Saturday 13 September 2014

Soorah akhlas 112

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.
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सूरह इखलास - ११२ - पारा - ३० 
( कुल हवाल लाहो अहद) 



जंगे-बदर के बाद जंगे-ओहद में अल्लाह के खुद साख्ता रसूल हार के बाद अपने मुँह ढक कर हारी हुई फ़ौज के सफ़े-आखीर में पनाह लिए हुए खड़े थे और अबू सुफ्यान की आवाज़ ए बुलंद को सुनकर भी टस से मस न हुए. वह आवाज़ जंग का बाहमी समझौता हुवा करता था कि नाम पुकारने के बाद दस्ते के मुखिया को सामने आ जाना चाहिए ताकि उसके मातहतों का खून खराबा मजीद न हो. 
वैसे भी मुहम्मद ने कभी तलवार और तीर कमान को हाथ नहीं लगाया, बस लोगों को चने की झाड़ पर चढाए रहते थे. उनका कलाम होता ,'' मार ज़ोर लगा के, तुझ पर मेरे माँ बाप कुर्बान"

"आप कह दीजिए वह यानि अल्लाह एक है,
अल्लाह बेनयाज़ है,
इसके औलाद नहीं,
और न वह किसी की औलाद है, और न कोई उसके बराबर है."
नमाज़ियो !
सूरह अखलास दूसरी ग़नीमत सूरह है, पहली ग़नीमत थी सूरह फातेहा. बाक़ी कुरआन सूरतें करीह हैं , तमाम सूरतें मकरूह हैं. इन दोनों सूरतों को छोड़ कर बाक़ी कुरआन नज़रे-आतिश कर दिया जाय, तो भी इस्लाम की लाज बच सकती है, वरना तो ज़रुरत है मुकम्मल इन्कलाब की.
इसमें कोई शक नहीं की कुदरत की न कोई औलाद है, न ही वह किसी की औलाद. इसी तरह कुदरत की मज़म्मत करना या उसे पूजना दोनों ही नादानियाँ हैं. कुदरत का सामना करना ही उसका पैगाम है. कुदरत पर फ़तह पाना ही इंसानी तजस्सुस और इंसानी ज़िन्दगी का राज़ है. कुदरत को मगलूब करना ही उसकी चाहत है.

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

पक्का मुसलमान कभी ज़मीर में घुस कर एक सच्चा इन्सान नहीं हो सकता. उसकी कमजोरी है इस्लाम. इस्लाम इसकी इजाज़त ही नहीं देता की अपने दिल की अपने ज़मीर का कहना मनो. बड़े बड़े साहिबे कलम देखे कि सच्चाई का तकाज़ा जहाँ होता है वह इस्लाम और मुसलामानों के तरफ़दार हो जाते हैं. आजकल आसाम और म्यामनार की चर्चा हिंदुस्तान की सियासत में कुछ ज़्यादः ही है. दुन्या भर के मुस्लिम सहाफ़ी मसलमानों का रोना रो रहे हैं, जब कि ग़लती न ही ग़ैर मुस्लिमों की है, न मुस्लिमों की, ग़लती इस्लाम मज़हब की है जो कि मुस्लिमों को अपनी डेढ़ ईंट की मस्जिद कायम रखने के लिए मजबूर है, जोकि इस्लाम की तश्हीर और तबलीग के लिए मजबूर कर रही है. अगर मुकामी बन्दे इस ज़हर से नावाकिफ़ है तो बैरूनी तबलीगी इस ज़हर से उनको सींचते रहते हैं. इस्लाम का तकाज़ा है कि दारुल हरम के वफ़ादार रहो और दारुल हरब की ग़द्दारी लाज़िम है. इन हालात में दारुल हरब उनको कैसे और क्यों बर्दाश्त करे
हमें अपनी ज़िन्दगी अपने तौर पर जीना है या आपके गैर फितरी मशविरे के मुताबिक? कि नमाज़ पढो, रोज़े रक्खो, खैरात करो अल्लाह को अनेक शक्लों में मत बांटो, सिर्फ़ एक मेरी बतलाई हुई शक्ल में तस्लीम करो, वर्ना मरने को बाद दोज़ख तुम्हारे लिए धरी हुई है. यह बातें दुन्या की दरोग़ तरीन बातों में शामिल हैं जो मुस्लिम क़लम के गले में अटकी हुई हैं.
मुसलामानों को इस्लाम से ख़ारिज होकर ईमान की बात करने की ज़रुरत है जिसे कि ये ईमान फरोश ओलिमा होने नहीं देंगे. इनका ज़रीआ मुआश है इस्लाम और उसकी दलाली.

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