Sunday 25 August 2013

सूरह जासिया -४५-(1)

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.

सूरह जासिया -४५-(1)

मुहम्मदी अल्लाह तअज्जुब में है कि  इसके कारनामें ज़मीन से लेकर आसमान तक बिखरे हुए हैं, आख़िर लोग इसके क़ायल क्यूँ नहीं होते? मुसलमान कुरआन को सैकड़ों साल से यक़ीन और अक़ीदे के साथ पढ़ रहे हैं, नतीजा ए कार ये है कि इनके समझ में ये आ गया कि मुहम्मद के ज़माने में कुफ्फार खुदा के क़ुदरत के क़ायल न रहे होंगे. या मुशरिकों का दावा रहा होगा कि बानिए कायनात उनके देवी देवता रहे होंगे. ये महेज़ इनका वह्म है. मगर कुरान ऐसी छाप इनके ज़ेहनो पर छोड़ता है. कि ज़माना ए मुहम्मद में इंसान दुश्मने अक्ल रहा होगा. ये कुरानी प्रोपेगंडा से फैलाया हुवा वहिमा है. 
वह लोग आज ही की तरह मुख्तलिफ फ़िक्र और मुख्तलिफ नज़रयात के मालिक हुवा करते थे. वह अल्लाह को मानने वाले और उसकी क़ुदरत को मानने और जानने वाले लोग थे. मुहम्मद ने जिस अल्लाह की तशकील की थी, वह उनकी फ़ितरत और उनकी सियासत के एतबार से था, यानी  ज़लिम, जाबिर, जाहिल, मकर फरेब का पैकर, मुन्तकिम  झूठा और खुदसर जिसकी तर्जुमानी मुहम्मद ने कुरआन में की है. अपनी इस गंदी हांडी के अन्दर, वह उस अज़ीम ताक़त को बन्द करके पकाना चाहते हैं जिसे क़ुदरत कहते हैं और परोसना चाहते हैं उन लोगों को जिनको क़ुदरत ने थोड़ी बहुत समझ दी है या अपना ज़मीर दिया है. जब वह इस गलाज़त को खाने से इंकार करते हैं तो वह उन पर इलज़ाम लगाते हैं
" तअज्जुब है कि अल्लाह की क़ुदरत को तस्लीम ही नहीं करते."
इधर हम जैसे लोग तअज्जुब में हैं कि एक अनपढ़, मक्र पैगमरी का फ़ासिक़, अपने धुन में किस क़दर आमादा ए रुसवाई था कि हज़ारों मज़ाक बनने के बाद भी, फिटकारने  और दुत्कारने के बाद भी, बे इज्ज़त और पथराव होने के बाद भी, मैदान से पीछे हटने को तैयार न था. फ़तह मक्का के बाद फिर तो ये फक्कड़ों और लखैरों का रसूल जब फातेह बन कर मक्का में दाख़िल हुवा होगा तो शहर के साहिबे इल्म ओ फ़िक्र पर क्या गुजरी होगी . आँखें बन्द करके सब्र कर गए होंगे, अपनी आने वाली नस्ल के मुस्तक़बिल को सोच कर वह जीते जी मर गए होंगे.
दस्यों लाख इंसानों का क़त्ल तो इस्लाम ने सिर्फ़ पचास साल में ही का डाला. 

एक ही राग को मुहम्मद सूरह शुरू होने से पहले हर बार गाते हैं - - -

"ये नाज़िल की हुई किताब है, अल्लाह ग़ालिब हिकमत वाले की तरफ़ से."
सूरह जासिया -४५- आयत (२)

झूट को सौ बार बोलो मुहम्मद साहब! हज़ार बार बोलो, लाख बार बोलो, झूट; झूट ही रहेगा. चाहे जितना ज़ोर लगा कर बोलो, बहर हाल झूट झूट ही रहेगा. तुम्हारे चेले ओलिमा चौदह सौ सालों से झूट को दोहरा रहे हैं फिर भी झूट को सच्चाई में तब्दील नहीं कर पाए.
अल्लाह कहीं कोई बेहूदा आयत गढ़ता है? 
यही नहीं अल्लाह क्या बोलता भी है, 
सवाल ये उठता है कि मुहम्मदी अल्लाह क्या हो भी सकता है? 
जो दाँव पेंच की बातें करता है, फिर भी तुम्हारे जाल में फँसे इंसान आज फडफडा रहे हैं, तुम्हारे बारे में ज़बान खोलने पर मौत तक दे दी जाती हैं, बहुत मुनज्ज़म गिरोह बन गया है झूट का जो इंसानों को झूट को ओढने और बिछाने पर मजबूर किए हुए है. 

"आसमान में और ज़मीन और ज़मीन पर  ईमान वालों के लिए बहुत से दलायल हैं और तुम्हारे और उन हैवानात के पैदा करने में जिनको ज़मीन पर फैला रखा है, दलायल हैं उन लोगों के लिए जो यक़ीन रखते हैं एक के बाद दीगरे रात और दिन के आने जाने में और उस रिज़्क के बारे में जिसको अल्लाह ने आसमान से उतरा "
सूरह जासिया - आयत (३-५)

निज़ाम ए क़ुदरत पर सतही और वक़ूफ़ाना तजज़िया को रूहानियत की पुडिया में भर कर मुहम्मद सीधे सादे लोगों को बेच रहे हैं.

"और ये अल्लाह की आयतें हैं जो सहीह सहीह तौर पर हम आपको पढ़ कर सुनाते हैं, तो फिर अल्लाह और इसकी आयातों के बाद और कौन सी बात पर ये लोग ईमान लावेंगे. बड़ी खराबी होगी हर ऐसे शख्स के लिए जो झूठा और नाफरमान है."  
सूरह जासिया - आयत (६-७)

मुहम्मद की तर्ज़ ए गुफ्तुगू ही झूट होने की गवाह है कि वह अपनी गढ़ी आयातों को "सहीह सहीह तौर पर" जताने की कोशिश करते हैं.

"जो अल्लाह की आयातों को सुनता है, जब इसके रूबरू पढ़ी जाती हैं, फिर भी वह तकब्बुर करता हुवा, इस तरह अड़ा रहता है, जैसे उसने उनको सुना ही न हो. सो ऐसे शख्स को एक दर्द नाक अज़ाब की खबर सुना दीजिए. और जब वह हमारी आयातों में से किसी आयत की ख़बर पाता है तो इसकी हँसी उड़ाता है, ऐसे लोगों के लिए सख्त ज़िल्लत का अज़ाब है." 
सूरह जासिया -४५- आयत (८-९)

क़ुरआन की हकीक़त यही थी, यही है  आज भी है और यही हमेशा रहेगी. आप किसी मुसलमान को क़ुरआनी आयतें अनजाने में ही सुनाइए  कि फलाँ धर्म ये बात कहता है तो वह इसकी खिल्ली उडाएगा मगर जब उसको बतलइए कि ये बात कुरआन की है तो वह अपमा मुँह पीट पीट कर तौबा तौबा करेगा..
मेरे मज़ामीन को बहुत से लोग कहते थे कि जाने कहाँ से आएँ बाएँ शाएँ  का कुरआन पेश करता है ये मोमिन. जब मैं नोट लगाया - - -
तो सब की बोलती बंद हो गई.

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

2 comments:

  1. सत्य को सभी को जानना और समझना चाहिए।

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  2. आप अच्छा लिखते है, जो सत्य है उसका अनुसरण करना चाहिए लेकिन कोई भी मनुष्य हो वह हमेशा सत्य लो छोड़ कर अन्धविश्वास का ही अनुशरण करता है............

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