Sunday 10 November 2013

Soorah Nazm 53 ( All)

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.
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सूरह नज्म ५३ - पारा २७ 


ईश निदा
आज कल मीडिया में शब्द "ईश निंदा" बहुत ही प्रचलित हो रहा है, जो दर अस्ल तालिबान नुमा मुसलामानों को संरक्षण देने का काम करता है. ईश निंदा का मतलब हुवा खुदा या ईश्वर का अपमान करना, जब कि नया दृष्ट कोण रखने वाले बुद्धि जीवी इस्लामी आदेशों की निंदा करते है. कुरान में ९०% आयतें मानवता के विरुद्धमें हैं, जिसकी निंदा करना मानव अधिकार ही नहीं, मानव धर्म भी है. कोई उस सृष्टि व्यापी अबूझी महा शक्ति को नहीं अपमानित करता, बल्कि अल्लाह बने मुहम्मद और उनके क़ुरआनी आदेशों का खंडन करता है, जो अमानवीय है.
हमारा नया कल्चर बना हुवा है सभी धर्मो का सम्मान करना, जिसे सेकुलरटी का नाम भी गलत अर्थों  में दिया गया है. सेकुलर का अर्थ है धर्म विहीन.  सेकुलरटी को भी एक नए धर्म का नाम जैसा बना दिया गया है.
ज़्यादः हिस्सा धर्म दूसरे धर्मों का विरोध करते हैं, जिसके तहत वह अधर्मी, काफ़िर और नास्तिकों को खुल्लम खुल्ला गालियाँ देते हैं. जवाब में अगर नास्तिक के मुँह से कुछ निकल जाए तो वह ईश निंदा हो जाता है, उसको तिजारती मीडिया ललकारने लगती है.
मेरी मांग है कि जागृत मानव को पूरा हक़ होना चाहिए कि वह अचेत लोगों की चेतना को सक्क्रीय करने के लिए इस्लाम निदा, क़ुरआन निंदा और मुहम्मदी अल्लाह की निंदा को ईश निदा न कहा जाए.बल्कि इसे मठा धीशों की "धीश निंदा" कहा जा सकता है.   
"क़सम है सितारे की जब वह ग्रूब होने लगे, ये तुम्हारे साथ  के रहने वाले (मुहम्मद) न राहे-रास्त से भटके, न ग़लत राह हो लिए और न अपनी ख्वाहिशात ए नफ्सियात से बातें बनाते हैं. इनका इरशाद निरी वह्यी है जो इन पर भेजी जाती है. इनको एक फ़रिश्ता तालीम करता है जो बड़ा ताक़तवर है, पैदैशी ताक़त वर."
सूरह नज्म ५३ - पारा २७ आयत (१-६)

जिस सितारे की क़सम खुद साख्ता रसूल खाते हैं उसके बारे में अरबियों का अक़ीदा है कि वह जब डूबने लगेगा तो क़यामत आ जाएगी.
भला कोई तारा डूबता और निकलता भी है क्या?
ग़ालिब कहते हैं - - -
थीं बिनातुन नास ए गर्दूं दिन के परदे में निहाँ,
शब  को इनके जी में क्या आया कि उरियां हो गईं.
अल्लाह इस जुगराफिया से बे खबर है.
बन्दों को इस से ज़्यादः समझने की ज़रुरत महसूस नहीं हो पाती कि वह समझे कि वादहू ला शरीक की क़सम खाने की क्या ज़रुरत पड गई मुहम्मदी अल्लाह को, जिसके कब्जे में कायनात है. वह तो पलक झपकते ही सब कुछ कर सकता है बिना कस्मी कस्मा के.
मुहम्मद का आई. क्यू. फ़रिश्ते  को पैदायशी ताक़त वर कहते है, तुर्रा ये कि इसको अल्लाह का कलाम कहते हैं जो बज़रिए वह्यी (ईश वाणी)  उन पर नाजिल होती है.

''फिर वह फ़रिश्ता असली सूरत में नमूदार हुवा,.ऐसी हालत में वह बुलंद कनारे पर था, फिर वह फ़रिश्ता नज़दीक आया फिर और नज़दीक आया, सो दो कमानों  के बराबर फ़ासला रह गया बल्कि और भी कम, फिर अल्लाह ने अपने बन्दे पर वह्यी नाज़िल फ़रमाई. जो कुछ नाज़िल फ़रमाई थी, क़ल्ब ने देखी हुई चीज़ में कोई ग़लती नहीं की. तो क्या इनकी देखी हुई चीज़ में निज़ाअ करते हो.?"
सूरह नज्म ५३ - पारा २७ आयत (७-१२)

 ऐ पढ़े लिखे मुसलमानों!
तुम अपने तालीमी सार्टी फिकेट, डिग्रियाँ और अपनी सनदें फाड़ कर नाली में डाल दो, अगर मुहम्मद की इन वाहियों पर ईमान रखते हो. उनकी बातों में हिमाक़त और जेहालत कूट कूट कर भरी हुई है. या फिर नशे के आलम में बक बकाई हुई बातें.
कुरआन यही है जो तुम्हारे सामने है.
 हमारे बुजुर्गो के ज़हनों को कूट कूट कर क़ुरआनी अक़ीदे को भरा गया है, इसे तलवार की ज़ोर पर हमारे पुरखों को पिलाया गया है, जिससे हम कट्टर मुसलमान बन गए.  इस कुरआन की असलियत जान कर ही हम नए सिरे से जाग सकते हैं.

*और उन्होंने इस फ़रिश्ते को एक बार और भी देखा है सद्रतुन-मुन्तेहा के पास इसके नजदीक जन्नतुल माविया है. जब इस सद्रतुल माविया को लिपट रही थीं, जो चीज़ लिपट रही थीं, निगाह न तो हटी न तो पड़ती उन्होंने अपने परवर दिगार के बड़े बड़े अजायब देखे."
सूरह नज्म ५३ - पारा २७ आयत (१३-१८)

मुसलमानों! जो इस्लाम आपके हाथ में है वह यहूदी अकीदतों की चोरी का माल है, जिसमें मुहम्मद ने कज अदाई करके इसकी शक्लें बदल दी है. सद्रतुन-मुन्तेहा जन्नत का एक मफरूज़ा दरख़्त है, जैसे ज़कूम को तुम्हारे नबी ने दोज़ख में उगाया था. इस दरख्त में क्या शय लिपट रही थी उसका  नाम अल्लाह के रसूल को याद नहीं रहा, जो चीज़ लिपट रही थी इनको ओलिमा ने तौरेत और दीगर पौराणिक किताबों से मालूम कर के तुमको बतलाया है. खुद अल्लाह सद्रतुन-मुन्तेहा और जन्नतुल माविया को अलग अलग बता नहीं सका, इन्हों ने अल्लाह की मदद की.
किस्से मेराज में इस फर्जी पेड़ का ज़िक्र है, उसी रिआयत से मुहम्मद तस्दीक करते हैं कि इसे एक बार और भी देखा है.

"भला तुमने लात, उज्ज़ा और मनात के हाल पर भी गौर किया है?
क्या तुम्हारे लिए तो बेटे हों और अल्लाह के लिए बेटियाँ? इस हालत में ये तो बहुत ही बेढंगी तकसीम है.
ये महेज़ नाम ही नाम है जिनको तुमने और तुम्हारे बाप दादाओं ने ठहराया, अल्लाह ने इनको माबूद होने की कोई दलील भेजी,  न हीं. ये लोग सिर्फ बे हासिल ख्याल पर और अपने नफस की ख्वाहिश पर चल रहे हैं. हालांकि इन्हें इनके रब की जानिब से हिदायत आ चुकी है. क्या इंसान को इसकी हर तमन्ना मिल जाती है?"
सूरह नज्म ५३ - पारा २७ आयत (१९-२३)

लात ,उज्ज़ा और मनात की टहनी से अल्लाह फुदक कर ईसाइयत की डाली पर आ बैठता है. अल्लाह तहज़ीबी इर्तेका को बेढंगी बात कहता है.
फिर लात, उज्ज़ा और मनात के हाल पर आता है कि इसे तो वह भूल ही गया था. अल्लाह ने इन बुतों को कोई दलील न देकर ठीक ही किया कि झूटी पैगम्बरी तो इनके पीछे नहीं गढ़ी हुई है.
काले जादू और सफेद झूट में अगर दीवानगी मिला दी जाए तो बनती हैं क़ुरआनी आयतें.

"तो भला आपने ऐसे शख्स को भी देखा जिसने दीन ए हक़ से रू गरदनी की और थोडा मॉल दिया और बंद कर दिया. क्या इस शख्स के पास इल्म गैब है? कि उसको देख रहा है."
सूरह नज्म ५३ - पारा २७ आयत (३३-३५)

कोई वलीद नाम का शख्स था जिसने मुहम्मद के हाथों पर हाथ रख कर बैत की थी और इस्लाम कुबूल किया था. वह अपने घर वापस जा रहा था कि उसे कोई शनासा मिल गया और तहकीक की. वलीद ने जवाब दिया कि तुमने ठीक ही सुना है. मैं डर रहा हूँ कि मरने के बाद कोई खराबी न दर पेश हो. शनासा ने कहा बड़े शर्म की बात है कि तुम ने अपना और अपने बुजुर्गों के दीन को छोड़ कर एक सौदाई की बातों पर यकीन कर लिया वलीद ने कहा मुमकिन है उसकी बातें सच हों और मैं जहन्नम में जा पडूँ?शनासा बोला भाई मैं तुम्हारे वह इम्कानी अज़ाब अपने सर लेने का वादा कर रहा हूँ, बशर्ते तुम मुझे कुछ मॉल देदो.वलीद इस बात पर राज़ी हो गया मागर कुछ मोल भाव के बाद. वलीद ने शनासा से इसकी तहरीर लिखवाई और दो लोगों की गवाही कराई फिर तय शुदा रक़म अदा करके अपने पुराने दीन पर लौट आया ये बात जब मुहम्मद के इल्म में आई तो मनदर्जा  बाला आयत नाज़िल हुई.
आप उस वक़्त के इस वाकए से तब के लोगों का ज़ेहनी मेयार को समझ सकते हैं.
कुछ वलीद जैसे गऊदियों ने इस्लाम क़ुबूल किया, फिर माले-गनीमत के लुटेरों ने. इसके बाद जंगी मजलूमों ने इसे कुबूल किया.
कुरआन खोखला पहले भी था और आज भी है.
वलीद जैसे सादा लौह कल भी थे और आज भी हैं.
देखना है तो टेली विज़न  पर बाबाओं, बापुओं, स्वामियों और पीरों की सजी हुई महफ़िल देख सकते हैं.
शनासा जैसे होशियार और होश मंद भी हमेशा रहे ही हैं.
ज़रुरत है कौम को चीन जैसे इन्क़लाब की, जो अवाम की ज़ेहनी मरम्मत गोलियों की चन्द आवाज़ से करें, वर्ना हमारा मुल्क इसी कश मकश की हालत में पड़ा रहेगा..


जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

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