Monday 23 May 2016

Soorah Furqan 25 Q 1

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.

*****************

सूरह फुरकान-२५
(पहली किस्त)
ईमान

सिने बलूगत से पहले मैं ईमान का मतलब माली लेन देन की पुख्तगी को समझता रहा मगर जब मुस्लिम समाज में प्रचलित शब्द "ईमान" को जाना तो मालूम हुवा कि "कलमाए शहादत", पर यक़ीन रखना ही इस्लामी इस्तेलाह (परिभाषा) में ईमान है, जिसका माली लेन देन से कोई वास्ता नहीं. कलमाए शहादत का निचोड़ है अल्लाह, रसूल, कुरआन और इनके फ़रमूदात पर आस्था के साथ यकीन रखना, ईमान कहलाता है. सिने बलूगत आने पर एहसास ने इस पर अटल रहने से बगावत करना शुरू कर दिया कि इन की बातें माफौकुल फितरत (अप्राकृतिक और अलौकिक) हैं. मुझे इस बात से मायूसी हुई कि लेन देन का पुख्ता होना ईमान नहीं है जिसे आज तक मैं समझता था. बड़े बड़े बस्ती के मौलानाओं की बेईमानी पर मैं हैरान हो जाता कि ये कैसे मुसलमान हैं? मुश्किल रोज़ बरोज़ बढती गई कि इन बे-ईमानियों पर ईमान रखना होगा. धीरे धीरे अल्लाह, रसूल और कुरानी फरमानों का मैं मुनकिर होता गया और ईमाने-अस्ल मेरा ईमान बनता गया कि कुदरती सच ही सच है. ज़मीर की आवाज़ ही हक है.
हम ज़मीन को अपनी आँखों से गोल देखते है जो सूरज के गिर्द चक्कर लगाती है, इस तरह दिन और रत हुवा करते हैं. अल्लाह, रसूल, कुरान और इनके फ़रमूदात पर यकीन करके इसे रोटी की तरह चिपटी माने, और सूरज को रत के वक़्त अल्लाह को सजदा करने चले जाना, अल्लाह का उसको मशरिक की तरफ से वापस करना - - -  ये मुझको क़ुबूल न हो सका. मेरी हैरत की इन्तहा बढती गई कि मुसलमानों का ईमान कितना कमज़ोर है. कुछ लोग दोनों बातो को मानते हैं, इस्लाम के रू से वह लोग मुनाफ़िक़ हुए यानी दोगले. दोगला बनना भी मुझे मंज़ूर हुवा.
मुसलमानों! मेरी इस उम्रे-नादानी से सिने-बलूगत के सफ़र में आप भी शामिल हो जाइए और मुझे अकली पैमाने पर टोकिए, जहाँ मैं ग़लत लगूँ. इस सफ़र में मैं मुस्लिम से मोमिन हो गया, जिसका ईमान सदाक़त पर अपने अकले-सलीम के साथ सवार है. आपको दावते-ईमान है कि आप भी मोमिन बनिए और आने वाले बुरे वक्त से नजात पाइए. आजके परिवेश में देखिए कि मुस्लमान खुद मुसलमानों का दुश्मन बना हुआ है वह भी पाकिस्तान, अफगानिस्तान, ईराक और दीगर मुस्लिम मुमालिक में. बाक़ी जगह गैर मुस्लिमो को वह अपना दुश्मन बनाए हुए है. कुरान के नाक़िस पैगाम अब दुन्या के सामने अपने असली रूप में नाजिल और हाजिर हैं. इंसानियत की राह में हक़ परस्त लोग इसको क़ायम नहीं रहने देंगे, वह सब मिलकर इस गुमराह कुन इबारत को गारत कर देंगे, उसके फ़ौरन बाद आप का नंबर होगा. जागिए मोमिन हो जाने का पहले क़स्द करिए, क्यूंकि मोमिन बनना आसान भी नहीं, सच बोलने और सच जीने में लोहे के चने चबाने पड़ते हैं. इसके बाद तरके-इस्लाम का एलान कीजिए.
आइए देखते है उन दुश्मन-इंसानियत मुहम्मदी अल्लाह के नाक़िस और साजिशी क़ुरआनी पैगाम की हक़ीक़त क्या है - - -
सूरह फुरकान

"बड़ी आली शान ज़ात है जिसने ये फैसले की किताब अपने बंद-ए-खास पर नाज़िल फरमाई ताकि तमाम दुन्या जहाँ को डराने वाला हो"
सूरह फुरकान-२५-१८वाँ पारा आयत (१)

गौर तलब है अल्लाह खुद अपने मुँह से अपने आप को आली शान कह रहा है. जिसकी शान को बन्दे शबो-रोज़ अपनी आँखों से खुद देखते हों, उसको ज़रुरत पड़ गई बतलाने और जतलाने की? कि मैं आलिशान हूँ. मुहम्मद को बतलाना है कि वह बन्दा-ए-खास हैं. जिनको उनके अल्लाह ने काम पर लगा रक्खा है कि बन्दों को झूटी दोज़ख से डराया करो कि यही चाल है कि तुझको लोग पैगम्बर मानें. 

से कुरैशी तमाम अरब के हुक्मरान बन गए थे, खुद मुहम्मद सम्राट बन सकते थे, मगर  मुहम्मद दोनों हाथों में लड्डू चाहते थे कि जेहादी सियासत के साथ साथ अल्लाह के दूत भी बने रहें ताकि मूसा और ईसा की तरह अमर हो जाएँ. क़ुरआनी आयतें और हदीसें इस बात की गवाह हैं कि मुहम्मद में बादशाह बन्ने की सलाहियत न थी. कुरआन की आयतों को सुन कर मक्का में लोगों ने इन्हें 'मसलूबुल अक्ल' यानी अक्ल से पैदल, कहकर नज़र अंदाज़ किया मगर वह लोग जिहादी फार्मूले को समझ नहीं पाए.
"और काफ़िर लोग कहते हैं ये तो कुछ भी नहीं, निरा झूट है जिसको एक शख्स ने गढ़ लिया है और दूसरे लोगों ने इसमें इसकी इमदाद की है. सो ये लोग बड़े ज़ुल्म और झूट के मुर्तकब हुए, और यह लोग कहते हैं ये कुरआन बेसनद बातें हैं जो अगलों से मनकूल चली आ आई हैं, जिसको इसने लिखवा लिया है, फिर इसको सुब्ह व् शाम तुमको पढ़ कर सुनाता है. और ये लोग कहते है इस रसूल को क्या हुवा, वह हमारी तरह खाना खाता है, और बाज़ार में चलता फिरता है. इसके पास कोई फ़रिश्ता क्यूं नहीं भेजा गया कि वह इसके साथ रहकर डराता या इसके पास कोई खज़ाना आ पड़ता या इसके पास कोई बाग़ होता जिससे ये खाया करता. ये ज़ालिम यूँ कहते हैं कि मसलूबुल अक्ल की रह चल पड़े हो." 
सूरह फुरकान-२५-१८वाँ पारा आयत (४-८)

उस वक़्त के मफ्रूज़ा काफ़िर आज के आलिमों से ज्यादह समझ दार और ईमान वाले रहे होंगे, ज़रा सी जिसारत करते तो इस्लामी बीज को अंकुरित ही न होने देते जो मुस्तकबिल में पूरी दुन्या पर अजाब बन कर नाज़िल हुवा. उम्मी के कुरान की हकीकत यही है, "निरा झूट है जिसको एक शख्स ने गढ़ लिया है और दूसरे लोगों ने इसमें इसकी इमदाद की है" वाकई कुरआन गैर मुस्तनद एक दीवाने की गाथा है, इस्लाम मुहम्मद के जीते जी एक साम्राज बन चुका था, मुहम्मद मंसूबे के मुताबिक लूट मार और जोरो-ज़ुल्म 
"देखिए तो ये लोग आपके लिए कैसी अजीब अजीब बातें बयान कर रहे हैं. वह गुमराह हो गए हैं. फिर वह राह नहीं पा सकते. वह ज़ात बड़ी आली शान है  कि चाहे तो आप को इससे अच्छी चीज़ दे दे, यानी बहुत से बागात कि जिसके नीचे से नहरें बहती हों और आप को बहुत से महेल देदे, बल्कि ये लोग क़यामत को झूट समझ रहे हैं और हम ने ऐसे लोगों के लिए जो क़यामत को झूट समझे, दोज़ख तैयार कर राखी है."
सूरह फुरकान-२५-१८वाँ पारा आयत (९-११).

" अजी कुछ सुना आपने! ये लोग आपके लिए कैसी अजीब अजीब बातें बयान कर रहे हैं." जैसे कोई घर वाली अपने मियाँ से कहती हो 
फिर शौहर का जवाब होता है "बकने दो वह राह नहीं पा सकते. वह ज़ात मेरे लिए बड़ी आली शान है कि चाहे तो माबदौलत को इससे अच्छी चीज़ दे दे यानी बहुत से बागात कि जिसके नीचे से नहरें बहती हों जैसे जन्नत, अल्लाह जन्नतियों को देने का वादा हर सूरह में दोहराता है. और माबदौलत को बहुत से महेल देदे "
कितनी परले दर्जे की अय्यारी है कि नबी शामो-हया को घोट कर पी गए हों. 
      
"और वह इसको दूर से देखेंगे तो इसका जोश खरोश नहीं सुनेंगे और जब वह इसकी किसी तंग जगह में हाथ पाँव जकड कर डाल दिए जाएँगे तो वहाँ मौत ही मौत पुकारेंगे, कहा जाएगा कि अब मौत को मत पुकारो बल्कि बहुत सी मौतों को पुकारो आप कहिए क्या ये अच्छी है या वह हमेशा रहने वाली जन्नत जिसका कि अल्लाह से डरने वालों से वादा किया गया है,"
सूरह फुरकान-२५-१८वाँ पारा आयत (१२-१६)

अगर कोई अल्लाह की इन बातों का यकीन करता है तो वह अक्ल से पैदल है कि अल्लाह अपने अरबों खरबों बन्दों को बांधे छान्देगा वह भी तंग जगह में? और फिर ताने देगा कि मुहम्मद को मेरा डाकिया क्यूं नहीं माना. सब मुर्दे मिलकर गिडगिडाएंगे, मौत मांगें गे तो वह भी नहीं मिलेगी. मुहम्मदी अल्लाह किस कद्र ज़ालिम और बेरहम है.    
मुहम्मद को इस बात का इल्म नहीं कि जन्नत और दोज़ख इन्सान के दिल में होता है, ये कहीं बाहर नहीं है. वह नादानों का दिल दहला कर इंसानियत का खून कर रहे हैं.   

"और जिस रोज़ अल्लाह तअला इन काफिरों को और उनको जिन्हें वह अल्लाह के सिवा पूजते हैं, जमा करेगा और फरमाएगा कि क्या तुमने हमारे बन्दों को गुमराह किया है? या ये खुद गुमराह हो गए थे ? माबूदैन (पूज्य) कहेंगे कि मअज़ अल्लाह मेरी क्या मजाल कि हम आप के सिवा किसी को कारसाज़ तजवीज़ करते. लेकिन आपने इनको और इनके बड़ों को आसूदगी दी यहाँ तक कि वह आपको भुला बैठे और खुद ही बर्बाद हो गए. अल्लाह तअला कहेगा कि लो तुम्हारे  मअबूदों ने तुम को तुम्हारी बातों में ही झूठा ठहरा दिया तो अबा अज़ाब को न तुम टाल सकते हो न मदद दिए जा सकते हो"
सूरह फुरकान-२५-१८वाँ पारा आयत (१७-१९)

मुहम्मद की चाल-घात इन आयतों में उनपर खुली लअनत भेज रही हैं  कि जिन मिटटी की मूर्तियों को वह बेहुनर और बेजान साबित करते है वही अल्लाह के सामने जानदार होकर मुसलमान हो जाएँगी और अल्लाह से गुफ्तुगू करने लगेंगी और अल्लाह की गवाही देने लायक बन जाएँगी."मअज़ अल्लाह मेरी  क्या मजाल कि हम आप के सिवा किसी को कारसाज़ तजवीज़ करते" माबूदैन की पहुँच अल्लाह तक है तो काफ़िर उनको अगर वसीला बनाते हैं तो हक बजानिब हुवे.
अक्सर मुसलमान कमन्यूज़म पर मुहम्मद का एहसान मंद होने की राय रखते हैं. कार्ल मार्क्स और लेनिन ने भी पूँजी वाद के खिलाफ रहनुमाई की है मगर पैगम्बरी ढोंग से हट कर. उन्होंने ने ज़िदगी में कितनी परेशनियाँ झेली हैं कि मुहम्मद उनके मुकाबिले में अशर ए अशीर भी नहीं. उन्हों ने कौम को अपनी उम्मत नहीं बनाया और न खैरात जैसी प्रथा कायम किया. न अपने कुरैशी बिरादरी को अपना जाँ नशीन बनाया. न मास्को और बर्लिन को मक्का का दर्जा दिया.

   "वह यूँ कहते हैं कि हमारे पास फ़रिश्ते क्यूँ नहीं आते या हम अपने रब को देख लें. ये लोग अपने आप को बहुत बड़ा समझ रहे है और ये लोग हद से बहुत दूर निकल गए हैं. जिस रोज़ ये फरिश्तों को देख लेंगे उस रोज़ मुजरिमों के लिए कोई ख़ुशी की बात न होगी. देख कर कहेंगे पनाह है पनाह."
सूरह फुरकान-२५-१९वाँ पारा आयत (२२)

ऐसी आयतें इन्सान को निकम्मा और उम्मत को नामर्द बनाए हुए हैं. दुनिया की तरक्की में मुसलामानों का कोई योगदान नहीं. ये बड़े शर्म की बात है
.

************

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

No comments:

Post a Comment