सूरह राद - १३
(1st पार्ट)
मोमिन का ईमान
मोमिन का ईमान
मोमिन और ईमान, लफ़्ज़ों और इनके मअनों को उठा कर इस्लाम ने इनकी मिटटी पिलीद कर दी है. यूँ कहा जाए तो ग़लत न होगा कि इस्लाम ने मोमिन के साथ अक़दे(निकाह) बिल जब्र कर लिया है और अपनी जाने जिगर बतला रहा है, जब कि ईमान से इस्लाम कोसों दूर है, दोनों का कोई आपस में तअल्लुक़ ही नहीं है, बल्कि बैर है. मोमिन की सच्चाई नीचे दर्ज है - -
१- फितरी (प्रकृतिक) सच ही ईमान है. गैर फितरी बातें बे ईमानी हैं-- जैसे हनुमान का या मुहम्मद की सवारी बुर्राक का हवा में उड़ना.
२- जो मुम्किनात में से है वह ईमान है. ''शक्कुल क़मर '' मुहम्मद ने ऊँगली के इशारे से चाँद के दो टुकड़े कर दिए, उनका सफेद झूट है.
३-जो स्वयं सिद्ध हो वह ईमान है. जैसे त्रिभुज के तीन नोकदार कोनो का योग एक सीधी रेखा. या इंद्र धनुष के सात रंगों का रंग बेरंग यानी सफेद.
४- जैसे फूल की अनदेखी शक्ल खुशबू, बदबू का अनदेखा रूप दुर्गन्ध.
५- जैसे जान लेवा जिन्स ए मुख़ालिफ़ में इश्क़ की लज्ज़त.
६- जैसे जान छिड़कने पर आमादा खूने मादरी व खूने पिदरी.
७- जैसे सच और झूट का अंजाम.
ऐसे बेशुमार इंसानी अमल और जज्बे हैं जो उसके लिए ईमान का दर्जा रखते हैं. मसलन - - - क़र्ज़ चुकाना, सुलूक का बदला, अहसान न भूलना, अमानत में खयानत न करना, वगैरह वगैरह।
१- कोई भी आदमी (चोर, डाकू, ख़ूनी, दग़ाबाज़ मुहम्मद का साथी मुगीरा* से लेकर गाँधी कपूत हरी गाँधी उर्फ़ अब्दुल्लाह तक) नहा धो कर कलमन (कालिमा पढ़ के) मुस्लिम हो सकता है.
२- कालिमा के बोल हैं ''लाइलाहा इललिल्लाह मुहम्मदुर रसूलिल्लाह'' जिसके मानी हैं अल्लाह के सिवा कोई अल्लाह नहीं है और मुहम्मद उसके दूत हैं.
सवाल उठता है हजारों सालों से इस सभ्य समाज में अल्लाह और ईशवरों की कल्पनाएँ उभरी हैं मगर आज तक कोई अल्लाह किसी के सामने आने की हिम्मत नहीं कर पा रहा. जब अल्लाह साबित नहीं हो पाया तो उसके दूत क्या हैसियत रखते हैं? सिवाय इसके कि सब के सब ढोंगी हैं.
३- कालिमा पढ़ लेने के बाद अपनी बुद्धि मुहम्मद के हवाले करो, जो कहते हैं कि मैं ने पल भर में सातों आसमानों की सैर की और अल्लाह से गुफतुगू करके ज़मीन पर वापस आया कि दरवाजे की कुण्डी तक हिल रही थी.
४- मुस्लिम का इस्लाम कहता है यह दुनिया कोई मानी नहीं रखती, असली लाफ़ानी ज़िन्दगी तो ऊपर है, यहाँ तो इन्सान ट्रायल पर इबादत करने के लिए आया है. मुसलमानों का यही अक़ीदा कौम के लिए पिछड़े पन का सबब है और हमेशा बना रहेगा.
५- मुसलमान कभी लेन देन में सच्चा और ईमान दार हो नहीं सकता क्यूंकि उसका ईमान तो कुछ और ही है और वह है ''लाइलाहा इललिल्लाह मुहम्मदुर रसूलिल्लाह'' इसी लिए वह हर वादे में हमेशा '' इंशाअल्लाह'' लगता है. मुआमला करते वक़्त उसके दिल में उसके ईमान की खोट होती है. बे ईमान कौमें दुन्या में कभी न तरक्क़ी कर सकती हैं और न सुर्ख रू हो सकती हैं।
*मुगीरा*= इन मुहम्मद का साथी सहाबी की हदीस है कि इन्होंने (मुगीरा इब्ने शोअबा) एक काफिले का भरोसा हासिल कर लिया था फिर गद्दारी और दगा बाज़ी की मिसाल क़ायम करते हुए उस काफिले के तमाम लोगो को सोते में क़त्ल करके मुहम्मद के पनाह में आए थे और वाकेआ को बयान कर दिया था, फिर अपनी शर्त पर मुस्लमान हो गए थे. (बुखारी-११४४)
मुसलमानों ने उमर द ग्रेट कहे जाने वाले ख़लीफा के हुक्म से जब ईरान पर लुक़मान इब्न मुक़रन की क़यादत में हमला किया तो ईरानी कमान्डर ने बे वज्ह हमले का सबब पूछा था तो इसी मुगीरा ने क्या कहा गौर फ़रमाइए - - -''हम लोग अरब के रहने वाले हैं. हम लोग निहायत तंग दस्ती और मुसीबत में थे. भूक की वजेह से चमड़े और खजूर की गुठलियाँ चूस चूस कर बसर औक़ात करते थे. दरख्तों और पत्थरों की पूजा किया करते थे. ऐसे में अल्लाह ने अपनी जानिब से हम लोगों के लिए एक रसूल भेजा. इसी ने हम लोगों को तुमसे लड़ने का हुक्म दिया है, उस वक़्त तक कि तुम एक अल्लाह की इबादत न करने लगो या हमें जज़या देना न कुबूल करो. इसी ने हमें परवर दिगार के तरफ़ से हुक्म दिया है कि जो जेहाद में क़त्ल हो जाएगा वह जन्नत में जाएगा और जो हम में ज़िन्दा रह जाएगा वह तुम्हारी गर्दनों का मालिक होगा.(बुखारी १२८९)
असर क़ुबूल
हम मुहम्मद की अन्दर की शक्ल व सूरत उनकी बुनयादी किताबों कुरआन और हदीस में अपनी खुली आँखों से देख रहे हैं. मेरी आँखों में धूल झोंक कर उन नुत्फे हराम ओलिमा की बकवास पढने की राय दी जा रही है जिसको पढ़ कर उबकाई आती है कि झूट और इस बला का. मुझे तरस आती है और तअज्जुब होता है कि यह अक्ल से पैदल पाठक उनकी बातों को सर पर लाद कैसे लेते हैं?
मुहम्मद उमर कैरान्वी के बार बार इसरार पर एक बार उसके ब्लॉग पर चला गया, देखा कि एक हिदू मुहम्मद भग्त 'राम कृष्ण राव दर्शन शास्त्री' लिखते है कि
''एक क़बीले के मेहमान का ऊँट दूसरे क़बीले की चरागाह में ग़लती से चले जाने की छोटी-सी घटना से उत्तेजित होकर जो अरब चालीस वर्ष तक ऐसे भयानक रूप से लड़ते रहे थे कि दोनों पक्षों के कोई सत्तर हज़ार आदमी मारे गए, और दोनों क़बीलों के पूर्ण विनाश का भय पैदा हो गया था, उस उग्र क्रोधातुर और लड़ाकू क़ौम को इस्लाम के पैग़म्बर ने आत्मसंयम एवं अनुशासन की ऐसी शिक्षा दी, ऐसा प्रशिक्षण दिया कि वे युद्ध के मैदान में भी नमाज़ अदा करते थे।''
'सत्तर हज़ार' अतिश्योक्ति के लिए ये मुहम्मद का तकिया कलाम हुवा करता था, उनके बाद नकलची मुल्लाओं ने भी उनका अनुसरण किया शास्त्री जी भी उसी चपेट में हैं. बात अगर अंधी आस्था वश कर रहे हैं तो बकते रहें और अगर किराए के टट्टू हैं तो इनको भी मैं उन्हीं ओलिमा में शुमार करता हूँ. गौर तलब है कि उस वक़्त पूरे मक्का की आबादी सत्तर हज़ार नहीं थी, ये दो क़बीलों की बात करते हैं. इनकी पूरी हांड़ी में एक चावल टो कर आपको बतला रहा हूँ कि पूरी हाँडी कैरान्वी की ही तरह बदबूदार हुलिए की है।
***********************************************************************
सूरह रअद- १३
''अल्लरा - ये आयतें हैं किताब की और जो कुछ आपके रब की तरफ से आप पर नाज़िल किया जाता है, बिलकुल सच है, और लेकिन बहुत से आदमी ईमान नहीं लाते. अल्लाह ऐसा है कि आसमानों को बगैर खम्बों के ऊँचा खड़ा कर दिया चुनाँच तुम उनको देख रहे हो, फिर अर्श पर क़ायम हुवा और सूरज और चाँद को काम में लगाया हर एक, एक वक़्त मुअय्यन पर चलता रहता है. वही अल्लाह हर काम की तदबीर करता है और दलायल को साफ़ साफ़ बयान करता है.ताकि तुम अपने रब के पास जाने का यक़ीन करलो.''
सूरह रअद १३ परा-१३ आयत (१-२)सबसे पहले क़ुरआन में नाज़िल का अर्थ जानें नाज़िल होने का सही अर्थ है प्रकृति की और से प्रकोपित (न कि उपहारित) नाज़िला (बला) होना, यानी क़ुरआन अल्लाह की तरफ से एक बला है, एक नज़ला है. उम्मी (जाहिल) पयम्बर ने अपने दीवान की व्याख्या में ही ग़लती करदी. इसी नाज़िल, नुज़ूल और नाज़िला के बुन्याद पर इस्लाम को भी खड़ा किया कि वह कोई भेंट स्वरूप नहीं, बल्कि क़ह्हार का क़हर है, हर वक़्त उसकी याद में मुब्तिला रहो. इसका फायदा और नुकसान खुद मुस्लमान ही उठा रहा है. अवाम डरपोक हो गई है और ख़वास (आलिम व् मुल्ला और धूर्त-जन) उनके डर का फ़ायदा उठा कर उनको पीछे किए हुए हैं. इसकी बुन्याद डाली है बद नियती के साथ दुश्मने इंसानियत मुहम्मद ने. गवाही में मुगीरा का वाक़ेआ पेश करचुका हूँ.
अल्लाह को ज़रुरत पेश आई यकीन दिलाने की कहता है ''बिलकुल सच है'' यह तो इंसानी कमज़ोरी है, इस लिए कि ''लेकिन बहुत से आदमी ईमान नहीं लाते.''
उम्मी आसमान को छत तसव्वुर करते हैं जब कि इनसे हज़ार साल पहले ईसा पूर्व सुकरात और अरस्तू के ज़माने में सौर्य मंडल का परिचय इन्सान पा चुका था और यह अपने अल्लाह को ऐसा घामड़ साबित कर रहे हैं कि उसको अभी तक इसका इल्म नहीं . अल्लाह बगैर सीढ़ी के उस पर चढ़ कर कयाम पज़ीर हो जाता है और फिर मुंतज़िर खड़े सूरज और चाँद को हुक्म देता है कि काम पर लग जाओ. इन बातों को उम्मी दलायल का साफ़ साफ़ बयान बतलाते हैं और मुसलमान अपने रब के पास जाने का यक़ीन कर लेता है? इस सदी में भी मुसलमानों के चेहरों पर दीदा और खोपड़ी में भेजा नहीं आता तो ज़रूर जाएँगे असली जहन्नम में.
''वह ऐसा है कि उसने ज़मीन को फैलाया और उसमे पहाड़ और नहरें पैदा कीं और उसमे हर किस्म के फलों से दो दो किस्में पैदा किए. रात से दिन को छिपा देता है. इन उमूर पर सोचने वालों के लिए दलायल है. और ज़मीन में पास पास मुख्तलिफ़ टुकड़े हैं और अंगूरों के बाग़ है और खेतयाँ हैं और खजूरें हैं जिनमें तो बअजे ऐसे है कि एक तना से जाकर ऊपर दो तने हो जाते हैं और बअज़े में दो तने नहीं होते, सब को एक ही तरह का पानी दिया जाता है और हम एक को दूसरे फलों पर फौकियत देते हैं इन उमूर पर सोचने वालों के लिए दलायल है.''सूरह रअद १३ परा-१३ आयत (३-४)
चार सौ साल पहले ईसाई साइंटिस्ट गैलेलियो ने बाइबिल को कंडम करके ज़मीन को फैलाई हुई रोटी जैसी चिपटी नहीं बल्कि गोल कहा था तो उसे ईसाई कठ मुल्ला निजाम ने फाँसी की सजा सुना दिया था, खैर वह उनकी बात अपनी जान बचाने के लिए मान गया मगर आज सारे ईसाई गैलेलियो की बात को मान गए हैं. तौरेत के नकल में गढ़े कुरआन के पैरोकार ज़िद में अड़े हुए हैं कि नहीं ज़मीन वैसे ही है जैसी कुरआन कहता है,हालांकि वह रोज़ उसकी तस्वीर कैमरों में देखते हैं. हे कुरआन के रचैता! पहाड़ तो खैर कुदरती हैं मगर उस पर नहरें तो इंसानों ने बनाई! खैर आप को इस बात की भी ख़बर न मिली होगी. अहमक अल्लाह! कौन सा फल है जिसकी सिर्फ दो किस्में होती हैं? ( दरअस्ल मुहम्मद को भाषा ज्ञान तो था नहीं शायद दो दो से उनका अभिप्राय बहु वचन से हो)
''रात से दिन को छिपा देता है'' ये जुमला भी कुरआन में बार बार आता है. खुदाए आलिमुल ग़ैब को क्या इस बात का पता न था कि ज़मीन पर रात और दिन का निज़ाम क्यूँ है? दरख्तों में तनों की बात फिर करता है, एक या दो दो - -यहाँ पर भी दो दो से अभिप्राय बहु वचन से हैं. इसी तरह तर्जुमा निगारों ने पूरे कुरआन में '' अल्लाह के कहने का मतलब ये - - - है'' लिख कर मुहम्मद की मदद की है. लाल बुझक्कड़ के इन फ़लसफ़ों पर बार मुहम्मद इसरार करते हैं कि ''इन उमूर पर सोचने वालों के लिए दलायल है.''
'' और अगर आप को तअज्जुब हो तो उनका ये कौल तअज्जुब के लायक है कि जब हम खाक हो गए, क्या हम फिर अज़ सरे नव पैदा होंगे. ये वह लोग हैं कि जिन्हों ने अपने रब के साथ कुफ़्र किया और ऐसे लोगों की गर्दनों में तौक़ डाले जाएँगे और ऐसे लोग दोज़खी हैं.वह इस में हमेशा रहेंगे.''सूरह रअद १३ परा-१३ आयत (५)
यहूदियत से उधार लिया गया ये अन्ध विश्वास मुहम्मद ने मुसलामानों के दिमाग़ में भर दिया है कि रोज़े महशर वह उठाया जाएगा, फिर उसका हिसाब होगा और आमालों की बुन्याद पर उसको जन्नत या दोज़ख की नई ज़िन्दगी मिलेगी. आमाले नेक क्या हैं ? नमाज़, रोज़ा, ज़कात, हज, और अल्लाह एक है का अक़ीदा जो कि दर अस्ल नेक अमल हैं ही नहीं, बल्कि ये ऐसी बे अमली है जिससे इस दुन्या को कोई फ़ायदा पहुँचता ही नहीं, आलावा नुकसान के.
हक तो ये है कि इस ज़मीन की हर शय की तरह इंसान भी एक दिन हमेशा के लिए खाक नशीन हो जाता है बाकी बचती है उस की नस्लें जिन के लिए वह बेदारी, खुश हाली का आने आने वाला कल । वह जन्नत नुमा इस धरती को अपनी नस्लों के वास्ते छोड़ कर रुखसत हो जाता है या तालिबानियों के वास्ते . मुहम्मद का भाषाई व्याकरण देखिए - -''और अगर आप को तअज्जुब हो तो उनका ये कौल तअज्जुब के लायक है'' दोज़ख तो तड़प तड़प कर जलने की आग की भट्टी है, आपफ़रमाते हैं -''वह इस में हमेशा रहेंगे.''''ये लोग आफियत से पहले मुसीबत का तकाज़ा करते हैं. आप का रब ख़ताएँ बावजूद इसके कि वह ग़लती करते हैं, मुआफ़ कर देता है और ये बात भी यक़ीनी है कि आप का रब सख्त सज़ा देने वाला है. और कहते हैं इन पर मुअज्ज़ा क्यूँ नहीं नाज़िल हुवा. आप सिर्फ डराने वाले हैं. - - और अल्लाह को सब ख़बर रहती है जो कुछ औरत के हमल में रहता है और जो कुछ रहिम में कमी बेशी होती रहती है. और तमाम पोशीदा और ज़ाहिर को जानने वाला है, सब से बड़ा आलीशान है.सूरह रअद १३ परा-१३ आयत (६-७)''क़यामत कैसी होती है लाकर बतलाओ'' लोगों के इस मज़ाक़ पर मुहम्मद की ये आयत कैसी चाल भरी है, रिआयत और धमकी के साथ साथ. लोगों के मुअज्ज़े कि फ़रमाइश को टाल कर जवाब देते है कि वह तो बिलाऊवा हैं सिर्फ डराने वाले, बे सुर कि तानते हैं कि अल्लाह औरत के गर्भ में झाँक कर सब देख लेता है कि क्या घट रहा है. और खुद अपनी शान भी बघारता है कि बड़ा आली शान है. क्या नतीजा निकालते हो ऐ मुसलमानों! अल्लाह की इन खुराफाती बातों से ?
''हर शख्स के लिए कुछ फ़रिश्ते हैंजिनकी बदली होती रहती है, कुछ इसके आगे कुछ इसके पीछे बहुक्म ए खुदा फ़रिश्ते हिफाज़त करते रहते हैं. वाकई अल्लाह तअला किसी कौम की हालत में तगय्युर नहीं करता जब तक वह लोग खुद अपनी हालत को बदल नहीं देते और जब अल्लाह तअला किसी काम पर मुसीबत डालना तजवीज़कर लेता है तो फिर उस को हटाने की कोई सूरत नहीं होती और कोई इसके सिवा मदद गार नहीं होता.''
सूरह रअद १३ परा-१३ आयत (११)
बाइबिल के कौल को अल्लाह का कलाम बतलाते हुए मुहम्मद कहते हैं, ''वाकई अल्लाह तअला किसी कौम की हालत में तगय्युर नहीं करता जब तक वह लोग खुद अपनी हालत को बदल नहीं देते'' 'दूसरे लम्हे ही इसके ख़िलाफ़ अपनी क़ुरआनी जेहालात पेश कर देते हैं ''जब अल्लाह तअला किसी काम पर मुसीबत डालना तजवीज़ कर लेता है तो फिर उस को हटाने की कोई सूरत नहीं होती और कोई इसके सिवा मदद गार नहीं होता।''
जीम. मोमिन ''निसारुल ईमान''
मोहम्मद (स.अ.) ने तो अपनी सच्चाई दुनिया के सामने माय सबूत बता दी. अगर आप सच्चे हो तो इसे साबित करो. मिसाल के तौर पर अपनी सच्चाई के जो भी उदाहरण आपने दिए, उनमे से कोई भी पूरी तरह सत्य नहीं है.
ReplyDelete१- फितरी (प्रकृतिक) सच ही ईमान है. गैर फितरी बातें बे ईमानी हैं-- जैसे हनुमान का यामुहम्मद की सवारी बुर्राक का हवा में उड़ना.
इसका मतलब हवाई जहाज़ का हवा में उड़ना गैर फितरी है, अर्थात सत्य नहीं है.
२- जो मुम्किनात में से है वह ईमान है. ''शक्कुल क़मर '' मुहम्मद ने ऊँगली के इशारे से चाँदके दो टुकड़े कर दिए, उनका सफेद झूट है.
अगर यह झूठ था तो उस वक़्त के लोग खामोश क्यों रहे? जबकि नबी ने यह कुरआन में भी लिख दिया, तो लोग उनसे लड़े क्यों नहीं? जो काफिर थे उन्होंने भी यही कहा की मोहम्मद कोई जादू दिखला रहे हैं.
३-जो स्वयं सिद्ध हो वह ईमान है. जैसे त्रिभुज के तीन नोकदार कोनो का योग एक सीधीरेखा. या इंद्र धनुष के सात रंगों का रंग बेरंग यानी सफेद.
त्रिभुज के तीन नोकदार कोनो का योग ज़रूरी नहीं एक सीधीरेखा हो. आप त्रिभुज को किसी घड़े जैसी सतह पर बनाकर देख लो. इन्द्रधनुष में सात से ज्यादा रंग होते हैं. और उनके मिलने से ज़रूरी नहीं सफ़ेद रंग बन ही जाए.
४- जैसे फूल की अनदेखी शक्ल खुशबू, बदबू का अनदेखा रूप दुर्गन्ध.
खुशबु और बदबू की परिभाषा अलग अलग लोगों के लिए अलग अलग होती है. सच किसको माना जाए? कुछ लोगों को मछली की बू से उबकाई आ जाति है तो कुछ के लिए यही बू सेन्ट की तरह लगती है. और जनाब, बदबू खुद ही अनदेखी होती है, उसके अनदेखे रूप का क्या मतलब?
५- जैसे जान लेवा जिन्स ए मुख़ालिफ़ में इश्क़ की लज्ज़त.
बलात्कारी के बारे में आपका क्या विचार है?
६- जैसे जान छिड़कने पर आमादा खूने मादरी व खूने पिदरी.
उन माँ बाप के बारे में क्या विचार है जो गरीबी के कारण अपने बच्चों को बेच देते हैं?
७- जैसे सच और झूट का अंजाम.
यह तो क्लियर ही नहीं किया की सच का और झूठ का अंजाम क्या होता है? मोहम्मद (स.अ.) के अल्लाह को तुम मानते नहीं (जो झूठ की सजा और सच की जजा दे सकता है). और दुनिया में किसी को ये अंजाम दिखाई नहीं देता. फिर हम सच क्यों बोलें और झूठ से क्यों बचें?
WELCOME
ReplyDeleteE गुरू शुक्ला जी! और सरिता जी!
ReplyDeleteहौसला अफज़ाई का शुक्रिया. 'मोमिन'
This comment has been removed by the author.
ReplyDeleteये क्या पागलपन है एक तो जाकिर नाइक जिसके दिमाग में भूसा भरा है और ये दूसरा असरफअली है जिनका भी कोई स्क्रू ढीला लगता है एक को संस्कृत ठीक से नहीं आती और एक को अरबी का मतलब करना नहीं आता दोनों ही अपने अपने नाम का प्रचार करने में लगे है में कोई इस्लाम या मुसलमानों का विरोधी नहीं हूँ लेकिन ऐसे लोगो का विरोधी हूँ जो की किसी भी धर्म ग्रन्थ का अपमान करके अपने आप को बड़ा चतुर और समजदार बताते है इन लोगो की आदत होती है ये किसी भी धर्म ग्रन्थ का अध्ययन नहीं किया करते लेकिन ये धर्म ग्रन्थ इस लिए पढ़ते है की उसमे से कुछ ऐसा मसाले दार मतलब निकला जाये कि दुनिया अचंभित हो जाये ये सब दया के पात्र है और इनका साथ देनेवाले विकृत मनो विचार वाले कहलायेंगे (अगर जाकिर नाइक को संस्कृत और असरफ को अरबी उर्दू सीखनी है तो में सिखाने के लिया तैयार हु बिलकुल निःशुल्क ) चाणक्य के अनुसार मूर्खो से कोई भी सम्बन्ध रखने वाला अंत में संकट ही पाता है तो असरफ अली और जाकिर नाइक ये दोनों को एक दुसरे पर कीचड़ उछालना है तो उछाले लेकिन इनके पास खड़े रह कर अपने ऊपर भी किचल उचालेंगा ये तय है तो इनसे दूर ही रहा जाये यही बुध्धिमानी है असरफ अली मुस्लिम हो कर मुस्लिम के उपास्यो को निचा दिखा रहा है तो क्या ये दुसरे धमो की इज्जत करेगा ? इनसे पूछो की फिर किसकी उपासना की जाये? क्या तुम लोगो की ? इससे पूछना भी बेकार होगा की, तुम्हारे स्वामी रामकृष्ण परमहंस के बारेमे क्या विचार है? या तो गरीब नवाज़ के बारे में क्या विचार है? विवेकानंद के बारेमे या तो सूफी संत निजामुदीन के बारेमे? कबीर, तुलसीदास, मीराबाई के बारे में ?क्यों की ये दोनों बकवास ही करने वाले है. मैं तो हिन्दू, जैन, बुद्ध, सिख, इसाई और सबको इनसे दूर ही रहने की सलाह देता हूँ . - श्री दासअवतार
ReplyDelete