Monday 8 June 2015

Soorah ale Imran 3 पार्ट २ (3-7)

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.
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सूरह आले इमरान ३ 
(दूसरी क़िस्त) 
मुसलमानों के साथ कैसा अजीब मज़ाक है कि उनका अल्लाह अपनी तमाम कार गुज़रियाँ खुद गिनवा रहा है वह भी उनका झूठा गवाह बन कर, उन का मुंसिफ बन कर। अफ़सोस का मुक़ाम ये है कि मुस्लमान ऐसे अल्लाह पर यक़ीन करता है। जब तक उसका यक़ीन पुख्ता है तब तक उसका ज़वाल भी यकीनी है. खुदा न करे वह दिन भी आ सकता है कि कहा जाय एक क़ौमे जेहालत उम्मते मुहम्मदी हुवा करती थी. 
तौरेत, इंजील, ज़ुबूर जैसी सैकडों तारीखी किताबें अपने वाजूदों को तस्लीम और तसदीक़ कराए हुए है, इन के सामने कुरआन हक़ीक़त में अल्लम गल्लम से ज्यादा कुछ भी नहीं. 
कुरआन का उम्मी मुसन्निफ़ सनद दे तौरेत, इंजील को तो तौरेत, इंजील की तौहीन है. 
कुरआन के मुताबिक मूसा पर आसमानी किताब तौरेत और ईसा पर आसमानी किताब इंजील नाज़िल हुई थी मगर इन दोनों की उम्मातें के पास इनकी मुस्तनद तारीख़ है. मूसा ने तौरेत लिखना शुरू किया जिसको कि बाद के नबी मुसलसल बढाते गए जो बिल आखीर ओल्ड टेस्टामेंट की शक्ल में महफूज़ हुई जोकि यहूदियों और ईसाइयों की तस्लीम शुदा बुनियादी किताब है. 
ईसा के बाद इस के हवारियों ने जो कुछ इस के हालात लिखे या लिखवाए वह इंजील है. दाऊद ने जो गीत रचे वह ज़ुबूर है.
सुलेमान और छोटे छोटे नबियों ने जो हम्दो सना की वह सहीफ़े हैं. 
यह सब किताबें आलमी स्कूलों, कालेजों, लाइबब्रेरिज में दस्तयाब हैं और रोज़े रौशन की तरह अयाँ हैं. बहुत तफसील के साथ सब कुछ देखा जा सकता है. 
ये किताबें मुक़द्दस ज़रूर मानी जाती हैं मगर आसमानी नहीं, सब ज़मीनी हैं, कुरआन इन्हें ज़बरदस्ती आसमानी बनाए हुए है, इन्हें अपने रंग में रंगने के लिए. 
इनकी मौजूदयत को कुरानी अल्लाह (इस्लामी सियासत के तहत) नकली कहता है.
इस की सजा मुसलामानों को चौदह सौ सालों से सिर्फ मुहम्मद की खुद सरी, खुद पसंदी और खुद बीनी की वज़ह से चुकानी पड़ रही है। 
बात अरब दुन्या की थी, समेट लिया पूरे एशिया अफ्रीका और आधे योरोप को. हम फ़िलहाल अपने उप महा द्वीप की बात करते हैं कि ये आग हम को एकदम पराई लग रही है जिसमे यह मज़हबी रहनुमा हम को धकेल रहे हैं. 
"सब कुछ संभालने वाले हैं. अल्लाह ने आप के पास जो कुरआन भेजा है वाकेअय्यत के साथ इस कैफ़ियत से कि वह तस्दीक करता है उन किताबों को जो इस से पहले आ चुकी हैं और इसी तरह भेजा था तौरेत और इंजील को."
सूरह आले सूरह आले इमरान ३ तीसरा परा आयत (3)
मुहम्मदी अल्लाह की वाकेअय्यत ऊपर बयां कर चुके हैं.
"जो लोग मुनकिर हैं अल्लाह ताला के आयतों के इन के लिए सजाए सख्त है और अल्लाह ताला गल्बा वाले हैं, बदला लेने वाले हैं.''
सूरह आले इमरान ३ तीसरा परा आयत (4) 
मुनकिर के लफ्जी माने तो होते हैं इंकार करने वाला, इन्सान या तो किसी बात का मुनकिर होता है या इक्रारी मगर लफ्ज़ मुनकिर का इस्लामी करण होने के बाद इसके मतलब बदल कर इसलाम कुबूल कर के फिर जाना वाला मुनकिर हो जाना है, 
ऐसे लोगों की सज़ा मोहसिन इंसानियत, सरवरे कायनात, मालिके क़ौनैन, हज़रात मुहम्मद मुस्तफ़ा, रसूल अकरम, सल्लललाहो अलैहे वालेही वसल्लम ने मौत फरमाई है. 
जो ताक़त कायनात पर ग़ालिब होगी, क्या वजह है कि वह हमारे हाँ न पर, हमारी मर्ज़ी पर, हमारे अख्तियार पर क्यों न गालिब हो, उसको मोहतसिब और मुन्तक़िम होने की ज़रुरत ही क्यूँ पड़ी.? 
ये क़ुरआन के उम्मी ख़ालिक का बातिल पैगाम है. खलिक़े हक़ीक़ी का नहीं हो सकता. 
मुसलमानों होश में आओ. कुरआन के बातिल एजेंट अपना कारोबार चला रहे हैं और कुछ भी नहीं. इन का कई बार सर क़लम किया गया है मगर ये सख्त जन फिर पनप आते हैं।
इसी तरह अरबों के मुश्तरका बुज़ुर्ब अब्राहम जो अरब इतिहासकारों के लिए पहला मील का पत्थर है, जिस से इंसानी समाज की तारीख़ शुरू होती है और जो फ़ादर अब्राहम कहे जाते है उनको भी मुहम्मद ने मुस्लमान बना लिया और उनका दीन इसलाम बतलाया। खुद पैदा हुए उनके हजारों साल बाद और अपने बाप को भी काफ़िर और जहन्नमी कहा मगर इब्राहीम अलैहिस्सलाम को जन्नती मुसलमान. काश मुसलमानों को कोई समझाए कि हिम्मत के साथ सोचें कि वह कहाँ हैं? एक लम्हे में ईमान दारी पर ईमान ला सकते है. मुस्लिम से मोमिन बन सकते हैं.
" जिसने नाज़िल किया किताब को जिस का एक हिस्सा वह आयतें हैं जो कि इश्तेबाह मुराद से महफूज़ हैं और यही आयतें असली मदार हैं किताब का. दूसरी आयतें ऐसी हैं जो कि मुश्तबाहुल मुराद हैं, सो जिन लोगों के दिलों में कजी है वह इन हिस्सों के पीछे हो लेते हैं. जो मुश्तबाहुल मुराद हैं, सो सोरिश ढूढने की ग़रज़ से. हालांकि इस का सही मतलब बजुज़ अल्लाह ताला के कोई नहीं जनता."
सूरह आले इमरान ३ तीसरा परा आयत (6+7) 
मुहम्मदी अल्लाह अपनी कुरानी आयातों की खामियों की जानकारी देता है कि इन में कुछ साफ़ साफ़ हैं और यही क़ुरआन की धुरी हैं और कुछ मशकूक हैं जिनको शर पसंद पकड़ लेते हैं. इस बात की वज़ाहत आलिमान क़ुरआन यूँ करते हैं कि क़ुरआन में तीन तरह की आयतें हैं---
१- अदना (जो साफ़ साफ़ मानी रखती हैं)
२- औसत (जो अधूरा मतलब रखती हैं)
३-तवास्सुत (जो पढने वाले की समझ में न आए और जिसको अल्लाह ही बेहतर समझे।)
सवाल उठता है कि एक तरफ़ दावा है हिकमत और हिदायते नेक से भरी हुई क़ुरआन अल्लाह की अजीमुश्शान किताब है और दूसरी तरफ़ तवस्सुत और औसत की मजबूरी ? 
अल्लाह की मुज़बज़ब बातें, एहकामे इलाही में तजाद, हुरूफ़े मुक़त्तेआत का इस्तेमाल जो किसी मदारी के छू मंतर की तरह लगते हैं। 
दर अस्ल कुरआन कुछ भी नहीं, मुहम्मद के वजदानी कैफ़ियत में बके गए बड का एह मज्मूआ है। इन में ही बाज़ बातें ताजाऊज़ करके बे मानी हो गईं तो उनको मुश्तबाहुल मुराद कह कर अल्लाह के सर हांडी फोड़ दिया है। 
वाज़ह हो कि जो चीजें नाज़िल होती हैं वह बला होती हैं. अल्लाह की आयतें हमेशा नाज़िल हुई हैं. कभी प्यार के साथ बन्दों के लिए पेश नहीं हुईं. कोई कुरानी आयत इंसानी ज़िन्दगी का कोई नया पहलू नहीं छूती, कायनात के किसी राज़ हाय का इन्क्शाफ़ नहीं करती, जो कुछ इस सिलसिले में बतलाती है दुन्या के सामने मजाक बन कर रह जाता है. बे सर पैर की बातें पूरे कुरआन में भरी पड़ी हैं, 
बस कि कुरआन की तारीफ, 
तारीफ किस बात की तारीफ उस बात का पता नहीं. 
इस की पैरवी मुल्ला, मौलवी, ओलिमाए दीन करते हैं जिन की नक़ल मुस्लमान भी करता है. आम मुस्लमान नहीं जानता की कुरआन में क्या है, खास जो कुछ जानते हैं वह सोचते है भाड़ में जाएँ, हम बचे रहें इन से, यही काफी है। 


यह आयत बहुत खास इस लिए है कि ओलिमा नामुराद अक्सर लोगों को बहकते हैं कि क़ुरआन को समझना बहुत मुश्किल है.


जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

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