Monday 15 August 2016

Soorah Saba 34 Q-2

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.

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सूरह सबा ३४
(दूसरी क़िस्त)  

इस्लाम की हक़ीक़त

मक्का वाले मुहम्मद की रिसालत को बहुत ही मामूली एक समाजी वाकिए के तौर पर लिए हुए थे. 
मुहम्मद ज्यादः हिस्सा तो माहौल की तफ़रीह हुवा करते थे. 
अपने सदियों पुराने पूज्य की शान में गुसताखियों को बर्दाश्त करने में एक लिहाज़ भी था, काबा के ताकिया दारों के खानदान के फर्द होने का,. 
इसके अलावा मालदार बीवी के शौहर होने का लिहाज़ भी उनको बचाता रहा. फिर एक मुहज़ज़ब समाज में एतदाल भी होता है, क़ूवते बर्दाश्त  के लिए. समाज की ये भी ज़िम्मेदारी होती है कि फक्कड़ लोगों को अहेमियत न दो, उन्हें झेलते रहो. 
खुद को अल्लाह का रसूल कहना अपनी बे सिर पैर की बातों की तुकबंदी बना कर उसे अल्लाह का कलाम कहना, आयतें की एक फ़रिश्ते के कंधे पर आमद, सब मिला कर समाज के लिए अच्छा मशग़ला थे मुहम्मद. इन पर पाबन्दी लगाना मुनासिब न था.
बड़ी गौर तलब बात है कि उस वक़्त ३६० देवी देवताओं का मुततहदा  निज़ाम किसी जगह क़ायम होना. ये कोई मामूली बात नहीं थी. 
हरम में ३६० मूर्तियाँ दुन्या की ३६० मुल्कों, खित्तों और तमद्दुन की मुश्तरका अलामतें थीं. काबा का ये कल्चर जिसकी बुन्याद पर अक्वाम मुत्तहदा क़ायम हुवा. 
काबा मिस्मार न होता तो हो सकता था कि आज का न्यू यार्क मक्का होता और अक्वाम मुत्तहदा हरम में क़ायम होता, इस्लाम से पहले इतना ठोस थी अरबी सभ्यता. अल्लाह वाहिद के खब्ती मुहम्मद ने इर्तेका के पैरों में बेड़ियाँ पहना कर क़ैद कर दिया.
मुहम्मद की दीवानगी बारह साल मक्का में सर धुनती रही. जब पानी सर से ऊपर उठा तो अहले मक्का ने तय किया कि इस फ़ितने का सद्दे बाब हो. कुरैशियों ने इन्हें मौत के घाट उतारने का फ़ैसला कर लिया. 
मुहम्मद को जब इस बात का इल्म हुवा तो उनकी पैग़म्बरी सर पर पैर रख कर मक्का से रातो रात भागी. 
अल्लाह के रसूल का इस सफ़र में बुरा हल था कि मुरदार जानवरों की सूखी हुई चमड़ी चबा चबा कर जान बचानी पड़ी, 
न इनके अल्लाह ने इनको रिज्क़ मुहय्या किया न जिब्रील को तरस आई. रसूल अपने परम भक्त अबुबकर के साथ मदीने पहुँच गए जहां इन्हें सियासी पनाह इस लिए मिली कि मदीने के साथ मक्का वालों की पुरानी रंजिश चली आ रही थी.
ग्यारह साल बाद मुहम्मद तस्लीम शुदा अल्लाह के रसूल और फ़ातेह बनकर जब मक्के में दाख़िल हुए तो आलमे इंसानियत की तारीख़ में वह मनहूस तरीन दिन था. उसी दिन से कभी मुसलामानों पर और कभी मुसलामानों के पड़ोसी मुल्क के बाशिंदों पर ज़मीन तंग होती गई.

कुछ लोग इस वहम के शिकार हैं कि मुसलामानों ने सदियों आधी दुन्या पर हुकूमत कीं.  इनका अंदरूनी सानेहा ये है कि मुसलमान हमेशा आपस में ही एक दूसरे की गर्दनें काट कर  फ़ातेह और मफतूह रहे. 
वह बाहमी तौर पर इतना लड़े मरे कि पढ़ कर हैरत नाक अफ़सोस होता है. मुसलामानों की आपसी जंग मुहम्मद के मरते ही शुरू हुई जिसमें एक लाख ताज़े ताज़े हुए मुसलमान मारे गए, 
ये थी जंगे "जमल" जो मुहम्मद की बेगम आयशा और दामाद अली के दरमियान हुई फिर तो ये सिलसिला शुरू हुआ तो आज तक थमने का नाम नहीं लिया. 
मुहम्मद के चारो ख़लीफ़ा एक दूसरे की साज़िश से क़त्ल हुए, 
इस्लाम के ज़्यादः तर हुक्मरान साज़िशी तलवारों से कम उम्र में मौत के घाट उतारे गए.
इस्लाम का सब से ख़तरनाक पहलू जो उस वक़्त वजूद में आया था, वह था जंग के ज़रीया लूट पाट करके हासिल किए गए अवामी इमलाक को गनीमत कह कर जायज़ करार देना. लोगों का ज़रीया मुआश बन गई थीं जंगें. चौदह सौ साल गुज़र गए, इस्लामियों में इसकी बरकतें आज भी क़ायम हैं. अफ़ग़ानिस्तान  में आज भी किराए के टट्टू मिलते हैं चाहे उनके हाथों मुसलामानों का क़त्ल करा लो, चाहे काफ़िर का. इस्लाम में रह कर गैर जानिबदारी तो हो ही नहीं सकती कि उसका गला कट्टर मुसलमान पहले दाबते हैं जो गैर जानिब दार होता है.
इस्लाम के इन घिनावनी सदियों को मुस्लिम इतिहास कर इस्लाम का सुनहरा दौर लिखते हैं.

अब चलते है क़ुरआन की हक़ीक़त पर 

"सो अपनों ने सरताबी की तो हमने उन पर बंद का सैलाब छोड़ दिया, हमने उनको फलदार बाग़ों के बदले, बाँज बागें दे दीं जिसमें ये चीज़ें रह गईं, बद मज़ा फल और झाड़, क़द्रे क़लील बेरियाँ उनको ये सज़ा हमने उनकी नाफ़रमानी की वजेह से दीं , और हम ऐसी सज़ा बड़े ना फ़रमानों को ही दिया करते हैं."
सूरह सबा ३४- २२ वाँ पारा आयत (१७)

अल्लाह बन बैठा रसूल अपनी तबीअत, फ़ितरत और ख़सलत के मुताबिक अवाम को सज़ा देने के लिए बेताब रहता है. वह किस क़दर ज़ालिम था कि उसकी अमली तौर में दास्तानें हदीसों में भरी पडी हैं. तालिबान ऐसे दरिन्दे  उसकी ही पैरवी कर रहे हैं. देखिए कि अपने लोगों के लिए कैसी सोच रखता है, 
"सो अपनों ने सरताबी की तो हमने उन पर बंद का सैलाब छोड़ दिया"

"हम ने उनको अफ़साना बना दिया और उनको बिलकुल तितर बितर कर दिया. बेशक इसमें हर साबिर और शाकिर के लिए बड़ी बड़ी इबरतें हैं"
सूरह सबा ३४- २२ वाँ पारा आयत (१९)

मुसलमानों! 
अगर ऐसा अल्लाह कोई है जो अपने बन्दों को तितर बितर करता हो और उनको तबाह करके अफ़साना बना देता हो तो वह अल्लाह नहीं बंदा ए  शैतान है, जैसे कि मुहम्मद थे.
वह चाहते हैं कि उनकी ज़्यादितियों के बावजूद लोग कुछ न बोलें और सब्र करें.

"उन्होंने ये भी कहा हम अमवाल और औलाद में तुम से ज्यादः हैं और हम को कभी अज़ाब न होगा. कह दीजिए मेरा परवर दिगार जिसको चाहे ज्यादः रोज़ी देता है और जिसको चाहता है कम देता है, लेकिन अक्सर लोग वाक़िफ़ नहीं और तुम्हारे अमवाल और औलाद ऐसी चीज़ नहीं जो दर्जा में हमारा मुक़र्रिब बना दे, मगर हाँ ! जो ईमान लाए और अच्छा काम करे, सो ऐसे लोगों के लिए उनके अमल का दूना सिलह है. और वह बाला खाने में चैन से होंगे."
सूरह सबा ३४- २२ वाँ पारा आयत (३५-३७)

कनीज़ मार्या के हमल को आठवाँ महीना लगने के बाद जब समाज में चे-मे गोइयाँ शुरू हुईं तो मार्या के दबाव मे आकर मुहम्मद ने उसे अपनी कारस्तानी कुबूला और बच्चा पैदा होने पर उसको अपने बुज़ुर्ग इब्राहीम का नाम  दिया, उसका अक़ीक़ा भी किया. ढाई साल में वह मर गया तब भी समाज में चे-मे गोइयाँ हुईं कि बनते हैं अल्लाह के नबी और बुढ़ापे में एह लड़का हुवा, उसे भी बचा न सके. तब मुहम्मद ने अल्लाह से एक आयत उतरवाई 
" इन्ना आतोय्ना कल कौसर - - - "
यानी उस से बढ़ कर अल्लाह ने मुझको जन्नत के हौज़ का निगराँ बनाया - - -
तो इतने बेगैरत थे हज़रात.
इस सूरह के पसे मंज़र मे इन आयतों भी मतलब निकला जा सकता है.
एक उम्मी की रची हुई भूल भूलभुलय्या में भटकते राहिए कोई रास्ता ही नान मिलेगा, 

"आप कहिए कि मैं तो सिर्फ़ एक बात समझता हूँ, वह ये कि अल्लाह वास्ते खड़े हो जाओ, दो दो, फिर एक एक , फिर सोचो कि तुम्हारे इस साथी को जूनून नहीं है. वह तुम्हें एक अज़ाब आने से पहले डराने वाला है."
बेशक, ये आयत ही काफ़ी है कि आप पर कितना जूनून था. दो दो, फिर एक एक - - - फिर उसके बाद सिफ़र सिफ़र फिर नफ़ी एक एक यानी बने हुए रसूल की इतनी धुनाई होती और इस तरह होती कि इस्लामी फ़ितने का वजूद ही न पनप पाता. 
सूरह सबा ३४- २२ वाँ पारा आयत (४६)
यहूदी धर्म कहता है - - -
ऐ ख़ुदा!
फ़िरके फ़िरके का इन्साफ़ करेगा. मुल्क मुल्क के लोगों के झगडे मिटाएगा, वह अपने तलवारों को पीट पीट कर हल के फल और भालों को हँस्या बनाएँगे, तब एक फ़िरका दूसरे फ़िरके पर तलवारें नहीं चलाएगा न आगे लोग  जंग के करतब सीखेंगे.
"तौरेत"
ये हो सकती है अल्लाह की वह्यी या कलाम ए पाक.     




जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

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