Sunday 28 October 2012

सूरह क़सस २८- २० वाँ पारा

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.


सूरह क़सस २८- २० वाँ पारा
(दूसरी क़िस्त) 

कितनी बड़ी विडंबना है कि एक तरफ तो हम नफ़रत का पाठ पढाने वालों को सम्मान देकर सर आँखों पर बिठाते हैं, उनकी मदद सरकारी कोष से करते हैं, उनके हक में हमारा क़ानून  भी है, मगर जब उनके पढे पाठों का रद्दे अमल होता है तो उनको अपराधी ठहराते हैं. ये हमारे मुल्क और क़ौम का दोहरा मेयार है. धर्म अड्डों धर्म गुरुओं को खुली छूट कि वोह किसी भी अधर्मी और विधर्मी को एलान्या गालियाँ देता रहे, भले ही सामने वाला विशुद्ध मानव मात्र हो या योग्य कर्मठ पुरुष हो अथवा चिन्तक नास्तिक हो. इनको कोई अधिकार नहीं की यह अपनी मान हानि का दावा कर सकें. मगर उन मठाधिकारियों को अपने छल बल के साथ न्याय का संरक्षन मिला हुवा है. ऐसे संगठन, और संसथान धर्म के नाम पर लाखों के वारे न्यारे करते हैं, अय्याशियों के अड्डे होते हैं और अपने स्वार्थ के लिए देश को खोखला करते हैं.
इन्हीं के साथ साथ हमारे मुल्क में एक कौम है मुसलमानों की जिसको दुनयावी दौलत से ज़्यादः आसमानी दौलत की चाह है. यह बात उन के दिलो दिमाग में सदियों से इस्लामी ओलिमा (धर्म गुरु) भर रहे हैं, जिनका ज़रीआ मुआश (भरण-पोषण) इस्लाम प्रचार है. हिंदुत्व की तरह ये भी हैं. मगर इनका पुख्ता माफिया बना है. इनकी भेड़ें न सर उठा सकती हैं न कोई इन्हें चुरा सकता है. बागियों को फ़तवा  की तौक़ पहना कर बेयारो-मददगार कर दिया जाता है. कहने को हिदू बहु-संख्यक भारत में हैं मगर क्षमा करें धन लोभ और धर्म पाखण्ड ने उनको कायर बना रखा है, १०% मुस्लमान उन पर भारी है, तभी तो गाँव गाँव, शहर शहर मदरसे खुले हुए हैं जहाँ तालिबानी की तलब और अलकायदा के कायदे बच्चों को पढाए जाते हैं. 
भारत में जहाँ एक ओर पाखंडियों, और लोभियों की खेती फल फूल रही है वहीँ दूसरी और तालिबानियों और अल्काय्दयों की फसल तैयार हो रही है..सियासत दान देश के इतिहास में अपना नाम दर्ज कराने में बद मस्त हैं. 
क्या दुन्या के मान चित्र पर कभी कोई भारत था? क्या आज कहीं को भारत है? धर्म और मज़हब की अफीम खाए हुए, लोभ और अमानवीय मूल्यों को मूल्य बनाए हुए क्या हम कहीं से देश भक्त भारतीय भी हैं? नकली नारे लगाते हुए, ढोंग का परिधान धारण किए हुए हम केवल स्वार्थी ''मैं'' हूँ. हम तो मलेशिया, इंडोनेशिया तक भारत थे, थाई लैंड, बर्मा, श्री लंका और काबुल कंधार तक भारत थे. कहाँ चला गया भारत? अगर यही हाल रहा तो पता नहीं कहाँ जाने वाला है भारत. 
भारत को भारत बनाना है तो अतीत को दफ़्न करके वर्तमान को संवारना होगा, धर्म और मज़हब की गलाज़त को कोडों से साफ़ करना होगा. मेहनत कश अवाम को भारत का हिस्सा देना होगा न कि गरीबी रेखा के पार रखना और कहते रहना की रूपिए का पंद्रह पैसा ही गरीबों तक पहुँच पाता है.

सूरह क़सस मुहम्मद ने किसी पढ़े लिखे संजीदा शख्स  से लिखवाई है . इसे पढने के बाद आसानी से अंदाज़ा लगाया जा सकता है. हराम  ज़ादे  आलिमों को खूब पता है मगर उन्हों ने सच न बोल्लने की क़सम जो खा राखी है. न सच बोलेंगे, न सच सुनेंगे और न सच महसूस करेंगे.    

लीजिए महसूस कीजिए गैर अल्लाह के कुरआन को, मगर हाँ! क़ि इस मुजरिम ने मुहम्मद की उम्मियत की इस्लाह की है, कलम में मुहम्मद का हम सर ही है - - -   

मूसा सफ़र में था और रात का वक़्त कि इसने कोहे तूर पर एक रौशनी देखी, वह इसकी तरफ खिंच गया, अपने घर वालों से ये कहता हुवा कि तुम यहीं रुको मैं आग लेकर आता हूँ. वहीँ पर अल्लाह इसको अपना पैगम्बर चुन लेता है.
सूरह क़सस २८- २० वाँ पारा (आयत-२५-३०)

इस मौक़े पर मुहाविरा है कि "मूसा गए आग लेने और मिल गई पैगम्बरी"
अल्लाह फिरौन की सरकूबी के लिए मूसा को दो मुअज्ज़े देता है, पहला उसकी लाठी का सांप बन जाना और दूसरा यदे-बैज़ा(हाथ की गदेली पर अंडे की शक्ल का निशान) और मूसा के इसरार पर उसके भाई हारुन को उसके साथ का देना क्यूंकि मूसा की ज़ुबान में लुक्नत (हकलाहट)  थी.
ये दोनों फिरौन के दरबार में पहुँच कर उसको हक की दावत देते हैं (यानी इस्लाम की) और अपने मुअज्ज़े दिखलाते हैं जिस से वह मुतासिर नहीं होता और कहता है यह तो निरा जादू के खेल है. फिर भी नए अल्लाह में कुछ दम पाता है. फिरौन अपने वजीर हामान को हुक्म देता है कि एक निहायत पुख्ता और बुलंद इमारत की तामीर की जाए कि इस पर चढ़ कर मूसा के इस नए (इस्लामी) अल्लाह की झलक देखी जाए.
सूरह क़सस २८- २० वाँ पारा (आयत-३१-३८)

अल्लाह इसके आगे अपनी अजमत, ताक़त और हिकमत की बखान में किसी अहमक की तरह लग जाता है और अपने रसूल मुहम्मद की शहादत ओ गवाही में पड़ जाता है और मूसा के किससे को भूल जता है. आगे की आयतें कुरानी खिचड़ी वास्ते इबादत हैं.
सूरह क़सस २८- २० वाँ पारा (आयत-३९-८८)
याद रहे कुरान किसी अल्लाह का कलाम नहीं है, मुहम्मद की वज्दानी कैफियत है, जेहालत है और खुराफाती बकवास है.
मैंने महसूस किया है कि कुरान की दो सूरतें किसी दूसरे ने लिखी है जो तालीम याफ्ता और संजीदा रहा होगा, मुहम्मद ने इसको कुरान में शामिल कर लिया. इस सिलसिले में सूरह क़सस पहली है, दूसरी आगे आएगी. इसे कारी आसानी से महसूस कर सकते हैं. किस्साए मूसा और किस्साए सुलेमान में आसानी से ये फर्क महसूस किया जा सकता है. इस सूरह में न क़वायद की लग्ज़िशें हैं न ख्याल की बेराह रावी.
देखें इस सूरह क़सस की कुछ आयतें जो खुद साबित करती है कि यस उम्मी मुहम्मद की नहीं, बल्कि किसी ख्वान्दा की हैं. - - -

"और हम रसूल न भी भेजते अगर ये बात न होती कि उन पर उनके किरदार के सबब कोई मुसीबत नाजिल हुई होती, तो ये कहने लगते ऐ हमारे परवर दिगार कि आपने हमारे पास कोई पैगम्बर क्यूं नहीं भेजा ताकि हम आप के एहकाम की पैरवी करते और ईमान लाने वालों में होते."
सूरह क़सस २८- २० वाँ पारा (आयत-४७)

''सो जब हमारी तरफ से उन लोगों के पास अमर ऐ हक पहुँचा तो कहने लगे कि उनको ऐसी किताब क्यूँ न मिली जैसे मूसा को मिली थी. क्या जो किताब मूसा को मिली थी तो क्या उस वक़्त ये उनके मुनकिर नहीं हुए? ये लोग तो यूं ही कहते हैं दोनों जादू हैं. जो एक दूसरे के मुवाफिक हैं और यूँ भी कहते हैं कि हम दोनों में से किसी को नहीं मानते तो आप कह दीजिए कि तुम कोई और किताब अल्लाह के पास से ले आओ.जो हिदायत करने वालों में इन से बेहतर हो, मैं उसी की पैरवी करने लगूँगा, अगर तुम सच्चे हुए"
सूरह क़सस २८- २० वाँ पारा (आयत-४८-४९)
''ऐ अल्लाह जो नेमत भी तू मुझे भेज दे मैं इसका तलबगार हूँ."
 

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

1 comment:

  1. पता नहीं कहाँ चला गया भारत और इसके लोग...

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