Sunday 5 May 2013

सूरह साद - ३८- पारा २३ (1)

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.

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सूरह साद - ३८- पारा २३ (1)

फ़तह मक्का के बाद मुसलामानों में दो बाअमल गिरोह ख़ास कर वजूद में आए जिन का दबदबा पूरे खित्ता ए अरब में क़ायम हो गया. 
पहला था तलवार का क़ला बाज़ 
और दूसरा था क़लम बाज़ी का क़ला बाज़. 
अहले तलवार जैसे भी रहे हों बहर हाल अपनी जान की बाज़ी लगा कर अपनी रोटी हलाल करते मगर इन क़लम के बाज़ी गारों ने आलमे इंसानियत को जो नुकसान पहुँचाया है उसकी भरपाई कभी भी नहीं हो सकती. अपनी तन आसानी के लिए इन ज़मीर फरोशों ने मुहम्मद की असली तसवीर का नकशा ही उल्टा कर दिया. इन्हों ने कुरआन की लग्वियात को अज़मत का गहवारा बना दिया. यह आपस में झगड़ते हुए मुबालगा आमेज़ी (अतिशोक्तियाँ)में एक दूसरे को पछाड़ते हुए, झूट के पुल बंधते रहे. कुरआन और कुछ असली हदीसों में आज भी मुहम्मद की असली तस्वीर सफेद और सियाह रंगों में देखी जा सकती है. इन्हों ने हक़ीक़त की बुनियाद को खिसका कर झूट की बुन्यादें रखीं और उस पर इमारत खड़ी कर दी. -
कहते हैं कि इतिहास कार किसी हद तक ईमान दार होते हैं मगर इस्लामी इतिहास कारों ने तारीख़ को अपने अक़ीदे में ढाल कर दुन्या को परोसा.
"मुकम्मल तारीख ए इस्लाम" का एक सफ़ा मुलाहिज़ा हो - - -
"हज़रात अब्दुल्ला (मुहम्मद के बाप) के इंतेक़ाल के वक़्त हज़रात आमना हामिला थीं, गोया रसूल अल्लाह सल्ललाह - - शिकम मादरी में ही थे कि यतीम हो गए. आप अपने वालिद के वफ़ात के दो माह बाद १२ रबीउल अव्वल सन १ हिजरी मुताबिक ५७० ईसवी में तवल्लुद (पैदा) हुए. आप के पैदा होते ही एक नूर सा ज़ाहिर हुवा, जिस से सारा मुल्क रौशन हो गया. विलादत के फ़ौरन बाद ही आपने सजदा किया और अपना सर उठा कर फरमाया " अल्लाह होअक्बर वला इलाहा इल्लिल्लाह लसना रसूल लिल्लाह "
जब आप पैदा हुए तो सारी ज़मीन लरज़ गई. दर्याय दजला इस क़दर उमड़ा कि इसका पानी कनारों से उबलने लगा. ज़लज़ले से कसरा के महल के चौदह कँगूरे गिर गए. आतिश परस्तों के आतिश कदे जो हज़ारों बरस से रौशन थे, खुद बख़ुद बुझ गए. आप कुदरती तौर पर मख्तून ( खतना किए हुए) थे और आप के दोनों शाने के दरमियान मोहरे नबूवत मौजूद थी.
रसूल अल्लाह सालअम निहायत तन ओ मंद और तंदुरुस्त पैदा हुए. आप के जिस्म में बढ़ने की कूव्कत आप की उम्र के मुकाबिले में बहुत ज़्यादः थी. जब आप तीन महीने के थे तो खड़े होने लगे और जब सात महीने के हुए तो चलने लगे. एक साल की उम्र में तो आप तीर कमान लिए बच्चों के साथ दौड़े दौड़े फिरने लगे. और ऐसी बातें करने लगे थे कि सुनने वालों को आप की अक़ल पर हैरत होने लगी."

गौर तलब है कि किस क़दर गैर फ़ितरी बातें पूरे यकीन के साथ लिख कर सादा लौह अवाम को पिलाई जा रही हैं. अगर कोई बच्चा पैदा होते ही सजदा में जा कर दुआ गो हो जाता तो समाज उसे उसी दिन से सजदा करने लगता. न कि वह हलीमा दाई की बकरियां चराने पर मजबूर होता. एक साल की उसकी कार गुजारियां देख कर ज़माना उसकी ज़यारत करने आता न कि बरसों वह गुमनामी की हालत में पड़ा रहता. कबीलाई माहौल में पैदा होने वाले बच्चे की तारीखे पैदाइश भी गैर मुस्तनद है. रसूल और इस्लाम पर लाखों किताबें लिखी जा चुकी हैं. और अभी भी लिखी जा रही हैं जो दिन बदिन सच पर झूट की परतें बिछाने का कम करती हैं.  इन्हीं परतों में मुसलामानों की ज़ेहन दबे हुए हैं.

चंगेज़ खान ने ला शुऊरी तौर पर एक भला काम ये किया था जब कि दमिश्क़ की लाइब्रेरी में रखी लाखों इस्लामी किताबों को इकठ्ठा कराके आलिमो से कहा था कि इनको खाओ. ऐसा न करने पर आलिमो को वह सज़ा दी थी कि तारीख उसको भुला न सकती. उसने पूरी लाइब्रेरी आग के हवाले कर दिया था और आलिमों को जहन्नम रसीदा. आज भी इन इल्म फरोशों के लिए ज़रुरत है किसी चंगेज़ खान की.

इस पूरी सूरह में मुहम्मद की ज़ेहनी बे एतदाली देखी जा सकती है. उनके कलाम को नीम पागल की बडबड कहा जा सकता है. इसे क़लम गीर करना जितना मुहाल होगा इस से ज़्यादः पढने वाले को पचा पाना; उस वक़्त के लोगों ने मुहम्मद को जो शायरे दीवाना कहा था, उसके बाद कुछ नहीं कहा जा सकता.

बतौर नमूना कुछ आयतें पेश हैं - - -
"साद"
मुहम्मदी अल्लाह का छू मंतर
"क़सम है कुरआन की जो नसीहत से पुर है बल्कि ये कुफ्फर तअस्सुब (पक्ष पात) और मुखालिफ़त में हैं. इनसे पहले बहुत सी उम्मतों को हम हलाक़ कर चुके हैं, सो इन्हों ने बड़ी हाय पुकार की थी. और वह वक़्त खलासी का न था. और इन कुफ्फर कुरैश ने इस पर तअज्जुब किया कि इनके पास इनमें ही से कोई पैगम्बर डराने वाला आ गया. और कहने लगे ये शख्स साहिर और झूठा है. क्या ये सच्चा हो सकता है? क्या हम सब में से इसी के ऊपर कलाम इलाही नाज़िल होता है, बल्कि ये लोग मेरी वह्यी की तरफ़ से शक में हैं, बल्कि अभी उन्हों ने मेरे एक अज़ाब का मज़ा नहीं चक्खा "
सूरह साद - ३८- पारा २३- आयत (१-८)

मुहम्मद की कबीलाई लड़ाई थी जो बद किस्मती से बढ़ते बढ़ते आलिमी बन गई. हम मुसलमानाने आलम एक ही नहीं सारे अज़ाबों का मज़ा सदियों से चखते चले आ रहे हैं. अब तो चखने की बजाए छक रहे हैं.

"और हमारे बन्दे दाऊद को याद कीजिए जो निहायत क़ुदरत और रहमत वाले थे. वह बहुत रुजू करने वाले थे. हमने पहाड़ों को हुक्म दे रखा था कि उनके साथ सुब्ह ओ शाम तस्बीह किया करें. और परिंदों को भी, जमा हो जाते थे. सब उनकी वजेह से मशगूले ज़िक्र (ईश गान) हो जाते थे."
सूरह साद - ३८- पारा २३- आयत (१९-२०)

दाऊद एक मामूली चरवाहा था और गोफन चलने में माहिर था. एक सेना पति को गोफ्ने की मार से चित करने के बाद वह यहूदी एक लुटेरा डाकू बन गया था. फिलस्तीनियो में लूटमार करता हुवा एक दिन बादशाह बन गया. वह मुहम्मद की तरह ही शायर था. उसकी नज़्मों को ही ज़ुबूर कहते हैं. लम्बी उम्र पाई थी और बुढ़ापे में सर्दियों से परेशान रहता था. इलाज के लिए उसके मातहतों ने उसके लिए मुल्क कि सबसे खूसूरत नव उम्र लड़की से शादी कर करवा दिया था. उसके मरने के बाद उसका लड़का उस लड़की का आशिक बन गया था जिसे दाऊद पुत्र सुलेमान ने धोके से मरवा दिया था. दाऊद आखरी उम्र के पड़ाव में बुत परस्त(मूर्ति पूजक) हो गया था. (तौरेत)
मुहम्मद पहाड़ों और परिंदों से उसके साथ तस्बीह करवा के पहाड़ ऐसा झूट गढ़ रहे हैं.
हमेसा की तरह बेज़ार करने वाला क़िस्सा मुहम्मदी अल्लाह का देखिए- - -
दो अफ़राद दीवार फान्द कर दाऊद के इबादत खाने में घुस आते हैं, उनमें से एक कहता है कि आप डरें मत. हम दोनों भाई भाई हैं. आप हमारा फ़ैसला कर दीजिए. हम लोगों के पास सौ अशर्फियाँ हैं, मेरे पास एक और इसके पास ९९ . ये कहता है ये भी मुझे दे डाल ताकि मेरी सौ पूरी हो जाएँ. दाऊद इसे ज़ुल्म क़रार देता हुवा कहता है, अक्सर साझीदार ज़ुल्म करने लगते हैं.
इसके बाद मुहम्मद तब्लिगे इस्लाम करने लगते है और क़िस्सा अधूरा रह जाता है. "
सूरह साद - ३८- पारा २३- आयत (२२-२४)
यूनुस की कहानी के बाद अल्लाह मुहम्मद के कान में फुसकता है कि अब अय्यूब की कहानी गढ़ो- - -
कलामे दीगराँ  - - -
"ए इलाही! इनके अन्दर खौफ़ पैदा कर, कौमे अपने आप को इंसान ही मानें"
"तौरेत"
(यहूदी मसलक )
इसे कहते हैं कलामे पाक 



जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

1 comment:

  1. हमेशा किसी भी चीज को अपने दिमाग से तौलकर देखना चाहिये. लकीर का फकीर वाली कहावत से बचना चाहिये.

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