।अक्ल से पैदल जो हो,, मैं तुमको चेतावनी देता हूं कि
      पढे लिखे लोगों के बीच अपनी सडी हुई शक्ल भी मत दिखाना गनदे जानवर ,,,,।

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    2. मोमिन साहब ने अपनी तहरीर में , सदाकत ,शराफत ,
      , फसाहत , और बलागत ,का मुकम्मल तौर पर ख्याल रखा है । इन कडवी सच्चाईयों को वही समझ सकता है जिसे कुदरत ने अक्ल ए सलीम से नवाजा हो , कव्वत ए फैसलः से महरूम लोग तो मुगल्लजात ही बक सकते हैं ।

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