Saturday 1 October 2011

सूरह अलएराफ़ ७ (दूसरी किस्त)

मेरी तहरीर में - - -

क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।

नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.



सूरह अलएराफ़ ७
दूसरी किस्त



मैं एक नास्तिक हूँ . दर असल नास्तिकता संसार का सब से बड़ा धर्म होता है और धर्म की बात ये है कि यह बहुत ही कठोर होता है,

क्यूंकि यह उरियाँ सदाक़त अर्थात नग्न सत्य होता है.

आम तौर पर नग्नता सब को बुरी लगती है मगर परिधान बहर हाल दिखावा है, असत्य है. अगर परिधान सर्दी गर्मी से बचने के लिए हो तो ठीक है अन्यथा झूट को छुपाने के सिवा कुछ भी नहीं.. श्रृंगार कुछ भी हो बहर हाल वास्तविकता की पर्दा पोशी मात्र है.

शरीर की हद तक - - इसके विरोध में आपत्तियाँ गवारा हैं

मगर विचारों का श्रृगार बहर सूरत अधर्म है।

यह तथा कथित धर्म एवं मज़हब विचारों की सच्ची उड़ान में टोटका के रूप में बाधा बन जाते हैं और मानव को मानवीय मंजिल तक पहुँचने ही नहीं देते,
कुरआन इस वैचारिक परवाज़ को शैतानी वुस्वुसा कहता है। अगर मुहम्मद के गढे अल्लाह पर विचार उसकी कारगुजारी के बाबत की जाए तो उस वक़्त यह बात पाप हो जाती है, इस स्टेज तक विचार के परवाज़ को शैतान का अमल गुमराह करना और गुमराह होना बतलाया जाता है और इस के बाद पराश्चित करनी पड़ती है.

इसके लिए किसी मोलवी, मुल्ला के पास जाना पड़ता है जिनके हाथों में मुसलामानों की लगाम है.

जहाँ विचार की सीमा को लांघने पर ही पाबंदी हो वहां किसी विषय में शिखर छूना संभव ही नहीं. परिणाम स्वरूप कोई मुसलमान आज तक डेढ़ हज़ार साल होने को है किसी नए ईजाद का आविष्कार नहीं किया.
ईमान दार बुद्धिजीवी तक नहीं हो पाते। जब आप अपने लिए या अपने परिवार, अपने वर्ग, अपने कौम या यहाँ तक कि अपने देश के लिए ही क्यों न हो असत्य को श्रृंगारित करते हैं,

तो ये पाप जैसा है.

मैं इस्लाम की ज़्यादः हिस्सा बातों का विरोध करता हूँ, इसका मतलब यह नहीं कि बाक़ी धर्मों में बुराइयाँ नहीं. एक हिदू मित्र की बात मुझे साल गई कि
'' आप मुसलामानों के लिए जो कर रहे हैं, सराहनीय है परन्तु अपने सीमा में ही रहें , हमारे यहाँ समाज सुधारक बहुतेरे हो चुके है.''
ठीक ही कहा उन्हों ने. वह हिन्दू है, अगर जबरन मुझे भी मुसलमान समझें तो आश्चर्य की बात नहीं क्यूंकि वह हिन्दू हैं.

मैं सीमित हो गया क्यूंकि मुसलमानों में पैदा होना मेरी बे बसी थी, एक तरह से अच्छा ही हुआ कि मुसलामानों की अनचाही सेवा कर रहा हूँ। वह कुछ फ़ायदा उठा सके तो हमारे दुसरे मानव भाई भी लाभान्वित होंगे.


आइए चलें कुरआनी आयतों में जो मानव जाति के लिए अभिशोप बनी हुई हैं - - -


अल्लाह बार बार आदम की औलादों को तालीम देता है कि हमने तुम्हारे लिए ज़मीन पर तन ढकने के लिए लिबास पैदा किया, शैतान के बहकाने में कभी मत आना जिसने तुम्हारे दादी दादा को बहका कर उरियाँ कर दिया था। उस वक़्त के आदम के नाती पोतों को मुहम्मद अपनी रिसालत पर ईमान लाने का प्रचार करते हैं जब न करघा न रूई सिवाए जन्नत के पत्तों के। कहते हैं कि
''ऐ आदम की औलादों! तुम मस्जिद की हर हाज़री के वक़्त अपना लिबास पहेन कर जाया करो''


kyaa ज़मीन पर आते ही आदम की औलादों ने कपडा बुनना, सीना पिरोना शुरू कर दिया था.
फरमाते हैं - - -
'' ऐ औलादे आदम ! अगर तुम्हारे पास पैगम्बर आवें जो तुम में से ही होंगे, जो मेरे ही एह्काम तुम से बयान करेंगे, सो जो शख्स परहेज़ और दोस्ती करे सो इन लोगों पर कुछ अंदेशा नहीं. हम इसी तरह तमाम आयात को समझदारों के लिए साफ़ साफ़ बयान करते हैं.''
अलएराफ़ ७ -आठवाँ पारा आयत (२५-३९)

सो मुहम्मद आदम के औलादों के अव्वलीन मोलवी बन्ने में कोई शरम महसूस नहीं करते, न ही मुसलामानों को घास चराने में. वह आदम की औलाद हबील काबील को समझाते हैं कि हमारी इन मकर आलूद आयातों को झुटलाओगे तो जहन्नम रसीदा हो जाओगे.

बच्चों का अंध विशवास जवान होते होते टूट जाता है मगर जवान जब आस्था का घुट पी लेता है तो उसका अंध विशवास तभी टूटता है जब सदाक़त मौत बन कर सामने कड़ी होती है.''अल्लाह की आयातों को झुटलाने वाले लोग कभी भी जन्नत में न जावेंगे जब तक कि ऊँट सूई के नाके से न निकल जाए.''

अलएराफ़ ७ -आठवाँ पारा आयत (४०)

''ऊँट सूई के नाके से निकल सकता है मगर दौलत मंद जन्नत में कभी दाखिल नहीं हो सकता''

ईसा की नकल में मुहम्मद की कितनी फूहड़ मिसाल है जहाँ अक्ल का कोई नामो निशान नहीं है. शर्म तुम को मगर नहीं आती.

मुसलमानों तुम ही अपने अन्दर थोड़ी गैरत लाओ.ईसा कहता है - - -

''ऐ अंधे दीनी रहनुमाओं! तुम ढोंगी हो, मच्छर को तो छान कर पीते हो और ऊँट को निगल जाते हो.''

मुवाज़ना करें मुस्लिम अपने कठमुल्ल्ले सललललाहो अलैहे वसल्लम को शराब में तुन रहने वाले ईसा से.

तौरेत की भोंडी पैरवी करते हुए मुहम्मदी अल्लाह बतलाता है कि उसने दुन्या छ दिन में बनाई और सातवें रोज़ आसमान पर जा बैठा. दूसरी तरफ वह कहता है कि वह बड़े से बड़े काम के लिए 'कुन' भर कहता है और काम हो जाता है, छ दिन दुन्या में झक मरने की क्या ज़रुरत थी या तो यह 'कुन फयकून' मुहम्मद की गढ़ंत. है ये अकली तज़ाद है.


''अल्लाह ने फरमाया यहाँ से ज़लील ख्वार हो कर निकल. जो इन में से तेरा कहना मानेगा, मैं ज़रूर तुम सब को जहन्नम में भर दूंगा और ऐ आदम ! तुम और तुम्हारी बीवी जन्नत में रहो, फिर जिस जगह से चाहो दोनों आदमी खाओ और उस दरख्त के पास मत जाओ कभी कि उन लोगों में शुमार हो जाओगे कि जिंससे ना मुनासिब काम हो जाया करता है."

सूरह अलएराफ़ ७ -आठवाँ पारा आयत (१८-१९)

सृष्ट का रचैता अपने बनाए पहले आदमी से इस तरह बातें करता है, जब तक यह बाते यकीन और इबादत बनी रहेगी आदमी आदमी ही रहेगा, इंसान कभी नहीं बन सकता. यहूदी और ईसाई की अक्सरियत जाग चुकी है जो कि मुसलमान जैसी ही थी मगर मुसलमान इन बातों की अफीम पिए अभी भी ख़्वाबों कि जन्नत में सो रहा है जिसे कि मुहम्मद ने कस के घोट रखा है.


''फिर शैतान ने उन दोनों के दिलों में वुस्वुसा डाल दिया ताकि परदे का बदन जो एक दूसरे से पोशीदा था, दोनों के रूबरू बे पर्दा कर दे और कहने लगा तुम्हारे रब ने तुम दोनों को इस दरख़्त से और किसी सबब से मना नहीं फ़रमाया, मगर महेज़ इस वजेह से कि तुम दोनों कहीं फ़रिश्ते न हो जाओ या कहीं हमेशा जिंदा रहने वालों में न हो जाओ और इन दोनों के रूबरू क़सम खाई कि यकीन जानिए कि मैं आप दोनों का खैर ख्वाह हूँ. सो इन दोनों को फ़रेब के नीचे ले आया. पस जब इन दोनों ने दरख़्त को चखा तो दोनों का परदे का बदन एकदूसरे के सामने बे पर्दा हो गए, दोनों अपने ऊपर जन्नत के पत्ते जोड़ जोड़ कर रखने लगे और इनके रब ने इन को पुकारा ; - क्या तुम दोनों को इस दरख़्त से मुमानेअत न थी.' ' - - - हक ताला ने फ़रमाया नीचे इसी हालत में उतर जाओ कि तुम बाहम बअज़े दूसरे बाहम बअजों के दुश्मन रहोगेऔर तुम्हारे वास्ते वहां ज़मीन में रहने की जगह है और नफ़ा हासिल करना एक वक्त तक - - -''

सूरह अलएराफ़ ७ -आठवाँ पारा आयत (२०-२४)

मुहम्मद ज़ेहनी मेयार मुलाहिजा हो.

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

4 comments:

  1. aap sabhi dharmo ke vishay me likhen. itna jaroor kahna chahoonga ki muslims ko apne andar sudhar ki jyadaa jaroorat hai.

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  2. हामिद साहब!
    आपने लिखा है कि मैं सभी धर्मों के बारे में लिखूं .
    मुसलमानों के आलावा सभी धर्म परिवर्तन शील है. दुन्या में मुसलमान ही आज भी ग्यारव्हीं सदी में रह रहा है, ज़ुबान खोली कि फ़तवा नाज़िल. सभी धर्मों में समाज सुधारक हुए है, मुसलामानों को छोड़ कर. मैं मुसलमानों को ज़्यादः मुस्तहक समझता हूँ कि इनकी हालत सुधरे . वैसे मैं सभी धर्मों को इंसानियत का मुजरिम समझता हौं.

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  3. जीम. 'मोमिन' bhai aapki post bahut kuch sikati hai.

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