Monday 7 September 2015

SOORAH MAYDA 5 pART 2 (17-35)

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.
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सूरह अलमायदा 5 छटवाँ पारा
(दूसरी किस्त)


अन्ना का गन्ना :-- 
यहूदी काल में भी अन्ना समर्थकों का ताँता बंधा रहता. लोग किसी भी मौक़े पर तमाश बीन बन्ने के लिए तैयार रहते. 
एक व्यभिचारणी को जुर्म की सजा में संग सार (पथराव) करने की तय्यारी चल रही थी, लोग अपने अपने हाथों में पत्थर लिए हुए खड़े थे. 
वहीँ ईसा ख़ाली हाथ आकर खड़े हो गए. 
व्यभिचारणी लाई गई, पथराव शुरू ही होने वाला था कि ईसा ने लोगों को संबोधित करते हुए कहा - - - 
" तुम लोगों में पहला पत्थर वही मारेगा जिसने कभी व्यभिचार न किया हो" 
सब के हाथ से पत्थर नीचे ज़मीन पर गिर गए. शायद उस वक़्त लोग अंतर आत्मा वाले रहे होंगे ?
अन्ना अगर ईसा तुल्य हो तो उन्हें चाहिए कि वह लोगो से कहें - - - 
" मेरे साथ वही लोग आएं जिन्हों ने कभी भ्रस्ट आचरण न किया हो.
 न रिश्वत लिया हो और न रिश्वत दिया हो." 
बड़ी मुश्किल आ जाएगी कि वह अकेले ही राम लीला मैदान में पुतले की तरह खड़े होंगे. 
चलिए इस शपथ को और आसान करके लेते हैं कि वह अपने अनुयाइयों से यह शपथ लें कि आगे भविष्य में वह रिश्वत लेंगे और न रिश्वतदेंगे. रिश्वत के मुआमले में लेने वालों से देने वाले दस गुना होते हैं. 
पहले देने वाले ईमानदार और निर्भीक बने. रिश्वत के आविष्कारक देने वाले ही थे. अन्ना सिर्फ सातवीं क्लास पास हैं, उनके अन्दर इंसानी नफ्सियत की कोई समझ है, न अध्यन, परिपक्वता तो बिलकुल नहीं है, वह अनजाने में भ्रष्टा चार का एक रावन और बनाना चाहते हैं जिसका रूप होगा लोकायुक्त. अन्ना को चाहिए कि वह अपनी बची हुई थोड़ी सी ज़िन्दगी को हिन्दुस्तानियों के चरित्र निर्माण में लगाएं. 

गुल की मानिंद पाई है हम ने जहाँ में ज़िन्दगी, 
रंग बन के आए हैं , बू बन के उड़ जाएँगे हम।


ये है एक शायर का चिंतन और मुहम्मदी अल्लाह भी तुकबंदी करता है मगर अपनी शायरी में वह ज़िन्दगी को चूं चूं का मुरब्बा से लेकर हव्वुआ बना देता है.
कहता है - - - 
"बिला शुबहा वोह काफिर हैं जो कहते हैं अल्लाह में मसीह बिन मरियम हैं.आप पूछिए अगर कि अल्लाह मह्सीह इब्ने मरियम को और उनकी वाल्दा को और ज़मीन में जो हैं उन सब को हलाक करना चाहे तो कोई शख्स ऐसा है जो अल्लाह ताला से इन को बचा सके."
सूरह अलमायदा 5 छटवाँ पारा-आयत (17)
*मुहम्मद ने कहना चाहा होगा कि मसीह इब्ने मरियम में अल्लाह है मगर आलम वज्द में कह गए अल्लाह में मसीह इब्ने मरियम है और क़ुरआन को मुरत्तब करने वालों ने भी "मच्छिका स्थाने मच्छिका" ही कर दिया और कोई बड़ी बात भी नहीं कि मुहम्मद कि इल्मी लियाक़त इस को दर गुजर भी कर सकती है. मुसलमान तो मानता है कुरआन में जो भूल चूक है उसका ज़िम्मेदार अल्लाह है. 
पूरी सूरह ही जिहालत से लबालब है, मुसलमान इसे कब तक वास्ते सवाब पढता रहेगा ?
"और यहूदी व नसारह(ईसाई) दावा करते हैं कि हम अल्लाह के बेटे हैं और महबूब हैं, फिर तुम को ईमानों के एवाज़ अजाब क्यूँ देंगे बल्कि तुम भी मिन जुमला और मखलूक एक आदमी हो."
सूरह अलमायदा 5 छटवाँ पारा-आयत (18)
मिन जुमला उम्मी मुहम्मद का तकिया कलाम है वोह अक्सर इस लफ्ज़ को गैर ज़रूरी तौर पर इस्तेमाल करते हैं.यहाँ पर भी जो बात कहना चाहा है वोह कह नहीं पाए, अब मुल्ला जी उनके मददगार इस तरह होगे कि बन्दों को समझेंगे "अल्लाह का मतलब यह है कि - - -"
गोया अल्लाह इनका हकला भाई हुवा. 
यहूद, नसारह अपने अपने राग गा रहे थे, मुहम्मद ने सोचा अच्छा मौक़ा है, क्यूँ न हम इस्लामी डफली लेकर मैदान में उतरें मगर उनके साथ बड़ा हादसा था कि वह उम्मी नंबर वन थे जिस को कठमुल्ला कहा जाए तो मुनासिब होगा.
"मुहम्मद एक बार फ़िर मूसा को लेकर नई कहानी गढ़ते है जो हर कहानी कि तरह बेसिर पैर की होती है. पता नहीं उनको कोई पुर मज़ाक यहूदी मिल जाता है जो मूसा की फ़र्जी दस्ताने गढ़ गढ़ कर मुहम्मद को बतलाता है. उस पर उनके गैर अदबी ज़ौक़ की किस्सा गोई के लिए भी सलीका ए गोयाई चाहिए. बस शुरू हो जाते हैं अल्लाह ताला बन कर - - - 
"वोह वक़्त भी काबिले ज़िक्र है कि जब - - - 
या इस तरह कि क्या तुम को इस किस्से के बारे में, मालूम है कि जब - - -
"सूरह अलमायदा 5 छटवाँ पारा-आयत (19-32)" 
जो लोग अल्लाह और उसके रसूल से लड़ते हैं और मुल्क में फसाद फैलाते फिरते हैं, उनकी यही सज़ा है कि क़त्ल किए जावें या सूली दी जावें या उनके हाथ और पाँव मुखलिफ सम्त से काट दिए जवे या ज़मीन पर से निकाल दिए जावें - - - 
उनको आखरत में अज़ाब अज़ीम है. हाँ जो लोग क़ब्ल इस के कि तुम उनको गिरफ्तार करो, तौबा कर लें तो जान लो बे शक अल्लाह ताला बख्स देगे, मेहरबानी फरमा देंगे."
सूरह अलमायदा 5 छटवाँ पारा-आयत (33-34)
भला अल्लाह से कौन लडेगा? 
वोह मयस्सर भी कहाँ है? 
हजारों सालों से दुन्या उसकी एक झलक के लिए बेताब है,बाग़ बाग़ हो जाने के लिए, तर जाने के लिए, निहाल हो जाने के लिए सब कुछ लुटाने को तैयार है। 
उसकी तो अभी तक जुस्तुजू है, किसी ने उसे देखा न पाया, सिवाय मुहम्मद जैसे खुद साख्ता पैगम्बरों के. उस से लड्ने का सवाल ही कहाँ पैदा होता है. लडाई तो उसका एजेंट पुर अमन ज़मीन पर थोप रहा है. 
गौर तलब है की कैसे कैसे घृणित तरीके अपने विरोधियों के लिए ईजाद कर रहा है जिस को 'मोहसिन इंसानियत 'मानव मित्र' यह ओलिमा हराम जादे कहते हुए नहीं शर्माते. मुहम्मद ने अपनी जिंदगी में लोगों का जीना दूभर कर दिया था जिसका गवाह कोई और नहीं खुद यह क़ुरआन है. इसकी सजा मुसलसल कि शक्ल में भोले भाले इंसानों को इन आलिमो की वज़ह से मिलती रही है मगर यह आज तक ज़मीं से नापैद नहीं किए गए जाने कब मुसलमान बेदार होगा. 
इक क़ुरआन उसके लिए ज़हर का प्याला है जो अनजाने में वह सुब्ह ओ शाम पीता है. 
"मुहम्मद ही इस ज़मीन का शैतानुर्र रजीम था जिस पर लानत भेज कर इसे रुसवा करना चाहिए." 
"ए ईमान वालो! 
अल्लाह से डरो और अल्लाह का कुर्ब ढूंढो, उसकी राह में जेहाद करो, उम्मीद है कामयाब होगे."
सूरह अलमायदा 5 छटवाँ पारा-आयत (35)
याद रखें मुहम्मद दर पर्दा बजात खुद अल्लाह हैं और आप को अपने करीब चाहते हैं ताकि आप पर ग़ालिब रहें और आप से दीन के नाम पर जेहाद करा सकें. 
मुहम्मद दफ़ा हो गए हजारों मिनी मुहम्मद पैदा हो गए जो आप की नस्लों को जाहिल रखना चाहते हैं. अफ्गंस्तान, पाकिस्तान ही नहीं हिंदुस्तान में भी ये सब आप की नज़रों के सामने हो रहा है और अप की आँखें खुल नहीं रहीं. कोई राह नहीं है कि मैदान में खुल कर आएं. कमसे कम इस से शुरुआत करें की मुल्ला, मस्जिद और मज़हब का बाई काट करें.
मत डरें समाज से,समाज आपसे है. मत डरें अल्लाह से, डरें तो बुराइयों से. अल्लाह अगर है भी तो भले लोगों का कभी बुरा नहीं करेगा. अल्लाह से डरने की ज़रुरत नहीं है. अल्लाह कभी डरावना नहीं होगा, होगा तो बाप जैसा अपनी औलाद को सिर्फ प्यार करने बाला,दोज़ख में जलाने वाला? उस पर लाहौल भेजिए। 


जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

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