Friday 11 March 2016

Soorah kuhaf 18 Q2

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.
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सूरह कुहफ - १८

(दूसरी क़िस्त)

इंशा अल्लाह का मतलब है ''(अगर) अल्लाह ने चाहा तो।'' 
सवाल उठता है कि कोई नेक काम करने का इरादा अगर आप रखते हैं तो अल्लाह उसमे बाधक क्यूँ बनेगा? अल्लाह तो बार कहता है नेक कम करो. हाँ कोई बुरा काम करने जा रहो तो ज़रूर इंशा अल्लाह कहो, 
अगर वह राज़ी हो जाए? वह वाकई अगर अल्लाह है तो 
इसके लिए कभी राज़ी न होगा. अगर वह शैतान है तो 
इस की इजाज़त दे देगा. 
अगर आप बुरी नियत से बात करते हैं तो मेरी राय ये है कि इसके लिए इंशा अल्लाह कहने कि बजाए 
''इंशा शैतानुर्रजीम'' कहना दुरुत होगा. 
इसबात का गवाह खुद अल्लाह है कि शैतान बुरे काम कराता है. 
आपने कोई क़र्ज़ लिया और वादा किया कि मैं फलाँ तारीख को लौटा दूंगा. आप के इस वादे में इंशा अल्लाह कहने की ज़रुरत नहीं, 
क्यूँ कि क़र्ज़ देने वाले के नेक काम में अल्लाह की मर्ज़ी यकीनी है, 
तो वापसी के काम में क्यूँ न होगी? 
चलो मान लेते है कि उस तारीख में अगर आप नहीं लौटा पाए तो कोई फाँसी नहीं जाओ सुलूक करने वाले के पास, अपने आप को खता वार की तरह उसको पेश कर दो. वह बख्श दे या जुरमाना ले, उसे इसका हक होगा. रघु कुल रीति सदा चलि आई, प्राण जाएँ पर वचन न जाई.
इसी सन्दर्भ में भारत सरकार का रिज़र्व बैंक गवर्नर भरतीय नोटों पर वचन देता है- - -''
मैं धारक को एक सौ रूपए अदा करने का वचन देता हूँ'' 
दुन्या के सभी मुमालिक का ये उसूल है, उसमें सभी इस्लामी मुल्क भी शामिल है. जहाँ लिखित मुआमला हो, चाहे इकरार नामें हों या फिर नोट कहीं, इंशा अल्लाह का दस्तूर नहीं है. 
इंशा अल्लाह आलमी सतेह पर बे ईमानी की अलामत है. 
मुहम्मद ने मुसलमानों के ईमान को पुख्ता नहीं, बल्कि कमज़ोर कर दिया है, खास कर लेन देन के मुआमलों में. क़ुरआनी आयतें उन पर वचन देने की जगह '' इंशा अल्लाह'' कहने की हिदायत देती हैं, 
इसके बगैर कोई वादा या अपने आइन्दा के अमल को करने की बात को गुनहगारी बतलाती हैं. आम मुसलमान इंशा अल्लाह कहने का आदी हो चुका है. उसके वादे, कौल,क़रार, इन सब मुआमलों में अल्लाह की मर्ज़ी पर मुनहसर करता है कि वह पूरा करे या न करे. 
इस तरह मुसलमान इस गुंजाइश का नाजायज़ फ़ायदा ही उठाता है, नतीजतन पूरी कौम बदनाम हो चुकी है. मैंने कई मुसलामानों के सामने नोट दिखला कर पूछा कि अगर सरकारें इन नोटों में इंशा अल्लाह बढ़ा दें और यूँ लिखें कि ''मैं धारक को एक सौ रूपए अदा करने का वचन देता हूँ , इंशा अल्लाह '' तो अवाम क्या इस वचन का एतबार करेगी?, 
उनमें कशमकश आ गई. उनका ईमान यूँ पुख्ता हुवा है कि अल्लाह उनकी बे ईमानी पर राज़ी है, गोया कोई गुनाह नहीं कि बे ईमानी कर लो. 
इस मुहम्मदी फार्मूले ने पूरी कौम की मुआशी हालत को बिगड़ रख्खा है. सरकारी अफ़सर मुस्लिम नाम सुनते ही एक बार उसको सर उठ कर देखता है, फिर उसको खँगालता है कि लोन देकर रक़म वापस भी मिलेगी ? मेरे लाखों रूपये इन चुक़त्ता मुक़त्ता दाढ़ी दार मुसलमानों में डूबा है. 
कौमी तौर पर मुसलमान पक्का तअस्सुबी (पक्षपाती) होता है. पक्षपात की वजेह से भी मुस्लमान संदेह की नज़र से देखा जाता है .
मेरी तामीर में मुज़्मिर है इक सूरत ख़राबी की (ग़ालिब)
ग़ालिब का ये मिसरा मुसलमानों पर सादिक़ है कि इस्लामी तालीम ने उनको इंसानी तालीम से महरूम कर दिया है। मुसलमानों के लिए इससे नजात पाने का एक ही हल है कि वह तरके-इस्लाम करके दिलो-ओ-दिमाग़ से मोमिन बन जाएँ.
दीन दार मोमिन.
दीन= दयानत (सत्यता) + मोमिन = ईमान दार (इस्लामी ईमान नहीं)
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अब चलते है इन के ईमान पर - - -
''और आप किसी काम के निसबत यूँ न कहा कीजिए कि मैं इसको कल करूँगा, मगर खुदा के चाहने को मिला दिया कीजिए। और जब आप भूल जाएँ तो रब का ज़िक्र किया कीजिए। और कह दिया कीजिए कि मुझको उम्मीद है कि मेरा रब मुझ को दलील बनने के एतबार से इस से भी नज़दीक तर बात बतला दे।''
सूरह कुहफ १८ - पारा १५ आयत (२४)
मुलाहिज़ा फ़रमाइए,
है न मुहम्मदी अल्लाह की तअलीम. इंशा अल्लाह
' और वह लोग अपने ग़ार में तीन सौ बरस तक रहे और नौ बरस ऊपर और है। आप कह दीजिए कि खुदा तअला इनके रहने को ज्यादा जानता है तमाम आसमानों और ज़मीन का ग़ैब उसको है. वह कैसा कुछ देखने वाला और कैसा कुछ सुनने वाला है. इनका खुदा के सिवा कोई मददगार नहीं और न अल्लाह तअला अपने हुक्म में किसी को शरीक करता है.''
''सूरह कुहफ १८ - पारा १५ आयत (२५-२६)
मुहम्मद एक तरफ़ अपनी भाषा उम्मियत में वक्फ़े का एलान भी करते हैं, फिर लगता है इसका खंडन भी कर रहे हैं कि 
''आप कह दीजिए कि खुदा तअला इनके रहने को ज्यादा जानता है।'' 
वह खुद सर थे किसी की दख्ल अनदाज़ी उनको गवारा न थी , 
इसका एलन वह खुदाए तअला बनकर करते हैं कि 
''अपने हुक्म में किसी को शरीक करता है।''
''और जो आप के रब की किताब वह्यी के ज़रीए आई है उसको पढ़ दिया कीजिए, इसकी बातों को कोई बदल नहीं सकता। और आप खुदा के सिवा कोई और जाए पनाह नहीं पाएँगे''
सूरह कुहफ १८ - पारा १५ आयत (27)
मुसलमानों! मुहम्मदी अल्लाह अगर वाक़ई अल्लाह होता तो क्या इस किस्म की बातें करता? जागो कि तुम को सदियों के वक्फ़े में कूट कूट कर इस अक़ीदे का ग़ुलाम बनाया गया है।
''और आप अपने को उन लोगों के साथ मुक़य्यद रखा कीजिए जो सुब्ह शाम अपने रब की इबादत महज़ उसकी रज़ा जोई के लिए करते हैं और दुन्यावी ज़िन्दगी की रौनक के ख़याल से आप की आँखें उन से हटने न पाएँ और ऐसे लोगों का कहना न मानिए जिन के दिलों को हम ने अपनी याद से गाफ़िल कर रखा है, वह अपनी नफ़सानी ख्वाहिश पर चलता है - - 
सूरह कुहफ १८ - पारा १५ आयत (२८)
''और आप कह दीजिए कि हक़ तुम्हारे रब की तरफ़ से है सो जिसका जी चाहे ईमान ले आवे और जिस का जी चाहे काफ़िर बना रहे. बेशक हमने ऐसे जालिमों के लिए आग तैयार कर रखी है कि इनकी क़नातें उनको घेरे होंगी और अगर फ़रयाद करेंगे तो ऐसे पानी से उनकी फ़रयाद पूरी की जाएगी जो तेल की तलछट की तरह होगा, मुँहों को भून डालेगा. क्या ही बुरा पानी होगा, और क्या ही बुरी जगह होगी.'''
'सूरह कुहफ १८ - पारा १५ आयत (२९)
यह मुहम्मदी आयतें इस बात का सुबूत हैं कि तुम को मुहम्मद अपने पयम्बरी के क़ैद खाने में मुक़य्यद करने में कामयाब हैं। 
अब वक़्त की आवाज़ सुनो, जो तुम्हें इस से आज़ाद करना चाहता है। 
बस मुसलमान से मोमिन बन जाओ और इस गाफ़िल करने वाले शैतान मानिंद अल्लाह से नजात पाओ, कि जो खुद अपनी कमज़ोरियों का शिकार है. 
आज़ाद होकर अपनी नफ़सानी ज़िन्दगी जियो. 
तुम से तुम्हारी नफ्स इल्तेजा कर रही है कि अपनी नस्लों को मुकम्मल इन्सान बनाओ. नफ्स क्या है ? सिर्फ ऐश और अय्याशी को नफ्स नहीं कहते, ज़मीर की आवाज़ भी नफ्स है, इन्सान की जेहनी आज़ादी भी नफ्स है, मोहम्मद तो ऐश ओ अय्याशी को ही नफ्स जानते हैं, 
अंतर आत्मा जिसको पाने को तड़पती हो वह नफ्स है. 
तुम्हारी अंतर आत्मा की आवाज़ इस वक़्त क्या है? 
ऊपर अल्लाह की बख्शी हुई हूरें या अपने बच्चों का रौशन मुस्तक़बिल? ईमान की गहराइयों को गवाह कर के बतलाओ.
यह कुरान की साफ़ साफ़ आवाज़ है जिसको बड़े मौलाना अशरफ अली थानवी ने उर्दू में अनुवाद किया है, किसी हदीसे-ज़ईफ़ की नक्ल नहीं। 
देखो कि कितना बुरा अल्लाह है, कितना नाइंसाफ़ है कि ऐसे खौफों से डरता है कि अगर तुम ''मुहम्मदुर रसूल्लिल्लाह'' कह कर मरते तो क्या से क्या हो सकता था, 
क्या तुम क़नातों में घिरी दोज़ख में जलना पसंद करोगे और तेल की तलछट की तरह पानी पीना, जो मुँहों को भून डाले. बस बहुत हो गया , 
इस अक़ीदे को सर से झटक कर ज़मीन पर रख्खे कूड़ेदान में डाल दो.
याद रख्खो अल्लाह अगर है तो तुम्हारे बाप कि तरह शफीक़ होगा, कुरआन में बके हुए मुहम्मदी अल्लाह की मानिंद नहीं. 
इस ज़िन्दगी को बेख़ौफ़ होकर जीना सीखो।
'' बेशक जो लोग ईमान लाए और उन्हों ने अच्छे काम किए तो हम ऐसों का उज्र ज़ाया न करेंगे ऐसे लोगों के लिए हमेशा रहने के बाग़ हैं, इनके नीचे नहरें बहती होंगी और इनको वहाँ सोने के कँगन पहनाए जाएँगे और सब्ज़ रंग के कपडे बारीक और दबीज़ रेशम पहनेंगे और वहाँ मसेहरियों पर टेक लगाए होंगे क्या ही अच्छा सिला है और क्या ही अच्छी जगह है। 
और आप उन में से दो लोगों का हाल बयान कीजिए 
( बे सर ओ पर की कहानी - - -
आप पढना पसंद न करेगे और मुझे लिखने में कराहियत होती है. 
जिसका इख्तेसर है कि अल्लाह के न मानने वाले की कमाई जल कर साफ बदन हो गया और उसे मानने वाला सुखरू रहा.
सूरह कुहफ १८ - पारा १५ आयत (३० -४४)
ऐ लोगो! खुदा न खास्ता अगर मुहम्मदी ईमान को लेकर ही उठे तो तुहारी ऊपर बड़ी ख़राबी होगी। सब्ज़ रंग के बारीक और दबीज़ रेशम के कपडे पहने पहने तमाम उम्रे-मतनाही लिए बैठे रहोगे कि कोई काम काज न होगा, कोई ज़मीन न होगी जिसको उपजाऊ बनाने के लिए अपनी ज़िन्दगी वक्फ करो, कोई चैलेज न होगा, न कोई आगे की मंजिल, 
नफ्स की कोई माँग न होगी, सब कुछ बे माँगे मिलता रहेगा। 
अंगूर और खजूर खाने की तलब भर हुई कि उसकी शाखें तुम्हारे होटों के सामने होंगी। सोने का कंगन होगा उसकी कीमत तो इसी दुन्या में है जिसे तुम खो रहे हो, वहाँ सोने के मकान होंगे जिसमें सोने का कमोड होगा, फिर सोना लादना हिमाक़त ही लगेगा. 
आखिर ऐसी बे मकसद ज़िन्दगी का अंजाम क्या होगा? फिर याद आएगी तुम्हें अपनी यह दुन्या जिसको तुम गँवा रहे हो, मोहम्मदी झांसों में आकर.
''अल्लाह ज़मीन से पहाड़ों को हटा कर ज़मीन पर रोज़े-महशर सजाता है, ईमान का बदला देता है और फिर ईमान न लाने वाले मातम करते हैं, ये मुख़्तसर है इन आयतों का. ये नौटंकी कुरआन में बार बार देखने को मिलेगी.
''सूरह कुहफ १८ - पारा १५ आयत (४५-४९)
''मैंने उनको न आसमान और ज़मीन को पैदा करने के वक़्त बुलाया, और न खुद उनके पैदा होने के वक़्त और मैं ऐसा न था कि गुमराह करने वालों को अपना दोस्त बनाता। और उस दिन हक़ तअल्ला फ़रमाएगा जिन को तुम हमारा शरीक समझते थे उनको पुकारो, वह उनको पुकारेंगे सो वह उनको जवाब ही न देंगे और हम उनके दरमियान में एक आड़ कर देंगे और मुजरिम लोग दोज़ख को देखेंगे कि वह उस में गिरने वाले हैं और इससे कोई बचने की राह न पाएगा।"
सूरह कुहफ १८ - पारा १५ आयत (५१ ५३)
मतलब ये कि अल्लाह ने तुमको बड़ी आसानी से अकेले ही जन दिया, उसको किसी दाई, आया, नर्स या डाक्टर की ज़रूरत नहीं थी।
मुसलमानों! क्यूँ अपनी रुसवाई ज़माने भर में करवाने पर आमादः हो, सारा ज़माना इन आयातों को पढ़ रहा है और तुम पर थूक रहा है। 
क्या सदियों से इस्लामी बेड़ियों में जकड़े जकड़े तुम को इन बेड़ियों से प्यार हो गया है, चलो ठीक है ! मगर क्या ये जेहालत की बेड़ियाँ अपने बच्चों के पैरों में भी पहनने का इरादा है? 
दुन्या के करोरो इंसानों को जगाने का वक़्त, इक्कीसवीं सदी तुम को आगाह कर रही है कि 
'' तुम्हारी दास्ताँ रह जाएगी बस दस्तानोंमें.
"और हम ने इस कुरआन में लोगों की हिदायत के वास्ते हर किस्म के उम्दा मज़ामीन तरह तरह से बयान फ़रमाए हैं और आदमी झगडे में सब से बढ़ कर है.''
सूरह कुहफ १८ - पारा १५ आयत (५४)
ऐ दुश्मने-इंसानियत मुहम्मदी अल्लाह ! 
तूने शर, बोग्ज़, नफ़रत, जेहालत, बे ईमानी और हिमाक़त ही बका है, 
इस कुरआन में. अपनी खूबियाँ बखानने वाले! 
क्यूँ न आदमी को शरीफ़ तबअ मख्लूक़ बनाया, 
अपने पैगम्बर को पहले तालीम दी होती कि बातें करना सीखे, 
फिर सच बोलना सीखे, उसके बाद इंसानों की ज़िन्दगी की क़ीमत आँके कि जिसने लाखों सदियों से तेरी आपदाओं से बच बचा कर मानव जति को यहाँ तक ले आई है. 
वह तो इसे काफ़िर, मुशरिक, मुनकिर, मुल्हिद, यहाँ तक कि ईसाइयों और मूसाइयों को जानवरों की तरह मार देने की तअलीम दे रहा है. 
और ऐ मुसलमानों कब तक ऐसे अल्लाह और उसके ऐसे रसूल के आगे सजदा करते रहोगे?''
''और उन्हों ने मेरी आयातों को और जिस से उनको डराया गया था, उसको दिललगी बनाए रक्खा है। - - -
सूरह कुहफ १८ - पारा १५ आयत (५७)
ऐ मुहम्मदी अल्लाह! तेरी आयतें तो हैं ही ऐसी कि दुन्या भर में मज़ाक बनी हुई हैं। बस मुसलमानों की आँखें ही नहीं खुल रहीं। अपना मज़ाक उड़ते देख कर उनको शर्म नहीं आती क्यूँ कि वह जन्नत के फरेब में मुब्तिला हैं, हालांकि उसमें भी अंततः दुर्गन्ध है.
'' - - -और बस्तियां जब उन्हों ने शरारत की तो हमने उनको हलाक कर दिया।
''सूरह कुहफ १८ - पारा १५ आयत (५९)
और तू इंसानी बस्तियों के साथ कर भी क्या सकता है? 
तेरे डाकिए मुहम्मद ने इंसानों को हैवान बना दिया, 
वह उसकी पैरवी में लग कर २०% इंसानी आबादी के पैरों में बेड़ियाँ डाले हुए हैं। इस वक़्त पूरी दुन्या मिल कर उनको फ़ना करने पर आमादा है.
मुसलमानों! जागो, आँखें खोलो। 
इक्कसवीं सदी की सुब्ह हुए देर हुई, देखो कि ज़माना चाँद सितारों पर सीढियां लगा रहा है. कल जब यह ज़मीन सूरज के गोद में चली जाएगी तो बाकी लोग अपनी अपनी नस्लों को लेकर उस पर बस जाएँगे और तुम्हारी नस्लें कहीं की न होंगी. तुम समझते हो कि तुम हक़ बजानिब हो? तो तुम बहके हुए हो. तुमको बहकाए हुए हैं, इस्लामी ओलिमा, जिनका कि ज़रीआ मुआश ही इस्लाम है. इनका पूरा माफिया सकक्रीय है. इनका नेट वर्क ओबामा जैसे अच्छे लीडर को हिलाए हुए है. 
इनकी पकड़ सीधे सादे मुसलमानों को अपनी मुट्ठी में दबोचे हुए है. 
ज़रा सर उठा कर तो देखो, इनके एजेंट तुम को फ़तवा देना शुरू कर देंगे, समाज में इनके इस्लामी गुंडे तुम्हारे बगल में ही बैठे होंगे, 
तुम को अलावा समझाने बुझाने के ये और कोई राय नहीं देंगे.
हर एक का मुआमला पेट से जुड़ा हुवा है यह तो तुम मानते हो. वह भी मजबूर हैं कि उनकी रोज़ी रोटी है, गोरकुन की तरह. कोई मुक़र्रिर बना हुवा है, कोई मुफक्किर, कोई प्रेस चला कर, इस्लामी किताबों की इशाअत जो उसकी रोज़ी है, कोई नमाज़ पढ़ाने के काम पर, तो कोई अजान देने का मुलाजिम है, मीडिया वाले भी ओलिमा को बुला कर तुम्हें आकर्षित करते हैं कि चैनल के शाख का सवाल है. यहाँ तक कि इस ब्लाग की दुन्या में भी ऐसे लोगों ने अपने बच्चों के पोषण का ज़रीआ तलाश कर लिया है. 
यह सब मिल कर तुम्हें सुलाए हुए हैं. 
कोई जगाने वाला नहीं हैं. तुम को खुद आँखें खोलनी होगी।
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जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

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