मेरी तहरीर में - - -
(पहली किस्त)
मैं एक मिटटी से वापस आ रहा था, साथ में मेरे एक खासे पढ़े लिखे रिश्तेदार भी थे. चलते चलते उन्हों ने एक झाड़ से कुछ पत्तियां नोच लीं, उसमें से कुछ खुद रख लीं और कुछ मुझे थमा दीं. मैं ने सवाल्या निशान से जब उनको देखा तो समझाने लगे कि मिटटी से लौटो तो हमेशा हरी पत्ती के साथ घर में दाखिल हुवा करो. मैंने सबब दरयाफ्त किया कि इस से क्या होता है? तो बोले इस से होता कुछ नहीं है, ये मैं भी जनता हूँ मगर ये एक समाजी दस्तूर है, इसको निभाने में हर्ज क्या है? घर में घुसो तो औरतें हाथ में हरी पत्ती देखकर मुतमईन हो जाती हैं, वर्ना बुरा मानती है. ये है कबीलाई जिंदगी की जेहनी गुलामी का एक नमूना. ये बीमारी नस्ल दर नस्ल हमारे समाज में चली आ रही है. ऐसे बहुतेरे रस्म ओ रिवाज को हमारा समाज सदियों से ढोता चला आ रहा है. तालीम के बाद भी इन मामूली अंध विशवास से लोग उबार नहीं प् रहे.
दूसरी मिसाल इसके बर अक्स मैं अपनी तहरीर कर रहा हूँ कि मेरी शरीक-हयात दुल्हन के रूप में अपने घर से रुखसत होकर मेरे घर नकाब के अन्दर दाखिल हुईं, दूसरे दिन उनको समझा बुझा कर नकाब को अपने घर से रुखसत कर दिया, कि दोबारा उनपर उसकी साया तक नहीं पड़ी. मेरे इस फैसले से नई नवेली दुल्हन को भी फितरी राहत महसूस हुई, मगर वक्ती तौर पर उनको इसकी मुखालफत भी झेलनी पड़ी, बिल आखिर भावजों को इससे हौसला मिला, कि उन्हों ने भी नकाब तर्क कर दिया. इसका देर पा असर ये हुवा कि पैंतीस साल बाद हमारे बड़े खानदान ने नकाब को खैरबाद कर बिया.
इन दो मिसालों से मैं बतलाना चाहता हूँ कि अकेला चना भाड़ तो नहीं फोड़ सकता मगर आवाज़ बुलंद कर सकता है. बड़े से बड़े मिशन की कामयाबी के लिए पहला क़दम तो उठाना ही पड़ेगा. इंसान अपने अन्दर छिपी सलाहियतों से खुद पहचानने से बचता रहता है.
आइए मुहम्मद की उम्मियत की तरफ चलें और उनको रंगे हाथों पकड़ने के बाद मुसलामानों के सामने पेश करें कि तुम्हारी नस्लों का दुश्मन ये रहा - - -
"बिल यकीन उन मुसलामानों ने फलाह पाई जो अपनी नमाज़ों में गिडगिडाने वाले हैं.''सूरह मओमेनून २३- परा-१८ -आयत (१-२)
रोना और हँसना, दोनों ही ज़ेहन को हल्का कर देते हैं, मगर इसकी कोई वजेह और हदें हुवा करती हैं. बिना वजेह ये तजाऊज़ कर जाएँ तो ये बीमारी की अलामत होती है. हँसना तो खैर इस्लाम में हराम की तरह है मगर एक नार्मल इंसान को यह रोने और गिडगिडाने की हरकत अपने आप में बेवकूफी लगेगी. अफ़सोस कि कुरआन का कोई भी मशविरा इंसानों के लिए कारामद नहीं है, कुछ निकलता है तो नुक़सान दह.
"और जो लग्व बातों से दूर रहते हैं, जो अपने को पाक रखते हैं और जो अपनी शरमगाहों की हिफ़ाज़त करने वाले हैं, लेकिन अपनी बीवियों और लौंडियों पर कोई इलज़ाम नहीं. हाँ! जो इसके अलावा तलब गार हो, ऐसे लोग हद से निकलने वाले हैं"सूरह मओमेनून २३- परा-१८ -आयत (३-७)खुद साख्ता रसूल एक हदीस में फ़रमाते हैं कि जो शख्स मेरी ज़बान और तानासुल (लिंग) पर मुझे काबू दिला दे उसके लिए मैं जन्नत की ज़मानत लेता हूँ , और उनका अल्लाह कहता है कि शर्म गाहों की हिफाज़त करो. मुहम्मद खुद अल्लाह की पनाह में नहीं जाते. अल्लाह ने सिर्फ मर्दों को इंसानी दर्जा दिया है इस बात का एहसास बार बार कुरआन कराता है. कुरानी जुमले पर गौर करिए "लेकिन अपनी बीवियों और लौंडियों पर कोई इलज़ाम नहीं" एक मुसलमान चार बीवियाँ बयक वक्त रख सकता है उसके बाद लौड्यों की छूट. इस तरह एक मर्द= चार औरतें +लौडियाँ बे शुमार. इस्लामी ओलिमा, इन्हें इनका अल्लाह गारत करे, ढिंढोरा पीटते फिरते है कि इस्लाम ने औरतों को बराबर का मुकाम दिया है. इन फासिकों के चार टुकड़े कर देने चाहिए कि इस्लाम औरतों को इन्सान ही नहीं मानता. अफ़सोस का मक़ाम ये है कि खुद औरतें ज्यादह इस्लामी खुराफात में पेश पेश रहती हैं .
"हमने इंसान को मिटटी के खुलासे से बनाया, फिर हमने इसको नुत्फे से बनाया, जो कि एक महफूज़ मुकाम में रहा, फिर हमने इस नुत्फे को खून का लोथड़ा बनाया, फिर हमने इस खून के लोथड़े को बोटी बनाई, फिर हमने इस बोटी को हड्डी बनाई, फिर हमने इन हड्डियों पर गोशत चढ़ाया, फिर हमने इसको एक दूसरी ही मखलूक बना दिया, सो कैसी शान है मेरी, जो तमाम हुनरमंदों से बढ़ कर है. फिर तुम बाद इसके ज़रूर मरने वाले हो और फिर क़यामत के रोज़ ज़िन्दा किए जाओगे."
सूरह मओमेनून २३- परा-१८ -आयत (१२-१६)
ये मिटटी का खुलासा क्या होता है? मुफस्सिर और तर्जुमान एक दूसरे की काट करते हुए अल्लाह की मदद अपने अपने मंतिक से करते हैं. अल्लाह की हिकमत देखिए कि आप की तकमील में उसने क्या क्या जतन किए है? खालिक ए कायनात किस छिछोरे पन से अपनी तारीफ़ कर रहा है। ये मुहम्मद के ज़र्फ़ की नककाशी है. सब कुछ अल्लाह कर सकता है कि उसका दावा ही है ये, बस कर नहीं पाता तो अपने इस शाहकार इन्सान को मुसलमान नहीं बना सकता. ऐसी जेहालत की आयत मुहम्मदी अल्लाह वास्ते इबादत पेश का रहा है।
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क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी,
'' हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी'' का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
(पहली किस्त)
मैं एक मिटटी से वापस आ रहा था, साथ में मेरे एक खासे पढ़े लिखे रिश्तेदार भी थे. चलते चलते उन्हों ने एक झाड़ से कुछ पत्तियां नोच लीं, उसमें से कुछ खुद रख लीं और कुछ मुझे थमा दीं. मैं ने सवाल्या निशान से जब उनको देखा तो समझाने लगे कि मिटटी से लौटो तो हमेशा हरी पत्ती के साथ घर में दाखिल हुवा करो. मैंने सबब दरयाफ्त किया कि इस से क्या होता है? तो बोले इस से होता कुछ नहीं है, ये मैं भी जनता हूँ मगर ये एक समाजी दस्तूर है, इसको निभाने में हर्ज क्या है? घर में घुसो तो औरतें हाथ में हरी पत्ती देखकर मुतमईन हो जाती हैं, वर्ना बुरा मानती है. ये है कबीलाई जिंदगी की जेहनी गुलामी का एक नमूना. ये बीमारी नस्ल दर नस्ल हमारे समाज में चली आ रही है. ऐसे बहुतेरे रस्म ओ रिवाज को हमारा समाज सदियों से ढोता चला आ रहा है. तालीम के बाद भी इन मामूली अंध विशवास से लोग उबार नहीं प् रहे.
दूसरी मिसाल इसके बर अक्स मैं अपनी तहरीर कर रहा हूँ कि मेरी शरीक-हयात दुल्हन के रूप में अपने घर से रुखसत होकर मेरे घर नकाब के अन्दर दाखिल हुईं, दूसरे दिन उनको समझा बुझा कर नकाब को अपने घर से रुखसत कर दिया, कि दोबारा उनपर उसकी साया तक नहीं पड़ी. मेरे इस फैसले से नई नवेली दुल्हन को भी फितरी राहत महसूस हुई, मगर वक्ती तौर पर उनको इसकी मुखालफत भी झेलनी पड़ी, बिल आखिर भावजों को इससे हौसला मिला, कि उन्हों ने भी नकाब तर्क कर दिया. इसका देर पा असर ये हुवा कि पैंतीस साल बाद हमारे बड़े खानदान ने नकाब को खैरबाद कर बिया.
इन दो मिसालों से मैं बतलाना चाहता हूँ कि अकेला चना भाड़ तो नहीं फोड़ सकता मगर आवाज़ बुलंद कर सकता है. बड़े से बड़े मिशन की कामयाबी के लिए पहला क़दम तो उठाना ही पड़ेगा. इंसान अपने अन्दर छिपी सलाहियतों से खुद पहचानने से बचता रहता है.
"बिल यकीन उन मुसलामानों ने फलाह पाई जो अपनी नमाज़ों में गिडगिडाने वाले हैं.''सूरह मओमेनून २३- परा-१८ -आयत (१-२)
रोना और हँसना, दोनों ही ज़ेहन को हल्का कर देते हैं, मगर इसकी कोई वजेह और हदें हुवा करती हैं. बिना वजेह ये तजाऊज़ कर जाएँ तो ये बीमारी की अलामत होती है. हँसना तो खैर इस्लाम में हराम की तरह है मगर एक नार्मल इंसान को यह रोने और गिडगिडाने की हरकत अपने आप में बेवकूफी लगेगी. अफ़सोस कि कुरआन का कोई भी मशविरा इंसानों के लिए कारामद नहीं है, कुछ निकलता है तो नुक़सान दह.
सूरह मओमेनून २३- परा-१८ -आयत (१२-१६)
ये मिटटी का खुलासा क्या होता है? मुफस्सिर और तर्जुमान एक दूसरे की काट करते हुए अल्लाह की मदद अपने अपने मंतिक से करते हैं. अल्लाह की हिकमत देखिए कि आप की तकमील में उसने क्या क्या जतन किए है? खालिक ए कायनात किस छिछोरे पन से अपनी तारीफ़ कर रहा है। ये मुहम्मद के ज़र्फ़ की नककाशी है. सब कुछ अल्लाह कर सकता है कि उसका दावा ही है ये, बस कर नहीं पाता तो अपने इस शाहकार इन्सान को मुसलमान नहीं बना सकता. ऐसी जेहालत की आयत मुहम्मदी अल्लाह वास्ते इबादत पेश का रहा है।
जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान
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