Friday 3 June 2016

sOORAH sHOERA 26-q1

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.

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सूरह -शोअरा २६ - १९वाँ पारा 
(1)
बजा कहे जिसे दुन्या उसे बजा कहिए, 
ज़बाने-खलक को नक्कारा ए खुदा कहिए.

बहुत मशहूर शेर है मगर बड़ा खयाले खाम से भर हुवा है. 
ज़बाने खलक की तरह फैली हुई यहूदियत के नककारा को तोड़ने वाला ईसा मसीह क्या मुजरिम थे ? 
इंसान को एक एक दाने को मोहताज किए हुए इस दुन्या पर छाई हुई सरमाया दारी, नादार मेहनत कशों के लिए नक्कारा ए खुदा थी? 
इसे पाश पाश करने वाला कार्ल मार्क्स क्या मुजरिम था?
३०-३५ लाख लोग हर साल काबा में शैतान को कन्कड़ी मरने जाते हैं, इसके पसे पर्दा अरबों को इमदाद और एहतराम बख्शना क्या नक्कारा ए खुदा है? 
कुम्भ के मेले में करोरों लोग गंगा में डुबकी लगा कर अपने पाप धोते है और हराम खोर पंडों को पालते हैं, नंग धुदंग नागा साधू बेशर्मी का मुजाहिरा करते हैं, क्या ये नक्कारा ए खुदा है? 
नहीं यह सब साजिशों पर आधारित बुराइयाँ है.
मैं इलाहबाद होते हुए कानपुर जा रहा था, इलाहबाद स्टेशन आते ही लट्ठ लिए हुए पण्डे हमारी बोगी में आ घुसे . कुम्भ का ज़माना था, ज्यादाः हिस्सा गंगा स्नान करने वाले बोगी में थे सब पर उन पंडों ने अपना अपना क़ब्ज़ा जमा लिया. 
एक फटे हल अधेड़ पर जिस पण्डे ने अपना क़ब्ज़ा जमाया था उसको टटोलने लगा, अधेड़ ने कहा मेरे पास तो कोई पैसा कौड़ी नहीं है आपको देने के लिए, पण्डे ने उसे धिक्कारते हुए कहा 
"तो क्या अपनी मय्या C दाने के लिए यहाँ आया है" 
सुनकर मेरा कलेजा फट गया . आखिर कब तक हमारे समाज में ये सब चलता रहेगा?
इन बुराइयों पर ईमान और अकीदा रखने वालों को मेरी तहरीर की नई नई परतें बेचैन कर रही होंगी. कुछ लोग मुझसे जवाब तलब होंगे कि 
आखिर इन पर्दा कुशाइयों  की ज़रुरत क्या है? 
इन इन्केशाफत से मेरी मुराद क्या है ? 
इसके बदले शोहरत, इज्ज़त या दौलत तो मिलने से रही, हाँ! ज़िल्लत, नफरत और मौत ज़रूर मिल सकती है. 
मुखालिफों की मददगार हुकूमत होगी, कानून होगा, 
यहाँ तक कि इस्लाम के दुश्मन दीगर धर्मावलम्बी भी होंगे. 
मेरे हमदर्द कहते है तुम मुनकिरे इस्लाम हो, हुवा करो, तुम्हारी तरह दरपर्दा बहुतेरे हैं. 
तुम नास्तिक हो हुवा करो, तुम्हारी तरह बहुत से हैं, तुम कोई अनोखे नहीं. अक्सर लम्हती तौर पर हर आदमी नास्तिक हो जाता है मगर फिर ज़माने से समझौता कर लेता है या अलग थलग पड कर जंग खाया करता है.
मेरे मुहब्बी ठीक ही कहते है जो कि मुहब्बत के मारे हुए हैं. हक कहाँ बोल सकते हैं, मुझे खोना नहीं चाहते.
आज़ादी के बाद बहुत से मुस्लमान मोमिन बशक्ले-नास्तिक पैदा हुए हैं. कुछ ऐसे मुसलमान हुए जो अपनी मिटटी सुपुर्दे-खाक न करके सुपुर्दे-आग किया है, करीम छागला, नायब सदर जम्हूर्या जस्टिस हिदायत उल्लाह, मशहूर उर्दू लेखिका अस्मत चुगताई वगैरा नामी गिरामी हस्तियाँ हैं. 
उनके लिए सवाल ये उठता है कि उन्हों ने इस्लाम के खिलाफ जीते जी आवाज़ क्यूँ नहीं बुलंद की? तो मैं  क्यूं मैदान में उतर रहे हूँ ?
ऐ लोगो! वह अपने आप में सीमित थे, वह सिर्फ अपने लिए थे. नास्तिक मोमिन थे मगर ज़मीनी हकीकत को सिर्फ अपने तक रक्खा. 
मैं नास्तिक मोमिन हूँ मगर एक धर्म के साथ जिसका धर्म है सदियों से महरूम, मजलूम और नादार मुसलमानों को जगाना.मजकूरह बाला लोग खुद अपने आपको मज़हब की तारीकी से निकल ले गए, इनके लिए यही काफी था. मैं इसे कोताही और खुद गरजी मानता हूँ. उनको रौशनी मिली मिली तो उन्हों ने इसे लोगों में तकसीम क्यूँ नहीं किया? क्यूं अपना ही भला करके चले गए?
मेरा इंसानी धर्म कहता है कि इंसानों को इस छाए हुए मज़हबी अँधेरे से निकालो, खुद निकल गए तो ये काफी नहीं है. मेरे अन्दर का इंसान सर पे कफ़न बाँध कर बाहर निकल पड़ा है, डर खौफ़, मसलेहत और रवा दारी मेरे लिए कोई मानी नहीं रखती, इंसानी क़दरों के सामने. मैं अपने आप में कभी कभी दुखी होता हूँ कि मैं भोले भाले अकीदत मंदों को ठेंस पहुंचा रहा हूँ मगर मेरी तहरीक एक आपरेशन है जिसमें अमल से पहले बेहोश करने का फामूला मेरे पास नहीं है, इस लिए आपरेशन होश ओ हवस के आलम में ही मुझे करना पद रहा है. इस मज़हबी नशे से नजात दिलाने के लिए सीधे सादे बन्दों को कुछ तकलीफ तो उठानी ही पड़ेगी. ताकि इन के दिमाग से इस्लामी कैंसर की गाँठ निकाली जा सके. इनकी नस्लों को जुनूनी क़ैद खानों से नजात मिले. इनकी नस्लें नई फिकरों से आशना हो सकें. मैं यह भी नहीं चाहता कि कौम आसमान से छूटे तो खजूर में अटके. मैं ये सोच भी नहीं सकता कि नस्लें इस्लाम से ख़ारिज होकर ईसाइयत, हिंदुत्व या और किसी धार्मिक जाल में फसें. ये सब एक ही थैली के चटते बट्टे हैं.
मैं मोमिन को इन सब से अलग और आगे इंसानियत की राह पर गामज़न करना चाहता हूँ जो आने वाले वक़्त में सफ़े अव्वल की नस्ल होगी. शायद ही कोई मुसलमान अपनी औलादों के लिए ऐसे ख्वाब देखता हो.
ऐ गाफिल मुसलामानों! अपनी नस्लों को आने वाले ज़वाल से बचाओ. इस्लाम अपने आने वाले अंजाम के साथ इन्हें ले डूबेगा. कोई इनका मदद गार न होगा सब तमाश बीन होंगे. ऊपर कुछ भी नहीं है, सब धोका धडी है. पत्थर और मिटटी के बने बुतों  की तरह अल्लाह भी एक हवा का खयाली बुत है. इससे डरने की कोई ज़रुरत नहीं है मगर सच्चा मोमिन बनना ऐन ज़रूरी है. 


ज़रा देखिए तो अल्लाह क्या कहता है - - -
"ये किताबे-वाज़ेह की आयतें हैं. शायद आप उनके ईमान न लाने पर अपनी जान दे देंगे. अगर हम चाहें तो उन पर आसमान से एक बड़ी किताब नाज़िल कर दें, फिर उनकी गर्दनें उस निशानी से पस्त हो जाएँ. और उन पर कोई ताजः फ़ह्माइश रहमान की तरफ़ से ऐसी नहीं आई जिससे ये बेरुखी न करते हो , सो उन्होंने झूठा बतला दिया, सो उनको अब अनक़रीब इस बात की हक़ीक़त मालूम हो जाएगी जिसके साथ यह मज़ाक़ किया करते थे."
सूरह -शोअरा २६ - १९वाँ पारा (१-६) 

ये किताबे-मुज़ब्जाब आयतें हैं, ये किताबे-गुमराही की आयतें हैं. 
ये एक अनपढ़ और ख्वाहिश-पैगम्बरी की आयतें हैं जो तड़प रहा है कि  लोग उसको मूसा और ईसा की तरह मान लें. 
इसका अल्लाह भी इसे पसंद नहीं करता कि कोई करिश्मा दिखला सके. क़ुरआनी आयतें चौदह सौ सालों से एक बड़ी आबादी को नींद की अफीमी गोलियाँ खिलाए हुए है.

मुसलामानों कुरआन की इन आयातों पर गौर करो कि कहीं पर कोई दम है?
"क्या उन्हों ने ज़मीन को नहीं देखा कि हमने उस पर तरह तरह की उमदः उमदः बूटियाँ उगाई हैं? इसमें एक बड़ी निशानी है. और उनमें अक्सर लोग ईमान नहीं लाते , बिला शुबहा आप का रब ग़ालिब और रहीम है.
सूरह -शोअरा २६ - १९वाँ पारा (७-९)

मुहम्मद को कुदरत की बख्शी हुई नेमतों का बहुत ज़रा सा एहसास भर है. इन ज़राए पर रिसर्च करने और इसका फ़ायदा उठाने का काम दीगर कौमों ने किया जिनके हाथों में आज तमाम सनअतें हैं, और ज़मीन की ज़र्खेज़ी का फायदा भी उनके सामने हाथ बांधे खड़ा है, 
मुसलमानों के हाथों में खुद साख्ता रसूल के फ़रमूदात .


जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

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