Sunday 15 April 2012

Soorah Maryam 19

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.
सूरह मरियम १९
2nd

मोमिन अपने लिए तो नहीं लिखता मगर शायद आप को ये अच्छा नहीं लगता कि मैं हिदू वादी हूँ, न इस्लाम वादी, मैं इस्लाम विरोधी हूँ तो मुझे हिदू समर्थक होना चाहिए - - -

विडम्बना ये है कि हमारे समाज में ज्यादाः तर लोग आपस में सीगें लड़ाते हुए यही दोनों हैं, फिर भी ये मत देखिए कि कौन कह रहा है, यह देखिए कि क्या कह रह है,


क़ुरआन की चुनौतियाँ

आम मुसलामानों को कहने में बड़ा गर्व होता है कि कुरआन की एक आयत (वाक्य) भी कोई इंसान नहीं बना सकता क्यूंकि ये आल्लाह का कलाम है. दूसरी फ़ख्र की बात ये होती है कि इसे मिटाया नहीं जा सकता क्यूंकि यह सीनों में सुरक्षित है, (अर्थात कंठस्त है.) यह भी धारणा आलिमों द्वारा फैलाई गई है कि इसकी बातों और फ़रमानों को आम आदमी ठीक ठीक समझ नहीं सकता, बगैर आलिमों के. सैकड़ों और भी बे सिरों-पर की खूबियाँ इसकी प्रचारित हैं.
सच है कि किसी दीवाने की बात को कोई सामान्य आदमी दोहरा नहीं सकता और आपकी अखलाकी जिसारत भी नहीं कि किसी पागल को दिखला कर मुसलामानों से कह सको कि यह रहा, बडबडा रहा है क़ुरआनी आयतें. एक सामान्य आदमी भी नक्ल में मुहम्मद की आधी अधूरी और अर्थ हीन बातें स्वांग करके दोहराने पर आए तो दोहरा सकता है, कुरआन की बक्वासें मगर वह मान कब सकेंगे. मुहम्मद की तरह उनकी नक्ल उस वक़्त लोग दोहराते थे मगर झूटों के बादशाह कभी मानने को तैयार न होते. हिटलर के शागिर्द मसुलेनी ने शायद मुहम्मद की पैरवी की हो कि झूट को बार बार दोहराव, सच सा लगने लगेगा. मुहम्मद ने कमाल कर दिया, झूट को सच ही नहीं बल्कि अल्लाह की आवाज़ बना दिया, तलवार की ज़ोंर और माले-ग़नीमत की लालच से. मुहम्मद एक शायर नुमा उम्मी थे, और शायर को यह भरम होता है कि उससे बड़ा कोई शायर नहीं, उसका कहा हुवा बेजोड़ है.
कुरआन के तर्जुमानों को इसके तर्जुमे में दातों पसीने आ गए, मौलाना अबू कलाम आज़ाद सत्तरह सिपारों का तर्जुमा करके, मैदान छोड़ कर भागे. मौलाना  अशरफ़   अली थानवी ने ईमानदारी से इसको शब्दार्थ में परिवर्तित किया और भावार्थ को ब्रेकेट में अपनी राय देते हुए लिखा, जो नामाकूल आलिमों को चुभा. इनके बाद तो तर्जुमानों ने बद दयानती शुरू कर दी और आँखों में धूल झोंकना उनका ईमान और पेशा बन गया.
दर अस्ल इस्लाम की बुनियादें झूट पर ही रख्खी हुई, अल्लाह बार बार यक़ीन दिलाता है कि उसकी बातें इकदम सही सही हैं, इसके लिए वह कसमें भी खाता है. इसी झूट के सांचे को लेकर ओलिमा चले हैं. इनका काम है मुहम्मद की बकवासों में मानी ओ मतलब पैदा करना. इसके लिए ताफ्सीरें(व्याख्या) लिखी गईं जिसके जारीए शरअ और आध्यात्म से जोड़ कर अल्लाह के कलाम में मतलब डाला गया. सबसे बड़ा आलिम वही है जो इन अर्थ हीन बक बक में किसी तरह अर्थ पैदा कर दे. मुहम्मद ने वजदानी कैफ़ियत (उन्माद-स्तिथि) में जो मुंह से निकाला वह कुरआन हो गया अब इसे ईश वाणी बनाना इन रफुगरों का काम है.
जय्यद आलिम वही होता है जो कुरान को बेजा दलीलों के साथ इसे ईश वाणी बनाए.
मुसलमान कहते हैं कुरआन मिट नहीं सकता कि ये सीनों में क़ायम और दफ़्न है. यह बात भी इनकी कौमी बेवकूफी बन कर रह गई है, बात सीने में नहीं याद दाश्त यानी ज़हनों में अंकित रहती है जिसका सम्बन्ध सर से है. सर खराब हुआ तो वह भी गई समझो. जिब्रील से भी ये इस्लामी अल्लाह ने मुहम्मद का सीना धुलवाया था, चाहिए था कि धुलवाता इनका भेजा. रही बात है हाफ़िज़े (कंठस्त) की, मुसलमान कुरआन को हिफ्ज़ कर लेते हैं जो बड़ी आसानी से हो जाता है, यह फूहड़ शायरी की तरह मुक़फ्फा (तुकान्तित) पद्य जैसा गद्य है, आल्हा की तरह, गोया आठ साल के बच्चे भी इसके हाफिज़ हो जाते हैं, अगर ये शुद्ध गद्य में होता तो इसका हफिज़ा मुश्किल होता.

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''फिर वह (मरियम) उसको (ईसा को) गोद में लिए हुए कौम के सामने आई. लोगों ने कहा ऐ मरियम तुमने बड़े गज़ब का काम किया है .ऐ हारुन की बहेन! तुम्हारे बाप कोई बुरे नहीं थे, और न तुम्हारी माँ बद किरदार. बस कि मरियम ने बच्चे की तरफ इशारा किया, लोगों ने कहा भला हम शख्स से कैसे बातें कर सकते हैं ? जो गोद में अभी बच्चा है. बच्चा खुद ही बोल उट्ठा कि मैं अल्लाह का बन्दा हूँ . उसने मुझ को किताब दी और नबी बनाया और मुझको बरकत वाला बनाया. मैं जहां कहीं भी हूँ. और उसने मुझको नमाज़ और ज़कात का हुक्म दिया जब तक मैं ज़िन्दा हूँ. और मुझको मेरी वाल्दा का खिदमत गार बनाया, और उसने मुझको सरकश और बद बख्त नहीं बनाया. और मुझ पर सलाम है. जिस रोज़ मैं पैदा हुवा, और जिस रोज़ रेहलत करूंगा और जिस रोज़ ज़िदा करके उठाया जाऊँगा. ये हैं ईसा इब्ने मरियम. सच्ची बात है जिसमे ये लोग झगड़ते हैं. अल्लाह तअला की यह शान नहीं कि वह औलाद अख्तियार करे वह पाक है.''
सूरह मरियम १९-१६ वाँ पारा- आयत(२७-३४)

पिछली किस्त में आपने पढ़ा कि क़ुरआन में किस शर्मनाक तरीक़े से मुहम्मद ने मरियम को जिब्रील द्वारा गर्भवती कराया और ईसा रूहुल-जिब्रील पैदा हुए. अब देखिए कि दीवाना पैगम्बर, ईसा का तमाशा मुसलमानों को क्या दिखलाता है? विडम्बना ये है कि मुसलमान इस पर यक़ीन भी करता है, क़ुरआन का फ़रमाया हुवा जो हुवा. मरियम हरामी बच्चे को पेश करते हुए समाज को जताती है कि मेरा बच्चा कोई ऐसा वैसा नहीं, यह तो खुद चमत्कार है कि पैदा होते ही अपनी सफाई देने को तय्यार है. लो, इसी से बात करलो कि ये कौन है. लोगों के सवाल करने से पहले ही एक बालिश्त की ज़बान निकल कर टाँय टाँय बोलने लगे ईसा अलैहिस्सलाम . ज़ाहिर है उनके डायलोग और चिंतन उम्मी मुहम्मद के ही हैं. बच्चा कहता है, ''मैं अल्लाह का बन्दा हूँ '' जैसे कि वह देखने में भालू जैसा लग रहा हो. मुहम्मद को उनके अल्लाह ने चालीस साल की उम्र में क़ुरआन दिया था, ईसा को पैदा होते ही किताब मिली? जैसे कि ईसा का पुनर जन्म हुवा हो, और वह अपने पिछले जन्म की बात कर रहे हों. मुहम्मद की कुबुद्धि बोल चाल में इस स्तर की है कि इल्म की दुन्या में जैसे वह थे. व्याकरण, काल, भाषा, परस्तुति, इनकी गौर तलब है. लेखन की दुन्या में अगर इन आयतों को दे दिया जय तो मुहम्मद की बुरी दुर्गत हो जाए. इन्ही परिस्थियों में जो आलिम इसके अन्दर मानी, मतलब और हक़ गोई पैदा कर दे, वह इनआम याफ़्ता आलिम हो सकता है. मुसलमानों के सामने ये खुली खराबी है कि वह ऐसी क़ुरआन पर लअनत भेज कर इससे मुक्ति लें. अपने मुंह मियाँ मिट्ठू बने ईसा मुहम्मद की नमाज़,ज़कात और इस्लाम का प्रचार भी करते हैं.
''तमाम ज़मीन और इस पर रहने वालों के हम ही मालिक रह जाएँगे और ये सब हमारे पास ही लौटे जाएँगे ''
सूरह मरियम १९-१६ वाँ पारा- आयत(४०)

मुसलामानों तुम्हारा अल्लाह कितना बडबोला है, यह बशर का सच्चा अल्लाह तो नहीं हो सकता. वह जो भी हो, जैसा भी हो, अपने आप में रहे, मखलूक को क्यूँ डराता धमकाता है ? हम उससे डरने वाले नहीं, क्या हक़ है उसे मखलूक को सज़ा देने की ? क्या मखलूक ने उससे गुज़ारिश की थी कि हम पैदा होना चाहते हैं, इस तेरी अज़ाबुन-नार में? अपनी तमाश गाह बनाया है दुन्या को? ऐसा ही ज़ालिम ओ जाबिर अगर है अगर तू , तो तुझ पर लअनत है।

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

1 comment:

  1. आप लिखते हमेशा सच ही हैं, ये अलग बात है कि लोगों को बुरा लग जाता है.

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