Friday 5 September 2014

Soorah nasr 110

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.
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सूरह नस्र ११० पारा - ३० 
(इज़ाजाअ नसरुल लाहे वलफतहो)  


ऊपर उन (७८ -११४) सूरतों के नाम उनके शुरूआती अल्फाज़ के साथ दिया जा रहा हैं जिन्हें नमाज़ों में सूरह फातेहा या अल्हम्द - - के साथ जोड़ कर तुम पढ़ते हो.. ये छोटी छोटी सूरह तीसवें पारे की हैं. देखो   और समझो कि इनमें झूट, मकर, सियासत, नफरत, जेहालत, कुदूरत, गलाज़त यहाँ तक कि मुग़ललज़ात भी तुम्हारी इबादत में शामिल हो जाती हैं. तुम अपनी ज़बान में इनको पढने का तसव्वुर भी  नहीं कर सकते. ये ज़बान ए गैर में है, वह भी अरबी में, जिसको तुम मुक़द्दस समझते हो, चाहे उसमे फह्हाशी ही क्यूँ न हो..
इबादत के लिए रुक़ूअ या सुजूद, अल्फाज़, तौर तरीके और तरकीब की कोई जगह नहीं होती, गर्क ए कायनात होकर कर उट्ठो तो देखो तुम्हारा अल्लाह तुम्हारे सामने सदाक़त बन कर खड़ा होगा. तुमको इशारा करेगा कि तुमको इस धरती पर इस लिए भेजा है कि तुम इसे सजाओ और सँवारो, आने वाले बन्दों के लिए, यहाँ तक कि धरती के हर बाशिदों के लिए. इनसे नफरत करना गुनाह है, इन बन्दों और बाशिदों की खैर ही तुम्हारी इबादत होगी. इनकी बक़ा ही तुम्हारी नस्लों के हक में होगा.

नट खट बातूनी बच्चे से देर रात को माँ कहती है, बेटे सो जाओ नहीं तो बागड़ बिल्ला आ जाएगा. माँ की बात झूट होते हुए भी झूट के नफ़ी पहलू से अलग है. यह सिर्फ मुसबत पहलू के लिए है कि बच्चा सो जाए ताकि उसकी नींद पूरी हो सके, मगर यह बच्चे को डराने के लिए है.
क़ुरआन का मुहम्मदी अल्लाह बार बार कहता है,
 "मैं डराने वाला हूँ " 
ऐसे ही माँ बच्चे को डराती  है.
लोग उस अल्लाह से डरें जब तक कि सिने बलूगत न आ जाए, यह बात किसी फ़र्द या कौम के ज़ेहनी बलूगत पर मुनहसर करती है कि वह बागड़ बिल्ला से कब तक डरे. 
यह डराना एक बुराई, जुर्म और गुनाह बन जाता है कि बच्चा बागड़ बिल्ला से डर कर किसी बीमारी का शिकार हो जाए, डरपोक तो वह हो ही जाएगा माँ की इस नादानी से. डर इसकी तमाम उम्र का मरज़ बन जाता है.
मुसलमान अपने बागड़ बिल्ला से इतना डरता है कि वह कभी बालिग ही नहीं होगा. 
मूर्तियाँ जो बुत परस्त पूजते हैं, वह भी बागड़ बिल्ला ही हैं लेकिन उनको अधिकार है कि सिने- बलूगत आने पर वह उन्हें पत्थर मात्र कह सकें, उन पर कोई फ़तवा नहीं, मगर मुसलमान अपने हवाई बुत को कभी बागड़ बिल्ला नहीं कह सकता.
देखिए कि बागड़ बिल्ला क्या कहता है - - -

"जब अल्लाह की मदद और फतह आ पहुंचे, 
और आप लोगों को अल्लाह के दीन में जौक़ जौक़ दाख़िल होता हुवा देखें, 
तो अपने रब की तस्बीह और तहमीद कीजिए और उससे इस्तेग्फार की दरख्वास्त कीजिए. वह बड़ा तौबा कुबूल करने वाला है." 
सूरह नस्र ११० पारा - ३० आयत (१-३)
मुहम्मद का ख्वाब ए वहदानियत शक्ल पाने वाली है, मक्का की फ़तह हासिल करने वाले हैं, उनका ला शऊर बेदार हो रहा है, वह भी अपने रचे हुए अल्लाह से डरने लगे हैं, उनकी बद आमलियाँ उनको झिंझोड़ रही है, नतीजतन वह अपनी मग्फ़िरत की दुआ कर रहे हैं. खुशियों और मायूसियो से पुर यह सूरह है. 
फ़तह मक्का का दिन दुन्या की तमाम इंसानी आबादी के लिए एक बद तरीन दिन था, खास कर मुसलामानों के लिए नामुराद दिन कहा जाएगा, इस के बाद दीन जैसे मुक़द्दस उन्वान को लेकर जब तलवार उट्ठी तो इंसानों के लिए यह ज़मीन तंग हो गई. सदियाँ गुज़र गईं मगर यह जिहादी सिलसिला अभी तक ख़त्म नहीं हुवा. इतने बड़े इंसानी खून का हिसाब जब एक बन्दे हक़ीर अल्लाह से तलब करता है, तब अल्लाह नज़रें चुराता है. इस नतीजा ए फ़िक्र  के बाद बंदा ए अहक़र, बन्दा ए बरतर हो गया और उसने ऐसे कमतर अल्लाह की नमाज़ें अपने पर हराम कर लीं. 




जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान


नक़्श फ़रियादी 

नक़्श फ़रियादी है किसकी शोखिए तहरीर का ,
काग़ज़ी है पैरहन हर पैकर ए तहरीर का .
ग़ालिब के दीवान का यह पहला शेर है, जिसमे उन्होंने अपने मिज़ाज के एतबार से हम्द (ईश गान) का इशारा किया है। अजीब ओ गरीब और अनबूझे ख़ुदा की तरफ़ सिर्फ नज़रें उठाई हैं, न उसकी तारीफ़ ही है न हम्द, बल्कि एक हैरत का इज़हार है .यही अब तक के खुदाओं की हक़ीक़त है .  उसको लोग अपने हिसाब से शक्ल देकर इंसान को सिर्फ गुमराह कर रहे हैं .
ग़ालिब कहता है कि वह कौन सी ताक़त है कि मखलूक का हर नक़्श (आकृति) फ़रियादी है और अपनी तशकील ओ तामीर की तहरीरी तकमीली तजस्सुस लिए हुए है कि वह क्या है ? क्यों है ? ?  कौन है उसका खालिक और मालिक़ ?
गोया ग़ालिब अब तक के खुदाओं को इंकार करते हुए उनके लिए एक सवालिया निशान ही छोड़ता है . वह क़ुदरत को पूजने का ढोंग नहीं करता बल्कि उसको अपने महबूब की तरह शोख और शरीर बतलाता है , जो बराबरी का दर्जा रखता है . अगर कुदरत को इसी हद तक तस्लीम करके जिया जाए तो इंसान का हाल (वर्तमान) सार्थक बन सकता है और 
इंसान का मुस्तक़्बिल ग़ालिब शेर के दूसरे मिसरे में पिरोता है कि हर वजूद का लिबास कागज़ी यानी आरजी है .यही वजूद का सच है बाकी तमाम बातें खारजी हैं .
ब्रिज मोहन चकबस्त ग़ालिब के फलसफे को और खुलासा करते हुए कहते हैं - - -
ज़िन्दगी क्या है अनासिर में ज़हूर ए तरतीब ,
मौत क्या है इन्हीं अज्ज़ा का परीशाँ होना . 


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