Sunday 9 March 2014

Soorah nooh 71

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.
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सूरह नूह ७१ पारा २९

आजकल चार छः औसत पढ़े लिखे मुसलमान जब किसी जगह इकठ्ठा होते हैं तो उनका मौजू ए गुफ्तुगू होता है 
' मुसलामानों पर आई हुई आलिमी आफतें' 
बड़ी ही संजीदगी और रंजीदगी के साथ इस पर बहेस मुबाहिसे होते हैं. सभी अपनी अपनी जानकारियाँ और उस पर रद्दे अमल पेश करते हैं. अमरीका और योरोप को और उनके पिछ लग्गुओं को जी भर के कोसा जाता है. भगुवा होता जा रहा हिन्दुस्तान को भी सौतेले भाई की तरह मुखातिब करते हैं और इसके अंजाम की भरपूर आगाही भी देते हैं. सच्चे कौमी रहनुमा जो मुस्लिमों में है, उनको '
साला गद्दार है', 
कहकर मुखातिब करते हैं. वह मुख्तलिफ होते हुए भी अपने मिल्ली रहनुमाओं का गुन गान ही करते है.अमरीकी पिट्ठू अरब देशों को भी नहीं बख्शा जाता. बस कुछ नर्म गोशा होता है तो पाकिस्तान के लिए.
इसके बाद वह मुसलामानों की पामाली की वजह एक दूसरे से उगलवाने की कोशिश करते हैं, वह इस सवाल पर एक दूसरे का मुँह देखते हैं कि कोई सच बोलने की जिसारत करे. सच बोलने की मजाल किसकी है? इसकी तो सलाहियत ही इस कौम में नहीं. बस कि वह सारा इलज़ाम खुद पर आपस में बाँट लेते हैं, कि हम मुसलमान ही गुमराह हो गए हैं. 
माहौल में कभी कभी बासी कढ़ी  की उबाल जैसी आती है . कुरआन और हदीसों की बे बुन्याद अजमतों के अंबार लग जाते हैं, गोया दुन्या भर की तमाम खूबियाँ इनमें छिपी हुई हैं. माज़ी को जिन्दा करके अपनी बरतरी के बखान होते हैं. इस महफ़िल में जो ज़रा सा इस्लामी लिटरेचर का कीड़ा होता है, वह माहौल पर छा जाता है.
वह माजी के घोड़ो से उतारते हैं, हाल के हालात पर आने के बाद सर जोड़ कर बैठते हैं कि आखिर इस मसअले  का हल क्या है? हल के तौर पर इनको, इनकी गुमराही याद आती है और सामने इनके खड़ी होती है 'नमाज़'
ज़ोर होता है कि हम लोग अल्लाह को भूल गए हैं, अपनी नमाज़ों से गाफ़िल हो गए है. उन पर कुछ दिनों के लिए नमाज़ी इंक़लाब आता है और उनमें से कुछ लोग आरज़ी तौर पर नमाज़ी बन जाते है.
असलियत ये है कि आज मुसलमान जितना दीन के मैदान में डटा हुवा है उतना कभी नहीं था. 
इनकी पस्मान्दगी की वजह इनकी नमाज और इनका दीन ही है. मुसलमान अपने चूँ चूँ के मुरब्बे की चार दानी को उठा कर अगर ताक़  पर रख दें, तो वह किसी से पीछे नहीं रहेगे.

"हम ने नूह को इनके कौम के पास भेजा था कि तुम अपनी कौम को डराओ, क़ब्ल  इसके कि इन पर दर्द नक् अज़ाब आए."

क़ुरआनी आयतें साबित करती हैं कि  इंसान का पैदा होना ही उसके लिए अज़ाब है. ये पैगाम मुसलामानों को अन्दर से कमज़ोर किए हुए है. बेमार की तौबह इनको राहत पहुँचाती है, ये वजूद पर गैर ज़रूरी तसल्लुत है. कोई किसी को दर्द नाक अज़ाब क्यूँ दे? वह भी अल्लाह? बकवास है ये रसूली आवाज़.
"उनहोंने कहा ऐ मेरी कौम! मैं तुम्हारे लिए साफ़ साफ़ डराने वाला हूँ कि तुम अल्लाह की इबादत करो और उससे डरो और हमारा कहना मानो तो वह तुम्हारे गुनाह मुआफ करेगा और तुमको वक़्त मुक़र्रर तक मोहलत देगा."
मुहम्मद झूट का लाबादः ओढ़ कर खुद नूह बन जाते हैं, कभी इब्राहीम तो कभी मूसा. अफ़सोस कि इस्लामी दुन्या एक झूठे की उम्मत कहलाना पसंद करती है.

"नूह ने दुआ की कि ऐ मेरे अल्लाह! मैंने अपनी कौम को रात को भी और दिन को भी बुलाया, सो वह मेरे बुलाने पर और ही ज़्यादः भागते रहे और हमने जब भी बुलाया कि आप उनको बख्श दें, तो उन्हों ने अपनी उंगलियाँ अपने कानों में दे लीं और अपने कपडे लपेट लिए और इसरार किया और गायत दर्जे का तकब्बुर किया."

अपने कलाम में मुहम्मद अपने मेयार के मुताबिक फ़साहत और बलूगत भरने की कोशिश कर रहे हैं जब कि जुमले को भी सहीह अदा नहीं कर पा रहे.
सुबहो-शाम की जगह  "अपनी कौम को रात को भी और दिन को भी बुलाया" जैसे जुमलों में पेश करते हैं.
मालिके कायनात को क्या ऐसी हकीर बाते बकने के लिए है. मुहम्मद ने उस हस्ती को पामाल कर रखा है.

"फिर मैंने उन्हें बा आवाज़ बुलंद बुलाया, फिर मैंने उनको एलानिया भी समझाया और कहा कि तुम अपने परवर दिगार से गुनाह बख्शुआओ, बे शक वह बख्शने वाला है."

क्या किसी पागल की गुफ्तुगू इससे हटके हो सकती है?
"कसरत से तुम पर बारिश भेजेगा"
अगर तुम उम्मी को पैगम्बर मान लो तो.
"और तुम्हारे लिए बाग़ लगा देगा और नहरें बहा देगा."
शर्त है कि उसको अल्लाह का रसूल मानो.
"तुमको क्या हुवा कि तुम उसकी अजमतों के मुअत्किद नहीं हो."
उसकी अजमतों का सेहरा मक्कार मुहम्मद पर मत बाँधो, मुसलामानों  .
"और नूह ने कहा ऐ मेरे परवर दिगार! काफिरों में से ज़मीन पर एक भी बन्दा न छोड़, अगर तू इनको रूए ज़मीन पर रहने देगा तो ये आपके बन्दों को गुमराह कर देंदे और इनसे महेज़ फजिर और काफ़िर औलादें ही पैदा होंगी ."
अल्लाह को एक बन्दा समझा रहा है कि तू अपने बन्दों का गुनहगार बन जा, उसको नशेब ओ फ़राज़ समझा रह है.
क्या ये सब तुमको मकरूह नहीं लगता?
"ऐ मेरे रब ! मुझको, मेरे माँ बाप को और जो मोमिन होने की हालत में मेरे घर दाखिल हैं, और तमाम मुसलमान मर्द और मुसलमान औरतों को बख्श दे और ज़ालिमों की हलाक़त और बढ़ा दे."
सूरह नूह ७१ पारा २९ आयत (१-२७)

अल्लाह खुद किसी अल्लाह से दुआ मांग रहा है?

कितनी अहमक कौम है ये जिसको मुसलमान कहते हैं.


जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

1 comment:

  1. इन्सान के नजरिये से ही सब कुछ देखना चाहिए।

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