Monday 20 June 2011

सूरह कौसर १०८ - पारा ३०

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.
सूरह कौसर १०८ - पारा ३०
(इन्ना आतयना कल कौसर)

ऊपर उन (७८ -११४) सूरतों के नाम उनके शुरूआती अल्फाज़ के साथ दिया जा रहा हैं जिन्हें नमाज़ों में सूरह फातेहा या अल्हम्द - - के साथ जोड़ कर तुम पढ़ते हो.. ये छोटी छोटी सूरह तीसवें पारे की हैं. देखो और समझो कि इनमें झूट, मकर, सियासत, नफरत, जेहालत, कुदूरत, गलाज़त यहाँ तक कि मुग़ललज़ात भी तुम्हारी इबादत में शामिल हो जाती हैं. तुम अपनी ज़बान में इनको पढने का तसव्वुर भी नहीं कर सकते. ये ज़बान ए गैर में है, वह भी अरबी में, जिसको तुम मुक़द्दस समझते हो, चाहे उसमे फह्हाशी ही क्यूँ न हो..
इबादत के लिए रुक़ूअ या सुजूद, अल्फाज़, तौर तरीके और तरकीब की कोई जगह नहीं होती, गर्क ए कायनात होकर कर उट्ठो तो देखो तुम्हारा अल्लाह तुम्हारे सामने सदाक़त बन कर खड़ा होगा. तुमको इशारा करेगा कि तुमको इस धरती पर इस लिए भेजा है कि तुम इसे सजाओ और सँवारो, आने वाले बन्दों के लिए, यहाँ तक कि धरती के हर बाशिदों के लिए. इनसे नफरत करना गुनाह है, इन बन्दों और बाशिदों की खैर ही तुम्हारी इबादत होगी. इनकी बक़ा ही तुम्हारी नस्लों के हक में होगा.
आज कल जिहाद को लेकर बहसें चल रही हैं. पिछले दिनों ndtv पर इस सिलसिले में एक तमाशा देखने को मिला. इसमें मुस्लिम बाज़ीगर आलिमों और सियासत दानों ने बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया, लग रहा था कि इस्लाम का दिफ़ा कर रहे हों, बजाए इसके कि वह सच्चाई से काम लेते, जिससे मुस्लिम अवाम का कुछ फ़ायदा हो. जिहाद के नए नए नाम और मअनी तराशे गए, इसका हिंदी करण किया गया कि जिहाद परियास और प्रयत्न का नाम है, यज्ञं और परितज्ञं को जिहाद कहा जाता है. उन सभों की लफ्ज़ी मानों में यह दलीले सही थीं मगर जिहाद का और उसके अर्थ का इस्लामी करण किया गया है, काश कि ऐसा होता जैसा कि यह जोगी बतला रहे थे. क़ुरआन में जिहाद के फ़रमान हैं, "इस्लाम के लिए जंगी जिहाद करो, गैर मुस्लिम और ख़ास कर काफ़िरों से इतनी जिहाद करो कि उनका वजूद न बचे." सैकड़ों आयतें इस संदभ में पेश की जा सकती हैं. इस सन्दर्भ में. "काफ़िर वह होते हैं जो कुफ्र करते है और एकेश्वर को नहीं मानते तथा मूर्ति पूजा करते है. bharat के हिन्दू 'मिन जुमला काफ़िर' हैं, इसको मुसलामानों के दिल ओ दिमाग से निकाला नहीं जा सकता.
खैबर की जंग इसकी तारीखी गवाह है, जिसमें खुद मुहम्मद शामिल थे. ये जिहाद इतनी कुरूर थी कि इसके बयान के लिए इन ओलिमा के पास हिम्मत और जिसारत नहीं कि यह टीवी चैनलों के सामने बयान कर सकें. इसी जंग में मिली मज़लूम सफ़िया, मुहम्मद की बीवियों में से एक थी जिसे मजबूर होना पड़ा कि अपने बाप, भाई, शौहर और पूरे खानदान की लाशों के बीच मुहम्मद के साथ सुहाग रात मनाए.
अलकायदा, तालिबान और अन्य जिहादी तंजीमें सही मअनो में क़ुरआनी मुसलमान हैं जो खैबर को अफगानिस्तान के कुछ हिस्से में मुहम्मदी काल को दोहरा रहे हैं.

"बेशक हमने आपको कौसर अता फ़रमाई,
सो आप अपने परवर दिगार की नमाज़ें पढ़िए,
और क़ुरबानी कीजिए, बिल यक़ीन आपका दुश्मन ही बे नाम ओ निशान होगा"
सूरह कौसर १०८ - पारा ३० आयत (१-३)

नमाज़ियो !
नमाज़ से जल्दी फुर्सत पाने के लिए अक्सर आप मंदार्जा बाला छोटी सूरह पढ़ते हो. इसके पसे-मंज़र में क्या है, जानते हो?
सुनो,खुद साख्ता रसूल की बयक वक़्त नौ बीवियाँ थीं. इनके आलावा मुताअददित लौंडियाँ और रखैल भी हुवा करती थीं. जिनके साथ वह अय्याशियाँ किया करते थे. उनमें से ही एक मार्या नाम की लौड़ी थी, जो हामला हो गई थी. मार्या के हामला होने पर समाज में चे-में गोइयाँ होने लगी कि जाने किसका पाप इसके पेट में पल रहा है? बात जब ज्यादः बढ़ गई तो मार्या ने अपने मुजरिम पर दबाव डाला, तब मुहम्मद ने एलान किया कि मार्या के पेट में जो बच्चा पल रहा है, वह मेरा है. ये एलान रुसवाई के साथ मुहम्मद के हक में भी था कि खदीजा के बाद वह अपनी दस बीवियों में से किसी को हामला न कर सके थे गोया अज सरे नव जवान हो गए(अल्लाह के करम से). बहरहाल लानत मलामत के साथ मुआमला ठंडा हुआ. इस सिलसिले में एक तअना ज़न को मुहम्मद ने उसके घर जाकर क़त्ल भी कर दिया.
नौ महीने पूरे हुए, मार्या ने एक बच्चे को जन्म दिया, मुहम्मद की बांछें खिल गई कि चलो मैं भी साहिबे औलादे नारीना हुवा. उन्होंने लड़के की विलादत की खुशियाँ भी मनाईं. उसका अक़ीक़ा भी किया, दावतें भी हुईं. उन्हों ने बच्चे का नाम रखा अपने मूरिसे आला के नाम पर 'इब्राहीम'
इब्राहीम ढाई साल की उम्र पाकर मर गया, एक लोहार की बीवी को उसे पालने के किए दे दिया था, जिसके घर में भरे धुंए से उसका दम घुट गया था.
खुली आँखों से जन्नत और दोज़ख देखने वाले और इनका हाल बतलाने और हदीस फ़रमाने वाले अल्लाह के रसूल के साथ उनके मुलाज़िम जिब्रील अलैहिस्सलाम ने उनके साथ कज अदाई की और अपने प्यारे रसूल के साथ अल्लाह ने दगाबाज़ी कि उनका ख्वाब चकनाचूर हो गया. मुहल्ले की औरतों ने फब्ती कसी " बनते हैं अल्लाह के रसूल और बाँटते फिरते है उसका पैगाम, बुढ़ापे में एक वारिस हुवा, वह भी लौड़ी जना, उसको भी इनका अल्लाह बचा न सका. मुहम्मद तअज़ियत की जगह तआने पाने लगे. बला के बेशर्म और ढीठ मुहम्मद ने अपने हरबे से काम लिया, और अपने ऊपर वह्यी उतारी जो मंदार्जा बाला आयतें हैं. अल्लाह उनको तसल्ली देता है कि तुम फ़िक्र न करो मैं तुमको, (नहीं! बल्कि आपको) इस हराम जने इब्राहीम के बदले जन्नत के हौज़ का निगरान बनाया, आकर इसमें मछली पालन करना.
अच्छा ही हुवा लौंडी ज़ादा गुनहगार बाप का बेगुनाह मासूम बचपन में जाता रहा वर्ना मुहम्मदी पैगम्बरी का सिलसिला आज तक चलता रहता और पैगम्बरे आखिरुज्ज़मां का ऐलान भी मुसलमानों में न होता.




जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

7 comments:

  1. अगर आपकी कही सारी बातें सच हैं तो यक़ीन मानिए हैरत से दिमाग फटा जाता है कि ऐसे गंदे और कमीने आदमी की ज़ेहनी गुलामी आज इतनी बड़ी तादाद में लोग कैसे कर रहे हैं??? क्‍या उन सबके दिमागों और आंखों पर ताले और पर्दे पड़ गए हैं कि वे देख नहीं पा रहे कि कैसा हैवान था वो जिसे वो अपना रसूल मानते हैं???

    यक़ीनन मुसलमान किसी नफ़रत या गुस्‍से के नहीं बल्कि शदीद हमदर्दी या कहें कि कड़ाई से समझाए जाने के काबिल हैं क्‍योंकि उनके तो ज़ेहनों को पूरी तरह से तालाबंद कर दिया गया है रसूल के ज़बर्दस्‍त डर और उसके बाप अल्‍लाह की हिक़मत का वास्‍ता देकर... कितनी बड़ी तादाद में बेचारे मजलूम मुसलमान इस अंधेरे में घुट-घुट कर मर जाने को मजबूर हैं क्‍योंकि जहां उन्‍होंने इससे बाहर निकलने को गर्दन निकाली नहीं कि इस इस्‍लाम नाम की कमीनगी से भरी सोच को संजो कर रखने के हिमायती अपनी शमशीरों से उनकी गर्दनें उड़ा देते रहे हैं, उड़ा रहे हैं और तब तक उड़ा देते रहेंगे जब तक इस्‍लाम एक बेहद ख़ौफनाक और खूनी अंदरूनी जंग से नहीं गुजरेगा...

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  2. आपकी सोच और मक़सद यक़ीनन बेहद बेहद नेक है बिलॉग-निगार साहब लेकिन आम और ज़मीन से जुड़ी अवाम के ज़ेहनों में जब कोई गंदी और हैवानी ज़हरीली सोच सदियों तक पीढ़ी-दर-पीढ़ी पहुचाई जाती है तो वो उनके दिमाग़ों की नसों में इतनी गहराई से जज्‍़ब हो जाती है कि उसे निकाल कर फेंकने और उसमें इंसानियत और नई और खुली सोच के बीज बोने के लिए लोहे के पंजों और बूटों की ज़रूरत पड़ती है, भले ही ऐसा करने वाला उन्‍हें बेदर्द लगे लेकिन ऐसा उनकी भलाई के लिए किया जाना ज़रूरी है - मिसाल के लिए जब इंसान के जिस्‍म के किसी मुख्‍़तलिफ़ हिस्‍से में कैंसर की बीमारी ज़बर्दस्‍त ख़तरनाक तरीके से पैठ कर ले तो फिर उस हिस्‍से को बेदर्दी से काटकर फेंकने पर ही उस इंसान की बाकी जिंदगी बचाई जा सकती है...

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  3. तुर्की के कमान पाशा अतातुर्क की मिसाल मौजूं है जिन्‍होंने इस्‍लामी कठमुल्‍लों को अपने लोहे के बूट के नीचे रौंद दिया और तुर्की के अवाम की कई नस्‍लों में मोहब्‍बत-ए-वतन और मॉडर्न तालीम का जज्‍़बा ऐसा कूट-कूट कर भर दिया कि उन लोगों के ज़ेहनों में इस्‍लाम नाम का बुखार अपने आप उतर कर काफी नीचे की डिग्री पर आ गया. नतीजा - तुर्की पूरी इस्‍लामी दुनिया में अकेला ऐसा मुल्‍क है जहां साइंसदानी और दुनियावी दानिशमंदी में बेहतरीन काम हो रहा है, जहां की औरतें पूरी तरह बिना किसी रोक टोक या पर्दे जैसी घटिया पाबंदी के पूरी आज़ादी से हर फील्‍ड में मर्दों के कंधे से कंधा मिला कर चल रही हैं... अफसोस कि अतातुर्क फिर भी इस्‍लाम नाम के इस ज़हर की ताक़त को पूरी तरह से पहचान नहीं पाए और उन्‍होंने इस ज़हर के बीजों को पूरी तरह से राख नहीं किया.. यह वो ज़हर है जिसके चार बीज फिर से दिमागों में फैलने में वक्‍त नहीं लगाते क्‍योंकि दुनिया के दूसरे और गलीजतरीन सऊदी अरब जैसे मुल्‍कों में बैठे इस्‍लाम के फ़र्माबरदार इस 'नेक' काम को अंजाम देने के लिए अपने पास से मोटा पैसा खर्च करने को हमेशा तैयार रहते हैं...

    तुर्की के मौजूदा सदर जो इस्‍लाम की उसी घटिया और हैवानी सोच की पुरज़ोर वकालत करते हैं, ने इस हंसते-खेलते मुल्‍क को फिर से इस्‍लाम नाम के हैवान के हवाले करने का पूरा इंतज़ाम कर दिया है जैसे 1979 में ईरान के साथ हुआ...

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  4. आप हो सकता है मेरी बात का बुरा मानें बिलॉग-निगार साहब लेकिन मेरा तजुर्बा और अंदाज़ा ये कहता है कि इस्‍लाम दरअसल एक ज़ेहनी वायरस है और जैसा मेडिकल साइंस के लोग कहते हैं वायरस का मुक़ाबिला सिर्फ एक ऐंटी-वायरस ही कर सकता है. मायने यह कि इस्‍लाम नाम की हैवानी ज़ेहनियत इन करोड़ों मजलूम लोगों के दिमागों से सिर्फ और सिर्फ तब रफा-दफा हो सकती है जब कि मुहम्‍मद जैसा कोई दूसरा लड़ाका खुद मुस्लिमों में से पैदा होकर और आप जैसे मुसलमानों की ही तरह इस सोच की कमीनगियों से बेज़ार होकर बड़ी तादाद में लोगों को इससे बाहर निकालने के लिए बाक़ायदा हथियार उठाए और हथियार की नोंक पर ही उन्‍हें इस्‍लाम से बाहर निकाले... हालांकि इस मुआमले में ख़तरा ये है कि वो लोग इस्‍लाम को छोड़कर फिर किसी और मजहब को मानने लगेंगे जो यूं तो उनके लिए फिर से एक दूसरी ज़ेहनिया गुलामी का सबब बनेगी, फिर भी तसल्‍ली इस बात की है कि इस्‍लाम के सिवा किसी भी और मजहब को मानने पर कम-अज-कम वो दूसरे किसी भी मजहब के मजलूम लोगों के खून के प्‍यासे तो नहीं रहेंगे और साथ ही साथ इस्‍लाम में घुटती औरतों को इससे सबसे ज्‍़यादा फ़ायदा होगा...

    मेरा पूरी संजीदगी और पुख्‍़तगी से यक़ीन है कि जिस तरह इस्‍लाम तलवार के बिना पर फैला उसी तरह से इसे सिर्फ और सिर्फ तलवार के बिना पर ही खत्‍म किया जा सकता है जो खुद इसमें से निकले लोग ही उठाएंगे, किसी और मजहब के लोगों को दरअसल मुसलमानों से इतनी हमदर्दी हो ही नहीं सकती कि वो ऐसा करने का जोखिम उठाएं.. वैसे भी तकरीबन सभी ग़ैर-मुसलमानों के लिए मु‍सलमान इसी इस्‍लामी सोच की वजह से ऐसे हैवानों में तब्‍दील हो चुके हैं जिनके हालात से ज्‍़यादा मतलब रखना उन्‍हें पसंद नहीं होता, इसलिए ये जि़म्‍मेदारी तो खुद ही उठानी पड़ेगी...

    एक दूसरी बात यह कि वो लोग मॉडर्न दुनियावी तालीम हासिल करने की तरफ बेझिझक कदम बढ़ा सकेंगे जो धीरे-धीरे ही सही उन्‍हें बेहतर इंसान बनाने में मदद तो करेगा ही.... और सच मानिए तो जैसे-जैसे इंसान साइंस में तरक्‍की करता जा रहा है वैसे-वैसे अंग्रेजी मुल्‍कों में ज्‍़यादा से ज्‍़यादा लोग मजहब नाम के ज़हर से धीरे-धीरे मुंह मोडते जा रहे हैं... खुद हिंदुस्‍तान के बड़े शहरों में भी जो लोग इन मुल्‍कों से ज्‍़यादा वास्‍ता रखते हैं वो अब इस सरदर्द को पोशीदा तौर पर ही सही रफा-दफा कर देने में ही फायदा समझ रहे है... मेरी राय पर अपनी राय ज़रूर दें, आप जैस दानिशमंद मुसलमान को देखकर एहसास होता है कि कुछ ऐसे हिम्‍मत वाले भी पैदा होते हैं जो सदियों से मुसल्‍सल तौर पर ज़ेहनों में पेवस्‍त किए जा रहे इस ज़हर को भी मात देकर खुली आंखों से देखने और खुले ज़ेहन से सोचने का माद्दा रखते हैं... आप जैसे सभी हौसलेमंद लोग जो मुसलमान बनकर पैदा हुए और अपने ज़ेहनों में बैठे इस्‍लाम नाक के सांप को कुचलकर इंसान बन गए हैं, वो सभी एक हो जाएं और इन करोड़ों मजलूम लोगों को जगाएं ऐसी दुआ है...

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  5. कोई तो आये साहब की टिप्पणियां काबिल-ए-गौर हैं.

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  6. महोदय !

    आपके नेक सुझाव औए खुले विचार के लिए आप का शुक्रया .

    आपकी एक बात खास कर जवाब तलब है कि " ख़तरा ये है कि वो लोग इस्‍लाम को छोड़कर फिर किसी और मजहब को मानने लगेंगे"

    शायद आप मेरे लेख पूरी तरह से नहीं पढ़ा करते. मैं "सरिता" के संपादक स्वर्गीय विश्व नाथ की तरह हिदुओं को दिशा हीन नहीं करता, बल्कि मुसलाल्मानों को एक दिशा भी देता हूँ कि वह इस्लाम को छोड़ कर

    'मुस्लिम से मोमिन' हो जाएँ. मोमिन का मतलब है ईमान दार. लौकिक सत्य जो कि हर किसी के दिलो-दिमाग से निकलता है, इंटर नेशनल ट्रुथ होता है, 'ईमान.' दुन्या की हर ज़बान की डिक्शनरी में इस अरबी शब्द का जवाब नहीं. मोमिन बनना बहुत ही मुश्किल है, मगर बेहद आसान भी.

    बस कि दुशवार है हर काम हा आसाँ होना,

    आदमी को भी मुयस्सर नहीं इन्सां होना. (ग़ालिब)

    मोमिन बिरादरी ही दुन्या की कौमों की रहबर होगी, धार्मिक दुन्या कभी भी मानव उद्धार नहीं कर सकती. धर्म और मज़हब ही इंसानियत के पैर में ज़न्जीर हैं. इन धार्मिक "चूहे दानों" के कैदी धर्म परिवर्तन करके अपने चूहे दान बदल लेते हैं, इनसान की ज़रुरत है चूहे दानों से मुक्ति..

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  7. आपकी बात एकदम सौ फीसदी सच है बिलॉग-निगार साहब, लेकिन मेरा तजुर्बा कहता है कि बावजूद इस मुकम्‍मल सच के कि 'मोमिन बिरादरी ही दुन्‍या की कौमों की रहबर होगी', मोमिन (आपके नज़रिए से जो किसी ख़ुदा को न माने सिर्फ इंसानियत को ही सबसे ज्‍़यादा इज्‍़ज़त बख्‍़शे) हो सकने की हिम्‍मत करने के लिए एक बुनियादी और मज़बूत ज़ेहनी समझ का मालिक होना बेहद ज़रूरी है और मुसलमानों के साथ यह बेहद बड़ी आफत है कि उनकी सोच-समझ को इस तरह कुंद कर दिया गया है कि पूरी त‍रह से ख़ुदा नाम की किसी सोच को खारिज कर देना उनके लिए ख़ासा मुश्किल होगा... बल्कि सच कहूं तो तमाम मुसलमान कौम के लिए ऐसा कर पाना तक़रीबन नामुमकिन होगा... आप चूंकि ख़ुद एक बेहद सुलझे हुए और मज़बूत दिमाग के मालिक हैं तो आपको ये आसान लगता होगा, मगर मुझे फिर भी लगता है कि इस सोच को अमली जामा पहनाने में यह मुश्किल बेहद सख्‍़त साबित होगी...

    दो लफ्ज़ो में कहूँ तो आप एक पैदाइशी बीमार और बेहद कमज़ोर इंसान से उम्‍मीद रखते हैं कि वो यकायक उठ खड़ा हो और दूसरे तेज़ी से भागते इंसानों से दौड़ में शामिल हो जाए, लेकिन मेरा मानना है कि वह पहले उठ कर बैठना सीखे और यक़ीन मानें एक बार दिमागी सेहतमंदी का मज़ा लेने के बाद कोई घड़ी ज़रूर आएगी जब वो बिस्‍तर को भी लात मारकर उठ खड़ा होगा और तेज़ी से भागेगा...

    ये सिर्फ मेरी सोच है, इसे किसी भी सूरत में मेहरबानी करके आपकी सोच की खिलाफ़त न समझें...

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