मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.
सूरह क़ुरैश १०६ - पारा ३०
( लेईलाफे कुरैशिन ईलाफेहिम)
समाज की बुराइयाँ, हाकिमों की ज्यादतियां और रस्म ओ रिवाज की ख़ामियाँ देख कर कोई साहिबे दिल और साहिबे जिगर उठ खड़ा होता है, वह अपनी जान को हथेली पर रख कर मैदान में उतरता है. वह कभी अपनी ज़िदगी में ही कामयाब हो जाता है, कभी वंचित रह जाता है और मरने के बाद अपने बुलंद मुकाम को छूता है, ईसा की तरह. मौत के बाद वह महात्मा, गुरू और पैगम्बर बन जाता है. इसका वही मुख़ालिफ़ समाज इसके मौत के बाद इसको गुणांक में रुतबा देने लगता है, इसकी पूजा होने लगती है, अंततः इसके नाम का कोई धर्म, कोई मज़हब या कोई पन्थ बन जाता है. धर्म के शरह और नियम बन जाते हैं, फिर इसके नाम की दुकाने खुलने लगती हैं और शुरू हो जाती है ब्यापारिक लूट. अज़ीम इन्सान की अजमत का मुक़द्दस खज़ाना, बिल आखीर उसी घटिया समाज के लुटेरों के हाथ लग जाता है. इस तरह से समाज पर एक और नए धर्म का लदान हो जाता है.
हमारी कमजोरी है कि हम अज़ीम इंसानों की पूजा करने लगते हैं, जब कि ज़रुरत है कि हम अपनी ज़िन्दगी उसके पद चिन्हों पर चल कर गुजारें. हम अपने बच्चों को दीन पढ़ाते हैं, जब कि ज़रुरत है कि उनको आला और जदीद तरीन अखलाक़ी क़द्रें पढ़ाएँ. मज़हबी तालीम की अंधी अकीदत, जिहालत का दायरा हैं. इसमें रहने वाले आपस में ग़ालिब ओ मगलूब और ज़ालिम ओ मज़लूम रहते हैं.
दाओ धर्म कहता है "जन्नत का ईश्वरीय रास्ता ये है कि अमीरों से ज़्यादा लिया जाए और गरीबों को दिया जाए. इंसानों की राह ये है कि गरीबों से लेकर खुद को अमीर बनाया जाए. कौन अपनी दौलत से ज़मीन पर बसने वालों की खिदमत कर सकता है? वही जिसके पास ईश्वर है. वह इल्म वाला है, जो दौलत इकठ्ठा नहीं करता. जितना ज्यादः लोगों को देता है उससे ज्यादः वह पाता है."
अल्लाह अपने कुरैश पुत्रों को हिदायत देता है कि - - -
जाड़े के और गर्मी के, यानी जाड़े और गर्मी के आदी हो गए,
तो इनको चाहिए कि काबः के मालिक की इबादत करें,
जिसने इन्हें भूक में खाना दिया और खौफ़ से इन्हें अम्न दिया."सूरह क़ुरैश १०६ - पारा ३० आयत (१-४)
कुरआन में आयातों का पैमाना क्या है? इसकी कोई बुन्याद नहीं है. आयत एक बात पूरी होने तक तो स्वाभाविक है मगर अधूरी बात किस आधार पर कोई बात हुई ? देखिए, "चूँकि कुरैश खूगर हो गए,"
ये अधूरी बात एक आयत हो गई और कभी कभी पूरा पूरा पैरा ग्राफ एक आयत होती है. इस मसलक की कोई बुनियाद ही नहीं, इससे ज्यादः अधूरा पन शायद ही और कहीं हो.
अगर तुम कुरैश या अरबी हो भी तो सदियों से हिंदी धरती पर हो, इसी का खा पी रहे हो, तो इसके हो जाओ. कुरैश होने का दावा ऐसा भी न हो कि क़स्साब से कुरैशी हो गए हो याकि जुलाहे से अंसारी, कई भारतीय वर्गों ने खुद को अरबी मुखियों को अपना नाजायज़ मूरिसे-आला बना रख्खा है, ये बात नाजायज़ वल्दियत की तरह है. बेहतर तो यह है कि नामों आगे क़बीला, वर्ग और जाति सूचक इशारा ही ख़त्म कर दो.
जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान
कौन सुनना चाहता है सत्य.
ReplyDeleteभारतीय नागरिक साहब!
ReplyDeleteआप शुरू से ही हमारे साथ हैं, शुक्रिया. आप सही कह रहे है की सच को सुनने वाला इस समाज में कोई नहीं है. सुनना क्या देखना भी पसंद नहीं करते. देश में बीस हरोड़ लोग दिन में एक जून की रोटी भी भर पेट नहीं पाते और लाखों तन अनाज सड़ रहा है. दूसरी तरफ़ लोगों के पास दौलत का अंबार है.
जीम मोमिन साहब ! आपने धर्म का फलसफा बड़ी हकीकत के साथ बयान किया है. यह इंसानी फितरत है कि वह अच्छे लोगों को घात लगाकर देखता है......उनकी जड़ें काटता है .....उनके ढह जाने पर उन्हें अवतार घोषित कर एक नया पंथ शुरू करता है ताकि उसकी दुष्टता कायम रह सके. धर्म की ये दुकानें पूरी दुनिया भर में बिखरी पडी हैं ...मूर्ख जनता इस जाल के मायावी सुख से स्वयं को कभी मुक्त नहीं कर पायी .........दुकानदारी इसीलिये चल रही है.
ReplyDeleteआपने भारतीय मुसलमानों के लिए अपनी भौगोलिक जड़ों के हिसाब से अपनी पहचान बनाने का ख्याल देकर कट्टरपंथियों के लिए एक गुनाह कर दिया है. यद्यपि आपका विचार सौ फीसदी ईमान और हकीकत से लबरेज़ है. आज भारतीय प्रायद्वीप में आपके जैसे मोमिनों की ज़रुरत है जो राष्ट्रवादी हों और अपने देश से मोहब्बत करते हों. भारतीय मुसलमानों को अपना भारतीय आदर्श चुनना होगा अरबी या इजराइली नहीं .....यह बहुत ही मनोवैज्ञानिक तथ्य है ...इसका सीधा सम्बन्ध मुसलमानों के विकास से जुड़ा है...यह बात सभी को समझनी होगी कि भारतीय मुसलमान अंततः मूल रूप से कभी हिन्दू ही थे...उनकी जड़ें भारत में हैं अरब में नहीं जहाँ वे खोजने का असफल प्रयास करते हैं.