Friday 17 June 2011

सूरह माऊन१०७ - पारा ३०

मेरी तहरीर में - - -



क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।

नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.


सूरह माऊन१०७ - पारा ३०
(अरायतललज़ी योकज्ज़ेबो बिद्दीन)


कट्टर हिन्दू संगठन अक्सर कुरआन के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाते रहते हैं मगर उनका मुतालबा सीमित रहता है कि क़ुरआन से केवल बह आयतें हटा दी जाएँ जो काफ़िरों के ख़िलाफ़ जिहाद का आह्वान करती हैं, बाक़ी कुरआन पर उनको कोई आपत्ति नहीं. इस मांग में उनका हित इस्लामी जिहादियों की तरह ही निहित है कि इससे मुस्लिम वर्ग का हमेशा अहित ही होगा. मुस्लिम अपनी आस्था के तहत ऊपर की दुन्या में मिलने वाली जन्नत के लिए इस दुन्या की ज़िन्दगी को संतोष के साथ गुज़ार देंगे. उनको मजदूर, मिस्त्री, राज, नाई, भिश्ती और मुलाजिम सस्ते दामों में मिलते रहेंगे.
मुस्लिम कट्टरता बेवक़ूफ़ होती है जो इन्सान को एक बार में ही कत्ल करके खुद इंसानों की मोहताज हो जाती है, इसके बर अक्स हिन्दू कट्टरता बुद्धिमान होती है जो इन्सान को उसकी जिंदगी को मुसलसल क़त्ल किए रहती है, न मरने देती है न मुटाने देती है. यह मानव समाज को धीरे धीरे अछूत बना कर, उनका एक वर्ग बना देती और खुद स्वर्ण हो जाती है. पाँच हज़ार साल से भारत के मूल बाशिदे और आदि वासी इसकी मिसाल हैं.
इन दोनों कट्टरताओं को मज़हब और धर्म पाले रहते है, जिनको मानना ही मानव समाज की हत्या या फिर उसकी खुद कुशी है.
इसके आलावा क़ुरआन के मुख़ालिफ़ कम्युनिस्ट और पश्चिमी देश भी है जो पूरे कुरआन को ही जला देने के हक में है, इन देशों में धर्म ओ मज़हब की अफीम नहीं बाक़ी बची है, इस लिए वह पूरी मानवता के हितैषी हैं.
भारतीय मुसलामानों के दाहिने खाईं है, तो बाएँ पहाड़. उसका मदद गार कोई नहीं है, बैसे भी मदद मोहताजों को चाहिए. वह मोहताज नहीं, अभी भी ताक़त हासिल कर सकते है, बेदारी की ज़रुरत है, हिम्मत करके मुस्लिम से हट कर मोमिन हो जाएँ.


ज़कात और नमाज़ का भूखा और प्यासा मुहम्मदी अल्लाह कहता है - - -



"क्या आपने ऐसे शख्स को नहीं देखा जो रोज़े-जजा को झुट्लाता है,
सो वह शख्स है जो यतीम को धक्के देता है,
वह मोहताज को खाना खिलने की तरगीब नहीं देता,
सो ऐसे नमाजियों के लिए बड़ी खराबी है,
जो अपनी नमाज़ को भुला बैठे हैं,
जो ऐसे है कि रिया करी करते हैं,
और ज़कात बिलकुल नहीं देते."

सूरह माऊन१०७ - पारा ३० आयत(१-७)
देखो और समझो कि तुम्हारी नमाज़ों में झूट, मकर, सियासत, नफरत, जेहालत, कुदूरत, गलाज़त यहाँ तक कि मुग़ललज़ात भी तुम्हारी इबादत में शामिल हो जाती हैं. तुम अपनी ज़बान में इनको पढने का तसव्वुर भी नहीं कर सकते. ये ज़बान ए गैर में है, वह भी अरबी में, जिसको तुम मुक़द्दस समझते हो, चाहे उसमे फह्हाशी ही क्यूँ न हो..
इबादत के लिए रुक़ूअ या सुजूद, अल्फाज़, तौर तरीके और तरकीब की कोई जगह नहीं होती, गर्क ए कायनात होकर कर उट्ठो तो देखो तुम्हारा अल्लाह तुम्हारे सामने सदाक़त बन कर खड़ा होगा. तुमको इशारा करेगा कि तुमको इस धरती पर इस लिए भेजा है कि तुम इसे सजाओ और सँवारो, आने वाले बन्दों के लिए, यहाँ तक कि धरती के हर बाशिदों के लिए. इनसे नफरत करना गुनाह है, इन बन्दों और बाशिदों की खैर ही तुम्हारी इबादत होगी. इनकी बक़ा ही तुम्हारी नस्लों के हक में होगा.
नमाज़ियो !
मुहम्मद की सोहबत में मुसलमान होकर रहने से बेहतर था की इंसान आलम-ए-कुफ्र में रहता. मुहम्मद हर मुसलमान के पीछे पड़े रहते थे, न खुद कभी इत्मीनान से बैठे और न अपनी उम्मत को चैन से बैठने दिया. इनके चमचे हर वक़्त इनके इशारे पर तलवार खींचे खड़े रहते थे " या रसूल्लिल्लाह ! हुक्म हो तो गर्दन उड़ा दूं"

आज भी मुसलमानों को अपनी आकबत पर खुद एतमादी नहीं है. वह हमेशा खुद को अल्लाह का मुजरिम और गुनाहगार ही माने रहता है. उसे अपने नेक आमाल पर कम और अल्लाह के करम पर ज्यादह भरोसा रहता है. मुहम्मद की दहकाई हुई क़यामत की आग ने मुसलामानों की शख्सियत कुशी कर राखी है. कुदरत की बख्शी हुई तरंग को मुसलमानों से इस्लाम ने छीन लिया है.
नमाज़ियो ! सजदे में जाकर मेरी बातों पर गौर करो, अगर तुम्हारी आँख खुले तो, सजदे से सर उठाकर अपनी नमाज़ की नियत को तोड़ दो और ज़िदगी की रानाइयों पर भी एक नज़र डालो. ज़िन्दगी जीने की चीज़ है, इसे मुहम्मदी जंजीरों से आज़ाद करो.  

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

No comments:

Post a Comment