Wednesday 4 January 2012

सूरह हुज्र १५ , पारा-१३

मेरी तहरीर में - - -

क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।


नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.


सूरह हुज्र १५ पारा-१३
(पहली किस्त)
मुहम्मद फेस बुक पर

इंटर नेट की एक और वेब साईट 'फेस बुक' पर पाकिस्तानी कठमुल्लाओं ने पाबन्दी लगाने में कामयाबी हासिल करली है. क्या इस से पाकिस्तानी अवाम का कुछ भला होगा बजाय नुकसान के, या आलमी बिरादरी को कोई फ़र्क पड़ने वाला है? दर अस्ल मुआमला ये था कि किसी इदारे ने शरारतन मुहम्मद डे पर मुहम्मद की तस्वीर लोगों से माँगी थी, मुस्लमान जो कुछ करते इदारे पर करते, बंद कर दिया अपने मुल्क में पूरी साईट को. इंटर नेट पर साईट को मैंने देखा, इसमें तुगरे भेज कर सबसे ज़्यादः मुसलमानों ने ही शिरकत की. हालांकी इस्लामी हिमाक़तों की एक यह भी एक तरह की तस्वीर ही है. तस्वीरों में एक तस्वीर दिल को दहला देने वाली छ सात साला बच्ची आयशा की है जिसको औधा कर मुहम्मद उसके साथ मसरूफे-बलात्कार हैं, जो अपनी गुडिया को दर्द के मारे दबोचे हुए है और उसकी आँखें बाहर निकली जा रही हैं. मुहम्मद वहशी जानवर की तरह उस मासूम से मह्जूज़ हो रहे हैं.
उफ़! क्या मुसलमानों से ये मुहम्मद की मुस्तनद और तारीखी हक़ीक़त देखी नहीं जाती? इसके चलते वह सच्चाई के दर्पन पर पथराव कर देंगे ? दुन्या के साथ चलना छोड़ देंगे. मुहह्म्मद के जरायम की परतें तो अब खुलना शुरू हुई हैं, अंत होने तक मुस्लमान बेयार ओ मदद गार तनहा रह जाएगा, अगर तौबा करके ईमान दार नहीं बन जाता.

आइए चलिए हम ले चलते हैं आपको माज़ी में - - -

''आयशा कहती हैं जिस वक़्त मेरा मुहम्मद से निकाह हुवा मैं छ साल की थी. फिर मक्का से मदीना हिजरत करके पहुँचे तो मुझे बुखार आने लगा, मेरे सर के बाल गिर गए लेकिन अच्छी होने के बाद बाल फिर से निकल कर शानों के नीचे तक लटकने लगे. एक दिन मैं झूले में अपनी सहेलियों के साथ खेल रही थी कि यकायक मेरी वाल्दा ने आकर मुझको डांटा. मैं इनके इस डांटने का मतलब नहीं समझ सकी. वह मुझको वहां से पकड़ कर घर लाईं, मैं हांपने लगी, जब मेरी सांसें थमीं तो उन्हों ने मेरा हाथ, मुंह और सर धुलाया. घर के अन्दर कुछ नसारा औरतें बैठी थीं, उन्होंने वाल्दा के हाथों से मुझे ले लिया और वाल्दा मुझे इन के सुपुर्द करके चली गईं. इन औरतों ने मेरी जिस्मानी हालत को दुरुस्त किया. उसके बाद कोई नई बात पेश नहीं आई. मुहम्मद चाश्त के वक़्त मेरे घर आए, उन औरतों ने मुझे उनके हवाले कर दया.(बुख़ारी-१५३५)

नन्हीं आयशा की यह आप बीती है. छ साल की उम्र में निकाह, आठ साल की उम्र में रुखसती, और इसी उम्र में वह हक़ीक़त जो फेस बुक में मुसव्विर ने तस्वीर खींची है.

मुसलमानों!

किस बात की मुखालिफ़त ?

क्या सच्चाई का सामना नहीं कर सकते?

क्या यह सब झूट है?

क्या ५२ साला बूढ़े ने बच्ची आयशा को बेटी बना लिया था ?

अगर तस्वीर देख्नना गवारा न करो तो तसव्वुर में चले जाओ,

अपनी बहेन या बेटी को जो भी इन उमरों की हों, क्या किसी रूहानी अय्यार के हवाले करना पसंद करोगे?

अगर नहीं तो अपने ज़मीर का साथ दो कि सदाक़त ही ईमान है न कि इस्लाम. और अगर हाँ मुहम्मद को हक बजानिब समझते हों तो तुम्हारे मुंह पर - - -

आक़! थू !!

चलो मक्खियों की तरह भिनभिना कर मुहम्मद की तुकबंदी की तिलावत की जाय और आने वाली नस्लों का आकबत ख़राब किया जाय - - -

''अलरा -ये आयतें हैं एक किताब और कुरआन वाज़ेह की हैं.''

सूरह हुज्र,१५ पारा१४ आयत १)

अलरा यह बेमानी लफ्ज़ मुहम्मद का छू मंतर है इसके कोई माने नहीं. मुहम्मद बार बार अपनी किताब को वाज़ेह कहते हैं जिसका मतलब होता है स्पष्ट अथवा असंदिग्ध, जब कि कुरआन पूरी तरह से संदिग्ध और मुज़ब्ज़ब किताब है.खुद आले इमरान में आयत ६ में अपनी आयातों को अल्लाह मुशतबह-उल-मुराद(संदिग्ध) बतलाता है. इसी को हम क़ुरआनी तज़ाद (विरोधाभास) कहते है. इसी के चलते सदियों से विरोधाभाषी फतवे ओलिमा नाज़िल किया करते हैं.


''काफ़िर लोग बार बार तमन्ना करेंगे क्या खूब होता अगर वह लोग मुसलमान होते. आप उनको रहने दीजिए कि वह खा लें और चैन उड़ा लें और ख़याली मंसूबा उन्हें ग़फलत में डाले रखें, उन्हें अभी हक़ीक़त मालूम हुई जाती है ''

सूरह हुज्र,१५ पारा१४ आयत (२-३)

काफ़िर लोग हमेशा खुश हल रहे हैं और मुसलमान बद हल. इस्लामी तालीम मुसलमानों को कभी खुश हाल होने ही न देगी, इनकी खुश हाली तो इनका फरेबी आक़बत है जो उस दुन्या में धरा है. सच पूछिए तो अज़ाब ए मुहम्मदी मुसलमानों का नसीब बन चुका है. चौदह सौ साल पहले अहमक़ अल्लाह ने कहा'' उन्हें अभी हक़ीक़त मालूम हुई जाती है '' उसका अभी, अभी तक नहीं आया ?

''और हमने जितनी बस्तियां हलाक की हैं, इन सब के लिए एक मुअययन नविश्ता है. कोई उम्मत न अपनी मीयाद मुक़रररा से न पहले हुई न और न पीछे रही."
सूरह हुज्र,१५ पारा१४ आयत (४-५)

अल्लाह खुद एतरफ कर रहा है कि वह हलाकू है. फिर ऐसे अल्लाह पर सुब्ह ओ शाम लअनत भेजिए किसी ऐसे अल्लाह को तलाशिए जो बाप की तरह मुरब्बी और दयालु हो, नाकि बस्त्तियाँ तबाह करने वाला. उसके सही बन्दे ओसामा बिन लादेन की तरह ही होते हैं जो ? को तबाह करके ? बना सकते हैं.

''और कहा वह शख्स जिस पर कुरआन नाज़िल किया गया तहक़ीक़ तुम मजनूँ हो और अगर तुम सच्चे हो तो हमारे पास फ़रिश्तों को क्यूँ नहीं लाते? हम फ़रिश्तों को सिर्फ़ फ़ैसले के लिए ही नाज़िल किया करते हैं और इस वक़्त उनको मोहलत भी न दी जाती.''
सूरह हुज्र,१५ पारा१४ आयत (६-८)

हदीसों में कई जगह है कि फ़रिश्ते ज़मीन पर आते हैं. पहली बार मुहम्मद को पटख कर फ़रिश्ते ने ही पढाया था''इकरा बिस्म रब्बे कल्लज़ी'' फिर ''शक्कुल सदर'' भी फ़रिश्ते ने किया, मुहम्मद ने आयशा से कह की जिब्रील अलैहिस्सलाम आए हैं तुम को सलाम कर रहे हैं. जंगे बदर में तो हजारों फ़रिश्ते मैदान में शाने बशाने लड़ रहे थे, कई (झूठे) सहबियों ने इसकी गवाही भी दी. अब लोगों के तकाजे पर मंतिक गढ़ रहे हो कि रोज़े हश्र वह नाज़िल होंगे तो कभी कहते हो कि उनके आने पर भूचाल ही आ जाएगा।


''हम ने कुरआन नाज़िल किया, हम इसकी मुहाफ़िज़ हैं. और हम ने आप के क़ब्ल भी अगले लोगों के गिरोहों में भेजा था और कोई उनके पास ऐसा नहीं आया जिसके साथ उन्हों ने मज़ाक न किया हो. इसी तरह ये हम उन मुज्रिमीन के दिलों में डाल देते हैं. ये लोग इस पर ईमान नहीं लाते और ये दस्तूर से होता आया है. अगर उनके लिए आसमान में कोई दरवाज़ा खोल दें फिर ये दिन के वक़्त इस में चढ़ जाएँ, कह देंगे कि हमारी नज़र बंदी कर दी गई है, बल्कि हम लोगों पर तो एकदम जादू कर रखा है."

सूरह हुज्र,१५ पारा१४ आयत (९-१५)

अल्लाह कहता है कि वह खुद लोगों के दिलों में (शर) डाल देता है कि (स्वयंभू ) पैगम्बरों का मज़ाक़ उड़ाया करें. मुहम्मद इस बात को इस लिए अल्लाह से कहला रहे हैं कि बगेर उसके हुक्म के कुछ नहीं होता. यह उनका पहला कथन है. अब लोगों को मुजरिम भी अल्लाह को बना रहा है, जुर्म खुद कर रहा है ? भला क्यों? अल्लाह के पास कोई ईमान और इन्साफ़ का तराज़ू है? कहता है कि ऐसा उसका दस्तूर है? जबरा मारे रोवै न देय. ऐसे अल्लाह पर सौ बार लअनत. मुहम्मद आसमान में दरवाज़ा खोल रहे हैं गोया पानी में छेद कर रहे हैं.


मुसलमानों!

दर असल तुम्हारी नज़र बंदी कर दी गई है आँखें खोलो, वर्ना - - तुम्हारी दास्ताँ रह जाएगी बस दस्तानों में.



''बेशक हमने आसमान में बड़े बड़े सितारे पैदा किए और देखने वालों के लिए इसको आरास्ता किया और इसको शैतान मरदूद से महफूज़ फ़रमाया, हाँ! कोई बात चोरी छुपे अगर सुन भागे तो इसके पीछे एक रौशन शोला हो लेता है.''

सूरह हुज्र, पारा१४ आयत (१६-१८)

रात को तारे टूटते हैं, ये उसका साजिशी मुशाहिदा है, उम्मी मुहम्मद ने शगूफ़ा तराशा है कि अल्लाह जो आसमान पर रहता है, वहां से ख़ारिज और मातूब किया गया शैतान उसके राजों के ताक में लगा रहता है कि कोई राज़ ए खुदा वंदी हाथ लगे तो मैं उस से बन्दों को भड़का सकूँ, जिसकी निगरानी पर फ़रिश्ते तैनात रहते हैं, शैतान को देखते ही रौशन शोले की मिसाईल दाग देते हैं. जो उसे दूर ताक खदेड़ आतीहै.


मुसलमानों कब तक तुम्हारे अन्दर बलूगत आएगी? कब मोमिन के ईमान पर ईमान लओगे?


जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

2 comments:

  1. Dear Jeem,
    I read your blog http:/harf-e-galat from here and there, and found that you are absolutely correct; in fact whatsoever you wrote in your “harf-e-galat” is harf-e-galat .But the Islam you mentioned and targeted has nothing to do with Quran and its religion Islam and prophet Mohammad. The fact is that the religion and the character of prophet Mohammad mentioned in the said blog is the creation of Christian scholars who accepted Islam to defeat Muslims and crush Islam. They pretended to be Muslim saints, invented Namaaz(the prayer), wrote the books of ‘hadees’, translated and interpreted Quran according to their believes and constructed a false religion calling it Islam. They built it on five (5) pillars i.e. (i) KALMA; calling it a token of imaan, (ii) NAMAAZ (the prayer); calling it salaat, (iii) CHARITY; calling it zakaat, (iv)FASTING till sunset; calling it saun and, (v) PILGRAMAGE; calling it haj. Though in Quran there is no such thing as Kalma and Namaz. And SALAAT in Quran is discipline, ZAKAAT is Govt. tax and HAJ is the name of the last month of Arabic calendar. And in that month of Haj, Quran says to assemble in Masjid-ul-Haraam to solve the problems of the globe, so the world may live in peace. And that Masjid-ul-Haram in Mecca, Saudi Arabia was made center for all (Muslims and non-Muslims for a very big reason “that reason can be asked separately even the reason of saum can be asked later”). Apart from IMAAN, SALAAT, ZAKAAT, SAUM and HAJ, Quran says that sacrifice of animals (Qurbaani) is haraam(forbidden). Even marriages between cousins are haraam (forbidden, unlawful and shameful act), and SHIRK (hero-worship) is the biggest sin and a crime. Even ‘amaanat mein khyanat’ (embezzlement of deposits) is also a very big sin and a crime. And Quran says that ‘Yahya’ the son of Zakaria was the father of Isa-Ibn-Maryam and that Isa-Ibn-Maryam died as other prophets died, and that he, Isa-Ibn-Maryam, will not return to earth. And the story of MAIRAAJ mentioned in Hadees and in the interpretation of surah ISRA verse 1 is false. Quran do not says so, but says that man cannot go beyond gravitation of earth and skies without force. And Quran says that Mohammad did not said and did not do anything against Quran. Thus Quran is also the history and character of Prophet Mohammad. And Quran witnesses that Prophet Mohammad had no concern with sex. Thus he was issueless (had no children). All these and lot more fundamentals of Quran are pillars of Islam. Anything related to Quran, Islaam the religion of Quran and Prophet Mohammad can be asked by me, the undersigned, on my address.
    (to be continued)
    January 9,2012 Muddassir Rasool Allah
    49, Chhaniapura, Jhansi

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  2. Dear Momin, Jeem

    I opened your blog to see the reply of my letter dt 9/1/12 e-mailed on 10/jan 2012,but found no reply It proves that your blog harf-e-ghalat is not being read. If it would have read, the letter would have been read and would have been replied, at least someone from Muslim world would have replied, and the Fatwas to kill would have been issued by the Ulma-the Muslim learned as the letter I sent is the deadliest poison to the Muslim world, a challenge. Defying the Religions of Imaams, calling them Islam. Shia Islam, Sunni Islam, Qadiani Islam etc, all 250 in total developed within 1000 years i.e. 360H to 1358H.

    The above mentioned letter was not sent to comment your harf-e-ghalat, but to tell the world that Islam is a Deen and not a Religion. And there is a wast difference between Religion and Deen. Religions are made by human beings and are unnatural and Deen is made by the creator and is natural. And you cannot challenge or criticize nature. Islaam whose book is Quraan is a Deen, called Deen-e-Islaam. And Deen can be called constitution, therefore Deen-e-Islaam can be called constitution of Islaam. And the book of Islaamic constitution-the Quraan being the book of the Creator of the universe can solve all disputes of the globe and can establish peace and universal brotherhood. This is the difference between Deen and Islaam.
    (to be contd.)

    Rasool Allah

    Mudassir ibn Rafiqa
    491,Chhaniapura
    Jhansi.

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