(दूसरी किस्त)
मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन की चुनौतियाँ
आम मुसलामानों को कहने में बड़ा गर्व होता है कि कुरआन की एक आयत (वाक्य) भी कोई इंसान नहीं बना सकता क्यूंकि ये आल्लाह का कलाम है. दूसरी फ़ख्र की बात ये होती है कि इसे मिटाया नहीं जा सकता क्यूंकि यह सीनों में सुरक्षित है, (अर्थात कंठस्त है.) यह भी धारणा आलिमों द्वारा फैलाई गई है कि इसकी बातों और फ़रमानों को आम आदमी ठीक ठीक समझ नहीं सकता, बगैर आलिमों के. सैकड़ों और भी बे सिरों-पर की खूबियाँ इसकी प्रचारित हैं.
सच है कि किसी दीवाने की बात को कोई सामान्य आदमी दोहरा नहीं सकता और आपकी अखलाकी जिसारत भी नहीं कि किसी पागल को दिखला कर मुसलामानों से कह सको कि यह रहा, बडबडा रहा है क़ुरआनी आयतें. एक सामान्य आदमी भी नक्ल में मुहम्मद की आधी अधूरी और अर्थ हीन बातें स्वांग करके दोहराने पर आए तो दोहरा सकता है, कुरआन की बक्वासें मगर वह मान कब सकेंगे. मुहम्मद की तरह उनकी नक्ल उस वक़्त लोग दोहराते थे मगर झूटों के बादशाह कभी मानने को तैयार न होते. हिटलर के शागिर्द मसुलेनी ने शायद मुहम्मद की पैरवी की हो कि झूट को बार बार दोहराव, सच सा लगने लगेगा. मुहम्मद ने कमाल कर दिया, झूट को सच ही नहीं बल्कि अल्लाह की आवाज़ बना दिया, तलवार की ज़ोंर और माले-ग़नीमत की लालच से. मुहम्मद एक शायर नुमा उम्मी थे, और शायर को यह भरम होता है कि उससे बड़ा कोई शायर नहीं, उसका कहा हुवा बेजोड़ है.
कुरआन के तर्जुमानों को इसके तर्जुमे में दातों पसीने आ गए, मौलाना अबू कलाम आज़ाद सत्तरह सिपारों का तर्जुमा करके, मैदान छोड़ कर भागे. मौलाना शौकत अली थानवी ने ईमानदारी से इसको शब्दार्थ में परिवर्तित किया और भावार्थ को ब्रेकेट में अपनी राय देते हुए लिखा, जो नामाकूल आलिमों को चुभा. इनके बाद तो तर्जुमानों ने बद दयानती शुरू कर दी और आँखों में धूल झोंकना उनका ईमान और पेशा बन गया.
दर अस्ल इस्लाम की बुनियादें झूट पर ही रख्खी हुई, अल्लाह बार बार यक़ीन दिलाता है कि उसकी बातें इकदम सही सही हैं, इसके लिए वह कसमें भी खाता है. इसी झूट के सांचे को लेकर ओलिमा चले हैं. इनका काम है मुहम्मद की बकवासों में मानी ओ मतलब पैदा करना. इसके लिए ताफ्सीरें(व्याख्या) लिखी गईं जिसके जारीए शरअ और आध्यात्म से जोड़ कर अल्लाह के कलाम में मतलब डाला गया. सबसे बड़ा आलिम वही है जो इन अर्थ हीन बक बक में किसी तरह अर्थ पैदा कर दे. मुहम्मद ने वजदानी कैफ़ियत (उन्माद-स्तिथि) में जो मुंह से निकाला वह कुरआन हो गया अब इसे ईश वाणी बनाना इन रफुगरों का काम है.
जय्यद आलिम वही होता है जो कुरान को बेजा दलीलों के साथ इसे ईश वाणी बनाए.
मुसलमान कहते हैं कुरआन मिट नहीं सकता कि ये सीनों में क़ायम और दफ़्न है. यह बात भी इनकी कौमी बेवकूफी बन कर रह गई है, बात सीने में नहीं याद दाश्त यानी ज़हनों में अंकित रहती है जिसका सम्बन्ध सर से है. सर खराब हुआ तो वह भी गई समझो. जिब्रील से भी ये इस्लामी अल्लाह ने मुहम्मद का सीना धुलवाया था, चाहिए था कि धुलवाता इनका भेजा. रही बात है हाफ़िज़े (कंठस्त) की, मुसलमान कुरआन को हिफ्ज़ कर लेते हैं जो बड़ी आसानी से हो जाता है, यह फूहड़ शायरी की तरह मुक़फ्फा (तुकान्तित) पद्य जैसा गद्य है, आल्हा की तरह, गोया आठ साल के बच्चे भी इसके हाफिज़ हो जाते हैं, अगर ये शुद्ध गद्य में होता तो इसका हफिज़ा मुश्किल होता.
१-आधीनता २-सेनाधिकार ३-स्वछंदता ५-सुंदरी,धन,सुरा,६-अपराध ७-अल्लाह अपनी बात न मानने वालों को गूंगे,बहरे और अंधे कह कर मना करता है कि मत समझो इनको,इनकी समझ में न आएगा
जीम 'मोमिन' निसरुल-ईमान
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मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस)
मुसम्मी '' हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी'' का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
प्रिय दोस्तों और दुश्मनों मेरे!
पिछले ब्लॉग पर आप लोगों के कोई कमेंन्ट्स नहीं आए मायूसी हो रही है।
बे तअल्लुकी उनकी कितनी जान लेवा है,
आज हाथ में उनके फूल है न पत्थर है।
मोमिन अपने लिए तो नहीं लिखता मगर शायद आप को ये अच्छा नहीं लगता कि मैं हिदू वादी हूँ, न इस्लाम वादी, मैं इस्लाम विरोधी हूँ तो मुझे हिदू समर्थक होना चाहिए - - -
हिन्दू के लिए मैं इक मुलिम ही हूँ, आख़िर,
मुलिम ये समझते हैं गुमराह है काफ़िर.
इंसान भी होते हैं कुछ लोग जहाँ में,
गफ़लत में हैं ये दोनों समझेगा मुनकिर.
विडम्बना ये है कि हमारे समाज में ज्यादाः तर लोग आपस सीगें लड़ाते हुए यही दोनों हैं, फिर भी ये मत देखिए कि कौन कह रहा है, यह देखिए कि क्या कह रह है,
क़ुरआन की चुनौतियाँ
आम मुसलामानों को कहने में बड़ा गर्व होता है कि कुरआन की एक आयत (वाक्य) भी कोई इंसान नहीं बना सकता क्यूंकि ये आल्लाह का कलाम है. दूसरी फ़ख्र की बात ये होती है कि इसे मिटाया नहीं जा सकता क्यूंकि यह सीनों में सुरक्षित है, (अर्थात कंठस्त है.) यह भी धारणा आलिमों द्वारा फैलाई गई है कि इसकी बातों और फ़रमानों को आम आदमी ठीक ठीक समझ नहीं सकता, बगैर आलिमों के. सैकड़ों और भी बे सिरों-पर की खूबियाँ इसकी प्रचारित हैं.
सच है कि किसी दीवाने की बात को कोई सामान्य आदमी दोहरा नहीं सकता और आपकी अखलाकी जिसारत भी नहीं कि किसी पागल को दिखला कर मुसलामानों से कह सको कि यह रहा, बडबडा रहा है क़ुरआनी आयतें. एक सामान्य आदमी भी नक्ल में मुहम्मद की आधी अधूरी और अर्थ हीन बातें स्वांग करके दोहराने पर आए तो दोहरा सकता है, कुरआन की बक्वासें मगर वह मान कब सकेंगे. मुहम्मद की तरह उनकी नक्ल उस वक़्त लोग दोहराते थे मगर झूटों के बादशाह कभी मानने को तैयार न होते. हिटलर के शागिर्द मसुलेनी ने शायद मुहम्मद की पैरवी की हो कि झूट को बार बार दोहराव, सच सा लगने लगेगा. मुहम्मद ने कमाल कर दिया, झूट को सच ही नहीं बल्कि अल्लाह की आवाज़ बना दिया, तलवार की ज़ोंर और माले-ग़नीमत की लालच से. मुहम्मद एक शायर नुमा उम्मी थे, और शायर को यह भरम होता है कि उससे बड़ा कोई शायर नहीं, उसका कहा हुवा बेजोड़ है.
कुरआन के तर्जुमानों को इसके तर्जुमे में दातों पसीने आ गए, मौलाना अबू कलाम आज़ाद सत्तरह सिपारों का तर्जुमा करके, मैदान छोड़ कर भागे. मौलाना शौकत अली थानवी ने ईमानदारी से इसको शब्दार्थ में परिवर्तित किया और भावार्थ को ब्रेकेट में अपनी राय देते हुए लिखा, जो नामाकूल आलिमों को चुभा. इनके बाद तो तर्जुमानों ने बद दयानती शुरू कर दी और आँखों में धूल झोंकना उनका ईमान और पेशा बन गया.
दर अस्ल इस्लाम की बुनियादें झूट पर ही रख्खी हुई, अल्लाह बार बार यक़ीन दिलाता है कि उसकी बातें इकदम सही सही हैं, इसके लिए वह कसमें भी खाता है. इसी झूट के सांचे को लेकर ओलिमा चले हैं. इनका काम है मुहम्मद की बकवासों में मानी ओ मतलब पैदा करना. इसके लिए ताफ्सीरें(व्याख्या) लिखी गईं जिसके जारीए शरअ और आध्यात्म से जोड़ कर अल्लाह के कलाम में मतलब डाला गया. सबसे बड़ा आलिम वही है जो इन अर्थ हीन बक बक में किसी तरह अर्थ पैदा कर दे. मुहम्मद ने वजदानी कैफ़ियत (उन्माद-स्तिथि) में जो मुंह से निकाला वह कुरआन हो गया अब इसे ईश वाणी बनाना इन रफुगरों का काम है.
जय्यद आलिम वही होता है जो कुरान को बेजा दलीलों के साथ इसे ईश वाणी बनाए.
मुसलमान कहते हैं कुरआन मिट नहीं सकता कि ये सीनों में क़ायम और दफ़्न है. यह बात भी इनकी कौमी बेवकूफी बन कर रह गई है, बात सीने में नहीं याद दाश्त यानी ज़हनों में अंकित रहती है जिसका सम्बन्ध सर से है. सर खराब हुआ तो वह भी गई समझो. जिब्रील से भी ये इस्लामी अल्लाह ने मुहम्मद का सीना धुलवाया था, चाहिए था कि धुलवाता इनका भेजा. रही बात है हाफ़िज़े (कंठस्त) की, मुसलमान कुरआन को हिफ्ज़ कर लेते हैं जो बड़ी आसानी से हो जाता है, यह फूहड़ शायरी की तरह मुक़फ्फा (तुकान्तित) पद्य जैसा गद्य है, आल्हा की तरह, गोया आठ साल के बच्चे भी इसके हाफिज़ हो जाते हैं, अगर ये शुद्ध गद्य में होता तो इसका हफिज़ा मुश्किल होता.
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''फिर वह (मरियम) उसको (ईसा को) गोद में लिए हुए कौम के सामने आई. लोगों ने कहा ऐ मरियम तुमने बड़े गज़ब का काम किया है .ऐ हारुन की बहेन! तुम्हारे बाप कोई बुरे नहीं थे, और न तुम्हारी माँ बद किरदार. बस कि मरियम ने बच्चे की तरफ इशारा किया, लोगों ने कहा भला हम शख्स से कैसे बातें कर सकते हैं ? जो गोद में अभी बच्चा है. बच्चा खुद ही बोल उट्ठा कि मैं अल्लाह का बन्दा हूँ . उसने मुझ को किताब दी और नबी बनाया और मुझको बरकत वाला बनाया. मैं जहां कहीं भी हूँ. और उसने मुझको नमाज़ और ज़कात का हुक्म दिया जब तक मैं ज़िन्दा हूँ. और मुझको मेरी वाल्दा का खिदमत गार बनाया, और उसने मुझको सरकश और बद बख्त नहीं बनाया. और मुझ पर सलाम है. जिस रोज़ मैं पैदा हुवा, और जिस रोज़ रेहलत करूंगा और जिस रोज़ ज़िदा करके उठाया जाऊँगा. ये हैं ईसा इब्ने मरियम. सच्ची बात है जिसमे ये लोग झगड़ते हैं. अल्लाह तअला की यह शान नहीं कि वह औलाद अख्तियार करे वह पाक है.''सूरह मरियम १९-१६ वाँ पारा- आयत(२७-३४)पिछली किस्त में आपने पढ़ा कि क़ुरआन में किस शर्मनाक तरीक़े से मुहम्मद ने मरियम को जिब्रील द्वारा गर्भवती कराया और ईसा रूहुल-जिब्रील पैदा हुए. अब देखिए कि दीवाना पैगम्बर, ईसा का तमाशा मुसलमानों को क्या दिखलाता है? विडम्बना ये है कि मुसलमान इस पर यक़ीन भी करता है, क़ुरआन का फ़रमाया हुवा जो हुवा. मरियम हरामी बच्चे को पेश करते हुए समाज को जताती है कि मेरा बच्चा कोई ऐसा वैसा नहीं, यह तो खुद चमत्कार है कि पैदा होते ही अपनी सफाई देने को तय्यार है. लो, इसी से बात करलो कि ये कौन है. लोगों के सवाल करने से पहले ही एक बालिश्त की ज़बान निकल कर टाँय टाँय बोलने लगे ईसा अलैहिस्सलाम . ज़ाहिर है उनके डायलोग और चिंतन उम्मी मुहम्मद के ही हैं. बच्चा कहता है, ''मैं अल्लाह का बन्दा हूँ '' जैसे कि वह देखने में भालू जैसा लग रहा हो. मुहम्मद को उनके अल्लाह ने चालीस साल की उम्र में क़ुरआन दिया था, ईसा को पैदा होते ही किताब मिली? जैसे कि ईसा का पुनर जन्म हुवा हो, और वह अपने पिछले जन्म की बात कर रहे हों. मुहम्मद की कुबुद्धि बोल चाल में इस स्तर की है कि इल्म की दुन्या में जैसे वह थे. व्याकरण, काल, भाषा, परस्तुति, इनकी गौर तलब है. लेखन की दुन्या में अगर इन आयतों को दे दिया जय तो मुहम्मद की बुरी दुर्गत हो जाए. इन्ही परिस्थियों में जो आलिम इसके अन्दर मानी, मतलब और हक़ गोई पैदा कर दे, वह इनआम याफ़्ता आलिम हो सकता है. मुसलमानों के सामने ये खुली खराबी है कि वह ऐसी क़ुरआन पर लअनत भेज कर इससे मुक्ति लें. अपने मुंह मियाँ मिट्ठू बने ईसा मुहम्मद की नमाज़,ज़कात और इस्लाम का प्रचार भी करते हैं.
''तमाम ज़मीन और इस पर रहने वालों के हम ही मालिक रह जाएँगे और ये सब हमारे पास ही लौटे जाएँगे ''सूरह मरियम १९-१६ वाँ पारा- आयत(४०)
मुसलामानों तुम्हारा अल्लाह कितना बडबोला है, यह बशर का सच्चा अल्लाह तो नहीं हो सकता. वह जो भी हो, जैसा भी हो, अपने आप में रहे, मखलूक को क्यूँ डराता धमकाता है ? हम उससे डरने वाले नहीं, क्या हक़ है उसे मखलूक को सज़ा देने की ? क्या मखलूक ने उससे गुज़ारिश की थी कि हम पैदा होना चाहते हैं, इस तेरी अज़ाबुन-नार में? अपनी तमाश गाह बनाया है दुन्या को? ऐसा ही ज़ालिम ओ जाबिर अगर है अगर तू , तो तुझ पर लअनत है।
''तमाम ज़मीन और इस पर रहने वालों के हम ही मालिक रह जाएँगे और ये सब हमारे पास ही लौटे जाएँगे ''सूरह मरियम १९-१६ वाँ पारा- आयत(४०)
मुसलामानों तुम्हारा अल्लाह कितना बडबोला है, यह बशर का सच्चा अल्लाह तो नहीं हो सकता. वह जो भी हो, जैसा भी हो, अपने आप में रहे, मखलूक को क्यूँ डराता धमकाता है ? हम उससे डरने वाले नहीं, क्या हक़ है उसे मखलूक को सज़ा देने की ? क्या मखलूक ने उससे गुज़ारिश की थी कि हम पैदा होना चाहते हैं, इस तेरी अज़ाबुन-नार में? अपनी तमाश गाह बनाया है दुन्या को? ऐसा ही ज़ालिम ओ जाबिर अगर है अगर तू , तो तुझ पर लअनत है।
बकौल शायर, कहता है - - -
मरियम १९-१६ वाँ पारा- आयत(४१-५०)सूरह मरियम में मुहम्मद तकिया कलाम रहमान है, वह किसी एक शब्द को पाकर उसका इस्तेमाल बार बार करते हैं, ऐसा होता है ये इंसानी फितरत है, रहमानी नहीं. इन आयातों को उतारते हुए मुहम्मद अपने चचा अबू तालिब को ज़ेहन में रख्खा है कि वह भी मुहम्मद बेटे की तरह समझा था मगर जीते जी इस्लाम को कुबूल नहीं किया. मुहम्मद ने उनसे ठीक इसी तरह की बातें की थीं
सूरह मरियमइसके बाद अल्लाह अपनी उबाऊ भाषा में कटा है कि जब इब्राहीम अपने लोगों से अलग ही तो अल्लाह ने उनको बेटा इशाक और पोता याकूब दिया।
जीम 'मोमिन' निसरुल-ईमान
मोमिन साहब,
ReplyDelete"फिर भी ये मत देखिए कि कौन कह रहा है, यह देखिए कि क्या कह रह है,"
इसिलिये हम हिंदु होते हुए भी बेनामी टिप्पणी करने के लिये विवश है,इसलिये नहिं कि कोइ डर है,बल्कि इसलिये कि समर्थक सारे हिंदु ही दिखायी दिये तो,आपका मुस्लिमों को जगाने का उद्देश्य प्रभावहीन हो जायेगा।
भले उनके व्यवहार से हम उन्हे पसंद नहिं करते,पर कहिं न कहिं उनके भी भले की इच्छा है,सर्वे भवंतु सुखिनः॥ की भावना है।
यदि आपके प्रयास से उनके जीवनस्तर में सुधार आता है,बिना किसी भय के मुख्यधारा में विलिन होते है,भारतियता अपनाते है और आप के कहे अनुसार सच्चे मोमिन बनते है तो सबसे ज्यादा खुशी हमें होगी।
आपके लेखों से स्पष्ठ हो चुका है,कि आक्रमकता,आतंक,पिछडापन,जाहिलियत,का बीज कुरआन में ही छिपा है।
निश्चित ही मुसलमानों के प्रति 'परायेपन का शक़','वफ़ादारी का शक़','हिंसात्मकता का शक़' आपके इसी प्रयोग व प्रयास से दूर होने की सम्भावनाएं है।
आपको प्रोत्साहित न कर पायें,तो भी समझ लिजियेगा कि आपको हमारा पूर्ण समर्थन है।
पूरी हिम्मत के साथ मुसलामानों के लिए जागरण यात्रा करें, अपना मानव धर्म निभाएं। क्योंकि वह गहरी अन्ध विश्वास की नींद सो रहा है, जगाईये।
ReplyDeleteबेनामी से सहमत!!!!!
ReplyDeleteभले उनके व्यवहार से हम उन्हे पसंद नहिं करते,पर कहिं न कहिं उनके भी भले की इच्छा है,सर्वे भवंतु सुखिनः॥ की भावना है।
यदि आपके प्रयास से उनके जीवनस्तर में सुधार आता है,बिना किसी भय के मुख्यधारा में विलिन होते है,भारतियता अपनाते है और आप के कहे अनुसार सच्चे मोमिन बनते है तो सबसे ज्यादा खुशी हमें होगी।
आपके लेखों से स्पष्ठ हो चुका है,कि आक्रमकता,आतंक,पिछडापन,जाहिलियत,का बीज कुरआन में ही छिपा है।
निश्चित ही मुसलमानों के प्रति 'परायेपन का शक़','वफ़ादारी का शक़','हिंसात्मकता का शक़' आपके इसी प्रयोग व प्रयास से दूर होने की सम्भावनाएं है।
आपको प्रोत्साहित न कर पायें,तो भी समझ लिजियेगा कि आपको हमारा पूर्ण समर्थन है।
पूरी तरह सहमत
मोमिन जी
ReplyDeleteआप बहुत अच्छा काम कर रहे हैं. हम चाहकर भी आपको अपने नाम से कमेंट्स नहीं कर पाते, क्योंकि इस्लाम के...........जमाल, असलम कासमी, सलीम, सलीम उर्फ खुर्शीद, कैरान्वी छदम नाम से गाली-गलौच पर उतर आते हैं.
मन में एक प्रश्न है- मुस्लमान हिन्दुओं से या यूं कहें की दूसरे धर्मों से नफरत क्यों करते हैं, जबकि हिन्दुओं ने तो इनका कुछ नहीं बिगाड़ा. देखा जाये तो मुसलमाओं ने ही हमारे देश पर आक्रमण कर हमें लूटा. हमारे मन्दिरों को लूटा. हमारी माँ-बहनों को अपमानित किया.
भले मानुषो!
ReplyDeleteआप लोग समझ रहे हैं कि मेरे प्रयास से मुस्लमान प्रभावित नहीं हो रहे तो गलत है, वह आपसे ज़्यादः अपने समाज से डरते हैं, इस लिए अपनी प्रतिक्रिया नहीं दे रहे हैं. इसके अलावा ज़ेहनी परिवर्तन स्लो पायोज़न होता है. दोनों कौमो में संस्कार और तरबियत की गहरी छाप है. सच तो यह है कि धर्म और मज़हब ही घृणा के घूट पिलाते हैं. शिरडी के फ़कीर ने ''साईं बाबा'' होना पसंद किया और हिदुओं में पूजा जाने लगा जब कि वह आखिरी दम तक नमाज़ का पाबंद रहा. अपनी कट्टरता के चलते मुसलमान उसकी बरकतों से महरूम रह गए.
प्रकृति के पवन जल से सिंचित और शोधित मानव ''मोमिन'' होता है. इस्लाम ने इस मुक़द्दस और पवित्र शब्द का इस्लामी करण कर लिया है इस लिए ये शब्द मुसलमान हो गया. मुझे जात पात की कोई सियासत नहीं करना है, मानव को मानव मात्र का पैगाम दे रहा हूँ, यही मेरा धर्म है.
कुरआन ही सत्य है. कुरान अल्लाह की किताब है. कुरान के संदेश देखिये_
ReplyDeleteजब हराम के महीने बीत तो फिर मुशरिकों (गैर मुसलमानों)को जहाँ पाओ क़त्ल करो,और पकड़ो,उन्हें घात लगा कर घेरो, हर जगह उनकी तक में रहो,अगर वो नमाज कायम कर लें तो उनको छोड़ दो नहीं तो उनकी उंगलिया और गर्दन काट लो.निसंदेह अल्लाह बड़ा क्षमाशील है.(कुरान 10:9:5)
जब तुम काफिरों से भिड जाओ तो उनकी गर्दन काट दो, और जब तुम उन्हें खूब कत्ल कर चुको तो जो उनमे से बच जाये उन्हें मजबूती से कैद कर लो (कुरान 26: 47.4 )
निश्चित रूप से काफिर मुसलमानों के खुले दुश्मन है (इस्लाम में भाई चारा केवल इस्लाम को मानने वालों के लिए है) (कुरान 5 : 4.101)
मुसलमानों को अल्लाह का आदेश है की काफिरों के सर काट कर उड़ा दो ,और उनके पोर -पोर मारकर तोड़ दो (कुरान 9 : 8. 12)
हे इमान वालों, मूर्तिपूजक नापाक हैं.( कुरान 10:9.28)
निस्संदेह मूर्तिपूजक तुम्हारे दुश्मन हैं.-( कुरान 5: 4.101)
हे नबी,काफिरों से जिहाद करो.उनको जहन्नम में पहुचाओ.( कुरान 24: 41.27)
"इसके अलावा ज़ेहनी परिवर्तन स्लो पायोज़न होता है."
ReplyDeleteतो आज तूने अपनी असलियत अपने मुंह से ही कुबूल कर ली, मोमिन के भेस में छुपे शैतान! तू मुसलमानों को स्लो पायेजन दे रहा है.इंसानियत का नाटक बंद कर शैतान की औलाद.
आप वाकई बड़े हिम्मतवाले है.
ReplyDeleteआपको सलाम
मोमिन जी ,
ReplyDeleteदेखिए गधा मोहम्मद उमर कैरान्वी केराना मुज़फ्फर नगर से फिर आप का खेत चरने आ गया, भगाइए.
Anonymous साहब ,
ReplyDeleteमत भागइए, चरने दीजिए,. मेरे खेत को उपजाऊ भी तो कर रहे हैं, उसमें मल त्याग कर. यकीनन ये लबो-लहजा उनका ही हो सकता है. मोटी अक्ल पाई है हज़रात ने. मैं ने धर्माधरों को स्लो पोइज़न देने की बात लिखी है जिसमें हिन्दू और मुसलमान दोनों शामिल हैं, मगर उनहोंने अपने मतलब की पकड़ी. मेरा पूरा अभियान मुसलामानों को जगाने और आंदोलित करने का है, मैं मुसलामानों का नादान दोस्त नहीं. बेशक मैं मुहम्मदी अल्लाह का जानी दुश्मन हूँ. इसका खून आठ उन पूर्व सोवियत यूनियन में हो चुका है, जहाँ इस्लाम था , तमाम कम्युनिष्ट देशों में भी इसके जरासीम ख़त्म किए जा चुके हैं.स्पेन में यह दफ्न हो चुका है. मैं शैतान की अवलाद होसकता हूँ मगर खुदा न करे कि आपके बच्चे किसी मुल्ले की अवलाद हो.