सूरह नह्ल 16
(दूसरी किस्त)
सूरतें क्या खाक में होंगी ?मुहम्मद ने कुरआन में कुदरत की बख्शी हुई नेमतों का जिस बेढंगे पन से बयान किया है, उसका मज़ाक़ ही बनता है न कि कोई असर ज़हनों पर ग़ालिब होता हो. बे शुमार बार कहा होगा ''मफ़िस समावते वमा फ़िल अरज़े'' यानी आसमानों को( अनेक कहा है ) और ज़मीन (को केवल एक कहा है ). जब कि आसमान ,कायनात न ख़त्म होने वाला एक है और उसमें ज़मीने, बे शुमार हैं. वह बतलाते हैं पहाड़ों को ज़मीन पर इस लिए ठोंक दिया कि तुम को लेकर ज़मीन डगमगा न पाए. परिंदों के पेट से निकले हुए अंडे को बेजान बतलाते है और अल्लाह की शान कि उस बेजान से जान दार परिन्द निकल देता है. ज़मीन पर रस्ते और नहरें भी अल्लाह की तामीर बतलाते हैं. कश्ती और लिबासों को भी अल्लाह की दस्त कारी गर्दानते है. मुल्लाजी कहते हैं अल्लाह अगर अक्ल ही देता तो दस्तकारी कहाँ से आती? मुहम्मद के अन्दर मुफक्किरी या पयंबरी फ़िक्र तो छू तक नहीं गई थी कि जिसे हिकमत, मन्तिक़ या साइंस कहा जाए. ज़मीन कब वजूद में आई? कैसे इरतेकाई सूरतें इसको आज की शक्ल में लाईं, इन को इससे कोई लेना देना नहीं, बस अल्लाह ने इतना कहा'' कुन'', यानी होजा और ''फयाकून'' हो गई.
बकौल 'मुनकिर' - - -
तहकीक, गौर ओ फ़िक्र तबीअत पे बोझ थे,
अंदाज़ से जो ज़ेहन में आया उठा लिया.
चुनना था इनको इल्म ओ अक़ीदत में एक को,
आसान थीं अकीदतें सर में जमा लिया.
देखे जहाँ में जिस क़दर क़ुदरत के नाको-नक्श,
इक बुत वहीँ पे रख दिया, धूनी रमा लिया।
जब तक मुसलमान इस कबीलाई आसन पसंदी को ढोता रहेगा, वक़्त इसको पीछे करता जाएगा. जब तक मुसलमान मुसलमान रहेगा उसे यह कबीलाई आसन पसंदी ढोना ही पड़ेगा, जो कुरआन उसको बतलाता है. मुसलमानों के लिए ज़रूरी हो गया है कि वह इसे अपने सर से उठा कर दूर फेंके और खुल कर मैदान में आए.
देखिए कि ब्रिज नारायण चकबस्त ने दो लाइनों में पूरी मेडिकल साइंस समो दिया है।
ज़िन्दगी क्या है? अनासिर में ज़हूरे तरतीब,
मौत क्या है? इन्ही अजजा का परीशां होना।
कुरआन की सारी हिकमत, हिमाक़त के कूड़े दान में डाल देने की ज़रुरत है अगर ग़ालिब का यह शेर मुहम्मद की फ़िक्र को मयस्सर होता तो शायद कुरानी हिमाक़त का वजूद ही नहोता - - -
सब कहाँ कुछ लाला ओ गुल में नुमायाँ हो गईं,
सूरतें क्या खाक में होंगी जो पिन्हाँ हो गईं''
तब्दीलियाँ कानूने-फितरत है जो वक़्त के हिसाब से खुद बखुद आती रहती हैं. मुहम्मद ने अपना दीन थोपने के लिए ''तबदीली बराए तबदीली'' की है जो कठ मुल्लाई पर आधारित थी. खास कर औरतें इस में हाद्सती लुक्मा हुईं. क़ब्ले-इस्लाम औरतों को यहाँ तक आज़ादी थी कि शादी के बाद भी वह समाज के लायक़ ओ फ़ायक़ फर्द से, अपने शौहर की रज़ामंदी के बाद, महीने से फ़ारिग होकर, नहा धो के, उसकी ''शर्म गाह'' को तलब कर सकती थीं और तब तक के लिए जब तक कि वह हामला न हो जाएँ . ये रस्म अरब में अलल एलन थी और काबिले-सताइश थी, जैसा की भारत में नियोग की प्रथा हुवा करती थी. मुहम्मद ने अनमोल कल्चर का गला गोंट दिया, मुसलमानों को सिर्फ यही याद रहने दिया गया कि सललललाहो अलैहेवसल्लम ने बेटियों को जिंदा दफ़नाने को रोका.
कठ मुल्ले ने गोबर, खून और दूध का अपने मंतिक बयानी से कैसा गुड गोबर किया है.
''और अल्लाह तअला ने तुम को पैदा किया, फिर तुम्हारी जान कब्ज़ करता है और बअज़े तुम में वह हैं जो नाकारा उम्र तक पहंचाए जाते हैं कि एक चीज़ से बा ख़बर होकर फिर बे ख़बर हो जाता है . . . और अल्लाह तअला ने तुम में बअज़ों को बअज़ों पर रिज्क़ में फ़ज़ीलत दी है, वह अपने हिस्से का मॉल गुलामों को इस तरह कभी देने वाले नहीं कि वह सब इस पर बराबर हो जावें. क्या फिर भी खुदाए तअला की नेमत का इंकार करते हो. और अल्लाह तअला ने तुम ही में से तुम्हारे लिए बीवियाँ बनाईं और बीवियों में से तुम्हारे लिए बेटे और पोते पैदा किए और तुम को अच्छी चीज़ें खाने कोदीं, क्या फिर भी बे बुन्याद चीजों पर ईमान रखेंगे . . .सूरह नह्ल पर१४ आयत (७०-७२)न मुहम्मद कोई बुन्याद कायम कर पा रहे हैं और न मुखालिफ़ को को बे बुन्याद साबित कर पा रहे हैं। बुत परस्त भी बुतों को तवस्सुत मानते थे, न कि अल्लाह. तवस्सुत का रुतबा छीन लिया बड़े तवस्सुत बन कर खुद मुहम्मद ने. मुजरिम बेजान बुत कहाँ ठहरे? मुजरिम तो गुनेह्गर मुहम्मद साबित हो रहे हैं जिन्हों ने आज तक करोरो इंसानी जिंदगियाँ वक़्त से पहले खत्म कर दीं. अफ़सोस कि करोरो जिंदगियां दाँव पर लगी हुई हैं।
१-अल्लाह ने कान दिए और आँख और दिल - - - सुनने, देखने और एहसास करने के लिए दिए हैं कि शुक्र अदा करने के लिए?
२- और अब हवाई जहाज़, रॉकेट और मिसाइलें कौन थामता है? ईमान वालों के पस अक़ले-सलीम है?
३-अब हम जानवरों की खाल नहीं बुलेट प्रूफ़ जैकेट पहेनते हैं उन,बाल और रोएँ का ज़माना लद गया, हम पोलोथिन युग में जी रहे हैं, तुम भी छोड़ो, इस बाल की खाल में जीना और मरना. जो कुछ है बस इसीदुन्या में और इसी जिंदगी में है.
४-हम बड़े बड़े टावर बना रहे हैं और मुस्लमान अभी भी पहाड़ों में रहने की बैटन को पढ़ रहा है? और पढ़ा रहा है?
५-बड़े बड़े साइंसदानों का शुक्र गुज़र होने के बजाय इन फटीचर सी बातों पर ईमान लाने की बातें कर रहे हो.
६- तुम्हारे इस उम्मी रसूल पर जो बात भी सलीके से नहीं कर पता? तायफ़ के हाकिम ने इस से बात करने के बाद ठीक ही पूछा था '' क्या अल्लाह को मक्का में कोई ढंग का पढ़ा लिखा शख्स नहीं मिला था जो तुम जैसे जाहिल को पैग़म्बरबना दिया।''
''और वह लोग खुदा के नेमत को पहचानते हैं, फिर इसके मुनकिर होते हैं, और ज्यादह तर इनमें न सिपास हैं.''सूरह नह्ल पर१४ आयत (८३)
मुहम्मद क़ुदरत की नेमतों को तस्लीम कराते हैं, फिर कहते हैं कि इन्हीं के खालिक अल्लाह का कलाम हम तुम लोगों को सुनते हैं, उसी ने मुझे अपना रसूल बना कर तुम सब पर नाज़िल किया है, इस बात को लेकर लोग उखड जाते हैं तो मुहम्मद उन लोगों को एहसान फ़रामोश कहते हैं, अल्लाह की बख्शीश का. देखिए कि दूर की कुड़ी, दिमागी तिदम, अल्लाह बन जाने की दौड़ में बन्दा एहक़ीर.
मुहम्मदी अल्लाह क़यामती पंचायत क़ायम करता है जिसमें वह खुद और उसके नबी हाकिम और गवाह होते हैं, काफ़िर मुद्दई बन कर मुक़दमा दायर करता है, बेढब अल्लाह उन की सजा बढ़ा देता है, ऐसा बार बार मुहम्मद अपने क़ुरआनी बकवास में दोहराते हैं.सूरह नह्ल पर१४ आयत (८४-९०)
मुहम्मदी अल्लाह क़यामती पंचायत क़ायम करता है जिसमें वह खुद और उसके नबी हाकिम और गवाह होते हैं, काफ़िर मुद्दई बन कर मुक़दमा दायर करता है, बेढब अल्लाह उन की सजा बढ़ा देता है, ऐसा बार बार मुहम्मद अपने क़ुरआनी बकवास में दोहराते हैं.सूरह नह्ल पर१४ आयत (८४-९०)
''और तुम लोग उस औरत के मुशाबह मत बनो जिसने अपना सूत काते, पीछे बोटी बोटी करके नोच डाला। । . . और अल्लाह तअला को अगर मंज़ूर होता तो वह सब को एक तरह का ही बना देते लेकिन जिस को चाहते हैं बे राह कर देते हैं और जिसको चाहते हैं राह पर डाल देते हैं और तुम से तुम्हारे आमाल कीबाज़पुर्स ज़रूर होगी.''सूरह नह्ल पर१४ आयत (९१-९३)
अल्लाह अपने बन्दों को उन पागल अपनी बंदियों की तरह बनने को मना करता है जिनको काते हुए सूत को बोटियों की तरह नोचने वाला बना रक्खा है. वह भी अल्लाह की बनाई हुई हैं मगर उन जैसा ना बनना, वह तो नमूना है कि कहीं उनकी तरह ना बन जाओ. हालांकि ''अल्लाह तअला को अगर मंज़ूर होता तो वह सब को एक तरह का ही बना देते'' मगर उनको दोज़ख और जन्नत का तमाशा जो देखना था, तभी तो ''जिसको चाहते हैं राह पर डाल देते हैं'' और ''जिस को चाहते हैं बे राह कर देते हैं'' अब भला बतलाइए कि इन्सान के बस में क्या राह गया है? सिवाए अल्लाह के मर्ज़ी के. या आलावा मुहम्मद के गुलामी के.
मुसलमानों कैसे तुमको समझया जाए कि तुम्हारा अल्लाह एक फ्राड है, तुहारा रसूल महा फ्राड।
मुसलमानों कैसे तुमको समझया जाए कि तुम्हारा अल्लाह एक फ्राड है, तुहारा रसूल महा फ्राड।
''और जब हम किसी आयत को बजाए दूसरी आयत के बदलते हैं और हालांकि अल्लाह तअला जो हुक्म देता है, इसको वही खूब जनता है तो यह लोग कहते हैं कि आप इफतरा करने वाले हैं बल्कि इन्हीं में से कुछ लोग जाहिल हैं. आप फरमा दीजिए कि इसको रूहुल क़ुद्स, आप के रब की तरफ़ से हिकमत के मुवाफ़िक़ लाए हैं ताकि ईमान वालों को साबित क़दम रखें और मुसलमानों के लिए खुश खबरी हो जाए. और हम को मालूम है कि लोग कहते हैं इनको तो आदमी सिखला जाता है. जिस शख्स की तरफ़ यह निसबत करते हैं उसकी ज़ुबान तो अजमी है और यह कुरआनसाफ़ अरबी में है.''सूरह नह्ल पर१४ आयत (१०१-१०३)इंसानों पर बहुत ही गराँ वक़्त था क्या हिंदी क्या अरबी। मुहम्मद के गिर्द निहायत लाखैरे क़िस्म के लोग रहा करते थे, उस वक़्त पेट भर जाने का मसअला ही बहुत बड़ा था, उनमे अरबी अजमी, ईसाई ,यहूदी और काफिरों-मुशरिक सभी नज़र्यात की टोली मुहम्मद के समर्थकों में थी। ऐसे में वह लोग मुहम्मद की मदद करते क़ुरआनी आयतों में , कभी कोई ग़लत आयत मुहम्मद के मुँह से बहैसियत क़ुरआनी आयत निकल जाती और उसके जानकर शोर मचाते तो उसको वापस लेना पड़ता तब अवाम तअना देती कि क्या अल्लाह भी ग़लती करता है? तब मुहम्मद बड़ी बे शर्मी के साथ मुकाबिला करते. द्ल्लाम नाम के एक ईसाई की उस वक़्त बड़ी चर्चा थी कि वह मुहम्मद का क़ुरआनी रहबर है. यह आयत उसी के संदर्भ में है.
जीम. मोमिन ''निसारुल ईमान''
महत्वपूर्ण पोस्ट, साधुवाद
ReplyDeleteबधाई,मोमिन जी,
ReplyDeleteआपका विवेचन,कुरआन की आयतों के यथार्थ को छू रहा है।
और बौद्धिकों के दिमागों तक असल स्वरूप में पहुँच रहा है।
यह आपके लेखन की उपलब्धी है।
चाचा अलबेदार की नकल पे ला रहे हो अपने मामा का अनुवाद, शब्द x galat x तक तुम्हें ठीक (ग़लत = ghalat) से नहीं पता, चले हो अल्लाह कुरआन की बातें करने, लो अपनी पहली मिसाल को मिलाओ, समझो समझाओ
ReplyDeletequran :
(ऐ रसूल) मैं ईश्वर साक्षी हूं कि हमने आपसे पहले कितनी ही जातियों की ओर रसूल भेजे तो शैतान ने उनके आचरण उनको सुसज्जित कर दिखाए तो आज भी वही उनका मित्र है और उनके लिए बडा कष्ट है
online pdf quran,page 427,, scribd page 20
http://www.scribd.com/doc/19392154/Quran-Urdu-Hindi-Translation-and-Tafsir-Part-2
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जो समझ में नही आ रहा उसमें उलझने से अच्छा है जो समझ में आचुका उसे समझा जाये, अभी समय है आओ
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विचार करें कि मुहम्मद सल्ल. कल्कि व अंतिम अवतार और बैद्ध मैत्रे, अंतिम ऋषि
(इसाई) यहूदीयों के भी आखरी संदेष्टा? हैं या यह big Game against Islam है?
antimawtar.blogspot.com (Rank-2 Blog) डायरेक्ट लिंक
अल्लाह का चैलेंज पूरी मानव-जाति को
छ अल्लाह के चैलेंज सहित अनेक इस्लामिक पुस्तकें
islaminhindi.blogspot.com (Rank-2 Blog)
डायरेक्ट लिंक
किराणवी,
ReplyDeleteक्या नया है?
"मैं ईश्वर साक्षी हूं कि हमने आपसे पहले कितनी ही जातियों की ओर रसूल भेजे"
ईश्वर ही ईश्वर का साक्षी? बिना साक्षी के ईश्वर पर भरोसा नहीं करते थे अरबी?
जय हो !
ReplyDeleteमोमिन जी,
ReplyDeleteईश्वर ही ईश्वर का साक्षी? बिना साक्षी के ईश्वर पर भरोसा नहीं करते थे रसूल। रसूल का अल्लाह पर ईमान उसी की कसम और गवाही का मोहताज़ है।
आपका तरजुमा और विश्लेषण सफल है। उस सफलता के गवाह है वे कमेंट जो किरानवी और जीशान जैसे लोग उलजलूल बयानात से दे रहे है।
आपके पोस्टों की इस सफलता के लिए बधाई!!
प्रिय सुज्ञ जी !
ReplyDeleteयह कैरान्वी जैसे लोग जो मुझे ग़लत की हिज्जे लिखना समझाते हैं, सिर्फ अक्षर ज्ञान तक सीमित हैं. कोई बुद्धि जीवी नहीं होते. इस कूढ़ मग्ज़ ने दिमाग में बैठा लिया है कि मैं अपने मामा के अनुवाद को पेश करता हूँ, इसी लिए मैं ग़लत हूँ . जो माक़ूलियत आपने पेश की इस पर यह कभी सोचते ही नहीं. मैं ने अपने अगले लेख में बतलाया है कि कुरआन का सच्चा अनुवाद 'शौकत अली थानवी' ने किया है उसके बाद सबों ने मैन्यूप्लेशन किया है, यह नादान लोग उन्हीं के फेर में रहते है . कैरान्वी जैसे लोग धार्मिक अफ़ीम मुसलमानों के हाथों बेच कर खुद मुसलमानों को सुलाए हुए हैं. मुसलमानों की दशा पूरी दुन्या में दयनीय है, इनकी बाला से.
"मफ़िस समावते वमा फ़िल अरज़े'' यानी आसमानों को( अनेक कहा है ) और ज़मीन (को केवल एक कहा है )."
ReplyDeleteकुरआन ने न तो आसमान को एक कहा है न ही ज़मीन को. ये तुम्हारी अक्ल पर पड़ा पत्थर है जो तर्जुमे में ज़मीन को एक देख रहा है.
"मौत क्या है? इन्ही अजजा का परीशां होना।"
तो फिर ठीक है, एक मरे हुए आदमी के अजजा को फिर सही ढंग से लगाकर उसे जिंदा कर दो.
मियाँ, शेक्सपियर की किसी किताब का तर्जुमा करने दे दिया जाए तो रो दोगे, यहाँ कुरआन का एक तर्जुमा लेकर बैठे हो और तर्जुमेकार को अपना उस्ताद कह रहे हो, कम से कम उसी से पूछ लो की वह अपने तर्जुमे में कहाँ तक साबित क़दम रहा है.
जीम. 'मोमिन' की जय हो !!!!!!!! मुसलमानों को ओकात बता दी. सब भागे फिर रहे हैं
ReplyDeleteये क्या पागलपन है एक तो जाकिर नाइक जिसके दिमाग में भूसा भरा है और ये दूसरा असरफअली है जिनका भी कोई स्क्रू ढीला लगता है एक को संस्कृत ठीक से नहीं आती और एक को अरबी का मतलब करना नहीं आता दोनों ही अपने अपने नाम का प्रचार करने में लगे है में कोई इस्लाम या मुसलमानों का विरोधी नहीं हूँ लेकिन ऐसे लोगो का विरोधी हूँ जो की किसी भी धर्म ग्रन्थ का अपमान करके अपने आप को बड़ा चतुर और समजदार बताते है इन लोगो की आदत होती है ये किसी भी धर्म ग्रन्थ का अध्ययन नहीं किया करते लेकिन ये धर्म ग्रन्थ इस लिए पढ़ते है की उसमे से कुछ ऐसा मसाले दार मतलब निकला जाये कि दुनिया अचंभित हो जाये ये सब दया के पात्र है और इनका साथ देनेवाले विकृत मनो विचार वाले कहलायेंगे (अगर जाकिर नाइक को संस्कृत और असरफ को अरबी उर्दू सीखनी है तो में सिखाने के लिया तैयार हु बिलकुल निःशुल्क ) चाणक्य के अनुसार मूर्खो से कोई भी सम्बन्ध रखने वाला अंत में संकट ही पाता है तो असरफ अली और जाकिर नाइक ये दोनों को एक दुसरे पर कीचड़ उछालना है तो उछाले लेकिन इनके पास खड़े रह कर अपने ऊपर भी किचल उचालेंगा ये तय है तो इनसे दूर ही रहा जाये यही बुध्धिमानी है असरफ अली मुस्लिम हो कर मुस्लिम के उपास्यो को निचा दिखा रहा है तो क्या ये दुसरे धमो की इज्जत करेगा ? इनसे पूछो की फिर किसकी उपासना की जाये? क्या तुम लोगो की ? इससे पूछना भी बेकार होगा की, तुम्हारे स्वामी रामकृष्ण परमहंस के बारेमे क्या विचार है? या तो गरीब नवाज़ के बारे में क्या विचार है? विवेकानंद के बारेमे या तो सूफी संत निजामुदीन के बारेमे? कबीर, तुलसीदास, मीराबाई के बारे में ?क्यों की ये दोनों बकवास ही करने वाले है. मैं तो हिन्दू, जैन, बुद्ध, सिख, इसाई और सबको इनसे दूर ही रहने की सलाह देता हूँ . - श्री दासअवतार
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