Sunday 2 September 2012

Soorah furqan 25 Part-3

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.


सूरह फुरकान-२५

(तीसरी किस्त)



झूट का पाप=क़ुरआन का आप 

बहुत ही अफ़सोस के साथ लिखना पड़ रहा है कि क़ुरआन वह किताब है जिसमें झूट की इन्तेहा है. हैरत इस पर है कि इसको सर पे रख कर मुसलमान सच बोलने की क़सम खाता है, अदालतों में क़ुरआन उठा कर झूट न बोलने की हलफ बरदारी करता है. क़ुरआन में मुहम्मद कभी मूसा बन कर उनकी झूटी कहनियाँ गढ़ते हैं तो कभी ईसा बन कर उनके नक़ली वाकेए बयान करते हैं. वह अपने हालात को कभी सालेह की झोली में डाल कर अवाम को बेवकूफ बनाते हैं तो कभी सुमूद की झोली में. जिन जिन यहूदी नबियों का नाम सुन रखा है सब के सहारे से फ़र्ज़ी कहानियाँ बड़े बेढंगे पन से गढ़ते हैं और क़ुरआन की आयतें तय्यार करते है. अल्लाह से झूटी वार्ता लाप, जन्नत की मन मोहक पेशकश और दोज़ख के भयावह नक्शे. झूट के पर नहीं होते, जगह जगह पर भद्द से गिरते हैं. खुद झूट के जाल में फँस जाते हैं. जहन्नमी ओलिमा को इन्हें निकलने में दातों पसीने आ जाते हैं.वह मज़हब के कुछ मुबहम, गोलमोल फार्मूले लाकर इनकी बातों का रफू करते हैं जो मुस्लमान भेड़ें सर हिला कर मान लेती हैं. मुहम्मद खुल्लम खुल्ला इतना झूट बोलते हैं कि कभी कभी तो अपने अल्लाह को भी ज़लील कर देते हैं और ओलिमा को कहना पड़ता है ''लाहौल वला क़ूवत''अल्लाह के कहने का मतलब यह है ( ? )
यही वजेह है कि क़ुरआन पढने की किताब नहीं बल्कि तिलावत (पठन-पाठन) का राग माला रह गया है। गो कि इस्लाम में गाना बजाना हराम है मगर क़ुरआन के लिए किरअत की लहनें बन गई है यह लहनें भी एक राग है मगर इसे हलाल कर लिया गया है. क़ुरआन को लहेन में गाने का आलमी मुकाबिला होता है. इसके अलावा इसको पढ़ कर मुर्दों को बख्शा जाता है, इसको पढने से जिदों को मुर्दा होने के बाद उज्र मिलता है. और यह अदालतों में हलफ उठने के काम भी आता है.
मैं हलफ लेकर कह सकता हूँ कि क़ुरआन की आयतें ही भोले भाले मुसलमानों को जेहादी बनाती हैं। और मुस्लिम ओलिमा क़ुरआन उठा कर अदालत में बयान दे सकते हैं कि क़ुरआन सिर्फ अम्न का पैगाम देता है. 


"और जब इन काफ़िरों से कहा जाता है कि रहमान को सजदा करो तो वह कहते हैं रहमान क्या चीज़ हैं, क्या हम उसको सजदा करने लगेंगे कि तुम जिसको कहोगे? और इससे इनको और ज़्यादः नफ़रत होती है."
सूरह फुरकान-२५-१९वाँ पारा आयत (६०)

मुहम्मद की तमाम बिदअतों में एक बिदअत ये थी कि खुदा के नए नए नाम तराशे थे, उनमे से एक था रहमान. बाशिदों को ये नाम अजीब सा लगा, लफ्ज़ तो पहले से ही अपने मानवी एतबार से रायज था कि रहम दिल को रहमान कहा जाता था, इसे जब अल्लाह का दर्जा मिला तो मुखालिफ़त की बहसें होने लगीं. इससे मुतालिक एक हदीस - - -
- - - सुल्ह हदीबिया कुछ लफ्ज़ी तकरार के बाद पास हुआ. बिस्मिल्लाह-हिर रहमान-निर-रहीम पर फरीक़ मुखालिफ़ के फर्द सुहेल ने कहा 
 "ये रहमान कौन हैं इनको मैं नहीं जानता, 
इनको बीच से अलग किया जाए और
 'ब इस्मक अलम' 
से शुरूआत की जाय. और मुहम्मदुर रसूल अल्लाह की जगह मुहम्मद इब्ने अब्दुल्लाह करो." 
(बुखारी ११४४)

इसे मुहम्मद को मानना पड़ा था.
ज़ाहिर है इस तरह अपने पूज्य का नाम बदलना किसको रास आएगा . अल्लाह की जगह मुसलमानों से भगवान  कहलाया जाए तो कैसा लगेगा?

"और वह ज़ात बड़ी आली शान है जिसने आसमान में बड़े बड़े सितारे बनाए और इसमें एक चराग आफ़ताब और एक नूरानी चाँद बनाया और वह ऐसा है जिसने रात और दिन को एक दूसरे के आगे पीछे आने जाने वाले बनाए. उस शख्स के लिए काफी है जो समझना चाहे.या शुक्र करना चाहे."
सूरह फुरकान-२५-१९वाँ पारा आयत (६१-६२)

मुसलमानों! 
क्या उम्मी के जेहालत भरे फलसफे ही तुम्हारा यकीन है? अगर हाँ तो अपनी नस्लों को ताल्बानियों के सुपुर्द करते रहो और आने वाले दिनों में वह कुत्ते की मौत मरें, इस का यकीन करके इस दुन्या से रुखसत हो. तुम्हारे लिए इस्लाम की हर बात ही नामाकूल है क्यूँकि इस्लाम जेहालत के पेट से पैदा हुवा है.

''और रहमान के बन्दे वह हैं जो ज़मीं पर अजिज़ी के साथ चलते हैं, शर की बात करते हैं तो वह रफा-शर की बातें करते हैं. और जो रातों को अपने रब के सामने सजदा और कयाम में लगे रहते हैं और जो दुआ मांगते हैं ऐ मेरे रब ! हम से जहन्नम के अज़ाब को दूर राख्यो.क्यूंकि  इसका अज़ाब तबाही है.''
सूरह फुरकान-२५-१९वाँ पारा आयत (६३-६५)

मुहम्मद अपनी उम्मत को अपनी दोहरी शख्सियत से गुमराह करते हैं, यही अल्लाह के बने हुए रसूल के बारे में दूसरे खलीफा उमर फ़रमाते हैं कि - - -

"फ़तह मक्का के बाद मुहम्मद हज करने जाते तो संगे-अस्वाद को बोसा देकर अकड़ कर चलते और यही हुक्म सब के लिए था, मगर बाद में देखा कि जईफों को इसमें क़बाहत हो रही है तो हुक्म को वापस ले लिया."
(बुखारी ७७६-७७)
  जिसका इरशाद था कि काफिरों को घात लगा कर मारो वह कह रहा है कि जो"शर की बात करते हैं तो वह (मुस्लिम) रफ़ा -शर की बातें करते हैं." मुहम्मद पैग़म्बर होते तो पैगाम देते कि "दोज़ख कहीं नहीं है, इन्सान के दिल में है जो उसे दिनों-रात भूना करती है, इस लिए बुरे कम मत करो." दोज़ख का तसव्वुर मुसलामानों का सबसे बड़ा नुकसान है, इन कच्चे ईमान वालों को ये तसव्वुर जीते जी खाता रहता है कि वह इसकी वजेह से अपनी तामीर नहीं कर पा रहे है.

"और जो वह खर्च करने लगते हैं तो फुजूल खर्ची करते हैं, और न तंगी करते हैं और उनका खर्च करना इसके दरमियान एत्दल पर हो,  और जो अल्लाह तअला के साथ किसी और माबूद को शरीक नहीं करते और जिस शख्स को क़त्ल करने में अल्लाह तअला ने हराम फ़रमाया है उसको क़त्ल नहीं करते और जो शख्स ऐसा करेगा सज़ा से उसको साबेका पड़ेगा कि क़यामत के रोज़ उसका अज़ाब बढ़ता चला जाएगा. और वह हमेशा ज़लील होकर इस अज़ाब में रहेगा.
सूरह फुरकान-२५-१९वाँ पारा आयत (६७-६९)

मुहम्मद का मिशन है कि "अल्लाह कि इबादत करो और रसूल की इताअत." मुस्लमान अपने बुजुर्गों पर हुवे मज़ालिम को भूल कर, जिनके गर्दनों पर तलवार रख कर कालिमा पढाया गया था,  दो एक पुश्तों के बाद पूरी तरह से इस अरबी डाकू के मुट्ठी में फँस चुका है. इसको समझाना जूए शीर लाना है.
मुहम्मद किसी अपने शागिर्द को खर्राच होना पसंद नहीं करते थे. अल्लाह की राह में खर्च करने की हिदायत देते जो कि जेहाद की राह होती. देखिए कि कुरआन ईरान से तूरान कैसे चला जाता है , कैसे मौज़ू बदल जाते है, अभी अल्लाह खर्च खराबे की बातें कर रहा था, कि उसे अपने लिए इबादत की याद आ गई, फिर हरम और हलाल क़त्ल करने की बातें करने लगा. ये इस्लाम ही है जहाँ क़त्ले-इंसानी हलाल भी होता है,

"और वह ऐसे हैं कि जब उनको अल्लाह के एहकाम के ज़रीया नसीहत की जाती है तो उन पर बहरे अंधे होकर नहीं गिरते.''
सूरह फुरकान-२५-१९वाँ पारा आयत (७३)

उफ़ ! अय्यारे-आज़म कहते हैं कि उनकी इन बकवासों पर लोग मुतास्सिर कर क्यूँ बहरे अंधे होकर नहीं गिरते? ये इन्तहा दर्जे की गिरावट है कि एक इंसान दूसरे को इस क़दर ज़लील करे कि वह उसकी बातों को इतना माने कि बहरा और अँधा हो जाय.  दुनिया भर के मुसलामानों की इस से बढ़ कर और क्या बाद नसीबी होगी कि उनका रहनिमा इतना गिरा हुवा जेहन रखता हो. कितना महत्त्वा-कांक्षी और खुद पसंद था वह इंसान.

"और वह ऐसे हैं कि दुआ करते हैं कि ऐ हमारे परवर दिगार हमारी बीवियों और हमारे औलाद की तरफ से आँखों की ठंडक अता फरमा और हमको मुत्ताकियों का अफ़सर बना दे.ऐसे लोगों को बहिश्त में रहने को बाला खाने मिलेंगे. बवजह उनके साबित क़दम रहने के और उनको इन में बका की दुआ और सलाम मिलेगा."
सूरह फुरकान-२५-१९वाँ पारा आयत (७५-७६)

इस्लाम की बहुत बड़ी कमजोरी है दुआ माँगना. इस बेबुन्याद ज़रीया की बहुत अहमियत है. हर मौक़ा वह ख़ुशी का हो या सदमें का दुआ के लिए हाथ फैले रहते हैं. बादशाह से लेकर रिआया तक सब अपने अल्लाह से जायज़, नाजायज़ हुसूल के लिए उसके सामने हाथ फैलाए रहते हैं. जो मांगते मांगते अल्लाह से मायूस हो जाता है, वह इंसानों के सामने हाथ फैलाने लगता है. मुसलामानों में भिखारियों की कसरत इसी दुआ के तुफैल में है कि भिखारी भी भीख देने वाले को दुआ देता है, देने वाला भी उसको इस ख़याल से भीख दे देता है कि मेरी दुआ कुबूल नहीं हो रही, शायद इसकी ही दुआ कुबूल हो जाए. दुआओं की बरकत का यक़ीन भी मुसलामानों को निकम्मा और मुफ़्त खोर बनाए हुए है. कितना बड़ा सानेहा है कि मेहनत काश मजदूर को भी यह दुआओं का मंतर ठग लेता है. कोई इनको समझाने वाला नहीं कि गैरत के तकाज़े को दुआओं की बरकत भी मंज़ूर नहीं होना चाहिए.  खून पसीने से कमाई हुई रोज़ी ही पायदार होती है. यही कुदरत को भी गवारा है न कि वह मंगतों को पसंद करती है.
मुहम्मद की दुआ? इससे तो खुदा हर मुसलमान को बचाए. मुहम्मद चाल घात की दुआएं भी मुसलमानों से मंगवाते हैं, कि दुआओं की बरकत से उनका अल्लाह मुत्ताकियों का अफ़सर बना दे. गोया ऊपर भी हुक्मरानी की चाहत. दुआ मांगने वालों को बाला खाने मिलेंगे, भूखंड और तहखाने ऐरे गैरों को. मुहम्मदी जन्नत में जन्नातियों को बराबरी का दर्जा न होगा कोई सोने की जन्नत में होग तो कोई जमुर्रद की, तो  किसी को जन्नतुल फिरदौस जोकि सब से कीमती जन्नत होगी . जिब्रील अलैहिस्सलाम ने पता नहीं क्यूँ मुहम्मद की पहली बीवी  खदीजा को खोखले मोतियों की जन्नत अलोट की है.  हैरत है कि मुसल मान किसी आयत पर नज़रे सानी नहीं करता. हर मस्जिद में गिद्ध बैठे हुए है जो कौम का बोटियाँ नोच नोच कर खा रहे हैं.



जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

3 comments:

  1. इकदम सही कहा आपने और तभी शायद इस मुस्लिम बिरादरी का सही में कल्याण भी हो पायेगा ! आज देखिये कि किस तरह इस किताब की आढ़ में ये मुला लोग अपने घृणित मासिकता को अंजाम दे रहे है जीता जागता उदाहरण है १४ साल की एक मानसिक रूप से विक्षिप्त पाकिस्तानी क्रिश्चियन लडकी, जिसे एक मुल्ले ने झूठ-मूठ में पंसाया ! अब वह गिर्फ्दार हुआ जब तमाम दुनिया ने आवाज उठाई ! सवाल यह है कि अगर उस मुल्ले ने किताब जलाकर दोष उस लडकी पर डाला तो क्या ये मस्लिम बिरादरी उसी तरह उसे भी सजा दे पायेगी जैसी ये किसी ब्लास्फ्मर को देते है ?

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